title,content be-thikaane-hai-dil-e-gam-ghiin-thikaane-kii-kaho-firaq-gorakhpuri-ghazals," बे-ठिकाने है दिल-ए-ग़म-गीं ठिकाने की कहो शाम-ए-हिज्राँ दोस्तो कुछ इस के आने की कहो हाँ न पूछ इक गिरफ़्तार-ए-क़फ़स की ज़िंदगी हम-सफ़ीरान-ए-चमन कुछ आशियाने की कहो उड़ गया है मंज़िल-ए-दुश्वार में ग़म का समंद गेसू-ए-पुर-ए-पेच-ओ-ख़म के ताज़ियाने की कहो बात बनती और बातों से नज़र आती नहीं इस निगाह-ए-नाज़ की बातें बनाने की कहो दास्ताँ वो थी जिसे दिल बुझते बुझते कह गया शम-ए-बज़्म-ए-ज़िंदगी के झिलमिलाने की कहो कुछ दिल-ए-मरहूम की बातें करो ऐ अहल-ए-इल्म जिस से वीराने थे आबाद उस दिवाने की कहो दास्तान-ए-ज़िंदगी भी किस क़दर दिलचस्प है जो अज़ल से छिड़ गया है उस फ़साने की कहो ये फुसून-ए-नीम-ए-शब ये ख़्वाब-सामाँ ख़ामुशी सामरी फ़न आँख के जादू जगाने की कहो कोई क्या खाएगा यूँ सच्ची क़सम झूटी क़सम उस निगाह-ए-नाज़ की सौगंध खाने की कहो शाम ही से गोश-बर-आवाज़ है बज़्म-ए-सुख़न कुछ 'फ़िराक़' अपनी सुनाओ कुछ ज़माने की कहो " bahsen-chhidii-huii-hain-hayaat-o-mamaat-kii-firaq-gorakhpuri-ghazals," बहसें छिड़ी हुई हैं हयात-ओ-ममात की सौ बात बन गई है 'फ़िराक़' एक बात की साज़-नवा-ए-दर्द हिजाबात-ए-दहर में कितनी दुखी हुई हैं रगें काएनात की रख ली जिन्हों ने कशमकश-ए-ज़िंदगी की लाज बे-दर्दियाँ न पूछिए उन से हयात की यूँ फ़र्त-ए-बे-ख़ुदी से मोहब्बत में जान दे तुझ को भी कुछ ख़बर न हो इस वारदात की है इश्क़ उस तबस्सुम-ए-जाँ-बख़्श का शहीद रंगीनियाँ लिए है जो सुब्ह-ए-हयात की छेड़ा है दर्द-ए-इश्क़ ने तार-ए-रग-ए-अदम सूरत पकड़ चली हैं नवाएँ हयात की शाम-ए-अबद को जल्वा-ए-सुब्ह-ए-बहार दे रूदाद छेड़ ज़िंदगी-ए-बे-सबात की उस बज़्म-ए-बे-ख़ुदी में वजूद-ए-अदम कहाँ चलती नहीं है साँस हयात-ओ-ममात की सौ दर्द इक तबस्सुम-ए-पिन्हाँ में बंद हैं तस्वीर हूँ 'फ़िराक़' नशात-ए-हयात की " aaj-bhii-qaafila-e-ishq-ravaan-hai-ki-jo-thaa-firaq-gorakhpuri-ghazals," आज भी क़ाफ़िला-ए-इश्क़ रवाँ है कि जो था वही मील और वही संग-ए-निशाँ है कि जो था फिर तिरा ग़म वही रुस्वा-ए-जहाँ है कि जो था फिर फ़साना ब-हदीस-ए-दिगराँ है कि जो था मंज़िलें गर्द के मानिंद उड़ी जाती हैं वही अंदाज़-ए-जहान-ए-गुज़राँ है कि जो था ज़ुल्मत ओ नूर में कुछ भी न मोहब्बत को मिला आज तक एक धुँदलके का समाँ है कि जो था यूँ तो इस दौर में बे-कैफ़ सी है बज़्म-ए-हयात एक हंगामा सर-ए-रित्ल-ए-गिराँ है कि जो था लाख कर जौर-ओ-सितम लाख कर एहसान-ओ-करम तुझ पे ऐ दोस्त वही वहम-ओ-गुमाँ है कि जो था आज फिर इश्क़ दो-आलम से जुदा होता है आस्तीनों में लिए कौन-ओ-मकाँ है कि जो था इश्क़ अफ़्सुर्दा नहीं आज भी अफ़्सुर्दा बहुत वही कम कम असर-ए-सोज़-ए-निहाँ है कि जो था नज़र आ जाते हैं तुम को तो बहुत नाज़ुक बाल दिल मिरा क्या वही ऐ शीशा-गिराँ है कि जो था जान दे बैठे थे इक बार हवस वाले भी फिर वही मरहला-ए-सूद-ओ-ज़ियाँ है कि जो था आज भी सैद-गह-ए-इश्क़ में हुसन-ए-सफ़्फ़ाक लिए अबरू की लचकती सी कमाँ है कि जो था फिर तिरी चश्म-ए-सुख़न-संज ने छेड़ी कोई बात वही जादू है वही हुस्न-ए-बयाँ है कि जो था रात भर हुस्न पर आए भी गए सौ सौ रंग शाम से इश्क़ अभी तक निगराँ है कि जो था जो भी कर जौर-ओ-सितम जो भी कर एहसान-ओ-करम तुझ पे ऐ दोस्त वही वहम-ओ-गुमाँ है कि जो था आँख झपकी कि इधर ख़त्म हुआ रोज़-ए-विसाल फिर भी इस दिन पे क़यामत का गुमाँ है कि जो था क़ुर्ब ही कम है न दूरी ही ज़ियादा लेकिन आज वो रब्त का एहसास कहाँ है कि जो था तीरा-बख़्ती नहीं जाती दिल-ए-सोज़ाँ की 'फ़िराक़' शम्अ के सर पे वही आज धुआँ है कि जो था " tumhen-kyuunkar-bataaen-zindagii-ko-kyaa-samajhte-hain-firaq-gorakhpuri-ghazals," तुम्हें क्यूँकर बताएँ ज़िंदगी को क्या समझते हैं समझ लो साँस लेना ख़ुद-कुशी करना समझते हैं किसी बदमस्त को राज़-आश्ना सब का समझते हैं निगाह-ए-यार तुझ को क्या बताएँ क्या समझते हैं बस इतने पर हमें सब लोग दीवाना समझते हैं कि इस दुनिया को हम इक दूसरी दुनिया समझते हैं कहाँ का वस्ल तन्हाई ने शायद भेस बदला है तिरे दम भर के मिल जाने को हम भी क्या समझते हैं उमीदों में भी उन की एक शान-ए-बे-नियाज़ी है हर आसानी को जो दुश्वार हो जाना समझते हैं यही ज़िद है तो ख़ैर आँखें उठाते हैं हम उस जानिब मगर ऐ दिल हम इस में जान का खटका समझते हैं कहीं हों तेरे दीवाने ठहर जाएँ तो ज़िंदाँ है जिधर को मुँह उठा कर चल पड़े सहरा समझते हैं जहाँ की फितरत-ए-बेगाना में जो कैफ़-ए-ग़म भर दें वही जीना समझते हैं वही मरना समझते हैं हमारा ज़िक्र क्या हम को तो होश आया मोहब्बत में मगर हम क़ैस का दीवाना हो जाना समझते हैं न शोख़ी शोख़ है इतनी न पुरकार इतनी पुरकारी न जाने लोग तेरी सादगी को क्या समझते हैं भुला दीं एक मुद्दत की जफ़ाएँ उस ने ये कह कर तुझे अपना समझते थे तुझे अपना समझते हैं ये कह कर आबला-पा रौंदते जाते हैं काँटों को जिसे तलवों में कर लें जज़्ब उसे सहरा समझते हैं ये हस्ती नीस्ती सब मौज-ख़ेज़ी है मोहब्बत की न हम क़तरा समझते हैं न हम दरिया समझते हैं 'फ़िराक़' इस गर्दिश-ए-अय्याम से कब काम निकला है सहर होने को भी हम रात कट जाना समझते हैं " tez-ehsaas-e-khudii-darkaar-hai-firaq-gorakhpuri-ghazals," तेज़ एहसास-ए-ख़ुदी दरकार है ज़िंदगी को ज़िंदगी दरकार है जो चढ़ा जाए ख़ुमिस्तान-ए-जहाँ हाँ वही लब-तिश्नगी दरकार है देवताओं का ख़ुदा से होगा काम आदमी को आदमी दरकार है सौ गुलिस्ताँ जिस उदासी पर निसार मुझ को वो अफ़्सुर्दगी दरकार है शाएरी है सर-बसर तहज़ीब-ए-क़ल्ब उस को ग़म शाइस्तगी दरकार है शो'ला में लाता है जो सोज़-ओ-गुदाज़ वो ख़ुलूस-ए-बातनी दरकार है ख़ूबी-ए-लफ़्ज़-ओ-बयाँ से कुछ सिवा शाएरी को साहिरी दरकार है क़ादिर-ए-मुतलक़ को भी इंसान की सुनते हैं बे-चारगी दरकार है और होंगे तालिब-ए-मदह-ए-जहाँ मुझ को बस तेरी ख़ुशी दरकार है अक़्ल में यूँ तो नहीं कोई कमी इक ज़रा दीवानगी दरकार है होश वालों को भी मेरी राय में एक गूना बे-ख़ुदी दरकार है ख़तरा-ए-बिस्यार-दानी की क़सम इल्म में भी कुछ कमी दरकार है दोस्तो काफ़ी नहीं चश्म-ए-ख़िरद इश्क़ को भी रौशनी दरकार है मेरी ग़ज़लों में हक़ाएक़ हैं फ़क़त आप को तो शाएरी दरकार है तेरे पास आया हूँ कहने एक बात मुझ को तेरी दोस्ती दरकार है मैं जफ़ाओं का न करता यूँ गिला आज तेरी ना-ख़ुशी दरकार है उस की ज़ुल्फ़ आरास्ता-पैरास्ता इक ज़रा सी बरहमी दरकार है ज़िंदा-दिल था ताज़ा-दम था हिज्र में आज मुझ को बे-दिली दरकार है हल्क़ा हल्क़ा गेसु-ए-शब रंग-ए-यार मुझ को तेरी अबतरी दरकार है अक़्ल ने कल मेरे कानों में कहा मुझ को तेरी ज़िंदगी दरकार है तेज़-रौ तहज़ीब-ए-आलम को 'फ़िराक़' इक ज़रा आहिस्तगी दरकार है " tuur-thaa-kaaba-thaa-dil-thaa-jalva-zaar-e-yaar-thaa-firaq-gorakhpuri-ghazals," तूर था का'बा था दिल था जल्वा-ज़ार-ए-यार था इश्क़ सब कुछ था मगर फिर आलम-ए-असरार था नश्शा-ए-सद-जाम कैफ़-ए-इंतिज़ार-ए-यार था हिज्र में ठहरा हुआ दिल साग़र-ए-सरशार था अलविदा'अ ऐ बज़्म-ए-अंजुम हिज्र की शब अल-फ़िराक़ ता-बा-ए-दौर-ए-ज़िंदगानी इंतिज़ार-ए-यार था एक अदा से बे-नियाज़-ए-क़ुर्ब-ओ-दूरी कर दिया मावरा-ए-वस्ल-ओ-हिज्राँ हुस्न का इक़रार था जौहर-ए-आईना-ए-आलम बने आँसू मिरे यूँ तो सच ये है कि रोना इश्क़ में बेकार था शोख़ी-ए-रफ़्तार वज्ह-ए-हस्ती-ए-बर्बाद थी ज़िंदगी क्या थी ग़ुबार-ए-रहगुज़ार-ए-यार था उल्फ़त-ए-देरीना का जब ज़िक्र इशारों में किया मुस्कुरा कर मुझ से पूछा तुम को किस से प्यार था दिल-दुखे रोए हैं शायद इस जगह ऐ कू-ए-दोस्त ख़ाक का इतना चमक जाना ज़रा दुश्वार था ज़र्रा ज़र्रा आइना था ख़ुद-नुमाई का 'फ़िराक़' सर-ब-सर सहरा-ए-आलम जल्वा-ज़ार-ए-यार था " ik-roz-hue-the-kuchh-ishaaraat-khafii-se-firaq-gorakhpuri-ghazals," इक रोज़ हुए थे कुछ इशारात ख़फ़ी से आशिक़ हैं हम उस नर्गिस-ए-राना के जभी से करने को हैं दूर आज तो तौ ये रोग ही जी से अब रक्खेंगे हम प्यार न तुम से न किसी से अहबाब से रखता हूँ कुछ उम्मीद-ए-शराफ़त रहते हैं ख़फ़ा मुझ से बहुत लोग इसी से कहता हूँ उसे मैं तो ख़ुसूसिय्यत-ए-पिन्हाँ कुछ तुम को शिकायत है कसी से तो मुझी से अशआ'र नहीं हैं ये मिरी रूह की है प्यास जारी हुए सर-चश्मे मिरी तिश्ना-लबी से आँसू को मिरे खेल तमाशा न समझना कट जाता है पत्थर इसी हीरे की कनी से याद-ए-लब-ए-जानाँ है चराग़-ए-दिल-ए-रंजूर रौशन है ये घर आज उसी लाल-ए-यमनी से अफ़्लाक की मेहराब है आई हुई अंगड़ाई बे-कैफ़ कुछ आफ़ाक़ की आज़ा-शिकनी से कुछ ज़ेर-ए-लब अल्फ़ाज़ खनकते हैं फ़ज़ा में गूँजी हुई है बज़्म तिरी कम-सुख़नी से आज अंजुमन-ए-इश्क़ नहीं अंजुमन-ए-इश्क़ किस दर्जा कमी बज़्म में है तेरी कमी से इस वादी-ए-वीराँ में है सर-चश्मा-ए-दिल भी हस्ती मिरी सैराब है आँखों की नमी से ख़ुद मुझ को भी ता-देर ख़बर हो नहीं पाई आज आई तिरी याद इस आहिस्ता-रवी से वो ढूँढने निकली है तिरी निकहत-ए-गेसू इक रोज़ मिला था मैं नसीम-ए-सहरी से सब कुछ वो दिला दे मुझे सब कुछ वो बना दे ऐ दोस्त नहीं दूर तिरी कम-निगही से मीआ'द-ए-दवाम-ओ-अबद इक नींद है उस की हम मुंतही-ए-जल्वा-ए-जानाँ हैं अभी से इक दिल के सिवा पास हमारे नहीं कुछ भी जो काम हो ले लेते हैं हम लोग इसी से मालूम हुआ और है इक आलम-ए-असरार आईना-ए-हस्ती की परेशाँ-नज़री से इस से तो कहीं बैठ रहे तोड़ के अब पावँ मिल जाए नजात इश्क़ को इस दर-ब-दरी से रहता हूँ 'फ़िराक़' इस लिए वारफ़्ता कि दुनिया कुछ होश में आ जाए मिरी बे-ख़बरी से " zindagii-dard-kii-kahaanii-hai-firaq-gorakhpuri-ghazals," ज़िंदगी दर्द की कहानी है चश्म-ए-अंजुम में भी तो पानी है बे-नियाज़ाना सुन लिया ग़म-ए-दिल मेहरबानी है मेहरबानी है वो भला मेरी बात क्या माने उस ने अपनी भी बात मानी है शोला-ए-दिल है ये कि शोला-साज़ या तिरा शोला-ए-जवानी है वो कभी रंग वो कभी ख़ुशबू गाह गुल गाह रात-रानी है बन के मासूम सब को ताड़ गई आँख उस की बड़ी सियानी है आप-बीती कहो कि जग-बीती हर कहानी मिरी कहानी है दोनों आलम हैं जिस के ज़ेर-ए-नगीं दिल उसी ग़म की राजधानी है हम तो ख़ुश हैं तिरी जफ़ा पर भी बे-सबब तेरी सरगिरानी है सर-ब-सर ये फ़राज़-ए-मह्र-ओ-क़मर तेरी उठती हुई जवानी है आज भी सुन रहे हैं क़िस्सा-ए-इश्क़ गो कहानी बहुत पुरानी है ज़ब्त कीजे तो दिल है अँगारा और अगर रोइए तो पानी है है ठिकाना ये दर ही उस का भी दिल भी तेरा ही आस्तानी है उन से ऐसे में जो न हो जाए नौ-जवानी है नौ-जवानी है दिल मिरा और ये ग़म-ए-दुनिया क्या तिरे ग़म की पासबानी है गर्दिश-ए-चश्म-ए-साक़ी-ए-दौराँ दौर-ए-अफ़लाक की भी पानी है ऐ लब-ए-नाज़ क्या हैं वो असरार ख़ामुशी जिन की तर्जुमानी है मय-कदों के भी होश उड़ने लगे क्या तिरी आँख की जवानी है ख़ुद-कुशी पर है आज आमादा अरे दुनिया बड़ी दिवानी है कोई इज़हार-ए-ना-ख़ुशी भी नहीं बद-गुमानी सी बद-गुमानी है मुझ से कहता था कल फ़रिश्ता-ए-इश्क़ ज़िंदगी हिज्र की कहानी है बहर-ए-हस्ती भी जिस में खो जाए बूँद में भी वो बे-करानी है मिल गए ख़ाक में तिरे उश्शाक़ ये भी इक अम्र-ए-आसमानी है ज़िंदगी इंतिज़ार है तेरा हम ने इक बात आज जानी है क्यूँ न हो ग़म से ही क़िमाश उस का हुस्न तसवीर-ए-शादमानी है सूनी दुनिया में अब तो मैं हूँ और मातम-ए-इश्क़-ए-आँ-जहानी है कुछ न पूछो 'फ़िराक़' अहद-ए-शबाब रात है नींद है कहानी है " sitaaron-se-ulajhtaa-jaa-rahaa-huun-firaq-gorakhpuri-ghazals," सितारों से उलझता जा रहा हूँ शब-ए-फ़ुर्क़त बहुत घबरा रहा हूँ तिरे ग़म को भी कुछ बहला रहा हूँ जहाँ को भी समझता जा रहा हूँ यक़ीं ये है हक़ीक़त खुल रही है गुमाँ ये है कि धोके खा रहा हूँ अगर मुमकिन हो ले ले अपनी आहट ख़बर दो हुस्न को मैं आ रहा हूँ हदें हुस्न-ओ-मोहब्बत की मिला कर क़यामत पर क़यामत ढा रहा हूँ ख़बर है तुझ को ऐ ज़ब्त-ए-मोहब्बत तिरे हाथों में लुटता जा रहा हूँ असर भी ले रहा हूँ तेरी चुप का तुझे क़ाइल भी करता जा रहा हूँ भरम तेरे सितम का खुल चुका है मैं तुझ से आज क्यूँ शरमा रहा हूँ उन्हीं में राज़ हैं गुल-बारियों के मैं जो चिंगारियाँ बरसा रहा हूँ जो उन मा'सूम आँखों ने दिए थे वो धोके आज तक मैं खा रहा हूँ तिरे पहलू में क्यूँ होता है महसूस कि तुझ से दूर होता जा रहा हूँ हद-ए-जोर-ओ-करम से बढ़ चला हुस्न निगाह-ए-यार को याद आ रहा हूँ जो उलझी थी कभी आदम के हाथों वो गुत्थी आज तक सुलझा रहा हूँ मोहब्बत अब मोहब्बत हो चली है तुझे कुछ भूलता सा जा रहा हूँ अजल भी जिन को सुन कर झूमती है वो नग़्मे ज़िंदगी के गा रहा हूँ ये सन्नाटा है मेरे पाँव की चाप 'फ़िराक़' अपनी कुछ आहट पा रहा हूँ " nigaah-e-naaz-ne-parde-uthaae-hain-kyaa-kyaa-firaq-gorakhpuri-ghazals," निगाह-ए-नाज़ ने पर्दे उठाए हैं क्या क्या हिजाब अहल-ए-मोहब्बत को आए हैं क्या क्या जहाँ में थी बस इक अफ़्वाह तेरे जल्वों की चराग़-ए-दैर-ओ-हरम झिलमिलाए हैं क्या क्या दो-चार बर्क़-ए-तजल्ली से रहने वालों ने फ़रेब नर्म-निगाही के खाए हैं क्या क्या दिलों पे करते हुए आज आती जाती चोट तिरी निगाह ने पहलू बचाए हैं क्या क्या निसार नर्गिस-ए-मय-गूँ कि आज पैमाने लबों तक आए हुए थरथराए हैं क्या क्या वो इक ज़रा सी झलक बर्क़-ए-कम-निगाही की जिगर के ज़ख़्म-ए-निहाँ मुस्कुराए हैं क्या क्या चराग़-ए-तूर जले आइना-दर-आईना हिजाब बर्क़-ए-अदा ने उठाए हैं क्या क्या ब-क़द्र-ए-ज़ौक़-ए-नज़र दीद-ए-हुस्न क्या हो मगर निगाह-ए-शौक़ में जल्वे समाए हैं क्या क्या कहीं चराग़ कहीं गुल कहीं दिल-ए-बर्बाद ख़िराम-ए-नाज़ ने फ़ित्ने उठाए हैं क्या क्या तग़ाफ़ुल और बढ़ा उस ग़ज़ाल-ए-रअना का फ़ुसून-ए-ग़म ने भी जादू जगाए हैं क्या क्या हज़ार फ़ित्ना-ए-बेदार ख़्वाब-ए-रंगीं में चमन में ग़ुंचा-ए-गुल-रंग लाए हैं क्या क्या तिरे ख़ुलूस-ए-निहाँ का तो आह क्या कहना सुलूक उचटटे भी दिल में समाए हैं क्या क्या नज़र बचा के तिरे इश्वा-हा-ए-पिन्हाँ ने दिलों में दर्द-ए-मोहब्बत उठाए हैं क्या क्या पयाम-ए-हुस्न पयाम-ए-जुनूँ पयाम-ए-फ़ना तिरी निगह ने फ़साने सुनाए हैं क्या क्या तमाम हुस्न के जल्वे तमाम महरूमी भरम निगाह ने अपने गँवाए हैं क्या क्या 'फ़िराक़' राह-ए-वफ़ा में सुबुक-रवी तेरी बड़े-बड़ों के क़दम डगमगाए हैं क्या क्या " kisii-kaa-yuun-to-huaa-kaun-umr-bhar-phir-bhii-firaq-gorakhpuri-ghazals," किसी का यूँ तो हुआ कौन उम्र भर फिर भी ये हुस्न ओ इश्क़ तो धोका है सब मगर फिर भी हज़ार बार ज़माना इधर से गुज़रा है नई नई सी है कुछ तेरी रहगुज़र फिर भी कहूँ ये कैसे इधर देख या न देख उधर कि दर्द दर्द है फिर भी नज़र नज़र फिर भी ख़ुशा इशारा-ए-पैहम ज़हे सुकूत-ए-नज़र दराज़ हो के फ़साना है मुख़्तसर फिर भी झपक रही हैं ज़मान ओ मकाँ की भी आँखें मगर है क़ाफ़िला आमादा-ए-सफ़र फिर भी शब-ए-फ़िराक़ से आगे है आज मेरी नज़र कि कट ही जाएगी ये शाम-ए-बे-सहर फिर भी कहीं यही तो नहीं काशिफ़-ए-हयात-ओ-ममात ये हुस्न ओ इश्क़ ब-ज़ाहिर हैं बे-ख़बर फिर भी पलट रहे हैं ग़रीब-उल-वतन पलटना था वो कूचा रू-कश-ए-जन्नत हो घर है घर फिर भी लुटा हुआ चमन-ए-इश्क़ है निगाहों को दिखा गया वही क्या क्या गुल ओ समर फिर भी ख़राब हो के भी सोचा किए तिरे महजूर यही कि तेरी नज़र है तिरी नज़र फिर भी हो बे-नियाज़-ए-असर भी कभी तिरी मिट्टी वो कीमिया ही सही रह गई कसर फिर भी लिपट गया तिरा दीवाना गरचे मंज़िल से उड़ी उड़ी सी है ये ख़ाक-ए-रहगुज़र फिर भी तिरी निगाह से बचने में उम्र गुज़री है उतर गया रग-ए-जाँ में ये नेश्तर फिर भी ग़म-ए-फ़िराक़ के कुश्तों का हश्र क्या होगा ये शाम-ए-हिज्र तो हो जाएगी सहर फिर भी फ़ना भी हो के गिराँ-बारी-ए-हयात न पूछ उठाए उठ नहीं सकता ये दर्द-ए-सर फिर भी सितम के रंग हैं हर इल्तिफ़ात-ए-पिन्हाँ में करम-नुमा हैं तिरे जौर सर-ब-सर फिर भी ख़ता-मुआफ़ तिरा अफ़्व भी है मिस्ल-ए-सज़ा तिरी सज़ा में है इक शान-ए-दर-गुज़र फिर भी अगरचे बे-ख़ुदी-ए-इश्क़ को ज़माना हुआ 'फ़िराक़' करती रही काम वो नज़र फिर भी " junuun-e-kaargar-hai-aur-main-huun-firaq-gorakhpuri-ghazals," जुनून-ए-कारगर है और मैं हूँ हयात-ए-बे-ख़बर है और मैं हूँ मिटा कर दिल निगाह-ए-अव्वलीं से तक़ाज़ा-ए-दिगर है और मैं हूँ कहाँ मैं आ गया ऐ ज़ोर-ए-परवाज़ वबाल-ए-बाल-ओ-पर है और मैं हूँ निगाह-ए-अव्वलीं से हो के बर्बाद तक़ाज़ा-ए-दिगर है और मैं हूँ मुबारकबाद अय्याम-ए-असीरी ग़म-ए-दीवार-ओ-दर है और मैं हूँ तिरी जमइय्यतें हैं और तू है हयात-ए-मुंतशर है और मैं हूँ कोई हो सुस्त-पैमाँ भी तो यूँ हो ये शाम-ए-बे-सहर है और मैं हूँ निगाह-ए-बे-महाबा तेरे सदक़े कई टुकड़े जिगर है और मैं हूँ ठिकाना है कुछ इस उज़्र-ए-सितम का तिरी नीची नज़र है और मैं हूँ 'फ़िराक़' इक एक हसरत मिट रही है ये मातम रात भर है और मैं हूँ " narm-fazaa-kii-karvaten-dil-ko-dukhaa-ke-rah-gaiin-firaq-gorakhpuri-ghazals," नर्म फ़ज़ा की करवटें दिल को दुखा के रह गईं ठंडी हवाएँ भी तिरी याद दिला के रह गईं शाम भी थी धुआँ धुआँ हुस्न भी था उदास उदास दिल को कई कहानियाँ याद सी आ के रह गईं मुझ को ख़राब कर गईं नीम-निगाहियाँ तिरी मुझ से हयात ओ मौत भी आँखें चुरा के रह गईं हुस्न-ए-नज़र-फ़रेब में किस को कलाम था मगर तेरी अदाएँ आज तो दिल में समा के रह गईं तब कहीं कुछ पता चला सिद्क़-ओ-ख़ुलूस-ए-हुस्न का जब वो निगाहें इश्क़ से बातें बना के रह गईं तेरे ख़िराम-ए-नाज़ से आज वहाँ चमन खिले फ़सलें बहार की जहाँ ख़ाक उड़ा के रह गईं पूछ न उन निगाहों की तुर्फ़ा करिश्मा-साज़ियाँ फ़ित्ने सुला के रह गईं फ़ित्ने जगा के रह गईं तारों की आँख भी भर आई मेरी सदा-ए-दर्द पर उन की निगाहें भी तिरा नाम बता के रह गईं उफ़ ये ज़मीं की गर्दिशें आह ये ग़म की ठोकरें ये भी तो बख़्त-ए-ख़ुफ़्ता के शाने हिला के रह गईं और तो अहल-ए-दर्द कौन सँभालता भला हाँ तेरी शादमानियाँ उन को रुला के रह गईं याद कुछ आईं इस तरह भूली हुई कहानियाँ खोए हुए दिलों में आज दर्द उठा के रह गईं साज़-ए-नशात-ए-ज़िंदगी आज लरज़ लरज़ उठा किस की निगाहें इश्क़ का दर्द सुना के रह गईं तुम नहीं आए और रात रह गई राह देखती तारों की महफ़िलें भी आज आँखें बिछा के रह गईं झूम के फिर चलीं हवाएँ वज्द में आईं फिर फ़ज़ाएँ फिर तिरी याद की घटाएँ सीनों पे छा के रह गईं क़ल्ब ओ निगाह की ये ईद उफ़ ये मआल-ए-क़ुर्ब-ओ-दीद चर्ख़ की गर्दिशें तुझे मुझ से छुपा के रह गईं फिर हैं वही उदासियाँ फिर वही सूनी काएनात अहल-ए-तरब की महफ़िलें रंग जमा के रह गईं कौन सुकून दे सका ग़म-ज़दगान-ए-इश्क़ को भीगती रातें भी 'फ़िराक़' आग लगा के रह गईं " mai-kade-men-aaj-ik-duniyaa-ko-izn-e-aam-thaa-firaq-gorakhpuri-ghazals," मय-कदे में आज इक दुनिया को इज़्न-ए-आम था दौर-ए-जाम-ए-बे-ख़ुदी बेगाना-ए-अय्याम था रूह लर्ज़ां आँख महव-ए-दीद दिल नाकाम था इश्क़ का आग़ाज़ भी शाइस्ता-ए-अंजाम था रफ़्ता रफ़्ता इश्क़ को तस्वीर-ए-ग़म कर ही दिया हुस्न भी कितना ख़राब-ए-गर्दिश-ए-अय्याम था ग़म-कदे में दहर के यूँ तो अँधेरा था मगर इश्क़ का दाग़-ए-सियह-बख़्ती चराग़-ए-शाम था तेरी दुज़दीदा-निगाही यूँ तो ना-महसूस थी हाँ मगर दफ़्तर का दफ़्तर हुस्न का पैग़ाम था शाक़ अहल-ए-शौक़ पर थीं उस की इस्मत-दारियाँ सच है लेकिन हुस्न दर-पर्दा बहुत बद-नाम था महव थे गुल्ज़ार-ए-रंगा-रंग के नक़्श-ओ-निगार वहशतें थी दिल के सन्नाटे थे दश्त-ए-शाम था बे-ख़ता था हुस्न हर जौर-ओ-जफ़ा के बा'द भी इश्क़ के सर ता-अबद इल्ज़ाम ही इल्ज़ाम था यूँ गरेबाँ-चाक दुनिया में नहीं होता कोई हर खुला गुलशन शहीद-ए-गर्दिश-ए-अय्याम था देख हुस्न-ए-शर्मगीं दर-पर्दा क्या लाया है रंग इश्क़ रुस्वा-ए-जहाँ बदनाम ही बदनाम था रौनक़-ए-बज़्म-ए-जहाँ था गो दिल-ए-ग़म-गीं 'फ़िराक़' सर्द था अफ़्सुर्दा था महरूम था नाकाम था " chhalak-ke-kam-na-ho-aisii-koii-sharaab-nahiin-firaq-gorakhpuri-ghazals," छलक के कम न हो ऐसी कोई शराब नहीं निगाह-ए-नर्गिस-ए-राना तिरा जवाब नहीं ज़मीन जाग रही है कि इंक़लाब है कल वो रात है कोई ज़र्रा भी महव-ए-ख़्वाब नहीं हयात-ए-दर्द हुई जा रही है क्या होगा अब इस नज़र की दुआएँ भी मुस्तजाब नहीं ज़मीन उस की फ़लक उस का काएनात उस की कुछ ऐसा इश्क़ तिरा ख़ानुमाँ-ख़राब नहीं अभी कुछ और हो इंसान का लहू पानी अभी हयात के चेहरे पर आब-ओ-ताब नहीं जहाँ के बाब में तर दामनों का क़ौल ये है ये मौज मारता दरिया कोई सराब नहीं दिखा तो देती है बेहतर हयात के सपने ख़राब हो के भी ये ज़िंदगी ख़राब नहीं " ye-narm-narm-havaa-jhilmilaa-rahe-hain-charaag-firaq-gorakhpuri-ghazals," ये नर्म नर्म हवा झिलमिला रहे हैं चराग़ तिरे ख़याल की ख़ुशबू से बस रहे हैं दिमाग़ दिलों को तेरे तबस्सुम की याद यूँ आई कि जगमगा उठें जिस तरह मंदिरों में चराग़ झलकती है खिंची शमशीर में नई दुनिया हयात ओ मौत के मिलते नहीं हैं आज दिमाग़ हरीफ़-ए-सीना-ए-मजरूह ओ आतिश-ए-ग़म-ए-इश्क़ न गुल की चाक-गरेबानियाँ न लाले के दाग़ वो जिन के हाल में लौ दे उठे ग़म-ए-फ़र्दा वही हैं अंजुमन-ए-ज़िंदगी के चश्म-ओ-चराग़ तमाम शो'ला-ए-गुल है तमाम मौज-ए-बहार कि ता-हद-ए-निगह-ए-शौक़ लहलहाते हैं बाग़ नई ज़मीन नया आसमाँ नई दुनिया सुना तो है कि मोहब्बत को इन दिनों है फ़राग़ जो तोहमतें न उठीं इक जहाँ से उन के समेत गुनाहगार-ए-मोहब्बत निकल गए बे-दाग़ जो छुप के तारों की आँखों से पाँव धरता है उसी के नक़्श-ए-कफ़-ए-पा से जल उठे हैं चराग़ जहान-ए-राज़ हुई जा रही है आँख तिरी कुछ इस तरह वो दिलों का लगा रही है सुराग़ ज़माना कूद पड़ा आग में यही कह कर कि ख़ून चाट के हो जाएगी ये आग भी बाग़ निगाहें मतला-ए-नौ पर हैं एक आलम की कि मिल रहा है किसी फूटती किरन का सुराग़ दिलों में दाग़-ए-मोहब्बत का अब ये आलम है कि जैसे नींद में डूबे हों पिछली रात चराग़ 'फ़िराक़' बज़्म-ए-चराग़ाँ है महफ़िल-ए-रिंदाँ सजे हैं पिघली हुई आग से छलकते अयाग़ " haath-aae-to-vahii-daaman-e-jaanaan-ho-jaae-firaq-gorakhpuri-ghazals," हाथ आए तो वही दामन-ए-जानाँ हो जाए छूट जाए तो वही अपना गरेबाँ हो जाए इश्क़ अब भी है वो महरम-ए-बे-गाना-नुमा हुस्न यूँ लाख छुपे लाख नुमायाँ हो जाए होश-ओ-ग़फ़लत से बहुत दूर है कैफ़िय्यत-ए-इश्क़ उस की हर बे-ख़बरी मंज़िल-ए-इरफ़ाँ हो जाए याद आती है जब अपनी तो तड़प जाता हूँ मेरी हस्ती तिरा भूला हवा पैमाँ हो जाए आँख वो है जो तिरी जल्वा-गह-ए-नाज़ बने दिल वही है जो सरापा तिरा अरमाँ हो जाए पाक-बाज़ान-ए-मोहब्बत में जो बेबाकी है हुस्न गर उस को समझ ले तो पशेमाँ हो जाए सहल हो कर हुइ दुश्वार मोहब्बत तेरी उसे मुश्किल जो बना लें तो कुछ आसाँ हो जाए इश्क़ फिर इश्क़ है जिस रूप में जिस भेस में हो इशरत-ए-वस्ल बने या ग़म-ए-हिज्राँ हो जाए कुछ मुदावा भी हो मजरूह दिलों का ऐ दोस्त मरहम-ए-ज़ख़्म तिरा जौर-पशेमाँ हो जाए ये भी सच है कोई उल्फ़त में परेशाँ क्यूँ हो ये भी सच है कोई क्यूँकर न परेशाँ हो जाए इश्क़ को अर्ज़-ए-तमन्ना में भी लाखों पस-ओ-पेश हुस्न के वास्ते इंकार भी आसाँ हो जाए झिलमिलाती है सर-ए-बज़्म-ए-जहाँ शम-ए-ख़ुदी जो ये बुझ जाए चराग़-ए-रह-ए-इरफाँ हो जाए सर-ए-शोरीदा दिया दश्त-ओ-बयाबाँ भी दिए ये मिरी ख़ूबी-ए-क़िस्मत कि वो ज़िंदाँ हो जाए उक़्दा-ए-इश्क़ अजब उक़्दा-ए-मोहमल है 'फ़िराक़' कभी ला-हल कभी मुश्किल कभी आसाँ हो जाए " ras-men-duubaa-huaa-lahraataa-badan-kyaa-kahnaa-firaq-gorakhpuri-ghazals," रस में डूबा हुआ लहराता बदन क्या कहना करवटें लेती हुई सुब्ह-ए-चमन क्या कहना निगह-ए-नाज़ में ये पिछले पहर रंग-ए-ख़ुमार नींद में डूबी हुई चंद्र-किरन क्या कहना बाग़-ए-जन्नत पे घटा जैसे बरस के खुल जाए ये सुहानी तिरी ख़ुशबू-ए-बदन क्या कहना ठहरी ठहरी सी निगाहों में ये वहशत की किरन चौंके चौंके से ये आहू-ए-ख़ुतन क्या कहना रूप संगीत ने धारा है बदन का ये रचाव तुझ पे लहलूट है बे-साख़्ता-पन क्या कहना जैसे लहराए कोई शो'ला-कमर की ये लचक सर-ब-सर आतिश-ए-सय्याल बदन क्या कहना जिस तरह जल्वा-ए-फ़िर्दोस हवाओं से छिने पैरहन में तिरे रंगीनी-ए-तन क्या कहना जल्वा-ओ-पर्दे का ये रंग दम-ए-नज़्ज़ारा जिस तरह अध-खुले घुँघट में दुल्हन क्या कहना दम-ए-तक़रीर खिल उठते हैं गुलिस्ताँ क्या क्या यूँ तो इक ग़ुंचा-ए-नौरस है दहन क्या कहना दिल के आईने में इस तरह उतरती है निगाह जैसे पानी में लचक जाए किरन क्या कहना लहलहाता हुआ ये क़द ये लहकता जोबन ज़ुल्फ़ सो महकी हुई रातों का बन क्या कहना तू मोहब्बत का सितारा तो जवानी का सुहाग हुस्न लौ देता है लाल-ए-यमन क्या कहना तेरी आवाज़ सवेरा तिरी बातें तड़का आँखें खुल जाती हैं एजाज़-ए-सुख़न क्या कहना ज़ुल्फ़-ए-शब-गूँ की चमक पैकर-ए-सीमीं की दमक दीप-माला है सर-ए-गंग-ओ-जमन क्या कहना नीलगूँ शबनमी कपड़ों में बदन की ये जोत जैसे छनती हो सितारों की किरन क्या कहना " vaqt-e-guruub-aaj-karaamaat-ho-gaii-firaq-gorakhpuri-ghazals," वक़्त-ए-ग़ुरूब आज करामात हो गई ज़ुल्फ़ों को उस ने खोल दिया रात हो गई कल तक तो उस में ऐसी करामत न थी कोई वो आँख आज क़िबला-ए-हाजात हो गई ऐ सोज़-ए-इश्क़ तू ने मुझे क्या बना दिया मेरी हर एक साँस मुनाजात हो गई ओछी निगाह डाल के इक सम्त रख दिया दिल क्या दिया ग़रीब की सौग़ात हो गई कुछ याद आ गई थी वो ज़ुल्फ़-ए-शिकन-शिकन हस्ती तमाम चश्मा-ए-ज़ुल्मात हो गई अहल-ए-वतन से दूर जुदाई में यार की सब्र आ गया 'फ़िराक़' करामात हो गई " ab-aksar-chup-chup-se-rahen-hain-yuunhii-kabhuu-lab-kholen-hain-firaq-gorakhpuri-ghazals," अब अक्सर चुप चुप से रहें हैं यूँही कभू लब खोलें हैं पहले 'फ़िराक़' को देखा होता अब तो बहुत कम बोलें हैं दिन में हम को देखने वालो अपने अपने हैं औक़ात जाओ न तुम इन ख़ुश्क आँखों पर हम रातों को रो लें हैं फ़ितरत मेरी इश्क़-ओ-मोहब्बत क़िस्मत मेरी तंहाई कहने की नौबत ही न आई हम भी किसू के हो लें हैं ख़ुनुक सियह महके हुए साए फैल जाएँ हैं जल-थल पर किन जतनों से मेरी ग़ज़लें रात का जूड़ा खोलें हैं बाग़ में वो ख़्वाब-आवर आलम मौज-ए-सबा के इशारों पर डाली डाली नौरस पत्ते सहज सहज जब डोलें हैं उफ़ वो लबों पर मौज-ए-तबस्सुम जैसे करवटें लें कौंदे हाए वो आलम-ए-जुम्बिश-ए-मिज़्गाँ जब फ़ित्ने पर तौलें हैं नक़्श-ओ-निगार-ए-ग़ज़ल में जो तुम ये शादाबी पाओ हो हम अश्कों में काएनात के नोक-ए-क़लम को डुबो लें हैं इन रातों को हरीम-ए-नाज़ का इक आलम हुए है नदीम ख़ल्वत में वो नर्म उँगलियाँ बंद-ए-क़बा जब खोलें हैं ग़म का फ़साना सुनने वालो आख़िर-ए-शब आराम करो कल ये कहानी फिर छेड़ेंगे हम भी ज़रा अब सो लें हैं हम लोग अब तो अजनबी से हैं कुछ तो बताओ हाल-ए-'फ़िराक़' अब तो तुम्हीं को प्यार करें हैं अब तो तुम्हीं से बोलें हैं " mujh-ko-maaraa-hai-har-ik-dard-o-davaa-se-pahle-firaq-gorakhpuri-ghazals," मुझ को मारा है हर इक दर्द ओ दवा से पहले दी सज़ा इश्क़ ने हर जुर्म-ओ-ख़ता से पहले आतिश-ए-इश्क़ भड़कती है हवा से पहले होंट जुलते हैं मोहब्बत में दुआ से पहले फ़ित्ने बरपा हुए हर ग़ुंचा-ए-सर-बस्ता से खुल गया राज़-ए-चमन चाक-ए-क़बा से पहले चाल है बादा-ए-हस्ती का छलकता हुआ जाम हम कहाँ थे तिरे नक़्श-ए-कफ़-ए-पा से पहले अब कमी क्या है तिरे बे-सर-ओ-सामानों को कुछ न था तेरी क़सम तर्क-ए-वफ़ा से पहले इश्क़-ए-बेबाक को दा'वे थे बहुत ख़ल्वत में खो दिया सारा भरम शर्म-ओ-हया से पहले ख़ुद-बख़ुद चाक हुए पैरहन-ए-लाला-ओ-गुल चल गई कौन हवा बाद-ए-सबा से पहले हम-सफ़र राह-ए-अदम में न हो तारों-भरी रात हम पहुँच जाएँगे इस आबला-पा से पहले पर्दा-ए-शर्म में सद-बर्क़-ए-तबस्सुम के निसार होश जाते रहे नैरंग-ए-हया से पहले मौत के नाम से डरते थे हम ऐ शौक़-ए-हयात तू ने तो मार ही डाला था क़ज़ा से पहले बे-तकल्लुफ़ भी तिरा हुस्न-ए-ख़ुद-आरा था कभी इक अदा और भी थी हुस्न-ए-अदा से पहले ग़फ़लतें हस्ती-ए-फ़ानी की बता देंगी तुझे जो मिरा हाल था एहसास-ए-फ़ना से पहले हम उन्हें पा के 'फ़िराक़' और भी कुछ खोए गए ये तकल्लुफ़ तो न थे अहद-ए-वफ़ा से पहले " aankhon-men-jo-baat-ho-gaii-hai-firaq-gorakhpuri-ghazals," आँखों में जो बात हो गई है इक शरह-ए-हयात हो गई है जब दिल की वफ़ात हो गई है हर चीज़ की रात हो गई है ग़म से छुट कर ये ग़म है मुझ को क्यूँ ग़म से नजात हो गई है मुद्दत से ख़बर मिली न दिल की शायद कोई बात हो गई है जिस शय पे नज़र पड़ी है तेरी तस्वीर-ए-हयात हो गई है अब हो मुझे देखिए कहाँ सुब्ह उन ज़ुल्फ़ों में रात हो गई है दिल में तुझ से थी जो शिकायत अब ग़म के निकात हो गई है इक़रार-ए-गुनाह-ए-इश्क़ सुन लो मुझ से इक बात हो गई है जो चीज़ भी मुझ को हाथ आई तेरी सौग़ात हो गई है क्या जानिए मौत पहले क्या थी अब मेरी हयात हो गई है घटते घटते तिरी इनायत मेरी औक़ात हो गई है उस चश्म-ए-सियह की याद यकसर शाम-ए-ज़ुल्मात हो गई है इस दौर में ज़िंदगी बशर की बीमार की रात हो गई है जीती हुई बाज़ी-ए-मोहब्बत खेला हूँ तो मात हो गई है मिटने लगीं ज़िंदगी की क़द्रें जब ग़म से नजात हो गई है वो चाहें तो वक़्त भी बदल जाए जब आए हैं रात हो गई है दुनिया है कितनी बे-ठिकाना आशिक़ की बरात हो गई है पहले वो निगाह इक किरन थी अब बर्क़-सिफ़ात हो गई है जिस चीज़ को छू दिया है तू ने इक बर्ग-ए-नबात हो गई है इक्का-दुक्का सदा-ए-ज़ंजीर ज़िंदाँ में रात हो गई है एक एक सिफ़त 'फ़िराक़' उस की देखा है तो ज़ात हो गई है " ye-nikhaton-kii-narm-ravii-ye-havaa-ye-raat-firaq-gorakhpuri-ghazals," ये निकहतों की नर्म-रवी ये हवा ये रात याद आ रहे हैं इश्क़ को टूटे तअ'ल्लुक़ात मायूसियों की गोद में दम तोड़ता है इश्क़ अब भी कोई बना ले तो बिगड़ी नहीं है बात कुछ और भी तो हो इन इशारात के सिवा ये सब तो ऐ निगाह-ए-करम बात बात बात इक उम्र कट गई है तिरे इंतिज़ार में ऐसे भी हैं कि कट न सकी जिन से एक रात हम अहल-ए-इंतिज़ार के आहट पे कान थे ठंडी हवा थी ग़म था तिरा ढल चली थी रात यूँ तो बची बची सी उठी वो निगाह-ए-नाज़ दुनिया-ए-दिल में हो ही गई कोई वारदात जिन का सुराग़ पा न सकी ग़म की रूह भी नादाँ हुए हैं इश्क़ में ऐसे भी सानेहात हर सई ओ हर अमल में मोहब्बत का हाथ है तामीर-ए-ज़िंदगी के समझ कुछ मुहर्रिकात उस जा तिरी निगाह मुझे ले गई जहाँ लेती हो जैसे साँस ये बे-जान काएनात क्या नींद आए उस को जिसे जागना न आए जो दिन को दिन करे वो करे रात को भी रात दरिया के मद्द-ओ-जज़्र भी पानी के खेल हैं हस्ती ही के करिश्मे हैं क्या मौत क्या हयात अहल-ए-रज़ा में शान-ए-बग़ावत भी हो ज़रा इतनी भी ज़िंदगी न हो पाबंद-ए-रस्मियात हम अहल-ए-ग़म ने रंग-ए-ज़माना बदल दिया कोशिश तो की सभी ने मगर बन पड़े की बात पैदा करे ज़मीन नई आसमाँ नया इतना तो ले कोई असर-ए-दौर-काएनात शाइ'र हूँ गहरी नींद में हैं जो हक़ीक़तें चौंका रहे हैं उन को भी मेरे तवहहुमात मुझ को तो ग़म ने फ़ुर्सत-ए-ग़म भी न दी 'फ़िराक़' दे फ़ुर्सत-ए-हयात न जैसे ग़म-ए-हयात " aaii-hai-kuchh-na-puuchh-qayaamat-kahaan-kahaan-firaq-gorakhpuri-ghazals," आई है कुछ न पूछ क़यामत कहाँ कहाँ उफ़ ले गई है मुझ को मोहब्बत कहाँ कहाँ बेताबी-ओ-सुकूँ की हुईं मंज़िलें तमाम बहलाएँ तुझ से छुट के तबीअ'त कहाँ कहाँ फ़ुर्क़त हो या विसाल वही इज़्तिराब है तेरा असर है ऐ ग़म-ए-फ़ुर्क़त कहाँ कहाँ हर जुम्बिश-ए-निगाह में सद-कैफ़ बे-ख़ुदी भरती फिरेगी हुस्न की निय्यत कहाँ कहाँ राह-ए-तलब में छोड़ दिया दिल का साथ भी फिरते लिए हुए ये मुसीबत कहाँ कहाँ दिल के उफ़क़ तक अब तो हैं परछाइयाँ तिरी ले जाए अब तो देख ये वहशत कहाँ कहाँ ऐ नर्गिस-ए-सियाह बता दे तिरे निसार किस किस को है ये होश ये ग़फ़लत कहाँ कहाँ नैरंग-ए-इश्क़ की है कोई इंतिहा कि ये ये ग़म कहाँ कहाँ ये मसर्रत कहाँ कहाँ बेगानगी पर उस की ज़माने से एहतिराज़ दर-पर्दा उस अदा की शिकायत कहाँ कहाँ फ़र्क़ आ गया था दौर-ए-हयात-ओ-ममात में आई है आज याद वो सूरत कहाँ कहाँ जैसे फ़ना बक़ा में भी कोई कमी सी हो मुझ को पड़ी है तेरी ज़रूरत कहाँ कहाँ दुनिया से ऐ दल इतनी तबीअ'त भरी न थी तेरे लिए उठाई नदामत कहाँ कहाँ अब इम्तियाज़-ए-इश्क़-ओ-हवस भी नहीं रहा होती है तेरी चश्म-ए-इनायत कहाँ कहाँ हर गाम पर तरीक़-ए-मोहब्बत में मौत थी इस राह में खुले दर-ए-रहमत कहाँ कहाँ होश-ओ-जुनूँ भी अब तो बस इक बात हैं 'फ़िराक़' होती है उस नज़र की शरारत कहाँ कहाँ " kuchh-na-kuchh-ishq-kii-taasiir-kaa-iqraar-to-hai-firaq-gorakhpuri-ghazals," कुछ न कुछ इश्क़ की तासीर का इक़रार तो है उस का इल्ज़ाम-ए-तग़ाफ़ुल पे कुछ इंकार तो है हर फ़रेब-ए-ग़म-ए-दुनिया से ख़बर-दार तो है तेरा दीवाना किसी काम में हुश्यार तो है देख लेते हैं सभी कुछ तिरे मुश्ताक़-ए-जमाल ख़ैर दीदार न हो हसरत-ए-दीदार तो है माअ'रके सर हों उसी बर्क़-ए-नज़र से ऐ हुस्न ये चमकती हुई चलती हुइ तलवार तो है सर पटकने को पटकता है मगर रुक रुक कर तेरे वहशी को ख़याल-ए-दर-ओ-दीवार तो है इश्क़ का शिकवा-ए-बेजा भी न बे-कार गया न सही जौर मगर जौर का इक़रार तो है तुझ से हिम्मत तो पड़ी इश्क़ को कुछ कहने की ख़ैर शिकवा न सही शुक्र का इज़हार तो है इस में भी राबता-ए-ख़ास की मिलती है झलक ख़ैर इक़रार-ए-मोहब्बत न हो इंकार तो है क्यूँ झपक जाती है रह रह के तिरी बर्क़-ए-निगाह ये झिजक किस लिए इक कुश्ता-ए-दीदार तो है कई उन्वान हैं मम्नून-ए-करम करने के इश्क़ में कुछ न सही ज़िंदगी बे-कार तो है सहर-ओ-शाम सर-ए-अंजुमन-ए-नाज़ न हो जल्वा-ए-हुस्न तो है इश्क़-ए-सियहकार तो है चौंक उठते हैं 'फ़िराक़' आते ही उस शोख़ का नाम कुछ सरासीमगी-ए-इश्क़ का इक़रार तो है " rukii-rukii-sii-shab-e-marg-khatm-par-aaii-firaq-gorakhpuri-ghazals-1," रुकी रुकी सी शब-ए-मर्ग ख़त्म पर आई वो पौ फटी वो नई ज़िंदगी नज़र आई ये मोड़ वो है कि परछाइयाँ भी देंगी न साथ मुसाफ़िरों से कहो उस की रहगुज़र आई फ़ज़ा तबस्सुम-ए-सुब्ह-ए-बहार थी लेकिन पहुँच के मंज़िल-ए-जानाँ पे आँख भर आई कहीं ज़मान-ओ-मकाँ में है नाम को भी सुकूँ मगर ये बात मोहब्बत की बात पर आई किसी की बज़्म-ए-तरब में हयात बटती थी उमीद-वारों में कल मौत भी नज़र आई कहाँ हर एक से इंसानियत का बार उठा कि ये बला भी तिरे आशिक़ों के सर आई दिलों में आज तिरी याद मुद्दतों के बा'द ब-चेहरा-ए-मुतबस्सिम ब-चश्म-ए-तर आई नया नहीं है मुझे मर्ग-ए-ना-गहाँ का पयाम हज़ार रंग से अपनी मुझे ख़बर आई फ़ज़ा को जैसे कोई राग चीरता जाए तिरी निगाह दिलों में यूँही उतर आई ज़रा विसाल के बा'द आइना तो देख ऐ दोस्त तिरे जमाल की दोशीज़गी निखर आई तिरा ही अक्स सरिश्क-ए-ग़म-ए-ज़माना में था निगाह में तिरी तस्वीर सी उतर आई अजब नहीं कि चमन-दर-चमन बने हर फूल कली कली की सबा जा के गोद भर आई शब-ए-'फ़िराक़' उठे दिल में और भी कुछ दर्द कहूँ ये कैसे तिरी याद रात-भर आई " bahut-pahle-se-un-qadmon-kii-aahat-jaan-lete-hain-firaq-gorakhpuri-ghazals," बहुत पहले से उन क़दमों की आहट जान लेते हैं तुझे ऐ ज़िंदगी हम दूर से पहचान लेते हैं मिरी नज़रें भी ऐसे क़ातिलों का जान ओ ईमाँ हैं निगाहें मिलते ही जो जान और ईमान लेते हैं जिसे कहती है दुनिया कामयाबी वाए नादानी उसे किन क़ीमतों पर कामयाब इंसान लेते हैं निगाह-ए-बादा-गूँ यूँ तो तिरी बातों का क्या कहना तिरी हर बात लेकिन एहतियातन छान लेते हैं तबीअ'त अपनी घबराती है जब सुनसान रातों में हम ऐसे में तिरी यादों की चादर तान लेते हैं ख़ुद अपना फ़ैसला भी इश्क़ में काफ़ी नहीं होता उसे भी कैसे कर गुज़रें जो दिल में ठान लेते हैं हयात-ए-इश्क़ का इक इक नफ़स जाम-ए-शहादत है वो जान-ए-नाज़-बरदाराँ कोई आसान लेते हैं हम-आहंगी में भी इक चाशनी है इख़्तिलाफ़ों की मिरी बातें ब-उनवान-ए-दिगर वो मान लेते हैं तिरी मक़बूलियत की वज्ह वाहिद तेरी रमज़िय्यत कि उस को मानते ही कब हैं जिस को जान लेते हैं अब इस को कुफ़्र मानें या बुलंदी-ए-नज़र जानें ख़ुदा-ए-दो-जहाँ को दे के हम इंसान लेते हैं जिसे सूरत बताते हैं पता देती है सीरत का इबारत देख कर जिस तरह मा'नी जान लेते हैं तुझे घाटा न होने देंगे कारोबार-ए-उल्फ़त में हम अपने सर तिरा ऐ दोस्त हर एहसान लेते हैं हमारी हर नज़र तुझ से नई सौगंध खाती है तो तेरी हर नज़र से हम नया पैमान लेते हैं रफ़ीक़-ए-ज़िंदगी थी अब अनीस-ए-वक़्त-ए-आख़िर है तिरा ऐ मौत हम ये दूसरा एहसान लेते हैं ज़माना वारदात-ए-क़ल्ब सुनने को तरसता है इसी से तो सर आँखों पर मिरा दीवान लेते हैं 'फ़िराक़' अक्सर बदल कर भेस मिलता है कोई काफ़िर कभी हम जान लेते हैं कभी पहचान लेते हैं " har-naala-tire-dard-se-ab-aur-hii-kuchh-hai-firaq-gorakhpuri-ghazals," हर नाला तिरे दर्द से अब और ही कुछ है हर नग़्मा सर-ए-बज़्म-ए-तरब और ही कुछ है अरबाब-ए-वफ़ा जान भी देने को हैं तयार हस्ती का मगर हुस्न-ए-तलब और ही कुछ है ये काम न ले नाला-ओ-फ़र्याद-ओ-फ़ुग़ां से अफ़्लाक उलट देने का ढब और ही कुछ है इक सिलसिला-ए-राज़ है जीना कि हो मरना जब और ही कुछ था मगर अब और ही कुछ है कुछ मेहर-ए-क़यामत है न कुछ नार-ए-जहन्नम होश्यार कि वो क़हर-ओ-ग़ज़ब और ही कुछ है मज़हब की ख़राबी है न अख़्लाक़ की पस्ती दुनिया के मसाइब का सबब और ही कुछ है बेहूदा-सारी सज्दे में है जान खपाना आईन-ए-मोहब्बत में अदब और ही कुछ है क्या हुस्न के अंदाज़-ए-तग़ाफ़ुल की शिकायत पैमान-ए-वफ़ा इश्क़ का जब और ही कुछ है दुनिया को जगा दे जो अदम को भी सुला दे सुनते हैं कि वो रोज़ वो शब और ही कुछ है आँखों ने 'फ़िराक़' आज न पूछो जो दिखाया जो कुछ नज़र आता है वो सब और ही कुछ है " chhed-ai-dil-ye-kisii-shokh-ke-rukhsaaron-se-firaq-gorakhpuri-ghazals," छेड़ ऐ दिल ये किसी शोख़ के रुख़्सारों से खेलना आह दहकते हुए अँगारों से हम शब-ए-हिज्र में जब सोती है सारी दुनिया ज़िक्र करते हैं तिरा छिटके हुए तारों से अश्क भर लाए किसी ने जो तिरा नाम लिया और क्या हिज्र में होता तिरे बीमारों से छेड़ नग़्मा कोई गो दिल की शिकस्ता हैं रगें हम निकालेंगे सदा टूटे हुए तारों से हम को तेरी है ज़रूरत न इसे भूल ऐ दोस्त तेरे इक़रारों से मतलब है न इन्कारों से हम हैं वो बेकस-ओ-बे-यार कि बैठे बैठे अपना दुख-दर्द कहा करते हैं दीवारों से अहल-ए-दुनिया से ये कहते हैं मिरे नाला-ए-दिल हम सदा देंगे ग़म-ए-हिज्र के मीनारों से इश्क़ हमदर्दी-ए-आलम का रवादार नहीं हो गई भूल 'फ़िराक़' आप के ग़म-ख़्वारों से " zamiin-badlii-falak-badlaa-mazaaq-e-zindagii-badlaa-firaq-gorakhpuri-ghazals," ज़मीं बदली फ़लक बदला मज़ाक़-ए-ज़िंदगी बदला तमद्दुन के क़दीम अक़दार बदले आदमी बदला ख़ुदा-ओ-अहरमन बदले वो ईमान-ए-दुई बदला हदूद-ए-ख़ैर-ओ-शर बदले मज़ाक़-ए-काफ़िरी बदला नए इंसान का जब दौर-ए-ख़ुद-ना-आगही बदला रुमूज़-ए-बे-ख़ुदी बदले तक़ाज़ा-ए-ख़ुदी बदला बदलते जा रहे हैं हम भी दुनिया को बदलने में नहीं बदली अभी दुनिया तो दुनिया को अभी बदला नई मंज़िल के मीर-ए-कारवाँ भी और होते हैं पुराने ख़िज़्र-ए-रह बदले वो तर्ज़-ए-रहबरी बदला कभी सोचा भी है ऐ नज़्म-ए-कोहना के ख़ुदा-वंदो तुम्हारा हश्र क्या होगा जो ये आलम कभी बदला उधर पिछले से अहल-ए-माल-ओ-ज़र पर रात भारी है इधर बेदारी-ए-जम्हूर का अंदाज़ भी बदला ज़हे सोज़-ए-ग़म-ए-आदम ख़ुशा साज़-ए-दिल-ए-आदम इसी इक शम्अ' की लौ ने जहान-ए-तीरगी बदला नए मंसूर हैं सदियों पुराने शेख़-ओ-क़ाज़ी हैं न फ़तवे कुफ़्र के बदले न उज़्र-ए-दार ही बदला बताए तो बताए उस को तेरी शोख़ी-ए-पिन्हाँ तिरी चश्म-ए-तवज्जोह है कि तर्ज़-ए-बे-रुख़ी बदला ब-फ़ैज़-ए-आदम-ए-ख़ाकी ज़मीं सोना उगलती है उसी ज़र्रे ने दौर-ए-मेहर-ओ-माह-ओ-मुशतरी बदला सितारे जागते हैं रात लट छटकाए सोती है दबे पाँव किसी ने आ के ख़्वाब-ए-ज़िंदगी बदला 'फ़िराक़' हम-नवा-ए-'मीर'-ओ-'ग़ालिब' अब नए नग़्मे वो बज़्म-ए-ज़िंदगी बदली वो रंग-ए-शाइ'री बदला " dete-hain-jaam-e-shahaadat-mujhe-maaluum-na-thaa-firaq-gorakhpuri-ghazals," देते हैं जाम-ए-शहादत मुझे मा'लूम न था है ये आईन-ए-मोहब्बत मुझे मा'लूम न था मतलब-ए-चश्म-ए-मुरव्वत मुझे मा'लूम न था तुझ को मुझ से थी शिकायत मुझे मा'लूम न था चश्म-ए-ख़ामोश की बाबत मुझे मा'लूम न था ये भी है हर्फ़-ओ-हिकायत मुझे मा'लूम न था इश्क़ बस में है मशिय्यत के अक़ीदा था मिरा उस के बस में है मशिय्यत मुझे मा'लूम न था हफ़्त-ख़्वाँ जिस ने किए तय सर-ए-राह-ए-तस्लीम टूट जाती है वो हिम्मत मुझे मा'लूम न था आज हर क़तरा-ए-मय बन गया इक चिंगारी थी ये साक़ी की शरारत मुझे मा'लूम न था निगह-ए-मस्त ने तलवार उठा ली सर-ए-बज़्म यूँ बदल जाती है निय्यत मुझे मा'लूम न था ग़म-ए-हस्ती से जो बेज़ार रहा मैं इक उम्र तुझ से भी थी उसे निस्बत मुझे मा'लूम न था इश्क़ भी अहल-ए-तरीक़त में है ऐसा था ख़याल इश्क़ है पीर-ए-तरीक़त मुझे मा'लूम न था पूछ मत शरह-करम-हा-ए-अज़ीज़ाँ हमदम उन में इतनी थी शराफ़त मुझे मा'लूम न था जब से देखा है तुझे मुझ से है मेरी अन-बन हुस्न का रंग-ए-सियासत मुझे मा'लूम न था शक्ल इंसान की हो चाल भी इंसान की हो यूँ भी आती है क़यामत मुझे मा'लूम न था सर-ए-मामूरा-ए-आलम ये दिल-ए-ख़ाना-ख़राब मिट गया तेरी बदौलत मुझे मा'लूम न था पर्दा-ए-अर्ज़-ए-वफ़ा में भी रहा हूँ करता तुझ से मैं अपनी ही ग़ीबत मुझे मा'लूम न था नक़्द-ए-जाँ क्या है ज़माने में मोहब्बत हमदम नहीं मिलती किसी क़ीमत मुझे मा'लूम न था हो गया आज रफ़ीक़ों से गले मिल के जुदा अपना ख़ुद इश्क़-ए-सदाक़त मुझे मा'लूम न था दर्द दिल क्या है खुला आज तिरे लड़ने पर तुझ से इतनी थी मोहब्बत मुझे मा'लूम न था दम निकल जाए मगर दिल न लगाए कोई इश्क़ की ये थी वसिय्यत मुझे मा'लूम न था हुस्न वालों को बहुत सहल समझ रक्खा था तुझ पे आएगी तबीअत मुझे मा'लूम न था कितनी ख़ल्लाक़ है ये नीस्ती-ए-इश्क़ 'फ़िराक़' उस से हस्ती है इबारत मुझे मा'लूम न था " gam-tiraa-jalva-gah-e-kaun-o-makaan-hai-ki-jo-thaa-firaq-gorakhpuri-ghazals," ग़म तिरा जल्वा-गह-ए-कौन-ओ-मकाँ है कि जो था या'नी इंसान वही शो'ला-ब-जाँ है कि जो था फिर वही रंग-ए-तकल्लुम निगह-ए-नाज़ में है वही अंदाज़ वही हुस्न-ए-बयाँ है कि जो था कब है इंकार तिरे लुत्फ़-ओ-करम से लेकिन तू वही दुश्मन-ए-दिल दुश्मन-ए-जाँ है कि जो था इश्क़ अफ़्सुर्दा नहीं आज भी अफ़्सुर्दा बहुत वही कम कम असर-ए-सोज़-ए-निहाँ है कि जो था क़ुर्ब ही कम है न दूरी ही ज़ियादा लेकिन आज वो रब्त का एहसास कहाँ है कि जो था नज़र आ जाते हैं तुम को तो बहुत नाज़ुक बाल दिल मिरा क्या वही ऐ शीशा-गिराँ है कि जो था जान दे बैठे थे इक बार हवस वाले भी फिर वही मरहला-ए-सूद-ओ-ज़ियाँ है कि जो था हुस्न को खींच तो लेता है अभी तक लेकिन वो असर जज़्ब-ए-मोहब्बत में कहाँ है कि जो था आज भी सैद-गह-ए-इश्क़ में हुसन-ए-सफ़्फ़ाक लिए अबरू की लचकती सी कमाँ है कि जो था फिर तिरी चश्म-ए-सुख़न-संज ने छेड़ी कोई बात वही जादू है वही हुस्न-ए-बयाँ है कि जो था फिर सर-ए-मय-कद-ए-इश्क़ है इक बारिश-ए-नूर छलके जामों से चराग़ाँ का समाँ है कि जो था फिर वही ख़ैर-निगाही है तिरे जल्वों से वही आलम तिरा ऐ बर्क़-ए-दमाँ है कि जो था आज भी आग दबी है दिल-ए-इंसाँ में 'फ़िराक़' आज भी सीनों से उठता वो धुआँ है कि जो था " apne-gam-kaa-mujhe-kahaan-gam-hai-firaq-gorakhpuri-ghazals," अपने ग़म का मुझे कहाँ ग़म है ऐ कि तेरी ख़ुशी मुक़द्दम है आग में जो पड़ा वो आग हुआ हुस्न-ए-सोज़-ए-निहाँ मुजस्सम है उस के शैतान को कहाँ तौफ़ीक़ इश्क़ करना गुनाह-ए-आदम है दिल के धड़कों में ज़ोर-ए-ज़र्ब-ए-कलीम किस क़दर इस हबाब में दम है है वही इश्क़ ज़िंदा-ओ-जावेद जिसे आब-ए-हयात भी सम है इस में ठहराव या सुकून कहाँ ज़िंदगी इंक़लाब-ए-पैहम है इक तड़प मौज-ए-तह-नशीं की तरह ज़िंदगी की बिना-ए-मोहकम है रहती दुनिया में इश्क़ की दुनिया नए उन्वान से मुनज़्ज़म है उठने वाली है बज़्म माज़ी की रौशनी कम है ज़िंदगी कम है ये भी नज़्म-ए-हयात है कोई ज़िंदगी ज़िंदगी का मातम है इक मुअ'म्मा है ज़िंदगी ऐ दोस्त ये भी तेरी अदा-ए-मुबहम है ऐ मोहब्बत तू इक अज़ाब सही ज़िंदगी बे तिरे जहन्नम है इक तलातुम सा रंग-ओ-निकहत का पैकर-ए-नाज़ में दमा-दम है फिरने को है रसीली नीम-निगाह आहू-ए-नाज़ माइल-ए-राम है रूप के जोत ज़ेर-ए-पैराहन गुल्सिताँ पर रिदा-ए-शबनम है मेरे सीने से लग के सो जाओ पलकें भारी हैं रात भी कम है आह ये मेहरबानियाँ तेरी शादमानी की आँख पुर-नम है नर्म ओ दोशीज़ा किस क़द्र है निगाह हर नज़र दास्तान-ए-मरयम है मेहर-ओ-मह शोला-हा-ए-साज़-ए-जमाल जिस की झंकार इतनी मद्धम है जैसे उछले जुनूँ की पहली शाम इस अदा से वो ज़ुल्फ़ बरहम है यूँ भी दिल में नहीं वो पहली उमंग और तेरी निगाह भी कम है और क्यूँ छेड़ती है गर्दिश-ए-चर्ख़ वो नज़र फिर गई ये क्या कम है रू-कश-ए-सद-हरीम-ए-दिल है फ़ज़ा वो जहाँ हैं अजीब आलम है दिए जाती है लौ सदा-ए-'फ़िराक़' हाँ वही सोज़-ओ-साज़ कम कम है " vo-chup-chaap-aansuu-bahaane-kii-raaten-firaq-gorakhpuri-ghazals," वो चुप-चाप आँसू बहाने की रातें वो इक शख़्स के याद आने की रातें शब-ए-मह की वो ठंडी आँचें वो शबनम तिरे हुस्न के रस्मसाने की रातें जवानी की दोशीज़गी का तबस्सुम गुल-ए-ज़ार के वो खिलाने की रातें फुवारें सी नग़्मों की पड़ती हों जैसे कुछ उस लब के सुनने-सुनाने की रातें मुझे याद है तेरी हर सुब्ह-ए-रुख़्सत मुझे याद हैं तेरे आने की रातें पुर-असरार सी मेरी अर्ज़-ए-तमन्ना वो कुछ ज़ेर-ए-लब मुस्कुराने की रातें सर-ए-शाम से रतजगा के वो सामाँ वो पिछले पहर नींद आने की रातें सर-ए-शाम से ता-सहर क़ुर्ब-ए-जानाँ न जाने वो थीं किस ज़माने की रातें सर-ए-मय-कदा तिश्नगी की वो क़स्में वो साक़ी से बातें बनाने की रातें हम-आग़ोशियाँ शाहिद-ए-मेहरबाँ की ज़माने के ग़म भूल जाने की रातें 'फ़िराक़' अपनी क़िस्मत में शायद नहीं थे ठिकाने के दिन या ठिकाने की रातें " samajhtaa-huun-ki-tuu-mujh-se-judaa-hai-firaq-gorakhpuri-ghazals," समझता हूँ कि तू मुझ से जुदा है शब-ए-फ़ुर्क़त मुझे क्या हो गया है तिरा ग़म क्या है बस ये जानता हूँ कि मेरी ज़िंदगी मुझ से ख़फ़ा है कभी ख़ुश कर गई मुझ को तिरी याद कभी आँखों में आँसू आ गया है हिजाबों को समझ बैठा मैं जल्वा निगाहों को बड़ा धोका हुआ है बहुत दूर अब है दिल से याद तेरी मोहब्बत का ज़माना आ रहा है न जी ख़ुश कर सका तेरा करम भी मोहब्बत को बड़ा धोका रहा है कभी तड़पा गया है दिल तिरा ग़म कभी दिल को सहारा दे गया है शिकायत तेरी दिल से करते करते अचानक प्यार तुझ पर आ गया है जिसे चौंका के तू ने फेर ली आँख वो तेरा दर्द अब तक जागता है जहाँ है मौजज़न रंगीनी-ए-हुस्न वहीं दिल का कँवल लहरा रहा है गुलाबी होती जाती हैं फ़ज़ाएँ कोई इस रंग से शरमा रहा है मोहब्बत तुझ से थी क़ब्ल-अज़-मोहब्बत कुछ ऐसा याद मुझ को आ रहा है जुदा आग़ाज़ से अंजाम से दूर मोहब्बत इक मुसलसल माजरा है ख़ुदा-हाफ़िज़ मगर अब ज़िंदगी में फ़क़त अपना सहारा रह गया है मोहब्बत में 'फ़िराक़' इतना न ग़म कर ज़माने में यही होता रहा है " diidaar-men-ik-tarfa-diidaar-nazar-aayaa-firaq-gorakhpuri-ghazals," दीदार में इक तुर्फ़ा दीदार नज़र आया हर बार छुपा कोई हर बार नज़र आया छालों को बयाबाँ भी गुलज़ार नज़र आया जब छेड़ पर आमादा हर ख़ार नज़र आया सुब्ह-ए-शब-ए-हिज्राँ की वो चाक-गरेबानी इक आलम-ए-नैरंगी हर तार नज़र आया हो सब्र कि बेताबी उम्मीद कि मायूसी नैरंग-ए-मोहब्बत भी बे-कार नज़र आया जब चश्म-ए-सियह तेरी थी छाई हुई दिल पर इस मुल्क का हर ख़ित्ता तातार नज़र आया तू ने भी तो देखी थी वो जाती हुई दुनिया क्या आख़री लम्हों में बीमार नज़र आया ग़श खा के गिरे मूसा अल्लाह-री मायूसी हल्का सा वो पर्दा भी दीवार नज़र आया ज़र्रा हो कि क़तरा हो ख़ुम-ख़ाना-ए-हस्ती में मख़मूर नज़र आया सरशार नज़र आया क्या कुछ न हुआ ग़म से क्या कुछ न किया ग़म ने और यूँ तो हुआ जो कुछ बे-कार नज़र आया ऐ इश्क़ क़सम तुझ को मा'मूरा-ए-आलम की कोई ग़म-ए-फ़ुर्क़त में ग़म-ख़्वार नज़र आया शब कट गई फ़ुर्क़त की देखा न 'फ़िराक़' आख़िर तूल-ए-ग़म-ए-हिज्राँ भी बे-कार नज़र आया " jahaan-e-guncha-e-dil-kaa-faqat-chataknaa-thaa-firaq-gorakhpuri-ghazals," जहान‌‌‌‌-ए-गुंचा-ए-दिल का फ़क़त चटकना था उसी की बू-ए-परेशाँ वजूद-ए-दुनिया था ये कह के कल कोई बे-इख़्तियार रोता था वो इक निगाह सही क्यूँ किसी को देखा था तनाबें कूचा-ए-क़ातिल की खिंचती जाती थीं शहीद-ए-तेग़-ए-अदा में भी ज़ोर कितना था बस इक झलक नज़र आई उड़े कलीम के होश बस इक निगाह हुई ख़ाक तूर-ए-सीना था हर इक के हाथ फ़क़त ग़फ़लतें थीं होश-नुमा कि अपने आप से बेगाना-वार जीना था यही हुआ कि फ़रेब-ए-उमीद-ओ-यास मिटे वो पा गए तिरे हाथों हमें जो पाना था चमन में ग़ुंचा-ए-गुल खिलखिला के मुरझाए यही वो थे जिन्हें हँस हँस के जान देना था निगाह-ए-मेहर में जिस की हैं सद पयाम-ए-फ़ना उसी का आलम-ए-ईजाद-ओ-नाज़ बेजा था जहाँ तू जल्वा-नुमा था लरज़ती थी दुनिया तिरे जमाल से कैसा जलाल पैदा था हयात-ओ-मर्ग के कुछ राज़ खुल गए होंगे फ़साना-ए-शब-ए-ग़म वर्ना दोस्तो क्या था शब-ए-अदम का फ़साना गुदाज़ शम-ए-हयात सिवाए कैफ़-ए-फ़ना मेरा माजरा क्या था कुछ ऐसी बात न थी तेरा दूर हो जाना ये और बात कि रह रह के दर्द उठता था न पूछ सूद-ओ-ज़ियाँ कारोबार-ए-उल्फ़त के वगर्ना यूँ तो न पाना था कुछ न खोता था लगावटें वो तिरे हुस्न-ए-बे-नियाज़ की आह मैं तेरी बज़्म से जब ना-उमीद उट्ठा था तुझे हम ऐ दिल-ए-दर्द-आश्ना कहाँ ढूँडें हम अपने होश में कब थे कोई जब उट्ठा था अदम का राज़ सदा-ए-शिकस्त साज़-ए-हयात हिजाब-ए-ज़ीस्त भी कितना लतीफ़ पर्दा था ये इज़तिराब-ओ-सुकूँ भी थी इक फ़रेब-ए-हयात कि अपने हाल से बेगाना-वार जीना था कहाँ पे चूक हुई तेरे बे-क़रारों से ज़माना दूसरी करवट बदलने वाला था ये कोई याद है ये भी है कोई मह्विय्यत तिरे ख़याल में तुझ को भी भूल जाना था कहाँ की चोट उभर आई हुस्न-ए-ताबाँ में दम-ए-नज़ारा वो रुख़ दर्द सा चमकता था न पूछ रम्ज़-ओ-किनायात चश्म-ए-साक़ी के बस एक हश्र-ए-ख़मोश अंजुमन में बरपा था चमन चमन थी गुल-ए-दाग़-ए-इश्क़ से हस्ती उसी की निकहत-ए-बर्बाद का ज़माना था वो था मिरा दिल-ए-ख़ूँ-गश्ता जिस के मिटने से बहार-ए-बाग़-ए-जिनाँ थी वजूद-ए-दुनिया था क़सम है बादा-कशो चश्म-ए-मस्त-ए-साक़ी की बताओ हाथ से क्या जाम-ए-मय सँभलता था विसाल उस से मैं चाहूँ कहाँ ये दिल मेरा ये रो रहा हूँ कि क्यूँ उस को मैं ने देखा था उमीद यास बनी यास फिर उमीद बनी उस इक नज़र में फ़रेब-ए-निगाह कितना था ये सोज़-ओ-साज़-ए-निहाँ था वो सोज़-ओ-साज़-ए-अयाँ विसाल-ओ-हिज्र में बस फ़र्क़ था तो इतना था शिकस्त-ए-साज़-ए-चमन थी बहार-ए-लाला-ओ-गुल ख़िज़ाँ मचलती थी ग़ुंचा जहाँ चटकता था हर एक साँस है तज्दीद-ए-याद-ए-अय्यामी गुज़र गया वो ज़माना जिसे गुज़रना था न कोई वा'दा न कोई यक़ीं न कोई उमीद मगर हमें तो तिरा इंतिज़ार करना था किसी के सब्र ने बे-सब्र दिया सब को 'फ़िराक़' नज़्अ' में करवट कोई बदलता था " daur-e-aagaaz-e-jafaa-dil-kaa-sahaaraa-niklaa-firaq-gorakhpuri-ghazals," दौर-ए-आग़ाज़-ए-जफ़ा दिल का सहारा निकला हौसला कुछ न हमारा न तुम्हारा निकला तेरा नाम आते ही सकते का था आलम मुझ पर जाने किस तरह ये मज़कूर दोबारा निकला होश जाता है जिगर जाता है दल जाता है पर्दे ही पर्दे में क्या तेरा इशारा निकला है तिरे कश्फ़-ओ-करामात की दुनिया क़ाइल तुझ से ऐ दिल न मगर काम हमारा निकला कितने सफ़्फ़ाक सर-ए-क़त्ल-गह-ए-आलम थे लाखों में बस वही अल्लाह का प्यारा निकला इबरत-अंगेज़ है क्या उस की जवाँ-मर्गी भी हाए वो दिल जो हमारा न तुम्हारा निकला इश्क़ की लौ से फ़रिश्तों के भी पर जलते हैं रश्क-ए-ख़ुर्शीद-ए-क़यामत ये शरारा निकला सर-ब-सर बे-सर-ओ-सामाँ जिसे समझे थे वो दिल रश्क-ए-जम्शेद-ओ-कै-ओ-ख़ुसरो-ओ-दारा निकला रोने वाले हुए चुप हिज्र की दुनिया बदली शम्अ' बे-नूर हुई सुब्ह का तारा निकला उँगलियाँ उट्ठीं 'फ़िराक़'-ए-वतन-आवारा पर आज जिस सम्त से वो दर्द का मारा निकला " ab-daur-e-aasmaan-hai-na-daur-e-hayaat-hai-firaq-gorakhpuri-ghazals," अब दौर-ए-आसमाँ है न दौर-ए-हयात है ऐ दर्द-ए-हिज्र तू ही बता कितनी रात है हर काएनात से ये अलग काएनात है हैरत-सरा-ए-इश्क़ में दिन है न रात है जीना जो आ गया तो अजल भी हयात है और यूँ तो उम्र-ए-ख़िज़्र भी क्या बे-सबात है क्यूँ इंतिहा-ए-होश को कहते हैं बे-ख़ुदी ख़ुर्शीद ही की आख़िरी मंज़िल तो रात है हस्ती को जिस ने ज़लज़ला-सामाँ बना दिया वो दिल क़रार पाए मुक़द्दर की बात है ये मुशगाफ़ियाँ हैं गिराँ तब-ए-इश्क़ पर किस को दिमाग़-ए-काविश-ए-ज़ात-ओ-सिफ़ात है तोड़ा है ला-मकाँ की हदों को भी इश्क़ ने ज़िंदान-ए-अक़्ल तेरी तो क्या काएनात है गर्दूं शरार-ए-बर्क़-ए-दिल-ए-बे-क़रार देख जिन से ये तेरी तारों भरी रात रात है गुम हो के हर जगह हैं ज़-ख़ुद रफ़्तगान-ए-इश्क़ उन की भी अहल-ए-कश्फ़-ओ-करामात ज़ात है हस्ती ब-जुज़ फ़ना-ए-मुसलसल के कुछ नहीं फिर किस लिए ये फ़िक्र-ए-क़रार-ओ-सबात है उस जान-ए-दोस्ती का ख़ुलूस-ए-निहाँ न पूछ जिस का सितम भी ग़ैरत-ए-सद-इल्तिफ़ात है यूँ तो हज़ार दर्द से रोते हैं बद-नसीब तुम दिल दुखाओ वक़्त-ए-मुसीबत तो बात है उनवान ग़फ़लतों के हैं क़ुर्बत हो या विसाल बस फ़ुर्सत-ए-हयात 'फ़िराक़' एक रात है " kamii-na-kii-tire-vahshii-ne-khaak-udaane-men-firaq-gorakhpuri-ghazals," कमी न की तिरे वहशी ने ख़ाक उड़ाने में जुनूँ का नाम उछलता रहा ज़माने में 'फ़िराक़' दौड़ गई रूह सी ज़माने में कहाँ का दर्द भरा था मिरे फ़साने में जुनूँ से भूल हुई दिल पे चोट खाने में 'फ़िराक़' देर अभी थी बहार आने में वो कोई रंग है जो उड़ न जाए ऐ गुल-ए-तर वो कोई बू है जो रुस्वा न हो ज़माने में वो आस्तीं है कोई जो लहू न दे निकले वो कोई हसन है झिझके जो रंग लाने में ये गुल खिले हैं कि चोटें जिगर की उभरी हैं निहाँ बहार थी बुलबुल तिरे तराने में बयान-ए-शम्अ है हासिल यही है जलने का फ़ना की कैफ़ियतें देख झिलमिलाने में कसी की हालत-ए-दिल सुन के उठ गईं आँखें कि जान पड़ गई हसरत भरे फ़साने में उसी की शरह है ये उठते दर्द का आलम जो दास्ताँ थी निहाँ तेरे आँख उठाने में ग़रज़ कि काट दिए ज़िंदगी के दिन ऐ दोस्त वो तेरी याद में हों या तुझे भुलाने में हमीं हैं गुल हमीं बुलबुल हमीं हवा-ए-चमन 'फ़िराक़' ख़्वाब ये देखा है क़ैद-ख़ाने में " raat-bhii-niind-bhii-kahaanii-bhii-firaq-gorakhpuri-ghazals," रात भी नींद भी कहानी भी हाए क्या चीज़ है जवानी भी एक पैग़ाम-ए-ज़िंदगानी भी आशिक़ी मर्ग-ए-ना-गहानी भी इस अदा का तिरी जवाब नहीं मेहरबानी भी सरगिरानी भी दिल को अपने भी ग़म थे दुनिया में कुछ बलाएँ थीं आसमानी भी मंसब-ए-दिल ख़ुशी लुटाना है ग़म-ए-पिन्हाँ की पासबानी भी दिल को शो'लों से करती है सैराब ज़िंदगी आग भी है पानी भी शाद-कामों को ये नहीं तौफ़ीक़ दिल-ए-ग़म-गीं की शादमानी भी लाख हुस्न-ए-यक़ीं से बढ़ कर है उन निगाहों की बद-गुमानी भी तंगना-ए-दिल-ए-मलूल में है बहर-ए-हस्ती की बे-करानी भी इश्क़-ए-नाकाम की है परछाईं शादमानी भी कामरानी भी देख दिल के निगार-ख़ाने में ज़ख़्म-ए-पिन्हाँ की है निशानी भी ख़ल्क़ क्या क्या मुझे नहीं कहती कुछ सुनूँ मैं तिरी ज़बानी भी आए तारीख़-ए-इश्क़ में सौ बार मौत के दौर-ए-दरमियानी भी अपनी मासूमियत के पर्दे में हो गई वो नज़र सियानी भी दिन को सूरज-मुखी है वो नौ-गुल रात को है वो रात-रानी भी दिल-ए-बद-नाम तेरे बारे में लोग कहते हैं इक कहानी भी वज़्अ' करते कोई नई दुनिया कि ये दुनिया हुई पुरानी भी दिल को आदाब-ए-बंदगी भी न आए कर गए लोग हुक्मरानी भी जौर-ए-कम-कम का शुक्रिया बस है आप की इतनी मेहरबानी भी दिल में इक हूक भी उठी ऐ दोस्त याद आई तिरी जवानी भी सर से पा तक सुपुर्दगी की अदा एक अंदाज़-ए-तुर्कमानी भी पास रहना किसी का रात की रात मेहमानी भी मेज़बानी भी हो न अक्स-ए-जबीन-ए-नाज़ कि है दिल में इक नूर-ए-कहकशानी भी ज़िंदगी ऐन दीद-ए-यार 'फ़िराक़' ज़िंदगी हिज्र की कहानी भी " shaam-e-gam-kuchh-us-nigaah-e-naaz-kii-baaten-karo-firaq-gorakhpuri-ghazals," शाम-ए-ग़म कुछ उस निगाह-ए-नाज़ की बातें करो बे-ख़ुदी बढ़ती चली है राज़ की बातें करो ये सुकूत-ए-नाज़ ये दिल की रगों का टूटना ख़ामुशी में कुछ शिकस्त-ए-साज़ की बातें करो निकहत-ए-ज़ुल्फ़-ए-परेशाँ दास्तान-ए-शाम-ए-ग़म सुब्ह होने तक इसी अंदाज़ की बातें करो हर रग-ए-दिल वज्द में आती रहे दुखती रहे यूँही उस के जा-ओ-बेजा नाज़ की बातें करो जौ अदम की जान है जो है पयाम-ए-ज़िंदगी उस सुकूत-ए-राज़ उस आवाज़ की बातें करो इश्क़ रुस्वा हो चला बे-कैफ़ सा बेज़ार सा आज उस की नर्गिस-ए-ग़म्माज़ की बातें करो नाम भी लेना है जिस का इक जहान-ए-रंग-ओ-बू दोस्तो उस नौ-बहार-ए-नाज़ की बातें करो किस लिए उज़्र-ए-तग़ाफुल किस लिए इल्ज़ाम-ए-इश्क़ आज चर्ख़-ए-तफ़रक़ा-पर्वाज़ की बातें करो कुछ क़फ़स की तीलियों से छन रहा है नूर सा कुछ फ़ज़ा कुछ हसरत-ए-परवाज़ की बातें करो जो हयात-ए-जाविदाँ है जो है मर्ग-ए-ना-गहाँ आज कुछ उस नाज़ उस अंदाज़ की बातें करो इश्क़-ए-बे-परवा भी अब कुछ ना-शकेबा हो चला शोख़ी-ए-हुस्न-ए-करिश्मा-साज़ की बातें करो जिस की फ़ुर्क़त ने पलट दी इश्क़ की काया 'फ़िराक़' आज उस ईसा-नफ़स दम-साज़ की बातें करो " jaur-o-be-mehrii-e-igmaaz-pe-kyaa-rotaa-hai-firaq-gorakhpuri-ghazals," जौर-ओ-बे-मेहरी-ए-इग़्माज़ पे क्या रोता है मेहरबाँ भी कोई हो जाएगा जल्दी क्या है खो दिया तुम को तो हम पूछते फिरते हैं यही जिस की तक़दीर बिगड़ जाए वो करता क्या है दिल का इक काम जो होता नहीं इक मुद्दत से तुम ज़रा हाथ लगा दो तो हुआ रक्खा है निगह-ए-शोख़ में और दिल में हैं चोटें क्या क्या आज तक हम न समझ पाए कि झगड़ा क्या है इश्क़ से तौबा भी है हुस्न से शिकवे भी हज़ार कहिए तो हज़रत-ए-दिल आप का मंशा क्या है ज़ीनत-ए-दोश तिरा नामा-ए-आमाल न हो तेरी दस्तार से वाइ'ज़ ये लटकता क्या है हाँ अभी वक़्त का आईना दिखाए क्या क्या देखते जाओ ज़माना अभी देखा क्या है न यगाने हैं न बेगाने तिरी महफ़िल में न कोई ग़ैर यहाँ है न कोई अपना है निगह-ए-मस्त को जुम्बिश न हुइ गो सर-ए-बज़्म कुछ तो इस जाम-ए-लबा-लब से अभी छलका है रात-दिन फिरती है पलकों के जो साए साए दिल मिरा उस निगह-ए-नाज़ का दीवाना है हम जुदाई से भी कुछ काम तो ले ही लेंगे बे-नियाज़ाना तअ'ल्लुक़ ही छुटा अच्छा है उन से बढ़-चढ़ के तो ऐ दोस्त हैं यादें इन की नाज़-ओ-अंदाज़-ओ-अदा में तिरी रक्खा क्या है ऐसी बातों से बदलती है कहीं फ़ितरत-ए-हुस्न जान भी दे दे अगर कोई तो क्या होता है तिरी आँखों को भी इंकार तिरी ज़ुल्फ़ को भी किस ने ये इश्क़ को दीवाना बना रक्खा है दिल तिरा जान तिरी आह तिरी अश्क तिरे जो है ऐ दोस्त वो तेरा है हमारा क्या है दर-ए-दौलत पे दुआएँ सी सुनी हैं मैं ने देखिए आज फ़क़ीरों का किधर फेरा है तुझ को हो जाएँगे शैतान के दर्शन वाइ'ज़ डाल कर मुँह को गरेबाँ में कभी देखा है हम कहे देते हैं चालों में न आओ उन की सर्वत-ओ-जाह के इश्वों से बचो धोका है यही गर आँख में रह जाए तो है चिंगारी क़तरा-ए-अश्क जो बह जाए तो इक दरिया है ज़ुल्फ़-ए-शब-गूँ के सिवा नर्गिस-ए-जादू के सिवा दिल को कुछ और बलाओं ने भी आ घेरा है लब-ए-एजाज़ की सौगंद ये झंकार थी क्या तेरी ख़ामोशी के मानिंद अभी कुछ टूटा है दार पर गाह नज़र गाह सू-ए-शहर-ए-निगार कुछ सुनें हम भी तो ऐ इश्क़ इरादा क्या है आ कि ग़ुर्बत-कदा-ए-दहर में जी बहलाएँ ऐ दिल उस जल्वा-गह-ए-नाज़ में क्या रक्खा है ज़ख़्म ही ज़ख़्म हूँ मैं सुब्ह की मानिंद 'फ़िराक़' रात भर हिज्र की लज़्ज़त से मज़ा लूटा है " bastiyaan-dhuundh-rahii-hain-unhen-viiraanon-men-firaq-gorakhpuri-ghazals," बस्तियाँ ढूँढ रही हैं उन्हें वीरानों में वहशतें बढ़ गईं हद से तिरे दीवानों में निगह-ए-नाज़ न दीवानों न फ़र्ज़ानों में जानकार एक वही है मगर अन-जानों में बज़्म-ए-मय बे-ख़ुद-ओ-बे-ताब न क्यूँ हो साक़ी मौज-ए-बादा है कि दर्द उठता है पैमानों में मैं तो मैं चौंक उठी है ये फ़ज़ा-ए-ख़ामोश ये सदा कब की सुनी आती है फिर कानों में सैर कर उजड़े दिलों की जो तबीअ'त है उदास जी बहल जाते हैं अक्सर इन्हीं वीरानों में वुसअ'तें भी हैं निहाँ तंगी-ए-दिल में ग़ाफ़िल जी बहल जाते हैं अक्सर इन्हीं मैदानों में जान ईमान-ए-जुनूँ सिलसिला जुम्बान-ए-जुनूँ कुछ कशिश-हा-ए-निहाँ जज़्ब हैं वीरानों में ख़ंदा-ए-सुब्ह-ए-अज़ल तीरगी-ए-शाम-ए-अबद दोनों आलम हैं छलकते हुए पैमानों में देख जब आलम-ए-हू को तो नया आलम है बस्तियाँ भी नज़र आने लगीं वीरानों में जिस जगह बैठ गए आग लगा कर उट्ठे गर्मियाँ हैं कुछ अभी सोख़्ता-सामानों में वहशतें भी नज़र आती हैं सर-ए-पर्दा-ए-नाज़ दामनों में है ये आलम न गरेबानों में एक रंगीनी-ए-ज़ाहिर है गुलिस्ताँ में अगर एक शादाबी-ए-पिन्हाँ है बयाबानों में जौहर-ए-ग़ुंचा-ओ-गुल में है इक अंदाज़-ए-जुनूँ कुछ बयाबाँ नज़र आए हैं गरेबानों में अब वो रंग-ए-चमन-ओ-ख़ंदा-ए-गुल भी न रहे अब वो आसार-ए-जुनूँ भी नहीं दीवानों में अब वो साक़ी की भी आँखें न रहीं रिंदों में अब वो साग़र भी छलकते नहीं मय-ख़ानों में अब वो इक सोज़-ए-निहानी भी दिलों में न रहा अब वो जल्वे भी नहीं इश्क़ के काशानों में अब न वो रात जब उम्मीदें भी कुछ थीं तुझ से अब न वो बात ग़म-ए-हिज्र के अफ़्सानों में अब तिरा काम है बस अहल-ए-वफ़ा का पाना अब तिरा नाम है बस इश्क़ के ग़म-ख़ानों में ता-ब-कै वादा-ए-मौहूम की तफ़्सील 'फ़िराक़' शब-ए-फ़ुर्क़त कहीं कटती है इन अफ़्सानों में " sar-men-saudaa-bhii-nahiin-dil-men-tamannaa-bhii-nahiin-firaq-gorakhpuri-ghazals," सर में सौदा भी नहीं दिल में तमन्ना भी नहीं लेकिन इस तर्क-ए-मोहब्बत का भरोसा भी नहीं दिल की गिनती न यगानों में न बेगानों में लेकिन उस जल्वा-गह-ए-नाज़ से उठता भी नहीं मेहरबानी को मोहब्बत नहीं कहते ऐ दोस्त आह अब मुझ से तिरी रंजिश-ए-बेजा भी नहीं एक मुद्दत से तिरी याद भी आई न हमें और हम भूल गए हों तुझे ऐसा भी नहीं आज ग़फ़लत भी उन आँखों में है पहले से सिवा आज ही ख़ातिर-ए-बीमार शकेबा भी नहीं बात ये है कि सुकून-ए-दिल-ए-वहशी का मक़ाम कुंज-ए-ज़िंदाँ भी नहीं वुसअ'त-ए-सहरा भी नहीं अरे सय्याद हमीं गुल हैं हमीं बुलबुल हैं तू ने कुछ आह सुना भी नहीं देखा भी नहीं आह ये मजमा-ए-अहबाब ये बज़्म-ए-ख़ामोश आज महफ़िल में 'फ़िराक़'-ए-सुख़न-आरा भी नहीं ये भी सच है कि मोहब्बत पे नहीं मैं मजबूर ये भी सच है कि तिरा हुस्न कुछ ऐसा भी नहीं यूँ तो हंगामे उठाते नहीं दीवाना-ए-इश्क़ मगर ऐ दोस्त कुछ ऐसों का ठिकाना भी नहीं फ़ितरत-ए-हुस्न तो मा'लूम है तुझ को हमदम चारा ही क्या है ब-जुज़ सब्र सो होता भी नहीं मुँह से हम अपने बुरा तो नहीं कहते कि 'फ़िराक़' है तिरा दोस्त मगर आदमी अच्छा भी नहीं " firaaq-ik-naii-suurat-nikal-to-saktii-hai-firaq-gorakhpuri-ghazals," 'फ़िराक़' इक नई सूरत निकल तो सकती है ब-क़ौल उस आँख के दुनिया बदल तो सकती है तिरे ख़याल को कुछ चुप सी लग गई वर्ना कहानियों से शब-ए-ग़म बहल तो सकती है उरूस-ए-दहर चले खा के ठोकरें लेकिन क़दम क़दम पे जवानी उबल तो सकती है पलट पड़े न कहीं उस निगाह का जादू कि डूब कर ये छुरी कुछ उछल तो सकती है बुझे हुए नहीं इतने बुझे हुए दिल भी फ़सुर्दगी में तबीअ'त मचल तो सकती है अगर तू चाहे तो ग़म वाले शादमाँ हो जाएँ निगाह-ए-यार ये हसरत निकल तो सकती है अब इतनी बंद नहीं ग़म-कदों की भी राहें हवा-ए-कूच-ए-महबूब चल तो सकती है कड़े हैं कोस बहुत मंज़िल-ए-मोहब्बत के मिले न छाँव मगर धूप ढल तो सकती है हयात लौ तह-ए-दामान-ए-मर्ग दे उट्ठी हवा की राह में ये शम्अ जल तो सकती है कुछ और मस्लहत-ए-जज़्ब-ए-इश्क़ है वर्ना किसी से छुट के तबीअ'त सँभल तो सकती है अज़ल से सोई है तक़दीर-ए-इश्क़ मौत की नींद अगर जगाइए करवट बदल तो सकती है ग़म-ए-ज़माना-ओ-सोज़-ए-निहाँ की आँच तो दे अगर न टूटे ये ज़ंजीर गल तो सकती है शरीक-ए-शर्म-ओ-हया कुछ है बद-गुमानी-ए-हुस्न नज़र उठा ये झिजक सी निकल तो सकती है कभी वो मिल न सकेगी मैं ये नहीं कहता वो आँख आँख में पड़ कर बदल तो सकती है बदलता जाए ग़म-ए-रोज़गार का मरकज़ ये चाल गर्दिश-ए-अय्याम चल तो सकती है वो बे-नियाज़ सही दिल मता-ए-हेच सही मगर किसी की जवानी मचल तो सकती है तिरी निगाह सहारा न दे तो बात है और कि गिरते गिरते भी दुनिया सँभल तो सकती है ये ज़ोर-ओ-शोर सलामत तिरी जवानी भी ब-क़ौल इश्क़ के साँचे में ढल तो सकती है सुना है बर्फ़ के टुकड़े हैं दिल हसीनों के कुछ आँच पा के ये चाँदी पिघल तो सकती है हँसी हँसी में लहू थूकते हैं दिल वाले ये सर-ज़मीन मगर ला'ल उगल तो सकती है जो तू ने तर्क-ए-मोहब्बत को अहल-ए-दिल से कहा हज़ार नर्म हो ये बात खल तो सकती है अरे वो मौत हो या ज़िंदगी मोहब्बत पर न कुछ सही कफ़-ए-अफ़सोस मल तो सकती है हैं जिस के बल पे खड़े सरकशों को वो धरती अगर कुचल नहीं सकती निगल तो सकती है हुई है गर्म लहु पी के इश्क़ की तलवार यूँ ही जिलाए जा ये शाख़ फल तो सकती है गुज़र रही है दबे पाँव इश्क़ की देवी सुबुक-रवी से जहाँ को मसल तो सकती है हयात से निगह-ए-वापसीं है कुछ मानूस मिरे ख़याल से आँखों में पल तो सकती है न भूलना ये है ताख़ीर हुस्न की ताख़ीर 'फ़िराक़' आई हुई मौत टल तो सकती है " koii-paigaam-e-mohabbat-lab-e-ejaaz-to-de-firaq-gorakhpuri-ghazals," कोई पैग़ाम-ए-मोहब्बत लब-ए-एजाज़ तो दे मौत की आँख भी खुल जाएगी आवाज़ तो दे मक़्सद-ए-इश्क़ हम-आहंगी-ए-जुज़्व-ओ-कुल है दर्द ही दर्द सही दिल बू-ए-दम-साज़ तो दे चश्म-ए-मख़मूर के उनवान-ए-नज़र कुछ तो खुलें दिल-ए-रंजूर धड़कने का कुछ अंदाज़ तो दे इक ज़रा हो नशा-ए-हुस्न में अंदाज़-ए-ख़ुमार इक झलक इश्क़ के अंजाम की आग़ाज़ तो दे जो छुपाए न छुपे और बताए न बने दिल-ए-आशिक़ को इन आँखों से कोई राज़ तो दे मुंतज़िर इतनी कभी थी न फ़ज़ा-ए-आफ़ाक़ छेड़ने ही को हूँ पुर-दर्द ग़ज़ल साज़ तो दे हम असीरान-ए-क़फ़स आग लगा सकते हैं फ़ुर्सत-ए-नग़्मा कभी हसरत-ए-परवाज़ तो दे इश्क़ इक बार मशिय्यत को बदल सकता है इंदिया अपना मगर कुछ निगह-ए-नाज़ तो दे क़ुर्ब ओ दीदार तो मालूम किसी का फिर भी कुछ पता सा फ़लक-ए-तफ़रक़ा-पर्दाज़ तो दे मंज़िलें गर्द की मानिंद उड़ी जाती हैं अबलक़-ए-दहर कुछ अंदाज़-ए-तग-ओ-ताज़ तो दे कान से हम तो 'फ़िराक़' आँख का लेते हैं काम आज छुप कर कोई आवाज़ पर आवाज़ तो दे " hijr-o-visaal-e-yaar-kaa-parda-uthaa-diyaa-firaq-gorakhpuri-ghazals," हिज्र-ओ-विसाल-ए-यार का पर्दा उठा दिया ख़ुद बढ़ के इश्क़ ने मुझे मेरा पता दिया गर्द-ओ-ग़ुबार-ए-हस्ती-ए-फ़ानी उड़ा दिया ऐ कीमिया-ए-इश्क़ मुझे क्या बना दिया वो सामने है और नज़र से छुपा दिया ऐ इश्क़-ए-बे-हिजाब मुझे क्या दिखा दिया वो शान-ए-ख़ामुशी कि बहारें हैं मुंतज़िर वो रंग-ए-गुफ़्तुगू कि गुलिस्ताँ बना दिया दम ले रही थीं हुस्न की जब सेहर-कारियाँ इन वक़्फा-हा-ए-कुफ्र को ईमाँ बना दिया मालूम कुछ मुझी को हैं उन की रवानियाँ जिन क़तरा-हा-ए-अश्क को दरिया बना दया इक बर्क़-ए-बे-क़रार थी तम्कीन-ए-हुस्न भी जिस वक़्त इश्क़ को ग़म-ए-सब्र-आज़मा दिया साक़ी मुझे भी याद हैं वो तिश्ना-कामियाँ जिन को हरीफ़-ए-साग़र-ओ-मीना बना दिया मालूम है हक़ीक़त-ए-ग़म-हा-ए-रोज़गार दुनिया को तेरे दर्द ने दुनिया बना दिया ऐ शोख़ी-ए-निगाह-ए-करम मुद्दतों के बा'द ख़्वाब-ए-गिरान-ए-ग़म से मुझे क्यूँ जगा दिया कुछ शोरिशें तग़ाफ़ुल-ए-पिन्हाँ में थीं जिन्हें हंगामा-ज़ार-ए-हश्र-ए-तमन्ना बना दिया बढ़ता ही जा रहा है जमाल-ए-नज़र-फ़रेब हुस्न-ए-नज़र को हुस्न-ए-ख़ुद-आरा बना दिया फिर देखना निगाह लड़ी किस से इश्क़ की गर हुस्न ने हिजाब-ए-तग़ाफुल उठा दिया जब ख़ून हो चुका दिल-ए-हस्ती-ए-एतिबार कुछ दर्द बच रहे जिन्हें इंसाँ बना दिया गुम-कर्दा-ए-वफ़ूर-ए-ग़म-ए-इंतिज़ार हूँ तू क्या छुपा कि मुझ को मुझी से छुपा दिया रात अब हरीफ़-ए-सुब्हह-ए-क़यामत ही क्यूँ न हो जो कुछ भी हो उस आँख को अब तो जगा दिया अब मैं हूँ और लुत्फ़-ओ-करम के तकल्लुफ़ात ये क्यूँ हिजाब-ए-रंजिश-ए-बे-जा बना दिया थी यूँ तो शाम-ए-हिज्र मगर पिछली रात को वो दर्द उठा 'फ़िराक़' कि मैं मुस्कुरा दिया " kuchh-ishaare-the-jinhen-duniyaa-samajh-baithe-the-ham-firaq-gorakhpuri-ghazals," कुछ इशारे थे जिन्हें दुनिया समझ बैठे थे हम उस निगाह-ए-आश्ना को क्या समझ बैठे थे हम रफ़्ता रफ़्ता ग़ैर अपनी ही नज़र में हो गए वाह-री ग़फ़्लत तुझे अपना समझ बैठे थे हम होश की तौफ़ीक़ भी कब अहल-ए-दिल को हो सकी इश्क़ में अपने को दीवाना समझ बैठे थे हम पर्दा-ए-आज़ुर्दगी में थी वो जान-ए-इल्तिफ़ात जिस अदा को रंजिश-ए-बेजा समझ बैठे थे हम क्या कहें उल्फ़त में राज़-ए-बे-हिसी क्यूँकर खुला हर नज़र को तेरी दर्द-अफ़ज़ा समझ बैठे थे हम बे-नियाज़ी को तिरी पाया सरासर सोज़ ओ दर्द तुझ को इक दुनिया से बेगाना समझ बैठे थे हम इंक़लाब-ए-पय-ब-पय हर गर्दिश ओ हर दौर में इस ज़मीन ओ आसमाँ को क्या समझ बैठे थे हम भूल बैठी वो निगाह-ए-नाज़ अहद-ए-दोस्ती उस को भी अपनी तबीअ'त का समझ बैठे थे हम साफ़ अलग हम को जुनून-ए-आशिक़ी ने कर दिया ख़ुद को तेरे दर्द का पर्दा समझ बैठे थे हम कान बजते हैं मोहब्बत के सुकूत-ए-नाज़ को दास्ताँ का ख़त्म हो जाना समझ बैठे थे हम बातों बातों में पयाम-ए-मर्ग भी आ ही गया उन निगाहों को हयात-अफ़्ज़ा समझ बैठे थे हम अब नहीं ताब-ए-सिपास-ए-हुस्न इस दिल को जिसे बे-क़रार-ए-शिकव-ए-बेजा समझ बैठे थे हम एक दुनिया दर्द की तस्वीर निकली इश्क़ को कोह-कन और क़ैस का क़िस्सा समझ बैठे थे हम रफ़्ता रफ़्ता इश्क़ मानूस-ए-जहाँ होता चला ख़ुद को तेरे हिज्र में तन्हा समझ बैठे थे हम हुस्न को इक हुस्न ही समझे नहीं और ऐ 'फ़िराक़' मेहरबाँ ना-मेहरबाँ क्या क्या समझ बैठे थे हम " zer-o-bam-se-saaz-e-khilqat-ke-jahaan-bantaa-gayaa-firaq-gorakhpuri-ghazals," ज़ेर-ओ-बम से साज़-ए-ख़िलक़त के जहाँ बनता गया ये ज़मीं बनती गई ये आसमाँ बनता गया दास्तान-ए-जौर-ए-बेहद ख़ून से लिखता रहा क़तरा क़तरा अश्क-ए-ग़म का बे-कराँ बनता गया इश्क़-ए-तन्हा से हुईं आबाद कितनी मंज़िलें इक मुसाफ़िर कारवाँ-दर-कारवाँ बनता गया मैं तिरे जिस ग़म को अपना जानता था वो भी तो ज़ेब-ए-उनवान-ए-हदीस-ए-दीगराँ बनता गया बात निकले बात से जैसे वो था तेरा बयाँ नाम तेरा दास्ताँ-दर-दास्ताँ बनता गया हम को है मालूम सब रूदाद-ए-इल्म-ओ-फ़ल्सफ़ा हाँ हर ईमान-ओ-यक़ीं वहम-ओ-गुमाँ बनता गया मैं किताब-ए-दिल में अपना हाल-ए-ग़म लिखता रहा हर वरक़ इक बाब-ए-तारीख़-ए-जहाँ बनता गया बस उसी की तर्जुमानी है मिरे अशआ'र में जो सुकूत-ए-राज़ रंगीं दास्ताँ बनता गया मैं ने सौंपा था तुझे इक काम सारी उम्र में वो बिगड़ता ही गया ऐ दिल कहाँ बनता गया वारदात-ए-दिल को दिल ही में जगह देते रहे हर हिसाब-ए-ग़म हिसाब-ए-दोस्ताँ बनता गया मेरी घुट्टी में पड़ी थी हो के हल उर्दू ज़बाँ जो भी मैं कहता गया हुस्न-ए-बयाँ बनता गया वक़्त के हाथों यहाँ क्या क्या ख़ज़ाने लुट गए एक तेरा ग़म कि गंज-ए-शाईगाँ बनता गया सर-ज़मीन-ए-हिंद पर अक़्वाम-ए-आलम के 'फ़िराक़' क़ाफ़िले बसते गए हिन्दोस्ताँ बनता गया " jaagne-vaalo-taa-ba-sahar-khaamosh-raho-habib-jalib-ghazals," जागने वालो ता-ब-सहर ख़ामोश रहो कल क्या होगा किस को ख़बर ख़ामोश रहो किस ने सहर के पाँव में ज़ंजीरें डालीं हो जाएगी रात बसर ख़ामोश रहो शायद चुप रहने में इज़्ज़त रह जाए चुप ही भली ऐ अहल-ए-नज़र ख़ामोश रहो क़दम क़दम पर पहरे हैं इन राहों में दार-ओ-रसन का है ये नगर ख़ामोश रहो यूँ भी कहाँ बे-ताबी-ए-दिल कम होती है यूँ भी कहाँ आराम मगर ख़ामोश रहो शेर की बातें ख़त्म हुईं इस आलम में कैसा 'जोश' और किस का 'जिगर' ख़ामोश रहो " ham-ne-dil-se-tujhe-sadaa-maanaa-habib-jalib-ghazals," हम ने दिल से तुझे सदा माना तू बड़ा था तुझे बड़ा माना 'मीर'-ओ-'ग़ालिब' के बा'द 'अनीस' के बा'द तुझ को माना बड़ा बजा माना तू कि दीवाना-ए-सदाक़त था तू ने बंदे को कब ख़ुदा माना तुझ को पर्वा न थी ज़माने की तू ने दिल ही का हर कहा माना तुझ को ख़ुद पे था ए'तिमाद इतना ख़ुद ही को तो न रहनुमा माना की न शब की कभी पज़ीराई सुब्ह को लाएक़-ए-सना माना हँस दिया सत्ह-ए-ज़ेहन-ए-आलम पर जब किसी बात का बुरा माना यूँ तो शाइ'र थे और भी ऐ 'जोश' हम ने तुझ सा न दूसरा माना " tum-se-pahle-vo-jo-ik-shakhs-yahaan-takht-nashiin-thaa-habib-jalib-ghazals," तुम से पहले वो जो इक शख़्स यहाँ तख़्त-नशीं था उस को भी अपने ख़ुदा होने पे इतना ही यक़ीं था कोई ठहरा हो जो लोगों के मुक़ाबिल तो बताओ वो कहाँ हैं कि जिन्हें नाज़ बहुत अपने तईं था आज सोए हैं तह-ए-ख़ाक न जाने यहाँ कितने कोई शोला कोई शबनम कोई महताब-जबीं था अब वो फिरते हैं इसी शहर में तन्हा लिए दिल को इक ज़माने में मिज़ाज उन का सर-ए-अर्श-ए-बरीं था छोड़ना घर का हमें याद है 'जालिब' नहीं भूले था वतन ज़ेहन में अपने कोई ज़िंदाँ तो नहीं था " afsos-tumhen-car-ke-shiishe-kaa-huaa-hai-habib-jalib-ghazals," अफ़्सोस तुम्हें कार के शीशे का हुआ है पर्वा नहीं इक माँ का जो दिल टूट गया है होता है असर तुम पे कहाँ नाला-ए-ग़म का बरहम जो हुई बज़्म-ए-तरब इस का गिला है फ़िरऔन भी नमरूद भी गुज़रे हैं जहाँ में रहता है यहाँ कौन यहाँ कौन रहा है तुम ज़ुल्म कहाँ तक तह-ए-अफ़्लाक करोगे ये बात न भूलो कि हमारा भी ख़ुदा है आज़ादी-ए-इंसान के वहीं फूल खिलेंगे जिस जा पे ज़हीर आज तिरा ख़ून गिरा है ता-चंद रहेगी ये शब-ए-ग़म की सियाही रस्ता कोई सूरज का कहीं रोक सका है तू आज का शाइ'र है तो कर मेरी तरह बात जैसे मिरे होंटों पे मिरे दिल की सदा है " dushmanon-ne-jo-dushmanii-kii-hai-habib-jalib-ghazals," दुश्मनों ने जो दुश्मनी की है दोस्तों ने भी क्या कमी की है ख़ामुशी पर हैं लोग ज़ेर-ए-इताब और हम ने तो बात भी की है मुतमइन है ज़मीर तो अपना बात सारी ज़मीर ही की है अपनी तो दास्ताँ है बस इतनी ग़म उठाए हैं शाएरी की है अब नज़र में नहीं है एक ही फूल फ़िक्र हम को कली कली की है पा सकेंगे न उम्र भर जिस को जुस्तुजू आज भी उसी की है जब मह-ओ-महर बुझ गए 'जालिब' हम ने अश्कों से रौशनी की है " sher-hotaa-hai-ab-mahiinon-men-habib-jalib-ghazals," शे'र होता है अब महीनों में ज़िंदगी ढल गई मशीनों में प्यार की रौशनी नहीं मिलती उन मकानों में उन मकीनों में देख कर दोस्ती का हाथ बढ़ाओ साँप होते हैं आस्तीनों में क़हर की आँख से न देख इन को दिल धड़कते हैं आबगीनों में आसमानों की ख़ैर हो यारब इक नया अज़्म है ज़मीनों में वो मोहब्बत नहीं रही 'जालिब' हम-सफ़ीरों में हम-नशीनों में " aur-sab-bhuul-gae-harf-e-sadaaqat-likhnaa-habib-jalib-ghazals-1," और सब भूल गए हर्फ़-ए-सदाक़त लिखना रह गया काम हमारा ही बग़ावत लिखना लाख कहते रहें ज़ुल्मत को न ज़ुल्मत लिखना हम ने सीखा नहीं प्यारे ब-इजाज़त लिखना न सिले की न सताइश की तमन्ना हम को हक़ में लोगों के हमारी तो है आदत लिखना हम ने जो भूल के भी शह का क़सीदा न लिखा शायद आया इसी ख़ूबी की बदौलत लिखना इस से बढ़ कर मिरी तहसीन भला क्या होगी पढ़ के ना-ख़ुश हैं मिरा साहब-ए-सरवत लिखना दहर के ग़म से हुआ रब्त तो हम भूल गए सर्व क़ामत को जवानी को क़यामत लिखना कुछ भी कहते हैं कहीं शह के मुसाहिब 'जालिब' रंग रखना यही अपना इसी सूरत लिखना " dil-vaalo-kyuun-dil-sii-daulat-yuun-be-kaar-lutaate-ho-habib-jalib-ghazals," दिल वालो क्यूँ दिल सी दौलत यूँ बे-कार लुटाते हो क्यूँ इस अँधियारी बस्ती में प्यार की जोत जगाते हो तुम ऐसा नादान जहाँ में कोई नहीं है कोई नहीं फिर इन गलियों में जाते हो पग पग ठोकर खाते हो सुंदर कलियो कोमल फूलो ये तो बताओ ये तो कहो आख़िर तुम में क्या जादू है क्यूँ मन में बस जाते हो ये मौसम रिम-झिम का मौसम ये बरखा ये मस्त फ़ज़ा ऐसे में आओ तो जानें ऐसे में कब आते हो हम से रूठ के जाने वालो इतना भेद बता जाओ क्यूँ नित रातो को सपनों में आते हो मन जाते हो चाँद-सितारों के झुरमुट में फूलों की मुस्काहट में तुम छुप-छुप कर हँसते हो तुम रूप का मान बढ़ाते हो चलते फिरते रौशन रस्ते तारीकी में डूब गए सो जाओ अब 'जालिब' तुम भी क्यूँ आँखें सुलगाते हो " ab-terii-zaruurat-bhii-bahut-kam-hai-mirii-jaan-habib-jalib-ghazals," अब तेरी ज़रूरत भी बहुत कम है मिरी जाँ अब शौक़ का कुछ और ही आलम है मिरी जाँ अब तज़्किरा-ए-ख़ंदा-ए-गुल बार है जी पर जाँ वक़्फ़-ए-ग़म-ए-गिर्या-ए-शबनम है मिरी जाँ रुख़ पर तिरे बिखरी हुई ये ज़ुल्फ़-ए-सियह-ताब तस्वीर-ए-परेशानी-ए-आलम है मिरी जाँ ये क्या कि तुझे भी है ज़माने से शिकायत ये क्या कि तिरी आँख भी पुर-नम है मिरी जाँ हम सादा-दिलों पर ये शब-ए-ग़म का तसल्लुत मायूस न हो और कोई दम है मिरी जाँ ये तेरी तवज्जोह का है एजाज़ कि मुझ से हर शख़्स तिरे शहर का बरहम है मिरी जाँ ऐ नुज़हत-ए-महताब तिरा ग़म है मिरी ज़ीस्त ऐ नाज़िश-ए-ख़ुर्शीद तिरा ग़म है मिरी जाँ " chuur-thaa-zakhmon-se-dil-zakhmii-jigar-bhii-ho-gayaa-habib-jalib-ghazals," चूर था ज़ख़्मों से दिल ज़ख़्मी जिगर भी हो गया उस को रोते थे कि सूना ये नगर भी हो गया लोग उसी सूरत परेशाँ हैं जिधर भी देखिए और वो कहते हैं कोह-ए-ग़म तो सर भी हो गया बाम-ओ-दर पर है मुसल्लत आज भी शाम-ए-अलम यूँ तो इन गलियों से ख़ुर्शीद-ए-सहर भी हो गया उस सितमगर की हक़ीक़त हम पे ज़ाहिर हो गई ख़त्म ख़ुश-फ़हमी की मंज़िल का सफ़र भी हो गया " bate-rahoge-to-apnaa-yuunhii-bahegaa-lahuu-habib-jalib-ghazals," बटे रहोगे तो अपना यूँही बहेगा लहू हुए न एक तो मंज़िल न बन सकेगा लहू हो किस घमंड में ऐ लख़्त लख़्त दीदा-वरो तुम्हें भी क़ातिल-ए-मेहनत-कशाँ कहेगा लहू इसी तरह से अगर तुम अना-परस्त रहे ख़ुद अपना राह-नुमा आप ही बनेगा लहू सुनो तुम्हारे गरेबान भी नहीं महफ़ूज़ डरो तुम्हारा भी इक दिन हिसाब लेगा लहू अगर न अहद किया हम ने एक होने का ग़नीम सब का यूँही बेचता रहेगा लहू कभी कभी मिरे बच्चे भी मुझ से पूछते हैं कहाँ तक और तू ख़ुश्क अपना ही करेगा लहू सदा कहा यही मैं ने क़रीब-तर है वो दूर कि जिस में कोई हमारा न पी सकेगा लहू " vahii-haalaat-hain-faqiiron-ke-habib-jalib-ghazals," वही हालात हैं फ़क़ीरों के दिन फिरे हैं फ़क़त वज़ीरों के अपना हल्क़ा है हल्क़ा-ए-ज़ंजीर और हल्क़े हैं सब अमीरों के हर बिलावल है देस का मक़रूज़ पाँव नंगे हैं बेनज़ीरों के वही अहल-ए-वफ़ा की सूरत-ए-हाल वारे न्यारे हैं बे-ज़मीरों के साज़िशें हैं वही ख़िलाफ़-ए-अवाम मशवरे हैं वही मुशीरों के बेड़ियाँ सामराज की हैं वही वही दिन-रात हैं असीरों के " us-rauunat-se-vo-jiite-hain-ki-marnaa-hii-nahiin-habib-jalib-ghazals," उस रऊनत से वो जीते हैं कि मरना ही नहीं तख़्त पर बैठे हैं यूँ जैसे उतरना ही नहीं यूँ मह-ओ-अंजुम की वादी में उड़े फिरते हैं वो ख़ाक के ज़र्रों पे जैसे पाँव धरना ही नहीं उन का दा'वा है कि सूरज भी उन्ही का है ग़ुलाम शब जो हम पर आई है उस को गुज़रना ही नहीं क्या इलाज उस का अगर हो मुद्दआ' उन का यही एहतिमाम रंग-ओ-बू गुलशन में करना ही नहीं ज़ुल्म से हैं बरसर-ए-पैकार आज़ादी-पसंद उन पहाड़ों में जहाँ पर कोई झरना ही नहीं दिल भी उन के हैं सियह ख़ूराक-ए-ज़िंदाँ की तरह उन से अपना ग़म बयाँ अब हम को करना ही नहीं इंतिहा कर लें सितम की लोग अभी हैं ख़्वाब में जाग उट्ठे जब लोग तो उन को ठहरना ही नहीं " khuub-aazaadii-e-sahaafat-hai-habib-jalib-ghazals," ख़ूब आज़ादी-ए-सहाफ़त है नज़्म लिखने पे भी क़यामत है दा'वा जम्हूरियत का है हर-आन ये हुकूमत भी क्या हुकूमत है धाँदली धोंस की है पैदावार सब को मा'लूम ये हक़ीक़त है ख़ौफ़ के ज़ेहन-ओ-दिल पे साए हैं किस की इज़्ज़त यहाँ सलामत है कभी जम्हूरियत यहाँ आए यही 'जालिब' हमारी हसरत है " tire-maathe-pe-jab-tak-bal-rahaa-hai-habib-jalib-ghazals," तिरे माथे पे जब तक बल रहा है उजाला आँख से ओझल रहा है समाते क्या नज़र में चाँद तारे तसव्वुर में तिरा आँचल रहा है तिरी शान-ए-तग़ाफ़ुल को ख़बर क्या कोई तेरे लिए बे-कल रहा है शिकायत है ग़म-ए-दौराँ को मुझ से कि दिल में क्यूँ तिरा ग़म पल रहा है तअज्जुब है सितम की आँधियों में चराग़-ए-दिल अभी तक जल रहा है लहू रोएँगी मग़रिब की फ़ज़ाएँ बड़ी तेज़ी से सूरज ढल रहा है ज़माना थक गया 'जालिब' ही तन्हा वफ़ा के रास्ते पर चल रहा है " zarre-hii-sahii-koh-se-takraa-to-gae-ham-habib-jalib-ghazals," ज़र्रे ही सही कोह से टकरा तो गए हम दिल ले के सर-ए-अर्सा-ए-ग़म आ तो गए हम अब नाम रहे या न रहे इश्क़ में अपना रूदाद-ए-वफ़ा दार पे दोहरा तो गए हम कहते थे जो अब कोई नहीं जाँ से गुज़रता लो जाँ से गुज़र कर उन्हें झुटला तो गए हम जाँ अपनी गँवा कर कभी घर अपना जला कर दिल उन का हर इक तौर से बहला तो गए हम कुछ और ही आलम था पस-ए-चेहरा-ए-याराँ रहता जो यूँही राज़ उसे पा तो गए हम अब सोच रहे हैं कि ये मुमकिन ही नहीं है फिर उन से न मिलने की क़सम खा तो गए हम उट्ठें कि न उट्ठें ये रज़ा उन की है 'जालिब' लोगों को सर-ए-दार नज़र आ तो गए हम " kaun-bataae-kaun-sujhaae-kaun-se-des-sidhaar-gae-habib-jalib-ghazals," कौन बताए कौन सुझाए कौन से देस सिधार गए उन का रस्ता तकते तकते नैन हमारे हार गए काँटों के दुख सहने में तस्कीन भी थी आराम भी था हँसने वाले भोले-भाले फूल चमन के मार गए एक लगन की बात है जीवन एक लगन ही जीवन है पूछ न क्या खोया क्या पाया क्या जीते क्या हार गए आने वाली बरखा देखें क्या दिखलाए आँखों को ये बरखा बरसाते दिन तो बिन प्रीतम बे-कार गए जब भी लौटे प्यार से लौटे फूल न पा कर गुलशन में भँवरे अमृत रस की धुन में पल पल सौ सौ बार गए हम से पूछो साहिल वालो क्या बीती दुखियारों पर खेवन-हारे बीच भँवर में छोड़ के जब उस पार गए " hujuum-dekh-ke-rasta-nahiin-badalte-ham-habib-jalib-ghazals," हुजूम देख के रस्ता नहीं बदलते हम किसी के डर से तक़ाज़ा नहीं बदलते हम हज़ार ज़ेर-ए-क़दम रास्ता हो ख़ारों का जो चल पड़ें तो इरादा नहीं बदलते हम इसी लिए तो नहीं मो'तबर ज़माने में कि रंग-ए-सूरत-ए-दुनिया नहीं बदलते हम हवा को देख के 'जालिब' मिसाल-ए-हम-अस्राँ बजा ये ज़ोम हमारा नहीं बदलते हम " dil-par-jo-zakhm-hain-vo-dikhaaen-kisii-ko-kyaa-habib-jalib-ghazals," दिल पर जो ज़ख़्म हैं वो दिखाएँ किसी को क्या अपना शरीक-ए-दर्द बनाएँ किसी को क्या हर शख़्स अपने अपने ग़मों में है मुब्तला ज़िंदाँ में अपने साथ रुलाएँ किसी को क्या बिछड़े हुए वो यार वो छोड़े हुए दयार रह रह के हम को याद जो आएँ किसी को क्या रोने को अपने हाल पे तन्हाई है बहुत उस अंजुमन में ख़ुद पे हँसाएं किसी को क्या वो बात छेड़ जिस में झलकता हो सब का ग़म यादें किसी की तुझ को सताएं किसी को क्या सोए हुए हैं लोग तो होंगे सुकून से हम जागने का रोग लगाएँ किसी को क्या 'जालिब' न आएगा कोई अहवाल पूछने दें शहर-ए-बे-हिसाँ में सदाएँ किसी को क्या " apnon-ne-vo-ranj-diye-hain-begaane-yaad-aate-hain-habib-jalib-ghazals," अपनों ने वो रंज दिए हैं बेगाने याद आते हैं देख के उस बस्ती की हालत वीराने याद आते हैं उस नगरी में क़दम क़दम पे सर को झुकाना पड़ता है उस नगरी में क़दम क़दम पर बुत-ख़ाने याद आते हैं आँखें पुर-नम हो जाती हैं ग़ुर्बत के सहराओं में जब उस रिम-झिम की वादी के अफ़्साने याद आते हैं ऐसे ऐसे दर्द मिले हैं नए दयारों में हम को बिछड़े हुए कुछ लोग पुराने याराने याद आते हैं जिन के कारन आज हमारे हाल पे दुनिया हस्ती है कितने ज़ालिम चेहरे जाने पहचाने याद आते हैं यूँ न लुटी थी गलियों दौलत अपने अश्कों की रोते हैं तो हम को अपने ग़म-ख़ाने याद आते हैं कोई तो परचम ले कर निकले अपने गरेबाँ का 'जालिब' चारों जानिब सन्नाटा है दीवाने याद आते हैं " faiz-aur-faiz-kaa-gam-bhuulne-vaalaa-hai-kahiin-habib-jalib-ghazals," 'फ़ैज़' और 'फ़ैज़' का ग़म भूलने वाला है कहीं मौत ये तेरा सितम भूलने वाला है कहीं हम से जिस वक़्त ने वो शाह-ए-सुख़न छीन लिया हम को वो वक़्त-ए-अलम भूलने वाला है कहीं तिरे अश्क और भी चमकाएँगी यादें उस की हम को वो दीदा-ए-नम भूलने वाला है कहीं कभी ज़िंदाँ में कभी दूर वतन से ऐ दोस्त जो किया उस ने रक़म भूलने वाला है कहीं आख़िरी बार उसे देख न पाए 'जालिब' ये मुक़द्दर का सितम भूलने वाला है कहीं " jiivan-mujh-se-main-jiivan-se-sharmaataa-huun-habib-jalib-ghazals," जीवन मुझ से मैं जीवन से शरमाता हूँ मुझ से आगे जाने वालो में आता हूँ जिन की यादों से रौशन हैं मेरी आँखें दिल कहता है उन को भी मैं याद आता हूँ सुर से साँसों का नाता है तोड़ूँ कैसे तुम जलते हो क्यूँ जीता हूँ क्यूँ गाता हूँ तुम अपने दामन में सितारे बैठ कर टाँको और मैं नए बरन लफ़्ज़ों को पहनाता हूँ जिन ख़्वाबों को देख के मैं ने जीना सीखा उन के आगे हर दौलत को ठुकराता हूँ ज़हर उगलते हैं जब मिल कर दुनिया वाले मीठे बोलों की वादी में खो जाता हूँ 'जालिब' मेरे शेर समझ में आ जाते हैं इसी लिए कम-रुत्बा शाएर कहलाता हूँ " aag-hai-phailii-huii-kaalii-ghataaon-kii-jagah-habib-jalib-ghazals," आग है फैली हुई काली घटाओं की जगह बद-दुआएँ हैं लबों पर अब दुआओं की जगह इंतिख़ाब-ए-अहल-ए-गुलशन पर बहुत रोता है दिल देख कर ज़ाग़-ओ-ज़ग़्न को ख़ुश-नवाओं की जगह कुछ भी होता पर न होते पारा-पारा जिस्म-ओ-जाँ राहज़न होते अगर उन रहनुमाओं की जगह लुट गई इस दौर में अहल-ए-क़लम की आबरू बिक रहे हैं अब सहाफ़ी बेसवाओं की जगह कुछ तो आता हम को भी जाँ से गुज़रने का मज़ा ग़ैर होते काश 'जालिब' आश्नाओं की जगह " kabhii-to-mehrbaan-ho-kar-bulaa-len-habib-jalib-ghazals," कभी तो मेहरबाँ हो कर बुला लें ये महवश हम फ़क़ीरों की दुआ लें न जाने फिर ये रुत आए न आए जवाँ फूलों की कुछ ख़ुश्बू चुरा लें बहुत रोए ज़माने के लिए हम ज़रा अपने लिए आँसू बहा लें हम उन को भूलने वाले नहीं हैं समझते हैं ग़म-ए-दौराँ की चालें हमारी भी सँभल जाएगी हालत वो पहले अपनी ज़ुल्फ़ें तो सँभालें निकलने को है वो महताब घर से सितारों से कहो नज़रें झुका लें हम अपने रास्ते पर चल रहे हैं जनाब-ए-शैख़ अपना रास्ता लें ज़माना तो यूँही रूठा रहेगा चलो 'जालिब' उन्हें चल कर मना लें " is-shahr-e-kharaabii-men-gam-e-ishq-ke-maare-habib-jalib-ghazals," इस शहर-ए-ख़राबी में ग़म-ए-इश्क़ के मारे ज़िंदा हैं यही बात बड़ी बात है प्यारे ये हँसता हुआ चाँद ये पुर-नूर सितारे ताबिंदा ओ पाइंदा हैं ज़र्रों के सहारे हसरत है कोई ग़ुंचा हमें प्यार से देखे अरमाँ है कोई फूल हमें दिल से पुकारे हर सुब्ह मिरी सुब्ह पे रोती रही शबनम हर रात मिरी रात पे हँसते रहे तारे कुछ और भी हैं काम हमें ऐ ग़म-ए-जानाँ कब तक कोई उलझी हुई ज़ुल्फ़ों को सँवारे " na-dagmagaae-kabhii-ham-vafaa-ke-raste-men-habib-jalib-ghazals," न डगमगाए कभी हम वफ़ा के रस्ते में चराग़ हम ने जलाए हवा के रस्ते में किसे लगाए गले और कहाँ कहाँ ठहरे हज़ार ग़ुंचा-ओ-गुल हैं सबा के रस्ते में ख़ुदा का नाम कोई ले तो चौंक उठते हैं मिले हैं हम को वो रहबर ख़ुदा के रस्ते में कहीं सलासिल-ए-तस्बीह और कहीं ज़ुन्नार बिछे हैं दाम बहुत मुद्दआ के रस्ते में अभी वो मंज़िल-ए-फ़िक्र-ओ-नज़र नहीं आई है आदमी अभी जुर्म ओ सज़ा के रस्ते में हैं आज भी वही दार-ओ-रसन वही ज़िंदाँ हर इक निगाह-ए-रुमूज़-आश्ना के रस्ते में ये नफ़रतों की फ़सीलें जहालतों के हिसार न रह सकेंगे हमारी सदा के रस्ते में मिटा सके न कोई सैल-ए-इंक़लाब जिन्हें वो नक़्श छोड़े हैं हम ने वफ़ा के रस्ते में ज़माना एक सा 'जालिब' सदा नहीं रहता चलेंगे हम भी कभी सर उठा के रस्ते में " vo-dekhne-mujhe-aanaa-to-chaahtaa-hogaa-habib-jalib-ghazals," वो देखने मुझे आना तो चाहता होगा मगर ज़माने की बातों से डर गया होगा उसे था शौक़ बहुत मुझ को अच्छा रखने का ये शौक़ औरों को शायद बुरा लगा होगा कभी न हद्द-ए-अदब से बढ़े थे दीदा ओ दिल वो मुझ से किस लिए किसी बात पर ख़फ़ा होगा मुझे गुमान है ये भी यक़ीन की हद तक किसी से भी न वो मेरी तरह मिला होगा कभी कभी तो सितारों की छाँव में वो भी मिरे ख़याल में कुछ देर जागता होगा वो उस का सादा ओ मासूम वालेहाना-पन किसी भी जुग में कोई देवता भी क्या होगा नहीं वो आया तो 'जालिब' गिला न कर उस का न-जाने क्या उसे दरपेश मसअला होगा " ye-soch-kar-na-maail-e-fariyaad-ham-hue-habib-jalib-ghazals," ये सोच कर न माइल-ए-फ़रियाद हम हुए आबाद कब हुए थे कि बर्बाद हम हुए होता है शाद-काम यहाँ कौन बा-ज़मीर नाशाद हम हुए तो बहुत शाद हम हुए परवेज़ के जलाल से टकराए हम भी हैं ये और बात है कि न फ़रहाद हम हुए कुछ ऐसे भा गए हमें दुनिया के दर्द-ओ-ग़म कू-ए-बुताँ में भूली हुई याद हम हुए 'जालिब' तमाम उम्र हमें ये गुमाँ रहा उस ज़ुल्फ़ के ख़याल से आज़ाद हम हुए " ye-jo-shab-ke-aivaanon-men-ik-halchal-ik-hashr-bapaa-hai-habib-jalib-ghazals," ये जो शब के ऐवानों में इक हलचल इक हश्र बपा है ये जो अंधेरा सिमट रहा है ये जो उजाला फैल रहा है ये जो हर दुख सहने वाला दुख का मुदावा जान गया है मज़लूमों मजबूरों का ग़म ये जो मिरे शे'रों में ढला है ये जो महक गुलशन गुलशन है ये जो चमक आलम आलम है मार्कसिज़्म है मार्कसिज़्म है मार्कसिज़्म है मार्कसिज़्म है " us-ne-jab-hans-ke-namaskaar-kiyaa-habib-jalib-ghazals," उस ने जब हँस के नमस्कार किया मुझ को इंसान से अवतार किया दश्त-ए-ग़ुर्बत में दिल-ए-वीराँ ने याद जमुना को कई बार किया प्यार की बात न पूछो यारो हम ने किस किस से नहीं प्यार किया कितनी ख़्वाबीदा तमन्नाओं को उस की आवाज़ ने बेदार किया हम पुजारी हैं बुतों के 'जालिब' हम ने का'बे में भी इक़रार किया " ik-shakhs-baa-zamiir-miraa-yaar-mushafii-habib-jalib-ghazals," इक शख़्स बा-ज़मीर मिरा यार 'मुसहफ़ी' मेरी तरह वफ़ा का परस्तार 'मुसहफ़ी' रहता था कज-कुलाह अमीरों के दरमियाँ यकसर लिए हुए मिरा किरदार 'मुसहफ़ी' देते हैं दाद ग़ैर को कब अहल-ए-लखनऊ कब दाद का था उन से तलबगार 'मुसहफ़ी' ना-क़द्री-ए-जहाँ से कई बार आ के तंग इक उम्र शे'र से रहा बेज़ार 'मुसहफ़ी' दरबार में था बार कहाँ उस ग़रीब को बरसों मिसाल-ए-'मीर' फिरा ख़्वार 'मुसहफ़ी' मैं ने भी उस गली में गुज़ारी है रो के उम्र मिलता है उस गली में किसे प्यार 'मुसहफ़ी' " log-giiton-kaa-nagar-yaad-aayaa-habib-jalib-ghazals," लोग गीतों का नगर याद आया आज परदेस में घर याद आया जब चले आए चमन-ज़ार से हम इल्तिफ़ात-ए-गुल-ए-तर याद आया तेरी बेगाना-निगाही सर-ए-शाम ये सितम ता-ब-सहर याद आया हम ज़माने का सितम भूल गए जब तिरा लुत्फ़-ए-नज़र याद आया तो भी मसरूर था इस शब सर-ए-बज़्म अपने शे'रों का असर याद आया फिर हुआ दर्द-ए-तमन्ना बेदार फिर दिल-ए-ख़ाक-बसर याद आया हम जिसे भूल चुके थे 'जालिब' फिर वही राहगुज़र याद आया " baaten-to-kuchh-aisii-hain-ki-khud-se-bhii-na-kii-jaaen-habib-jalib-ghazals," बातें तो कुछ ऐसी हैं कि ख़ुद से भी न की जाएँ सोचा है ख़मोशी से हर इक ज़हर को पी जाएँ अपना तो नहीं कोई वहाँ पूछने वाला उस बज़्म में जाना है जिन्हें अब तो वही जाएँ अब तुझ से हमें कोई तअल्लुक़ नहीं रखना अच्छा हो कि दिल से तिरी यादें भी चली जाएँ इक उम्र उठाए हैं सितम ग़ैर के हम ने अपनों की तो इक पल भी जफ़ाएँ न सही जाएँ 'जालिब' ग़म-ए-दौराँ हो कि याद-ए-रुख़-ए-जानाँ तन्हा मुझे रहने दें मिरे दिल से सभी जाएँ " dil-e-pur-shauq-ko-pahluu-men-dabaae-rakkhaa-habib-jalib-ghazals," दिल-ए-पुर-शौक़ को पहलू में दबाए रक्खा तुझ से भी हम ने तिरा प्यार छुपाए रक्खा छोड़ इस बात को ऐ दोस्त कि तुझ से पहले हम ने किस किस को ख़यालों में बसाए रक्खा ग़ैर मुमकिन थी ज़माने के ग़मों से फ़ुर्सत फिर भी हम ने तिरा ग़म दिल में बसाए रक्खा फूल को फूल न कहते सो उसे क्या कहते क्या हुआ ग़ैर ने कॉलर पे सजाए रक्खा जाने किस हाल में हैं कौन से शहरों में हैं वो ज़िंदगी अपनी जिन्हें हम ने बनाए रक्खा हाए क्या लोग थे वो लोग परी-चेहरा लोग हम ने जिन के लिए दुनिया को भुलाए रक्खा अब मिलें भी तो न पहचान सकें हम उन को जिन को इक उम्र ख़यालों में बसाए रक्खा " kuchh-log-khayaalon-se-chale-jaaen-to-soen-habib-jalib-ghazals," कुछ लोग ख़यालों से चले जाएँ तो सोएँ बीते हुए दिन रात न याद आएँ तो सोएँ चेहरे जो कभी हम को दिखाई नहीं देंगे आ आ के तसव्वुर में न तड़पाएँ तो सोएँ बरसात की रुत के वो तरब-रेज़ मनाज़िर सीने में न इक आग सी भड़काएँ तो सोएँ सुब्हों के मुक़द्दर को जगाते हुए मुखड़े आँचल जो निगाहों में न लहराएँ तो सोएँ महसूस ये होता है अभी जाग रहे हैं लाहौर के सब यार भी सो जाएँ तो सोएँ " kam-puraanaa-bahut-nayaa-thaa-firaaq-habib-jalib-ghazals," कम पुराना बहुत नया था फ़िराक़ इक अजब रम्ज़-आशना था फ़िराक़ दूर वो कब हुआ निगाहों से धड़कनों में बसा हुआ है फ़िराक़ शाम-ए-ग़म के सुलगते सहरा में इक उमंडती हुई घटा था फ़िराक़ अम्न था प्यार था मोहब्बत था रंग था नूर था नवा था फ़िराक़ फ़ासले नफ़रतों के मिट जाएँ प्यार ही प्यार सोचता था फ़िराक़ हम से रंज-ओ-अलम के मारों को किस मोहब्बत से देखता था फ़िराक़ इश्क़ इंसानियत से था उस को हर तअ'स्सुब से मावरा था फ़िराक़ " darakht-suukh-gae-ruk-gae-nadii-naale-habib-jalib-ghazals," दरख़्त सूख गए रुक गए नदी नाले ये किस नगर को रवाना हुए हैं घर वाले कहानियाँ जो सुनाते थे अहद-ए-रफ़्ता की निशाँ वो गर्दिश-ए-अय्याम ने मिटा डाले मैं शहर शहर फिरा हूँ इसी तमन्ना में किसी को अपना कहूँ कोई मुझ को अपना ले सदा न दे किसी महताब को अंधेरों में लगा न दे ये ज़माना ज़बान पर ताले कोई किरन है यहाँ तो कोई किरन है वहाँ दिल ओ निगाह ने किस दर्जा रोग हैं पाले हमीं पे उन की नज़र है हमीं पे उन का करम ये और बात यहाँ और भी हैं दिल वाले कुछ और तुझ पे खुलेंगी हक़ीक़तें 'जालिब' जो हो सके तो किसी का फ़रेब भी खा ले " bahut-raushan-hai-shaam-e-gam-hamaarii-habib-jalib-ghazals," बहुत रौशन है शाम-ए-ग़म हमारी किसी की याद है हमदम हमारी ग़लत है ला-तअल्लुक़ हैं चमन से तुम्हारे फूल और शबनम हमारी ये पलकों पर नए आँसू नहीं हैं अज़ल से आँख है पुर-नम हमारी हर इक लब पर तबस्सुम देखने की तमन्ना कब हुई है कम हमारी कही है हम ने ख़ुद से भी बहुत कम न पूछो दास्तान-ए-ग़म हमारी " bhulaa-bhii-de-use-jo-baat-ho-gaii-pyaare-habib-jalib-ghazals," भुला भी दे उसे जो बात हो गई प्यारे नए चराग़ जला रात हो गई प्यारे तिरी निगाह-ए-पशेमाँ को कैसे देखूँगा कभी जो तुझ से मुलाक़ात हो गई प्यारे न तेरी याद न दुनिया का ग़म न अपना ख़याल अजीब सूरत-ए-हालात हो गई प्यारे उदास उदास हैं शमएँ बुझे बुझे साग़र ये कैसी शाम-ए-ख़राबात हो गई प्यारे वफ़ा का नाम न लेगा कोई ज़माने में हम अहल-ए-दिल को अगर मात हो गई प्यारे तुम्हें तो नाज़ बहुत दोस्तों पे था 'जालिब' अलग-थलग से हो क्या बात हो गई प्यारे " phir-kabhii-laut-kar-na-aaenge-habib-jalib-ghazals," फिर कभी लौट कर न आएँगे हम तिरा शहर छोड़ जाएँगे दूर-उफ़्तादा बस्तियों में कहीं तेरी यादों से लौ लगाएँगे शम-ए-माह-ओ-नुजूम गुल कर के आँसुओं के दिए जलाएँगे आख़िरी बार इक ग़ज़ल सुन लो आख़िरी बार हम सुनाएँगे सूरत-ए-मौजा-ए-हवा 'जालिब' सारी दुनिया की ख़ाक उड़ाएँगे " vatan-ko-kuchh-nahiin-khatra-nizaam-e-zar-hai-khatre-men-habib-jalib-ghazals," वतन को कुछ नहीं ख़तरा निज़ाम-ए-ज़र है ख़तरे में हक़ीक़त में जो रहज़न है वही रहबर है ख़तरे में जो बैठा है सफ़-ए-मातम बिछाए मर्ग-ए-ज़ुल्मत पर वो नौहागर है ख़तरे में वो दानिश-वर है ख़तरे में अगर तशवीश लाहक़ है तो सुलतानों को लाहक़ है न तेरा घर है ख़तरे में न मेरा घर है ख़तरे में जहाँ 'इक़बाल' भी नज़्र-ए-ख़त-ए-तनसीख़ हो 'जालिब' वहाँ तुझ को शिकायत है तिरा जौहर है ख़तरे में " miir-o-gaalib-bane-yagaanaa-bane-habib-jalib-ghazals," 'मीर'-ओ-'ग़ालिब' बने 'यगाना' बने आदमी ऐ ख़ुदा ख़ुदा न बने मौत की दस्तरस में कब से हैं ज़िंदगी का कोई बहाना बने अपना शायद यही था जुर्म ऐ दोस्त बा-वफ़ा बन के बे-वफ़ा न बने हम पे इक ए'तिराज़ ये भी है बे-नवा हो के बे-नवा न बने ये भी अपना क़ुसूर क्या कम है किसी क़ातिल के हम-नवा न बने क्या गिला संग-दिल ज़माने का आश्ना ही जब आश्ना न बने छोड़ कर उस गली को ऐ 'जालिब' इक हक़ीक़त से हम फ़साना बने " jhuutii-khabren-ghadne-vaale-jhuute-sher-sunaane-vaale-habib-jalib-ghazals," झूटी ख़बरें घड़ने वाले झूटे शे'र सुनाने वाले लोगो सब्र कि अपने किए की जल्द सज़ा हैं पाने वाले दर्द आँखों से बहता है और चेहरा सब कुछ कहता है ये मत लिक्खो वो मत लिक्खो आए बड़े समझाने वाले ख़ुद काटेंगे अपनी मुश्किल ख़ुद पाएँगे अपनी मंज़िल राहज़नों से भी बद-तर हैं राह-नुमा कहलाने वाले उन से प्यार किया है हम ने उन की राह में हम बैठे हैं ना-मुम्किन है जिन का मिलना और नहीं जो आने वाले उन पर भी हँसती थी दुनिया आवाज़ें कसती थी दुनिया 'जालिब' अपनी ही सूरत थे इश्क़ में जाँ से जाने वाले " bade-bane-the-jaalib-saahab-pite-sadak-ke-biich-habib-jalib-ghazals," बड़े बने थे 'जालिब' साहब पिटे सड़क के बीच गोली खाई लाठी खाई गिरे सड़क के बीच कभी गिरेबाँ चाक हुआ और कभी हुआ दिल ख़ून हमें तो यूँही मिले सुख़न के सिले सड़क के बीच जिस्म पे जो ज़ख़्मों के निशाँ हैं अपने तमग़े हैं मिली है ऐसी दाद वफ़ा की किसे सड़क के बीच " sher-se-shaairii-se-darte-hain-habib-jalib-ghazals," शेर से शाइरी से डरते हैं कम-नज़र रौशनी से डरते हैं लोग डरते हैं दुश्मनी से तिरी हम तिरी दोस्ती से डरते हैं दहर में आह-ए-बे-कसाँ के सिवा और हम कब किसी से डरते हैं हम को ग़ैरों से डर नहीं लगता अपने अहबाब ही से डरते हैं दावर-ए-हश्र बख़्श दे शायद हाँ मगर मौलवी से डरते हैं रूठता है तो रूठ जाए जहाँ उन की हम बे-रुख़ी से डरते हैं हर क़दम पर है मोहतसिब 'जालिब' अब तो हम चाँदनी से डरते हैं " kahiin-aah-ban-ke-lab-par-tiraa-naam-aa-na-jaae-habib-jalib-ghazals," कहीं आह बन के लब पर तिरा नाम आ न जाए तुझे बेवफ़ा कहूँ मैं वो मक़ाम आ न जाए ज़रा ज़ुल्फ़ को सँभालो मिरा दिल धड़क रहा है कोई और ताइर-ए-दिल तह-ए-दाम आ न जाए जिसे सुन के टूट जाए मिरा आरज़ू भरा दिल तिरी अंजुमन से मुझ को वो पयाम आ न जाए वो जो मंज़िलों पे ला कर किसी हम-सफ़र को लूटें उन्हीं रहज़नों में तेरा कहीं नाम आ न जाए इसी फ़िक्र में हैं ग़लताँ ये निज़ाम-ए-ज़र के बंदे जो तमाम-ए-ज़िंदगी है वो निज़ाम आ न जाए ये मह ओ नुजूम हँस लें मिरे आँसुओं पे 'जालिब' मिरा माहताब जब तक लब-ए-बाम आ न जाए " phir-dil-se-aa-rahii-hai-sadaa-us-galii-men-chal-habib-jalib-ghazals," फिर दिल से आ रही है सदा उस गली में चल शायद मिले ग़ज़ल का पता उस गली में चल कब से नहीं हुआ है कोई शेर काम का ये शेर की नहीं है फ़ज़ा उस गली में चल वो बाम ओ दर वो लोग वो रुस्वाइयों के ज़ख़्म हैं सब के सब अज़ीज़ जुदा उस गली में चल उस फूल के बग़ैर बहुत जी उदास है मुझ को भी साथ ले के सबा उस गली में चल दुनिया तो चाहती है यूँही फ़ासले रहें दुनिया के मशवरों पे न जा उस गली में चल बे-नूर ओ बे-असर है यहाँ की सदा-ए-साज़ था उस सुकूत में भी मज़ा उस गली में चल 'जालिब' पुकारती हैं वो शोला-नवाइयाँ ये सर्द रुत ये सर्द हवा उस गली में चल " ye-aur-baat-terii-galii-men-na-aaen-ham-habib-jalib-ghazals-3," ये और बात तेरी गली में न आएँ हम लेकिन ये क्या कि शहर तिरा छोड़ जाएँ हम मुद्दत हुई है कू-ए-बुताँ की तरफ़ गए आवारगी से दिल को कहाँ तक बचाएँ हम शायद ब-क़ैद-ए-ज़ीस्त ये साअत न आ सके तुम दास्तान-ए-शौक़ सुनो और सुनाएँ हम बे-नूर हो चुकी है बहुत शहर की फ़ज़ा तारीक रास्तों में कहीं खो न जाएँ हम उस के बग़ैर आज बहुत जी उदास है 'जालिब' चलो कहीं से उसे ढूँढ लाएँ हम " yuun-vo-zulmat-se-rahaa-dast-o-garebaan-yaaro-habib-jalib-ghazals," यूँ वो ज़ुल्मत से रहा दस्त-ओ-गरेबाँ यारो उस से लर्ज़ां थे बहुत शब के निगहबाँ यारो उस ने हर-गाम दिया हौसला-ए-ताज़ा हमें वो न इक पल भी रहा हम से गुरेज़ाँ यारो उस ने मानी न कभी तीरगी-ए-शब से शिकस्त दिल अँधेरों में रहा उस का फ़रोज़ाँ यारो उस को हर हाल में जीने की अदा आती थी वो न हालात से होता था परेशाँ यारो उस ने बातिल से न ता-ज़ीस्त किया समझौता दहर में उस सा कहाँ साहब-ए-ईमाँ यारो उस को थी कश्मकश-ए-दैर-ओ-हरम से नफ़रत उस सा हिन्दू न कोई उस सा मुसलमाँ यारो उस ने सुल्तानी-ए-जम्हूर के नग़्मे लिक्खे रूह शाहों की रही उस से परेशाँ यारो अपने अशआ'र की शम्ओं' से उजाला कर के कर गया शब का सफ़र कितना वो आसाँ यारो उस के गीतों से ज़माने को सँवारें यारो रूह-ए-'साहिर' को अगर करना है शादाँ यारो " dil-kii-baat-labon-par-laa-kar-ab-tak-ham-dukh-sahte-hain-habib-jalib-ghazals," दिल की बात लबों पर ला कर अब तक हम दुख सहते हैं हम ने सुना था इस बस्ती में दिल वाले भी रहते हैं बीत गया सावन का महीना मौसम ने नज़रें बदलीं लेकिन इन प्यासी आँखों से अब तक आँसू बहते हैं एक हमें आवारा कहना कोई बड़ा इल्ज़ाम नहीं दुनिया वाले दिल वालों को और बहुत कुछ कहते हैं जिन की ख़ातिर शहर भी छोड़ा जिन के लिए बदनाम हुए आज वही हम से बेगाने बेगाने से रहते हैं वो जो अभी इस राहगुज़र से चाक-गरेबाँ गुज़रा था उस आवारा दीवाने को 'जालिब' 'जालिब' कहते हैं " main-dhuundtaa-huun-jise-vo-jahaan-nahiin-miltaa-kaifi-azmi-ghazals," मैं ढूँडता हूँ जिसे वो जहाँ नहीं मिलता नई ज़मीन नया आसमाँ नहीं मिलता नई ज़मीन नया आसमाँ भी मिल जाए नए बशर का कहीं कुछ निशाँ नहीं मिलता वो तेग़ मिल गई जिस से हुआ है क़त्ल मिरा किसी के हाथ का उस पर निशाँ नहीं मिलता वो मेरा गाँव है वो मेरे गाँव के चूल्हे कि जिन में शोले तो शोले धुआँ नहीं मिलता जो इक ख़ुदा नहीं मिलता तो इतना मातम क्यूँ यहाँ तो कोई मिरा हम-ज़बाँ नहीं मिलता खड़ा हूँ कब से मैं चेहरों के एक जंगल में तुम्हारे चेहरे का कुछ भी यहाँ नहीं मिलता " haath-aa-kar-lagaa-gayaa-koii-kaifi-azmi-ghazals," हाथ आ कर लगा गया कोई मेरा छप्पर उठा गया कोई लग गया इक मशीन में मैं भी शहर में ले के आ गया कोई मैं खड़ा था कि पीठ पर मेरी इश्तिहार इक लगा गया कोई ये सदी धूप को तरसती है जैसे सूरज को खा गया कोई ऐसी महँगाई है कि चेहरा भी बेच के अपना खा गया कोई अब वो अरमान हैं न वो सपने सब कबूतर उड़ा गया कोई वो गए जब से ऐसा लगता है छोटा मोटा ख़ुदा गया कोई मेरा बचपन भी साथ ले आया गाँव से जब भी आ गया कोई " kyaa-jaane-kis-kii-pyaas-bujhaane-kidhar-gaiin-kaifi-azmi-ghazals," क्या जाने किस की प्यास बुझाने किधर गईं इस सर पे झूम के जो घटाएँ गुज़र गईं दीवाना पूछता है ये लहरों से बार बार कुछ बस्तियाँ यहाँ थीं बताओ किधर गईं अब जिस तरफ़ से चाहे गुज़र जाए कारवाँ वीरानियाँ तो सब मिरे दिल में उतर गईं पैमाना टूटने का कोई ग़म नहीं मुझे ग़म है तो ये कि चाँदनी रातें बिखर गईं पाया भी उन को खो भी दिया चुप भी हो रहे इक मुख़्तसर सी रात में सदियाँ गुज़र गईं " shor-yuunhii-na-parindon-ne-machaayaa-hogaa-kaifi-azmi-ghazals," शोर यूँही न परिंदों ने मचाया होगा कोई जंगल की तरफ़ शहर से आया होगा पेड़ के काटने वालों को ये मालूम तो था जिस्म जल जाएँगे जब सर पे न साया होगा बानी-ए-जश्न-ए-बहाराँ ने ये सोचा भी नहीं किस ने काँटों को लहू अपना पिलाया होगा बिजली के तार पे बैठा हुआ हँसता पंछी सोचता है कि वो जंगल तो पराया होगा अपने जंगल से जो घबरा के उड़े थे प्यासे हर सराब उन को समुंदर नज़र आया होगा " khaar-o-khas-to-uthen-raasta-to-chale-kaifi-azmi-ghazals," ख़ार-ओ-ख़स तो उठें रास्ता तो चले मैं अगर थक गया क़ाफ़िला तो चले चाँद सूरज बुज़ुर्गों के नक़्श-ए-क़दम ख़ैर बुझने दो उन को हवा तो चले हाकिम-ए-शहर ये भी कोई शहर है मस्जिदें बंद हैं मय-कदा तो चले उस को मज़हब कहो या सियासत कहो ख़ुद-कुशी का हुनर तुम सिखा तो चले इतनी लाशें मैं कैसे उठा पाऊँगा आप ईंटों की हुरमत बचा तो चले बेलचे लाओ खोलो ज़मीं की तहें मैं कहाँ दफ़्न हूँ कुछ पता तो चले " itnaa-to-zindagii-men-kisii-ke-khalal-pade-kaifi-azmi-ghazals," इतना तो ज़िंदगी में किसी के ख़लल पड़े हँसने से हो सुकून न रोने से कल पड़े जिस तरह हँस रहा हूँ मैं पी पी के गर्म अश्क यूँ दूसरा हँसे तो कलेजा निकल पड़े इक तुम कि तुम को फ़िक्र-ए-नशेब-ओ-फ़राज़ है इक हम कि चल पड़े तो बहर-हाल चल पड़े साक़ी सभी को है ग़म-ए-तिश्ना-लबी मगर मय है उसी की नाम पे जिस के उबल पड़े मुद्दत के बा'द उस ने जो की लुत्फ़ की निगाह जी ख़ुश तो हो गया मगर आँसू निकल पड़े " tum-itnaa-jo-muskuraa-rahe-ho-kaifi-azmi-ghazals," तुम इतना जो मुस्कुरा रहे हो क्या ग़म है जिस को छुपा रहे हो आँखों में नमी हँसी लबों पर क्या हाल है क्या दिखा रहे हो बन जाएँगे ज़हर पीते पीते ये अश्क जो पीते जा रहे हो जिन ज़ख़्मों को वक़्त भर चला है तुम क्यूँ उन्हें छेड़े जा रहे हो रेखाओं का खेल है मुक़द्दर रेखाओं से मात खा रहे हो " laaii-phir-ek-lagzish-e-mastaana-tere-shahr-men-kaifi-azmi-ghazals," लाई फिर इक लग़्ज़िश-ए-मस्ताना तेरे शहर में फिर बनेंगी मस्जिदें मय-ख़ाना तेरे शहर में आज फिर टूटेंगी तेरे घर की नाज़ुक खिड़कियाँ आज फिर देखा गया दीवाना तेरे शहर में जुर्म है तेरी गली से सर झुका कर लौटना कुफ़्र है पथराव से घबराना तेरे शहर में शाह-नामे लिक्खे हैं खंडरात की हर ईंट पर हर जगह है दफ़्न इक अफ़्साना तेरे शहर में कुछ कनीज़ें जो हरीम-ए-नाज़ में हैं बारयाब माँगती हैं जान ओ दिल नज़राना तेरे शहर में नंगी सड़कों पर भटक कर देख जब मरती है रात रेंगता है हर तरफ़ वीराना तेरे शहर में " vo-bhii-saraahne-lage-arbaab-e-fan-ke-baad-kaifi-azmi-ghazals," वो भी सराहने लगे अर्बाब-ए-फ़न के बा'द दाद-ए-सुख़न मिली मुझे तर्क-ए-सुख़न के बा'द दीवाना-वार चाँद से आगे निकल गए ठहरा न दिल कहीं भी तिरी अंजुमन के बा'द होंटों को सी के देखिए पछ्ताइएगा आप हंगामे जाग उठते हैं अक्सर घुटन के बा'द ग़ुर्बत की ठंडी छाँव में याद आई उस की धूप क़द्र-ए-वतन हुई हमें तर्क-ए-वतन के बा'द एलान-ए-हक़ में ख़तरा-ए-दार-ओ-रसन तो है लेकिन सवाल ये है कि दार-ओ-रसन के बा'द इंसाँ की ख़्वाहिशों की कोई इंतिहा नहीं दो गज़ ज़मीं भी चाहिए दो गज़ कफ़न के बा'द " jhukii-jhukii-sii-nazar-be-qaraar-hai-ki-nahiin-kaifi-azmi-ghazals," झुकी झुकी सी नज़र बे-क़रार है कि नहीं दबा दबा सा सही दिल में प्यार है कि नहीं तू अपने दिल की जवाँ धड़कनों को गिन के बता मिरी तरह तिरा दिल बे-क़रार है कि नहीं वो पल कि जिस में मोहब्बत जवान होती है उस एक पल का तुझे इंतिज़ार है कि नहीं तिरी उमीद पे ठुकरा रहा हूँ दुनिया को तुझे भी अपने पे ये ए'तिबार है कि नहीं " sunaa-karo-mirii-jaan-in-se-un-se-afsaane-kaifi-azmi-ghazals," सुना करो मिरी जाँ इन से उन से अफ़्साने सब अजनबी हैं यहाँ कौन किस को पहचाने यहाँ से जल्द गुज़र जाओ क़ाफ़िले वालो हैं मेरी प्यास के फूँके हुए ये वीराने मिरे जुनून-ए-परस्तिश से तंग आ गए लोग सुना है बंद किए जा रहे हैं बुत-ख़ाने जहाँ से पिछले पहर कोई तिश्ना-काम उठा वहीं पे तोड़े हैं यारों ने आज पैमाने बहार आए तो मेरा सलाम कह देना मुझे तो आज तलब कर लिया है सहरा ने हुआ है हुक्म कि 'कैफ़ी' को संगसार करो मसीह बैठे हैं छुप के कहाँ ख़ुदा जाने " kii-hai-koii-hasiin-khataa-har-khataa-ke-saath-kaifi-azmi-ghazals," की है कोई हसीन ख़ता हर ख़ता के साथ थोड़ा सा प्यार भी मुझे दे दो सज़ा के साथ गर डूबना ही अपना मुक़द्दर है तो सुनो डूबेंगे हम ज़रूर मगर नाख़ुदा के साथ मंज़िल से वो भी दूर था और हम भी दूर थे हम ने भी धूल उड़ाई बहुत रहनुमा के साथ रक़्स-ए-सबा के जश्न में हम तुम भी नाचते ऐ काश तुम भी आ गए होते सबा के साथ इक्कीसवीं सदी की तरफ़ हम चले तो हैं फ़ित्ने भी जाग उट्ठे हैं आवाज़-ए-पा के साथ ऐसा लगा ग़रीबी की रेखा से हूँ बुलंद पूछा किसी ने हाल कुछ ऐसी अदा के साथ " kahiin-se-laut-ke-ham-ladkhadaae-hain-kyaa-kyaa-kaifi-azmi-ghazals," कहीं से लौट के हम लड़खड़ाए हैं क्या क्या सितारे ज़ेर-ए-क़दम रात आए हैं क्या क्या नशेब-ए-हस्ती से अफ़्सोस हम उभर न सके फ़राज़-ए-दार से पैग़ाम आए हैं क्या क्या जब उस ने हार के ख़ंजर ज़मीं पे फेंक दिया तमाम ज़ख़्म-ए-जिगर मुस्कुराए हैं क्या क्या छटा जहाँ से उस आवाज़ का घना बादल वहीं से धूप ने तलवे जलाए हैं क्या क्या उठा के सर मुझे इतना तो देख लेने दे कि क़त्ल-गाह में दीवाने आए हैं क्या क्या कहीं अँधेरे से मानूस हो न जाए अदब चराग़ तेज़ हवा ने बुझाए हैं क्या क्या " patthar-ke-khudaa-vahaan-bhii-paae-kaifi-azmi-ghazals," पत्थर के ख़ुदा वहाँ भी पाए हम चाँद से आज लौट आए दीवारें तो हर तरफ़ खड़ी हैं क्या हो गए मेहरबान साए जंगल की हवाएँ आ रही हैं काग़ज़ का ये शहर उड़ न जाए लैला ने नया जनम लिया है है क़ैस कोई जो दिल लगाए है आज ज़मीं का ग़ुस्ल-ए-सेह्हत जिस दिल में हो जितना ख़ून लाए सहरा सहरा लहू के खे़मे फिर प्यासे लब-ए-फ़ुरात आए " jo-vo-mire-na-rahe-main-bhii-kab-kisii-kaa-rahaa-kaifi-azmi-ghazals-1," जो वो मिरे न रहे मैं भी कब किसी का रहा बिछड़ के उन से सलीक़ा न ज़िंदगी का रहा लबों से उड़ गया जुगनू की तरह नाम उस का सहारा अब मिरे घर में न रौशनी का रहा गुज़रने को तो हज़ारों ही क़ाफ़िले गुज़रे ज़मीं पे नक़्श-ए-क़दम बस किसी किसी का रहा " aaj-sochaa-to-aansuu-bhar-aae-kaifi-azmi-ghazals-1," आज सोचा तो आँसू भर आए मुद्दतें हो गईं मुस्कुराए हर क़दम पर उधर मुड़ के देखा उन की महफ़िल से हम उठ तो आए रह गई ज़िंदगी दर्द बन के दर्द दिल में छुपाए छुपाए दिल की नाज़ुक रगें टूटती हैं याद इतना भी कोई न आए " milne-kii-tarah-mujh-se-vo-pal-bhar-nahiin-miltaa-naseer-turabi-ghazals," मिलने की तरह मुझ से वो पल भर नहीं मिलता दिल उस से मिला जिस से मुक़द्दर नहीं मिलता ये राह-ए-तमन्ना है यहाँ देख के चलना इस राह में सर मिलते हैं पत्थर नहीं मिलता हमरंगी-ए-मौसम के तलबगार न होते साया भी तो क़ामत के बराबर नहीं मिलता कहने को ग़म-ए-हिज्र बड़ा दुश्मन-ए-जाँ है पर दोस्त भी इस दोस्त से बेहतर नहीं मिलता कुछ रोज़ 'नसीर' आओ चलो घर में रहा जाए लोगों को ये शिकवा है कि घर पर नहीं मिलता " vo-ham-safar-thaa-magar-us-se-ham-navaaii-na-thii-naseer-turabi-ghazals," वो हम-सफ़र था मगर उस से हम-नवाई न थी कि धूप छाँव का आलम रहा जुदाई न थी न अपना रंज न औरों का दुख न तेरा मलाल शब-ए-फ़िराक़ कभी हम ने यूँ गँवाई न थी मोहब्बतों का सफ़र इस तरह भी गुज़रा था शिकस्ता-दिल थे मुसाफ़िर शिकस्ता-पाई न थी अदावतें थीं, तग़ाफ़ुल था, रंजिशें थीं बहुत बिछड़ने वाले में सब कुछ था, बेवफ़ाई न थी बिछड़ते वक़्त उन आँखों में थी हमारी ग़ज़ल ग़ज़ल भी वो जो किसी को अभी सुनाई न थी किसे पुकार रहा था वो डूबता हुआ दिन सदा तो आई थी लेकिन कोई दुहाई न थी कभी ये हाल कि दोनों में यक-दिली थी बहुत कभी ये मरहला जैसे कि आश्नाई न थी अजीब होती है राह-ए-सुख़न भी देख 'नसीर' वहाँ भी आ गए आख़िर, जहाँ रसाई न थी " is-kadii-dhuup-men-saaya-kar-ke-naseer-turabi-ghazals," इस कड़ी धूप में साया कर के तू कहाँ है मुझे तन्हा कर के मैं तो अर्ज़ां था ख़ुदा की मानिंद कौन गुज़रा मिरा सौदा कर के तीरगी टूट पड़ी है मुझ पर मैं पशीमाँ हूँ उजाला कर के ले गया छीन के आँखें मेरी मुझ से क्यूँ वादा-ए-फ़र्दा कर के लौ इरादों की बढ़ा दी शब ने दिन गया जब मुझे पसपा कर के काश ये आईना-ए-हिज्र-ओ-विसाल टूट जाए मुझे अंधा कर के हर तरफ़ सच की दुहाई है 'नसीर' शेर लिखते रहो सच्चा कर के " tujhe-kyaa-khabar-mire-be-khabar-miraa-silsila-koii-aur-hai-naseer-turabi-ghazals-3," तुझे क्या ख़बर मिरे बे-ख़बर मिरा सिलसिला कोई और है जो मुझी को मुझ से बहम करे वो गुरेज़-पा कोई और है मिरे मौसमों के भी तौर थे मिरे बर्ग-ओ-बार ही और थे मगर अब रविश है अलग कोई मगर अब हवा कोई और है यही शहर शहर-ए-क़रार है तो दिल-ए-शिकस्ता की ख़ैर हो मिरी आस है किसी और से मुझे पूछता कोई और है ये वो माजरा-ए-फ़िराक़ है जो मोहब्बतों से न खुल सका कि मोहब्बतों ही के दरमियाँ सबब-ए-जफ़ा कोई और है हैं मोहब्बतों की अमानतें यही हिजरतें यही क़ुर्बतें दिए बाम-ओ-दर किसी और ने तो रहा बसा कोई और है ये फ़ज़ा के रंग खुले खुले इसी पेश-ओ-पस के हैं सिलसिले अभी ख़ुश-नवा कोई और था अभी पर-कुशा कोई और है दिल-ए-ज़ूद-रंज न कर गिला किसी गर्म ओ सर्द रक़ीब का रुख़-ए-ना-सज़ा तो है रू-ब-रू पस-ए-ना-सज़ा कोई और है बहुत आए हमदम ओ चारा-गर जो नुमूद-ओ-नाम के हो गए जो ज़वाल-ए-ग़म का भी ग़म करे वो ख़ुश-आश्ना कोई और है ये 'नसीर' शाम-ए-सुपुर्दगी की उदास उदास सी रौशनी ब-कनार-ए-गुल ज़रा देखना ये तुम्ही हो या कोई और है " marham-e-vaqt-na-ejaaz-e-masiihaaii-hai-naseer-turabi-ghazals," मरहम-ए-वक़्त न एजाज़-ए-मसीहाई है ज़िंदगी रोज़ नए ज़ख़्म की गहराई है फिर मिरे घर की फ़ज़ाओं में हुआ सन्नाटा फिर दर-ओ-बाम से अंदेशा-ए-गोयाई है तुझ से बिछड़ूँ तो कोई फूल न महके मुझ में देख क्या कर्ब है क्या ज़ात की सच्चाई है तेरा मंशा तिरे लहजे की धनक में देखा तिरी आवाज़ भी शायद तिरी अंगड़ाई है कुछ अजब गर्दिश-ए-पर्कार सफ़र रखता हूँ दो-क़दम मुझ से भी आगे मिरी रुस्वाई है कुछ तो ये है कि मिरी राह जुदा है तुझ से और कुछ क़र्ज़ भी मुझ पर तिरी तन्हाई है किस लिए मुझ से गुरेज़ाँ है मिरे सामने तू क्या तिरी राह में हाइल मिरी बीनाई है वो सितारे जो चमकते हैं तिरे आँगन में उन सितारों से तो अपनी भी शनासाई है जिस को इक उम्र ग़ज़ल से किया मंसूब 'नसीर' उस को परखा तो खुला क़ाफ़िया-पैमाई है " diyaa-saa-dil-ke-kharaabe-men-jal-rahaa-hai-miyaan-naseer-turabi-ghazals," दिया सा दिल के ख़राबे में जल रहा है मियाँ दिए के गिर्द कोई अक्स चल रहा है मियाँ ये रूह रक़्स‌‌‌‌-ए-चराग़ाँ है अपने हल्क़े में ये जिस्म साया है और साया ढल रहा मियाँ ये आँख पर्दा है इक गर्दिश-ए-तहय्युर का ये दिल नहीं है बगूला उछल रहा है मियाँ कभी किसी का गुज़रना कभी ठहर जाना मिरे सुकूत में क्या क्या ख़लल रहा है मियाँ किसी की राह में अफ़्लाक ज़ेर-ए-पा होते यहाँ तो पाँव से सहरा निकल रहा है मियाँ हुजूम-ए-शोख़ में ये दिल ही बे-ग़रज़ निकला चलो कोई तो हरीफ़ाना चल रहा है मियाँ तुझे अभी से पड़ी है कि फ़ैसला हो जाए न जाने कब से यहाँ वक़्त टल रहा है मियाँ तबीअतों ही के मिलने से था मज़ा बाक़ी सो वो मज़ा भी कहाँ आज-कल रहा है मियाँ ग़मों की फ़स्ल में जिस ग़म को राएगाँ समझें ख़ुशी तो ये है कि वो ग़म भी फल रहा है मियाँ लिखा 'नसीर' ने हर रंग में सफ़ेद-ओ-सियाह मगर जो हर्फ़ लहू में मचल रहा है मियाँ " sukuut-e-shaam-se-ghabraa-na-jaae-aakhir-tuu-naseer-turabi-ghazals," सुकूत-ए-शाम से घबरा न जाए आख़िर तू मिरे दयार से गुज़री जो ऐ किरन फिर तू लिबास-ए-जाँ में नहीं शो'लगी का रंग मगर झुलस रहा है मिरे साथ क्यूँ ब-ज़ाहिर तू वफ़ा-ए-वा'दा-ओ-पैमाँ का ए'तिबार भी क्या कि मैं तो साहब-ए-ईमाँ हूँ और मुंकिर तू मिरे वजूद में इक बे-ज़बाँ समुंदर है उतर के देख सफ़ीने से मेरी ख़ातिर तू मैं शाख़-ए-सब्ज़ नहीं महरम-ए-सबा भी नहीं मिरे फ़रेब में क्यूँ आ गया है ताइर तू इसी उम्मीद पे जलते हैं रास्तों में चराग़ कभी तो लौट के आएगा ऐ मुसाफ़िर तू " main-bhii-ai-kaash-kabhii-mauj-e-sabaa-ho-jaauun-naseer-turabi-ghazals," मैं भी ऐ काश कभी मौज-ए-सबा हो जाऊँ इस तवक़्क़ो पे कि ख़ुद से भी जुदा हो जाऊँ अब्र उट्ठे तो सिमट जाऊँ तिरी आँखों में धूप निकले तो तिरे सर की रिदा हो जाऊँ आज की रात उजाले मिरे हम-साया हैं आज की रात जो सो लूँ तो नया हो जाऊँ अब यही सोच लिया दिल में कि मंज़िल के बग़ैर घर पलट आऊँ तो मैं आबला-पा हो जाऊँ फूल की तरह महकता हूँ तिरी याद के साथ ये अलग बात कि मैं तुझ से ख़फ़ा हो जाऊँ जिस के कूचे में बरसते रहे पत्थर मुझ पर उस के हाथों के लिए रंग-ए-हिना हो जाऊँ आरज़ू ये है कि तक़्दीस-ए-हुनर की ख़ातिर तेरे होंटों पे रहूँ हम्द-ओ-सना हो जाऊँ मरहला अपनी परस्तिश का हो दरपेश तो मैं अपने ही सामने माइल-ब-दुआ हो जाऊँ तीशा-ए-वक़्त बताए कि तआरुफ़ के लिए किन पहाड़ों की बुलंदी पे खड़ा हो जाऊँ हाए वो लोग कि मैं जिन का पुजारी हूँ 'नसीर' हाए वो लोग कि मैं जिन का ख़ुदा हो जाऊँ " rache-base-hue-lamhon-se-jab-hisaab-huaa-naseer-turabi-ghazals," रचे-बसे हुए लम्हों से जब हिसाब हुआ गए दिनों की रुतों का ज़ियाँ सवाब हुआ गुज़र गया तो पस-ए-मौज बे-कनारी थी ठहर गया तो वो दरिया मुझे सराब हुआ सुपुर्दगी के तक़ाज़े कहाँ कहाँ से पढ़ूँ हुनर के बाब में पैकर तिरा किताब हुआ हर आरज़ू मिरी आँखों की रौशनी ठहरी चराग़ सोच में गुम हैं ये क्या अज़ाब हुआ कुछ अजनबी से लगे आश्ना दरीचे भी किरन किरन जो उजालों का एहतिसाब हुआ वो यख़-मिज़ाज रहा फ़ासलों के रिश्तों से मगर गले से लगाया तो आब आब हुआ वो पेड़ जिस के तले रूह गुनगुनाती थी उसी की छाँव से अब मुझ को इज्तिनाब हुआ इन आँधियों में किसे मोहलत-ए-क़याम यहाँ कि एक ख़ेमा-ए-जाँ था सो बे-तनाब हुआ सलीब-ए-संग हो या पैरहन के रंग 'नसीर' हमारे नाम से क्या क्या न इंतिसाब हुआ " dard-kii-dhuup-se-chehre-ko-nikhar-jaanaa-thaa-naseer-turabi-ghazals," दर्द की धूप से चेहरे को निखर जाना था आइना देखने वाले तुझे मर जाना था राह में ऐसे नुक़ूश-ए-कफ़-ए-पा भी आए मैं ने दानिस्ता जिन्हें गर्द-ए-सफ़र जाना था वहम-ओ-इदराक के हर मोड़ पे सोचा मैं ने तू कहाँ है मिरे हमराह अगर जाना था आगही ज़ख़्म-ए-नज़ारा न बनी थी जब तक मैं ने हर शख़्स को महबूब-ए-नज़र जाना था क़ुर्बतें रेत की दीवार हैं गिर सकती हैं मुझ को ख़ुद अपने ही साए में ठहर जाना था तू कि वो तेज़ हवा जिस की तमन्ना बे-सूद मैं कि वो ख़ाक जिसे ख़ुद ही बिखर जाना था आँख वीरान सही फिर भी अँधेरों को 'नसीर' रौशनी बन के मिरे दिल में उतर जाना था " ham-rahii-kii-baat-mat-kar-imtihaan-ho-jaaegaa-naseer-turabi-ghazals," हम-रही की बात मत कर इम्तिहाँ हो जाएगा हम सुबुक हो जाएँगे तुझ को गिराँ हो जाएगा जब बहार आ कर गुज़र जाएगी ऐ सर्व-ए-बहार एक रंग अपना भी पैवंद-ए-ख़िज़ाँ हो जाएगा साअत-ए-तर्क-ए-तअल्लुक़ भी क़रीब आ ही गई क्या ये अपना सब तअल्लुक़ राएगाँ हो जाएगा ये हवा सारे चराग़ों को उड़ा ले जाएगी रात ढलने तक यहाँ सब कुछ धुआँ हो जाएगा शाख़-ए-दिल फिर से हरी होने लगी देखो 'नसीर' ऐसा लगता है किसी का आशियाँ हो जाएगा " misl-e-sahraa-hai-rifaaqat-kaa-chaman-bhii-ab-ke-naseer-turabi-ghazals," मिस्ल-ए-सहरा है रिफ़ाक़त का चमन भी अब के जल बुझा अपने ही शो'लों में बदन भी अब के ख़ार-ओ-ख़स हूँ तो शरर-ख़ेज़ियाँ देखूँ फिर से आँख ले आई है इक ऐसी किरन भी अब के हम तो वो फूल जो शाख़ों पे ये सोचें पहरों क्यूँ सबा भूल गई अपना चलन भी अब के मंज़िलों तक नज़र आता है शिकस्तों का ग़ुबार साथ देती नहीं ऐसे में थकन भी अब के मुंसलिक एक ही रिश्ते में न हो जाए कहीं तिरे माथे तिरे बिस्तर की शिकन भी अब के बे-गुनाही के लिबादे को उतारो भी 'नसीर' रास आ जाए अगर जुर्म-ए-सुख़न भी अब के " sabaa-kaa-narm-saa-jhonkaa-bhii-taaziyaana-huaa-naseer-turabi-ghazals-1," सबा का नर्म सा झोंका भी ताज़ियाना हुआ ये वार मुझ पे हुआ भी तो ग़ाएबाना हुआ उसी ने मुझ पे उठाए हैं संग जिस के लिए मैं पाश पाश हुआ घर निगार-ख़ाना हुआ झुलस रहा था बदन गर्मी-ए-नफ़स से मगर तिरे ख़याल का ख़ुर्शीद शामियाना हुआ ख़ुद अपने हिज्र की ख़्वाहिश मुझे अज़ीज़ रही ये तेरे वस्ल का क़िस्सा तो इक बहाना हुआ ख़ुदा की सर्द-मिज़ाजी समा गई मुझ में मिरी तलाश का सौदा पयम्बराना हुआ मैं इक शजर की तरह रह-गुज़र में ठहरा हूँ थकन उतार के तू किस तरफ़ रवाना हुआ वो शख़्स जिस के लिए शे'र कह रहा हूँ 'नसीर' ग़ज़ल सुनाए हुए उस को इक ज़माना हुआ " koii-aavaaz-na-aahat-na-khayaal-aise-men-naseer-turabi-ghazals," कोई आवाज़ न आहट न ख़याल ऐसे में रात महकी है मगर जी है निढाल ऐसे में मेरे अतराफ़ तो गिरती हुई दीवारें हैं साया-ए-उम्र-ए-रवाँ मुझ को सँभाल ऐसे में जब भी चढ़ते हुए दरिया में सफ़ीना उतरा याद आया तिरे लहजे का कमाल ऐसे में आँख खुलती है तो सब ख़्वाब बिखर जाते हैं सोचता हूँ कि बिछा दूँ कोई जाल ऐसे में मुद्दतों बा'द अगर सामने आए हम तुम धुँदले धुँदले से मिलेंगे ख़द-ओ-ख़ाल ऐसे में हिज्र के फूल में है दर्द की बासी ख़ुश्बू मौसम-ए-वस्ल कोई ताज़ा मलाल ऐसे में " dekh-lete-hain-ab-us-baam-ko-aate-jaate-naseer-turabi-ghazals," देख लेते हैं अब उस बाम को आते जाते ये भी आज़ार चला जाएगा जाते जाते दिल के सब नक़्श थे हाथों की लकीरों जैसे नक़्श-ए-पा होते तो मुमकिन था मिटाते जाते थी कभी राह जो हम-राह गुज़रने वाली अब हज़र होता है उस राह से आते जाते शहर-ए-बे-मेहर! कभी हम को भी मोहलत देता इक दिया हम भी किसी रुख़ से जलाते जाते पारा-ए-अब्र-ए-गुरेज़ाँ थे कि मौसम अपने दूर भी रहते मगर पास भी आते जाते हर घड़ी एक जुदा ग़म है जुदाई उस की ग़म की मीआद भी वो ले गया जाते जाते उस के कूचे में भी हो, राह से बे-राह 'नसीर' इतने आए थे तो आवाज़ लगाते जाते " injiil-e-raftagaan-kii-hadiison-ke-saath-huun-naseer-turabi-ghazals," इंजील-ए-रफ़्तगाँ की हदीसों के साथ हूँ ईसा-नफ़स हूँ और सलीबों के साथ हूँ पाबंद-ए-रंग-ओ-नक़्श हूँ तस्वीर की तरह मैं बे-हिजाब अपने हिजाबों के साथ हूँ औराक़-ए-आरज़ू पे ब-उन्वान-ए-जाँ-कनी मैं बे-निशाँ सी चंद लकीरों के साथ हूँ शायद ये इंतिज़ार की लौ फ़ैसला करे मैं अपने साथ हूँ कि दरीचों के साथ हूँ तू फ़तह-मंद मेरा तराशा हुआ सनम मैं बुत-तराश अपनी शिकस्तों के साथ हूँ मौज-ए-सबा की ज़द पे सर-ए-रहगुज़ार-ए-शौक़ मैं भी 'नसीर' घर के चराग़ों के साथ हूँ " ishq-e-laa-mahduud-jab-tak-rahnumaa-hotaa-nahiin-jigar-moradabadi-ghazals," इश्क़-ए-ला-महदूद जब तक रहनुमा होता नहीं ज़िंदगी से ज़िंदगी का हक़ अदा होता नहीं बे-कराँ होता नहीं बे-इंतिहा होता नहीं क़तरा जब तक बढ़ के क़ुल्ज़ुम-आश्ना होता नहीं उस से बढ़ कर दोस्त कोई दूसरा होता नहीं सब जुदा हो जाएँ लेकिन ग़म जुदा होता नहीं ज़िंदगी इक हादसा है और कैसा हादसा मौत से भी ख़त्म जिस का सिलसिला होता नहीं कौन ये नासेह को समझाए ब-तर्ज़-ए-दिल-नशीं इश्क़ सादिक़ हो तो ग़म भी बे-मज़ा होता नहीं दर्द से मामूर होती जा रही है काएनात इक दिल-ए-इंसाँ मगर दर्द-आश्ना होता नहीं मेरे अर्ज़-ए-ग़म पे वो कहना किसी का हाए हाए शिकवा-ए-ग़म शेवा-ए-अहल-ए-वफ़ा होता नहीं उस मक़ाम-ए-क़ुर्ब तक अब इश्क़ पहुँचा ही जहाँ दीदा-ओ-दिल का भी अक्सर वास्ता होता नहीं हर क़दम के साथ मंज़िल लेकिन इस का क्या इलाज इश्क़ ही कम-बख़्त मंज़िल-आश्ना होता नहीं अल्लाह अल्लाह ये कमाल और इर्तिबात-ए-हुस्न-ओ-इश्क़ फ़ासले हों लाख दिल से दिल जुदा होता नहीं क्या क़यामत है कि इस दौर-ए-तरक़्क़ी में 'जिगर' आदमी से आदमी का हक़ अदा होता नहीं " ab-to-ye-bhii-nahiin-rahaa-ehsaas-jigar-moradabadi-ghazals," अब तो ये भी नहीं रहा एहसास दर्द होता है या नहीं होता इश्क़ जब तक न कर चुके रुस्वा आदमी काम का नहीं होता टूट पड़ता है दफ़अ'तन जो इश्क़ बेश-तर देर-पा नहीं होता वो भी होता है एक वक़्त कि जब मा-सिवा मा-सिवा नहीं होता हाए क्या हो गया तबीअ'त को ग़म भी राहत-फ़ज़ा नहीं होता दिल हमारा है या तुम्हारा है हम से ये फ़ैसला नहीं होता जिस पे तेरी नज़र नहीं होती उस की जानिब ख़ुदा नहीं होता मैं कि बे-ज़ार उम्र भर के लिए दिल कि दम-भर जुदा नहीं होता वो हमारे क़रीब होते हैं जब हमारा पता नहीं होता दिल को क्या क्या सुकून होता है जब कोई आसरा नहीं होता हो के इक बार सामना उन से फिर कभी सामना नहीं होता " jo-ab-bhii-na-takliif-farmaaiyegaa-jigar-moradabadi-ghazals," जो अब भी न तकलीफ़ फ़रमाइएगा तो बस हाथ मलते ही रह जाइएगा निगाहों से छुप कर कहाँ जाइएगा जहाँ जाइएगा हमें पाइएगा मिरा जब बुरा हाल सुन पाइएगा ख़िरामाँ ख़िरामाँ चले आइएगा मिटा कर हमें आप पछ्ताइएगा कमी कोई महसूस फ़रमाइएगा नहीं खेल नासेह जुनूँ की हक़ीक़त समझ लीजिएगा तो समझाइएगा हमें भी ये अब देखना है कि हम पर कहाँ तक तवज्जोह न फ़रमाइएगा सितम इश्क़ में आप आसाँ न समझें तड़प जाइएगा जो तड़पाइएगा ये दिल है इसे दिल ही बस रहने दीजे करम कीजिएगा तो पछ्ताइएगा कहीं चुप रही है ज़बान-ए-मोहब्बत न फ़रमाइएगा तो फ़रमाइएगा भुलाना हमारा मुबारक मुबारक मगर शर्त ये है न याद आइएगा हमें भी न अब चैन आएगा जब तक इन आँखों में आँसू न भर लाइएगा तिरा जज़्बा-ए-शौक़ है बे-हक़ीक़त ज़रा फिर तो इरशाद फ़रमाइएगा हमीं जब न होंगे तो क्या रंग-ए-महफ़िल किसे देख कर आप शरमाइएगा ये माना कि दे कर हमें रंज-ए-फ़ुर्क़त मुदावा-ए-फ़ुर्क़त न फ़रमाइएगा मोहब्बत मोहब्बत ही रहती है लेकिन कहाँ तक तबीअत को बहलाइएगा न होगा हमारा ही आग़ोश ख़ाली कुछ अपना भी पहलू तही पाइएगा जुनूँ की 'जिगर' कोई हद भी है आख़िर कहाँ तक किसी पर सितम ढाइएगा " kiyaa-taajjub-ki-mirii-ruuh-e-ravaan-tak-pahunche-jigar-moradabadi-ghazals," किया तअ'ज्जुब कि मिरी रूह-ए-रवाँ तक पहुँचे पहले कोई मिरे नग़्मों की ज़बाँ तक पहुँचे जब हर इक शोरिश-ए-ग़म ज़ब्त-ए-फ़ुग़ाँ तक पहुँचे फिर ख़ुदा जाने ये हंगामा कहाँ तक पहुँचे आँख तक दिल से न आए न ज़बाँ तक पहुँचे बात जिस की है उसी आफ़त-ए-जाँ तक पहुँचे तू जहाँ पर था बहुत पहले वहीं आज भी है देख रिंदान-ए-ख़ुश-अन्फ़ास कहाँ तक पहुँचे जो ज़माने को बुरा कहते हैं ख़ुद हैं वो बुरे काश ये बात तिरे गोश-ए-गिराँ तक पहुँचे बढ़ के रिंदों ने क़दम हज़रत-ए-वाइ'ज़ के लिए गिरते पड़ते जो दर-ए-पीर-ए-मुग़ाँ तक पहुँचे तू मिरे हाल-ए-परेशाँ पे बहुत तंज़ न कर अपने गेसू भी ज़रा देख कहाँ तक पहुँचे उन का जो फ़र्ज़ है वो अहल-ए-सियासत जानें मेरा पैग़ाम मोहब्बत है जहाँ तक पहुँचे इश्क़ की चोट दिखाने में कहीं आती है कुछ इशारे थे कि जो लफ़्ज़-ओ-बयाँ तक पहुँचे जल्वे बेताब थे जो पर्दा-ए-फ़ितरत में 'जिगर' ख़ुद तड़प कर मिरी चश्म-ए-निगराँ तक पहुँचे " vo-jo-ruuthen-yuun-manaanaa-chaahiye-jigar-moradabadi-ghazals," वो जो रूठें यूँ मनाना चाहिए ज़िंदगी से रूठ जाना चाहिए हिम्मत-ए-क़ातिल बढ़ाना चाहिए ज़ेर-ए-ख़ंजर मुस्कुराना चाहिए ज़िंदगी है नाम जोहद ओ जंग का मौत क्या है भूल जाना चाहिए है इन्हीं धोकों से दिल की ज़िंदगी जो हसीं धोका हो खाना चाहिए लज़्ज़तें हैं दुश्मन-ए-औज-ए-कमाल कुल्फ़तों से जी लगाना चाहिए उन से मिलने को तो क्या कहिए 'जिगर' ख़ुद से मिलने को ज़माना चाहिए " allaah-agar-taufiiq-na-de-insaan-ke-bas-kaa-kaam-nahiin-jigar-moradabadi-ghazals," अल्लाह अगर तौफ़ीक़ न दे इंसान के बस का काम नहीं फ़ैज़ान-ए-मोहब्बत आम सही इरफ़ान-ए-मोहब्बत आम नहीं ये तू ने कहा क्या ऐ नादाँ फ़य्याज़ी-ए-क़ुदरत आम नहीं तू फ़िक्र ओ नज़र तो पैदा कर क्या चीज़ है जो इनआम नहीं या-रब ये मक़ाम-ए-इश्क़ है क्या गो दीदा-ओ-दिल नाकाम नहीं तस्कीन है और तस्कीन नहीं आराम है और आराम नहीं क्यूँ मस्त-ए-शराब-ए-ऐश-ओ-तरब तकलीफ़-ए-तवज्जोह फ़रमाएँ आवाज़-ए-शिकस्त-ए-दिल ही तो है आवाज़-ए-शिकस्त-ए-जाम नहीं आना है जो बज़्म-ए-जानाँ में पिंदार-ए-ख़ुदी को तोड़ के आ ऐ होश-ओ-ख़िरद के दीवाने याँ होश-ओ-ख़िरद का काम नहीं ज़ाहिद ने कुछ इस अंदाज़ से पी साक़ी की निगाहें पड़ने लगीं मय-कश यही अब तक समझे थे शाइस्ता दौर-ए-जाम नहीं इश्क़ और गवारा ख़ुद कर ले बे-शर्त शिकस्त-ए-फ़ाश अपनी दिल की भी कुछ उन के साज़िश है तन्हा ये नज़र का काम नहीं सब जिस को असीरी कहते हैं वो तो है अमीरी ही लेकिन वो कौन सी आज़ादी है यहाँ जो आप ख़ुद अपना दाम नहीं " dil-ko-sukuun-ruuh-ko-aaraam-aa-gayaa-jigar-moradabadi-ghazals," दिल को सुकून रूह को आराम आ गया मौत आ गई कि दोस्त का पैग़ाम आ गया जब कोई ज़िक्र-ए-गर्दिश-ए-अय्याम आ गया बे-इख़्तियार लब पे तिरा नाम आ गया ग़म में भी है सुरूर वो हंगाम आ गया शायद कि दौर-ए-बादा-ए-गुलफ़ाम आ गया दीवानगी हो अक़्ल हो उम्मीद हो कि यास अपना वही है वक़्त पे जो काम आ गया दिल के मुआमलात में नासेह शिकस्त क्या सौ बार हुस्न पर भी ये इल्ज़ाम आ गया सय्याद शादमाँ है मगर ये तो सोच ले मैं आ गया कि साया तह-ए-दाम आ गया दिल को न पूछ मारका-ए-हुस्न-ओ-इश्क़ में क्या जानिए ग़रीब कहाँ काम आ गया ये क्या मक़ाम-ए-इश्क़ है ज़ालिम कि इन दिनों अक्सर तिरे बग़ैर भी आराम आ गया अहबाब मुझ से क़त-ए-तअल्लुक़ करें 'जिगर' अब आफ़्ताब-ए-ज़ीस्त लब-ए-बाम आ गया " sharmaa-gae-lajaa-gae-daaman-chhudaa-gae-jigar-moradabadi-ghazals," शरमा गए लजा गए दामन छुड़ा गए ऐ इश्क़ मर्हबा वो यहाँ तक तो आ गए दिल पर हज़ार तरह के औहाम छा गए ये तुम ने क्या किया मिरी दुनिया में आ गए सब कुछ लुटा के राह-ए-मोहब्बत में अहल-ए-दिल ख़ुश हैं कि जैसे दौलत-ए-कौनैन पा गए सेहन-ए-चमन को अपनी बहारों पे नाज़ था वो आ गए तो सारी बहारों पे छा गए अक़्ल ओ जुनूँ में सब की थीं राहें जुदा जुदा हिर-फिर के लेकिन एक ही मंज़िल पे आ गए अब क्या करूँ मैं फ़ितरत-ए-नाकाम-ए-इश्क़ को जितने थे हादसात मुझे रास आ गए " ham-ko-mitaa-sake-ye-zamaane-men-dam-nahiin-jigar-moradabadi-ghazals," हम को मिटा सके ये ज़माने में दम नहीं हम से ज़माना ख़ुद है ज़माने से हम नहीं बे-फ़ाएदा अलम नहीं बे-कार ग़म नहीं तौफ़ीक़ दे ख़ुदा तो ये नेमत भी कम नहीं मेरी ज़बाँ पे शिकवा-ए-अहल-ए-सितम नहीं मुझ को जगा दिया यही एहसान कम नहीं या रब हुजूम-ए-दर्द को दे और वुसअ'तें दामन तो क्या अभी मिरी आँखें भी नम नहीं शिकवा तो एक छेड़ है लेकिन हक़ीक़तन तेरा सितम भी तेरी इनायत से कम नहीं अब इश्क़ उस मक़ाम पे है जुस्तुजू-नवर्द साया नहीं जहाँ कोई नक़्श-ए-क़दम नहीं मिलता है क्यूँ मज़ा सितम-ए-रोज़गार में तेरा करम भी ख़ुद जो शरीक-ए-सितम नहीं मर्ग-ए-'जिगर' पे क्यूँ तिरी आँखें हैं अश्क-रेज़ इक सानेहा सही मगर इतना अहम नहीं " aadmii-aadmii-se-miltaa-hai-jigar-moradabadi-ghazals," आदमी आदमी से मिलता है दिल मगर कम किसी से मिलता है भूल जाता हूँ मैं सितम उस के वो कुछ इस सादगी से मिलता है आज क्या बात है कि फूलों का रंग तेरी हँसी से मिलता है सिलसिला फ़ित्ना-ए-क़यामत का तेरी ख़ुश-क़ामती से मिलता है मिल के भी जो कभी नहीं मिलता टूट कर दिल उसी से मिलता है कारोबार-ए-जहाँ सँवरते हैं होश जब बे-ख़ुदी से मिलता है रूह को भी मज़ा मोहब्बत का दिल की हम-साएगी से मिलता है " mohabbat-men-ye-kyaa-maqaam-aa-rahe-hain-jigar-moradabadi-ghazals," मोहब्बत में ये क्या मक़ाम आ रहे हैं कि मंज़िल पे हैं और चले जा रहे हैं ये कह कह के हम दिल को बहला रहे हैं वो अब चल चुके हैं वो अब आ रहे हैं वो अज़-ख़ुद ही नादिम हुए जा रहे हैं ख़ुदा जाने क्या क्या ख़याल आ रहे हैं हमारे ही दिल से मज़े उन के पूछो वो धोके जो दानिस्ता हम खा रहे हैं जफ़ा करने वालों को क्या हो गया है वफ़ा कर के भी हम तो शर्मा रहे हैं वो आलम है अब यारो अग़्यार कैसे हमीं अपने दुश्मन हुए जा रहे हैं मिज़ाज-ए-गिरामी की हो ख़ैर या-रब कई दिन से अक्सर वो याद आ रहे हैं " us-kii-nazron-men-intikhaab-huaa-jigar-moradabadi-ghazals," उस की नज़रों में इंतिख़ाब हुआ दिल अजब हुस्न से ख़राब हुआ इश्क़ का सेहर कामयाब हुआ मैं तिरा तू मिरा जवाब हुआ हर नफ़स मौज-ए-इज़्तिराब हुआ ज़िंदगी क्या हुई अज़ाब हुआ जज़्बा-ए-शौक़ कामयाब हुआ आज मुझ से उन्हें हिजाब हुआ मैं बनूँ किस लिए न मस्त-ए-शराब क्यूँ मुजस्सम कोई शबाब हुआ निगह-ए-नाज़ ले ख़बर वर्ना दर्द महबूब-ए-इज़्तिराब हुआ मेरी बर्बादियाँ दुरुस्त मगर तू बता क्या तुझे सवाब हुआ ऐन क़ुर्बत भी ऐन फ़ुर्क़त भी हाए वो क़तरा जो हबाब हुआ मस्तियाँ हर तरफ़ हैं आवारा कौन ग़ारत-गर-ए-शराब हुआ दिल को छूना न ऐ नसीम-ए-करम अब ये दिल रू-कश-ए-हबाब हुआ इश्क़-ए-बे-इम्तियाज़ के हाथों हुस्न ख़ुद भी शिकस्त-याब हुआ जब वो आए तो पेश-तर सब से मेरी आँखों को इज़्न-ए-ख़्वाब हुआ दिल की हर चीज़ जगमगा उट्ठी आज शायद वो बे-नक़ाब हुआ दौर-ए-हंगामा-ए-नशात न पूछ अब वो सब कुछ ख़याल ओ ख़्वाब हुआ तू ने जिस अश्क पर नज़र डाली जोश खा कर वही शराब हुआ सितम-ए-ख़ास-ए-यार की है क़सम करम-ए-यार बे-हिसाब हुआ " laakhon-men-intikhaab-ke-qaabil-banaa-diyaa-jigar-moradabadi-ghazals," लाखों में इंतिख़ाब के क़ाबिल बना दिया जिस दिल को तुम ने देख लिया दिल बना दिया हर-चंद कर दिया मुझे बर्बाद इश्क़ ने लेकिन उन्हें तो शेफ़्ता-ए-दिल बना दिया पहले कहाँ ये नाज़ थे ये इश्वा ओ अदा दिल को दुआएँ दो तुम्हें क़ातिल बना दिया " ai-husn-e-yaar-sharm-ye-kyaa-inqalaab-hai-jigar-moradabadi-ghazals," ऐ हुस्न-ए-यार शर्म ये क्या इंक़लाब है तुझ से ज़ियादा दर्द तिरा कामयाब है आशिक़ की बे-दिली का तग़ाफ़ुल नहीं जवाब उस का बस एक जोश-ए-मोहब्बत जवाब है तेरी इनायतें कि नहीं नज़्र-ए-जाँ क़ुबूल तेरी नवाज़िशें कि ज़माना ख़राब है ऐ हुस्न अपनी हौसला-अफ़ज़ाइयाँ तो देख माना कि चश्म-ए-शौक़ बहुत बे-हिजाब है मैं इश्क़-ए-बे-नियाज़ हूँ तुम हुस्न-ए-बे-पनाह मेरा जवाब है न तुम्हारा जवाब है मय-ख़ाना है उसी का ये दुनिया उसी की है जिस तिश्ना-लब के हाथ में जाम-ए-शराब है उस से दिल-ए-तबाह की रूदाद क्या कहूँ जो ये न सुन सके कि ज़माना ख़राब है ऐ मोहतसिब न फेंक मिरे मोहतसिब न फेंक ज़ालिम शराब है अरे ज़ालिम शराब है अपने हुदूद से न बढ़े कोई इश्क़ में जो ज़र्रा जिस जगह है वहीं आफ़्ताब है वो लाख सामने हों मगर इस का क्या इलाज दिल मानता नहीं कि नज़र कामयाब है मेरी निगाह-ए-शौक़ भी कुछ कम नहीं मगर फिर भी तिरा शबाब तिरा ही शबाब है मानूस-ए-ए'तिबार-ए-करम क्यूँ किया मुझे अब हर ख़ता-ए-शौक़ इसी का जवाब है मैं उस का आईना हूँ वो है मेरा आईना मेरी नज़र से उस की नज़र कामयाब है तन्हाई-ए-फ़िराक़ के क़ुर्बान जाइए मैं हूँ ख़याल-ए-यार है चश्म-ए-पुर-आब है सरमाया-ए-फ़िराक़ 'जिगर' आह कुछ न पूछ अब जान है सो अपने लिए ख़ुद अज़ाब है " sabhii-andaaz-e-husn-pyaare-hain-jigar-moradabadi-ghazals," सभी अंदाज़-ए-हुस्न प्यारे हैं हम मगर सादगी के मारे हैं उस की रातों का इंतिक़ाम न पूछ जिस ने हँस हँस के दिन गुज़ारे हैं ऐ सहारों की ज़िंदगी वालो कितने इंसान बे-सहारे हैं लाला-ओ-गुल से तुझ को क्या निस्बत ना-मुकम्मल से इस्तिआ'रे हैं हम तो अब डूब कर ही उभरेंगे वो रहें शाद जो किनारे हैं शब-ए-फ़ुर्क़त भी जगमगा उट्ठी अश्क-ए-ग़म हैं कि माह-पारे हैं आतिश-ए-इश्क़ वो जहन्नम है जिस में फ़िरदौस के नज़ारे हैं वो हमीं हैं कि जिन के हाथों ने गेसू-ए-ज़िंदगी सँवारे हैं हुस्न की बे-नियाज़ियों पे न जा बे-इशारे भी कुछ इशारे हैं " dil-gayaa-raunaq-e-hayaat-gaii-jigar-moradabadi-ghazals," दिल गया रौनक़-ए-हयात गई ग़म गया सारी काएनात गई दिल धड़कते ही फिर गई वो नज़र लब तक आई न थी कि बात गई दिन का क्या ज़िक्र तीरा-बख़्तों में एक रात आई एक रात गई तेरी बातों से आज तो वाइ'ज़ वो जो थी ख़्वाहिश-ए-नजात गई उन के बहलाए भी न बहला दिल राएगाँ सई-ए-इल्तिफ़ात गई मर्ग-ए-आशिक़ तो कुछ नहीं लेकिन इक मसीहा-नफ़स की बात गई अब जुनूँ आप है गरेबाँ-गीर अब वो रस्म-ए-तकल्लुफ़ात गई हम ने भी वज़-ए-ग़म बदल डाली जब से वो तर्ज़-ए-इल्तिफ़ात गई तर्क-ए-उल्फ़त बहुत बजा नासेह लेकिन उस तक अगर ये बात गई हाँ मज़े लूट ले जवानी के फिर न आएगी ये जो रात गई हाँ ये सरशारियाँ जवानी की आँख झपकी ही थी कि रात गई जल्वा-ए-ज़ात ऐ मआ'ज़-अल्लाह ताब-ए-आईना-ए-सिफ़ात गई नहीं मिलता मिज़ाज-ए-दिल हम से ग़ालिबन दूर तक ये बात गई क़ैद-ए-हस्ती से कब नजात 'जिगर' मौत आई अगर हयात गई " tabiiat-in-dinon-begaana-e-gam-hotii-jaatii-hai-jigar-moradabadi-ghazals," तबीअत इन दिनों बेगाना-ए-ग़म होती जाती है मिरे हिस्से की गोया हर ख़ुशी कम होती जाती है सहर होने को है बेदार शबनम होती जाती है ख़ुशी मंजुमला-ओ-अस्बाब-ए-मातम होती जाती है क़यामत क्या ये ऐ हुस्न-ए-दो-आलम होती जाती है कि महफ़िल तो वही है दिल-कशी कम होती जाती है वही मय-ख़ाना-ओ-सहबा वही साग़र वही शीशा मगर आवाज़-ए-नोशा-नोश मद्धम होती जाती है वही हैं शाहिद-ओ-साक़ी मगर दिल बुझता जाता है वही है शम्अ' लेकिन रौशनी कम होती जाती है वही शोरिश है लेकिन जैसे मौज-ए-तह-नशीं कोई वही दिल है मगर आवाज़ मद्धम होती जाती है वही है ज़िंदगी लेकिन 'जिगर' ये हाल है अपना कि जैसे ज़िंदगी से ज़िंदगी कम होती जाती है " fikr-e-manzil-hai-na-hosh-e-jaada-e-manzil-mujhe-jigar-moradabadi-ghazals," फ़िक्र-ए-मंज़िल है न होश-ए-जादा-ए-मंज़िल मुझे जा रहा हूँ जिस तरफ़ ले जा रहा है दिल मुझे अब ज़बाँ भी दे अदा-ए-शुक्र के क़ाबिल मुझे दर्द बख़्शा है अगर तू ने बजाए-दिल मुझे यूँ तड़प कर दिल ने तड़पाया सर-ए-महफ़िल मुझे उस को क़ातिल कहने वाले कह उठे क़ातिल मुझे अब किधर जाऊँ बता ऐ जज़्बा-ए-कामिल मुझे हर तरफ़ से आज आती है सदा-ए-दिल मुझे रोक सकती हो तो बढ़ कर रोक ले मंज़िल मुझे हर तरफ़ से आज आती है सदा-ए-दिल मुझे जान दी कि हश्र तक मैं हूँ मिरी तन्हाइयाँ हाँ मुबारक फ़ुर्सत-ए-नज़्ज़ारा-ए-क़ातिल मुझे हर इशारे पर है फिर भी गर्दन-ए-तस्लीम ख़म जानता हूँ साफ़ धोके दे रहा है दिल मुझे जा भी ऐ नासेह कहाँ का सूद और कैसा ज़ियाँ इश्क़ ने समझा दिया है इश्क़ का हासिल मुझे मैं अज़ल से सुब्ह-ए-महशर तक फ़रोज़ाँ ही रहा हुस्न समझा था चराग़-ए-कुश्ता-ए-महफ़िल मुझे ख़ून-ए-दिल रग रग में जम कर रह गया इस वहम से बढ़ के सीने से न लिपटा ले मिरा क़ातिल मुझे कैसा क़तरा कैसा दरिया किस का तूफ़ाँ किस की मौज तू जो चाहे तो डुबो दे ख़ुश्की-ए-साहिल मुझे फूँक दे ऐ ग़ैरत-ए-सोज़-ए-मोहब्बत फूँक दे अब समझती हैं वो नज़रें रहम के क़ाबिल मुझे तोड़ कर बैठा हूँ राह-ए-शौक़ में पा-ए-तलब देखना है जज़्बा-ए-बे-ताबी-ए-मंज़िल मुझे ऐ हुजूम-ए-ना-उमीदी शाद-बाश-ओ-ज़िंदा-बाश तू ने सब से कर दिया बेगाना-ओ-ग़ाफ़िल मुझे दर्द-ए-महरूमी सही एहसास-ए-नाकामी सही उस ने समझा तो बहर-सूरत किसी क़ाबिल मुझे ये भी क्या मंज़र है बढ़ते हैं न रुकते हैं क़दम तक रहा हूँ दूर से मंज़िल को मैं मंज़िल मुझे " tujhii-se-ibtidaa-hai-tuu-hii-ik-din-intihaa-hogaa-jigar-moradabadi-ghazals," तुझी से इब्तिदा है तू ही इक दिन इंतिहा होगा सदा-ए-साज़ होगी और न साज़-ए-बे-सदा होगा हमें मालूम है हम से सुनो महशर में क्या होगा सब उस को देखते होंगे वो हम को देखता होगा सर-ए-महशर हम ऐसे आसियों का और क्या होगा दर-ए-जन्नत न वा होगा दर-ए-रहमत तो वा होगा जहन्नम हो कि जन्नत जो भी होगा फ़ैसला होगा ये क्या कम है हमारा और उन का सामना होगा अज़ल हो या अबद दोनों असीर-ए-ज़ुल्फ़-ए-हज़रत हैं जिधर नज़रें उठाओगे यही इक सिलसिला होगा ये निस्बत इश्क़ की बे-रंग लाए रह नहीं सकती जो महबूब-ए-ख़ुदा का है वो महबूब-ए-ख़ुदा होगा इसी उम्मीद पर हम तालिबान-ए-दर्द जीते हैं ख़ोशा दर्द दे कि तेरा और दर्द-ए-ला-दवा होगा निगाह-ए-क़हर पर भी जान-ओ-दिल सब खोए बैठा है निगाह-ए-मेहर आशिक़ पर अगर होगी तो क्या होगा सियाना भेज देगा हम को महशर से जहन्नम में मगर जो दिल पे गुज़रेगी वो दिल ही जानता होगा समझता क्या है तू दीवानगान-ए-इश्क़ को ज़ाहिद ये हो जाएँगे जिस जानिब उसी जानिब ख़ुदा होगा 'जिगर' का हाथ होगा हश्र में और दामन-ए-हज़रत शिकायत हो कि शिकवा जो भी होगा बरमला होगा " yaadash-ba-khair-jab-vo-tasavvur-men-aa-gayaa-jigar-moradabadi-ghazals," यादश-ब-ख़ैर जब वो तसव्वुर में आ गया शे'र ओ शबाब ओ हुस्न का दरिया बहा गया जब इश्क़ अपने मरकज़-ए-असली पे आ गया ख़ुद बन गया हसीन दो आलम पे छा गया जो दिल का राज़ था उसे कुछ दिल ही पा गया वो कर सके बयाँ न हमीं से कहा गया नासेह फ़साना अपना हँसी में उड़ा गया ख़ुश-फ़िक्र था कि साफ़ ये पहलू बचा गया अपना ज़माना आप बनाते हैं अहल-ए-दिल हम वो नहीं कि जिन को ज़माना बना गया दिल बन गया निगाह निगह बन गई ज़बाँ आज इक सुकूत-ए-शौक़ क़यामत ही ढा गया मेरा कमाल-ए-शेर बस इतना है ऐ 'जिगर' वो मुझ पे छा गए मैं ज़माने पे छा गया " ye-hai-mai-kada-yahaan-rind-hain-yahaan-sab-kaa-saaqii-imaam-hai-jigar-moradabadi-ghazals," ये है मय-कदा यहाँ रिंद हैं यहाँ सब का साक़ी इमाम है ये हरम नहीं है ऐ शैख़ जी यहाँ पारसाई हराम है जो ज़रा सी पी के बहक गया उसे मय-कदे से निकाल दो यहाँ तंग-नज़र का गुज़र नहीं यहाँ अहल-ए-ज़र्फ़ का काम है कोई मस्त है कोई तिश्ना-लब तो किसी के हाथ में जाम है मगर इस पे कोई करे भी क्या ये तो मय-कदे का निज़ाम है ये जनाब-ए-शैख़ का फ़ल्सफ़ा है अजीब सारे जहान से जो वहाँ पियो तो हलाल है जो यहाँ पियो तो हराम है इसी काएनात में ऐ 'जिगर' कोई इंक़लाब उठेगा फिर कि बुलंद हो के भी आदमी अभी ख़्वाहिशों का ग़ुलाम है " aayaa-na-raas-naala-e-dil-kaa-asar-mujhe-jigar-moradabadi-ghazals," आया न रास नाला-ए-दिल का असर मुझे अब तुम मिले तो कुछ नहीं अपनी ख़बर मुझे दिल ले के मुझ से देते हो दाग़-ए-जिगर मुझे ये बात भूलने की नहीं उम्र भर मुझे हर-सू दिखाई देते हैं वो जल्वा-गर मुझे क्या क्या फ़रेब देती है मेरी नज़र मुझे मिलती नहीं है लज़्ज़त-ए-दर्द-ए-जिगर मुझे भूली हुई न हो निगह-ए-फ़ित्नागर मुझे डाला है बे-ख़ुदी ने अजब राह पर मुझे आँखें हैं और कुछ नहीं आता नज़र मुझे करना है आज हज़रत-ए-नासेह से सामना मिल जाए दो घड़ी को तुम्हारी नज़र मुझे मस्ताना कर रहा हूँ रह-ए-आशिक़ी को तय ले जाए जज़्ब-ए-शौक़ मिरा अब जिधर मुझे डरता हूँ जल्वा-ए-रुख़-ए-जानाँ को देख कर अपना बना न ले कहीं मेरी नज़र मुझे यकसाँ है हुस्न-ओ-इश्क़ की सर-मस्तियों का रंग उन की ख़बर उन्हें है न मेरी ख़बर मुझे मरना है उन के पाँव पे रख कर सर-ए-नियाज़ करना है आज क़िस्सा-ए-ग़म मुख़्तसर मुझे सीने से दिल अज़ीज़ है दिल से हो तुम अज़ीज़ सब से मगर अज़ीज़ है तेरी नज़र मुझे मैं दूर हूँ तो रू-ए-सुख़न मुझ से किस लिए तुम पास हो तो क्यूँ नहीं आते नज़र मुझे क्या जानिए क़फ़स में रहे क्या मोआ'मला अब तक तो हैं अज़ीज़ मिरे बाल-ओ-पर मुझे " dil-men-kisii-ke-raah-kiye-jaa-rahaa-huun-main-jigar-moradabadi-ghazals," दिल में किसी के राह किए जा रहा हूँ मैं कितना हसीं गुनाह किए जा रहा हूँ मैं दुनिया-ए-दिल तबाह किए जा रहा हूँ मैं सर्फ़-ए-निगाह-ओ-आह किए जा रहा हूँ मैं फ़र्द-ए-अमल सियाह किए जा रहा हूँ मैं रहमत को बे-पनाह किए जा रहा हूँ मैं ऐसी भी इक निगाह किए जा रहा हूँ मैं ज़र्रों को मेहर-ओ-माह किए जा रहा हूँ मैं मुझ से लगे हैं इश्क़ की अज़्मत को चार चाँद ख़ुद हुस्न को गवाह किए जा रहा हूँ मैं दफ़्तर है एक मानी-ए-बे-लफ़्ज़-ओ-सौत का सादा सी जो निगाह किए जा रहा हूँ मैं आगे क़दम बढ़ाएँ जिन्हें सूझता नहीं रौशन चराग़-ए-राह किए जा रहा हूँ मैं मासूमी-ए-जमाल को भी जिन पे रश्क है ऐसे भी कुछ गुनाह किए जा रहा हूँ मैं तन्क़ीद-ए-हुस्न मस्लहत-ए-ख़ास-ए-इश्क़ है ये जुर्म गाह गाह किए जा रहा हूँ मैं उठती नहीं है आँख मगर उस के रू-ब-रू नादीदा इक निगाह किए जा रहा हूँ मैं गुलशन-परस्त हूँ मुझे गुल ही नहीं अज़ीज़ काँटों से भी निबाह किए जा रहा हूँ मैं यूँ ज़िंदगी गुज़ार रहा हूँ तिरे बग़ैर जैसे कोई गुनाह किए जा रहा हूँ मैं मुझ से अदा हुआ है 'जिगर' जुस्तुजू का हक़ हर ज़र्रे को गवाह किए जा रहा हूँ मैं " aankhon-kaa-thaa-qusuur-na-dil-kaa-qusuur-thaa-jigar-moradabadi-ghazals," आँखों का था क़ुसूर न दिल का क़ुसूर था आया जो मेरे सामने मेरा ग़ुरूर था तारीक मिस्ल-ए-आह जो आँखों का नूर था क्या सुब्ह ही से शाम-ए-बला का ज़ुहूर था वो थे न मुझ से दूर न मैं उन से दूर था आता न था नज़र तो नज़र का क़ुसूर था हर वक़्त इक ख़ुमार था हर दम सुरूर था बोतल बग़ल में थी कि दिल-ए-ना-सुबूर था कोई तो दर्दमंद-ए-दिल-ए-ना-सुबूर था माना कि तुम न थे कोई तुम सा ज़रूर था लगते ही ठेस टूट गया साज़-ए-आरज़ू मिलते ही आँख शीशा-ए-दिल चूर चूर था ऐसा कहाँ बहार में रंगीनियों का जोश शामिल किसी का ख़ून-ए-तमन्ना ज़रूर था साक़ी की चश्म-ए-मस्त का क्या कीजिए बयान इतना सुरूर था कि मुझे भी सुरूर था पलटी जो रास्ते ही से ऐ आह-ए-ना-मुराद ये तो बता कि बाब-ए-असर कितनी दूर था जिस दिल को तुम ने लुत्फ़ से अपना बना लिया उस दिल में इक छुपा हुआ नश्तर ज़रूर था उस चश्म-ए-मय-फ़रोश से कोई न बच सका सब को ब-क़दर-ए-हौसला-ए-दिल सुरूर था देखा था कल 'जिगर' को सर-ए-राह-ए-मय-कदा इस दर्जा पी गया था कि नश्शे में चूर था " shab-e-firaaq-hai-aur-niind-aaii-jaatii-hai-jigar-moradabadi-ghazals," शब-ए-फ़िराक़ है और नींद आई जाती है कुछ इस में उन की तवज्जोह भी पाई जाती है ये उम्र-ए-इश्क़ यूँही क्या गँवाई जाती है हयात ज़िंदा हक़ीक़त बनाई जाती है बना बना के जो दुनिया मिटाई जाती है ज़रूर कोई कमी है कि पाई जाती है हमीं पे इश्क़ की तोहमत लगाई जाती है मगर ये शर्म जो चेहरे पे छाई जाती है ख़ुदा करे कि हक़ीक़त में ज़िंदगी बन जाए वो ज़िंदगी जो ज़बाँ तक ही पाई जाती है गुनाहगार के दिल से न बच के चल ज़ाहिद यहीं कहीं तिरी जन्नत भी पाई जाती है न सोज़-ए-इश्क़ न बर्क़-ए-जमाल पर इल्ज़ाम दिलों में आग ख़ुशी से लगाई जाती है कुछ ऐसे भी तो हैं रिंदान-ए-पाक-बाज़ 'जिगर' कि जिन को बे-मय-ओ-साग़र पिलाई जाती है " nazar-milaa-ke-mire-paas-aa-ke-luut-liyaa-jigar-moradabadi-ghazals," नज़र मिला के मिरे पास आ के लूट लिया नज़र हटी थी कि फिर मुस्कुरा के लूट लिया शिकस्त-ए-हुस्न का जल्वा दिखा के लूट लिया निगाह नीची किए सर झुका के लूट लिया दुहाई है मिरे अल्लाह की दुहाई है किसी ने मुझ से भी मुझ को छुपा के लूट लिया सलाम उस पे कि जिस ने उठा के पर्दा-ए-दिल मुझी में रह के मुझी में समा के लूट लिया उन्हीं के दिल से कोई उस की अज़्मतें पूछे वो एक दिल जिसे सब कुछ लुटा के लूट लिया यहाँ तो ख़ुद तिरी हस्ती है इश्क़ को दरकार वो और होंगे जिन्हें मुस्कुरा के लूट लिया ख़ुशा वो जान जिसे दी गई अमानत-ए-इश्क़ रहे वो दिल जिसे अपना बना के लूट लिया निगाह डाल दी जिस पर हसीन आँखों ने उसे भी हुस्न-ए-मुजस्सम बना के लूट लिया बड़े वो आए दिल ओ जाँ के लूटने वाले नज़र से छेड़ दिया गुदगुदा के लूट लिया रहा ख़राब-ए-मोहब्बत ही वो जिसे तू ने ख़ुद अपना दर्द-ए-मोहब्बत दिखा के लूट लिया कोई ये लूट तो देखे कि उस ने जब चाहा तमाम हस्ती-ए-दिल को जगा के लूट लिया करिश्मा-साज़ी-ए-हुस्न-ए-अज़ल अरे तौबा मिरा ही आईना मुझ को दिखा के लूट लिया न लुटते हम मगर उन मस्त अँखड़ियों ने 'जिगर' नज़र बचाते हुए डबडबा के लूट लिया " kaam-aakhir-jazba-e-be-ikhtiyaar-aa-hii-gayaa-jigar-moradabadi-ghazals," काम आख़िर जज़्बा-ए-बे-इख़्तियार आ ही गया दिल कुछ इस सूरत से तड़पा उन को प्यार आ ही गया जब निगाहें उठ गईं अल्लाह-री मेराज-शौक़ देखता क्या हूँ वो जान-ए-इंतिज़ार आ ही गया हाए ये हुस्न-ए-तसव्वुर का फ़रेब-ए-रंग-ओ-बू मैं ये समझा जैसे वो जान-ए-बहार आ ही गया हाँ सज़ा दे ऐ ख़ुदा-ए-इश्क़ ऐ तौफ़ीक़-ए-ग़म फिर ज़बान-ए-बे-अदब पर ज़िक्र यार आ ही गया इस तरह ख़ुश हूँ किसी के वादा-ए-फ़र्दा पे मैं दर-हक़ीक़त जैसे मुझ को ए'तिबार आ ही गया हाए काफ़िर-दिल की ये काफ़िर जुनूँ-अंगेज़ियाँ तुम को प्यार आए न आए मुझ को प्यार आ ही गया दर्द ने करवट ही बदली थी कि दिल की आड़ से दफ़अ'तन पर्दा उठा और पर्दा-दार आ ही गया दिल ने इक नाला किया आज इस तरह दीवाना-वार बाल बिखराए कोई मस्ताना-वार आ ही गया जान ही दे दी 'जिगर' ने आज पा-ए-यार पर उम्र भर की बे-क़रारी को क़रार आ ही गया " ishq-ko-be-naqaab-honaa-thaa-jigar-moradabadi-ghazals," इश्क़ को बे-नक़ाब होना था आप अपना जवाब होना था मस्त-ए-जाम-ए-शराब होना था बे-ख़ुद-ए-इज़्तिराब होना था तेरी आँखों का कुछ क़ुसूर नहीं हाँ मुझी को ख़राब होना था आओ मिल जाओ मुस्कुरा के गले हो चुका जो इताब होना था कूचा-ए-इश्क़ में निकल आया जिस को ख़ाना-ख़राब होना था मस्त-ए-जाम-ए-शराब ख़ाक होते ग़र्क़-ए-जाम-ए-शराब होना था दिल कि जिस पर हैं नक़्श-ए-रंगा-रंग उस को सादा किताब होना था हम ने नाकामियों को ढूँड लिया आख़िरश कामयाब होना था हाए वो लम्हा-ए-सुकूँ कि जिसे महशर-ए-इज़्तिराब होना था निगह-ए-यार ख़ुद तड़प उठती शर्त-ए-अव्वल ख़राब होना था क्यूँ न होता सितम भी बे-पायाँ करम-ए-बे-हिसाब होना था क्यूँ नज़र हैरतों में डूब गई मौज-ए-सद-इज़्तिराब होना था हो चुका रोज़-ए-अव्वलीं ही 'जिगर' जिस को जितना ख़राब होना था " kasrat-men-bhii-vahdat-kaa-tamaashaa-nazar-aayaa-jigar-moradabadi-ghazals," कसरत में भी वहदत का तमाशा नज़र आया जिस रंग में देखा तुझे यकता नज़र आया जब उस रुख़-ए-पुर-नूर का जल्वा नज़र आया काबा नज़र आया न कलीसा नज़र आया ये हुस्न ये शोख़ी ये करिश्मा ये अदाएँ दुनिया नज़र आई मुझे तो क्या नज़र आया इक सरख़ुशी-ए-इश्क़ है इक बे-ख़ुदी-ए-शौक़ आँखों को ख़ुदा जाने मिरी क्या नज़र आया जब देख न सकते थे तो दरिया भी था क़तरा जब आँख खुली क़तरा भी दरिया नज़र आया क़ुर्बान तिरी शान-ए-इनायत के दिल ओ जाँ इस कम-निगही पर मुझे क्या क्या नज़र आया हर रंग तिरे रंग में डूबा हुआ निकला हर नक़्श तिरा नक़्श-ए-कफ़-ए-पा नज़र आया आँखों ने दिखा दी जो तिरे ग़म की हक़ीक़त आलम मुझे सारा तह-ओ-बाला नज़र आया हर जल्वे को देखा तिरे जल्वों से मुनव्वर हर बज़्म में तू अंजुमन-आरा नज़र आया " ye-misraa-kaash-naqsh-e-har-dar-o-diivaar-ho-jaae-jigar-moradabadi-ghazals," ये मिस्रा काश नक़्श-ए-हर-दर-ओ-दीवार हो जाए जिसे जीना हो मरने के लिए तय्यार हो जाए वही मय-ख़्वार है जो इस तरह मय-ख़्वार हो जाए कि शीशा तोड़ दे और बे-पिए सरशार हो जाए दिल-ए-इंसाँ अगर शाइस्ता-ए-असरार हो जाए लब-ए-ख़ामोश-फ़ितरत ही लब-ए-गुफ़्तार हो जाए हर इक बे-कार सी हस्ती ब-रू-ए-कार हो जाए जुनूँ की रूह-ए-ख़्वाबीदा अगर बेदार हो जाए सुना है हश्र में हर आँख उसे बे-पर्दा देखेगी मुझे डर है न तौहीन-ए-जमाल-ए-यार हो जाए हरीम-ए-नाज़ में उस की रसाई हो तो क्यूँकर हो कि जो आसूदा ज़ेर-ए-साया-ए-दीवार हो जाए मआ'ज़-अल्लाह उस की वारदात-ए-ग़म मआ'ज़-अल्लाह चमन जिस का वतन हो और चमन-बे-ज़ार हो जाए यही है ज़िंदगी तो ज़िंदगी से ख़ुद-कुशी अच्छी कि इंसाँ आलम-ए-इंसानियत पर बार हो जाए इक ऐसी शान पैदा कर कि बातिल थरथरा उट्ठे नज़र तलवार बन जाए नफ़स झंकार हो जाए ये रोज़ ओ शब ये सुब्ह ओ शाम ये बस्ती ये वीराना सभी बेदार हैं इंसाँ अगर बेदार हो जाए " duniyaa-ke-sitam-yaad-na-apnii-hii-vafaa-yaad-jigar-moradabadi-ghazals," दुनिया के सितम याद न अपनी ही वफ़ा याद अब मुझ को नहीं कुछ भी मोहब्बत के सिवा याद मैं शिकवा ब-लब था मुझे ये भी न रहा याद शायद कि मिरे भूलने वाले ने किया याद छेड़ा था जिसे पहले-पहल तेरी नज़र ने अब तक है वो इक नग़्मा-ए-बे-साज़-ओ-सदा याद जब कोई हसीं होता है सरगर्म-ए-नवाज़िश उस वक़्त वो कुछ और भी आते हैं सिवा याद क्या जानिए क्या हो गया अरबाब-ए-जुनूँ को मरने की अदा याद न जीने की अदा याद मुद्दत हुई इक हादसा-ए-इश्क़ को लेकिन अब तक है तिरे दिल के धड़कने की सदा याद हाँ हाँ तुझे क्या काम मिरी शिद्दत-ए-ग़म से हाँ हाँ नहीं मुझ को तिरे दामन की हवा याद मैं तर्क-ए-रह-ओ-रस्म-ए-जुनूँ कर ही चुका था क्यूँ आ गई ऐसे में तिरी लग़्ज़िश-ए-पा याद क्या लुत्फ़ कि मैं अपना पता आप बताऊँ कीजे कोई भूली हुई ख़ास अपनी अदा याद " kuchh-is-adaa-se-aaj-vo-pahluu-nashiin-rahe-jigar-moradabadi-ghazals," कुछ इस अदा से आज वो पहलू-नशीं रहे जब तक हमारे पास रहे हम नहीं रहे ईमान-ओ-कुफ़्र और न दुनिया-ओ-दीं रहे ऐ इश्क़-ए-शाद-बाश कि तन्हा हमीं रहे आलम जब एक हाल पे क़ाएम नहीं रहे क्या ख़ाक ए'तिबार-ए-निगाह-ए-यक़ीं रहे मेरी ज़बाँ पे शिकवा-ए-दर्द-आफ़रीं रहे शायद मिरे हवास ठिकाने नहीं रहे जब तक इलाही जिस्म में जान-ए-हज़ीं रहे नज़रें मिरी जवान रहें दिल हसीं रहे या-रब किसी के राज़-ए-मोहब्बत की ख़ैर हो दस्त-ए-जुनूँ रहे न रहे आस्तीं रहे ता-चंद जोश-ए-इश्क़ में दिल की हिफ़ाज़तें मेरी बला से अब वो जुनूनी कहीं रहे जा और कोई ज़ब्त की दुनिया तलाश कर ऐ इश्क़ हम तो अब तिरे क़ाबिल नहीं रहे मुझ को नहीं क़ुबूल दो-आलम की वुसअतें क़िस्मत में कू-ए-यार की दो-गज़ ज़मीं रहे ऐ इश्क़-ए-नाला-कश तिरी ग़ैरत को क्या हुआ है है अरक़ अरक़ वो तन-ए-नाज़नीं रहे दर्द-ओ-ग़म-ए-फ़िराक के ये सख़्त मरहले हैराँ हूँ मैं कि फिर भी तुम इतने हसीं रहे अल्लाह-रे चश्म-ए-यार की मोजिज़-बयानियाँ हर इक को है गुमाँ कि मुख़ातिब हमीं रहे ज़ालिम उठा तू पर्दा-ए-वहम-ओ-गुमान-ओ-फ़िक्र क्या सामने वो मरहला-हाए-यक़ीं रहे ज़ात-ओ-सिफ़ात-ए-हुस्न का आलम नज़र में है महदूद-ए-सज्दा क्या मिरा ज़ौक़-ए-जबीं रहे किस दर्द से किसी ने कहा आज बज़्म में अच्छा ये है वो नंग-ए-मोहब्बत यहीं रहे सर-दादगान-ए-इश्क़-ओ-मोहब्बत की क्या कमी क़ातिल की तेग़ तेज़ ख़ुदा की ज़मीं रहे इस इश्क़ की तलाफ़ी-ए-माफ़ात देखना रोने की हसरतें हैं जब आँसू नहीं रहे " ik-lafz-e-mohabbat-kaa-adnaa-ye-fasaanaa-hai-jigar-moradabadi-ghazals," इक लफ़्ज़-ए-मोहब्बत का अदना ये फ़साना है सिमटे तो दिल-ए-आशिक़ फैले तो ज़माना है ये किस का तसव्वुर है ये किस का फ़साना है जो अश्क है आँखों में तस्बीह का दाना है दिल संग-ए-मलामत का हर-चंद निशाना है दिल फिर भी मिरा दिल है दिल ही तो ज़माना है हम इश्क़ के मारों का इतना ही फ़साना है रोने को नहीं कोई हँसने को ज़माना है वो और वफ़ा-दुश्मन मानेंगे न माना है सब दिल की शरारत है आँखों का बहाना है शाइ'र हूँ मैं शाइ'र हूँ मेरा ही ज़माना है फ़ितरत मिरा आईना क़ुदरत मिरा शाना है जो उन पे गुज़रती है किस ने उसे जाना है अपनी ही मुसीबत है अपना ही फ़साना है क्या हुस्न ने समझा है क्या इश्क़ ने जाना है हम ख़ाक-नशीनों की ठोकर में ज़माना है आग़ाज़-ए-मोहब्बत है आना है न जाना है अश्कों की हुकूमत है आहों का ज़माना है आँखों में नमी सी है चुप चुप से वो बैठे हैं नाज़ुक सी निगाहों में नाज़ुक सा फ़साना है हम दर्द-ब-दिल नालाँ वो दस्त-ब-दिल हैराँ ऐ इश्क़ तो क्या ज़ालिम तेरा ही ज़माना है या वो थे ख़फ़ा हम से या हम हैं ख़फ़ा उन से कल उन का ज़माना था आज अपना ज़माना है ऐ इश्क़-ए-जुनूँ-पेशा हाँ इश्क़-ए-जुनूँ-पेशा आज एक सितमगर को हँस हँस के रुलाना है थोड़ी सी इजाज़त भी ऐ बज़्म-गह-ए-हस्ती आ निकले हैं दम-भर को रोना है रुलाना है ये इश्क़ नहीं आसाँ इतना ही समझ लीजे इक आग का दरिया है और डूब के जाना है ख़ुद हुस्न-ओ-शबाब उन का क्या कम है रक़ीब अपना जब देखिए अब वो हैं आईना है शाना है तस्वीर के दो रुख़ हैं जाँ और ग़म-ए-जानाँ इक नक़्श छुपाना है इक नक़्श दिखाना है ये हुस्न-ओ-जमाल उन का ये इश्क़-ओ-शबाब अपना जीने की तमन्ना है मरने का ज़माना है मुझ को इसी धुन में है हर लहज़ा बसर करना अब आए वो अब आए लाज़िम उन्हें आना है ख़ुद्दारी-ओ-महरूमी महरूमी-ओ-ख़ुद्दारी अब दिल को ख़ुदा रक्खे अब दिल का ज़माना है अश्कों के तबस्सुम में आहों के तरन्नुम में मा'सूम मोहब्बत का मा'सूम फ़साना है आँसू तो बहुत से हैं आँखों में 'जिगर' लेकिन बंध जाए सो मोती है रह जाए सो दाना है " baraabar-se-bach-kar-guzar-jaane-vaale-jigar-moradabadi-ghazals," बराबर से बच कर गुज़र जाने वाले ये नाले नहीं बे-असर जाने वाले नहीं जानते कुछ कि जाना कहाँ है चले जा रहे हैं मगर जाने वाले मिरे दिल की बेताबियाँ भी लिए जा दबे पाँव मुँह फेर कर जाने वाले तिरे इक इशारे पे साकित खड़े हैं नहीं कह के सब से गुज़र जाने वाले मोहब्बत में हम तो जिए हैं जिएँगे वो होंगे कोई और मर जाने वाले " be-kaif-dil-hai-aur-jiye-jaa-rahaa-huun-main-jigar-moradabadi-ghazals," बे-कैफ़ दिल है और जिए जा रहा हूँ मैं ख़ाली है शीशा और पिए जा रहा हूँ मैं पैहम जो आह आह किए जा रहा हूँ मैं दौलत है ग़म ज़कात दिए जा रहा हूँ मैं मजबूरी-ए-कमाल-ए-मोहब्बत तो देखना जीना नहीं क़ुबूल जिए जा रहा हूँ मैं वो दिल कहाँ है अब कि जिसे प्यार कीजिए मजबूरियाँ हैं साथ दिए जा रहा हूँ मैं रुख़्सत हुई शबाब के हमराह ज़िंदगी कहने की बात है कि जिए जा रहा हूँ मैं पहले शराब ज़ीस्त थी अब ज़ीस्त है शराब कोई पिला रहा है पिए जा रहा हूँ मैं " ishq-men-laa-javaab-hain-ham-log-jigar-moradabadi-ghazals," इश्क़ में ला-जवाब हैं हम लोग माहताब आफ़्ताब हैं हम लोग गरचे अहल-ए-शराब हैं हम लोग ये न समझो ख़राब हैं हम लोग शाम से आ गए जो पीने पर सुब्ह तक आफ़्ताब हैं हम लोग हम को दावा-ए-इश्क़-बाज़ी है मुस्तहिक़्क़-ए-अज़ाब हैं हम लोग नाज़ करती है ख़ाना-वीरानी ऐसे ख़ाना-ख़राब हैं हम लोग हम नहीं जानते ख़िज़ाँ क्या है कुश्तगान-ए-शबाब हैं हम लोग तू हमारा जवाब है तन्हा और तेरा जवाब हैं हम लोग तू है दरिया-ए-हुस्न-ओ-महबूबी शक्ल-ए-मौज-ओ-हबाब हैं हम लोग गो सरापा हिजाब हैं फिर भी तेरे रुख़ की नक़ाब हैं हम लोग ख़ूब हम जानते हैं अपनी क़द्र तेरे ना-कामयाब हैं हम लोग हम से ग़फ़लत न हो तो फिर क्या हो रह-रव-ए-मुल्क-ए-ख़्वाब हैं हम लोग जानता भी है उस को तू वाइ'ज़ जिस के मस्त-ओ-ख़राब हैं हम लोग हम पे नाज़िल हुआ सहीफ़ा-ए-इश्क़ साहिबान-ए-किताब हैं हम लोग हर हक़ीक़त से जो गुज़र जाएँ वो सदाक़त-मआब हैं हम लोग जब मिली आँख होश खो बैठे कितने हाज़िर-जवाब हैं हम लोग हम से पूछो 'जिगर' की सर-मस्ती महरम-ए-आँ-जनाब हैं हम लोग " shaaer-e-fitrat-huun-jab-bhii-fikr-farmaataa-huun-main-jigar-moradabadi-ghazals," शाएर-ए-फ़ितरत हूँ जब भी फ़िक्र फ़रमाता हूँ मैं रूह बन कर ज़र्रे ज़र्रे में समा जाता हूँ मैं आ कि तुझ बिन इस तरह ऐ दोस्त घबराता हूँ मैं जैसे हर शय में किसी शय की कमी पाता हूँ मैं जिस क़दर अफ़्साना-ए-हस्ती को दोहराता हूँ मैं और भी बे-गाना-ए-हस्ती हुआ जाता हूँ मैं जब मकान-ओ-ला-मकाँ सब से गुज़र जाता हूँ मैं अल्लाह अल्लाह तुझ को ख़ुद अपनी जगह पाता हूँ मैं तेरी सूरत का जो आईना उसे पाता हूँ मैं अपने दिल पर आप क्या क्या नाज़ फ़रमाता हूँ मैं यक-ब-यक घबरा के जितनी दूर हट आता हूँ मैं और भी उस शोख़ को नज़दीक-तर पाता हूँ मैं मेरी हस्ती शौक़-ए-पैहम मेरी फ़ितरत इज़्तिराब कोई मंज़िल हो मगर गुज़रा चला जाता हूँ मैं हाए-री मजबूरियाँ तर्क-ए-मोहब्बत के लिए मुझ को समझाते हैं वो और उन को समझाता हूँ मैं मेरी हिम्मत देखना मेरी तबीअत देखना जो सुलझ जाती है गुत्थी फिर से उलझाता हूँ मैं हुस्न को क्या दुश्मनी है इश्क़ को क्या बैर है अपने ही क़दमों की ख़ुद ही ठोकरें खाता हूँ मैं तेरी महफ़िल तेरे जल्वे फिर तक़ाज़ा क्या ज़रूर ले उठा जाता हूँ ज़ालिम ले चला जाता हूँ मैं ता-कुजा ये पर्दा-दारी-हा-ए-इश्क़-ओ-लाफ़-ए-हुस्न हाँ सँभल जाएँ दो-आलम होश में आता हूँ मैं मेरी ख़ातिर अब वो तकलीफ़-ए-तजल्ली क्यूँ करें अपनी गर्द-ए-शौक़ में ख़ुद ही छुपा जाता हूँ मैं दिल मुजस्सम शेर-ओ-नग़्मा वो सरापा रंग-ओ-बू क्या फ़ज़ाएँ हैं कि जिन में हल हुआ जाता हूँ मैं ता-कुजा ज़ब्त-ए-मोहब्बत ता-कुजा दर्द-ए-फ़िराक़ रहम कर मुझ पर कि तेरा राज़ कहलाता हूँ मैं वाह-रे शौक़-ए-शहादत कू-ए-क़ातिल की तरफ़ गुनगुनाता रक़्स करता झूमता जाता हूँ मैं या वो सूरत ख़ुद जहान-ए-रंग-ओ-बू महकूम था या ये आलम अपने साए से दबा जाता हूँ मैं देखना इस इश्क़ की ये तुरफ़ा-कारी देखना वो जफ़ा करते हैं मुझ पर और शरमाता हूँ मैं एक दिल है और तूफ़ान-ए-हवादिस ऐ 'जिगर' एक शीशा है कि हर पत्थर से टकराता हूँ मैं " aankhon-men-bas-ke-dil-men-samaa-kar-chale-gae-jigar-moradabadi-ghazals," आँखों में बस के दिल में समा कर चले गए ख़्वाबीदा ज़िंदगी थी जगा कर चले गए हुस्न-ए-अज़ल की शान दिखा कर चले गए इक वाक़िआ' सा याद दिला कर चले गए चेहरे तक आस्तीन वो ला कर चले गए क्या राज़ था कि जिस को छुपा कर चले गए रग रग में इस तरह वो समा कर चले गए जैसे मुझी को मुझ से चुरा कर चले गए मेरी हयात-ए-इश्क़ को दे कर जुनून-ए-शौक़ मुझ को तमाम होश बना कर चले गए समझा के पस्तियाँ मिरे औज-ए-कमाल की अपनी बुलंदियाँ वो दिखा कर चले गए अपने फ़रोग़-ए-हुस्न की दिखला के वुसअ'तें मेरे हुदूद-ए-शौक़ बढ़ा कर चले गए हर शय को मेरी ख़ातिर-ए-नाशाद के लिए आईना-ए-जमाल बना कर चले गए आए थे दिल की प्यास बुझाने के वास्ते इक आग सी वो और लगा कर चले गए आए थे चश्म-ए-शौक़ की हसरत निकालने सर-ता-क़दम निगाह बना कर चले गए अब कारोबार-ए-इश्क़ से फ़ुर्सत मुझे कहाँ कौनैन का वो दर्द बढ़ा कर चले गए शुक्र-ए-करम के साथ ये शिकवा भी हो क़ुबूल अपना सा क्यूँ न मुझ को बना कर चले गए लब थरथरा के रह गए लेकिन वो ऐ 'जिगर' जाते हुए निगाह मिला कर चले गए " kabhii-shaakh-o-sabza-o-barg-par-kabhii-guncha-o-gul-o-khaar-par-jigar-moradabadi-ghazals," कभी शाख़ ओ सब्ज़ा ओ बर्ग पर कभी ग़ुंचा ओ गुल ओ ख़ार पर मैं चमन में चाहे जहाँ रहूँ मिरा हक़ है फ़स्ल-ए-बहार पर मुझे दें न ग़ैज़ में धमकियाँ गिरें लाख बार ये बिजलियाँ मिरी सल्तनत ये ही आशियाँ मिरी मिलकियत ये ही चार पर जिन्हें कहिए इश्क़ की वुसअ'तें जो हैं ख़ास हुस्न की अज़्मतें ये उसी के क़ल्ब से पूछिए जिसे फ़ख़्र हो ग़म-ए-यार पर मिरे अश्क-ए-ख़ूँ की बहार है कि मुरक़्क़ा-ए-ग़म-ए-यार है मिरी शाइ'री भी निसार है मिरी चश्म-ए-सेहर-निगार पर अजब इंक़िलाब-ए-ज़माना है मिरा मुख़्तसर सा फ़साना है यही अब जो बार है दोश पर यही सर था ज़ानू-ए-यार पर ये कमाल-ए-इश्क़ की साज़िशें ये जमाल-ए-हुस्न की नाज़िशें ये इनायतें ये नवाज़िशें मिरी एक मुश्त-ए-ग़ुबार पर मिरी सम्त से उसे ऐ सबा ये पयाम-ए-आख़िर-ए-ग़म सुना अभी देखना हो तो देख जा कि ख़िज़ाँ है अपनी बहार पर ये फ़रेब-ए-जल्वा है सर-ब-सर मुझे डर ये है दिल-ए-बे-ख़बर कहीं जम न जाए तिरी नज़र इन्हीं चंद नक़्श ओ निगार पर मैं रहीन-ए-दर्द सही मगर मुझे और चाहिए क्या 'जिगर' ग़म-ए-यार है मिरा शेफ़्ता मैं फ़रेफ़्ता ग़म-ए-यार पर " koii-ye-kah-de-gulshan-gulshan-jigar-moradabadi-ghazals," कोई ये कह दे गुलशन गुलशन लाख बलाएँ एक नशेमन क़ातिल रहबर क़ातिल रहज़न दिल सा दोस्त न दिल सा दुश्मन फूल खिले हैं गुलशन गुलशन लेकिन अपना अपना दामन इश्क़ है प्यारे खेल नहीं है इश्क़ है कार-ए-शीशा-ओ-आहन ख़ैर मिज़ाज-ए-हुस्न की या-रब तेज़ बहुत है दिल की धड़कन आ कि न जाने तुझ बिन कब से रूह है लाशा जिस्म है मदफ़न आज न जाने राज़ ये क्या है हिज्र की रात और इतनी रौशन उम्रें बीतीं सदियाँ गुज़रीं है वही अब तक इश्क़ का बचपन तुझ सा हसीं और ख़ून-ए-मोहब्बत वहम है शायद सुर्ख़ी-ए-दामन बर्क़-ए-हवादिस अल्लाह अल्लाह झूम रही है शाख़-ए-नशेमन तू ने सुलझ कर गेसू-ए-जानाँ और बढ़ा दी शौक़ की उलझन रहमत होगी तालिब-ए-इस्याँ रश्क करेगी पाकीए-दामन दिल कि मुजस्सम आईना-सामाँ और वो ज़ालिम आईना-दुश्मन बैठे हम हर बज़्म में लेकिन झाड़ के उट्ठे अपना दामन हस्ती-ए-शाएर अल्लाह अल्लाह हुस्न की मंज़िल इश्क़ का मस्कन रंगीं फ़ितरत सादा तबीअत फ़र्श-नशीं और अर्श-नशेमन काम अधूरा और आज़ादी नाम बड़े और थोड़े दर्शन शम्अ है लेकिन धुंदली धुंदली साया है लेकिन रौशन रौशन काँटों का भी हक़ है कुछ आख़िर कौन छुड़ाए अपना दामन चलती फिरती छाँव है प्यारे किस का सहरा कैसा गुलशन " jo-tuufaanon-men-palte-jaa-rahe-hain-jigar-moradabadi-ghazals," जो तूफ़ानों में पलते जा रहे हैं वही दुनिया बदलते जा रहे हैं निखरता आ रहा है रंग-ए-गुलशन ख़स ओ ख़ाशाक जलते जा रहे हैं वहीं मैं ख़ाक उड़ती देखता हूँ जहाँ चश्मे उबलते जा रहे हैं चराग़-ए-दैर-ओ-काबा अल्लाह अल्लाह हवा की ज़िद पे जलते जा रहे हैं शबाब ओ हुस्न में बहस आ पड़ी है नए पहलू निकलते जा रहे हैं " aaj-kyaa-haal-hai-yaarab-sar-e-mahfil-meraa-jigar-moradabadi-ghazals," आज क्या हाल है यारब सर-ए-महफ़िल मेरा कि निकाले लिए जाता है कोई दिल मेरा सोज़-ए-ग़म देख न बरबाद हो हासिल मेरा दिल की तस्वीर है हर आईना-ए-दिल मेरा सुब्ह तक हिज्र में क्या जानिए क्या होता है शाम ही से मिरे क़ाबू में नहीं दिल मेरा मिल गई इश्क़ में ईज़ा-तलबी से राहत ग़म है अब जान मिरी दर्द है अब दिल मेरा पाया जाता है तिरी शोख़ी-ए-रफ़्तार का रंग काश पहलू में धड़कता ही रहे दिल मेरा हाए उस मर्द की क़िस्मत जो हुआ दिल का शरीक हाए उस दिल का मुक़द्दर जो बना दिल मेरा कुछ खटकता तो है पहलू में मिरे रह रह कर अब ख़ुदा जाने तिरी याद है या दिल मेरा " sab-pe-tuu-mehrbaan-hai-pyaare-jigar-moradabadi-ghazals," सब पे तू मेहरबान है प्यारे कुछ हमारा भी ध्यान है प्यारे आ कि तुझ बिन बहुत दिनों से ये दिल एक सूना मकान है प्यारे तू जहाँ नाज़ से क़दम रख दे वो ज़मीन आसमान है प्यारे मुख़्तसर है ये शौक़ की रूदाद हर नफ़स दास्तान है प्यारे अपने जी में ज़रा तो कर इंसाफ़ कब से ना-मेहरबान है प्यारे सब्र टूटे हुए दिलों का न ले तू यूँही धान पान है प्यारे हम से जो हो सका सो कर गुज़रे अब तिरा इम्तिहान है प्यारे मुझ में तुझ में तो कोई फ़र्क़ नहीं इश्क़ क्यूँ दरमियान है प्यारे क्या कहे हाल-ए-दिल ग़रीब 'जिगर' टूटी फूटी ज़बान है प्यारे " vo-adaa-e-dilbarii-ho-ki-navaa-e-aashiqaana-jigar-moradabadi-ghazals," वो अदा-ए-दिलबरी हो कि नवा-ए-आशिक़ाना जो दिलों को फ़त्ह कर ले वही फ़ातेह-ए-ज़माना ये तिरा जमाल-ए-कामिल ये शबाब का ज़माना दिल-ए-दुश्मनाँ सलामत दिल-ए-दोस्ताँ निशाना कभी हुस्न की तबीअत न बदल सका ज़माना वही नाज़-ए-बे-नियाज़ी वही शान-ए-ख़ुसरवाना मैं हूँ उस मक़ाम पर अब कि फ़िराक़ ओ वस्ल कैसे मिरा इश्क़ भी कहानी तिरा हुस्न भी फ़साना मिरी ज़िंदगी तो गुज़री तिरे हिज्र के सहारे मिरी मौत को भी प्यारे कोई चाहिए बहाना तिरे इश्क़ की करामत ये अगर नहीं तो क्या है कभी बे-अदब न गुज़रा मिरे पास से ज़माना तिरी दूरी ओ हुज़ूरी का ये है अजीब आलम अभी ज़िंदगी हक़ीक़त अभी ज़िंदगी फ़साना मिरे हम-सफ़ीर बुलबुल मिरा तेरा साथ ही क्या मैं ज़मीर-ए-दश्त-ओ-दरिया तू असीर-ए-आशियाना मैं वो साफ़ ही न कह दूँ जो है फ़र्क़ मुझ में तुझ में तिरा दर्द दर्द-ए-तन्हा मिरा ग़म ग़म-ए-ज़माना तिरे दिल के टूटने पर है किसी को नाज़ क्या क्या तुझे ऐ 'जिगर' मुबारक ये शिकस्त-ए-फ़ातेहाना " use-haal-o-qaal-se-vaasta-na-garaz-maqaam-o-qayaam-se-jigar-moradabadi-ghazals," उसे हाल-ओ-क़ाल से वास्ता न ग़रज़ मक़ाम-ओ-क़याम से जिसे कोई निस्बत-ए-ख़ास हो तिरे हुस्न-ए-बर्क़-ख़िराम से मुझे दे रहे हैं तसल्लियाँ वो हर एक ताज़ा पयाम से कभी आ के मंज़र-ए-आम पर कभी हट के मंज़र-ए-आम से क्यूँ किया रहा जो मुक़ाबला ख़तरात-ए-गाम-ब-गाम से सर-ए-बाम-ए-इश्क़-ए-तमाम तक रह-ए-शौक़-ए-नीम-तमाम से न ग़रज़ किसी से न वास्ता मुझे काम अपने ही काम से तिरे ज़िक्र से तिरी फ़िक्र से तिरी याद से तिरे नाम से मिरे साक़िया मिरे साक़िया तुझे मरहबा तुझे मरहबा तू पिलाए जा तू पिलाए जा इसी चश्म-ए-जाम-ब-जाम से तिरी सुब्ह-ए-ऐश है क्या बला तुझे ऐ फ़लक जो हो हौसला कभी कर ले आ के मुक़ाबला ग़म-ए-हिज्र-ए-यार की शाम से मुझे यूँ न ख़ाक में तू मिला मैं अगरचे हूँ तिरा नक़्श-ए-पा तिरे जल्वे की है बक़ा मिरे शौक़-ए-नाम-ब-नाम से तिरी चश्म-ए-मस्त को क्या कहूँ कि नज़र नज़र है फ़ुसूँ फ़ुसूँ ये तमाम होश ये सब जुनूँ इसी एक गर्दिश-ए-जाम से ये किताब-ए-दिल की हैं आयतें मैं बताऊँ क्या जो हैं निस्बतें मिरे सज्दा-हा-ए-दवाम को तिरे नक़्श-हा-ए-ख़िराम से मुझे चाहिए वही साक़िया जो बरस चले जो छलक चले तिरे हुस्न-ए-शीशा-ब-दस्त से तिरी चश्म-ए-बादा-ब-जाम से जो उठा है दर्द उठा करे कोई ख़ाक उस से गिला करे जिसे ज़िद हो हुस्न के ज़िक्र से जिसे चिढ़ हो इश्क़ के नाम से वहीं चश्म-ए-हूर फड़क गई अभी पी न थी कि बहक गई कभी यक-ब-यक जो छलक गई किसी रिंद-ए-मस्त के जाम से तू हज़ार उज़्र करे मगर हमें रश्क है और ही कुछ 'जिगर' तिरी इज़्तिराब-ए-निगाह से तिरे एहतियात-ए-कलाम से " daastaan-e-gam-e-dil-un-ko-sunaaii-na-gaii-jigar-moradabadi-ghazals," दास्तान-ए-ग़म-ए-दिल उन को सुनाई न गई बात बिगड़ी थी कुछ ऐसी कि बनाई न गई सब को हम भूल गए जोश-ए-जुनूँ में लेकिन इक तिरी याद थी ऐसी जो भुलाई न गई इश्क़ पर कुछ न चला दीदा-ए-तर का क़ाबू उस ने जो आग लगा दी वो बुझाई न गई पड़ गया हुस्न-ए-रुख़-ए-यार का परतव जिस पर ख़ाक में मिल के भी इस दिल की सफ़ाई न गई क्या उठाएगी सबा ख़ाक मिरी उस दर से ये क़यामत तो ख़ुद उन से भी उठाई न गई " jehl-e-khirad-ne-din-ye-dikhaae-jigar-moradabadi-ghazals," जेहल-ए-ख़िरद ने दिन ये दिखाए घट गए इंसाँ बढ़ गए साए हाए वो क्यूँकर दिल बहलाए ग़म भी जिस को रास न आए ज़िद पर इश्क़ अगर आ जाए पानी छिड़के आग लगाए दिल पे कुछ ऐसा वक़्त पड़ा है भागे लेकिन राह न पाए कैसा मजाज़ और कैसी हक़ीक़त अपने ही जल्वे अपने ही साए झूटी है हर एक मसर्रत रूह अगर तस्कीन न पाए कार-ए-ज़माना जितना जितना बनता जाए बिगड़ता जाए ज़ब्त-ए-मोहब्बत शर्त-ए-मोहब्बत जी है कि ज़ालिम उमडा आए हुस्न वही है हुस्न जो ज़ालिम हाथ लगाए हाथ न आए नग़्मा वही है नग़्मा कि जिस को रूह सुने और रूह सुनाए राह-ए-जुनूँ आसान हुई है ज़ुल्फ़ ओ मिज़ा के साए साए " kyaa-baraabar-kaa-mohabbat-men-asar-hotaa-hai-jigar-moradabadi-ghazals," क्या बराबर का मोहब्बत में असर होता है दिल इधर होता है ज़ालिम न उधर होता है हम ने क्या कुछ न किया दीदा-ए-दिल की ख़ातिर लोग कहते हैं दुआओं में असर होता है दिल तो यूँ दिल से मिलाया कि न रक्खा मेरा अब नज़र के लिए क्या हुक्म-ए-नज़र होता है मैं गुनहगार-ए-जुनूँ मैं ने ये माना लेकिन कुछ उधर से भी तक़ाज़ा-ए-नज़र होता है कौन देखे उसे बेताब-ए-मोहब्बत ऐ दिल तू वो नाले ही न कर जिन में असर होता है " tire-jamaal-e-haqiiqat-kii-taab-hii-na-huii-jigar-moradabadi-ghazals," तिरे जमाल-ए-हक़ीक़त की ताब ही न हुई हज़ार बार निगह की मगर कभी न हुई तिरी ख़ुशी से अगर ग़म में भी ख़ुशी न हुई वो ज़िंदगी तो मोहब्बत की ज़िंदगी न हुई कहाँ वो शोख़ मुलाक़ात ख़ुद से भी न हुई बस एक बार हुई और फिर कभी न हुई वो हम हैं अहल-ए-मोहब्बत कि जान से दिल से बहुत बुख़ार उठे आँख शबनमी न हुई ठहर ठहर दिल-ए-बेताब प्यार तो कर लूँ अब उस के ब'अद मुलाक़ात फिर हुई न हुई मिरे ख़याल से भी आह मुझ को बोद रहा हज़ार तरह से चाहा बराबरी न हुई हम अपनी रिंदी-ओ-ताअत पे ख़ाक नाज़ करें क़ुबूल-ए-हज़रत-ए-सुल्ताँ हुई हुई न हुई कोई बढ़े न बढ़े हम तो जान देते हैं फिर ऐसी चश्म-ए-तवज्जोह हुई हुई न हुई तमाम हर्फ़-ओ-हिकायत तमाम दीदा-ओ-दिल इस एहतिमाम पे भी शरह-ए-आशिक़ी न हुई फ़सुर्दा-ख़ातिरी-ए-इश्क़ ऐ मआज़-अल्लाह ख़याल-ए-यार से भी कुछ शगुफ़्तगी न हुई तिरी निगाह-ए-करम को भी आज़मा देखा अज़िय्यतों में न होनी थी कुछ कमी न हुई किसी की मस्त-निगाही ने हाथ थाम लिया शरीक-ए-हाल जहाँ मेरी बे-ख़ुदी न हुई सबा ये उन से हमारा पयाम कह देना गए हो जब से यहाँ सुब्ह ओ शाम ही न हुई वो कुछ सही न सही फिर भी ज़ाहिद-ए-नादाँ बड़े-बड़ों से मोहब्बत में काफ़िरी न हुई इधर से भी है सिवा कुछ उधर की मजबूरी कि हम ने आह तो की उन से आह भी न हुई ख़याल-ए-यार सलामत तुझे ख़ुदा रक्खे तिरे बग़ैर कभी घर में रौशनी न हुई गए थे हम भी 'जिगर' जल्वा-गाह-ए-जानाँ में वो पूछते ही रहे हम से बात भी न हुई " agar-na-zohra-jabiinon-ke-darmiyaan-guzre-jigar-moradabadi-ghazals," अगर न ज़ोहरा-जबीनों के दरमियाँ गुज़रे तो फिर ये कैसे कटे ज़िंदगी कहाँ गुज़रे जो तेरे आरिज़ ओ गेसू के दरमियाँ गुज़रे कभी कभी वही लम्हे बला-ए-जाँ गुज़रे मुझे ये वहम रहा मुद्दतों कि जुरअत-ए-शौक़ कहीं न ख़ातिर-ए-मासूम पर गिराँ गुज़रे हर इक मक़ाम-ए-मोहब्बत बहुत ही दिलकश था मगर हम अहल-ए-मोहब्बत कशाँ कशाँ गुज़रे जुनूँ के सख़्त मराहिल भी तेरी याद के साथ हसीं हसीं नज़र आए जवाँ जवाँ गुज़रे मिरी नज़र से तिरी जुस्तुजू के सदक़े में ये इक जहाँ ही नहीं सैंकड़ों जहाँ गुज़रे हुजूम-ए-जल्वा में परवाज़-ए-शौक़ क्या कहना कि जैसे रूह सितारों के दरमियाँ गुज़रे ख़ता-मुआफ़ ज़माने से बद-गुमाँ हो कर तिरी वफ़ा पे भी क्या क्या हमें गुमाँ गुज़रे मुझे था शिकवा-ए-हिज्राँ कि ये हुआ महसूस मिरे क़रीब से हो कर वो ना-गहाँ गुज़रे रह-ए-वफ़ा में इक ऐसा मक़ाम भी आया कि हम ख़ुद अपनी तरफ़ से भी बद-गुमाँ गुज़रे ख़ुलूस जिस में हो शामिल वो दौर-ए-इश्क़-ओ-हवस न राएगाँ कभी गुज़रा न राएगाँ गुज़रे उसी को कहते हैं जन्नत उसी को दोज़ख़ भी वो ज़िंदगी जो हसीनों के दरमियाँ गुज़रे बहुत हसीन मनाज़िर भी हुस्न-ए-फ़ितरत के न जाने आज तबीअत पे क्यूँ गिराँ गुज़रे वो जिन के साए से भी बिजलियाँ लरज़ती थीं मिरी नज़र से कुछ ऐसे भी आशियाँ गुज़रे मिरा तो फ़र्ज़ चमन-बंदी-ए-जहाँ है फ़क़त मिरी बला से बहार आए या ख़िज़ाँ गुज़रे कहाँ का हुस्न कि ख़ुद इश्क़ को ख़बर न हुई रह-ए-तलब में कुछ ऐसे भी इम्तिहाँ गुज़रे भरी बहार में ताराजी-ए-चमन मत पूछ ख़ुदा करे न फिर आँखों से वो समाँ गुज़रे कोई न देख सका जिन को वो दिलों के सिवा मुआमलात कुछ ऐसे भी दरमियाँ गुज़रे कभी कभी तो इसी एक मुश्त-ए-ख़ाक के गिर्द तवाफ़ करते हुए हफ़्त आसमाँ गुज़रे बहुत हसीन सही सोहबतें गुलों की मगर वो ज़िंदगी है जो काँटों के दरमियाँ गुज़रे अभी से तुझ को बहुत नागवार हैं हमदम वो हादसात जो अब तक रवाँ-दवाँ गुज़रे जिन्हें कि दीदा-ए-शाइर ही देख सकता है वो इंक़िलाब तिरे सामने कहाँ गुज़रे बहुत अज़ीज़ है मुझ को उन्हें क्या याद 'जिगर' वो हादसात-ए-मोहब्बत जो ना-गहाँ गुज़रे " do-chaar-gaam-raah-ko-hamvaar-dekhnaa-nida-fazli-ghazals," दो चार गाम राह को हमवार देखना फिर हर क़दम पे इक नई दीवार देखना आँखों की रौशनी से है हर संग आईना हर आइने में ख़ुद को गुनहगार देखना हर आदमी में होते हैं दस बीस आदमी जिस को भी देखना हो कई बार देखना मैदाँ की हार जीत तो क़िस्मत की बात है टूटी है किस के हाथ में तलवार देखना दरिया के इस किनारे सितारे भी फूल भी दरिया चढ़ा हुआ हो तो उस पार देखना अच्छी नहीं है शहर के रस्तों से दोस्ती आँगन में फैल जाए न बाज़ार देखना " be-naam-saa-ye-dard-thahar-kyuun-nahiin-jaataa-nida-fazli-ghazals," बे-नाम सा ये दर्द ठहर क्यूँ नहीं जाता जो बीत गया है वो गुज़र क्यूँ नहीं जाता सब कुछ तो है क्या ढूँढती रहती हैं निगाहें क्या बात है मैं वक़्त पे घर क्यूँ नहीं जाता वो एक ही चेहरा तो नहीं सारे जहाँ में जो दूर है वो दिल से उतर क्यूँ नहीं जाता मैं अपनी ही उलझी हुई राहों का तमाशा जाते हैं जिधर सब मैं उधर क्यूँ नहीं जाता वो ख़्वाब जो बरसों से न चेहरा न बदन है वो ख़्वाब हवाओं में बिखर क्यूँ नहीं जाता " garaj-baras-pyaasii-dhartii-phir-paanii-de-maulaa-nida-fazli-ghazals," गरज-बरस प्यासी धरती पर फिर पानी दे मौला चिड़ियों को दाने बच्चों को गुड़-धानी दे मौला दो और दो का जोड़ हमेशा चार कहाँ होता है सोच समझ वालों को थोड़ी नादानी दे मौला फिर रौशन कर ज़हर का प्याला चमका नई सलीबें झूटों की दुनिया में सच को ताबानी दे मौला फिर मूरत से बाहर आ कर चारों ओर बिखर जा फिर मंदिर को कोई 'मीरा' दीवानी दे मौला तेरे होते कोई किस की जान का दुश्मन क्यूँ हो जीने वालों को मरने की आसानी दे मौला " mutthii-bhar-logon-ke-haathon-men-laakhon-kii-taqdiiren-hain-nida-fazli-ghazals," मुट्ठी भर लोगों के हाथों में लाखों की तक़दीरें हैं जुदा जुदा हैं धर्म इलाक़े एक सी लेकिन ज़ंजीरें हैं आज और कल की बात नहीं है सदियों की तारीख़ यही है हर आँगन में ख़्वाब हैं लेकिन चंद घरों में ताबीरें हैं जब भी कोई तख़्त सजा है मेरा तेरा ख़ून बहा है दरबारों की शान-ओ-शौकत मैदानों की शमशीरें हैं हर जंगल की एक कहानी वो ही भेंट वही क़ुर्बानी गूँगी बहरी सारी भेड़ें चरवाहों की जागीरें हैं " kabhii-kabhii-yuun-bhii-ham-ne-apne-jii-ko-bahlaayaa-hai-nida-fazli-ghazals," कभी कभी यूँ भी हम ने अपने जी को बहलाया है जिन बातों को ख़ुद नहीं समझे औरों को समझाया है हम से पूछो इज़्ज़त वालों की इज़्ज़त का हाल कभी हम ने भी इक शहर में रह कर थोड़ा नाम कमाया है उस को भूले बरसों गुज़रे लेकिन आज न जाने क्यूँ आँगन में हँसते बच्चों को बे-कारन धमकाया है उस बस्ती से छुट कर यूँ तो हर चेहरे को याद किया जिस से थोड़ी सी अन-बन थी वो अक्सर याद आया है कोई मिला तो हाथ मिलाया कहीं गए तो बातें कीं घर से बाहर जब भी निकले दिन भर बोझ उठाया है " achchhii-nahiin-ye-khaamushii-shikva-karo-gila-karo-nida-fazli-ghazals," अच्छी नहीं ये ख़ामुशी शिकवा करो गिला करो यूँ भी न कर सको तो फिर घर में ख़ुदा ख़ुदा करो शोहरत भी उस के साथ है दौलत भी उस के हाथ है ख़ुद से भी वो मिले कभी उस के लिए दुआ करो देखो ये शहर है अजब दिल भी नहीं है कम ग़ज़ब शाम को घर जो आऊँ मैं थोड़ा सा सज लिया करो दिल में जिसे बसाओ तुम चाँद उसे बनाओ तुम वो जो कहे पढ़ा करो जो न कहे सुना करो मेरी नशिस्त पे भी कल आएगा कोई दूसरा तुम भी बना के रास्ता मेरे लिए जगह करो " yaqiin-chaand-pe-suuraj-men-e-tibaar-bhii-rakh-nida-fazli-ghazals," यक़ीन चाँद पे सूरज में ए'तिबार भी रख मगर निगाह में थोड़ा सा इंतिज़ार भी रख ख़ुदा के हाथ में मत सौंप सारे कामों को बदलते वक़्त पे कुछ अपना इख़्तियार भी रख ये ही लहू है शहादत ये ही लहू पानी ख़िज़ाँ नसीब सही ज़ेहन में बहार भी रख घरों के ताक़ों में गुल-दस्ते यूँ नहीं सजते जहाँ हैं फूल वहीं आस-पास ख़ार भी रख पहाड़ गूँजें नदी गाए ये ज़रूरी है सफ़र कहीं का हो दिल में किसी का प्यार भी रख " jise-dekhte-hii-khumaarii-lage-nida-fazli-ghazals," जिसे देखते ही ख़ुमारी लगे उसे उम्र सारी हमारी लगे उजाला सा है उस के चारों तरफ़ वो नाज़ुक बदन पाँव भारी लगे वो ससुराल से आई है माइके उसे जितना देखो वो प्यारी लगे हसीन सूरतें और भी हैं मगर वो सब सैकड़ों में हज़ारी लगे चलो इस तरह से सजाएँ उसे ये दुनिया हमारी तुम्हारी लगे उसे देखना शेर-गोई का फ़न उसे सोचना दीन-दारी लगे " dekhaa-huaa-saa-kuchh-hai-to-sochaa-huaa-saa-kuchh-nida-fazli-ghazals," देखा हुआ सा कुछ है तो सोचा हुआ सा कुछ हर वक़्त मेरे साथ है उलझा हुआ सा कुछ होता है यूँ भी रास्ता खुलता नहीं कहीं जंगल सा फैल जाता है खोया हुआ सा कुछ साहिल की गीली रेत पर बच्चों के खेल सा हर लम्हा मुझ में बनता बिखरता हुआ सा कुछ फ़ुर्सत ने आज घर को सजाया कुछ इस तरह हर शय से मुस्कुराता है रोता हुआ सा कुछ धुँदली सी एक याद किसी क़ब्र का दिया और मेरे आस-पास चमकता हुआ सा कुछ " nazdiikiyon-men-duur-kaa-manzar-talaash-kar-nida-fazli-ghazals," नज़दीकियों में दूर का मंज़र तलाश कर जो हाथ में नहीं है वो पत्थर तलाश कर सूरज के इर्द-गिर्द भटकने से फ़ाएदा दरिया हुआ है गुम तो समुंदर तलाश कर तारीख़ में महल भी है हाकिम भी तख़्त भी गुमनाम जो हुए हैं वो लश्कर तलाश कर रहता नहीं है कुछ भी यहाँ एक सा सदा दरवाज़ा घर का खोल के फिर घर तलाश कर कोशिश भी कर उमीद भी रख रास्ता भी चुन फिर इस के बा'द थोड़ा मुक़द्दर तलाश कर " koshish-ke-baavajuud-ye-ilzaam-rah-gayaa-nida-fazli-ghazals," कोशिश के बावजूद ये इल्ज़ाम रह गया हर काम में हमेशा कोई काम रह गया छोटी थी उम्र और फ़साना तवील था आग़ाज़ ही लिखा गया अंजाम रह गया उठ उठ के मस्जिदों से नमाज़ी चले गए दहशत-गरों के हाथ में इस्लाम रह गया उस का क़ुसूर ये था बहुत सोचता था वो वो कामयाब हो के भी नाकाम रह गया अब क्या बताएँ कौन था क्या था वो एक शख़्स गिनती के चार हर्फ़ों का जो नाम रह गया " jo-ho-ik-baar-vo-har-baar-ho-aisaa-nahiin-hotaa-nida-fazli-ghazals," जो हो इक बार वो हर बार हो ऐसा नहीं होता हमेशा एक ही से प्यार हो ऐसा नहीं होता हर इक कश्ती का अपना तजरबा होता है दरिया में सफ़र में रोज़ ही मंजधार हो ऐसा नहीं होता कहानी में तो किरदारों को जो चाहे बना दीजे हक़ीक़त भी कहानी-कार हो ऐसा नहीं होता कहीं तो कोई होगा जिस को अपनी भी ज़रूरत हो हर इक बाज़ी में दिल की हार हो ऐसा नहीं होता सिखा देती हैं चलना ठोकरें भी राहगीरों को कोई रस्ता सदा दुश्वार हो ऐसा नहीं होता " kuchh-bhii-bachaa-na-kahne-ko-har-baat-ho-gaii-nida-fazli-ghazals," कुछ भी बचा न कहने को हर बात हो गई आओ कहीं शराब पिएँ रात हो गई फिर यूँ हुआ कि वक़्त का पाँसा पलट गया उम्मीद जीत की थी मगर मात हो गई सूरज को चोंच में लिए मुर्ग़ा खड़ा रहा खिड़की के पर्दे खींच दिए रात हो गई वो आदमी था कितना भला कितना पुर-ख़ुलूस उस से भी आज लीजे मुलाक़ात हो गई रस्ते में वो मिला था मैं बच कर गुज़र गया उस की फटी क़मीस मिरे साथ हो गई नक़्शा उठा के कोई नया शहर ढूँढिए इस शहर में तो सब से मुलाक़ात हो गई " apnii-marzii-se-kahaan-apne-safar-ke-ham-hain-nida-fazli-ghazals," अपनी मर्ज़ी से कहाँ अपने सफ़र के हम हैं रुख़ हवाओं का जिधर का है उधर के हम हैं पहले हर चीज़ थी अपनी मगर अब लगता है अपने ही घर में किसी दूसरे घर के हम हैं वक़्त के साथ है मिटी का सफ़र सदियों से किस को मालूम कहाँ के हैं किधर के हम हैं चलते रहते हैं कि चलना है मुसाफ़िर का नसीब सोचते रहते हैं किस राहगुज़र के हम हैं हम वहाँ हैं जहाँ कुछ भी नहीं रस्ता न दयार अपने ही खोए हुए शाम ओ सहर के हम हैं गिनतियों में ही गिने जाते हैं हर दौर में हम हर क़लमकार की बे-नाम ख़बर के हम हैं " hosh-vaalon-ko-khabar-kyaa-be-khudii-kyaa-chiiz-hai-nida-fazli-ghazals," होश वालों को ख़बर क्या बे-ख़ुदी क्या चीज़ है इश्क़ कीजे फिर समझिए ज़िंदगी क्या चीज़ है उन से नज़रें क्या मिलीं रौशन फ़ज़ाएँ हो गईं आज जाना प्यार की जादूगरी क्या चीज़ है बिखरी ज़ुल्फ़ों ने सिखाई मौसमों को शाइ'री झुकती आँखों ने बताया मय-कशी क्या चीज़ है हम लबों से कह न पाए उन से हाल-ए-दिल कभी और वो समझे नहीं ये ख़ामोशी क्या चीज़ है " aaj-zaraa-fursat-paaii-thii-aaj-use-phir-yaad-kiyaa-nida-fazli-ghazals-3," आज ज़रा फ़ुर्सत पाई थी आज उसे फिर याद किया बंद गली के आख़िरी घर को खोल के फिर आबाद किया खोल के खिड़की चाँद हँसा फिर चाँद ने दोनों हाथों से रंग उड़ाए फूल खिलाए चिड़ियों को आज़ाद किया बड़े बड़े ग़म खड़े हुए थे रस्ता रोके राहों में छोटी छोटी ख़ुशियों से ही हम ने दिल को शाद किया बात बहुत मा'मूली सी थी उलझ गई तकरारों में एक ज़रा सी ज़िद ने आख़िर दोनों को बरबाद किया दानाओं की बात न मानी काम आई नादानी ही सुना हवा को पढ़ा नदी को मौसम को उस्ताद किया " raat-ke-baad-nae-din-kii-sahar-aaegii-nida-fazli-ghazals," रात के बा'द नए दिन की सहर आएगी दिन नहीं बदलेगा तारीख़ बदल जाएगी हँसते हँसते कभी थक जाओ तो छुप के रो लो ये हँसी भीग के कुछ और चमक जाएगी जगमगाती हुई सड़कों पे अकेले न फिरो शाम आएगी किसी मोड़ पे डस जाएगी और कुछ देर यूँही जंग सियासत मज़हब और थक जाओ अभी नींद कहाँ आएगी मेरी ग़ुर्बत को शराफ़त का अभी नाम न दे वक़्त बदला तो तिरी राय बदल जाएगी वक़्त नदियों को उछाले कि उड़ाए पर्बत उम्र का काम गुज़रना है गुज़र जाएगी " main-apne-ikhtiyaar-men-huun-bhii-nahiin-bhii-huun-nida-fazli-ghazals," मैं अपने इख़्तियार में हूँ भी नहीं भी हूँ दुनिया के कारोबार में हूँ भी नहीं भी हूँ तेरी ही जुस्तुजू में लगा है कभी कभी मैं तेरे इंतिज़ार में हूँ भी नहीं भी हूँ फ़िहरिस्त मरने वालों की क़ातिल के पास है मैं अपने ही मज़ार में हूँ भी नहीं भी हूँ औरों के साथ ऐसा कोई मसअला नहीं इक मैं ही इस दयार में हूँ भी नहीं भी हूँ मुझ से ही है हर एक सियासत का ए'तिबार फिर भी किसी शुमार में हूँ भी नहीं भी हूँ " ab-khushii-hai-na-koii-dard-rulaane-vaalaa-nida-fazli-ghazals," अब ख़ुशी है न कोई दर्द रुलाने वाला हम ने अपना लिया हर रंग ज़माने वाला एक बे-चेहरा सी उम्मीद है चेहरा चेहरा जिस तरफ़ देखिए आने को है आने वाला उस को रुख़्सत तो किया था मुझे मा'लूम न था सारा घर ले गया घर छोड़ के जाने वाला दूर के चाँद को ढूँडो न किसी आँचल में ये उजाला नहीं आँगन में समाने वाला इक मुसाफ़िर के सफ़र जैसी है सब की दुनिया कोई जल्दी में कोई देर से जाने वाला " insaan-hain-haivaan-yahaan-bhii-hai-vahaan-bhii-nida-fazli-ghazals," इंसान में हैवान यहाँ भी है वहाँ भी अल्लाह निगहबान यहाँ भी है वहाँ भी ख़ूँ-ख़्वार दरिंदों के फ़क़त नाम अलग हैं हर शहर बयाबान यहाँ भी है वहाँ भी हिन्दू भी सुकूँ से है मुसलमाँ भी सुकूँ से इंसान परेशान यहाँ भी है वहाँ भी रहमान की रहमत हो कि भगवान की मूरत हर खेल का मैदान यहाँ भी है वहाँ भी उठता है दिल-ओ-जाँ से धुआँ दोनों तरफ़ ही ये 'मीर' का दीवान यहाँ भी है वहाँ भी " us-ke-dushman-hain-bahut-aadmii-achchhaa-hogaa-nida-fazli-ghazals," उस के दुश्मन हैं बहुत आदमी अच्छा होगा वो भी मेरी ही तरह शहर में तन्हा होगा इतना सच बोल कि होंटों का तबस्सुम न बुझे रौशनी ख़त्म न कर आगे अँधेरा होगा प्यास जिस नहर से टकराई वो बंजर निकली जिस को पीछे कहीं छोड़ आए वो दरिया होगा मिरे बारे में कोई राय तो होगी उस की उस ने मुझ को भी कभी तोड़ के देखा होगा एक महफ़िल में कई महफ़िलें होती हैं शरीक जिस को भी पास से देखोगे अकेला होगा " har-ek-baat-ko-chup-chaap-kyuun-sunaa-jaae-nida-fazli-ghazals," हर एक बात को चुप-चाप क्यूँ सुना जाए कभी तो हौसला कर के नहीं कहा जाए तुम्हारा घर भी इसी शहर के हिसार में है लगी है आग कहाँ क्यूँ पता किया जाए जुदा है हीर से राँझा कई ज़मानों से नए सिरे से कहानी को फिर लिखा जाए कहा गया है सितारों को छूना मुश्किल है ये कितना सच है कभी तजरबा किया जाए किताबें यूँ तो बहुत सी हैं मेरे बारे में कभी अकेले में ख़ुद को भी पढ़ लिया जाए " tanhaa-tanhaa-dukh-jhelenge-mahfil-mahfil-gaaenge-nida-fazli-ghazals," तन्हा तन्हा दुख झेलेंगे महफ़िल महफ़िल गाएँगे जब तक आँसू पास रहेंगे तब तक गीत सुनाएँगे तुम जो सोचो वो तुम जानो हम तो अपनी कहते हैं देर न करना घर आने में वर्ना घर खो जाएँगे बच्चों के छोटे हाथों को चाँद सितारे छूने दो चार किताबें पढ़ कर ये भी हम जैसे हो जाएँगे अच्छी सूरत वाले सारे पत्थर-दिल हों मुमकिन है हम तो उस दिन राय देंगे जिस दिन धोका खाएँगे किन राहों से सफ़र है आसाँ कौन सा रस्ता मुश्किल है हम भी जब थक कर बैठेंगे औरों को समझाएँगे " mohabbat-men-vafaadaarii-se-bachiye-nida-fazli-ghazals," मोहब्बत में वफ़ादारी से बचिए जहाँ तक हो अदाकारी से बचिए हर इक सूरत भली लगती है कुछ दिन लहू की शो'बदा-कारी से बचिए शराफ़त आदमियत दर्द-मंदी बड़े शहरों में बीमारी से बचिए ज़रूरी क्या हर इक महफ़िल में बैठें तकल्लुफ़ की रवा-दारी से बचिए बिना पैरों के सर चलते नहीं हैं बुज़ुर्गों की समझदारी से बचिए " har-ek-ghar-men-diyaa-bhii-jale-anaaj-bhii-ho-nida-fazli-ghazals," हर एक घर में दिया भी जले अनाज भी हो अगर न हो कहीं ऐसा तो एहतिजाज भी हो रहेगी वा'दों में कब तक असीर ख़ुश-हाली हर एक बार ही कल क्यूँ कभी तो आज भी हो न करते शोर-शराबा तो और क्या करते तुम्हारे शहर में कुछ और काम-काज भी हो हुकूमतों को बदलना तो कुछ मुहाल नहीं हुकूमतें जो बदलता है वो समाज भी हो बदल रहे हैं कई आदमी दरिंदों में मरज़ पुराना है इस का नया इलाज भी हो अकेले ग़म से नई शाइरी नहीं होती ज़बान-ए-'मीर' में 'ग़ालिब' का इम्तिज़ाज भी हो " man-bai-raagii-tan-anuuraagii-qadam-qadam-dushvaarii-hai-nida-fazli-ghazals," मन बै-रागी तन अनूरागी क़दम क़दम दुश्वारी है जीवन जीना सहल न जानो बहुत बड़ी फ़नकारी है औरों जैसे हो कर भी हम बा-इज़्ज़त हैं बस्ती में कुछ लोगों का सीधा-पन है कुछ अपनी अय्यारी है जब जब मौसम झूमा हम ने कपड़े फाड़े शोर किया हर मौसम शाइस्ता रहना कोरी दुनिया-दारी है ऐब नहीं है इस में कोई लाल-परी न फूल-कली ये मत पूछो वो अच्छा है या अच्छी नादारी है जो चेहरा देखा वो तोड़ा नगर नगर वीरान किए पहले औरों से ना-ख़ुश थे अब ख़ुद से बे-ज़ारी है " har-taraf-har-jagah-be-shumaar-aadmii-nida-fazli-ghazals," हर तरफ़ हर जगह बे-शुमार आदमी फिर भी तन्हाइयों का शिकार आदमी सुब्ह से शाम तक बोझ ढोता हुआ अपनी ही लाश का ख़ुद मज़ार आदमी हर तरफ़ भागते दौड़ते रास्ते हर तरफ़ आदमी का शिकार आदमी रोज़ जीता हुआ रोज़ मरता हुआ हर नए दिन नया इंतिज़ार आदमी घर की दहलीज़ से गेहूँ के खेत तक चलता फिरता कोई कारोबार आदमी ज़िंदगी का मुक़द्दर सफ़र-दर-सफ़र आख़िरी साँस तक बे-क़रार आदमी " munh-kii-baat-sune-har-koii-dil-ke-dard-ko-jaane-kaun-nida-fazli-ghazals," मुँह की बात सुने हर कोई दिल के दर्द को जाने कौन आवाज़ों के बाज़ारों में ख़ामोशी पहचाने कौन सदियों सदियों वही तमाशा रस्ता रस्ता लम्बी खोज लेकिन जब हम मिल जाते हैं खो जाता है जाने कौन वो मेरी परछाईं है या मैं उस का आईना हूँ मेरे ही घर में रहता है मुझ जैसा ही जाने कौन जाने क्या क्या बोल रहा था सरहद प्यार किताबें ख़ून कल मेरी नींदों में छुप कर जाग रहा था जाने कौन किरन किरन अलसाता सूरज पलक पलक खुलती नींदें धीमे धीमे बिखर रहा है ज़र्रा ज़र्रा जाने कौन " har-ghadii-khud-se-ulajhnaa-hai-muqaddar-meraa-nida-fazli-ghazals," हर घड़ी ख़ुद से उलझना है मुक़द्दर मेरा मैं ही कश्ती हूँ मुझी में है समुंदर मेरा किस से पूछूँ कि कहाँ गुम हूँ कई बरसों से हर जगह ढूँढता फिरता है मुझे घर मेरा एक से हो गए मौसमों के चेहरे सारे मेरी आँखों से कहीं खो गया मंज़र मेरा मुद्दतें बीत गईं ख़्वाब सुहाना देखे जागता रहता है हर नींद में बिस्तर मेरा आइना देख के निकला था मैं घर से बाहर आज तक हाथ में महफ़ूज़ है पत्थर मेरा " dhuup-men-niklo-ghataaon-men-nahaa-kar-dekho-nida-fazli-ghazals," धूप में निकलो घटाओं में नहा कर देखो ज़िंदगी क्या है किताबों को हटा कर देखो सिर्फ़ आँखों से ही दुनिया नहीं देखी जाती दिल की धड़कन को भी बीनाई बना कर देखो पत्थरों में भी ज़बाँ होती है दिल होते हैं अपने घर के दर-ओ-दीवार सजा कर देखो वो सितारा है चमकने दो यूँही आँखों में क्या ज़रूरी है उसे जिस्म बना कर देखो फ़ासला नज़रों का धोका भी तो हो सकता है वो मिले या न मिले हाथ बढ़ा कर देखो " besan-kii-saundhii-rotii-par-khattii-chatnii-jaisii-maan-nida-fazli-ghazals," बेसन की सौंधी रोटी पर खट्टी चटनी जैसी माँ याद आती है! चौका बासन चिमटा फुकनी जैसी माँ बाँस की खर्री खाट के ऊपर हर आहट पर कान धरे आधी सोई आधी जागी थकी दो-पहरी जैसी माँ चिड़ियों की चहकार में गूँजे राधा मोहन अली अली मुर्ग़े की आवाज़ से बजती घर की कुंडी जैसी माँ बीवी बेटी बहन पड़ोसन थोड़ी थोड़ी सी सब में दिन भर इक रस्सी के ऊपर चलती नटनी जैसी माँ बाँट के अपना चेहरा माथा आँखें जाने कहाँ गई फटे पुराने इक एल्बम में चंचल लड़की जैसी माँ " duniyaa-jise-kahte-hain-jaaduu-kaa-khilaunaa-hai-nida-fazli-ghazals," दुनिया जिसे कहते हैं जादू का खिलौना है मिल जाए तो मिट्टी है खो जाए तो सोना है अच्छा सा कोई मौसम तन्हा सा कोई आलम हर वक़्त का रोना तो बे-कार का रोना है बरसात का बादल तो दीवाना है क्या जाने किस राह से बचना है किस छत को भिगोना है ये वक़्त जो तेरा है ये वक़्त जो मेरा है हर गाम पे पहरा है फिर भी इसे खोना है ग़म हो कि ख़ुशी दोनों कुछ दूर के साथी हैं फिर रस्ता ही रस्ता है हँसना है न रोना है आवारा-मिज़ाजी ने फैला दिया आँगन को आकाश की चादर है धरती का बिछौना है " us-ko-kho-dene-kaa-ehsaas-to-kam-baaqii-hai-nida-fazli-ghazals," उस को खो देने का एहसास तो कम बाक़ी है जो हुआ वो न हुआ होता ये ग़म बाक़ी है अब न वो छत है न वो ज़ीना न अंगूर की बेल सिर्फ़ इक उस को भुलाने की क़सम बाक़ी है मैं ने पूछा था सबब पेड़ के गिर जाने का उठ के माली ने कहा उस की क़लम बाक़ी है जंग के फ़ैसले मैदाँ में कहाँ होते हैं जब तलक हाफ़िज़े बाक़ी हैं अलम बाक़ी है थक के गिरता है हिरन सिर्फ़ शिकारी के लिए जिस्म घायल है मगर आँखों में रम बाक़ी है " jab-se-qariib-ho-ke-chale-zindagii-se-ham-nida-fazli-ghazals," जब से क़रीब हो के चले ज़िंदगी से हम ख़ुद अपने आइने को लगे अजनबी से हम कुछ दूर चल के रास्ते सब एक से लगे मिलने गए किसी से मिल आए किसी से हम अच्छे बुरे के फ़र्क़ ने बस्ती उजाड़ दी मजबूर हो के मिलने लगे हर किसी से हम शाइस्ता महफ़िलों की फ़ज़ाओं में ज़हर था ज़िंदा बचे हैं ज़ेहन की आवारगी से हम अच्छी भली थी दुनिया गुज़ारे के वास्ते उलझे हुए हैं अपनी ही ख़ुद-आगही से हम जंगल में दूर तक कोई दुश्मन न कोई दोस्त मानूस हो चले हैं मगर बम्बई से हम " kabhii-kisii-ko-mukammal-jahaan-nahiin-miltaa-nida-fazli-ghazals," कभी किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता कहीं ज़मीन कहीं आसमाँ नहीं मिलता तमाम शहर में ऐसा नहीं ख़ुलूस न हो जहाँ उमीद हो इस की वहाँ नहीं मिलता कहाँ चराग़ जलाएँ कहाँ गुलाब रखें छतें तो मिलती हैं लेकिन मकाँ नहीं मिलता ये क्या अज़ाब है सब अपने आप में गुम हैं ज़बाँ मिली है मगर हम-ज़बाँ नहीं मिलता चराग़ जलते ही बीनाई बुझने लगती है ख़ुद अपने घर में ही घर का निशाँ नहीं मिलता " ghar-se-nikle-to-ho-sochaa-bhii-kidhar-jaaoge-nida-fazli-ghazals," घर से निकले तो हो सोचा भी किधर जाओगे हर तरफ़ तेज़ हवाएँ हैं बिखर जाओगे इतना आसाँ नहीं लफ़्ज़ों पे भरोसा करना घर की दहलीज़ पुकारेगी जिधर जाओगे शाम होते ही सिमट जाएँगे सारे रस्ते बहते दरिया से जहाँ होगे ठहर जाओगे हर नए शहर में कुछ रातें कड़ी होती हैं छत से दीवारें जुदा होंगी तो डर जाओगे पहले हर चीज़ नज़र आएगी बे-मा'नी सी और फिर अपनी ही नज़रों से उतर जाओगे " kath-putlii-hai-yaa-jiivan-hai-jiite-jaao-socho-mat-nida-fazli-ghazals," कठ-पुतली है या जीवन है जीते जाओ सोचो मत सोच से ही सारी उलझन है जीते जाओ सोचो मत लिखा हुआ किरदार कहानी में ही चलता फिरता है कभी है दूरी कभी मिलन है जीते जाओ सोचो मत नाच सको तो नाचो जब थक जाओ तो आराम करो टेढ़ा क्यूँ घर का आँगन है जीते जाओ सोचो मत हर मज़हब का एक ही कहना जैसा मालिक रक्खे रहना जब तक साँसों का बंधन है जीते जाओ सोचो मत घूम रहे हैं बाज़ारों में सरमायों के आतिश-दान किस भट्टी में कौन ईंधन है जीते जाओ सोचो मत " safar-men-dhuup-to-hogii-jo-chal-sako-to-chalo-nida-fazli-ghazals," सफ़र में धूप तो होगी जो चल सको तो चलो सभी हैं भीड़ में तुम भी निकल सको तो चलो किसी के वास्ते राहें कहाँ बदलती हैं तुम अपने आप को ख़ुद ही बदल सको तो चलो यहाँ किसी को कोई रास्ता नहीं देता मुझे गिरा के अगर तुम सँभल सको तो चलो कहीं नहीं कोई सूरज धुआँ धुआँ है फ़ज़ा ख़ुद अपने आप से बाहर निकल सको तो चलो यही है ज़िंदगी कुछ ख़्वाब चंद उम्मीदें इन्हीं खिलौनों से तुम भी बहल सको तो चलो " kuchh-tabiiat-hii-milii-thii-aisii-chain-se-jiine-kii-suurat-na-huii-nida-fazli-ghazals," कुछ तबीअ'त ही मिली थी ऐसी चैन से जीने की सूरत न हुई जिस को चाहा उसे अपना न सके जो मिला उस से मोहब्बत न हुई जिस से जब तक मिले दिल ही से मिले दिल जो बदला तो फ़साना बदला रस्म-ए-दुनिया को निभाने के लिए हम से रिश्तों की तिजारत न हुई दूर से था वो कई चेहरों में पास से कोई भी वैसा न लगा बेवफ़ाई भी उसी का था चलन फिर किसी से ये शिकायत न हुई छोड़ कर घर को कहीं जाने से घर में रहने की इबादत थी बड़ी झूट मशहूर हुआ राजा का सच की संसार में शोहरत न हुई वक़्त रूठा रहा बच्चे की तरह राह में कोई खिलौना न मिला दोस्ती की तो निभाई न गई दुश्मनी में भी अदावत न हुई " girjaa-men-mandiron-men-azaanon-men-bat-gayaa-nida-fazli-ghazals," गिरजा में मंदिरों में अज़ानों में बट गया होते ही सुब्ह आदमी ख़ानों में बट गया इक इश्क़ नाम का जो परिंदा ख़ला में था उतरा जो शहर में तो दुकानों में बट गया पहले तलाशा खेत फिर दरिया की खोज की बाक़ी का वक़्त गेहूँ के दानों में बट गया जब तक था आसमान में सूरज सभी का था फिर यूँ हुआ वो चंद मकानों में बट गया हैं ताक में शिकारी निशाना हैं बस्तियाँ आलम तमाम चंद मचानों में बट गया ख़बरों ने की मुसव्वरी ख़बरें ग़ज़ल बनीं ज़िंदा लहू तो तीर कमानों में बट गया " dil-men-na-ho-jurat-to-mohabbat-nahiin-miltii-nida-fazli-ghazals," दिल में न हो जुरअत तो मोहब्बत नहीं मिलती ख़ैरात में इतनी बड़ी दौलत नहीं मिलती कुछ लोग यूँही शहर में हम से भी ख़फ़ा हैं हर एक से अपनी भी तबीअ'त नहीं मिलती देखा है जिसे मैं ने कोई और था शायद वो कौन था जिस से तिरी सूरत नहीं मिलती हँसते हुए चेहरों से है बाज़ार की ज़ीनत रोने की यहाँ वैसे भी फ़ुर्सत नहीं मिलती निकला करो ये शम्अ लिए घर से भी बाहर कमरे में सजाने को मुसीबत नहीं मिलती " aanii-jaanii-har-mohabbat-hai-chalo-yuun-hii-sahii-nida-fazli-ghazals," आनी जानी हर मोहब्बत है चलो यूँ ही सही जब तलक है ख़ूबसूरत है चलो यूँ ही सही हम कहाँ के देवता हैं बेवफ़ा वो हैं तो क्या घर में कोई घर की ज़ीनत है चलो यूँ ही सही वो नहीं तो कोई तो होगा कहीं उस की तरह जिस्म में जब तक हरारत है चलो यूँ ही सही मैले हो जाते हैं रिश्ते भी लिबासों की तरह दोस्ती हर दिन की मेहनत है चलो यूँ ही सही भूल थी अपनी फ़रिश्ता आदमी में ढूँडना आदमी में आदमिय्यत है चलो यूँ ही सही जैसी होनी चाहिए थी वैसी तो दुनिया नहीं दुनिया-दारी भी ज़रूरत है चलो यूँ ही सही " na-jaane-kaun-saa-manzar-nazar-men-rahtaa-hai-nida-fazli-ghazals," न जाने कौन सा मंज़र नज़र में रहता है तमाम उम्र मुसाफ़िर सफ़र में रहता है लड़ाई देखे हुए दुश्मनों से मुमकिन है मगर वो ख़ौफ़ जो दीवार-ओ-दर में रहता है ख़ुदा तो मालिक-ओ-मुख़्तार है कहीं भी रहे कभी बशर में कभी जानवर में रहता है अजीब दौर है ये तय-शुदा नहीं कुछ भी न चाँद शब में न सूरज सहर में रहता है जो मिलना चाहो तो मुझ से मिलो कहीं बाहर वो कोई और है जो मेरे घर में रहता है बदलना चाहो तो दुनिया बदल भी सकती है अजब फ़ुतूर सा हर वक़्त सर में रहता है " koii-hinduu-koii-muslim-koii-iisaaii-hai-nida-fazli-ghazals," कोई हिन्दू कोई मुस्लिम कोई ईसाई है सब ने इंसान न बनने की क़सम खाई है इतनी ख़ूँ-ख़ार न थीं पहले इबादत-गाहें ये अक़ीदे हैं कि इंसान की तन्हाई है तीन चौथाई से ज़ाइद हैं जो आबादी में उन के ही वास्ते हर भूक है महँगाई है देखे कब तलक बाक़ी रहे सज-धज उस की आज जिस चेहरा से तस्वीर उतरवाई है अब नज़र आता नहीं कुछ भी दुकानों के सिवा अब न बादल हैं न चिड़ियाँ हैं न पुर्वाई है " apnaa-gam-le-ke-kahiin-aur-na-jaayaa-jaae-nida-fazli-ghazals," अपना ग़म ले के कहीं और न जाया जाए घर में बिखरी हुई चीज़ों को सजाया जाए जिन चराग़ों को हवाओं का कोई ख़ौफ़ नहीं उन चराग़ों को हवाओं से बचाया जाए ख़ुद-कुशी करने की हिम्मत नहीं होती सब में और कुछ दिन अभी औरों को सताया जाए बाग़ में जाने के आदाब हुआ करते हैं किसी तितली को न फूलों से उड़ाया जाए क्या हुआ शहर को कुछ भी तो दिखाई दे कहीं यूँ किया जाए कभी ख़ुद को रुलाया जाए घर से मस्जिद है बहुत दूर चलो यूँ कर लें किसी रोते हुए बच्चे को हँसाया जाए " aaegaa-koii-chal-ke-khizaan-se-bahaar-men-nida-fazli-ghazals," आएगा कोई चल के ख़िज़ाँ से बहार में सदियाँ गुज़र गई हैं इसी इंतिज़ार में छिड़ते ही साज़-ए-बज़्म में कोई न था कहीं वो कौन था जो बोल रहा था सितार में ये और बात है कोई महके कोई चुभे गुलशन तो जितना गुल में है उतना है ख़ार में अपनी तरह से दुनिया बदलने के वास्ते मेरा ही एक घर है मिरे इख़्तियार में तिश्ना-लबी ने रेत को दरिया बना दिया पानी कहाँ था वर्ना किसी रेग-ज़ार में मसरूफ़ गोरकन को भी शायद पता नहीं वो ख़ुद खड़ा हुआ है क़ज़ा की क़तार में " ye-kaisii-kashmakash-hai-zindagii-men-nida-fazli-ghazals," ये कैसी कश्मकश है ज़िंदगी में किसी को ढूँडते हैं हम किसी में जो खो जाता है मिल कर ज़िंदगी में ग़ज़ल है नाम उस का शाएरी में निकल आते हैं आँसू हँसते हँसते ये किस ग़म की कसक है हर ख़ुशी में कहीं चेहरा कहीं आँखें कहीं लब हमेशा एक मिलता है कई में चमकती है अंधेरों में ख़मोशी सितारे टूटते हैं रात ही में सुलगती रेत में पानी कहाँ था कोई बादल छुपा था तिश्नगी में बहुत मुश्किल है बंजारा-मिज़ाजी सलीक़ा चाहिए आवारगी में " ek-hii-dhartii-ham-sab-kaa-ghar-jitnaa-teraa-utnaa-meraa-nida-fazli-ghazals," एक ही धरती हम सब का घर जितना तेरा उतना मेरा दुख सुख का ये जंतर-मंतर जितना तेरा उतना मेरा गेहूँ चावल बाँटने वाले झूटा तौलें तो क्या बोलें यूँ तो सब कुछ अंदर बाहर जितना तेरा उतना मेरा हर जीवन की वही विरासत आँसू सपना चाहत मेहनत साँसों का हर बोझ बराबर जितना तेरा उतना मेरा साँसें जितनी मौजें उतनी सब की अपनी अपनी गिनती सदियों का इतिहास समुंदर जितना तेरा उतना मेरा ख़ुशियों के बटवारे तक ही ऊँचे नीचे आगे पीछे दुनिया के मिट जाने का डर जितना तेरा उतना मेरा " din-saliiqe-se-ugaa-raat-thikaane-se-rahii-nida-fazli-ghazals," दिन सलीक़े से उगा रात ठिकाने से रही दोस्ती अपनी भी कुछ रोज़ ज़माने से रही चंद लम्हों को ही बनती हैं मुसव्विर आँखें ज़िंदगी रोज़ तो तस्वीर बनाने से रही इस अँधेरे में तो ठोकर ही उजाला देगी रात जंगल में कोई शम्अ जलाने से रही फ़ासला चाँद बना देता है हर पत्थर को दूर की रौशनी नज़दीक तो आने से रही शहर में सब को कहाँ मिलती है रोने की जगह अपनी इज़्ज़त भी यहाँ हँसने हँसाने से रही " dariyaa-ho-yaa-pahaad-ho-takraanaa-chaahiye-nida-fazli-ghazals," दरिया हो या पहाड़ हो टकराना चाहिए जब तक न साँस टूटे जिए जाना चाहिए यूँ तो क़दम क़दम पे है दीवार सामने कोई न हो तो ख़ुद से उलझ जाना चाहिए झुकती हुई नज़र हो कि सिमटा हुआ बदन हर रस-भरी घटा को बरस जाना चाहिए चौराहे बाग़ बिल्डिंगें सब शहर तो नहीं कुछ ऐसे वैसे लोगों से याराना चाहिए अपनी तलाश अपनी नज़र अपना तजरबा रस्ता हो चाहे साफ़ भटक जाना चाहिए चुप चुप मकान रास्ते गुम-सुम निढाल वक़्त इस शहर के लिए कोई दीवाना चाहिए बिजली का क़ुमक़ुमा न हो काला धुआँ तो हो ये भी अगर नहीं हो तो बुझ जाना चाहिए " gar-khaamushii-se-faaeda-ikhfaa-e-haal-hai-mirza-ghalib-ghazals," गर ख़ामुशी से फ़ाएदा इख़्फ़ा-ए-हाल है ख़ुश हूँ कि मेरी बात समझनी मुहाल है किस को सुनाऊँ हसरत-ए-इज़हार का गिला दिल फ़र्द-ए-जमा-ओ-ख़र्च ज़बाँ-हा-ए-लाल है किस पर्दे में है आइना-पर्दाज़ ऐ ख़ुदा रहमत कि उज़्र-ख़्वाह-ए-लब-ए-बे-सवाल है है है ख़ुदा-न-ख़्वास्ता वो और दुश्मनी ऐ शौक़-ए-मुन्फ़इल ये तुझे क्या ख़याल है मुश्कीं लिबास-ए-काबा अली के क़दम से जान नाफ़-ए-ज़मीन है न कि नाफ़-ए-ग़ज़ाल है वहशत पे मेरी अरसा-ए-आफ़ाक़ तंग था दरिया ज़मीन को अरक़-ए-इंफ़िआ'ल है हस्ती के मत फ़रेब में आ जाइयो 'असद' आलम तमाम हल्क़ा-ए-दाम-ए-ख़याल है पहलू-तही न कर ग़म-ओ-अंदोह से 'असद' दिल वक़्फ़-ए-दर्द कर कि फ़क़ीरों का माल है " shabnam-ba-gul-e-laala-na-khaalii-z-adaa-hai-mirza-ghalib-ghazals," शबनम ब-गुल-ए-लाला न ख़ाली ज़-अदा है दाग़-ए-दिल-ए-बेदर्द नज़र-गाह-ए-हया है दिल ख़ूँ-शुदा-ए-कशमकश-ए-हसरत-ए-दीदार आईना ब-दस्त-ए-बुत-ए-बद-मस्त हिना है शोले से न होती हवस-ए-शोला ने जो की जी किस क़दर अफ़्सुर्दगी-ए-दिल पे जला है तिमसाल में तेरी है वो शोख़ी कि ब-सद-ज़ौक़ आईना ब-अंदाज़-ए-गुल आग़ोश-कुशा है क़ुमरी कफ़-ए-ख़ाकीस्तर ओ बुलबुल क़फ़स-ए-रंग ऐ नाला निशान-ए-जिगर-ए-सोख़्ता क्या है ख़ू ने तिरी अफ़्सुर्दा किया वहशत-ए-दिल को माशूक़ी ओ बे-हौसलगी तरफ़ा बला है मजबूरी ओ दावा-ए-गिरफ़्तारी-ए-उल्फ़त दस्त-ए-तह-ए-संग-आमदा पैमान-ए-वफ़ा है मालूम हुआ हाल-ए-शहीदान-ए-गुज़श्ता तेग़-ए-सितम आईना-ए-तस्वीर-नुमा है ऐ परतव-ए-ख़ुर्शीद-ए-जहाँ-ताब इधर भी साए की तरह हम पे अजब वक़्त पड़ा है ना-कर्दा गुनाहों की भी हसरत की मिले दाद या रब अगर इन कर्दा गुनाहों की सज़ा है बेगानगी-ए-ख़ल्क़ से बे-दिल न हो 'ग़ालिब' कोई नहीं तेरा तो मिरी जान ख़ुदा है " jis-bazm-men-tuu-naaz-se-guftaar-men-aave-mirza-ghalib-ghazals," जिस बज़्म में तू नाज़ से गुफ़्तार में आवे जाँ कालबद-ए-सूरत-ए-दीवार में आवे साए की तरह साथ फिरें सर्व ओ सनोबर तू इस क़द-ए-दिलकश से जो गुलज़ार में आवे तब नाज़-ए-गिराँ माइगी-ए-अश्क बजा है जब लख़्त-ए-जिगर दीदा-ए-ख़ूँ-बार में आवे दे मुझ को शिकायत की इजाज़त कि सितमगर कुछ तुझ को मज़ा भी मिरे आज़ार में आवे उस चश्म-ए-फ़ुसूँ-गर का अगर पाए इशारा तूती की तरह आईना गुफ़्तार में आवे काँटों की ज़बाँ सूख गई प्यास से या रब इक आबला-पा वादी-ए-पुर-ख़ार में आवे मर जाऊँ न क्यूँ रश्क से जब वो तन-ए-नाज़ुक आग़ोश-ए-ख़म-ए-हल्क़ा-ए-ज़ुन्नार में आवे ग़ारत-गरी-ए-नामूश न हो गर हवस-ए-ज़र क्यूँ शाहिद-ए-गुल बाग़ से बाज़ार में आवे तब चाक-ए-गरेबाँ का मज़ा है दिल-ए-नालाँ जब इक नफ़स उलझा हुआ हर तार में आवे आतिश-कदा है सीना मिरा राज़-ए-निहाँ से ऐ वाए अगर मारिज़-ए-इज़हार में आवे गंजीना-ए-मअ'नी का तिलिस्म उस को समझिए जो लफ़्ज़ कि 'ग़ालिब' मिरे अशआर में आवे " kal-ke-liye-kar-aaj-na-khissat-sharaab-men-mirza-ghalib-ghazals," कल के लिए कर आज न ख़िस्सत शराब में ये सू-ए-ज़न है साक़ी-ए-कौसर के बाब में हैं आज क्यूँ ज़लील कि कल तक न थी पसंद गुस्ताख़ी-ए-फ़रिश्ता हमारी जनाब में जाँ क्यूँ निकलने लगती है तन से दम-ए-समा गर वो सदा समाई है चंग ओ रबाब में रौ में है रख़्श-ए-उम्र कहाँ देखिए थमे ने हाथ बाग पर है न पा है रिकाब में उतना ही मुझ को अपनी हक़ीक़त से बोद है जितना कि वहम-ए-ग़ैर से हूँ पेच-ओ-ताब में अस्ल-ए-शुहूद-ओ-शाहिद-ओ-मशहूद एक है हैराँ हूँ फिर मुशाहिदा है किस हिसाब में है मुश्तमिल नुमूद-ए-सुवर पर वजूद-ए-बहर याँ क्या धरा है क़तरा ओ मौज-ओ-हबाब में शर्म इक अदा-ए-नाज़ है अपने ही से सही हैं कितने बे-हिजाब कि हैं यूँ हिजाब में आराइश-ए-जमाल से फ़ारिग़ नहीं हुनूज़ पेश-ए-नज़र है आइना दाइम नक़ाब में है गै़ब-ए-ग़ैब जिस को समझते हैं हम शुहूद हैं ख़्वाब में हुनूज़ जो जागे हैं ख़्वाब में 'ग़ालिब' नदीम-ए-दोस्त से आती है बू-ए-दोस्त मश्ग़ूल-ए-हक़ हूँ बंदगी-ए-बू-तराब में " hairaan-huun-dil-ko-rouun-ki-piituun-jigar-ko-main-mirza-ghalib-ghazals," हैराँ हूँ दिल को रोऊँ कि पीटूँ जिगर को मैं मक़्दूर हो तो साथ रखूँ नौहागर को मैं छोड़ा न रश्क ने कि तिरे घर का नाम लूँ हर इक से पूछता हूँ कि जाऊँ किधर को मैं जाना पड़ा रक़ीब के दर पर हज़ार बार ऐ काश जानता न तिरे रह-गुज़र को मैं है क्या जो कस के बाँधिए मेरी बला डरे क्या जानता नहीं हूँ तुम्हारी कमर को मैं लो वो भी कहते हैं कि ये बे-नंग-ओ-नाम है ये जानता अगर तो लुटाता न घर को मैं चलता हूँ थोड़ी दूर हर इक तेज़-रौ के साथ पहचानता नहीं हूँ अभी राहबर को मैं ख़्वाहिश को अहमक़ों ने परस्तिश दिया क़रार क्या पूजता हूँ उस बुत-ए-बेदाद-गर को मैं फिर बे-ख़ुदी में भूल गया राह-ए-कू-ए-यार जाता वगर्ना एक दिन अपनी ख़बर को मैं अपने पे कर रहा हूँ क़यास अहल-ए-दहर का समझा हूँ दिल-पज़ीर मता-ए-हुनर को मैं 'ग़ालिब' ख़ुदा करे कि सवार-ए-समंद-नाज़ देखूँ अली बहादुर-ए-आली-गुहर को मैं " masjid-ke-zer-e-saaya-kharaabaat-chaahiye-mirza-ghalib-ghazals," मस्जिद के ज़ेर-ए-साया ख़राबात चाहिए भौं पास आँख क़िबला-ए-हाजात चाहिए आशिक़ हुए हैं आप भी एक और शख़्स पर आख़िर सितम की कुछ तो मुकाफ़ात चाहिए दे दाद ऐ फ़लक दिल-ए-हसरत-परस्त की हाँ कुछ न कुछ तलाफ़ी-ए-माफ़ात चाहिए सीखे हैं मह-रुख़ों के लिए हम मुसव्वरी तक़रीब कुछ तो बहर-ए-मुलाक़ात चाहिए मय से ग़रज़ नशात है किस रू-सियाह को इक-गूना बे-ख़ुदी मुझे दिन रात चाहिए नश्व-ओ-नुमा है अस्ल से 'ग़ालिब' फ़ुरूअ' को ख़ामोशी ही से निकले है जो बात चाहिए है रंग-ए-लाला-ओ-गुल-ओ-नसरीं जुदा जुदा हर रंग में बहार का इसबात चाहिए सर पा-ए-ख़ुम पे चाहिए हंगाम-ए-बे-ख़ुदी रू सू-ए-क़िबला वक़्त-ए-मुनाजात चाहिए या'नी ब-हस्ब-ए-गर्दिश-ए-पैमान-ए-सिफ़ात आरिफ़ हमेशा मस्त-ए-मय-ए-ज़ात चाहिए " jahaan-teraa-naqsh-e-qadam-dekhte-hain-mirza-ghalib-ghazals," जहाँ तेरा नक़्श-ए-क़दम देखते हैं ख़याबाँ ख़याबाँ इरम देखते हैं दिल-आशुफ़्तगाँ ख़ाल-ए-कुंज-ए-दहन के सुवैदा में सैर-ए-अदम देखते हैं तिरे सर्व-क़ामत से इक क़द्द-ए-आदम क़यामत के फ़ित्ने को कम देखते हैं तमाशा कि ऐ महव-ए-आईना-दारी तुझे किस तमन्ना से हम देखते हैं सुराग़-ए-तफ़-ए-नाला ले दाग़-ए-दिल से कि शब-रौ का नक़्श-ए-क़दम देखते हैं बना कर फ़क़ीरों का हम भेस 'ग़ालिब' तमाशा-ए-अहल-ए-करम देखते हैं किसू को ज़-ख़ुद रस्ता कम देखते हैं कि आहू को पाबंद-ए-रम देखते हैं ख़त-ए-लख़्त-ए-दिल यक-क़लम देखते हैं मिज़ा को जवाहर रक़म देखते हैं " donon-jahaan-de-ke-vo-samjhe-ye-khush-rahaa-mirza-ghalib-ghazals," दोनों जहान दे के वो समझे ये ख़ुश रहा याँ आ पड़ी ये शर्म कि तकरार क्या करें थक थक के हर मक़ाम पे दो चार रह गए तेरा पता न पाएँ तो नाचार क्या करें क्या शम्अ' के नहीं हैं हवा-ख़्वाह बज़्म में हो ग़म ही जाँ-गुदाज़ तो ग़म-ख़्वार क्या करें " dar-khur-e-qahr-o-gazab-jab-koii-ham-saa-na-huaa-mirza-ghalib-ghazals," दर-ख़ुर-ए-क़हर-ओ-ग़ज़ब जब कोई हम सा न हुआ फिर ग़लत क्या है कि हम सा कोई पैदा न हुआ बंदगी में भी वो आज़ादा ओ ख़ुद-बीं हैं कि हम उल्टे फिर आए दर-ए-का'बा अगर वा न हुआ सब को मक़्बूल है दा'वा तिरी यकताई का रू-ब-रू कोई बुत-ए-आइना-सीमा न हुआ कम नहीं नाज़िश-ए-हमनामी-ए-चश्म-ए-ख़ूबाँ तेरा बीमार बुरा क्या है गर अच्छा न हुआ सीने का दाग़ है वो नाला कि लब तक न गया ख़ाक का रिज़्क़ है वो क़तरा कि दरिया न हुआ नाम का मेरे है जो दुख कि किसी को न मिला काम में मेरे है जो फ़ित्ना कि बरपा न हुआ हर-बुन-ए-मू से दम-ए-ज़िक्र न टपके ख़ूँ नाब हमज़ा का क़िस्सा हुआ इश्क़ का चर्चा न हुआ क़तरा में दजला दिखाई न दे और जुज़्व में कुल खेल लड़कों का हुआ दीदा-ए-बीना न हुआ थी ख़बर गर्म कि 'ग़ालिब' के उड़ेंगे पुर्ज़े देखने हम भी गए थे प तमाशा न हुआ " phir-is-andaaz-se-bahaar-aaii-mirza-ghalib-ghazals," फिर इस अंदाज़ से बहार आई कि हुए मेहर-ओ-मह तमाशाई देखो ऐ साकिनान-ए-ख़ित्ता-ए-ख़ाक इस को कहते हैं आलम-आराई कि ज़मीं हो गई है सर-ता-सर रू-कश-ए-सतह-ए-चर्ख़-ए-मीनाई सब्ज़ा को जब कहीं जगह न मिली बन गया रू-ए-आब पर काई सब्ज़ा ओ गुल के देखने के लिए चश्म-ए-नर्गिस को दी है बीनाई है हवा में शराब की तासीर बादा-नोशी है बादा-पैमाई क्यूँ न दुनिया को हो ख़ुशी 'ग़ालिब' शाह-ए-दीं-दार ने शिफ़ा पाई " vaan-pahunch-kar-jo-gash-aataa-pae-ham-hai-ham-ko-mirza-ghalib-ghazals," वाँ पहुँच कर जो ग़श आता पए-हम है हम को सद-रह आहंग-ए-ज़मीं बोस-ए-क़दम है हम को दिल को मैं और मुझे दिल महव-ए-वफ़ा रखता है किस क़दर ज़ौक़-ए-गिरफ़्तारी-ए-हम है हम को ज़ोफ़ से नक़्श-ए-प-ए-मोर है तौक़-ए-गर्दन तिरे कूचे से कहाँ ताक़त-ए-रम है हम को जान कर कीजे तग़ाफ़ुल कि कुछ उम्मीद भी हो ये निगाह-ए-ग़लत-अंदाज़ तो सम है हम को रश्क-ए-हम-तरही ओ दर्द-ए-असर-ए-बांग-ए-हज़ीं नाला-ए-मुर्ग़-ए-सहर तेग़-ए-दो-दम है हम को सर उड़ाने के जो वादे को मुकर्रर चाहा हँस के बोले कि तिरे सर की क़सम है हम को दिल के ख़ूँ करने की क्या वजह व-लेकिन नाचार पास-ए-बे-रौनक़ी-ए-दीदा अहम है हम को तुम वो नाज़ुक कि ख़मोशी को फ़ुग़ाँ कहते हो हम वह आजिज़ कि तग़ाफ़ुल भी सितम है हम को लखनऊ आने का बाइस नहीं खुलता यानी हवस-ए-सैर-ओ-तमाशा सो वह कम है हम को मक़्ता-ए-सिलसिला-ए-शौक़ नहीं है ये शहर अज़्म-ए-सैर-ए-नजफ़-ओ-तौफ़-ए-हरम है हम को लिए जाती है कहीं एक तवक़्क़ो 'ग़ालिब' जादा-ए-रह कशिश-ए-काफ़-ए-करम है हम को अब्र रोता है कि बज़्म-ए-तरब आमादा करो बर्क़ हँसती है कि फ़ुर्सत कोई दम है हम को " rahm-kar-zaalim-ki-kyaa-buud-e-charaag-e-kushta-hai-mirza-ghalib-ghazals," रहम कर ज़ालिम कि क्या बूद-ए-चराग़-ए-कुश्ता है नब्ज़-ए-बीमार-ए-वफ़ा दूद-ए-चराग़-ए-कुश्ता है दिल-लगी की आरज़ू बेचैन रखती है हमें वर्ना याँ बे-रौनक़ी सूद-ए-चराग़-ए-कुश्ता है नश्शा-ए-मय बे-चमन दूद-ए-चराग़-ए-कुश्ता है जाम दाग़-ए-अंदूद-ए-चराग़-ए-कुश्ता है दाग़-ए-रब्त-ए-हम हैं अहल-ए-बाग़ गर गुल हो शहीद लाला चश्म-ए-हसरत-आलूद-ए-चराग़-ए-कुश्ता है शोर है किस बज़्म की अर्ज़-ए-जराहत-ख़ाना का सुब्ह यक-बज़्म-ए-नमक सूद-ए-चराग़-ए-कुश्ता है " gaii-vo-baat-ki-ho-guftuguu-to-kyuunkar-ho-mirza-ghalib-ghazals," गई वो बात कि हो गुफ़्तुगू तो क्यूँकर हो कहे से कुछ न हुआ फिर कहो तो क्यूँकर हो हमारे ज़ेहन में उस फ़िक्र का है नाम विसाल कि गर न हो तो कहाँ जाएँ हो तो क्यूँकर हो अदब है और यही कश्मकश तो क्या कीजे हया है और यही गू-मगू तो क्यूँकर हो तुम्हीं कहो कि गुज़ारा सनम-परस्तों का बुतों की हो अगर ऐसी ही ख़ू तो क्यूँकर हो उलझते हो तुम अगर देखते हो आईना जो तुम से शहर में हों एक दो तो क्यूँकर हो जिसे नसीब हो रोज़-ए-सियाह मेरा सा वो शख़्स दिन न कहे रात को तो क्यूँकर हो हमें फिर उन से उम्मीद और उन्हें हमारी क़द्र हमारी बात ही पूछें न वो तो क्यूँकर हो ग़लत न था हमें ख़त पर गुमाँ तसल्ली का न माने दीदा-ए-दीदार जो तो क्यूँकर हो बताओ उस मिज़ा को देख कर कि मुझ को क़रार वो नीश हो रग-ए-जाँ में फ़रो तो क्यूँकर हो मुझे जुनूँ नहीं 'ग़ालिब' वले ब-क़ौल-ए-हुज़ूर फ़िराक़-ए-यार में तस्कीन हो तो क्यूँकर हो " har-qadam-duurii-e-manzil-hai-numaayaan-mujh-se-mirza-ghalib-ghazals," हर क़दम दूरी-ए-मंज़िल है नुमायाँ मुझ से मेरी रफ़्तार से भागे है बयाबाँ मुझ से दर्स-ए-उनवान-ए-तमाशा ब-तग़ाफ़ुल ख़ुश-तर है निगह रिश्ता-ए-शीराज़ा-ए-मिज़्गाँ मुझ से वहशत-ए-आतिश-ए-दिल से शब-ए-तन्हाई में सूरत-ए-दूद रहा साया गुरेज़ाँ मुझ से ग़म-ए-उश्शाक़ न हो सादगी-आमोज़-ए-बुताँ किस क़दर ख़ाना-ए-आईना है वीराँ मुझ से असर-ए-आबला से जादा-ए-सहरा-ए-जुनूँ सूरत-ए-रिश्ता-ए-गौहर है चराग़ाँ मुझ से बे-ख़ुदी बिस्तर-ए-तम्हीद-ए-फ़राग़त हो जो पुर है साए की तरह मेरा शबिस्ताँ मुझ से शौक़-ए-दीदार में गर तू मुझे गर्दन मारे हो निगह मिस्ल-ए-गुल-ए-शमा परेशाँ मुझ से बेकसी-हा-ए-शब-ए-हिज्र की वहशत है है साया ख़ुर्शीद-ए-क़यामत में है पिन्हाँ मुझ से गर्दिश-ए-साग़र-ए-सद-जल्वा-ए-रंगीं तुझ से आइना-दारी-ए-यक-दीदा-ए-हैराँ मुझ से निगह-ए-गर्म से एक आग टपकती है 'असद' है चराग़ाँ ख़स-ओ-ख़ाशाक-ए-गुलिस्ताँ मुझ से बस्तन-ए-अहद-ए-मोहब्बत हमा नादानी था चश्म-ए-नकुशूदा रहा उक़्दा-ए-पैमाँ मुझ से आतिश-अफ़रोज़ी-ए-यक-शोला-ए-ईमा तुझ से चश्मक-आराई-ए-सद-शहर चराग़ाँ मुझ से " dil-e-naadaan-tujhe-huaa-kyaa-hai-mirza-ghalib-ghazals," दिल-ए-नादाँ तुझे हुआ क्या है आख़िर इस दर्द की दवा क्या है हम हैं मुश्ताक़ और वो बे-ज़ार या इलाही ये माजरा क्या है मैं भी मुँह में ज़बान रखता हूँ काश पूछो कि मुद्दआ' क्या है जब कि तुझ बिन नहीं कोई मौजूद फिर ये हंगामा ऐ ख़ुदा क्या है ये परी-चेहरा लोग कैसे हैं ग़म्ज़ा ओ इश्वा ओ अदा क्या है शिकन-ए-ज़ुल्फ़-ए-अंबरीं क्यूँ है निगह-ए-चश्म-ए-सुरमा सा क्या है सब्ज़ा ओ गुल कहाँ से आए हैं अब्र क्या चीज़ है हवा क्या है हम को उन से वफ़ा की है उम्मीद जो नहीं जानते वफ़ा क्या है हाँ भला कर तिरा भला होगा और दरवेश की सदा क्या है जान तुम पर निसार करता हूँ मैं नहीं जानता दुआ क्या है मैं ने माना कि कुछ नहीं 'ग़ालिब' मुफ़्त हाथ आए तो बुरा क्या है " raundii-huii-hai-kaukaba-e-shahryaar-kii-mirza-ghalib-ghazals," रौंदी हुई है कौकबा-ए-शहरयार की इतराए क्यूँ न ख़ाक सर-ए-रहगुज़ार की जब उस के देखने के लिए आएँ बादशाह लोगों में क्यूँ नुमूद न हो लाला-ज़ार की भूके नहीं हैं सैर-ए-गुलिस्ताँ के हम वले क्यूँकर न खाइए कि हवा है बहार की " hariif-e-matlab-e-mushkil-nahiin-fusuun-e-niyaaz-mirza-ghalib-ghazals," हरीफ़-ए-मतलब-ए-मुश्किल नहीं फ़ुसून-ए-नियाज़ दुआ क़ुबूल हो या रब कि उम्र-ए-ख़िज़्र दराज़ न हो ब-हर्ज़ा बयाबाँ-नवर्द-ए-वहम-ए-वजूद हनूज़ तेरे तसव्वुर में है नशेब-ओ-फ़राज़ विसाल जल्वा तमाशा है पर दिमाग़ कहाँ कि दीजे आइना-ए-इन्तिज़ार को पर्दाज़ हर एक ज़र्रा-ए-आशिक़ है आफ़ताब-परस्त गई न ख़ाक हुए पर हवा-ए-जल्वा-ए-नाज़ न पूछ वुसअत-ए-मय-ख़ाना-ए-जुनूँ 'ग़ालिब' जहाँ ये कासा-ए-गर्दूं है एक ख़ाक-अंदाज़ फ़रेब-ए-सनअत-ए-ईजाद का तमाशा देख निगाह अक्स-फ़रोश ओ ख़याल आइना-साज़ ज़ि-बस-कि जल्वा-ए-सय्याद हैरत-आरा है उड़ी है सफ़्हा-ए-ख़ातिर से सूरत-ए-परवाज़ हुजूम-ए-फ़िक्र से दिल मिस्ल-ए-मौज लरज़े है कि शीशा नाज़ुक ओ सहबा-ए-आबगीन-गुदाज़ 'असद' से तर्क-ए-वफ़ा का गुमाँ वो मा'नी है कि खींचिए पर-ए-ताइर से सूरत-ए-परवाज़ हनूज़ ऐ असर-ए-दीद नंग-ए-रुस्वाई निगाह फ़ित्ना-ख़िराम ओ दर-ए-दो-आलम बाज़ " ghar-hamaaraa-jo-na-rote-bhii-to-viiraan-hotaa-mirza-ghalib-ghazals," घर हमारा जो न रोते भी तो वीराँ होता बहर गर बहर न होता तो बयाबाँ होता तंगी-ए-दिल का गिला क्या ये वो काफ़िर-दिल है कि अगर तंग न होता तो परेशाँ होता बाद यक-उम्र-ए-वरा' बार तो देता बारे काश रिज़वाँ ही दर-ए-यार का दरबाँ होता " zamaana-sakht-kam-aazaar-hai-ba-jaan-e-asad-mirza-ghalib-ghazals," ज़माना सख़्त कम-आज़ार है ब-जान-ए-असद वगर्ना हम तो तवक़्क़ो ज़ियादा रखते हैं तन-ए-ब-बंद-ए-हवस दर नदादा रखते हैं दिल-ए-ज़-कार-ए-जहाँ ऊफ़्तादा रखते हैं तमीज़-ए-ज़िश्ती-ओ-नेकी में लाख बातें हैं ब-अक्स-ए-आइना यक-फ़र्द-ए-सादा रखते हैं ब-रंग-ए-साया हमें बंदगी में है तस्लीम कि दाग़-ए-दिल ब-जाबीन-ए-कुशादा रखते हैं ब-ज़ाहिदाँ रग-ए-गर्दन है रिश्ता-ए-ज़ुन्नार सर-ए-ब-पा-ए-बुत-ए-ना-निहादा रखते हैं मुआफ़-ए-बे-हूदा-गोई हैं नासेहान-ए-अज़ीज़ दिल-ए-ब-दस्त-ए-निगारे नदादा रखते हैं ब-रंग-ए-सब्ज़ा अज़ीज़ान-ए-बद-ज़बान यक-दस्त हज़ार तेग़-ए-ब-ज़हर-आब-दादा रखते हैं अदब ने सौंपी हमें सुर्मा-साइ-ए-हैरत ज़-बन-ए-बस्ता-ओ-चश्म-ए-कुशादा रखते हैं " hai-vasl-hijr-aalam-e-tamkiin-o-zabt-men-mirza-ghalib-ghazals," है वस्ल हिज्र आलम-ए-तमकीन-ओ-ज़ब्त में माशूक़-ए-शोख़ ओ आशिक़-ए-दीवाना चाहिए उस लब से मिल ही जाएगा बोसा कभी तो हाँ शौक़-ए-फ़ुज़ूल ओ जुरअत-ए-रिंदाना चाहिए आशिक़ नाक़ाब-ए-जल्वा-ए-जानाना चाहिए फ़ानूस-ए-शम्अ' को पर-ए-परवाना चाहिए " us-bazm-men-mujhe-nahiin-bantii-hayaa-kiye-mirza-ghalib-ghazals," उस बज़्म में मुझे नहीं बनती हया किए बैठा रहा अगरचे इशारे हुआ किए दिल ही तो है सियासत-ए-दरबाँ से डर गया मैं और जाऊँ दर से तिरे बिन सदा किए रखता फिरूँ हूँ ख़िर्क़ा ओ सज्जादा रहन-ए-मय मुद्दत हुई है दावत आब-ओ-हवा किए बे-सर्फ़ा ही गुज़रती है हो गरचे उम्र-ए-ख़िज़्र हज़रत भी कल कहेंगे कि हम क्या किया किए मक़्दूर हो तो ख़ाक से पूछूँ कि ऐ लईम तू ने वो गंज-हा-ए-गराँ-माया क्या किए किस रोज़ तोहमतें न तराशा किए अदू किस दिन हमारे सर पे न आरे चला किए सोहबत में ग़ैर की न पड़ी हो कहीं ये ख़ू देने लगा है बोसा बग़ैर इल्तिजा किए ज़िद की है और बात मगर ख़ू बुरी नहीं भूले से उस ने सैकड़ों वा'दे वफ़ा किए 'ग़ालिब' तुम्हीं कहो कि मिलेगा जवाब क्या माना कि तुम कहा किए और वो सुना किए " chaahiye-achchhon-ko-jitnaa-chaahiye-mirza-ghalib-ghazals," चाहिए अच्छों को जितना चाहिए ये अगर चाहें तो फिर क्या चाहिए सोहबत-ए-रिंदाँ से वाजिब है हज़र जा-ए-मय अपने को खींचा चाहिए चाहने को तेरे क्या समझा था दिल बारे अब इस से भी समझा चाहिए चाक मत कर जैब बे-अय्याम-ए-गुल कुछ उधर का भी इशारा चाहिए दोस्ती का पर्दा है बेगानगी मुँह छुपाना हम से छोड़ा चाहिए दुश्मनी ने मेरी खोया ग़ैर को किस क़दर दुश्मन है देखा चाहिए अपनी रुस्वाई में क्या चलती है सई यार ही हंगामा-आरा चाहिए मुनहसिर मरने पे हो जिस की उमीद ना-उमीदी उस की देखा चाहिए ग़ाफ़िल इन मह-तलअ'तों के वास्ते चाहने वाला भी अच्छा चाहिए चाहते हैं ख़ूब-रूयों को 'असद' आप की सूरत तो देखा चाहिए " hai-bazm-e-butaan-men-sukhan-aazurda-labon-se-mirza-ghalib-ghazals," है बज़्म-ए-बुताँ में सुख़न आज़ुर्दा-लबों से तंग आए हैं हम ऐसे ख़ुशामद-तलबों से है दौर-ए-क़दह वज्ह-ए-परेशानी-ए-सहबा यक-बार लगा दो ख़ुम-ए-मय मेरे लबों से रिंदाना-ए-दर-ए-मय-कदा गुस्ताख़ हैं ज़ाहिद ज़िन्हार न होना तरफ़ इन बे-अदबों से बेदाद-ए-वफ़ा देख कि जाती रही आख़िर हर-चंद मिरी जान को था रब्त लबों से क्या पूछे है बर-ख़ुद ग़लती-हा-ए-अज़ीज़ाँ ख़्वारी को भी इक आर है अआली-नसबों से गो तुम को रज़ा-जूई-ए-अग़्यार है लेकिन जाती है मुलाक़ात कब ऐसे सबबों से मत पूछ 'असद' वअ'दा-ए-कम-फ़ुर्सती-ए-ज़ीस्त दो दिन भी जो काटे तू क़यामत तअबों से " na-gul-e-nagma-huun-na-parda-e-saaz-mirza-ghalib-ghazals," न गुल-ए-नग़्मा हूँ न पर्दा-ए-साज़ मैं हूँ अपनी शिकस्त की आवाज़ तू और आराइश-ए-ख़म-ए-काकुल मैं और अंदेशा-हा-ए-दूर-दराज़ लाफ़-ए-तमकीं फ़रेब-ए-सादा-दिली हम हैं और राज़-हा-ए-सीना-गुदाज़ हूँ गिरफ़्तार-ए-उल्फ़त-ए-सय्याद वर्ना बाक़ी है ताक़त-ए-परवाज़ वो भी दिन हो कि उस सितमगर से नाज़ खींचूँ बजाए हसरत-ए-नाज़ नहीं दिल में मिरे वो क़तरा-ए-ख़ूँ जिस से मिज़्गाँ हुई न हो गुल-बाज़ ऐ तिरा ग़म्ज़ा यक-क़लम-अंगेज़ ऐ तिरा ज़ुल्म सर-ब-सर अंदाज़ तू हुआ जल्वा-गर मुबारक हो रेज़िश-ए-सज्दा-ए-जबीन-ए-नियाज़ मुझ को पूछा तो कुछ ग़ज़ब न हुआ मैं ग़रीब और तू ग़रीब-नवाज़ 'असद'-उल्लाह ख़ाँ तमाम हुआ ऐ दरेग़ा वो रिंद-ए-शाहिद-बाज़ " saraapaa-rehn-e-ishq-o-naa-guziir-e-ulfat-e-hastii-mirza-ghalib-ghazals," सरापा रेहन-इश्क़-ओ-ना-गुज़ीर-उल्फ़त-हस्ती इबादत बर्क़ की करता हूँ और अफ़्सोस हासिल का ब-क़द्र-ए-ज़र्फ़ है साक़ी ख़ुमार-ए-तिश्ना-कामी भी जो तू दरिया-ए-मै है तो मैं ख़म्याज़ा हूँ साहिल का ज़ि-बस खूँ-गश्त-ए-रश्क-ए-वफ़ा था वहम बिस्मिल का चुराया ज़ख़्म-हा-ए-दिल ने पानी तेग़-ए-क़ातिल का निगाह-ए-चश्म-ए-हासिद वाम ले ऐ ज़ौक़-ए-ख़ुद-बीनी तमाशाई हूँ वहदत-ख़ाना-ए-आईना-ए-दिल का शरर-फ़ुर्सत निगह सामान-ए-यक-आलम चराग़ाँ है ब-क़द्र-ए-रंग याँ गर्दिश में है पैमाना महफ़िल का सरासर ताख़तन को शश-जिहत यक-अर्सा जौलाँ था हुआ वामांदगी से रह-रवाँ की फ़र्क़ मंज़िल का मुझे राह-ए-सुख़न में ख़ौफ़-ए-गुम-राही नहीं ग़ालिब असा-ए-ख़िज़्र-ए-सहरा-ए-सुख़न है ख़ामा बे-दिल का " koii-din-gar-zindagaanii-aur-hai-mirza-ghalib-ghazals," कोई दिन गर ज़िंदगानी और है अपने जी में हम ने ठानी और है आतिश-ए-दोज़ख़ में ये गर्मी कहाँ सोज़-ए-ग़म-हा-ए-निहानी और है बार-हा देखी हैं उन की रंजिशें पर कुछ अब के सरगिरानी और है दे के ख़त मुँह देखता है नामा-बर कुछ तो पैग़ाम-ए-ज़बानी और है क़ाता-ए-एमार है अक्सर नुजूम वो बला-ए-आसमानी और है हो चुकीं 'ग़ालिब' बलाएँ सब तमाम एक मर्ग-ए-ना-गहानी और है " sataaish-gar-hai-zaahid-is-qadar-jis-baag-e-rizvaan-kaa-mirza-ghalib-ghazals," सताइश-गर है ज़ाहिद इस क़दर जिस बाग़-ए-रिज़वाँ का वो इक गुलदस्ता है हम बे-ख़ुदों के ताक़-ए-निस्याँ का बयाँ क्या कीजिए बेदाद-ए-काविश-हा-ए-मिज़गाँ का कि हर यक क़तरा-ए-ख़ूँ दाना है तस्बीह-ए-मरजाँ का न आई सतवत-ए-क़ातिल भी माने मेरे नालों को लिया दाँतों में जो तिनका हुआ रेशा नियस्ताँ का दिखाऊँगा तमाशा दी अगर फ़ुर्सत ज़माने ने मिरा हर दाग़-ए-दिल इक तुख़्म है सर्व-ए-चराग़ाँ का किया आईना-ख़ाने का वो नक़्शा तेरे जल्वे ने करे जो परतव-ए-ख़ुर्शीद आलम शबनमिस्ताँ का मिरी ता'मीर में मुज़्मर है इक सूरत ख़राबी की हयूला बर्क़-ए-ख़िर्मन का है ख़ून-ए-गर्म दहक़ाँ का उगा है घर में हर सू सब्ज़ा वीरानी तमाशा कर मदार अब खोदने पर घास के है मेरे दरबाँ का ख़मोशी में निहाँ ख़ूँ-गश्ता लाखों आरज़ूएँ हैं चराग़-ए-मुर्दा हूँ मैं बे-ज़बाँ गोर-ए-ग़रीबाँ का हनूज़ इक परतव-ए-नक़्श-ए-ख़याल-ए-यार बाक़ी है दिल-ए-अफ़सुर्दा गोया हुजरा है यूसुफ़ के ज़िंदाँ का बग़ल में ग़ैर की आज आप सोते हैं कहीं वर्ना सबब क्या ख़्वाब में आ कर तबस्सुम-हा-ए-पिन्हाँ का नहीं मा'लूम किस किस का लहू पानी हुआ होगा क़यामत है सरिश्क-आलूदा होना तेरी मिज़्गाँ का नज़र में है हमारी जादा-ए-राह-ए-फ़ना 'ग़ालिब' कि ये शीराज़ा है आलम के अज्ज़ा-ए-परेशाँ का " rashk-kahtaa-hai-ki-us-kaa-gair-se-ikhlaas-haif-mirza-ghalib-ghazals," रश्क कहता है कि उस का ग़ैर से इख़्लास हैफ़ अक़्ल कहती है कि वो बे-मेहर किस का आश्ना ज़र्रा ज़र्रा साग़र-ए-मै-ख़ाना-ए-नै-रंग है गर्दिश-ए-मजनूँ ब-चश्मक-हा-ए-लैला आश्ना शौक़ है सामाँ-तराज़-ए-नाज़िश-ए-अरबाब-ए-अज्ज़ ज़र्रा सहरा-दस्त-गाह ओ क़तरा दरिया-आश्ना मैं और एक आफ़त का टुकड़ा वो दिल-ए-वहशी कि है आफ़ियत का दुश्मन और आवारगी का आश्ना शिकवा-संज-ए-रश्क-ए-हम-दीगर न रहना चाहिए मेरा ज़ानू मोनिस और आईना तेरा आश्ना कोहकन नक़्क़ाश-ए-यक-तिम्साल-ए-शीरीं था 'असद' संग से सर मार कर होवे न पैदा आश्ना ख़ुद-परस्ती से रहे बाहम-दिगर ना-आश्ना बेकसी मेरी शरीक आईना तेरा आश्ना आतिश-ए-मू-ए-दिमाग़-ए-शौक़ है तेरा तपाक वर्ना हम किस के हैं ऐ दाग़-ए-तमन्ना आश्ना जौहर-ए-आईना जुज़ रम्ज़-ए-सर-ए-मिज़गाँ नहीं आश्ना की हम-दिगर समझे है ईमा आश्ना रब्त-ए-यक-शीराज़ा-ए-वहशत हैं अजज़ा-ए-बहार सब्ज़ा बेगाना सबा आवारा गुल ना-आश्ना बे-दिमाग़ी शिकवा-संज-ए-रश्क-ए-हम-दीगर नहीं यार तेरा जाम-ए-मय ख़म्याज़ा मेरा आश्ना " rone-se-aur-ishq-men-bebaak-ho-gae-mirza-ghalib-ghazals," रोने से और इश्क़ में बेबाक हो गए धोए गए हम इतने कि बस पाक हो गए सर्फ़-ए-बहा-ए-मय हुए आलात-ए-मय-कशी थे ये ही दो हिसाब सो यूँ पाक हो गए रुस्वा-ए-दहर गो हुए आवारगी से तुम बारे तबीअतों के तो चालाक हो गए कहता है कौन नाला-ए-बुलबुल को बे-असर पर्दे में गुल के लाख जिगर चाक हो गए पूछे है क्या वजूद ओ अदम अहल-ए-शौक़ का आप अपनी आग के ख़स-ओ-ख़ाशाक हो गए करने गए थे उस से तग़ाफ़ुल का हम गिला की एक ही निगाह कि बस ख़ाक हो गए इस रंग से उठाई कल उस ने 'असद' की ना'श दुश्मन भी जिस को देख के ग़मनाक हो गए " saadgii-par-us-kii-mar-jaane-kii-hasrat-dil-men-hai-mirza-ghalib-ghazals," सादगी पर उस की मर जाने की हसरत दिल में है बस नहीं चलता कि फिर ख़ंजर कफ़-ए-क़ातिल में है देखना तक़रीर की लज़्ज़त कि जो उस ने कहा मैं ने ये जाना कि गोया ये भी मेरे दिल में है गरचे है किस किस बुराई से वले बाईं-हमा ज़िक्र मेरा मुझ से बेहतर है कि उस महफ़िल में है बस हुजूम-ए-ना-उमीदी ख़ाक में मिल जाएगी ये जो इक लज़्ज़त हमारी सई-ए-बे-हासिल में है रंज-ए-रह क्यूँ खींचिए वामांदगी को इश्क़ है उठ नहीं सकता हमारा जो क़दम मंज़िल में है जल्वा ज़ार-ए-आतिश-ए-दोज़ख़ हमारा दिल सही फ़ित्ना-ए-शोर-ए-क़यामत किस के आब-ओ-गिल में है है दिल-ए-शोरीदा-ए-'ग़ालिब' तिलिस्म-ए-पेच-ओ-ताब रहम कर अपनी तमन्ना पर कि किस मुश्किल में है " dhamkii-men-mar-gayaa-jo-na-baab-e-nabard-thaa-mirza-ghalib-ghazals," धमकी में मर गया जो न बाब-ए-नबर्द था इश्क़-ए-नबर्द-पेशा तलबगार-ए-मर्द था था ज़िंदगी में मर्ग का खटका लगा हुआ उड़ने से पेश-तर भी मिरा रंग ज़र्द था तालीफ़ नुस्ख़ा-हा-ए-वफ़ा कर रहा था मैं मजमुआ-ए-ख़याल अभी फ़र्द फ़र्द था दिल ता जिगर कि साहिल-ए-दरिया-ए-ख़ूँ है अब इस रहगुज़र में जल्वा-ए-गुल आगे गर्द था जाती है कोई कश्मकश अंदोह-ए-इश्क़ की दिल भी अगर गया तो वही दिल का दर्द था अहबाब चारासाज़ी-ए-वहशत न कर सके ज़िंदाँ में भी ख़याल बयाबाँ-नवर्द था ये लाश-ए-बे-कफ़न 'असद'-ए-ख़स्ता-जाँ की है हक़ मग़्फ़िरत करे अजब आज़ाद मर्द था " gam-khaane-men-buudaa-dil-e-naakaam-bahut-hai-mirza-ghalib-ghazals," ग़म खाने में बूदा दिल-ए-नाकाम बहुत है ये रंज कि कम है मय-ए-गुलफ़ाम बहुत है कहते हुए साक़ी से हया आती है वर्ना है यूँ कि मुझे दुर्द-ए-तह-ए-जाम बहुत है ने तीर कमाँ में है न सय्याद कमीं में गोशे में क़फ़स के मुझे आराम बहुत है क्या ज़ोहद को मानूँ कि न हो गरचे रियाई पादाश-ए-अमल की तमा-ए-ख़ाम बहुत है हैं अहल-ए-ख़िरद किस रविश-ए-ख़ास पे नाज़ाँ पाबस्तगी-ए-रस्म-ओ-राह-ए-आम बहुत है ज़मज़म ही पे छोड़ो मुझे क्या तौफ़-ए-हरम से आलूदा-ब-मय जामा-ए-एहराम बहुत है है क़हर गर अब भी न बने बात कि उन को इंकार नहीं और मुझे इबराम बहुत है ख़ूँ हो के जिगर आँख से टपका नहीं ऐ मर्ग रहने दे मुझे याँ कि अभी काम बहुत है होगा कोई ऐसा भी कि 'ग़ालिब' को न जाने शाइ'र तो वो अच्छा है प बदनाम बहुत है " haasil-se-haath-dho-baith-ai-aarzuu-khiraamii-mirza-ghalib-ghazals," हासिल से हाथ धो बैठ ऐ आरज़ू-ख़िरामी दिल जोश-ए-गिर्या में है डूबी हुई असामी उस शम्अ' की तरह से जिस को कोई बुझा दे मैं भी जले-हुओं में हूँ दाग़-ए-ना-तमामी करते हो शिकवा किस का तुम और बेवफ़ाई सर पीटते हैं अपना हम और नेक-नामी सद-रंग-ए-गुल कतरना दर-पर्दा क़त्ल करना तेग़-ए-अदा नहीं है पाबंद-ए-बे-नियामी तर्फ़-ए-सुख़न नहीं है मुझ से ख़ुदा-न-कर्दा है नामा-बर को उस से दावा-ए-हम-कलामी ताक़त फ़साना-ए-बाद अंदेशा शोला-ईजाद ऐ ग़म हुनूज़ आतिश ऐ दिल हुनूज़ ख़ामी हर चंद उम्र गुज़री आज़ुर्दगी में लेकिन है शरह-ए-शौक़ को भी जूँ शिकवा ना-तमामी है यास में 'असद' को साक़ी से भी फ़राग़त दरिया से ख़ुश्क गुज़रे मस्तों की तिश्ना-कामी " maze-jahaan-ke-apnii-nazar-men-khaak-nahiin-mirza-ghalib-ghazals," मज़े जहान के अपनी नज़र में ख़ाक नहीं सिवाए ख़ून-ए-जिगर सो जिगर में ख़ाक नहीं मगर ग़ुबार हुए पर हवा उड़ा ले जाए वगरना ताब ओ तवाँ बाल-ओ-पर में ख़ाक नहीं ये किस बहिश्त-शमाइल की आमद आमद है कि ग़ैर-ए-जल्वा-ए-गुल रहगुज़र में ख़ाक नहीं भला उसे न सही कुछ मुझी को रहम आता असर मिरे नफ़स-ए-बे-असर में ख़ाक नहीं ख़याल-ए-जल्वा-ए-गुल से ख़राब हैं मय-कश शराब-ख़ाने के दीवार-ओ-दर में ख़ाक नहीं हुआ हूँ इश्क़ की ग़ारत-गरी से शर्मिंदा सिवाए हसरत-ए-तामीर घर में ख़ाक नहीं हमारे शेर हैं अब सिर्फ़ दिल-लगी के 'असद' खुला कि फ़ाएदा अर्ज़-ए-हुनर में ख़ाक नहीं " miltii-hai-khuu-e-yaar-se-naar-iltihaab-men-mirza-ghalib-ghazals," मिलती है ख़ू-ए-यार से नार इल्तिहाब में काफ़िर हूँ गर न मिलती हो राहत अज़ाब में कब से हूँ क्या बताऊँ जहान-ए-ख़राब में शब-हा-ए-हिज्र को भी रखूँ गर हिसाब में ता फिर न इंतिज़ार में नींद आए उम्र भर आने का अहद कर गए आए जो ख़्वाब में क़ासिद के आते आते ख़त इक और लिख रखूँ मैं जानता हूँ जो वो लिखेंगे जवाब में मुझ तक कब उन की बज़्म में आता था दौर-ए-जाम साक़ी ने कुछ मिला न दिया हो शराब में जो मुनकिर-ए-वफ़ा हो फ़रेब उस पे क्या चले क्यूँ बद-गुमाँ हूँ दोस्त से दुश्मन के बाब में मैं मुज़्तरिब हूँ वस्ल में ख़ौफ़-ए-रक़ीब से डाला है तुम को वहम ने किस पेच-ओ-ताब में मैं और हज़्ज़-ए-वस्ल ख़ुदा-साज़ बात है जाँ नज़्र देनी भूल गया इज़्तिराब में है तेवरी चढ़ी हुई अंदर नक़ाब के है इक शिकन पड़ी हुई तरफ़-ए-नक़ाब में लाखों लगाओ एक चुराना निगाह का लाखों बनाव एक बिगड़ना इ'ताब में वो नाला दिल में ख़स के बराबर जगह न पाए जिस नाला से शिगाफ़ पड़े आफ़्ताब में वो सेहर मुद्दआ-तलबी में न काम आए जिस सेहर से सफ़ीना रवाँ हो सराब में 'ग़ालिब' छुटी शराब पर अब भी कभी कभी पीता हूँ रोज़-ए-अब्र ओ शब-ए-माहताब में " ishq-taasiir-se-naumiid-nahiin-mirza-ghalib-ghazals," इश्क़ तासीर से नौमेद नहीं जाँ-सिपारी शजर-ए-बेद नहीं सल्तनत दस्त-ब-दस्त आई है जाम-ए-मय ख़ातम-ए-जमशेद नहीं है तजल्ली तिरी सामान-ए-वजूद ज़र्रा बे-परतव-ए-ख़ुर्शेद नहीं राज़-ए-माशूक़ न रुस्वा हो जाए वर्ना मर जाने में कुछ भेद नहीं गर्दिश-ए-रंग-ए-तरब से डर है ग़म-ए-महरूमी-ए-जावेद नहीं कहते हैं जीते हैं उम्मेद पे लोग हम को जीने की भी उम्मेद नहीं " manzuur-thii-ye-shakl-tajallii-ko-nuur-kii-mirza-ghalib-ghazals," मंज़ूर थी ये शक्ल तजल्ली को नूर की क़िस्मत खुली तिरे क़द-ओ-रुख़ से ज़ुहूर की इक ख़ूँ-चकाँ कफ़न में करोड़ों बनाओ हैं पड़ती है आँख तेरे शहीदों पे हूर की वाइ'ज़ न तुम पियो न किसी को पिला सको क्या बात है तुम्हारी शराब-ए-तहूर की लड़ता है मुझ से हश्र में क़ातिल कि क्यूँ उठा गोया अभी सुनी नहीं आवाज़ सूर की आमद बहार की है जो बुलबुल है नग़्मा-संज उड़ती सी इक ख़बर है ज़बानी तुयूर की गो वाँ नहीं प वाँ के निकाले हुए तो हैं का'बे से इन बुतों को भी निस्बत है दूर की क्या फ़र्ज़ है कि सब को मिले एक सा जवाब आओ न हम भी सैर करें कोह-ए-तूर की गर्मी सही कलाम में लेकिन न इस क़दर की जिस से बात उस ने शिकायत ज़रूर की 'ग़ालिब' गर इस सफ़र में मुझे साथ ले चलें हज का सवाब नज़्र करूँगा हुज़ूर की " qatra-e-mai-bas-ki-hairat-se-nafas-parvar-huaa-mirza-ghalib-ghazals," क़तरा-ए-मय बस-कि हैरत से नफ़स-परवर हुआ ख़त्त-ए-जाम-ए-मै सरासर रिश्ता-ए-गौहर हुआ ए'तिबार-ए-इश्क़ की ख़ाना-ख़राबी देखना ग़ैर ने की आह लेकिन वो ख़फ़ा मुझ पर हुआ गरमी-ए-दौलत हुइ आतिश-ज़न-ए-नाम-ए-निको ख़ाना-ए-ख़ातिम में याक़ूत-ए-नगीं अख़्तर हुआ नश्शा में गुम-कर्दा-राह आया वो मस्त-ए-फ़ित्ना-ख़ू आज रंग-रफ़्ता दौर-ए-गर्दिश-ए-साग़र हुआ दर्द से दर-पर्दा दी मिज़्गाँ-सियाहाँ ने शिकस्त रेज़ा रेज़ा उस्तुख़्वाँ का पोस्त में नश्तर हुआ ज़ोहद गरदीदन है गर्द-ए-ख़ाना-हा-ए-मुनइमाँ दाना-ए-तस्बीह से मैं मोहरा-दर-शश्दर हुआ ऐ ब-ज़ब्त-ए-हाल-ए-ना-अफ़्सुर्दागाँ जोश-ए-जुनूँ नश्शा-ए-मय है अगर यक-पर्दा नाज़ुक-तर हुआ इस चमन में रेशा-दारी जिस ने सर खेंचा 'असद' तर ज़बान-ए-लुत्फ़-ए-आम-ए-साक़ी-ए-कौसर हुआ " faarig-mujhe-na-jaan-ki-maanind-e-subh-o-mehr-mirza-ghalib-ghazals," फ़ारिग़ मुझे न जान कि मानिंद-ए-सुब्ह-ओ-मेहर है दाग़-ए-इश्क़ ज़ीनत-ए-जेब-ए-कफ़न हुनूज़ है नाज़-ए-मुफ़्लिसाँ ज़र-ए-अज़-दस्त-रफ़्ता पर हूँ गुल-फ़रोश-ए-शोख़ी-ए-दाग़-ए-कोहन हुनूज़ मै-ख़ाना-ए-जिगर में यहाँ ख़ाक भी नहीं ख़म्याज़ा खींचे है बुत-ए-बे-दाद-फ़न हुनूज़ जूँ जादा सर-ब-कू-ए-तमन्ना-ए-बे-दिली ज़ंजीर-ए-पा है रिश्ता-ए-हुब्बुल-वतन हुनूज़ " gulshan-men-bandobast-ba-rang-e-digar-hai-aaj-mirza-ghalib-ghazals," गुलशन में बंदोबस्त ब-रंग-ए-दिगर है आज क़ुमरी का तौक़ हल्क़ा-ए-बैरून-ए-दर है आज आता है एक पारा-ए-दिल हर फ़ुग़ाँ के साथ तार-ए-नफ़स कमंद-ए-शिकार-ए-असर है आज ऐ आफ़ियत किनारा कर ऐ इंतिज़ाम चल सैलाब-ए-गिर्या दरपय-ए-दीवार-ओ-दर है आज माज़ूली-ए-तपिश हुई इफ़रात-ए-इंतिज़ार चश्म-ए-कुशादा हल्क़ा-ए-बैरून-ए-दर है आज हैरत-फ़रोश-ए-सद-निगरानी है इज़्तिरार सर-रिश्ता चाक-ए-जेब का तार-ए-नज़र है आज हूँ दाग़-ए-नीम-रंगी-ए-शाम-ए-विसाल-ए-यार नूर-ए-चराग़-ए-बज़्म से जोश-ए-सहर है आज करती है आजिज़ी-ए-सफ़र सोख़्तन तमाम पैराहन-ए-ख़सक में ग़ुबार-ए-शरर है आज ता-सुब्ह है ब-मंज़िल-ए-मक़्सद रसीदनी दूद-ए-चराग़-ए-ख़ाना ग़ुबार-ए-सफ़र है आज दूर-ऊफ़्तादा-ए-चमन-ए-फ़िक्र है 'असद' मुर्ग़-ए-ख़याल बुलबुल-ए-बे-बाल-ओ-पर है आज " juz-qais-aur-koii-na-aayaa-ba-ruu-e-kaar-mirza-ghalib-ghazals," जुज़ क़ैस और कोई न आया ब-रू-ए-कार सहरा मगर ब-तंगी-ए-चश्म-ए-हसूद था आशुफ़्तगी ने नक़्श-ए-सुवैदा किया दुरुस्त ज़ाहिर हुआ कि दाग़ का सरमाया दूद था था ख़्वाब में ख़याल को तुझ से मुआ'मला जब आँख खुल गई न ज़ियाँ था न सूद था लेता हूँ मकतब-ए-ग़म-ए-दिल में सबक़ हनूज़ लेकिन यही कि रफ़्त गया और बूद था ढाँपा कफ़न ने दाग़-ए-उयूब-ए-बरहनगी मैं वर्ना हर लिबास में नंग-ए-वजूद था तेशे बग़ैर मर न सका कोहकन 'असद' सरगश्ता-ए-ख़ुमार-ए-रुसूम-ओ-क़ुयूद था आलम जहाँ ब-अर्ज़-ए-बिसात-ए-वजूद था जूँ सुब्ह चाक-ए-जेब मुझे तार-ओ-पूद था बाज़ी-ख़ुर-ए-फ़रेब है अहल-ए-नज़र का ज़ौक़ हंगामा गर्म-ए-हैरत-ए-बूद-ओ-नबूद था आलम तिलिस्म-ए-शहर-ए-ख़मोशी है सर-बसर या मैं ग़रीब-ए-किश्वर-ए-गुफ़्त-ओ-शुनूद था तंगी रफ़ीक़-ए-रह थी अदम या वजूद था मेरा सफ़र ब-ताला-ए-चश्म-ए-हसूद था तू यक-जहाँ क़माश-ए-हवस जम्अ' कर कि मैं हैरत-मता-ए-आलम-ए-नुक़्सान-ओ-सूद था गर्दिश-मुहीत-ए-ज़ुल्म रहा जिस क़दर फ़लक मैं पाएमाल-ए-ग़म्ज़ा-ए-चश्म-ए-कबूद था पूछा था गरचे यार ने अहवाल-ए-दिल मगर किस को दिमाग़-ए-मिन्नत-ए-गुफ़्त-ओ-शुनूद था ख़ुर शबनम-आश्ना न हुआ वर्ना मैं 'असद' सर-ता-क़दम गुज़ारिश-ए-ज़ौक़-ए-सुजूद था " lab-e-khushk-dar-tishnagii-murdagaan-kaa-mirza-ghalib-ghazals," लब-ए-ख़ुश्क दर-तिश्नगी-मुर्दगाँ का ज़ियारत-कदा हूँ दिल-आज़ुर्दगाँ का हमा ना-उमीदी हमा बद-गुमानी मैं दिल हूँ फ़रेब-ए-वफ़ा-ख़ुर्दगाँ का शगुफ़्तन कमीं-गाह-ए-तक़रीब-जूई तसव्वुर हूँ बे-मोजिब आज़ुर्दगाँ का ग़रीब-ए-सितम-दीदा-ए-बाज़-गश्तन सुख़न हूँ सुख़न बर लब-आवुर्दगाँ का सरापा यक-आईना-दार-ए-शिकस्तन इरादा हूँ यक-आलम-अफ़्सुर्दगाँ का ब-सूरत तकल्लुफ़ ब-मअ'नी तअस्सुफ़ 'असद' मैं तबस्सुम हूँ पज़मुर्दगाँ का " laraztaa-hai-miraa-dil-zahmat-e-mehr-e-darakhshaan-par-mirza-ghalib-ghazals," लरज़ता है मिरा दिल ज़हमत-ए-मेहर-ए-दरख़्शाँ पर मैं हूँ वो क़तरा-ए-शबनम कि हो ख़ार-ए-बयाबाँ पर न छोड़ी हज़रत-ए-यूसुफ़ ने याँ भी ख़ाना-आराई सफ़ेदी दीदा-ए-याक़ूब की फिरती है ज़िंदाँ पर फ़ना तालीम-ए-दर्स-ए-बे-ख़ुदी हूँ उस ज़माने से कि मजनूँ लाम अलिफ़ लिखता था दीवार-ए-दबिस्ताँ पर फ़राग़त किस क़दर रहती मुझे तश्वीश-ए-मरहम से बहम गर सुल्ह करते पारा-हा-ए-दिल नमक-दाँ पर नहीं इक़लीम-ए-उल्फ़त में कोई तूमार-ए-नाज़ ऐसा कि पुश्त-ए-चश्म से जिस की न होवे मोहर उनवाँ पर मुझे अब देख कर अबर-ए-शफ़क़-आलूदा याद आया कि फ़ुर्क़त में तिरी आतिश बरसती थी गुलिस्ताँ पर ब-जुज़ परवाज़-ए-शौक़-ए-नाज़ क्या बाक़ी रहा होगा क़यामत इक हवा-ए-तुंद है ख़ाक-ए-शहीदाँ पर न लड़ नासेह से 'ग़ालिब' क्या हुआ गर उस ने शिद्दत की हमारा भी तो आख़िर ज़ोर चलता है गरेबाँ पर दिल-ए-ख़ूनीं-जिगर बे-सब्र-ओ-फ़ैज़-ए-इश्क़-ए-मुस्तग़नी इलाही यक क़यामत ख़ावर आ टूटे बदख़्शाँ पर 'असद' ऐ बे-तहम्मुल अरबदा बे-जा है नासेह से कि आख़िर बे-कसों का ज़ोर चलता है गरेबाँ पर " aa-ki-mirii-jaan-ko-qaraar-nahiin-hai-mirza-ghalib-ghazals," आ कि मिरी जान को क़रार नहीं है ताक़त-ए-बेदाद-ए-इंतिज़ार नहीं है देते हैं जन्नत हयात-ए-दहर के बदले नश्शा ब-अंदाज़ा-ए-ख़ुमार नहीं है गिर्या निकाले है तेरी बज़्म से मुझ को हाए कि रोने पे इख़्तियार नहीं है हम से अबस है गुमान-ए-रंजिश-ए-ख़ातिर ख़ाक में उश्शाक़ की ग़ुबार नहीं है दिल से उठा लुत्फ़-ए-जल्वा-हा-ए-मआनी ग़ैर-ए-गुल आईना-ए-बहार नहीं है क़त्ल का मेरे किया है अहद तो बारे वाए अगर अहद उस्तुवार नहीं है तू ने क़सम मय-कशी की खाई है 'ग़ालिब' तेरी क़सम का कुछ ए'तिबार नहीं है " naqsh-fariyaadii-hai-kis-kii-shokhi-e-tahriir-kaa-mirza-ghalib-ghazals," नक़्श फ़रियादी है किस की शोख़ी-ए-तहरीर का काग़ज़ी है पैरहन हर पैकर-ए-तस्वीर का काव काव-ए-सख़्त-जानी हाए-तन्हाई न पूछ सुब्ह करना शाम का लाना है जू-ए-शीर का जज़्बा-ए-बे-इख़्तियार-ए-शौक़ देखा चाहिए सीना-ए-शमशीर से बाहर है दम शमशीर का आगही दाम-ए-शुनीदन जिस क़दर चाहे बिछाए मुद्दआ अन्क़ा है अपने आलम-ए-तक़रीर का बस-कि हूँ 'ग़ालिब' असीरी में भी आतिश ज़ेर-ए-पा मू-ए-आतिश दीदा है हल्क़ा मिरी ज़ंजीर का आतिशीं-पा हूँ गुदाज़-ए-वहशत-ए-ज़िन्दाँ न पूछ मू-ए-आतिश दीदा है हर हल्क़ा याँ ज़ंजीर का शोख़ी-ए-नैरंग सैद-ए-वहशत-ए-ताऊस है दाम-ए-सब्ज़ा में है परवाज़-ए-चमन तस्ख़ीर का लज़्ज़त-ए-ईजाद-ए-नाज़ अफ़सून-ए-अर्ज़-ज़ौक़-ए-क़त्ल ना'ल आतिश में है तेग़-ए-यार से नख़चीर का ख़िश्त पुश्त-ए-दस्त-ए-इज्ज़ ओ क़ालिब आग़ोश-ए-विदा'अ पुर हुआ है सैल से पैमाना किस ता'मीर का वहशत-ए-ख़्वाब-ए-अदम शोर-ए-तमाशा है 'असद' जो मज़ा जौहर नहीं आईना-ए-ताबीर का " mund-gaiin-kholte-hii-kholte-aankhen-gaalib-mirza-ghalib-ghazals," मुँद गईं खोलते ही खोलते आँखें 'ग़ालिब' यार लाए मिरी बालीं पे उसे पर किस वक़्त " muzhda-ai-zauq-e-asiirii-ki-nazar-aataa-hai-mirza-ghalib-ghazals," मुज़्दा ऐ ज़ौक़-ए-असीरी कि नज़र आता है दाम-ए-ख़ाली क़फ़स-ए-मुर्ग़-ए-गिरफ़्तार के पास जिगर-ए-तिश्ना-ए-आज़ार तसल्ली न हुआ जू-ए-ख़ूँ हम ने बहाई बुन-ए-हर ख़ार के पास मुँद गईं खोलते ही खोलते आँखें है है ख़ूब वक़्त आए तुम इस आशिक़-ए-बीमार के पास मैं भी रुक रुक के न मरता जो ज़बाँ के बदले दशना इक तेज़ सा होता मिरे ग़म-ख़्वार के पास दहन-ए-शेर में जा बैठे लेकिन ऐ दिल न खड़े हो जिए ख़ूबान-ए-दिल-आज़ार के पास देख कर तुझ को चमन बस-कि नुमू करता है ख़ुद-ब-ख़ुद पहुँचे है गुल गोशा-ए-दस्तार के पास मर गया फोड़ के सर ग़ालिब-ए-वहशी है है बैठना उस का वो आ कर तिरी दीवार के पास " na-hogaa-yak-bayaabaan-maandgii-se-zauq-kam-meraa-mirza-ghalib-ghazals," न होगा यक-बयाबाँ माँदगी से ज़ौक़ कम मेरा हबाब-ए-मौजा-ए-रफ़्तार है नक़्श-ए-क़दम मेरा मोहब्बत थी चमन से लेकिन अब ये बे-दिमाग़ी है कि मौज-ए-बू-ए-गुल से नाक में आता है दम मेरा रह-ए-ख़्वाबीदा थी गर्दन-कश-ए-यक-दर्स-ए-आगाही ज़मीं को सैली-ए-उस्ताद है नक़्श-ए-क़दम मेरा सुराग़-आवारा-ए-अर्ज़-ए-दो-आलम शोर-ए-महशर हूँ पर-अफ़्शाँ है ग़ुबार आँ सू-ए-सहरा-ए-अदम मेरा हवा-ए-सुब्ह यक-आलम गरेबाँ चाकी-ए-गुल है दहान-ए-ज़ख़्म पैदा कर अगर खाता है ग़म मेरा न हो वहशत-कश-ए-दर्स-ए-सराब-ए-सत्र-ए-आगाही मैं गर्द-ए-राह हूँ बे-मुद्दआ है पेच-ओ-ख़म मेरा 'असद' वहशत-परस्त-ए-गोशा-ए-तन्हाई-ए-दिल है ब-रंग-ए-मौज-ए-मय ख़म्याज़ा-ए-साग़र है रम मेरा " daaim-padaa-huaa-tire-dar-par-nahiin-huun-main-mirza-ghalib-ghazals," दाइम पड़ा हुआ तिरे दर पर नहीं हूँ मैं ख़ाक ऐसी ज़िंदगी पे कि पत्थर नहीं हूँ मैं क्यूँ गर्दिश-ए-मुदाम से घबरा न जाए दिल इंसान हूँ पियाला ओ साग़र नहीं हूँ मैं या-रब ज़माना मुझ को मिटाता है किस लिए लौह-ए-जहाँ पे हर्फ़-ए-मुकर्रर नहीं हूँ मैं हद चाहिए सज़ा में उक़ूबत के वास्ते आख़िर गुनाहगार हूँ काफ़र नहीं हूँ मैं किस वास्ते अज़ीज़ नहीं जानते मुझे लअ'ल ओ ज़मुर्रद ओ ज़र ओ गौहर नहीं हूँ मैं रखते हो तुम क़दम मिरी आँखों से क्यूँ दरेग़ रुत्बे में महर-ओ-माह से कम-तर नहीं हूँ मैं करते हो मुझ को मनअ-ए-क़दम-बोस किस लिए क्या आसमान के भी बराबर नहीं हूँ मैं 'ग़ालिब' वज़ीफ़ा-ख़्वार हो दो शाह को दुआ वो दिन गए कि कहते थे नौकर नहीं हूँ मैं " jaada-e-rah-khur-ko-vaqt-e-shaam-hai-taar-e-shuaaa-mirza-ghalib-ghazals," जादा-ए-रह ख़ुर को वक़्त-ए-शाम है तार-ए-शुआअ' चर्ख़ वा करता है माह-ए-नौ से आग़ोश-ए-विदा'अ शम्अ' से है बज़्म-ए-अंगुश्त-ए-तहय्युर दर दहन शोला-ए-आवाज़-ए-ख़ूबाँ पर ब-हंगाम-ए-सिमाअ' जूँ पर-ए-ताऊस जौहर तख़्ता मश्क़-ए-रंग है बस-कि है वो क़िबला-ए-आईना महव-ए-इख़तिराअ' रंजिश-ए-हैरत-सरिश्ताँ सीना-साफ़ी पेशकश जौहर-ए-आईना है याँ गर्द-ए-मैदान-ए-नज़ाअ' चार सू-ए-दहर में बाज़ार-ए-ग़फ़लत गर्म है अक़्ल के नुक़साँ से उठता है ख़याल-ए-इन्तिफ़ाअ' आश्ना 'ग़ालिब' नहीं हैं दर्द-ए-दिल के आश्ना वर्ना किस को मेरे अफ़्साने की ताब-ए-इस्तिमाअ' " shauq-har-rang-raqiib-e-sar-o-saamaan-niklaa-mirza-ghalib-ghazals," शौक़ हर रंग रक़ीब-ए-सर-ओ-सामाँ निकला क़ैस तस्वीर के पर्दे में भी उर्यां निकला ज़ख़्म ने दाद न दी तंगी-ए-दिल की या रब तीर भी सीना-ए-बिस्मिल से पर-अफ़्शाँ निकला बू-ए-गुल नाला-ए-दिल दूद-ए-चराग़-ए-महफ़िल जो तिरी बज़्म से निकला सो परेशाँ निकला दिल-ए-हसरत-ज़दा था माइदा-ए-लज़्ज़त-ए-दर्द काम यारों का ब-क़दर-ए-लब-ओ-दंदाँ निकला थी नौ-आमूज़-ए-फ़ना हिम्मत-ए-दुश्वार-पसंद सख़्त मुश्किल है कि ये काम भी आसाँ निकला दिल में फिर गिर्ये ने इक शोर उठाया 'ग़ालिब' आह जो क़तरा न निकला था सो तूफ़ाँ निकला कार-ख़ाने से जुनूँ के भी मैं उर्यां निकला मेरी क़िस्मत का न एक-आध गरेबाँ निकला साग़र-ए-जल्वा-ए-सरशार है हर ज़र्रा-ए-ख़ाक शौक़-ए-दीदार बला आइना-सामाँ निकला कुछ खटकता था मिरे सीने में लेकिन आख़िर जिस को दिल कहते थे सो तीर का पैकाँ निकला किस क़दर ख़ाक हुआ है दिल-ए-मजनूँ या रब नक़्श-ए-हर-ज़र्रा सुवैदा-ए-बयाबाँ निकला शोर-ए-रुसवाई-ए-दिल देख कि यक-नाला-ए-शौक़ लाख पर्दे में छुपा पर वही उर्यां निकला शोख़ी-ए-रंग-ए-हिना ख़ून-ए-वफ़ा से कब तक आख़िर ऐ अहद-शिकन तू भी पशेमाँ निकला जौहर-ईजाद-ए-ख़त-ए-सब्ज़ है ख़ुद-बीनी-ए-हुस्न जो न देखा था सो आईने में पिन्हाँ निकला मैं भी माज़ूर-ए-जुनूँ हूँ 'असद' ऐ ख़ाना-ख़राब पेशवा लेने मुझे घर से बयाबाँ निकला " koii-ummiid-bar-nahiin-aatii-mirza-ghalib-ghazals," कोई उम्मीद बर नहीं आती कोई सूरत नज़र नहीं आती मौत का एक दिन मुअय्यन है नींद क्यूँ रात भर नहीं आती आगे आती थी हाल-ए-दिल पे हँसी अब किसी बात पर नहीं आती जानता हूँ सवाब-ए-ताअत-ओ-ज़ोहद पर तबीअत इधर नहीं आती है कुछ ऐसी ही बात जो चुप हूँ वर्ना क्या बात कर नहीं आती क्यूँ न चीख़ूँ कि याद करते हैं मेरी आवाज़ गर नहीं आती दाग़-ए-दिल गर नज़र नहीं आता बू भी ऐ चारागर नहीं आती हम वहाँ हैं जहाँ से हम को भी कुछ हमारी ख़बर नहीं आती मरते हैं आरज़ू में मरने की मौत आती है पर नहीं आती काबा किस मुँह से जाओगे 'ग़ालिब' शर्म तुम को मगर नहीं आती " aamad-e-khat-se-huaa-hai-sard-jo-baazaar-e-dost-mirza-ghalib-ghazals," आमद-ए-ख़त से हुआ है सर्द जो बाज़ार-ए-दोस्त दूद-ए-शम-ए-कुश्ता था शायद ख़त-ए-रुख़्सार-ए-दोस्त ऐ दिल-ए-ना-आक़िबत-अंदेश ज़ब्त-ए-शौक़ कर कौन ला सकता है ताब-ए-जल्वा-ए-दीदार-ए-दोस्त ख़ाना-वीराँ-साज़ी-ए-हैरत तमाशा कीजिए सूरत-ए-नक़्श-ए-क़दम हूँ रफ़्ता-ए-रफ़्तार-ए-दोस्त इश्क़ में बेदाद-ए-रश्क-ए-ग़ैर ने मारा मुझे कुश्ता-ए-दुश्मन हूँ आख़िर गरचे था बीमार-ए-दोस्त चश्म-ए-मा रौशन कि उस बेदर्द का दिल शाद है दीदा-ए-पुर-ख़ूँ हमारा साग़र-ए-सरशार-ए-दोस्त ग़ैर यूँ करता है मेरी पुर्सिश उस के हिज्र में बे-तकल्लुफ़ दोस्त हो जैसे कोई ग़म-ख़्वार-ए-दोस्त ताकि मैं जानूँ कि है उस की रसाई वाँ तलक मुझ को देता है पयाम-ए-वादा-ए-दीदार-ए-दोस्त जब कि मैं करता हूँ अपना शिकवा-ए-ज़ोफ़-ए-दिमाग़ सर करे है वो हदीस-ए-ज़ुल्फ़-ए-अंबर-बार-ए-दोस्त चुपके चुपके मुझ को रोते देख पाता है अगर हँस के करता है बयान-ए-शोख़ी-ए-गुफ़्तार-ए-दोस्त मेहरबानी-हा-ए-दुश्मन की शिकायत कीजिए ता बयाँ कीजे सिपास-ए-लज़्ज़त-ए-आज़ार-ए-दोस्त ये ग़ज़ल अपनी मुझे जी से पसंद आती है आप है रदीफ़-ए-शेर में 'ग़ालिब' ज़ि-बस तकरार-ए-दोस्त चश्म-ए-बंद-ए-ख़ल्क़ जुज़ तिमसाल-ए-ख़ुद-बीनी नहीं आइना है क़ालिब-ए-ख़िश्त-ए-दर-ओ-दीवार-ए-दोस्त बर्क़-ए-ख़िर्मन-ज़ार गौहर है निगाह-ए-तेज़ याँ अश्क हो जाते हैं ख़ुश्क अज़-गरमी-ए-रफ़्तार-ए-दोस्त है सवा नेज़े पे उस के क़ामत-ए-नौ-ख़ेज़ से आफ़्ताब-ए-सुब्ह-ए-महशर है गुल-ए-दस्तार-ए-दोस्त ऐ अदू-ए-मस्लहत चंद ब-ज़ब्त अफ़्सुर्दा रह करदनी है जम्अ' ताब-ए-शोख़ी-ए-दीदार-ए-दोस्त लग़ज़िशत-ए-मस्ताना ओ जोश-ए-तमाशा है 'असद' आतिश-ए-मय से बहार-ए-गरमी-ए-बाज़ार-ए-दोस्त " khatar-hai-rishta-e-ulfat-rag-e-gardan-na-ho-jaave-mirza-ghalib-ghazals," ख़तर है रिश्ता-ए-उल्फ़त रग-ए-गर्दन न हो जावे ग़ुरूर-ए-दोस्ती आफ़त है तू दुश्मन न हो जावे समझ इस फ़स्ल में कोताही-ए-नश्व-ओ-नुमा 'ग़ालिब' अगर गुल सर्व के क़ामत पे पैराहन न हो जावे " vo-mirii-chiin-e-jabiin-se-gam-e-pinhaan-samjhaa-mirza-ghalib-ghazals," वो मिरी चीन-ए-जबीं से ग़म-ए-पिन्हाँ समझा राज़-ए-मक्तूब ब-बे-रब्ती-ए-उनवाँ समझा यक अलिफ़ बेश नहीं सैक़ल-ए-आईना हनूज़ चाक करता हूँ मैं जब से कि गरेबाँ समझा शरह-ए-असबाब-ए-गिरफ़्तारी-ए-ख़ातिर मत पूछ इस क़दर तंग हुआ दिल कि मैं ज़िंदाँ समझा बद-गुमानी ने न चाहा उसे सरगर्म-ए-ख़िराम रुख़ पे हर क़तरा अरक़ दीदा-ए-हैराँ समझा इज्ज़ से अपने ये जाना कि वो बद-ख़ू होगा नब्ज़-ए-ख़स से तपिश-ए-शोला-ए-सोज़ाँ समझा सफ़र-ए-इश्क़ में की ज़ोफ़ ने राहत-तलबी हर क़दम साए को मैं अपने शबिस्ताँ समझा था गुरेज़ाँ मिज़ा-ए-यार से दिल ता दम-ए-मर्ग दफ़-ए-पैकान-ए-क़ज़ा इस क़दर आसाँ समझा दिल दिया जान के क्यूँ उस को वफ़ादार 'असद' ग़लती की कि जो काफ़िर को मुसलमाँ समझा हम ने वहशत-कदा-ए-बज़्म-ए-जहाँ में जूँ शम्अ' शो'ला-ए-इश्क़ को अपना सर-ओ-सामाँ समझा " kii-vafaa-ham-se-to-gair-is-ko-jafaa-kahte-hain-mirza-ghalib-ghazals," की वफ़ा हम से तो ग़ैर इस को जफ़ा कहते हैं होती आई है कि अच्छों को बुरा कहते हैं आज हम अपनी परेशानी-ए-ख़ातिर उन से कहने जाते तो हैं पर देखिए क्या कहते हैं अगले वक़्तों के हैं ये लोग इन्हें कुछ न कहो जो मय ओ नग़्मा को अंदोह-रुबा कहते हैं दिल में आ जाए है होती है जो फ़ुर्सत ग़श से और फिर कौन से नाले को रसा कहते हैं है पर-ए-सरहद-ए-इदराक से अपना मसजूद क़िबले को अहल-ए-नज़र क़िबला-नुमा कहते हैं पा-ए-अफ़गार पे जब से तुझे रहम आया है ख़ार-ए-रह को तिरे हम मेहर-ए-गिया कहते हैं इक शरर दिल में है उस से कोई घबराएगा क्या आग मतलूब है हम को जो हवा कहते हैं देखिए लाती है उस शोख़ की नख़वत क्या रंग उस की हर बात पे हम नाम-ए-ख़ुदा कहते हैं 'वहशत' ओ 'शेफ़्ता' अब मर्सिया कहवें शायद मर गया 'ग़ालिब'-ए-आशुफ़्ता-नवा कहते हैं " siimaab-pusht-garmi-e-aaiina-de-hai-ham-mirza-ghalib-ghazals," सीमाब-पुश्त गर्मी-ए-आईना दे है हम हैराँ किए हुए हैं दिल-ए-बे-क़रार के आग़ोश-ए-गुल कुशूदा बरा-ए-विदा है ऐ अंदलीब चल कि चले दिन बहार के यूँ बाद-ए-ज़ब्त-ए-अश्क फिरूँ गिर्द यार के पानी पिए किसू पे कोई जैसे वार के बाद-अज़-विदा-ए-यार ब-ख़ूँ दर तपीदा हैं नक़्श-ए-क़दम हैं हम कफ़-ए-पा-ए-निगार के हम मश्क़-ए-फ़िक्र-ए-वस्ल-ओ-ग़म-ए-हिज्र से 'असद' लाएक़ नहीं रहे हैं ग़म-ए-रोज़गार के " sad-jalva-ruu-ba-ruu-hai-jo-mizhgaan-uthaaiye-mirza-ghalib-ghazals," सद जल्वा रू-ब-रू है जो मिज़्गाँ उठाइए ताक़त कहाँ कि दीद का एहसाँ उठाइए है संग पर बरात-ए-मआश-ए-जुनून-ए-इश्क़ या'नी हुनूज़ मिन्नत-ए-तिफ़्लाँ उठाइए दीवार बार-ए-मिन्नत-ए-मज़दूर से है ख़म ऐ ख़ानुमाँ-ख़राब न एहसाँ उठाइए या मेरे ज़ख़्म-ए-रश्क को रुस्वा न कीजिए या पर्दा-ए-तबस्सुम-ए-पिन्हाँ उठाइए हस्ती फ़रेब-नामा-ए-मौज-ए-सराब है यक उम्र नाज़-ए-शोख़ी-ए-उनवाँ उठाइए " dost-gam-khvaarii-men-merii-saii-farmaavenge-kyaa-mirza-ghalib-ghazals," दोस्त ग़म-ख़्वारी में मेरी सई फ़रमावेंगे क्या ज़ख़्म के भरते तलक नाख़ुन न बढ़ जावेंगे क्या बे-नियाज़ी हद से गुज़री बंदा-परवर कब तलक हम कहेंगे हाल-ए-दिल और आप फ़रमावेंगे क्या हज़रत-ए-नासेह गर आवें दीदा ओ दिल फ़र्श-ए-राह कोई मुझ को ये तो समझा दो कि समझावेंगे क्या आज वाँ तेग़ ओ कफ़न बाँधे हुए जाता हूँ मैं उज़्र मेरे क़त्ल करने में वो अब लावेंगे क्या गर किया नासेह ने हम को क़ैद अच्छा यूँ सही ये जुनून-ए-इश्क़ के अंदाज़ छुट जावेंगे क्या ख़ाना-ज़ाद-ए-ज़ुल्फ़ हैं ज़ंजीर से भागेंगे क्यूँ हैं गिरफ़्तार-ए-वफ़ा ज़िंदाँ से घबरावेंगे क्या है अब इस मामूरे में क़हत-ए-ग़म-ए-उल्फ़त 'असद' हम ने ये माना कि दिल्ली में रहें खावेंगे क्या " arz-e-niyaaz-e-ishq-ke-qaabil-nahiin-rahaa-mirza-ghalib-ghazals," अर्ज़-ए-नियाज़-ए-इश्क़ के क़ाबिल नहीं रहा जिस दिल पे नाज़ था मुझे वो दिल नहीं रहा जाता हूँ दाग़-ए-हसरत-ए-हस्ती लिए हुए हूँ शम-ए-कुश्ता दर-ख़ुर-ए-महफ़िल नहीं रहा मरने की ऐ दिल और ही तदबीर कर कि मैं शायान-ए-दस्त-ओ-बाज़ु-ए-क़ातिल नहीं रहा बर-रू-ए-शश-जहत दर-ए-आईना बाज़ है याँ इम्तियाज़-ए-नाक़िस-ओ-कामिल नहीं रहा वा कर दिए हैं शौक़ ने बंद-ए-नक़ाब-ए-हुस्न ग़ैर-अज़-निगाह अब कोई हाइल नहीं रहा गो मैं रहा रहीन-ए-सितम-हा-ए-रोज़गार लेकिन तिरे ख़याल से ग़ाफ़िल नहीं रहा दिल से हवा-ए-किश्त-ए-वफ़ा मिट गई कि वाँ हासिल सिवाए हसरत-ए-हासिल नहीं रहा बेदाद-ए-इश्क़ से नहीं डरता मगर 'असद' जिस दिल पे नाज़ था मुझे वो दिल नहीं रहा हर-चंद मैं हूँ तूती-ए-शीरीं-सुख़न वले आईना आह मेरे मुक़ाबिल नहीं रहा जाँ-दाद-गाँ का हौसला फ़ुर्सत-गुदाज़ है याँ अर्सा-ए-तपीदन-ए-बिस्मिल नहीं रहा हूँ क़तरा-ज़न ब-वादी-ए-हसरत शबाना रोज़ जुज़ तार-ए-अश्क जादा-ए-मंज़िल नहीं रहा ऐ आह मेरी ख़ातिर-ए-वाबस्ता के सिवा दुनिया में कोई उक़्दा-ए-मुश्किल नहीं रहा अंदाज़-ए-नाला याद हैं सब मुझ को पर 'असद' जिस दिल पे नाज़ था मुझे वो दिल नहीं रहा " bazm-e-shaahanshaah-men-ashaar-kaa-daftar-khulaa-mirza-ghalib-ghazals," बज़्म-ए-शाहंशाह में अशआ'र का दफ़्तर खुला रखियो या रब ये दर-ए-गंजीना-ए-गौहर खुला शब हुई फिर अंजुम-ए-रख़्शन्दा का मंज़र खुला इस तकल्लुफ़ से कि गोया बुत-कदे का दर खुला गरचे हूँ दीवाना पर क्यूँ दोस्त का खाऊँ फ़रेब आस्तीं में दशना पिन्हाँ हाथ में नश्तर खुला गो न समझूँ उस की बातें गो न पाऊँ उस का भेद पर ये क्या कम है कि मुझ से वो परी-पैकर खुला है ख़याल-ए-हुस्न में हुस्न-ए-अमल का सा ख़याल ख़ुल्द का इक दर है मेरी गोर के अंदर खुला मुँह न खुलने पर है वो आलम कि देखा ही नहीं ज़ुल्फ़ से बढ़ कर नक़ाब उस शोख़ के मुँह पर खुला दर पे रहने को कहा और कह के कैसा फिर गया जितने अर्से में मिरा लिपटा हुआ बिस्तर खुला क्यूँ अँधेरी है शब-ए-ग़म है बलाओं का नुज़ूल आज उधर ही को रहेगा दीदा-ए-अख़्तर खुला क्या रहूँ ग़ुर्बत में ख़ुश जब हो हवादिस का ये हाल नामा लाता है वतन से नामा-बर अक्सर खुला उस की उम्मत में हूँ मैं मेरे रहें क्यूँ काम बंद वास्ते जिस शह के 'ग़ालिब' गुम्बद-ए-बे-दर खुला " kyuun-na-ho-chashm-e-butaan-mahv-e-tagaaful-kyuun-na-ho-mirza-ghalib-ghazals," क्यूँ न हो चश्म-ए-बुताँ महव-ए-तग़ाफ़ुल क्यूँ न हो या'नी उस बीमार को नज़्ज़ारे से परहेज़ है मरते मरते देखने की आरज़ू रह जाएगी वाए नाकामी कि उस काफ़िर का ख़ंजर तेज़ है आरिज़-ए-गुल देख रू-ए-यार याद आया 'असद' जोशिश-ए-फ़स्ल-ए-बहारी इश्तियाक़-अंगेज़ है " jis-zakhm-kii-ho-saktii-ho-tadbiir-rafuu-kii-mirza-ghalib-ghazals," जिस ज़ख़्म की हो सकती हो तदबीर रफ़ू की लिख दीजियो या रब उसे क़िस्मत में अदू की अच्छा है सर-अंगुश्त-ए-हिनाई का तसव्वुर दिल में नज़र आती तो है इक बूँद लहू की क्यूँ डरते हो उश्शाक़ की बे-हौसलगी से याँ तो कोई सुनता नहीं फ़रियाद किसू की दशने ने कभी मुँह न लगाया हो जिगर को ख़ंजर ने कभी बात न पूछी हो गुलू की सद-हैफ़ वो नाकाम कि इक उम्र से 'ग़ालिब' हसरत में रहे एक बुत-ए-अरबदा-जू की गो ज़िंदगी-ए-ज़ाहिद-ए-बे-चारा अबस है इतना है कि रहती तो है तदबीर वज़ू की " vaarasta-us-se-hain-ki-mohabbat-hii-kyuun-na-ho-mirza-ghalib-ghazals," वारस्ता उस से हैं कि मोहब्बत ही क्यूँ न हो कीजे हमारे साथ अदावत ही क्यूँ न हो छोड़ा न मुझ में ज़ोफ़ ने रंग इख़्तिलात का है दिल पे बार नक़्श-ए-मोहब्बत ही क्यूँ न हो है मुझ को तुझ से तज़्किरा-ए-ग़ैर का गिला हर-चंद बर-सबील-ए-शिकायत ही क्यूँ न हो पैदा हुई है कहते हैं हर दर्द की दवा यूँ हो तो चारा-ए-ग़म-ए-उल्फ़त ही क्यूँ न हो डाला न बे-कसी ने किसी से मुआ'मला अपने से खींचता हूँ ख़जालत ही क्यूँ न हो है आदमी बजाए ख़ुद इक महशर-ए-ख़याल हम अंजुमन समझते हैं ख़ल्वत ही क्यूँ न हो हंगामा-ए-ज़बूनी-ए-हिम्मत है इंफ़िआल हासिल न कीजे दहर से इबरत ही क्यूँ न हो वारस्तगी बहाना-ए-बेगानगी नहीं अपने से कर न ग़ैर से वहशत ही क्यूँ न हो मिटता है फ़ौत-ए-फ़ुर्सत-ए-हस्ती का ग़म कोई उम्र-ए-अज़ीज़ सर्फ़-ए-इबादत ही क्यूँ न हो उस फ़ित्ना-ख़ू के दर से अब उठते नहीं 'असद' उस में हमारे सर पे क़यामत ही क्यूँ न हो " mahram-nahiin-hai-tuu-hii-navaa-haa-e-raaz-kaa-mirza-ghalib-ghazals," महरम नहीं है तू ही नवा-हा-ए-राज़ का याँ वर्ना जो हिजाब है पर्दा है साज़ का रंग-ए-शिकस्ता सुब्ह-ए-बहार-ए-नज़ारा है ये वक़्त है शगुफ़्तन-ए-गुल-हा-ए-नाज़ का तू और सू-ए-ग़ैर नज़र-हा-ए-तेज़ तेज़ मैं और दुख तिरी मिज़ा-हा-ए-दराज़ का सर्फ़ा है ज़ब्त-ए-आह में मेरा वगर्ना में तोमा हूँ एक ही नफ़स-ए-जाँ-गुदाज़ का हैं बस-कि जोश-ए-बादा से शीशे उछल रहे हर गोशा-ए-बिसात है सर शीशा-बाज़ का काविश का दिल करे है तक़ाज़ा कि है हुनूज़ नाख़ुन पे क़र्ज़ इस गिरह-ए-नीम-बाज़ का ताराज-ए-काविश-ए-ग़म-ए-हिज्राँ हुआ 'असद' सीना कि था दफ़ीना गुहर-हा-ए-राज़ का " aah-ko-chaahiye-ik-umr-asar-hote-tak-mirza-ghalib-ghazals," आह को चाहिए इक उम्र असर होते तक कौन जीता है तिरी ज़ुल्फ़ के सर होते तक दाम-ए-हर-मौज में है हल्क़ा-ए-सद-काम-ए-नहंग देखें क्या गुज़रे है क़तरे पे गुहर होते तक आशिक़ी सब्र-तलब और तमन्ना बेताब दिल का क्या रंग करूँ ख़ून-ए-जिगर होते तक ता-क़यामत शब-ए-फ़ुर्क़त में गुज़र जाएगी उम्र सात दिन हम पे भी भारी हैं सहर होते तक हम ने माना कि तग़ाफ़ुल न करोगे लेकिन ख़ाक हो जाएँगे हम तुम को ख़बर होते तक परतव-ए-ख़ुर से है शबनम को फ़ना की ता'लीम मैं भी हूँ एक इनायत की नज़र होते तक यक नज़र बेश नहीं फ़ुर्सत-ए-हस्ती ग़ाफ़िल गर्मी-ए-बज़्म है इक रक़्स-ए-शरर होते तक ग़म-ए-हस्ती का 'असद' किस से हो जुज़ मर्ग इलाज शम्अ हर रंग में जलती है सहर होते तक " bisaat-e-ijz-men-thaa-ek-dil-yak-qatra-khuun-vo-bhii-mirza-ghalib-ghazals," बिसात-ए-इज्ज़ में था एक दिल यक क़तरा ख़ूँ वो भी सो रहता है ब-अंदाज़-ए-चकीदन सर-निगूँ वो भी रहे उस शोख़ से आज़ुर्दा हम चंदे तकल्लुफ़ से तकल्लुफ़ बरतरफ़ था एक अंदाज़-ए-जुनूँ वो भी ख़याल-ए-मर्ग कब तस्कीं दिल-ए-आज़ुर्दा को बख़्शे मिरे दाम-ए-तमन्ना में है इक सैद-ए-ज़बूँ वो भी न करता काश नाला मुझ को क्या मालूम था हमदम कि होगा बाइस-ए-अफ़्ज़ाइश-ए-दर्द-ए-दरूँ वो भी न इतना बुर्रिश-ए-तेग़-ए-जफ़ा पर नाज़ फ़रमाओ मिरे दरिया-ए-बे-ताबी में है इक मौज-ए-ख़ूँ वो भी मय-ए-इशरत की ख़्वाहिश साक़ी-ए-गर्दूं से क्या कीजे लिए बैठा है इक दो चार जाम-ए-वाज़-गूँ वो भी मिरे दिल में है 'ग़ालिब' शौक़-ए-वस्ल ओ शिकवा-ए-हिज्राँ ख़ुदा वो दिन करे जो उस से मैं ये भी कहूँ वो भी मुझे मालूम है जो तू ने मेरे हक़ में सोचा है कहीं हो जाए जल्द ऐ गर्दिश-ए-गर्दून-ए-दूँ वो भी नज़र राहत पे मेरी कर न वा'दा शब के आने का कि मेरी ख़्वाब-बंदी के लिए होगा फ़ुसूँ वो भी " az-mehr-taa-ba-zarra-dil-o-dil-hai-aaina-mirza-ghalib-ghazals," अज़-मेहर ता-ब-ज़र्रा दिल-ओ-दिल है आइना तूती को शश-जिहत से मुक़ाबिल है आइना हैरत हुजूम-ए-लज़्ज़त-ए-ग़लतानी-ए-तपिश सीमाब-ए-बालिश ओ कमर-ए-दिल है आइना ग़फ़लत ब-बाल-ए-जौहर-ए-शमशीर पर-फ़िशाँ याँ पुश्त-ए-चश्म-ए-शोख़ी-ए-क़ातिल है आइना हैरत-निगाह-ए-बर्क़-ए-तमाशा बहार-ए-शोख़ दर-पर्दा-ए-हवा पर-ए-बिस्मिल है आइना याँ रह गए हैं नाख़ुन-ए-तदबीर टूट कर जौहर-तिलिस्म-ए-उक़्दा-ए-मुश्किल है आइना हम-ज़ानू-ए-तअम्मुल ओ हम-जल्वा-गाह-ए-गुल आईना-बंद ख़ल्वत-ओ-महफ़िल है आइना दिल कार-गाह-ए-फ़िक्र ओ 'असद' बे-नवा-ए-दिल याँ संग-ए-आस्ताना-ए-'बेदिल' है आइना " tere-tausan-ko-sabaa-baandhte-hain-mirza-ghalib-ghazals," तेरे तौसन को सबा बाँधते हैं हम भी मज़मूँ की हवा बाँधते हैं आह का किस ने असर देखा है हम भी एक अपनी हवा बाँधते हैं तेरी फ़ुर्सत के मुक़ाबिल ऐ उम्र बर्क़ को पा-ब-हिना बाँधते हैं क़ैद-ए-हस्ती से रिहाई मा'लूम अश्क को बे-सर-ओ-पा बाँधते हैं नश्शा-ए-रंग से है वाशुद-ए-गुल मस्त कब बंद-ए-क़बा बाँधते हैं ग़लती-हा-ए-मज़ामीं मत पूछ लोग नाले को रसा बाँधते हैं अहल-ए-तदबीर की वामांदगियाँ आबलों पर भी हिना बाँधते हैं सादा पुरकार हैं ख़ूबाँ 'ग़ालिब' हम से पैमान-ए-वफ़ा बाँधते हैं पाँव में जब वो हिना बाँधते हैं मेरे हाथों को जुदा बाँधते हैं हुस्न-ए-अफ़्सुर्दा-दिल-हा-रंगीं शौक़ को पा-ब-हिना बाँधते हैं क़ैद में भी है असीरी आज़ाद चश्म-ए-ज़ंजीर को वा बाँधते हैं शैख़-जी का'बे का जाना मा'लूम आप मस्जिद में गधा बाँधते हैं किस का दिल ज़ुल्फ़ से भागा कि 'असद' दस्त-ए-शाना ब-क़ज़ा बाँधते हैं तेरे बीमार पे हैं फ़रियादी वो जो काग़ज़ में दवा बाँधते हैं " hai-sabza-zaar-har-dar-o-diivaar-e-gam-kada-mirza-ghalib-ghazals," है सब्ज़ा-ज़ार हर दर-ओ-दीवार-ए-ग़म-कदा जिस की बहार ये हो फिर उस की ख़िज़ाँ न पूछ नाचार बेकसी की भी हसरत उठाइए दुश्वारी-ए-रह-ओ-सितम-ए-हम-रहाँ न पूछ जुज़ दिल सुराग़-ए-दर्द ब-दिल-ख़ुफ़्तगाँ न पूछ आईना अर्ज़ कर ख़त-ओ-ख़ाल-ए-बयाँ न पूछ हिन्दोस्तान साया-ए-गुल पा-ए-तख़्त था जाह-ओ-जलाल-ए-अहद-ए-विसाल-ए-बुताँ न पूछ ग़फ़लत-मता-ए-कफ़्फ़ा-ए-मीज़ान-ए-अद्ल हूँ या रब हिसाब-ए-सख़्ती-ए-ख़्वाब-ए-गिराँ न पूछ हर दाग़-ए-ताज़ा यक-दिल-ए-दाग़ इंतिज़ार है अर्ज़-ए-फ़ज़ा-ए-सीना-ए-दर्द इम्तिहाँ न पूछ कहता था कल वो महरम-ए-राज़ अपने से कि आह दर्द-ए-जुदाइ-ए-'असद'-उल्लाह-ख़ाँ न पूछ पर्वाज़-ए-यक-तप-ए-ग़म-ए-तसख़ीर-ए-नाला है गरमी-ए-नब्ज़-ए-ख़ार-ओ-ख़स-ए-आशियाँ न पूछ तू मश्क़-ए-बाज़ कर दिल-ए-परवाना है बहार बेताबी-ए-तजल्ली-ए-आतिश-ब-जाँ न पूछ " nahiin-ki-mujh-ko-qayaamat-kaa-e-tiqaad-nahiin-mirza-ghalib-ghazals," नहीं कि मुझ को क़यामत का ए'तिक़ाद नहीं शब-ए-फ़िराक़ से रोज़-ए-जज़ा ज़ियाद नहीं कोई कहे कि शब-ए-मह में क्या बुराई है बला से आज अगर दिन को अब्र ओ बाद नहीं जो आऊँ सामने उन के तो मर्हबा न कहें जो जाऊँ वाँ से कहीं को तो ख़ैर-बाद नहीं कभी जो याद भी आता हूँ मैं तो कहते हैं कि आज बज़्म में कुछ फ़ित्ना-ओ-फ़साद नहीं अलावा ईद के मिलती है और दिन भी शराब गदा-ए-कूच-ए-मय-ख़ाना ना-मुराद नहीं जहाँ में हो ग़म-ए-शादी बहम हमें क्या काम दिया है हम को ख़ुदा ने वो दिल की शाद नहीं तुम उन के वा'दे का ज़िक्र उन से क्यूँ करो 'ग़ालिब' ये क्या कि तुम कहो और वो कहें कि याद नहीं " safaa-e-hairat-e-aaiina-hai-saamaan-e-zang-aakhir-mirza-ghalib-ghazals," सफ़ा-ए-हैरत-ए-आईना है सामान-ए-ज़ंग आख़िर तग़य्युर आब-ए-बर-जा-मांदा का पाता है रंग आख़िर न की सामान-ए-ऐश-ओ-जाह ने तदबीर वहशत की हुआ जाम-ए-ज़मुर्रद भी मुझे दाग़-ए-पलंग आख़िर ख़त-ए-नौ-ख़ेज़ नील-ए-चश्म ज़ख़्म-ए-साफ़ी-ए-आरिज़ लिया आईना ने हिर्ज़-ए-पर-ए-तूती ब-चंग आख़िर हिलाल-आसा तही रह गर कुशादन-हा-ए-दिल चाहे हुआ मह कसरत-ए-सरमाया-अंदाेज़ी से तंग आख़िर तड़प कर मर गया वो सैद-ए-बाल-अफ़्शाँ कि मुज़्तर था हुआ नासूर-ए-चश्म-ए-ताज़ियत चश्म-ए-ख़दंग आख़िर लिखी यारों की बद-मस्ती ने मयख़ाने की पामाली हुइ क़तरा-फ़िशानी-हा-ए-मय-बारान-ए-संग आख़िर 'असद' पर्दे में भी आहंग-ए-शौक़-ए-यार क़ाएम है नहीं है नग़्मे से ख़ाली ख़मीदन-हा-ए-चंग आख़िर " naved-e-amn-hai-bedaad-e-dost-jaan-ke-liye-mirza-ghalib-ghazals," नवेद-ए-अम्न है बेदाद-ए-दोस्त जाँ के लिए रही न तर्ज़-ए-सितम कोई आसमाँ के लिए बला से गर मिज़ा-ए-यार तिश्ना-ए-ख़ूँ है रखूँ कुछ अपनी भी मिज़्गान-ए-ख़ूँ फ़िशाँ के लिए वो ज़िंदा हम हैं कि हैं रू-शनास-ए-ख़ल्क़ ऐ ख़िज़्र न तुम कि चोर बने उम्र-ए-जावेदाँ के लिए रहा बला में भी मैं मुब्तला-ए-आफ़त-ए-रश्क बला-ए-जाँ है अदा तेरी इक जहाँ के लिए फ़लक न दूर रख उस से मुझे कि मैं ही नहीं दराज़-दस्ती-ए-क़ातिल के इम्तिहाँ के लिए मिसाल ये मिरी कोशिश की है कि मुर्ग़-ए-असीर करे क़फ़स में फ़राहम ख़स आशियाँ के लिए गदा समझ के वो चुप था मिरी जो शामत आई उठा और उठ के क़दम मैं ने पासबाँ के लिए ब-क़द्र-ए-शौक़ नहीं ज़र्फ़-ए-तंगना-ए-ग़ज़ल कुछ और चाहिए वुसअत मिरे बयाँ के लिए दिया है ख़ल्क़ को भी ता उसे नज़र न लगे बना है ऐश तजम्मुल हुसैन ख़ाँ के लिए ज़बाँ पे बार-ए-ख़ुदाया ये किस का नाम आया कि मेरे नुत्क़ ने बोसे मिरी ज़बाँ के लिए नसीर-ए-दौलत-ओ-दीं और मुईन-ए-मिल्लत-ओ-मुल्क बना है चर्ख़-ए-बरीं जिस के आस्ताँ के लिए ज़माना अहद में उस के है महव-ए-आराइश बनेंगे और सितारे अब आसमाँ के लिए वरक़ तमाम हुआ और मद्ह बाक़ी है सफ़ीना चाहिए इस बहर-ए-बेकराँ के लिए अदा-ए-ख़ास से 'ग़ालिब' हुआ है नुक्ता-सरा सला-ए-आम है यारान-ए-नुक्ता-दाँ के लिए " barshikaal-e-girya-e-aashiq-hai-dekhaa-chaahiye-mirza-ghalib-ghazals," बर्शिकाल-ए-गिर्या-ए-आशिक़ है देखा चाहिए खिल गई मानिंद-ए-गुल सौ जा से दीवार-ए-चमन उल्फ़त-ए-गुल से ग़लत है दावा-ए-वारस्तगी सर्व है बा-वस्फ़-ए-आज़ादी गिरफ़्तार-ए-चमन साफ़ है अज़ बस-कि अक्स-ए-गुल से गुलज़ार-ए-चमन जानशीन-ए-जौहर-ए-आईना है ख़ार-ए-चमन है नज़ाकत बस कि फ़स्ल-ए-गुल में मेमार-ए-चमन क़ालिब-ए-गुल में ढली है ख़िश्त-ए-दीवार-ए-चमन तेरी आराइश का इस्तिक़बाल करती है बहार जौहर-ए-आईना है याँ नक़्श-ए-एहज़ार-ए-चमन बस कि पाई यार की रंगीं-अदाई से शिकस्त है कुलाह-ए-नाज़-ए-गुल बर ताक़-ए-दीवार-ए-चमन वक़्त है गर बुलबुल-ए-मिस्कीं ज़ुलेख़ाई करे यूसुफ़-ए-गुल जल्वा-फ़रमा है ब-बाज़ार-ए-चमन वहशत-अफ़्ज़ा गिर्या-हा मौक़ूफ़-ए-फ़स्ल-ए-गुल 'असद' चश्म-ए-दरिया-रेज़ है मीज़ाब-ए-सरकार-ए-चमन " zulmat-kade-men-mere-shab-e-gam-kaa-josh-hai-mirza-ghalib-ghazals," ज़ुल्मत-कदे में मेरे शब-ए-ग़म का जोश है इक शम्अ है दलील-ए-सहर सो ख़मोश है ने मुज़्दा-ए-विसाल न नज़्ज़ारा-ए-जमाल मुद्दत हुई कि आश्ती-ए-चश्म-ओ-गोश है मय ने किया है हुस्न-ए-ख़ुद-आरा को बे-हिजाब ऐ शौक़! हाँ इजाज़त-ए-तस्लीम-ए-होश है गौहर को अक़्द-ए-गर्दन-ए-ख़ूबाँ में देखना क्या औज पर सितारा-ए-गौहर-फ़रोश है दीदार बादा हौसला साक़ी निगाह मस्त बज़्म-ए-ख़याल मय-कदा-ए-बे-ख़रोश है ऐ ताज़ा वारदान-ए-बिसात-ए-हवा-ए-दिल ज़िन्हार अगर तुम्हें हवस-ए-नाए-ओ-नोश है देखो मुझे जो दीदा-ए-इबरत-निगाह हो मेरी सुनो जो गोश-ए-नसीहत-नेओश है साक़ी-ब-जल्वा दुश्मन-ए-ईमान-ओ-आगही मुतरिब ब-नग़्मा रहज़न-ए-तम्कीन-ओ-होश है या शब को देखते थे कि हर गोशा-ए-बिसात दामान-ए-बाग़बान ओ कफ़-ए-गुल-फ़रोश है लुफ़्त-ए-ख़िरम-ए-साक़ी ओ ज़ौक़-ए-सदा-ए-चंग ये जन्नत-ए-निगाह वो फ़िरदौस-ए-गोश है या सुब्ह-दम जो देखिए आ कर तो बज़्म में ने वो सुरूर ओ सोज़ न जोश-ओ-ख़रोश है दाग़-ए-फ़िराक़-ए-सोहबत-ए-शब की जली हुई इक शम्अ रह गई है सो वो भी ख़मोश है आते हैं ग़ैब से ये मज़ामीं ख़याल में 'ग़ालिब' सरीर-ए-ख़ामा नवा-ए-सरोश है " husn-e-be-parvaa-khariidaar-e-mataa-e-jalva-hai-mirza-ghalib-ghazals," हुस्न-ए-बे-परवा ख़रीदार-ए-माता-ए-जल्वा है आइना ज़ानू-ए-फ़िक्र-ए-इख़्तिरा-ए-जल्वा है ता-कुजा ऐ आगही रंग-ए-तमाशा बाख़्तन चश्म-ए-वा-गर्दीदा आग़ोश-ए-विदा-ए-जल्वा है " kab-vo-suntaa-hai-kahaanii-merii-mirza-ghalib-ghazals," कब वो सुनता है कहानी मेरी और फिर वो भी ज़बानी मेरी ख़लिश-ए-ग़म्ज़ा-ए-ख़ूँ-रेज़ न पूछ देख ख़ूँनाबा-फ़िशानी मेरी क्या बयाँ कर के मिरा रोएँगे यार मगर आशुफ़्ता-बयानी मेरी हूँ ज़-ख़ुद रफ़्ता-ए-बैदा-ए-ख़याल भूल जाना है निशानी मेरी मुतक़ाबिल है मुक़ाबिल मेरा रुक गया देख रवानी मेरी क़द्र-ए-संग-ए-सर-ए-रह रखता हूँ सख़्त अर्ज़ां है गिरानी मेरी गर्द-बाद-ए-रह-ए-बेताबी हूँ सरसर-ए-शौक़ है बानी मेरी दहन उस का जो न मालूम हुआ खुल गई हेच मदानी मेरी कर दिया ज़ोफ़ ने आजिज़ 'ग़ालिब' नंग-ए-पीरी है जवानी मेरी " na-huii-gar-mire-marne-se-tasallii-na-sahii-mirza-ghalib-ghazals," न हुई गर मिरे मरने से तसल्ली न सही इम्तिहाँ और भी बाक़ी हो तो ये भी न सही ख़ार ख़ार-ए-अलम-ए-हसरत-ए-दीदार तो है शौक़ गुल-चीन-ए-गुलिस्तान-ए-तसल्ली न सही मय-परस्ताँ ख़ुम-ए-मय मुँह से लगाए ही बने एक दिन गर न हुआ बज़्म में साक़ी न सही नफ़स-ए-क़ैस कि है चश्म-ओ-चराग़-ए-सहरा गर नहीं शम-ए-सियह-ख़ाना-ए-लैली न सही एक हंगामे पे मौक़ूफ़ है घर की रौनक़ नौहा-ए-ग़म ही सही नग़्मा-ए-शादी न सही न सताइश की तमन्ना न सिले की पर्वा गर नहीं हैं मिरे अशआ'र में मा'नी न सही इशरत-ए-सोहबत-ए-ख़ूबाँ ही ग़नीमत समझो न हुई 'ग़ालिब' अगर उम्र-ए-तबीई न सही " yak-zarra-e-zamiin-nahiin-be-kaar-baag-kaa-mirza-ghalib-ghazals," यक-ज़र्रा-ए-ज़मीं नहीं बे-कार बाग़ का याँ जादा भी फ़तीला है लाले के दाग़ का बे-मय किसे है ताक़त-ए-आशोब-ए-आगही खींचा है इज्ज़-ए-हौसला ने ख़त अयाग़ का बुलबुल के कारोबार पे हैं ख़ंदा-हा-ए-गुल कहते हैं जिस को इश्क़ ख़लल है दिमाग़ का ताज़ा नहीं है नश्शा-ए-फ़िक्र-ए-सुख़न मुझे तिर्याकी-ए-क़दीम हूँ दूद-ए-चराग़ का सौ बार बंद-ए-इश्क़ से आज़ाद हम हुए पर क्या करें कि दिल ही अदू है फ़राग़ का बे-ख़ून-ए-दिल है चश्म में मौज-ए-निगह ग़ुबार ये मय-कदा ख़राब है मय के सुराग़ का बाग़-ए-शगुफ़्ता तेरा बिसात-ए-नशात-ए-दिल अब्र-ए-बहार ख़ुम-कद किस के दिमाग़ का? जोश-ए-बहार-ए-कुल्फ़त-ए-नज़्ज़ारा है 'असद' है अब्र पम्बा रौज़न-ए-दीवार-ए-बाग़ का " mujh-ko-dayaar-e-gair-men-maaraa-vatan-se-duur-mirza-ghalib-ghazals," मुझ को दयार-ए-ग़ैर में मारा वतन से दूर रख ली मिरे ख़ुदा ने मिरी बेकसी की शर्म वो हल्क़ा-हा-ए-ज़ुल्फ़ कमीं में हैं या ख़ुदा रख लीजो मेरे दावा-ए-वारस्तगी की शर्म " dil-se-tirii-nigaah-jigar-tak-utar-gaii-mirza-ghalib-ghazals," दिल से तिरी निगाह जिगर तक उतर गई दोनों को इक अदा में रज़ा-मंद कर गई शक़ हो गया है सीना ख़ुशा लज़्ज़त-ए-फ़राग़ तकलीफ़-ए-पर्दा-दारी-ए-ज़ख़्म-ए-जिगर गई वो बादा-ए-शबाना की सरमस्तियाँ कहाँ उठिए बस अब कि लज़्ज़त-ए-ख़्वाब-ए-सहर गई उड़ती फिरे है ख़ाक मिरी कू-ए-यार में बारे अब ऐ हवा हवस-ए-बाल-ओ-पर गई देखो तो दिल-फ़रेबी-ए-अंदाज़-ए-नक़्श-ए-पा मौज-ए-ख़िराम-ए-यार भी क्या गुल कतर गई हर बुल-हवस ने हुस्न-परस्ती शिआ'र की अब आबरू-ए-शेवा-ए-अहल-ए-नज़र गई नज़्ज़ारे ने भी काम किया वाँ नक़ाब का मस्ती से हर निगह तिरे रुख़ पर बिखर गई फ़र्दा ओ दी का तफ़रक़ा यक बार मिट गया कल तुम गए कि हम पे क़यामत गुज़र गई मारा ज़माने ने असदुल्लाह ख़ाँ तुम्हें वो वलवले कहाँ वो जवानी किधर गई " huii-taakhiir-to-kuchh-baais-e-taakhiir-bhii-thaa-mirza-ghalib-ghazals," हुई ताख़ीर तो कुछ बाइस-ए-ताख़ीर भी था आप आते थे मगर कोई इनाँ-गीर भी था तुम से बेजा है मुझे अपनी तबाही का गिला उस में कुछ शाइब-ए-ख़ूबी-ए-तक़दीर भी था तू मुझे भूल गया हो तो पता बतला दूँ कभी फ़ितराक में तेरे कोई नख़चीर भी था क़ैद में है तिरे वहशी को वही ज़ुल्फ़ की याद हाँ कुछ इक रंज-ए-गिराँ-बारी-ए-ज़ंजीर भी था बिजली इक कौंद गई आँखों के आगे तो क्या बात करते कि मैं लब-तिश्ना-ए-तक़रीर भी था यूसुफ़ उस को कहूँ और कुछ न कहे ख़ैर हुई गर बिगड़ बैठे तो मैं लाइक़-ए-ताज़ीर भी था देख कर ग़ैर को हो क्यूँ न कलेजा ठंडा नाला करता था वले तालिब-ए-तासीर भी था पेशे में ऐब नहीं रखिए न फ़रहाद को नाम हम ही आशुफ़्ता-सरों में वो जवाँ-मीर भी था हम थे मरने को खड़े पास न आया न सही आख़िर उस शोख़ के तरकश में कोई तीर भी था पकड़े जाते हैं फ़रिश्तों के लिखे पर ना-हक़ आदमी कोई हमारा दम-ए-तहरीर भी था रेख़्ते के तुम्हीं उस्ताद नहीं हो 'ग़ालिब' कहते हैं अगले ज़माने में कोई 'मीर' भी था " bahut-sahii-gam-e-giitii-sharaab-kam-kyaa-hai-mirza-ghalib-ghazals," बहुत सही ग़म-ए-गीती शराब कम क्या है ग़ुलाम-ए-साक़ी-ए-कौसर हूँ मुझ को ग़म क्या है तुम्हारी तर्ज़-ओ-रविश जानते हैं हम क्या है रक़ीब पर है अगर लुत्फ़ तो सितम क्या है सुख़न में ख़ामा-ए-ग़ालिब की आतिश-अफ़्शानी यक़ीं है हम को भी लेकिन अब उस में दम क्या है कटे तो शब कहें काटे तो साँप कहलावे कोई बताओ कि वो ज़ुल्फ़-ए-ख़म-ब-ख़म क्या है लिखा करे कोई अहकाम-ए-ताला-ए-मौलूद किसे ख़बर है कि वाँ जुम्बिश-ए-क़लम क्या है न हश्र-ओ-नश्र का क़ाएल न केश ओ मिल्लत का ख़ुदा के वास्ते ऐसे की फिर क़सम क्या है वो दाद-ओ-दीद गराँ-माया शर्त है हमदम वगर्ना मेहर-ए-सुलेमान-ओ-जाम-ए-जम क्या है " hai-kis-qadar-halaak-e-fareb-e-vafaa-e-gul-mirza-ghalib-ghazals," है किस क़दर हलाक-ए-फ़रेब-ए-वफ़ा-ए-गुल बुलबुल के कारोबार पे हैं ख़ंदा-हा-ए-गुल आज़ादी-ए-नसीम मुबारक कि हर तरफ़ टूटे पड़े हैं हल्क़ा-ए-दाम-ए-हवा-ए-गुल जो था सो मौज-ए-रंग के धोके में मर गया ऐ वाए नाला-ए-लब-ए-ख़ूनीं-नवा-ए-गुल ख़ुश-हाल उस हरीफ़-ए-सियह-मस्त का कि जो रखता हो मिस्ल-ए-साया-ए-गुल सर-ब-पा-ए-गुल ईजाद करती है उसे तेरे लिए बहार मेरा रक़ीब है नफ़स-ए-इत्र-सा-ए-गुल शर्मिंदा रखते हैं मुझे बाद-ए-बहार से मीना-ए-बे-शराब ओ दिल-ए-बे-हवा-ए-गुल सतवत से तेरे जल्वा-ए-हुस्न-ए-ग़ुयूर की ख़ूँ है मिरी निगाह में रंग-ए-अदा-ए-गुल तेरे ही जल्वे का है ये धोका कि आज तक बे-इख़्तियार दौड़े है गुल दर-क़फ़ा-ए-गुल 'ग़ालिब' मुझे है उस से हम-आग़ोशी आरज़ू जिस का ख़याल है गुल-ए-जेब-ए-क़बा-ए-गुल दीवानगाँ का चारा फ़रोग़-ए-बहार है है शाख़-ए-गुल में पंजा-ए-ख़ूबाँ बजाए गुल मिज़्गाँ तलक रसाई-ए-लख़्त-ए-जिगर कहाँ ऐ वाए गर निगाह न हो आश्ना-ए-गुल " ishrat-e-qatra-hai-dariyaa-men-fanaa-ho-jaanaa-mirza-ghalib-ghazals," इशरत-ए-क़तरा है दरिया में फ़ना हो जाना दर्द का हद से गुज़रना है दवा हो जाना तुझ से क़िस्मत में मिरी सूरत-ए-क़ुफ़्ल-ए-अबजद था लिखा बात के बनते ही जुदा हो जाना दिल हुआ कशमकश-ए-चारा-ए-ज़हमत में तमाम मिट गया घिसने में इस उक़दे का वा हो जाना अब जफ़ा से भी हैं महरूम हम अल्लाह अल्लाह इस क़दर दुश्मन-ए-अरबाब-ए-वफ़ा हो जाना ज़ोफ़ से गिर्या मुबद्दल ब-दम-ए-सर्द हुआ बावर आया हमें पानी का हवा हो जाना दिल से मिटना तिरी अंगुश्त-ए-हिनाई का ख़याल हो गया गोश्त से नाख़ुन का जुदा हो जाना है मुझे अब्र-ए-बहारी का बरस कर खुलना रोते रोते ग़म-ए-फ़ुर्क़त में फ़ना हो जाना गर नहीं निकहत-ए-गुल को तिरे कूचे की हवस क्यूँ है गर्द-ए-रह-ए-जौलान-ए-सबा हो जाना बख़्शे है जल्वा-ए-गुल ज़ौक़-ए-तमाशा 'ग़ालिब' चश्म को चाहिए हर रंग में वा हो जाना ता कि तुझ पर खुले एजाज़-ए-हवा-ए-सैक़ल देख बरसात में सब्ज़ आइने का हो जाना " tapish-se-merii-vaqf-e-kashmakash-har-taar-e-bistar-hai-mirza-ghalib-ghazals," तपिश से मेरी वक़्फ़-ए-कशमकश हर तार-ए-बिस्तर है मिरा सर रंज-ए-बालीं है मिरा तन बार-ए-बिस्तर है सरिश्क-ए-सर ब-सहरा दादा नूर-उल-ऐन-ए-दामन है दिल-ए-बे-दस्त-ओ-पा उफ़्तादा बर-ख़ुरदार-ए-बिस्तर है ख़ुशा इक़बाल-ए-रंजूरी अयादत को तुम आए हो फ़रोग-ए-शम-ए-बालीं फ़रोग-ए-शाम-ए-बालीँ है ब-तूफ़ाँ-गाह-ए-जोश-ए-इज़्तिराब-ए-शाम-ए-तन्हाई शुआ-ए-आफ़्ताब-ए-सुब्ह-ए-महशर तार-ए-बिस्तर है अभी आती है बू बालिश से उस की ज़ुल्फ़-ए-मुश्कीं की हमारी दीद को ख़्वाब-ए-ज़ुलेख़ा आर-ए-बिस्तर है कहूँ क्या दिल की क्या हालत है हिज्र-ए-यार में ग़ालिब कि बेताबी से हर-यक तार-ए-बिस्तर ख़ार-ए-बिस्तर है " gam-e-duniyaa-se-gar-paaii-bhii-fursat-sar-uthaane-kii-mirza-ghalib-ghazals," ग़म-ए-दुनिया से गर पाई भी फ़ुर्सत सर उठाने की फ़लक का देखना तक़रीब तेरे याद आने की खुलेगा किस तरह मज़मूँ मिरे मक्तूब का या-रब क़सम खाई है उस काफ़िर ने काग़ज़ के जलाने की लिपटना पर्नियाँ में शोला-ए-आतिश का पिन्हाँ है वले मुश्किल है हिकमत दिल में सोज़-ए-ग़म छुपाने की उन्हें मंज़ूर अपने ज़ख़्मियों का देख आना था उठे थे सैर-ए-गुल को देखना शोख़ी बहाने की हमारी सादगी थी इल्तिफ़ात-ए-नाज़ पर मरना तिरा आना न था ज़ालिम मगर तम्हीद जाने की लकद कूब-ए-हवादिस का तहम्मुल कर नहीं सकती मिरी ताक़त कि ज़ामिन थी बुतों की नाज़ उठाने की कहूँ क्या ख़ूबी-ए-औज़ा-ए-अब्ना-ए-ज़माँ 'ग़ालिब' बदी की उस ने जिस से हम ने की थी बार-हा नेकी " diyaa-hai-dil-agar-us-ko-bashar-hai-kyaa-kahiye-mirza-ghalib-ghazals," दिया है दिल अगर उस को बशर है क्या कहिए हुआ रक़ीब तो हो नामा-बर है क्या कहिए ये ज़िद कि आज न आवे और आए बिन न रहे क़ज़ा से शिकवा हमें किस क़दर है क्या कहिए रहे है यूँ गह-ओ-बे-गह कि कू-ए-दोस्त को अब अगर न कहिए कि दुश्मन का घर है क्या कहिए ज़हे करिश्मा कि यूँ दे रक्खा है हम को फ़रेब कि बिन कहे ही उन्हें सब ख़बर है क्या कहिए समझ के करते हैं बाज़ार में वो पुर्सिश-ए-हाल कि ये कहे कि सर-ए-रहगुज़र है क्या कहिए तुम्हें नहीं है सर-ए-रिश्ता-ए-वफ़ा का ख़याल हमारे हाथ में कुछ है मगर है क्या कहिए उन्हें सवाल पे ज़ोम-ए-जुनूँ है क्यूँ लड़िए हमें जवाब से क़त-ए-नज़र है क्या कहिए हसद सज़ा-ए-कमाल-ए-सुख़न है क्या कीजिए सितम बहा-ए-मता-ए-हुनर है क्या कहिए कहा है किस ने कि 'ग़ालिब' बुरा नहीं लेकिन सिवाए इस के कि आशुफ़्ता-सर है क्या कहिए " aamad-e-sailaab-e-tuufaan-e-sadaa-e-aab-hai-mirza-ghalib-ghazals," आमद-ए-सैलाब-ए-तूफ़ान-ए-सदा-ए-आब है नक़्श-ए-पा जो कान में रखता है उँगली जादा से बज़्म-ए-मय वहशत-कदा है किस की चश्म-ए-मस्त का शीशे में नब्ज़-ए-परी पिन्हाँ है मौज-ए-बादा से देखता हूँ वहशत-ए-शौक़-ए-ख़रोश-आमादा से फ़ाल-ए-रुस्वाई सरिश्क-ए-सर-ब-सहरा-दादा से दाम गर सब्ज़े में पिन्हाँ कीजिए ताऊस हो जोश-ए-नैरंग-ए-बहार अर्ज़-ए-सहरा-दादा से ख़ेमा-ए-लैला सियाह ओ ख़ाना-ए-मजनूँ ख़राब जोश-ए-वीरानी है इश्क़-ए-दाग़-ए-बैरूं-दादा से बज़्म-ए-हस्ती वो तमाशा है कि जिस को हम 'असद' देखते हैं चश्म-ए-अज़-ख़्वाब-ए-अदम-नकुशादा से " kahte-to-ho-tum-sab-ki-but-e-gaaliyaa-muu-aae-mirza-ghalib-ghazals," कहते तो हो तुम सब कि बुत-ए-ग़ालिया-मू आए यक मर्तबा घबरा के कहो कोई कि वो आए हूँ कशमकश-ए-नज़अ' में हाँ जज़्ब-ए-मोहब्बत कुछ कह न सकूँ पर वो मिरे पूछने को आए है साइक़ा ओ शो'ला ओ सीमाब का आलम आना ही समझ में मिरी आता नहीं गो आए ज़ाहिर है कि घबरा के न भागेंगे नकीरैन हाँ मुँह से मगर बादा-ए-दोशीना की बू आए जल्लाद से डरते हैं न वाइ'ज़ से झगड़ते हम समझे हुए हैं उसे जिस भेस में जो आए हाँ अहल-ए-तलब कौन सुने ताना-ए-ना-याफ़्त देखा कि वो मिलता नहीं अपने ही को खो आए अपना नहीं ये शेवा कि आराम से बैठें उस दर पे नहीं बार तो का'बे ही को हो आए की हम-नफ़सों ने असर-ए-गिर्या में तक़रीर अच्छे रहे आप इस से मगर मुझ को डुबो आए उस अंजुमन-ए-नाज़ की क्या बात है 'ग़ालिब' हम भी गए वाँ और तिरी तक़दीर को रो आए " vo-firaaq-aur-vo-visaal-kahaan-mirza-ghalib-ghazals," वो फ़िराक़ और वो विसाल कहाँ वो शब-ओ-रोज़ ओ माह-ओ-साल कहाँ फ़ुर्सत-ए-कारोबार-ए-शौक़ किसे ज़ौक़-ए-नज़्ज़ारा-ए-जमाल कहाँ दिल तो दिल वो दिमाग़ भी न रहा शोर-ए-सौदा-ए-ख़त्त-ओ-ख़ाल कहाँ थी वो इक शख़्स के तसव्वुर से अब वो रानाई-ए-ख़याल कहाँ ऐसा आसाँ नहीं लहू रोना दिल में ताक़त जिगर में हाल कहाँ हम से छूटा क़िमार-ख़ाना-ए-इश्क़ वाँ जो जावें गिरह में माल कहाँ फ़िक्र-ए-दुनिया में सर खपाता हूँ मैं कहाँ और ये वबाल कहाँ मुज़्महिल हो गए क़वा ग़ालिब वो अनासिर में ए'तिदाल कहाँ बोसे में वो मुज़ाइक़ा न करे पर मुझे ताक़त-ए-सवाल कहाँ फ़लक-ए-सिफ़्ला बे-मुहाबा है इस सितम-गर को इंफ़िआल कहाँ " rukh-e-nigaar-se-hai-soz-e-jaavidaani-e-shama-mirza-ghalib-ghazals," रुख़-ए-निगार से है सोज़-ए-जावेदानी-ए-शमअ' हुई है आतिश-ए-गुल आब-ए-ज़ि़ंदगानी-ए-शमअ' ज़बान-ए-अहल-ए-ज़बाँ में है मर्ग-ए-ख़ामोशी ये बात बज़्म में रौशन हुई ज़बानी-ए-शमअ' करे है सर्फ़ ब-ईमा-ए-शो'ला क़िस्सा तमाम ब-तर्ज़-ए-अहल-ए-फ़ना है फ़साना-ख़्वानी-ए-शमअ' ग़म उस को हसरत-ए-परवाना का है ऐ शो'ले तिरे लरज़ने से ज़ाहिर है ना-तवानी-ए-शमअ' तिरे ख़याल से रूह एहतिज़ाज़ करती है ब-जल्वा-रेज़ी-ए-बाद-ओ-ब-पर-फ़िशानी-ए-शमअ' नशात-ए-दाग़-ए-ग़म-ए-इश्क़ की बहार न पूछ शगुफ़्तगी है शहीद-ए-गुल-ए-खिज़ानी-ए-शमअ' जले है देख के बालीन-ए-यार पर मुझ को न क्यूँ हो दिल पे मिरे दाग़-ए-बद-गुमानी-ए-शमअ' " balaa-se-hain-jo-ye-pesh-e-nazar-dar-o-diivaar-mirza-ghalib-ghazals," बला से हैं जो ये पेश-ए-नज़र दर-ओ-दीवार निगाह-ए-शौक़ को हैं बाल-ओ-पर दर-ओ-दीवार वुफ़ूर-ए-अश्क ने काशाने का किया ये रंग कि हो गए मिरे दीवार-ओ-दर दर-ओ-दीवार नहीं है साया कि सुन कर नवेद-ए-मक़दम-ए-यार गए हैं चंद क़दम पेश-तर दर-ओ-दीवार हुई है किस क़दर अर्ज़ानी-ए-मय-ए-जल्वा कि मस्त है तिरे कूचे में हर दर-ओ-दीवार जो है तुझे सर-ए-सौदा-ए-इन्तिज़ार तो आ कि हैं दुकान-ए-मता-ए-नज़र दर-ओ-दीवार हुजूम-ए-गिर्या का सामान कब किया मैं ने कि गिर पड़े न मिरे पाँव पर दर-ओ-दीवार वो आ रहा मिरे हम-साए में तो साए से हुए फ़िदा दर-ओ-दीवार पर दर-ओ-दीवार नज़र में खटके है बिन तेरे घर की आबादी हमेशा रोते हैं हम देख कर दर-ओ-दीवार न पूछ बे-ख़ुदी-ए-ऐश-ए-मक़दम-ए-सैलाब कि नाचते हैं पड़े सर-ब-सर दर-ओ-दीवार न कह किसी से कि 'ग़ालिब' नहीं ज़माने में हरीफ़-ए-राज़-ए-मोहब्बत मगर दर-ओ-दीवार " hai-aarmiidagii-men-nikohish-bajaa-mujhe-mirza-ghalib-ghazals," है आरमीदगी में निकोहिश बजा मुझे सुब्ह-ए-वतन है ख़ंदा-ए-दंदाँ-नुमा मुझे ढूँडे है उस मुग़ंन्नी-ए-आतिश-नफ़स को जी जिस की सदा हो जल्वा-ए-बर्क़-ए-फ़ना मुझे मस्ताना तय करूँ हूँ रह-ए-वादी-ए-ख़याल ता बाज़-गश्त से न रहे मुद्दआ मुझे करता है बस-कि बाग़ में तू बे-हिजाबियाँ आने लगी है निकहत-ए-गुल से हया मुझे खुलता किसी पे क्यूँ मिरे दिल का मोआ'मला शे'रों के इंतिख़ाब ने रुस्वा किया मुझे वाँ रंग-हा ब-पर्दा-ए-तदबीर हैं हुनूज़ याँ शोला-ए-चराग़ है बर्ग-ए-हिना मुझे परवाज़-हा नियाज़-ए-तमाशा-ए-हुस्न-ए-दोस्त बाल-ए-कुशादा है निगह-ए-आशना मुझे अज़-खुद-गुज़श्तगी में ख़मोशी पे हर्फ़ है मौज-ए-ग़ुबार-ए-सुर्मा हुई है सदा मुझे ता चंद पस्त फ़ितरती-ए-तब-ए-आरज़ू या रब मिले बुलंदी-ए-दस्त-ए-दुआ मुझे मैं ने जुनूँ से की जो 'असद' इल्तिमास-ए-रंग ख़ून-ए-जिगर में एक ही ग़ोता दिया मुझे है पेचताब रिश्ता-ए-शम-ए-सहर-गही ख़जलत गुदाज़ी-ए-नफ़स-ए-ना-रसा मुझे याँ आब-ओ-दाना मौसम-ए-गुल में हराम है ज़ुन्नार-ए-वा-गुसिस्ता है मौज-ए-सबा मुझे यकबार इम्तिहान-ए-हवस भी ज़रूर है ऐ जोश-ए-इश्क़ बादा-ए-मर्द-आज़मा मुझे " husn-gamze-kii-kashaakash-se-chhutaa-mere-baad-mirza-ghalib-ghazals," हुस्न ग़म्ज़े की कशाकश से छुटा मेरे बा'द बारे आराम से हैं अहल-ए-जफ़ा मेरे बा'द मंसब-ए-शेफ़्तगी के कोई क़ाबिल न रहा हुई माज़ूली-ए-अंदाज़-ओ-अदा मेरे बा'द शम्अ' बुझती है तो उस में से धुआँ उठता है शो'ला-ए-इश्क़ सियह-पोश हुआ मेरे बा'द ख़ूँ है दिल ख़ाक में अहवाल-ए-बुताँ पर या'नी उन के नाख़ुन हुए मुहताज-ए-हिना मेरे बा'द दर-ख़ुर-ए-अर्ज़ नहीं जौहर-ए-बेदाद को जा निगह-ए-नाज़ है सुरमे से ख़फ़ा मेरे बा'द है जुनूँ अहल-ए-जुनूँ के लिए आग़ोश-ए-विदा'अ चाक होता है गरेबाँ से जुदा मेरे बा'द कौन होता है हरीफ़-ए-मय-ए-मर्द-अफ़गन-ए-इश्क़ है मुकर्रर लब-ए-साक़ी पे सला मेरे बा'द ग़म से मरता हूँ कि इतना नहीं दुनिया में कोई कि करे ताज़ियत-ए-मेहर-ओ-वफ़ा मेरे बा'द आए है बेकसी-ए-इश्क़ पे रोना 'ग़ालिब' किस के घर जाएगा सैलाब-ए-बला मेरे बा'द थी निगह मेरी निहाँ-ख़ाना-ए-दिल की नक़्क़ाब बे-ख़तर जीते हैं अरबाब-ए-रिया मेरे बा'द था मैं गुलदस्ता-ए-अहबाब की बंदिश की गियाह मुतफ़र्रिक़ हुए मेरे रुफ़क़ा मेरे बा'द " dekhnaa-qismat-ki-aap-apne-pe-rashk-aa-jaae-hai-mirza-ghalib-ghazals," देखना क़िस्मत कि आप अपने पे रश्क आ जाए है मैं उसे देखूँ भला कब मुझ से देखा जाए है हाथ धो दिल से यही गर्मी गर अंदेशे में है आबगीना तुन्दि-ए-सहबा से पिघला जाए है ग़ैर को या रब वो क्यूँकर मन-ए-गुस्ताख़ी करे गर हया भी उस को आती है तो शरमा जाए है शौक़ को ये लत कि हर दम नाला खींचे जाइए दिल की वो हालत कि दम लेने से घबरा जाए है दूर चश्म-ए-बद तिरी बज़्म-ए-तरब से वाह वाह नग़्मा हो जाता है वाँ गर नाला मेरा जाए है गरचे है तर्ज़-ए-तग़ाफ़ुल पर्दा-दार-ए-राज़-ए-इश्क़ पर हम ऐसे खोए जाते हैं कि वो पा जाए है उस की बज़्म-आराइयाँ सुन कर दिल-ए-रंजूर याँ मिस्ल-ए-नक़्श-ए-मुद्दआ-ए-ग़ैर बैठा जाए है हो के आशिक़ वो परी-रुख़ और नाज़ुक बन गया रंग खुलता जाए है जितना कि उड़ता जाए है नक़्श को उस के मुसव्विर पर भी क्या क्या नाज़ हैं खींचता है जिस क़दर उतना ही खिंचता जाए है साया मेरा मुझ से मिस्ल-ए-दूद भागे है 'असद' पास मुझ आतिश-ब-जाँ के किस से ठहरा जाए है " guncha-e-naa-shagufta-ko-duur-se-mat-dikhaa-ki-yuun-mirza-ghalib-ghazals," ग़ुंचा-ए-ना-शगुफ़्ता को दूर से मत दिखा कि यूँ बोसे को पूछता हूँ मैं मुँह से मुझे बता कि यूँ पुर्सिश-ए-तर्ज़-ए-दिलबरी कीजिए क्या कि बिन कहे उस के हर एक इशारे से निकले है ये अदा कि यूँ रात के वक़्त मय पिए साथ रक़ीब को लिए आए वो याँ ख़ुदा करे पर न करे ख़ुदा कि यूँ ग़ैर से रात क्या बनी ये जो कहा तो देखिए सामने आन बैठना और ये देखना कि यूँ बज़्म में उस के रू-ब-रू क्यूँ न ख़मोश बैठिए उस की तो ख़ामुशी में भी है यही मुद्दआ कि यूँ मैं ने कहा कि बज़्म-ए-नाज़ चाहिए ग़ैर से तही सुन के सितम-ज़रीफ़ ने मुझ को उठा दिया कि यूँ मुझ से कहा जो यार ने जाते हैं होश किस तरह देख के मेरी बे-ख़ुदी चलने लगी हवा कि यूँ कब मुझे कू-ए-यार में रहने की वज़्अ याद थी आइना-दार बन गई हैरत-ए-नक़्श-ए-पा कि यूँ गर तिरे दिल में हो ख़याल वस्ल में शौक़ का ज़वाल मौज मुहीत-ए-आब में मारे है दस्त-ओ-पा कि यूँ जो ये कहे कि रेख़्ता क्यूँके हो रश्क-ए-फ़ारसी गुफ़्ता-ए-'ग़ालिब' एक बार पढ़ के उसे सुना कि यूँ " z-bas-ki-mashq-e-tamaashaa-junuun-alaamat-hai-mirza-ghalib-ghazals," ज़-बस-कि मश्क़-ए-तमाशा जुनूँ-अलामत है कुशाद-ओ-बस्त-ए-मिज़्हा सीली-ए-नदामत है न जानूँ क्यूँकि मिटे दाग़-ए-तान-ए-बद-अहदी तुझे कि आइना भी वार्ता-ए-मलामत है ब-पेच-ओ-ताब-ए-हवस सिल्क-ए-आफ़ियत मत तोड़ निगाह-ए-अज्ज़ सर-ए-रिश्ता-ए-सलामत है वफ़ा मुक़ाबिल-ओ-दावा-ए-इश्क़ बे-बुनियाद जुनूँ-ए-साख़्ता ओ फ़स्ल-ए-गुल क़यामत है " ajab-nashaat-se-jallaad-ke-chale-hain-ham-aage-mirza-ghalib-ghazals," अजब नशात से जल्लाद के चले हैं हम आगे कि अपने साए से सर पाँव से है दो क़दम आगे क़ज़ा ने था मुझे चाहा ख़राब-ए-बादा-ए-उल्फ़त फ़क़त ख़राब लिखा बस न चल सका क़लम आगे ग़म-ए-ज़माना ने झाड़ी नशात-ए-इश्क़ की मस्ती वगरना हम भी उठाते थे अज़्ज़त-ए-अलम आगे ख़ुदा के वास्ते दाद उस जुनून-ए-शौक़ की देना कि उस के दर पे पहुँचते हैं नामा-बर से हम आगे ये उम्र भर जो परेशानियाँ उठाई हैं हम ने तुम्हारे अइयो ऐ तुर्रह-हा-ए-ख़म-ब-ख़म आगे दिल ओ जिगर में पुर-अफ़्शा जो एक मौजा-ए-ख़ूँ है हम अपने ज़ोम में समझे हुए थे उस को दम आगे क़सम जनाज़े पे आने की मेरे खाते हैं 'ग़ालिब' हमेशा खाते थे जो मेरी जान की क़सम आगे " mat-mardumak-e-diida-men-samjho-ye-nigaahen-mirza-ghalib-ghazals," मत मर्दुमक-ए-दीदा में समझो ये निगाहें हैं जम्अ सुवैदा-ए-दिल-ए-चश्म में आहें किस दिल पे है अज़्म-ए-सफ़-ए-मिज़्गान-ए-ख़ुद-आरा आईने के पायाब से उतरी हैं सिपाहें दैर-ओ-हरम आईना-ए-तकरार-ए-तमन्ना वामांदगी-ए-शौक़ तराशे है पनाहें जूँ मर्दुमक-ए-चश्म से हों जम्अ' निगाहें ख़्वाबीदा ब-हैरत-कदा-ए-दाग़ हैं आहें फिर हल्क़ा-ए-काकुल में पड़ीं दीद की राहें जूँ दूद फ़राहम हुईं रौज़न में निगाहें पाया सर-ए-हर-ज़र्रा जिगर-गोशा-ए-वहशत हैं दाग़ से मामूर शक़ाइक़ की कुलाहें ये मतला 'असद' जौहर-ए-अफ़्सून-ए-सुख़न हो गर अर्ज़-ए-तपाक-ए-जिगर-ए-सोख़्ता चाहें हैरत-कश-ए-यक-जल्वा-ए-मअनी हैं निगाहें खींचूँ हूँ सुवैदा-ए-दिल-ए-चश्म से आहें " hasad-se-dil-agar-afsurda-hai-garm-e-tamaashaa-ho-mirza-ghalib-ghazals," हसद से दिल अगर अफ़्सुर्दा है गर्म-ए-तमाशा हो कि चश्म-ए-तंग शायद कसरत-ए-नज़्ज़ारा से वा हो ब-क़द्र-ए-हसरत-ए-दिल चाहिए ज़ौक़-ए-मआसी भी भरूँ यक-गोशा-ए-दामन गर आब-ए-हफ़्त-दरिया हो अगर वो सर्व-क़द गर्म-ए-ख़िराम-ए-नाज़ आ जावे कफ़-ए-हर-ख़ाक-ए-गुलशन शक्ल-ए-क़ुमरी नाला-फ़र्सा हो बहम बालीदन-ए-संग-ओ-गुल-ए-सहरा ये चाहे है कि तार-ए-जादा भी कोहसार को ज़ुन्नार-ए-मीना हो हरीफ़-ए-वहशत-ए-नाज़-ए-नसीम-ए-इश्क़ जब आऊँ कि मिस्ल-ए-ग़ुंचा साज़-ए-यक-गुलिस्ताँ दिल मुहय्या हो बजाए दाना ख़िर्मन यक-बयाबाँ बैज़ा-ए-कुमरी मिरा हासिल वो नुस्ख़ा है कि जिस से ख़ाक पैदा हो करे क्या साज़-ए-बीनिश वो शहीद-ए-दर्द-आगाही जिसे मू-ए-दिमाग़-ए-बे-ख़ुदी ख़्वाब-ए-ज़ुलेख़ा हो दिल-ए-जूँ-शम्अ' बहर-ए-दावत-ए-नज़्ज़ारा लायानी निगह लबरेज़-ए-अश्क ओ सीना मामूर-ए-तमन्ना हो न देखें रू-ए-यक-दिल सर्द ग़ैर-अज़ शम-ए-काफ़ूरी ख़ुदाया इस क़दर बज़्म-ए-'असद' गर्म-ए-तमाशा हो " nukta-chiin-hai-gam-e-dil-us-ko-sunaae-na-bane-mirza-ghalib-ghazals," नुक्ता-चीं है ग़म-ए-दिल उस को सुनाए न बने क्या बने बात जहाँ बात बनाए न बने मैं बुलाता तो हूँ उस को मगर ऐ जज़्बा-ए-दिल उस पे बन जाए कुछ ऐसी कि बिन आए न बने खेल समझा है कहीं छोड़ न दे भूल न जाए काश यूँ भी हो कि बिन मेरे सताए न बने ग़ैर फिरता है लिए यूँ तिरे ख़त को कि अगर कोई पूछे कि ये क्या है तो छुपाए न बने इस नज़ाकत का बुरा हो वो भले हैं तो क्या हाथ आवें तो उन्हें हाथ लगाए न बने कह सके कौन कि ये जल्वागरी किस की है पर्दा छोड़ा है वो उस ने कि उठाए न बने मौत की राह न देखूँ कि बिन आए न रहे तुम को चाहूँ कि न आओ तो बुलाए न बने बोझ वो सर से गिरा है कि उठाए न उठे काम वो आन पड़ा है कि बनाए न बने इश्क़ पर ज़ोर नहीं है ये वो आतिश 'ग़ालिब' कि लगाए न लगे और बुझाए न बने " ho-gaii-hai-gair-kii-shiiriin-bayaanii-kaargar-mirza-ghalib-ghazals," हो गई है ग़ैर की शीरीं-बयानी कारगर इश्क़ का उस को गुमाँ हम बे-ज़बानों पर नहीं ज़ब्त से मतलब ब-जुज़ वारस्तगी दीगर नहीं दामन-ए-तिमसाल आब-ए-आइना से तर नहीं बाइस-ए-ईज़ा है बरहम-ख़ुर्दन-ए-बज़्म-ए-सुरूर लख़्त लख़्त-ए-शीशा-ए-ब-शिकास्ता जुज़ निश्तर नहीं दिल को इज़्हार-ए-सुख़न अंदाज़-ए-फ़तह-उल-बाब है याँ सरीर-ए-ख़ामा ग़ैर-अज़-इस्तिकाक-ए-दर नहीं " gila-hai-shauq-ko-dil-men-bhii-tangi-e-jaa-kaa-mirza-ghalib-ghazals," गिला है शौक़ को दिल में भी तंगी-ए-जा का गुहर में महव हुआ इज़्तिराब दरिया का ये जानता हूँ कि तू और पासुख़-ए-मकतूब मगर सितम-ज़दा हूँ ज़ौक़-ए-ख़ामा-फ़रसा का हिना-ए-पा-ए-ख़िज़ाँ है बहार अगर है यही दवाम-ए-कुल्फ़त-ए-ख़ातिर है ऐश दुनिया का ग़म-ए-फ़िराक़ में तकलीफ़-ए-सैर-ए-बाग़ न दो मुझे दिमाग़ नहीं ख़ंदा-हा-ए-बेजा का हनूज़ महरमी-ए-हुस्न को तरसता हूँ करे है हर-बुन-ए-मू काम चश्म-ए-बीना का दिल उस को पहले ही नाज़-ओ-अदा से दे बैठे हमें दिमाग़ कहाँ हुस्न के तक़ाज़ा का न कह कि गिर्या ब-मिक़दार-ए-हसरत-ए-दिल है मिरी निगाह में है जम-ओ-ख़र्च दरिया का फ़लक को देख के करता हूँ उस को याद 'असद' जफ़ा में उस की है अंदाज़ कार-फ़रमा का मिरा शुमूल हर इक दिल के पेच-ओ-ताब में है मैं मुद्दआ हूँ तपिश-नामा-ए-तमन्ना का मिली न वुसअ'त-ए-जौलान यक जुनूँ हम को अदम को ले गए दिल में ग़ुबार सहरा का " ghar-jab-banaa-liyaa-tire-dar-par-kahe-bagair-mirza-ghalib-ghazals," घर जब बना लिया तिरे दर पर कहे बग़ैर जानेगा अब भी तू न मिरा घर कहे बग़ैर कहते हैं जब रही न मुझे ताक़त-ए-सुख़न जानूँ किसी के दिल की मैं क्यूँकर कहे बग़ैर काम उस से आ पड़ा है कि जिस का जहान में लेवे न कोई नाम सितमगर कहे बग़ैर जी में ही कुछ नहीं है हमारे वगरना हम सर जाए या रहे न रहें पर कहे बग़ैर छोड़ूँगा मैं न उस बुत-ए-काफ़िर का पूजना छोड़े न ख़ल्क़ गो मुझे काफ़र कहे बग़ैर मक़्सद है नाज़-ओ-ग़म्ज़ा वले गुफ़्तुगू में काम चलता नहीं है दशना-ओ-ख़ंजर कहे बग़ैर हर चंद हो मुशाहिदा-ए-हक़ की गुफ़्तुगू बनती नहीं है बादा-ओ-साग़र कहे बग़ैर बहरा हूँ मैं तो चाहिए दूना हो इल्तिफ़ात सुनता नहीं हूँ बात मुकर्रर कहे बग़ैर 'ग़ालिब' न कर हुज़ूर में तू बार बार अर्ज़ ज़ाहिर है तेरा हाल सब उन पर कहे बग़ैर " kabhii-nekii-bhii-us-ke-jii-men-gar-aa-jaae-hai-mujh-se-mirza-ghalib-ghazals," कभी नेकी भी उस के जी में गर आ जाए है मुझ से जफ़ाएँ कर के अपनी याद शरमा जाए है मुझ से ख़ुदाया जज़्बा-ए-दिल की मगर तासीर उल्टी है कि जितना खींचता हूँ और खिंचता जाए है मुझ से वो बद-ख़ू और मेरी दास्तान-ए-इश्क़ तूलानी इबारत मुख़्तसर क़ासिद भी घबरा जाए है मुझ से उधर वो बद-गुमानी है इधर ये ना-तवानी है न पूछा जाए है उस से न बोला जाए है मुझ से सँभलने दे मुझे ऐ ना-उम्मीदी क्या क़यामत है कि दामान-ए-ख़याल-ए-यार छूटा जाए है मुझ से तकल्लुफ़ बरतरफ़ नज़्ज़ारगी में भी सही लेकिन वो देखा जाए कब ये ज़ुल्म देखा जाए है मुझ से हुए हैं पाँव ही पहले नबर्द-ए-इश्क़ में ज़ख़्मी न भागा जाए है मुझ से न ठहरा जाए है मुझ से क़यामत है कि होवे मुद्दई का हम-सफ़र 'ग़ालिब' वो काफ़िर जो ख़ुदा को भी न सौंपा जाए है मुझ से " sitam-kash-maslahat-se-huun-ki-khuubaan-tujh-pe-aashiq-hain-mirza-ghalib-ghazals," सितम-कश मस्लहत से हूँ कि ख़ूबाँ तुझ पे आशिक़ हैं तकल्लुफ़ बरतरफ़ मिल जाएगा तुझ सा रक़ीब आख़िर " nashsha-haa-shaadaab-e-rang-o-saaz-haa-mast-e-tarab-mirza-ghalib-ghazals," नश्शा-हा शादाब-ए-रंग ओ साज़-हा मस्त-ए-तरब शीशा-ए-मय सर्व-ए-सब्ज़-ए-जू-ए-बार-ए-नग़्मा है हम-नशीं मत कह कि बरहम कर न बज़्म-ए-ऐश-ए-दोस्त वाँ तो मेरे नाले को भी ए'तिबार-ए-नग़्मा है " kahuun-jo-haal-to-kahte-ho-muddaaa-kahiye-mirza-ghalib-ghazals," कहूँ जो हाल तो कहते हो मुद्दआ' कहिए तुम्हीं कहो कि जो तुम यूँ कहो तो क्या कहिए न कहियो ता'न से फिर तुम कि हम सितमगर हैं मुझे तो ख़ू है कि जो कुछ कहो बजा कहिए वो नेश्तर सही पर दिल में जब उतर जावे निगाह-ए-नाज़ को फिर क्यूँ न आश्ना कहिए नहीं ज़रीया-ए-राहत जराहत-ए-पैकाँ वो ज़ख़्म-ए-तेग़ है जिस को कि दिल-कुशा कहिए जो मुद्दई' बने उस के न मुद्दई' बनिए जो ना-सज़ा कहे उस को न ना-सज़ा कहिए कहीं हक़ीक़त-ए-जाँ-काही-ए-मरज़ लिखिए कहीं मुसीबत-ए-ना-साज़ी-ए-दवा कहिए कभी शिकायत-ए-रंज-ए-गिराँ-नशीं कीजे कभी हिकायत-ए-सब्र-ए-गुरेज़-पा कहिए रहे न जान तो क़ातिल को ख़ूँ-बहा दीजे कटे ज़बान तो ख़ंजर को मर्हबा कहिए नहीं निगार को उल्फ़त न हो निगार तो है रवानी-ए-रविश ओ मस्ती-ए-अदा कहिए नहीं बहार को फ़ुर्सत न हो बहार तो है तरावत-ए-चमन ओ ख़ूबी-ए-हवा कहिए सफ़ीना जब कि किनारे पे आ लगा 'ग़ालिब' ख़ुदा से क्या सितम-ओ-जौर-ए-ना-ख़ुदा कहिए " hazaaron-khvaahishen-aisii-ki-har-khvaahish-pe-dam-nikle-mirza-ghalib-ghazals," हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पे दम निकले बहुत निकले मिरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले डरे क्यूँ मेरा क़ातिल क्या रहेगा उस की गर्दन पर वो ख़ूँ जो चश्म-ए-तर से उम्र भर यूँ दम-ब-दम निकले निकलना ख़ुल्द से आदम का सुनते आए हैं लेकिन बहुत बे-आबरू हो कर तिरे कूचे से हम निकले भरम खुल जाए ज़ालिम तेरे क़ामत की दराज़ी का अगर इस तुर्रा-ए-पुर-पेच-ओ-ख़म का पेच-ओ-ख़म निकले मगर लिखवाए कोई उस को ख़त तो हम से लिखवाए हुई सुब्ह और घर से कान पर रख कर क़लम निकले हुई इस दौर में मंसूब मुझ से बादा-आशामी फिर आया वो ज़माना जो जहाँ में जाम-ए-जम निकले हुई जिन से तवक़्क़ो' ख़स्तगी की दाद पाने की वो हम से भी ज़ियादा ख़स्ता-ए-तेग़-ए-सितम निकले मोहब्बत में नहीं है फ़र्क़ जीने और मरने का उसी को देख कर जीते हैं जिस काफ़िर पे दम निकले कहाँ मय-ख़ाने का दरवाज़ा 'ग़ालिब' और कहाँ वाइ'ज़ पर इतना जानते हैं कल वो जाता था कि हम निकले " lab-e-iisaa-kii-jumbish-kartii-hai-gahvaara-jambaanii-mirza-ghalib-ghazals," लब-ए-ईसा की जुम्बिश करती है गहवारा-जुम्बानी क़यामत कुश्त-ए-लाल-ए-बुताँ का ख़्वाब-ए-संगीं है बयाबान-ए-फ़ना है बाद-ए-सहरा-ए-तलब 'ग़ालिब' पसीना तौसन-ए-हिम्मत तो सैल-ए-ख़ाना-ए-जीं है " koh-ke-hon-baar-e-khaatir-gar-sadaa-ho-jaaiye-mirza-ghalib-ghazals," कोह के हों बार-ए-ख़ातिर गर सदा हो जाइए बे-तकल्लुफ़ ऐ शरार-ए-जस्ता क्या हो जाइए बैज़ा-आसा नंग-ए-बाल-ओ-पर है ये कुंज-ए-क़फ़स अज़-सर-ए-नौ ज़िंदगी हो गर रिहा हो जाइए वुसअत-ए-मशरब नियाज़-ए-कुल्फ़त-ए-वहशत 'असद' यक-बयाबाँ साया-ए-बाल-ए-हुमा हो जाइए " dhotaa-huun-jab-main-piine-ko-us-siim-tan-ke-paanv-mirza-ghalib-ghazals," धोता हूँ जब मैं पीने को उस सीम-तन के पाँव रखता है ज़िद से खींच के बाहर लगन के पाँव दी सादगी से जान पड़ूँ कोहकन के पाँव हैहात क्यूँ न टूट गए पीर-ज़न के पाँव भागे थे हम बहुत सो उसी की सज़ा है ये हो कर असीर दाबते हैं राहज़न के पाँव मरहम की जुस्तुजू में फिरा हूँ जो दूर दूर तन से सिवा फ़िगार हैं इस ख़स्ता-तन के पाँव अल्लाह-रे ज़ौक़-ए-दश्त-नवर्दी कि बा'द-ए-मर्ग हिलते हैं ख़ुद-ब-ख़ुद मिरे अंदर कफ़न के पाँव है जोश-ए-गुल बहार में याँ तक कि हर तरफ़ उड़ते हुए उलझते हैं मुर्ग़-ए-चमन के पाँव शब को किसी के ख़्वाब में आया न हो कहीं दुखते हैं आज उस बुत-ए-नाज़ुक-बदन के पाँव 'ग़ालिब' मिरे कलाम में क्यूँकर मज़ा न हो पीता हूँ धोके ख़ुसरव-ए-शीरीं-सुख़न के पाँव " chashm-e-khuubaan-khaamushii-men-bhii-navaa-pardaaz-hai-mirza-ghalib-ghazals," चश्म-ए-ख़ूबाँ ख़ामुशी में भी नवा-पर्दाज़ है सुर्मा तो कहवे कि दूद-ए-शो'ला-ए-आवाज़ है पैकर-ए-उश्शाक़ साज़-ए-ताला-ए-ना-साज़ है नाला गोया गर्दिश-ए-सैय्यारा की आवाज़ है दस्त-गाह-ए-दीदा-ए-खूँ-बार-ए-मजनूँ देखना यक-बयाबाँ जल्वा-ए-गुल फ़र्श-ए-पा-अंदाज़ है चश्म-ए-ख़ूबाँ मै-फ़रोश-ए-नश्शा-ज़ार-ए-नाज़ है सुर्मा गोया मौज-ए-दूद-ए-शोला-ए-आवाज़ है है सरीर-ए-ख़ामा रेज़िश-हा-ए-इस्तिक़्बाल-ए-नाज़ नामा ख़ुद पैग़ाम को बाल-ओ-पर-ए-परवाज़ है सर-नाविश्त-ए-इज़्तिराब-अंजामी-ए-उल्फ़त न पूछ नाल-ए-ख़ामा ख़ार-ख़ार-ए-ख़ातिर-ए-आगाज़ है शोख़ी-ए-इज़्हार ग़ैर-अज़-वहशत-ए-मजनूँ नहीं लैला-ए-मानी 'असद' महमिल-नशीन-ए-राज़ है नग़्मा है कानों में उस के नाला-ए-मुर्ग़-ए-असीर रिश्ता-ए-पा याँ नवा-सामान-ए-बंद-ए-साज़ है शर्म है तर्ज़-ए-तलाश-ए-इंतिख़ाब-ए-यक-निगाह इज़्तिराब-ए-चश्म बरपा दोख़्ता-ग़म्माज़ है " qafas-men-huun-gar-achchhaa-bhii-na-jaanen-mere-shevan-ko-mirza-ghalib-ghazals," क़फ़स में हूँ गर अच्छा भी न जानें मेरे शेवन को मिरा होना बुरा क्या है नवा-संजान-ए-गुलशन को नहीं गर हमदमी आसाँ न हो ये रश्क क्या कम है न दी होती ख़ुदाया आरज़ू-ए-दोस्त दुश्मन को न निकला आँख से तेरी इक आँसू उस जराहत पर किया सीने में जिस ने ख़ूँ-चकाँ मिज़्गान-ए-सोज़न को ख़ुदा शरमाए हाथों को कि रखते हैं कशाकश में कभी मेरे गरेबाँ को कभी जानाँ के दामन को अभी हम क़त्ल-गह का देखना आसाँ समझते हैं नहीं देखा शनावर जू-ए-ख़ूँ में तेरे तौसन को हुआ चर्चा जो मेरे पाँव की ज़ंजीर बनने का किया बेताब काँ में जुम्बिश-ए-जौहर ने आहन को ख़ुशी क्या खेत पर मेरे अगर सौ बार अब्र आवे समझता हूँ कि ढूँडे है अभी से बर्क़ ख़िर्मन को वफ़ा-दारी ब-शर्त-ए-उस्तुवारी अस्ल ईमाँ है मरे बुत-ख़ाने में तो का'बे में गाड़ो बरहमन को शहादत थी मिरी क़िस्मत में जो दी थी ये ख़ू मुझ को जहाँ तलवार को देखा झुका देता था गर्दन को न लुटता दिन को तो कब रात को यूँ बे-ख़बर सोता! रहा खटका न चोरी का दुआ देता हूँ रहज़न को सुख़न क्या कह नहीं सकते कि जूया हूँ जवाहिर के जिगर क्या हम नहीं रखते कि खोदें जा के मादन को मिरे शाह-ए-सुलैमाँ-जाह से निस्बत नहीं 'ग़ालिब' फ़रीदून ओ जम ओ के ख़ुसरव ओ दाराब ओ बहमन को " huun-main-bhii-tamaashaai-e-nairang-e-tamannaa-mirza-ghalib-ghazals," हूँ मैं भी तमाशाई-ए-नैरंग-ए-तमन्ना मतलब नहीं कुछ इस से कि मतलब ही बर आवे " qayaamat-hai-ki-sun-lailaa-kaa-dasht-e-qais-men-aanaa-mirza-ghalib-ghazals," क़यामत है कि सुन लैला का दश्त-ए-क़ैस में आना तअ'ज्जुब से वो बोला यूँ भी होता है ज़माने में दिल-ए-नाज़ुक पे उस के रहम आता है मुझे 'ग़ालिब' न कर सरगर्म उस काफ़िर को उल्फ़त आज़माने में " mehrbaan-ho-ke-bulaa-lo-mujhe-chaaho-jis-vaqt-mirza-ghalib-ghazals," मेहरबाँ हो के बुला लो मुझे चाहो जिस वक़्त मैं गया वक़्त नहीं हूँ कि फिर आ भी न सकूँ ज़ोफ़ में ताना-ए-अग़्यार का शिकवा क्या है बात कुछ सर तो नहीं है कि उठा भी न सकूँ ज़हर मिलता ही नहीं मुझ को सितमगर वर्ना क्या क़सम है तिरे मिलने की कि खा भी न सकूँ इस क़दर ज़ब्त कहाँ है कभी आ भी न सकूँ सितम इतना तो न कीजे कि उठा भी न सकूँ लग गई आग अगर घर को तो अंदेशा क्या शो'ला-ए-दिल तो नहीं है कि बुझा भी न सकूँ तुम न आओगे तो मरने की हैं सौ तदबीरें मौत कुछ तुम तो नहीं हो कि बुला भी न सकूँ हँस के बुलवाइए मिट जाएगा सब दिल का गिला क्या तसव्वुर है तुम्हारा कि मिटा भी न सकूँ " zindagii-apnii-jab-is-shakl-se-guzrii-gaalib-mirza-ghalib-ghazals," ज़िंदगी अपनी जब इस शक्ल से गुज़री 'ग़ालिब' हम भी क्या याद करेंगे कि ख़ुदा रखते थे " phir-kuchh-ik-dil-ko-be-qaraarii-hai-mirza-ghalib-ghazals," फिर कुछ इक दिल को बे-क़रारी है सीना जुया-ए-ज़ख़्म-ए-कारी है फिर जिगर खोदने लगा नाख़ुन आमद-ए-फ़स्ल-ए-लाला-कारी है क़िब्ला-ए-मक़्सद-ए-निगाह-ए-नियाज़ फिर वही पर्दा-ए-अमारी है चश्म दल्लाल-ए-जिंस-ए-रुस्वाई दिल ख़रीदार-ए-ज़ौक़-ए-ख़्वारी है वही सद-रंग नाला-फ़रसाई वही सद-गोना अश्क-बारी है दिल हवा-ए-ख़िराम-ए-नाज़ से फिर महशरिस्तान-ए-सितान-ए-बेक़रारी है जल्वा फिर अर्ज़-ए-नाज़ करता है रोज़ बाज़ार-ए-जाँ-सिपारी है फिर उसी बेवफ़ा पे मरते हैं फिर वही ज़िंदगी हमारी है फिर खुला है दर-ए-अदालत-ए-नाज़ गर्म-बाज़ार-ए-फ़ौजदारी है हो रहा है जहान में अंधेर ज़ुल्फ़ की फिर सिरिश्ता-दारी है फिर दिया पारा-ए-जिगर ने सवाल एक फ़रियाद ओ आह-ओ-ज़ारी है फिर हुए हैं गवाह-ए-इश्क़ तलब अश्क-बारी का हुक्म-जारी है दिल ओ मिज़्गाँ का जो मुक़द्दमा था आज फिर उस की रू-बकारी है बे-ख़ुदी बे-सबब नहीं 'ग़ालिब' कुछ तो है जिस की पर्दा-दारी है " mastii-ba-zauq-e-gaflat-e-saaqii-halaak-hai-mirza-ghalib-ghazals," मस्ती ब-ज़ौक़-ए-ग़फ़लत-ए-साक़ी हलाक है मौज-ए-शराब यक-मिज़ा-ए-ख़्वाब-नाक है जुज़ ज़ख्म-ए-तेग़-ए-नाज़ नहीं दिल में आरज़ू जेब-ए-ख़याल भी तिरे हाथों से चाक है जोश-ए-जुनूँ से कुछ नज़र आता नहीं 'असद' सहरा हमारी आँख में यक-मुश्त-ए-ख़ाक है " na-thaa-kuchh-to-khudaa-thaa-kuchh-na-hotaa-to-khudaa-hotaa-mirza-ghalib-ghazals," न था कुछ तो ख़ुदा था कुछ न होता तो ख़ुदा होता डुबोया मुझ को होने ने न होता मैं तो क्या होता हुआ जब ग़म से यूँ बे-हिस तो ग़म क्या सर के कटने का न होता गर जुदा तन से तो ज़ानू पर धरा होता हुई मुद्दत कि 'ग़ालिब' मर गया पर याद आता है वो हर इक बात पर कहना कि यूँ होता तो क्या होता " dil-hii-to-hai-na-sang-o-khisht-dard-se-bhar-na-aae-kyuun-mirza-ghalib-ghazals," दिल ही तो है न संग-ओ-ख़िश्त दर्द से भर न आए क्यूँ रोएँगे हम हज़ार बार कोई हमें सताए क्यूँ दैर नहीं हरम नहीं दर नहीं आस्ताँ नहीं बैठे हैं रहगुज़र पे हम ग़ैर हमें उठाए क्यूँ जब वो जमाल-ए-दिल-फ़रोज़ सूरत-ए-मेहर-ए-नीमरोज़ आप ही हो नज़्ज़ारा-सोज़ पर्दे में मुँह छुपाए क्यूँ दश्ना-ए-ग़म्ज़ा जाँ-सिताँ नावक-ए-नाज़ बे-पनाह तेरा ही अक्स-ए-रुख़ सही सामने तेरे आए क्यूँ क़ैद-ए-हयात ओ बंद-ए-ग़म अस्ल में दोनों एक हैं मौत से पहले आदमी ग़म से नजात पाए क्यूँ हुस्न और उस पे हुस्न-ए-ज़न रह गई बुल-हवस की शर्म अपने पे ए'तिमाद है ग़ैर को आज़माए क्यूँ वाँ वो ग़ुरूर-ए-इज्ज़-ओ-नाज़ याँ ये हिजाब-ए-पास-ए-वज़अ राह में हम मिलें कहाँ बज़्म में वो बुलाए क्यूँ हाँ वो नहीं ख़ुदा-परस्त जाओ वो बेवफ़ा सही जिस को हो दीन ओ दिल अज़ीज़ उस की गली में जाए क्यूँ 'ग़ालिब'-ए-ख़स्ता के बग़ैर कौन से काम बंद हैं रोइए ज़ार ज़ार क्या कीजिए हाए हाए क्यूँ " mirii-hastii-fazaa-e-hairat-aabaad-e-tamannaa-hai-mirza-ghalib-ghazals," मिरी हस्ती फ़ज़ा-ए-हैरत आबाद-ए-तमन्ना है जिसे कहते हैं नाला वो उसी आलम का अन्क़ा है ख़िज़ाँ क्या फ़स्ल-ए-गुल कहते हैं किस को कोई मौसम हो वही हम हैं क़फ़स है और मातम बाल-ओ-पर का है वफ़ा-ए-दिलबराँ है इत्तिफ़ाक़ी वर्ना ऐ हमदम असर फ़रियाद-ए-दिल-हा-ए-हज़ीं का किस ने देखा है न लाई शोख़ी-ए-अंदेशा ताब-ए-रंज-ए-नौमीदी कफ़-ए-अफ़्सोस मिलना अहद-ए-तज्दीद-ए-तमन्ना है न सोवे आबलों में गर सरिश्क-ए-दीदा-ए-नाम से ब-जौलाँ-गाह-ए-नौमीदी निगाह-ए-आजिज़ाँ पा है ब-सख़्ती-हा-ए-क़ैद-ए-ज़िंदगी मालूम आज़ादी शरर भी सैद-ए-दाम-ए-रिश्ता-ए-रग-हा-ए-ख़ारा है तग़फ़ुल-मशरबी से ना-तमामी बस-कि पैदा है निगाह-ए-नाज़ चश्म-ए-यार में ज़ुन्नार-ए-मीना है तसर्रुफ़ वहशियों में है तसव्वुर-हा-ए-मजनूँ का सवाद-ए-चश्म-ए-आहू अक्स-ए-ख़ाल-ए-रू-ए-लैला है मोहब्बत तर्ज़-ए-पैवंद-ए-निहाल-ए-दोस्ती जाने दवीदन रेशा साँ मुफ़्त-ए-रग-ए-ख़्वाब-ए-ज़ुलेख़ा है किया यक-सर गुदाज़-ए-दिल नियाज़-ए-जोशिश-ए-हसरत सुवैदा नुस्ख़ा-ए-तह-बंदी-ए-दाग़-ए-तमन्ना है हुजूम-ए-रेज़िश-ए-ख़ूँ के सबब रंग उड़ नहीं सकता हिना-ए-पंजा-ए-सैय्याद मुर्ग़-ए-रिश्ता बर-पा है असर सोज़-ए-मोहब्बत का क़यामत बे-मुहाबा है कि रग से संग में तुख़्म-ए-शरर का रेशा पैदा है निहाँ है गौहर-ए-मक़्सूद जेब-ए-ख़ुद-शनासी में कि याँ ग़व्वास है तिमसाल और आईना दरिया है अज़ीज़ो ज़िक्र-ए-वस्ल-ए-ग़ैर से मुझ को न बहलाओ कि याँ अफ़्सून-ए-ख़्वाब अफ़्साना-ए-ख़्वाब-ए-ज़ुलेख़ा है तसव्वुर बहर-ए-तस्कीन-ए-तपीदन-हा-ए-तिफ़्ल-ए-दिल ब-बाग़-ए-रंग-हा-ए-रफ़्ता गुल-चीन-ए-तमाशा है ब-सइ-ए-ग़ैर है क़त-ए-लिबास-ए-ख़ाना-वीरानी कि नाज़-ए-जादा-ए-रह रिश्ता-ए-दामान-ए-सहरा है " lo-ham-mariiz-e-ishq-ke-biimaar-daar-hain-mirza-ghalib-ghazals," लो हम मरीज़-ए-इश्क़ के बीमार-दार हैं अच्छा अगर न हो तो मसीहा का क्या इलाज " ishq-mujh-ko-nahiin-vahshat-hii-sahii-mirza-ghalib-ghazals," इश्क़ मुझ को नहीं वहशत ही सही मेरी वहशत तिरी शोहरत ही सही क़त्अ कीजे न तअल्लुक़ हम से कुछ नहीं है तो अदावत ही सही मेरे होने में है क्या रुस्वाई ऐ वो मज्लिस नहीं ख़ल्वत ही सही हम भी दुश्मन तो नहीं हैं अपने ग़ैर को तुझ से मोहब्बत ही सही अपनी हस्ती ही से हो जो कुछ हो आगही गर नहीं ग़फ़लत ही सही उम्र हर-चंद कि है बर्क़-ए-ख़िराम दिल के ख़ूँ करने की फ़ुर्सत ही सही हम कोई तर्क-ए-वफ़ा करते हैं न सही इश्क़ मुसीबत ही सही कुछ तो दे ऐ फ़लक-ए-ना-इंसाफ़ आह ओ फ़रियाद की रुख़्सत ही सही हम भी तस्लीम की ख़ू डालेंगे बे-नियाज़ी तिरी आदत ही सही यार से छेड़ चली जाए 'असद' गर नहीं वस्ल तो हसरत ही सही " dekh-kar-dar-parda-garm-e-daaman-afshaanii-mujhe-mirza-ghalib-ghazals," देख कर दर-पर्दा गर्म-ए-दामन-अफ़्शानी मुझे कर गई वाबस्ता-ए-तन मेरी उर्यानी मुझे बन गया तेग़-ए-निगाह-ए-यार का संग-ए-फ़साँ मर्हबा मैं क्या मुबारक है गिराँ-जानी मुझे क्यूँ न हो बे-इल्तिफ़ाती उस की ख़ातिर जम्अ' है जानता है महव-ए-पुर्सिश-हा-ए-पिन्हानी मुझे मेरे ग़म-ख़ाने की क़िस्मत जब रक़म होने लगी लिख दिया मिन-जुमला-ए-असबाब-ए-वीरानी मुझे बद-गुमाँ होता है वो काफ़िर न होता काश के इस क़दर ज़ौक़-ए-नवा-ए-मुर्ग़-ए-बुस्तानी मुझे वाए वाँ भी शोर-ए-महशर ने न दम लेने दिया ले गया था गोर में ज़ौक़-ए-तन-आसानी मुझे वा'दा आने का वफ़ा कीजे ये क्या अंदाज़ है तुम ने क्यूँ सौंपी है मेरे घर की दरबानी मुझे हाँ नशात-ए-आमद-ए-फ़स्ल-ए-बहारी वाह वाह फिर हुआ है ताज़ा सौदा-ए-ग़ज़ल-ख़्वानी मुझे दी मिरे भाई को हक़ ने अज़-सर-ए-नौ ज़िंदगी मीरज़ा यूसुफ़ है 'ग़ालिब' यूसुफ़-ए-सानी मुझे " raftaar-e-umr-qat-e-rah-e-iztiraab-hai-mirza-ghalib-ghazals," रफ़्तार-ए-उम्र क़त-ए-रह-ए-इज़्तिराब है इस साल के हिसाब को बर्क़ आफ़्ताब है मीना-ए-मय है सर्व नशात-ए-बहार से बाल-ए-तदर्रव जल्वा-ए-मौज-ए-शराब है ज़ख़्मी हुआ है पाश्ना पा-ए-सबात का ने भागने की गूँ न इक़ामत की ताब है जादाद-ए-बादा-नोशी-ए-रिन्दाँ है शश-जिहत ग़ाफ़िल गुमाँ करे है कि गेती ख़राब है नज़्ज़ारा क्या हरीफ़ हो उस बर्क़-ए-हुस्न का जोश-ए-बहार जल्वे को जिस के नक़ाब है मैं ना-मुराद दिल की तसल्ली को क्या करूँ माना कि तेरे रुख़ से निगह कामयाब है गुज़रा 'असद' मसर्रत-ए-पैग़ाम-ए-यार से क़ासिद पे मुझ को रश्क-ए-सवाल-ओ-जवाब है ज़ाहिर है तर्ज़-ए-क़ैद से सय्याद की ग़रज़ जो दाना दाम में है सो अश्क-ए-कबाब है बे-चश्म-ए-दिल न कर हवस-ए-सैर-ए-लाला-ज़ार या'नी ये हर वरक़ वरक़-ए-इंतिख़ाब है " muddat-huii-hai-yaar-ko-mehmaan-kiye-hue-mirza-ghalib-ghazals," मुद्दत हुई है यार को मेहमाँ किए हुए जोश-ए-क़दह से बज़्म चराग़ाँ किए हुए करता हूँ जम्अ' फिर जिगर-ए-लख़्त-लख़्त को अर्सा हुआ है दावत-ए-मिज़्गाँ किए हुए फिर वज़-ए-एहतियात से रुकने लगा है दम बरसों हुए हैं चाक गरेबाँ किए हुए फिर गर्म-नाला-हा-ए-शरर-बार है नफ़स मुद्दत हुई है सैर-ए-चराग़ाँ किए हुए फिर पुर्सिश-ए-जराहत-ए-दिल को चला है इश्क़ सामान-ए-सद-हज़ार नमक-दाँ किए हुए फिर भर रहा हूँ ख़ामा-ए-मिज़्गाँ ब-ख़ून-ए-दिल साज़-ए-चमन तराज़ी-ए-दामाँ किए हुए बाहम-दिगर हुए हैं दिल ओ दीदा फिर रक़ीब नज़्ज़ारा ओ ख़याल का सामाँ किए हुए दिल फिर तवाफ़-ए-कू-ए-मलामत को जाए है पिंदार का सनम-कदा वीराँ किए हुए फिर शौक़ कर रहा है ख़रीदार की तलब अर्ज़-ए-मता-ए-अक़्ल-ओ-दिल-ओ-जाँ किए हुए दौड़े है फिर हर एक गुल-ओ-लाला पर ख़याल सद-गुलिस्ताँ निगाह का सामाँ किए हुए फिर चाहता हूँ नामा-ए-दिलदार खोलना जाँ नज़्र-ए-दिल-फ़रेबी-ए-उनवाँ किए हुए माँगे है फिर किसी को लब-ए-बाम पर हवस ज़ुल्फ़-ए-सियाह रुख़ पे परेशाँ किए हुए चाहे है फिर किसी को मुक़ाबिल में आरज़ू सुरमे से तेज़ दश्ना-ए-मिज़्गाँ किए हुए इक नौ-बहार-ए-नाज़ को ताके है फिर निगाह चेहरा फ़रोग़-ए-मय से गुलिस्ताँ किए हुए फिर जी में है कि दर पे किसी के पड़े रहें सर ज़ेर-बार-ए-मिन्नत-ए-दरबाँ किए हुए जी ढूँडता है फिर वही फ़ुर्सत कि रात दिन बैठे रहें तसव्वुर-ए-जानाँ किए हुए 'ग़ालिब' हमें न छेड़ कि फिर जोश-ए-अश्क से बैठे हैं हम तहय्या-ए-तूफ़ाँ किए हुए " gar-tujh-ko-hai-yaqiin-e-ijaabat-duaa-na-maang-mirza-ghalib-ghazals," गर तुझ को है यक़ीन-ए-इजाबत दुआ न माँग या'नी बग़ैर-ए-यक-दिल-ए-बे-मुद्दआ न माँग आता है दाग़-ए-हसरत-ए-दिल का शुमार याद मुझ से मिरे गुनह का हिसाब ऐ ख़ुदा न माँग ऐ आरज़ू शहीद-ए-वफ़ा ख़ूँ-बहा न माँग जुज़ बहर-ए-दस्त-ओ-बाज़ू-ए-क़ातिल दुआ न माँग बरहम है बज़्म-ए-ग़ुंचा ब-यक-जुंबिश-ए-नशात काशाना बस-कि तंग है ग़ाफ़िल हवा न माँग मैं दूर गर्द-ए-अर्ज़-ए-रुसूम-ए-नियाज़ हूँ दुश्मन समझ वले निगह-ए-आशना न माँग यक-बख़्त औज नज़्र-ए-सुबुक-बारी-ए-'असद' सर पर वबाल-ए-साया-ए-बाल-ए-हुमा न माँग गुस्ताख़ी-ए-विसाल है मश्शाता-ए-नियाज़ या'नी दुआ ब-जुज़ ख़म-ए-ज़ुल्फ़-ए-दुता न माँग ईसा तिलिस्म हुस्न तग़ाफ़ुल है ज़ीनहार जुज़ पुश्त चश्म नुस्ख़ा अर्ज़ दवा न माँग दीगर ओ दिल ख़ूनीं नफ़स " kisii-ko-de-ke-dil-koii-navaa-sanj-e-fugaan-kyuun-ho-mirza-ghalib-ghazals," किसी को दे के दिल कोई नवा-संज-ए-फ़ुग़ाँ क्यूँ हो न हो जब दिल ही सीने में तो फिर मुँह में ज़बाँ क्यूँ हो वो अपनी ख़ू न छोड़ेंगे हम अपनी वज़्अ क्यूँ छोड़ें सुबुक-सर बन के क्या पूछें कि हम से सरगिराँ क्यूँ हो किया ग़म-ख़्वार ने रुस्वा लगे आग इस मोहब्बत को न लावे ताब जो ग़म की वो मेरा राज़-दाँ क्यूँ हो वफ़ा कैसी कहाँ का इश्क़ जब सर फोड़ना ठहरा तो फिर ऐ संग-दिल तेरा ही संग-ए-आस्ताँ क्यूँ हो क़फ़स में मुझ से रूदाद-ए-चमन कहते न डर हमदम गिरी है जिस पे कल बिजली वो मेरा आशियाँ क्यूँ हो ये कह सकते हो हम दिल में नहीं हैं पर ये बतलाओ कि जब दिल में तुम्हीं तुम हो तो आँखों से निहाँ क्यूँ हो ग़लत है जज़्ब-ए-दिल का शिकवा देखो जुर्म किस का है न खींचो गर तुम अपने को कशाकश दरमियाँ क्यूँ हो ये फ़ित्ना आदमी की ख़ाना-वीरानी को क्या कम है हुए तुम दोस्त जिस के दुश्मन उस का आसमाँ क्यूँ हो यही है आज़माना तो सताना किस को कहते हैं अदू के हो लिए जब तुम तो मेरा इम्तिहाँ क्यूँ हो कहा तुम ने कि क्यूँ हो ग़ैर के मिलने में रुस्वाई बजा कहते हो सच कहते हो फिर कहियो कि हाँ क्यूँ हो निकाला चाहता है काम क्या ता'नों से तू 'ग़ालिब' तिरे बे-मेहर कहने से वो तुझ पर मेहरबाँ क्यूँ हो " husn-e-mah-garche-ba-hangaam-e-kamaal-achchhaa-hai-mirza-ghalib-ghazals," हुस्न-ए-मह गरचे ब-हंगाम-ए-कमाल अच्छा है उस से मेरा मह-ए-ख़ुर्शीद-जमाल अच्छा है बोसा देते नहीं और दिल पे है हर लहज़ा निगाह जी में कहते हैं कि मुफ़्त आए तो माल अच्छा है और बाज़ार से ले आए अगर टूट गया साग़र-ए-जम से मिरा जाम-ए-सिफ़ाल अच्छा है बे-तलब दें तो मज़ा उस में सिवा मिलता है वो गदा जिस को न हो ख़ू-ए-सवाल अच्छा है उन के देखे से जो आ जाती है मुँह पर रौनक़ वो समझते हैं कि बीमार का हाल अच्छा है देखिए पाते हैं उश्शाक़ बुतों से क्या फ़ैज़ इक बरहमन ने कहा है कि ये साल अच्छा है हम-सुख़न तेशा ने फ़रहाद को शीरीं से किया जिस तरह का कि किसी में हो कमाल अच्छा है क़तरा दरिया में जो मिल जाए तो दरिया हो जाए काम अच्छा है वो जिस का कि मआल अच्छा है ख़िज़्र-सुल्ताँ को रखे ख़ालिक़-ए-अकबर सरसब्ज़ शाह के बाग़ में ये ताज़ा निहाल अच्छा है हम को मालूम है जन्नत की हक़ीक़त लेकिन दिल के ख़ुश रखने को 'ग़ालिब' ये ख़याल अच्छा है " tuu-dost-kisuu-kaa-bhii-sitamgar-na-huaa-thaa-mirza-ghalib-ghazals," तू दोस्त कसू का भी सितमगर न हुआ था औरों पे है वो ज़ुल्म कि मुझ पर न हुआ था छोड़ा मह-ए-नख़शब की तरह दस्त-ए-क़ज़ा ने ख़ुर्शीद हुनूज़ उस के बराबर न हुआ था तौफ़ीक़ ब-अंदाज़ा-ए-हिम्मत है अज़ल से आँखों में है वो क़तरा कि गौहर न हुआ था जब तक कि न देखा था क़द-ए-यार का आलम मैं मो'तक़िद-ए-फ़ित्ना-ए-महशर न हुआ था मैं सादा-दिल आज़ुर्दगी-ए-यार से ख़ुश हूँ या'नी सबक़-ए-शौक़ मुकर्रर न हुआ था दरिया-ए-मआसी तुनुक-आबी से हुआ ख़ुश्क मेरा सर-ए-दामन भी अभी तर न हुआ था जारी थी 'असद' दाग़-ए-जिगर से मिरी तहसील आतिश-कदा जागीर-ए-समुंदर न हुआ था " hai-bas-ki-har-ik-un-ke-ishaare-men-nishaan-aur-mirza-ghalib-ghazals," है बस-कि हर इक उन के इशारे में निशाँ और करते हैं मोहब्बत तो गुज़रता है गुमाँ और या-रब वो न समझे हैं न समझेंगे मिरी बात दे और दिल उन को जो न दे मुझ को ज़बाँ और अबरू से है क्या उस निगह-ए-नाज़ को पैवंद है तीर मुक़र्रर मगर इस की है कमाँ और तुम शहर में हो तो हमें क्या ग़म जब उठेंगे ले आएँगे बाज़ार से जा कर दिल ओ जाँ और हर चंद सुबुक-दस्त हुए बुत-शिकनी में हम हैं तो अभी राह में है संग-ए-गिराँ और है ख़ून-ए-जिगर जोश में दिल खोल के रोता होते जो कई दीदा-ए-ख़ूँनाबा-फ़िशाँ और मरता हूँ इस आवाज़ पे हर चंद सर उड़ जाए जल्लाद को लेकिन वो कहे जाएँ कि हाँ और लोगों को है ख़ुर्शीद-ए-जहाँ-ताब का धोका हर रोज़ दिखाता हूँ मैं इक दाग़-ए-निहाँ और लेता न अगर दिल तुम्हें देता कोई दम चैन करता जो न मरता कोई दिन आह-ओ-फ़ुग़ाँ और पाते नहीं जब राह तो चढ़ जाते हैं नाले रुकती है मिरी तब्अ' तो होती है रवाँ और हैं और भी दुनिया में सुख़न-वर बहुत अच्छे कहते हैं कि 'ग़ालिब' का है अंदाज़-ए-बयाँ और " shab-khumaar-e-shauq-e-saaqii-rustakhez-andaaza-thaa-mirza-ghalib-ghazals," शब ख़ुमार-ए-शौक़-ए-साक़ी रुस्तख़ेज़-अंदाज़ा था ता-मुहीत-ए-बादा सूरत ख़ाना-ए-ख़म्याज़ा था यक क़दम वहशत से दर्स-ए-दफ़्तर-ए-इम्काँ खुला जादा अजज़ा-ए-दो-आलम दश्त का शीराज़ा था माना-ए-वहशत-ख़िरामी-हा-ए-लैला कौन है ख़ाना-ए-मजनून-ए-सहरा-गर्द बे-दरवाज़ा था पूछ मत रुस्वाई-ए-अंदाज़-ए-इस्तिग़ना-ए-हुस्न दस्त मरहून-ए-हिना रुख़्सार रहन-ए-ग़ाज़ा था नाला-ए-दिल ने दिए औराक़-ए-लख़्त-ए-दिल ब-बाद याद-गार-ए-नाला इक दीवान-ए-बे-शीराज़ा था हूँ चराग़ान-ए-हवस जूँ काग़ज़-ए-आतिश-ज़दा दाग़ गर्म-ए-कोशिश-ए-ईजाद-ए-दाग़-ए-ताज़ा था बे-नवाई तर सदा-ए-नग़्मा-ए-शोहरत 'असद' बोरिया यक नीस्ताँ-आलम बुलंद आवाज़ा था " zakhm-par-chhidken-kahaan-tiflaan-e-be-parvaa-namak-mirza-ghalib-ghazals," ज़ख़्म पर छिड़कें कहाँ तिफ़्लान-ए-बे-परवा नमक क्या मज़ा होता अगर पत्थर में भी होता नमक गर्द-ए-राह-ए-यार है सामान-ए-नाज़-ए-ज़ख़्म-ए-दिल वर्ना होता है जहाँ में किस क़दर पैदा नमक मुझ को अर्ज़ानी रहे तुझ को मुबारक होजियो नाला-ए-बुलबुल का दर्द और ख़ंदा-ए-गुल का नमक शोर-ए-जौलाँ था कनार-ए-बहर पर किस का कि आज गर्द-ए-साहिल है ब-ज़ख़्म-ए-मौज-ए-दरिया नमक दाद देता है मिरे ज़ख़्म-ए-जिगर की वाह वाह याद करता है मुझे देखे है वो जिस जा नमक छोड़ कर जाना तन-ए-मजरूह-ए-आशिक़ हैफ़ है दिल तलब करता है ज़ख़्म और माँगे हैं आ'ज़ा नमक ग़ैर की मिन्नत न खींचूँगा पय-ए-तौफ़ीर-ए-दर्द ज़ख़्म मिस्ल-ए-ख़ंदा-ए-क़ातिल है सर-ता-पा नमक याद हैं 'ग़ालिब' तुझे वो दिन कि वज्द-ए-ज़ौक़ में ज़ख़्म से गिरता तो मैं पलकों से चुनता था नमक इस अमल में ऐश की लज़्ज़त नहीं मिलती 'असद' ज़ोर निस्बत मय से रखता है अज़ारा का नमक " shab-ki-barq-e-soz-e-dil-se-zahra-e-abr-aab-thaa-mirza-ghalib-ghazals," शब कि बर्क़-ए-सोज़-ए-दिल से ज़हरा-ए-अब्र आब था शोला-ए-जव्वाला हर यक हल्क़ा-ए-गिर्दाब था वाँ करम को उज़्र-ए-बारिश था इनाँ-गीर-ए-ख़िराम गिर्ये से याँ पुम्बा-ए-बालिश कफ़-ए-सैलाब था वाँ ख़ुद-आराई को था मोती पिरोने का ख़याल याँ हुजूम-ए-अश्क में तार-ए-निगह नायाब था जल्वा-ए-गुल ने किया था वाँ चराग़ाँ आबजू याँ रवाँ मिज़्गान-ए-चश्म-ए-तर से ख़ून-ए-नाब था याँ सर-ए-पुर-शोर बे-ख़्वाबी से था दीवार-जू वाँ वो फ़र्क़-ए-नाज़ महव-ए-बालिश-ए-किम-ख़्वाब था याँ नफ़स करता था रौशन शम-ए-बज़्म-ए-बे-ख़ुदी जल्वा-ए-गुल वाँ बिसात-ए-सोहबत-ए-अहबाब था फ़र्श से ता अर्श वाँ तूफ़ाँ था मौज-ए-रंग का याँ ज़मीं से आसमाँ तक सोख़्तन का बाब था ना-गहाँ इस रंग से ख़ूनाबा टपकाने लगा दिल कि ज़ौक़-ए-काविश-ए-नाख़ुन से लज़्ज़त-याब था " diivaangii-se-dosh-pe-zunnaar-bhii-nahiin-mirza-ghalib-ghazals," दीवानगी से दोश पे ज़ुन्नार भी नहीं या'नी हमारे जेब में इक तार भी नहीं दिल को नियाज़-ए-हसरत-ए-दीदार कर चुके देखा तो हम में ताक़त-ए-दीदार भी नहीं मिलना तिरा अगर नहीं आसाँ तो सहल है दुश्वार तो यही है कि दुश्वार भी नहीं बे-इश्क़ उम्र कट नहीं सकती है और याँ ताक़त ब-क़दर-ए-लज़्ज़त-ए-आज़ार भी नहीं शोरीदगी के हाथ से है सर वबाल-ए-दोश सहरा में ऐ ख़ुदा कोई दीवार भी नहीं गुंजाइश-ए-अदावत-ए-अग़्यार यक तरफ़ याँ दिल में ज़ोफ़ से हवस-ए-यार भी नहीं डर नाला-हा-ए-ज़ार से मेरे ख़ुदा को मान आख़िर नवा-ए-मुर्ग़-ए-गिरफ़्तार भी नहीं दिल में है यार की सफ़-ए-मिज़्गाँ से रू-कशी हालाँकि ताक़त-ए-ख़लिश-ए-ख़ार भी नहीं इस सादगी पे कौन न मर जाए ऐ ख़ुदा लड़ते हैं और हाथ में तलवार भी नहीं देखा 'असद' को ख़ल्वत-ओ-जल्वत में बार-हा दीवाना गर नहीं है तो हुश्यार भी नहीं " jaur-se-baaz-aae-par-baaz-aaen-kyaa-mirza-ghalib-ghazals," जौर से बाज़ आए पर बाज़ आएँ क्या कहते हैं हम तुझ को मुँह दिखलाएँ क्या रात दिन गर्दिश में हैं सात आसमाँ हो रहेगा कुछ न कुछ घबराएँ क्या लाग हो तो उस को हम समझें लगाव जब न हो कुछ भी तो धोका खाएँ क्या हो लिए क्यूँ नामा-बर के साथ साथ या रब अपने ख़त को हम पहुँचाएँ क्या मौज-ए-ख़ूँ सर से गुज़र ही क्यूँ न जाए आस्तान-ए-यार से उठ जाएँ क्या उम्र भर देखा किया मरने की राह मर गए पर देखिए दिखलाएँ क्या पूछते हैं वो कि 'ग़ालिब' कौन है कोई बतलाओ कि हम बतलाएँ क्या " na-puuchh-nuskha-e-marham-jaraahat-e-dil-kaa-mirza-ghalib-ghazals," न पूछ नुस्ख़ा-ए-मरहम जराहत-ए-दिल का कि उस में रेज़ा-ए-अल्मास जुज़्व-ए-आज़म है बहुत दिनों में तग़ाफ़ुल ने तेरे पैदा की वो इक निगह कि ब-ज़ाहिर निगाह से कम है " siyaahii-jaise-gir-jaae-dam-e-tahriir-kaagaz-par-mirza-ghalib-ghazals," सियाही जैसे गिर जाए दम-ए-तहरीर काग़ज़ पर मिरी क़िस्मत में यूँ तस्वीर है शब-हा-ए-हिज्राँ की कहूँ क्या गर्म-जोशी मय-कशी में शोला-रूयाँ की कि शम-ए-ख़ाना-ए-दिल आतिश-ए-मय से फ़रोज़ाँ की हमेशा मुझ को तिफ़्ली में भी मश्क़-ए-तीरह-रोज़ी थी सियाही है मिरे अय्याम में लौह-ए-दबिस्ताँ की दरेग़ आह-ए-सहर-गह कार-ए-बाद-ए-सुब्ह करती है कि होती है ज़ियादा सर्द-मेहरी शम्अ-रूयाँ की मुझे अपने जुनूँ की बे-तकल्लुफ़ पर्दा-दारी थी व-लेकिन क्या करूँ आवे जो रुस्वाई गरेबाँ की हुनर पैदा किया है मैं ने हैरत-आज़माई में कि जौहर आइने का हर पलक है चश्म-ए-हैराँ की ख़ुदाया किस क़दर अहल-ए-नज़र ने ख़ाक छानी है कि हैं सद-रख़्ना जूँ ग़िर्बाल दीवारें गुलिस्ताँ की हुआ शर्म-ए-तही-दस्ती से से वो भी सर-निगूँ आख़िर बस ऐ ज़ख़्म-ए-जिगर अब देख ले शोरिश नमक-दाँ की बयाद-ए-गर्मी-ए-सोहबत ब-रंग-ए-शोला दहके है छुपाऊँ क्यूँकि 'ग़ालिब' सोज़िशें दाग़-ए-नुमायाँ की जुनूँ तोहमत-कश-ए-तस्कीं न हो गर शादमानी की नमक-पाश-ए-ख़राश-ए-दिल है लज़्ज़त ज़िंदगानी की कशाकश-हा-ए-हस्ती से करे क्या सई-ए-आज़ादी हुइ ज़ंजीर-ए-मौज-ए-आब को फ़ुर्सत रवानी की न खींच ऐ सई-ए-दस्त-ए-ना-रसा ज़ुल्फ़-ए-तमन्ना को परेशाँ-तर है मू-ए-ख़ामा से तदबीर मानी की कहाँ हम भी रग-ओ-पै रखते हैं इंसाफ़ बहत्तर है न खींचे ताक़त-ए-ख़म्याज़ा तोहमत ना-तवानी की तकल्लुफ़-बरतरफ़ फ़रहाद और इतनी सुबु-दस्ती ख़याल आसाँ था लेकिन ख़्वाब-ए-ख़ुसरव ने गिरानी की पस-अज़-मुर्दन भी दीवाना ज़ियारत-गाह-ए-तिफ़्लाँ है शरार-ए-संग ने तुर्बत पे मेरी गुल-फ़िशानी की 'असद' को बोरिए में धर के फूँका मौज-ए-हस्ती ने फ़क़ीरी में भी बाक़ी है शरारत नौजवानी की " jab-tak-dahaan-e-zakhm-na-paidaa-kare-koii-mirza-ghalib-ghazals," जब तक दहान-ए-ज़ख़्म न पैदा करे कोई मुश्किल कि तुझ से राह-ए-सुख़न वा करे कोई आलम ग़ुबार-ए-वहशत-ए-मजनूँ है सर-ब-सर कब तक ख़याल-ए-तुर्रा-ए-लैला करे कोई अफ़्सुर्दगी नहीं तरब-इंशा-ए-इल्तिफ़ात हाँ दर्द बन के दिल में मगर जा करे कोई रोने से ऐ नदीम मलामत न कर मुझे आख़िर कभी तो उक़्दा-ए-दिल वा करे कोई चाक-ए-जिगर से जब रह-ए-पुर्सिश न वा हुई क्या फ़ाएदा कि जैब को रुस्वा करे कोई लख़्त-ए-जिगर से है रग-ए-हर-ख़ार शाख़-ए-गुल ता चंद बाग़-बानी-ए-सहरा करे कोई नाकामी-ए-निगाह है बर्क़-ए-नज़ारा-सोज़ तू वो नहीं कि तुझ को तमाशा करे कोई हर संग ओ ख़िश्त है सदफ़-ए-गौहर-ए-शिकस्त नुक़साँ नहीं जुनूँ से जो सौदा करे कोई सर बर हुई न वादा-ए-सब्र-आज़मा से उम्र फ़ुर्सत कहाँ कि तेरी तमन्ना करे कोई है वहशत-ए-तबीअत-ए-ईजाद यास-खेज़ ये दर्द वो नहीं कि न पैदा करे कोई बेकारी-ए-जुनूँ को है सर पीटने का शुग़्ल जब हाथ टूट जाएँ तो फिर क्या करे कोई हुस्न-ए-फ़रोग़-ए-शम्मा-ए-सुख़न दूर है 'असद' पहले दिल-ए-गुदाख़्ता पैदा करे कोई वहशत कहाँ कि बे-ख़ुदी इंशा करे कोई हस्ती को लफ़्ज़-ए-मानी-ए-अन्क़ा करे कोई जो कुछ है महव-ए-शोख़ी-ए-अबरू-ए-यार है आँखों को रख के ताक़ पे देखा करे कोई अर्ज़-ए-सरिश्क पर है फ़ज़ा-ए-ज़माना तंग सहरा कहाँ कि दावत-ए-दरिया करे कोई वो शोख़ अपने हुस्न पे मग़रूर है 'असद' दिखला के उस को आइना तोड़ा करे कोई " fariyaad-kii-koii-lai-nahiin-hai-mirza-ghalib-ghazals," फ़रियाद की कोई लय नहीं है नाला पाबंद-ए-नय नहीं है क्यूँ बोते हैं बाग़बाँ तोंबे गर बाग़ गदा-ए-मय नहीं है हर-चंद हर एक शय में तू है पर तुझ सी कोई शय नहीं है हाँ खाइयो मत फ़रेब-ए-हस्ती हर-चंद कहें कि है नहीं है शादी से गुज़र कि ग़म न होवे उरदी जो न हो तो दय नहीं है क्यूँ रद्द-ए-क़दह करे है ज़ाहिद मय है ये मगस की क़य नहीं है हस्ती है न कुछ अदम है 'ग़ालिब' आख़िर तू क्या है ऐ नहीं है " taa-ham-ko-shikaayat-kii-bhii-baaqii-na-rahe-jaa-mirza-ghalib-ghazals," ता हम को शिकायत की भी बाक़ी न रहे जा सुन लेते हैं गो ज़िक्र हमारा नहीं करते 'ग़ालिब' तिरा अहवाल सुना देंगे हम उन को वो सुन के बुला लें ये इजारा नहीं करते " hujuum-e-naala-hairat-aajiz-e-arz-e-yak-afgaan-hai-mirza-ghalib-ghazals," हुजूम-ए-नाला हैरत आजिज़-ए-अर्ज़ यक-अफ़्ग़ाँ है ख़मोशी रेशा-ए-सद-नीस्ताँ से ख़स-ब-दंदाँ है तकल्लुफ़-बर-तरफ़ है जाँ-सिताँ-तर लुत्फ़-ए-बद-ख़ूयाँ निगाह-ए-बे-हिजाब-ए-नाज़ तेग़-ए-तेज़-ए-उर्यां है हुई ये कसरत-ए-ग़म से तलफ़ कैफ़ियत-ए-शादी कि सुब्ह-ए-ईद मुझ को बद-तर अज़-चाक-ए-गरेबाँ है दिल ओ दीं नक़्द ला साक़ी से गर सौदा किया चाहे कि उस बाज़ार में साग़र माता-ए-दस्त-गर्दां है ग़म आग़ोश-ए-बला में परवरिश देता है आशिक़ को चराग़-ए-रौशन अपना क़ुल्ज़ुम-ए-सरसर का मर्जां है तकल्लुफ़ साज़-ए-रुस्वाई है ग़ाफ़िल शर्म-ए-रानाई दिल-ए-ख़ूँ-गश्ता दर दस्त-ए-हिना-आलूदा उर्यां है 'असद' जमइयत-ए-दिल दर-किनार-ए-बे-ख़ुदी ख़ुश-तर दो-आलम आगही सामान-ए-यक-ख़्वाब-ए-परेशाँ है " taskiin-ko-ham-na-roen-jo-zauq-e-nazar-mile-mirza-ghalib-ghazals," तस्कीं को हम न रोएँ जो ज़ौक़-ए-नज़र मिले हूरान-ए-ख़ुल्द में तिरी सूरत मगर मिले अपनी गली में मुझ को न कर दफ़्न बाद-ए-क़त्ल मेरे पते से ख़ल्क़ को क्यूँ तेरा घर मिले साक़ी-गरी की शर्म करो आज वर्ना हम हर शब पिया ही करते हैं मय जिस क़दर मिले तुझ से तो कुछ कलाम नहीं लेकिन ऐ नदीम मेरा सलाम कहियो अगर नामा-बर मिले तुम को भी हम दिखाएँ कि मजनूँ ने क्या किया फ़ुर्सत कशाकश-ए-ग़म-ए-पिन्हाँ से गर मिले लाज़िम नहीं कि ख़िज़्र की हम पैरवी करें जाना कि इक बुज़ुर्ग हमें हम-सफ़र मिले ऐ साकिनान-ए-कूचा-ए-दिलदार देखना तुम को कहीं जो 'ग़ालिब'-ए-आशुफ़्ता-सर मिले " zikr-us-parii-vash-kaa-aur-phir-bayaan-apnaa-mirza-ghalib-ghazals," ज़िक्र उस परी-वश का और फिर बयाँ अपना बन गया रक़ीब आख़िर था जो राज़-दाँ अपना मय वो क्यूँ बहुत पीते बज़्म-ए-ग़ैर में या रब आज ही हुआ मंज़ूर उन को इम्तिहाँ अपना मंज़र इक बुलंदी पर और हम बना सकते अर्श से उधर होता काश के मकाँ अपना दे वो जिस क़दर ज़िल्लत हम हँसी में टालेंगे बारे आश्ना निकला उन का पासबाँ अपना दर्द-ए-दिल लिखूँ कब तक जाऊँ उन को दिखला दूँ उँगलियाँ फ़िगार अपनी ख़ामा ख़ूँ-चकाँ अपना घिसते घिसते मिट जाता आप ने अबस बदला नंग-ए-सज्दा से मेरे संग-ए-आस्ताँ अपना ता करे न ग़म्माज़ी कर लिया है दुश्मन को दोस्त की शिकायत में हम ने हम-ज़बाँ अपना हम कहाँ के दाना थे किस हुनर में यकता थे बे-सबब हुआ 'ग़ालिब' दुश्मन आसमाँ अपना " vo-aa-ke-khvaab-men-taskiin-e-iztiraab-to-de-mirza-ghalib-ghazals," वो आ के ख़्वाब में तस्कीन-ए-इज़्तिराब तो दे वले मुझे तपिश-ए-दिल मजाल-ए-ख़्वाब तो दे करे है क़त्ल लगावट में तेरा रो देना तिरी तरह कोई तेग़-ए-निगह को आब तो दे दिखा के जुम्बिश-ए-लब ही तमाम कर हम को न दे जो बोसा तो मुँह से कहीं जवाब तो दे पिला दे ओक से साक़ी जो हम से नफ़रत है पियाला गर नहीं देता न दे शराब तो दे 'असद' ख़ुशी से मिरे हाथ पाँव फूल गए कहा जो उस ने ज़रा मेरे पाँव दाब तो दे ये कौन कहवे है आबाद कर हमें लेकिन कभी ज़माना मुराद-ए-दिल-ए-ख़राब तो दे " ba-naala-haasil-e-dil-bastagii-faraaham-kar-mirza-ghalib-ghazals," ब-नाला हासिल-ए-दिल-बस्तगी फ़राहम कर मता-ए-ख़ाना-ए-ज़ंजीर जुज़ सदा मालूम ब-क़द्र-ए-हौसला-ए-इश्क़ जल्वा-रेज़ी है वगर्ना ख़ाना-ए-आईना की फ़ज़ा मालूम 'असद' फ़रेफ्ता-ए-इंतिख़ाब-ए-तर्ज़-ए-जफ़ा वगर्ना दिलबरी-ए-वादा-ए-वफ़ा मालूम " dard-minnat-kash-e-davaa-na-huaa-mirza-ghalib-ghazals," दर्द मिन्नत-कश-ए-दवा न हुआ मैं न अच्छा हुआ बुरा न हुआ जम्अ' करते हो क्यूँ रक़ीबों को इक तमाशा हुआ गिला न हुआ हम कहाँ क़िस्मत आज़माने जाएँ तू ही जब ख़ंजर-आज़मा न हुआ कितने शीरीं हैं तेरे लब कि रक़ीब गालियाँ खा के बे-मज़ा न हुआ है ख़बर गर्म उन के आने की आज ही घर में बोरिया न हुआ क्या वो नमरूद की ख़ुदाई थी बंदगी में मिरा भला न हुआ जान दी दी हुई उसी की थी हक़ तो यूँ है कि हक़ अदा न हुआ ज़ख़्म गर दब गया लहू न थमा काम गर रुक गया रवा न हुआ रहज़नी है कि दिल-सितानी है ले के दिल दिल-सिताँ रवाना हुआ कुछ तो पढ़िए कि लोग कहते हैं आज 'ग़ालिब' ग़ज़ल-सरा न हुआ " kyuunkar-us-but-se-rakhuun-jaan-aziiz-mirza-ghalib-ghazals," क्यूँकर उस बुत से रखूँ जान अज़ीज़ क्या नहीं है मुझे ईमान अज़ीज़ दिल से निकला पे न निकला दिल से है तिरे तीर का पैकान अज़ीज़ ताब लाए ही बनेगी 'ग़ालिब' वाक़िआ सख़्त है और जान अज़ीज़ " ye-na-thii-hamaarii-qismat-ki-visaal-e-yaar-hotaa-mirza-ghalib-ghazals," ये न थी हमारी क़िस्मत कि विसाल-ए-यार होता अगर और जीते रहते यही इंतिज़ार होता तिरे वा'दे पर जिए हम तो ये जान झूट जाना कि ख़ुशी से मर न जाते अगर ए'तिबार होता तिरी नाज़ुकी से जाना कि बँधा था अहद बोदा कभी तू न तोड़ सकता अगर उस्तुवार होता कोई मेरे दिल से पूछे तिरे तीर-ए-नीम-कश को ये ख़लिश कहाँ से होती जो जिगर के पार होता ये कहाँ की दोस्ती है कि बने हैं दोस्त नासेह कोई चारासाज़ होता कोई ग़म-गुसार होता रग-ए-संग से टपकता वो लहू कि फिर न थमता जिसे ग़म समझ रहे हो ये अगर शरार होता ग़म अगरचे जाँ-गुसिल है प कहाँ बचें कि दिल है ग़म-ए-इश्क़ गर न होता ग़म-ए-रोज़गार होता कहूँ किस से मैं कि क्या है शब-ए-ग़म बुरी बला है मुझे क्या बुरा था मरना अगर एक बार होता हुए मर के हम जो रुस्वा हुए क्यूँ न ग़र्क़-ए-दरिया न कभी जनाज़ा उठता न कहीं मज़ार होता उसे कौन देख सकता कि यगाना है वो यकता जो दुई की बू भी होती तो कहीं दो-चार होता ये मसाईल-ए-तसव्वुफ़ ये तिरा बयान 'ग़ालिब' तुझे हम वली समझते जो न बादा-ख़्वार होता " afsos-ki-dandaan-kaa-kiyaa-rizq-falak-ne-mirza-ghalib-ghazals," अफ़्सोस कि दंदाँ का किया रिज़्क़ फ़लक ने जिन लोगों की थी दर-ख़ुर-ए-अक़्द-ए-गुहर अंगुश्त काफ़ी है निशानी तिरा छल्ले का न देना ख़ाली मुझे दिखला के ब-वक़्त-ए-सफ़र अंगुश्त लिखता हूँ 'असद' सोज़िश-ए-दिल से सुख़न-ए-गर्म ता रख न सके कोई मिरे हर्फ़ पर अंगुश्त " ye-ham-jo-hijr-men-diivaar-o-dar-ko-dekhte-hain-mirza-ghalib-ghazals," ये हम जो हिज्र में दीवार-ओ-दर को देखते हैं कभी सबा को कभी नामा-बर को देखते हैं वो आए घर में हमारे ख़ुदा की क़ुदरत है कभी हम उन को कभी अपने घर को देखते हैं नज़र लगे न कहीं उस के दस्त-ओ-बाज़ू को ये लोग क्यूँ मिरे ज़ख़्म-ए-जिगर को देखते हैं तिरे जवाहिर-ए-तुर्फ़-ए-कुलह को क्या देखें हम औज-ए-ताला-ए-लाला-ओ-गुहर को देखते हैं " ohde-se-madh-e-naaz-ke-baahar-na-aa-sakaa-mirza-ghalib-ghazals," ओहदे से मद्ह-ए-नाज़ के बाहर न आ सका गर इक अदा हो तो उसे अपनी क़ज़ा कहूँ हल्क़े हैं चश्म-हा-ए-कुशादा ब-सू-ए-दिल हर तार-ए-ज़ुल्फ़ को निगह-ए-सुर्मा-सा कहूँ मैं और सद-हज़ार नवा-ए-जिगर-ख़राश तू और एक वो ना-शुनीदन कि क्या कहूँ ज़ालिम मिरे गुमाँ से मुझे मुन्फ़इल न चाह है है ख़ुदा-न-कर्दा तुझे बेवफ़ा कहूँ " aabruu-kyaa-khaak-us-gul-kii-ki-gulshan-men-nahiin-mirza-ghalib-ghazals," आबरू क्या ख़ाक उस गुल की कि गुलशन में नहीं है गरेबाँ नंग-ए-पैराहन जो दामन में नहीं ज़ोफ़ से ऐ गिर्या कुछ बाक़ी मिरे तन में नहीं रंग हो कर उड़ गया जो ख़ूँ कि दामन में नहीं हो गए हैं जमा अजज़ा-ए-निगाह-ए-आफ़ताब ज़र्रे उस के घर की दीवारों के रौज़न में नहीं क्या कहूँ तारीकी-ए-ज़िन्दान-ए-ग़म अंधेर है पुम्बा नूर-व-सुब्ह से कम जिस के रौज़न में नहीं रौनक़-ए-हस्ती है इश्क़-ए-ख़ाना वीराँ साज़ से अंजुमन बे-शमा है गर बर्क़ ख़िर्मन में नहीं ज़ख़्म सिलवाने से मुझ पर चारा-जुई का है तान ग़ैर समझा है कि लज़्ज़त ज़ख़्म-ए-सोज़न में नहीं बस-कि हैं हम इक बहार-ए-नाज़ के मारे हुए जल्वा-ए-गुल के सिवा गर्द अपने मदफ़न में नहीं क़तरा क़तरा इक हयूला है नए नासूर का ख़ूँ भी ज़ौक़-ए-दर्द से फ़ारिग़ मिरे तन में नहीं ले गई साक़ी की नख़वत क़ुल्ज़ुम-आशामी मिरी मौज-ए-मय की आज रग मीना की गर्दन में नहीं हो फ़िशार-ए-ज़ोफ़ में क्या ना-तवानी की नुमूद क़द के झुकने की भी गुंजाइश मिरे तन में नहीं थी वतन में शान क्या 'ग़ालिब' कि हो ग़ुर्बत में क़द्र बे-तकल्लुफ़ हूँ वो मुश्त-ए-ख़स कि गुलख़न में नहीं " shikve-ke-naam-se-be-mehr-khafaa-hotaa-hai-mirza-ghalib-ghazals," शिकवे के नाम से बे-मेहर ख़फ़ा होता है ये भी मत कह कि जो कहिए तो गिला होता है पुर हूँ मैं शिकवे से यूँ राग से जैसे बाजा इक ज़रा छेड़िए फिर देखिए क्या होता है गो समझता नहीं पर हुस्न-ए-तलाफ़ी देखो शिकवा-ए-जौर से सरगर्म-ए-जफ़ा होता है इश्क़ की राह में है चर्ख़-ए-मकोकब की वो चाल सुस्त-रौ जैसे कोई आबला-पा होता है क्यूँ न ठहरें हदफ़-ए-नावक-ए-बेदाद कि हम आप उठा लाते हैं गर तीर ख़ता होता है ख़ूब था पहले से होते जो हम अपने बद-ख़्वाह कि भला चाहते हैं और बुरा होता है नाला जाता था परे अर्श से मेरा और अब लब तक आता है जो ऐसा ही रसा होता है ख़ामा मेरा कि वो है बारबुद-ए-बज़्म-ए-सुख़न शाह की मद्ह में यूँ नग़्मा-सरा होता है ऐ शहंशाह-ए-कवाकिब सिपह-ओ-मेहर-अलम तेरे इकराम का हक़ किस से अदा होता है सात अक़्लीम का हासिल जो फ़राहम कीजे तो वो लश्कर का तिरे नाल-ए-बहा होता है हर महीने में जो ये बद्र से होता है हिलाल आस्ताँ पर तिरे मह नासिया सा होता है मैं जो गुस्ताख़ हूँ आईन-ए-ग़ज़ल-ख़्वानी में ये भी तेरा ही करम ज़ौक़-फ़ज़ा होता है रखियो 'ग़ालिब' मुझे इस तल्ख़-नवाई में मुआ'फ़ आज कुछ दर्द मिरे दिल में सिवा होता है " phir-mujhe-diida-e-tar-yaad-aayaa-mirza-ghalib-ghazals," फिर मुझे दीदा-ए-तर याद आया दिल जिगर तिश्ना-ए-फ़रयाद आया दम लिया था न क़यामत ने हनूज़ फिर तिरा वक़्त-ए-सफ़र याद आया सादगी-हा-ए-तमन्ना या'नी फिर वो नैरंग-ए-नज़र याद आया उज़्र-ए-वामांदगी ऐ हसरत-ए-दिल नाला करता था जिगर याद आया ज़िंदगी यूँ भी गुज़र ही जाती क्यूँ तिरा राहगुज़र याद आया क्या ही रिज़वाँ से लड़ाई होगी घर तिरा ख़ुल्द में गर याद आया आह वो जुरअत-ए-फ़रियाद कहाँ दिल से तंग आ के जिगर याद आया फिर तिरे कूचे को जाता है ख़याल दिल-ए-गुम-गश्ता मगर याद आया कोई वीरानी सी वीरानी है दश्त को देख के घर याद आया मैं ने मजनूँ पे लड़कपन में 'असद' संग उठाया था कि सर याद आया वस्ल में हिज्र का डर याद आया ऐन जन्नत में सक़र याद आया " chaak-kii-khvaahish-agar-vahshat-ba-uryaanii-kare-mirza-ghalib-ghazals," चाक की ख़्वाहिश अगर वहशत ब-उर्यानी करे सुब्ह के मानिंद ज़ख़्म-ए-दिल गरेबानी करे जल्वे का तेरे वो आलम है कि गर कीजे ख़याल दीदा-ए-दिल को ज़ियारत-गाह-ए-हैरानी करे है शिकस्तन से भी दिल नौमीद या रब कब तलक आबगीना कोह पर अर्ज़-ए-गिराँ-जानी करे मय-कदा गर चश्म-ए-मस्त-ए-नाज़ से पावे शिकस्त मू-ए-शीशा दीदा-ए-साग़र की मिज़्गानी करे ख़त्त-ए-आरिज़ से लिखा है ज़ुल्फ़ को उल्फ़त ने अहद यक-क़लम मंज़ूर है जो कुछ परेशानी करे " baaziicha-e-atfaal-hai-duniyaa-mire-aage-mirza-ghalib-ghazals," बाज़ीचा-ए-अतफ़ाल है दुनिया मिरे आगे होता है शब-ओ-रोज़ तमाशा मिरे आगे इक खेल है औरंग-ए-सुलैमाँ मिरे नज़दीक इक बात है एजाज़-ए-मसीहा मिरे आगे जुज़ नाम नहीं सूरत-ए-आलम मुझे मंज़ूर जुज़ वहम नहीं हस्ती-ए-अशिया मिरे आगे होता है निहाँ गर्द में सहरा मिरे होते घिसता है जबीं ख़ाक पे दरिया मिरे आगे मत पूछ कि क्या हाल है मेरा तिरे पीछे तू देख कि क्या रंग है तेरा मिरे आगे सच कहते हो ख़ुद-बीन ओ ख़ुद-आरा हूँ न क्यूँ हूँ बैठा है बुत-ए-आइना-सीमा मिरे आगे फिर देखिए अंदाज़-ए-गुल-अफ़्शानी-ए-गुफ़्तार रख दे कोई पैमाना-ए-सहबा मिरे आगे नफ़रत का गुमाँ गुज़रे है मैं रश्क से गुज़रा क्यूँकर कहूँ लो नाम न उन का मिरे आगे ईमाँ मुझे रोके है जो खींचे है मुझे कुफ़्र काबा मिरे पीछे है कलीसा मिरे आगे आशिक़ हूँ प माशूक़-फ़रेबी है मिरा काम मजनूँ को बुरा कहती है लैला मिरे आगे ख़ुश होते हैं पर वस्ल में यूँ मर नहीं जाते आई शब-ए-हिज्राँ की तमन्ना मिरे आगे है मौजज़न इक क़ुल्ज़ुम-ए-ख़ूँ काश यही हो आता है अभी देखिए क्या क्या मिरे आगे गो हाथ को जुम्बिश नहीं आँखों में तो दम है रहने दो अभी साग़र-ओ-मीना मिरे आगे हम-पेशा ओ हम-मशरब ओ हमराज़ है मेरा 'ग़ालिब' को बुरा क्यूँ कहो अच्छा मिरे आगे " surma-e-muft-e-nazar-huun-mirii-qiimat-ye-hai-mirza-ghalib-ghazals," सुर्मा-ए-मुफ़्त-ए-नज़र हूँ मिरी क़ीमत ये है कि रहे चश्म-ए-ख़रीदार पे एहसाँ मेरा रुख़्सत-ए-नाला मुझे दे कि मबादा ज़ालिम तेरे चेहरे से हो ज़ाहिर ग़म-ए-पिन्हाँ मेरा ख़ल्वत-ए-आबला-ए-पा में है जौलाँ मेरा ख़ूँ है दिल तंगी-ए-वहशत से बयाबाँ मेरा हसरत-ए-नश्शा-ए-वहशत न ब-सइ-ए-दिल है अर्ज़-ए-ख़म्याज़ा-ए-मजनूँ है गरेबाँ मेरा फ़हम ज़ंजीरी-ए-बे-रब्ती-ए-दिल है या-रब किस ज़बाँ में है लक़ब ख़्वाब-ए-परेशाँ मेरा " dil-lagaa-kar-lag-gayaa-un-ko-bhii-tanhaa-baithnaa-mirza-ghalib-ghazals," दिल लगा कर लग गया उन को भी तन्हा बैठना बारे अपनी बेकसी की हम ने पाई दाद याँ हैं ज़वाल-आमादा अज्ज़ा आफ़रीनश के तमाम महर-ए-गर्दूं है चराग़-ए-रहगुज़ार-ए-बाद याँ है तरह्हुम-आफ़रीं आराइश-ए-बे-दाद याँ अश्क-ए-चश्म-ए-दाम है हर दाना-ए-सय्याद याँ है गुदाज़-ए-मोम अंदाज़-ए-चकीदन-हा-ए-ख़ूँ नीश-ए-ज़ंबूर-ए-असल है नश्तर-ए-फ़स्साद याँ ना-गवारा है हमें एहसान-ए-साहब-दाैलताँ है ज़र-ए-गुल भी नज़र में जौहर-ए-फ़ौलाद याँ जुम्बिश-ए-दिल से हुए हैं उक़्दा-हा-ए-कार वा कम-तरीं मज़दूर-ए-संगीं-दस्त है फ़रहाद याँ क़तरा-हा-ए-ख़ून-ए-बिस्मिल ज़ेब-ए-दामाँ हैं 'असद' है तमाशा करदनी गुल-चीनी-ए-जल्लाद याँ " luun-vaam-bakht-e-khufta-se-yak-khvaab-e-khush-vale-mirza-ghalib-ghazals," लूँ वाम बख़्त-ए-ख़ुफ़्ता से यक-ख़्वाब-ए-खुश वले 'ग़ालिब' ये ख़ौफ़ है कि कहाँ से अदा करूँ ख़ुश वहशते कि अर्ज़-ए-जुनून-ए-फ़ना करूँ जूँ गर्द-ए-राह जामा-ए-हस्ती क़बा करूँ आ ऐ बहार-ए-नाज़ कि तेरे ख़िराम से दस्तार गिर्द-ए-शाख़-ए-गुल-ए-नक़्श-ए-पा करूँ ख़ुश उफ़्तादगी कि ब-सहरा-ए-इन्तिज़ार जूँ जादा गर्द-ए-रह से निगह सुर्मा-सा करूँ सब्र और ये अदा कि दिल आवे असीर-ए-चाक दर्द और ये कमीं कि रह-ए-नाला वा करूँ वो बे-दिमाग़-ए-मिन्नत-ए-इक़बाल हूँ कि मैं वहशत ब-दाग़-ए-साया-ए-बाल-ए-हुमा करूँ वो इल्तिमास-ए-लज्ज़त-ए-बे-दाद हूँ कि मैं तेग़-ए-सितम को पुश्त-ए-ख़म-ए-इल्तिजा करूँ वो राज़-ए-नाला हूँ कि ब-शरह-ए-निगाह-ए-अज्ज़ अफ़्शाँ ग़ुबार-ए-सुर्मा से फ़र्द-ए-सदा करूँ " shumaar-e-subha-marguub-e-but-e-mushkil-pasand-aayaa-mirza-ghalib-ghazals-1," शुमार-ए-सुब्हा मर्ग़ूब-ए-बुत-ए-मुश्किल-पसंद आया तमाशा-ए-ब-यक-कफ़ बुर्दन-ए-सद-दिल-पसंद आया ब-फैज़-ए-बे-दिली नौमीदी-ए-जावेद आसाँ है कुशायिश को हमारा उक़्दा-ए-मुश्किल-पसंद आया हवा-ए-सैर-ए-गुल आईना-ए-बे-मेहरी-ए-क़ातिल कि अंदाज़-ए-ब-खूं-ग़ल्तीदन-ए-बिस्मिल-पसंद आया रवानी-हा-ए-मौज-ए-ख़ून-ए-बिस्मिल से टपकता है कि लुत्फ़-ए-बे-तहाशा-रफ़्तन-ए-क़ातिल-पसंद आया 'असद' हर जा सुख़न ने तरह-ए-बाग़-ए-ताज़ा डाली है मुझे रंग-ए-बहार-ईजादि-ए-बे-दिल-पसंद आया " naqsh-e-naaz-e-but-e-tannaaz-ba-aagosh-e-raqiib-mirza-ghalib-ghazals," नक़्श-ए-नाज़-ए-बुत-ए-तन्नाज़ ब-आग़ोश-ए-रक़ीब पा-ए-ताऊस पए-ख़ामा-ए-मानी माँगे तू वो बद-ख़ू कि तहय्युर को तमाशा जाने ग़म वो अफ़्साना कि आशुफ़्ता-बयानी माँगे वो तप-ए-इश्क़-ए-तमन्ना है कि फिर सूरत-ए-शम्अ' शो'ला ता-नब्ज़-ए-जिगर रेशा-दवानी माँगे तिश्ना-ए-ख़ून-ए-तमाशा जो वो पानी माँगे आइना रुख़्सत-ए-अंदाज़-ए-रवानी माँगे रंग ने गुल से दम-ए-अर्ज़-ए-परेशानी-ए-बज़्म बर्ग-ए-गुल रेज़ा-ए-मीना की निशानी माँगे ज़ुल्फ़ तहरीर-ए-परेशान-ए-तक़ाज़ा है मगर शाना-साँ मू-ब-ज़बाँ ख़ामा-ए-मानी माँगे आमद-ए-ख़त से न कर ख़ंदा-ए-शीरीं कि मबाद चश्म-ए-मोर आईना-ए-दिल निगरानी माँगे हूँ गिरफ़्तार-ए-कमीं-गाह-ए-तग़ाफ़ुल कि जहाँ ख़्वाब सय्याद से पर्वाज़-ए-गिरानी माँगे चश्म पर्वाज़ ओ नफ़स ख़ुफ़्ता मगर ज़ोफ़-ए-उमीद शहपर-ए-काह पए-मुज़्दा-रिसानी माँगे वहशत-ए-शोर-ए-तमाशा है कि जूँ निकहत-ए-गुल नमक-ए-ज़ख़्म-ए-जिगर बाल-फ़िशानी माँगे गर मिले हज़रत-ए-'बेदिल' का ख़त-ए-लौह-ए-मज़ार 'असद' आईना-ए-पर्वाज़-ए-मआनी माँगे रंग ने गुल से दम-ए-अर्ज़-ए-परेशानी-ए-बज़्म बर्ग-ए-गुल रेज़ा-ए-मीना की निशानी माँगे " baag-paa-kar-khafaqaanii-ye-daraataa-hai-mujhe-mirza-ghalib-ghazals," बाग़ पा कर ख़फ़क़ानी ये डराता है मुझे साया-ए-शाख़-ए-गुल अफ़ई नज़र आता है मुझे जौहर-ए-तेग़ ब-सर-चश्म-ए-दीगर मालूम हूँ मैं वो सब्ज़ा कि ज़हराब उगाता है मुझे मुद्दआ महव-ए-तमाशा-ए-शिकस्त-ए-दिल है आइना-ख़ाना में कोई लिए जाता है मुझे नाला सरमाया-ए-यक-आलम ओ आलम कफ़-ए-ख़ाक आसमाँ बैज़ा-ए-क़ुमरी नज़र आता है मुझे ज़िंदगी में तो वो महफ़िल से उठा देते थे देखूँ अब मर गए पर कौन उठाता है मुझे बाग़ तुझ बिन गुल-ए-नर्गिस से डराता है मुझे चाहूँ गर सैर-ए-चमन आँख दिखाता है मुझे शोर-ए-तिम्साल है किस रश्क-ए-चमन का या रब आइना बैज़ा-ए-बुलबुल नज़र आता है मुझे हैरत-ए-आइना अंजाम-ए-जुनूँ हूँ ज्यूँ शम्अ किस क़दर दाग़-ए-जिगर शोला उठाता है मुझे मैं हूँ और हैरत-ए-जावेद मगर ज़ौक़-ए-ख़याल ब-फ़ुसून-ए-निगह-ए-नाज़ सताता है मुझे हैरत-ए-फ़िक्र-ए-सुख़न साज़-ए-सलामत है 'असद' दिल पस-ए-ज़ानू-ए-आईना बिठाता है मुझे " maana-e-dasht-navardii-koii-tadbiir-nahiin-mirza-ghalib-ghazals," माना-ए-दश्त-नवर्दी कोई तदबीर नहीं एक चक्कर है मिरे पाँव में ज़ंजीर नहीं शौक़ उस दश्त में दौड़ाए है मुझ को कि जहाँ जादा ग़ैर अज़ निगह-ए-दीदा-ए-तस्वीर नहीं हसरत-ए-लज़्ज़त-ए-आज़ार रही जाती है जादा-ए-राह-ए-वफ़ा जुज़ दम-ए-शमशीर नहीं रंज-ए-नौमीदी-ए-जावेद गवारा रहियो ख़ुश हूँ गर नाला-ज़बूनी कश-ए-तासीर नहीं सर खुजाता है जहाँ ज़ख़्म-ए-सर अच्छा हो जाए लज़्ज़त-ए-संग ब-अंदाज़ा-ए-तक़रीर नहीं जब करम रुख़्सत-ए-बेबाकी-ओ-गुस्ताख़ी दे कोई तक़्सीर ब-जुज़ ख़जलत-ए-तक़सीर नहीं 'ग़ालिब' अपना ये अक़ीदा है ब-क़ौल-ए-'नासिख़' आप बे-बहरा है जो मो'तक़िद-ए-'मीर' नहीं 'मीर' के शेर का अहवाल कहूँ क्या 'ग़ालिब' जिस का दीवान कम-अज़-गुलशन-ए-कश्मीर नहीं आईना दाम को पर्दे में छुपाता है अबस कि परी-ज़ाद-ए-नज़र क़ाबिल-ए-तस्ख़ीर नहीं मिस्ल-ए-गुल ज़ख़्म है मेरा भी सिनाँ से तव्वाम तेरा तरकश ही कुछ आबिस्तनी-ए-तीर नहीं " junuun-kii-dast-giirii-kis-se-ho-gar-ho-na-uryaanii-mirza-ghalib-ghazals," जुनूँ की दस्त-गीरी किस से हो गर हो न उर्यानी गरेबाँ-चाक का हक़ हो गया है मेरी गर्दन पर बा-रंग-ए-कागज़-ए-आतिश-ज़दा नैरंग-ए-बेताबी हज़ार आईना दिल बाँधे है बाल-ए-यक-तपीदन पर फ़लक से हम को ऐश-ए-रफ़्ता का क्या क्या तक़ाज़ा है मता-ए-बुर्दा को समझे हुए हैं क़र्ज़ रहज़न पर हम और वो बे-सबब रंज-आशना दुश्मन कि रखता है शुआ-ए-मेहर से तोहमत निगह की चश्म-ए-रौज़न पर फ़ना को सौंप गर मुश्ताक़ है अपनी हक़ीक़त का फ़रोग़-ए-ताला-ए-ख़ाशाक है मौक़ूफ़ गुलख़न पर 'असद' बिस्मिल है किस अंदाज़ का क़ातिल से कहता है कि मश्क़-ए-नाज़ कर ख़ून-ए-दो-आलम मेरी गर्दन पर फ़ुसून-ए-यक-दिली है लज़्ज़त-ए-बेदाद दुश्मन पर कि वज्द-ए-बर्क़ जूँ परवाना बाल-अफ़्शाँ है ख़िर्मन पर तकल्लुफ़ ख़ार-ख़ार-ए-इल्तिमास-ए-बे-क़ारारी है कि रिश्ता बाँधता है पैरहन अंगुश्त-ए-सोज़न पर ये क्या वहशत है ऐ दीवाने पेश-अज़-मर्ग वावैला रक्खी बे-जा बिना-ए-ख़ाना-ए-ज़ंजीर-ए-शेवन पर " ghar-men-thaa-kyaa-ki-tiraa-gam-use-gaarat-kartaa-mirza-ghalib-ghazals," घर में था क्या कि तिरा ग़म उसे ग़ारत करता वो जो रखते थे हम इक हसरत-ए-तामीर सो है " yaad-hai-shaadii-men-bhii-hangaama-e-yaa-rab-mujhe-mirza-ghalib-ghazals," याद है शादी में भी हंगामा-ए-या-रब मुझे सुब्हा-ए-ज़ाहिद हुआ है ख़ंदा ज़ेर-ए-लब मुझे है कुशाद-ए-ख़ातिर-ए-वा-बस्ता दर रहन-ए-सुख़न था तिलिस्म-ए-क़ुफ़्ल-ए-अबजद ख़ाना-ए-मकतब मुझे या रब इस आशुफ़्तगी की दाद किस से चाहिए रश्क आसाइश पे है ज़िंदानियों की अब मुझे तब्अ' है मुश्ताक़-ए-लज़्ज़त-हा-ए-हसरत क्या करूँ आरज़ू से है शिकस्त-ए-आरज़ू मतलब मुझे दिल लगा कर आप भी 'ग़ालिब' मुझी से हो गए इश्क़ से आते थे माने मीरज़ा साहब मुझे " main-unhen-chheduun-aur-kuchh-na-kahen-mirza-ghalib-ghazals," मैं उन्हें छेड़ूँ और कुछ न कहें चल निकलते जो मय पिए होते क़हर हो या बला हो जो कुछ हो काश के तुम मिरे लिए होते मेरी क़िस्मत में ग़म गर इतना था दिल भी या-रब कई दिए होते आ ही जाता वो राह पर 'ग़ालिब' कोई दिन और भी जिए होते " khamoshiyon-men-tamaashaa-adaa-nikaltii-hai-mirza-ghalib-ghazals," ख़मोशियों में तमाशा अदा निकलती है निगाह दिल से तिरे सुर्मा-सा निकलती है फ़शार-ए-तंगी-ए-ख़ल्वत से बनती है शबनम सबा जो ग़ुंचे के पर्दे में जा निकलती है न पूछ सीना-ए-आशिक़ से आब-ए-तेग़-ए-निगाह कि ज़ख्म-ए-रौज़न-ए-दर से हवा निकलती है ब-रंग-ए-शीशा हूँ यक-गोश-ए-दिल-ए-ख़ाली कभी परी मिरी ख़ल्वत में आ निकलती है " dahr-men-naqsh-e-vafaa-vajh-e-tasallii-na-huaa-mirza-ghalib-ghazals," दहर में नक़्श-ए-वफ़ा वजह-ए-तसल्ली न हुआ है ये वो लफ़्ज़ कि शर्मिंदा-ए-मअ'नी न हुआ सब्ज़ा-ए-ख़त से तिरा काकुल-ए-सरकश न दबा ये ज़मुर्रद भी हरीफ़-ए-दम-ए-अफ़ई न हुआ मैं ने चाहा था कि अंदोह-ए-वफ़ा से छूटूँ वो सितमगर मिरे मरने पे भी राज़ी न हुआ दिल गुज़रगाह-ए-ख़याल-ए-मय-ओ-साग़र ही सही गर नफ़स जादा-ए-सर-मंज़िल-ए-तक़्वी न हुआ हूँ तिरे वा'दा न करने में भी राज़ी कि कभी गोश मिन्नत-कश-ए-गुलबाँग-ए-तसल्ली न हुआ किस से महरूमी-ए-क़िस्मत की शिकायत कीजे हम ने चाहा था कि मर जाएँ सो वो भी न हुआ मर गया सदमा-ए-यक-जुम्बिश-ए-लब से 'ग़ालिब' ना-तवानी से हरीफ़-ए-दम-ए-ईसी न हुआ न हुई हम से रक़म हैरत-ए-ख़त्त-ए-रुख़-ए-यार सफ़्हा-ए-आइना जौलाँ-गह-ए-तूती न हुआ वुसअत-ए-रहमत-ए-हक़ देख कि बख़्शा जावे मुझ सा काफ़िर कि जो ममनून-ए-मआसी न हुआ " main-aur-bazm-e-mai-se-yuun-tishna-kaam-aauun-mirza-ghalib-ghazals," मैं और बज़्म-ए-मय से यूँ तिश्ना-काम आऊँ गर मैं ने की थी तौबा साक़ी को क्या हुआ था है एक तीर जिस में दोनों छिदे पड़े हैं वो दिन गए कि अपना दिल से जिगर जुदा था दरमांदगी में 'ग़ालिब' कुछ बन पड़े तो जानूँ जब रिश्ता बे-गिरह था नाख़ुन गिरह-कुशा था " rahiye-ab-aisii-jagah-chal-kar-jahaan-koii-na-ho-mirza-ghalib-ghazals," रहिए अब ऐसी जगह चल कर जहाँ कोई न हो हम-सुख़न कोई न हो और हम-ज़बाँ कोई न हो बे-दर-ओ-दीवार सा इक घर बनाया चाहिए कोई हम-साया न हो और पासबाँ कोई न हो पड़िए गर बीमार तो कोई न हो तीमारदार और अगर मर जाइए तो नौहा-ख़्वाँ कोई न हो " ug-rahaa-hai-dar-o-diivaar-pe-sabza-gaalib-mirza-ghalib-ghazals," उग रहा है दर-ओ-दीवार से सब्ज़ा 'ग़ालिब' हम बयाबाँ में हैं और घर में बहार आई है " piinas-men-guzarte-hain-jo-kuuche-se-vo-mere-mirza-ghalib-ghazals," पीनस में गुज़रते हैं जो कूचे से वो मेरे कंधा भी कहारों को बदलने नहीं देते " gair-len-mahfil-men-bose-jaam-ke-mirza-ghalib-ghazals," ग़ैर लें महफ़िल में बोसे जाम के हम रहें यूँ तिश्ना-लब पैग़ाम के ख़स्तगी का तुम से क्या शिकवा कि ये हथकण्डे हैं चर्ख़-ए-नीली-फ़ाम के ख़त लिखेंगे गरचे मतलब कुछ न हो हम तो आशिक़ हैं तुम्हारे नाम के रात पी ज़मज़म पे मय और सुब्ह-दम धोए धब्बे जामा-ए-एहराम के दिल को आँखों ने फँसाया क्या मगर ये भी हल्क़े हैं तुम्हारे दाम के शाह के है ग़ुस्ल-ए-सेह्हत की ख़बर देखिए कब दिन फिरें हम्माम के इश्क़ ने 'ग़ालिब' निकम्मा कर दिया वर्ना हम भी आदमी थे काम के " hujuum-e-gam-se-yaan-tak-sar-niguunii-mujh-ko-haasil-hai-mirza-ghalib-ghazals," हुजूम-ए-ग़म से याँ तक सर-निगूनी मुझ को हासिल है कि तार-ए-दामन ओ तार-ए-नज़र में फ़र्क़ मुश्किल है रफ़ू-ए-ज़ख्म से मतलब है लज़्ज़त ज़ख़्म-ए-सोज़न की समझियो मत कि पास-ए-दर्द से दीवाना ग़ाफ़िल है वो गुल जिस गुल्सिताँ में जल्वा-फ़रमाई करे 'ग़ालिब' चटकना ग़ुंचा-ए-गुल का सदा-ए-ख़ंदा-ए-दिल है हुआ है माने-ए-आशिक़-नवाज़ी नाज़-ए-ख़ुद-बीनी तकल्लुफ़-बर-तरफ़ आईना-ए-तमईज़ हाएल है ब-सैल-ए-अश्क लख़्त-ए-दिल है दामन-गीर मिज़्गाँ का ग़रीक़-ए-बहर जूया-ए-ख़स-ओ-ख़ाशाक-ए-साहिल है बहा है याँ तक अश्कों में ग़ुबा-ए-कुल्फ़त-ए-ख़ातिर कि चश्म-ए-तर में हर इक पारा-ए-दिल पा-ए-दर-गिल है निकलती है तपिश में बिस्मिलों की बर्क़ की शोख़ी ग़रज़ अब तक ख़याल-ए-गर्मी-ए-रफ़्तार क़ातिल है " ham-se-khul-jaao-ba-vaqt-e-mai-parastii-ek-din-mirza-ghalib-ghazals," हम से खुल जाओ ब-वक़्त-ए-मय-परस्ती एक दिन वर्ना हम छेड़ेंगे रख कर उज़्र-ए-मस्ती एक दिन ग़र्रा-ए-औज-ए-बिना-ए-आलम-ए-इमकाँ न हो इस बुलंदी के नसीबों में है पस्ती एक दिन क़र्ज़ की पीते थे मय लेकिन समझते थे कि हाँ रंग लावेगी हमारी फ़ाक़ा-मस्ती एक दिन नग़्मा-हा-ए-ग़म को भी ऐ दिल ग़नीमत जानिए बे-सदा हो जाएगा ये साज़-ए-हस्ती एक दिन धौल-धप्पा उस सरापा-नाज़ का शेवा नहीं हम ही कर बैठे थे 'ग़ालिब' पेश-दस्ती एक दिन " jis-jaa-nasiim-shaanaa-kash-e-zulf-e-yaar-hai-mirza-ghalib-ghazals," जिस जा नसीम शाना-कश-ए-ज़ुल्फ़-ए-यार है नाफ़ा दिमाग़-ए-आहु-ए-दश्त-ए-ततार है किस का सुराग़ जल्वा है हैरत को ऐ ख़ुदा आईना फ़र्श-ए-शश-जहत-ए-इंतिज़ार है है ज़र्रा ज़र्रा तंगी-ए-जा से ग़ुबार-ए-शौक़ गर दाम ये है वुसअ'त-ए-सहरा शिकार है दिल मुद्दई' ओ दीदा बना मुद्दा-अलैह नज़्ज़ारे का मुक़द्दमा फिर रू-ब-कार है छिड़के है शबनम आईना-ए-बर्ग-ए-गुल पर आब ऐ अंदलीब वक़्त-ए-वदा-ए-बहार है पच आ पड़ी है वादा-ए-दिल-दार की मुझे वो आए या न आए पे याँ इंतिज़ार है बे-पर्दा सू-ए-वादी-ए-मजनूँ गुज़र न कर हर ज़र्रा के नक़ाब में दिल बे-क़रार है ऐ अंदलीब यक कफ़-ए-ख़स बहर-ए-आशयाँ तूफ़ान-ए-आमद आमद-ए-फ़स्ल-ए-बहार है दिल मत गँवा ख़बर न सही सैर ही सही ऐ बे-दिमाग़ आईना तिमसाल-दार है ग़फ़लत कफ़ील-ए-उम्र ओ 'असद' ज़ामिन-ए-नशात ऐ मर्ग-ए-ना-गहाँ तुझे क्या इंतिज़ार है " junuun-tohmat-kash-e-taskiin-na-ho-gar-shaadmaanii-kii-mirza-ghalib-ghazals," जुनूँ तोहमत-कश-ए-तस्कीं न हो गर शादमानी की नमक-पाश-ए-ख़राश-ए-दिल है लज़्ज़त ज़िंदगानी की कशाकश-हा-ए-हस्ती से करे क्या सई-ए-आज़ादी हुई ज़ंजीर मौज-ए-आब को फ़ुर्सत रवानी की पस-अज़-मुर्दन भी दीवाना ज़ियारत-गाह-ए-तिफ़्लाँ है शरार-ए-संग ने तुर्बत पे मेरी गुल-फ़िशानी की " nafas-na-anjuman-e-aarzuu-se-baahar-khiinch-mirza-ghalib-ghazals," नफ़स न अंजुमन-ए-आरज़ू से बाहर खींच अगर शराब नहीं इंतिज़ार-ए-साग़र खींच कमाल-ए-गर्मी-ए-सई-ए-तलाश-ए-दीद न पूछ ब-रंग-ए-ख़ार मिरे आइने से जौहर खींच तुझे बहाना-ए-राहत है इंतिज़ार ऐ दिल किया है किस ने इशारा कि नाज़-ए-बिस्तर खींच तिरी तरफ़ है ब-हसरत नज़ारा-ए-नर्गिस ब-कोरी-ए-दिल-ओ-चश्म-ए-रक़ीब साग़र खींच ब-नीम-ग़म्ज़ा अदा कर हक़-ए-वदीअत-ए-नाज़ नियाम-ए-पर्दा-ए-ज़ख़्म-ए-जिगर से ख़ंजर खींच मिरे क़दह में है सहबा-ए-आतिश-ए-पिन्हाँ ब-रू-ए-सुफ़रा कबाब-ए-दिल-ए-समंदर खींच न कह कि ताक़त-ए-रुस्वाई-ए-विसाल नहीं अगर यही अरक़-ए-फ़ित्ना है मुकर्रर खींच जुनून-ए-आइना मुश्ताक़-ए-यक-तमाशा है हमारे सफ़्हे पे बाल-ए-परी से मिस्तर खींच ख़ुमार-ए-मिन्नत-ए-साक़ी अगर यही है 'असद' दिल-ए-गुदाख़्ता के मय-कदे में साग़र खींच " kyaa-tang-ham-sitam-zadagaan-kaa-jahaan-hai-mirza-ghalib-ghazals," क्या तंग हम सितम-ज़दगाँ का जहान है जिस में कि एक बैज़ा-ए-मोर आसमान है है काएनात को हरकत तेरे ज़ौक़ से परतव से आफ़्ताब के ज़र्रे में जान है हालाँकि है ये सीली-ए-ख़ारा से लाला रंग ग़ाफ़िल को मेरे शीशे पे मय का गुमान है की उस ने गर्म सीना-ए-अहल-ए-हवस में जा आवे न क्यूँ पसंद कि ठंडा मकान है क्या ख़ूब तुम ने ग़ैर को बोसा नहीं दिया बस चुप रहो हमारे भी मुँह में ज़बान है बैठा है जो कि साया-ए-दीवार-ए-यार में फ़रमाँ-रवा-ए-किश्वर-ए-हिन्दुस्तान है हस्ती का ए'तिबार भी ग़म ने मिटा दिया किस से कहूँ कि दाग़ जिगर का निशान है है बारे ए'तिमाद-ए-वफ़ा-दारी इस क़दर 'ग़ालिब' हम इस में ख़ुश हैं कि ना-मेहरबान है देहली के रहने वालो 'असद' को सताओ मत बे-चारा चंद रोज़ का याँ मेहमान है " gulshan-ko-tirii-sohbat-az-bas-ki-khush-aaii-hai-mirza-ghalib-ghazals," गुलशन को तिरी सोहबत अज़-बस-कि ख़ुश आई है हर ग़ुंचे का गुल होना आग़ोश-कुशाई है वाँ कुंगुर-ए-इस्तिग़्ना हर-दम है बुलंदी पर याँ नाले को और उल्टा दावा-ए-रसाई है अज़-बस-कि सिखाता है ग़म ज़ब्त के अंदाज़े जो दाग़ नज़र आया इक चश्म-नुमाई है " zikr-meraa-ba-badii-bhii-use-manzuur-nahiin-mirza-ghalib-ghazals," ज़िक्र मेरा ब-बदी भी उसे मंज़ूर नहीं ग़ैर की बात बिगड़ जाए तो कुछ दूर नहीं वादा-ए-सैर-ए-गुलिस्ताँ है ख़ुशा ताले-ए-शौक़ मुज़्दा-ए-क़त्ल मुक़द्दर है जो मज़कूर नहीं शाहिद-ए-हस्ती-ए-मुतलक़ की कमर है आलम लोग कहते हैं कि है पर हमें मंज़ूर नहीं क़तरा अपना भी हक़ीक़त में है दरिया लेकिन हम को तक़लीद-ए-तुनुक-ज़र्फ़ी-ए-मंसूर नहीं हसरत ऐ ज़ौक़-ए-ख़राबी कि वो ताक़त न रही इश्क़-ए-पुर-अरबदा की गूँ तन-ए-रंजूर नहीं मैं जो कहता हूँ कि हम लेंगे क़यामत में तुम्हें किस रऊनत से वो कहते हैं कि हम हूर नहीं ज़ुल्म कर ज़ुल्म अगर लुत्फ़ दरेग़ आता हो तू तग़ाफ़ुल में किसी रंग से मअज़ूर नहीं साफ़ दुर्दी-कश-ए-पैमाना-ए-जम हैं हम लोग वाए वो बादा कि अफ़्शुर्दा-ए-अंगूर नहीं हूँ ज़ुहूरी के मुक़ाबिल में ख़िफ़ाई 'ग़ालिब' मेरे दावे पे ये हुज्जत है कि मशहूर नहीं " havas-ko-hai-nashaat-e-kaar-kyaa-kyaa-mirza-ghalib-ghazals," हवस को है नशात-ए-कार क्या क्या न हो मरना तो जीने का मज़ा क्या तजाहुल-पेशगी से मुद्दआ क्या कहाँ तक ऐ सरापा नाज़ क्या क्या नवाज़िश-हा-ए-बेजा देखता हूँ शिकायत-हा-ए-रंगीं का गिला क्या निगाह-ए-बे-महाबा चाहता हूँ तग़ाफ़ुल-हा-ए-तमकीं-आज़मा क्या फ़रोग़-ए-शोला-ए-ख़स यक-नफ़स है हवस को पास-ए-नामूस-ए-वफ़ा क्या नफ़स मौज-ए-मुहीत-ए-बे-ख़ुदी है तग़ाफ़ुल-हा-ए-साक़ी का गिला क्या दिमाग़-ए-इत्र-ए-पैराहन नहीं है ग़म-ए-आवारगी-हा-ए-सबा क्या दिल-ए-हर-क़तरा है साज़-ए-अनल-बहर हम उस के हैं हमारा पूछना क्या मुहाबा क्या है मैं ज़ामिन इधर देख शहीदान-ए-निगह का ख़ूँ-बहा क्या सुन ऐ ग़ारत-गर-ए-जिंस-ए-वफ़ा सुन शिकस्त-ए-शीशा-ए-दिल की सदा क्या किया किस ने जिगर-दारी का दावा शकीब-ए-ख़ातिर-ए-आशिक़ भला क्या ये क़ातिल वादा-ए-सब्र-आज़मा क्यूँ ये काफ़िर फ़ित्ना-ए-ताक़त-रुबा क्या बला-ए-जाँ है 'ग़ालिब' उस की हर बात इबारत क्या इशारत क्या अदा क्या " kare-hai-baada-tire-lab-se-kasb-e-rang-e-farog-mirza-ghalib-ghazals," करे है बादा तिरे लब से कस्ब-ए-रंग-ए-फ़रोग़ ख़त-ए-पियाला सरासर निगाह-ए-गुल-चीं है कभी तो इस दिल-ए-शोरीदा की भी दाद मिले कि एक उम्र से हसरत-परस्त-ए-बालीं है बजा है गर न सुने नाला-हा-ए-बुलबुल-ए-ज़ार कि गोश-ए-गुल नम-ए-शबनम से पमबा-आगीं है 'असद' है नज़'अ में चल बेवफ़ा बरा-ए-ख़ुदा मक़ाम-ए-तर्क-ए-हिजाब ओ विदा-ए-तम्कीं है " na-leve-gar-khas-e-jauhar-taraavat-sabza-e-khat-se-mirza-ghalib-ghazals," न लेवे गर ख़स-ए-जौहर तरावत सब्ज़ा-ए-ख़त से लगाए ख़ाना-ए-आईना में रू-ए-निगार आतिश फ़रोग़-ए-हुस्न से होती है हल्ल-ए-मुश्किल-ए-आशिक़ न निकले शम्अ' के पा से निकाले गर न ख़ार आतिश शरर है रंग बअ'द इज़हार-ए-ताब-ए-जल्वा-ए-तम्कीं करे है संग पर ख़ुर्शीद आब-ए-रू-ए-कार आतिश पनावे बे-गुदाज़-ए-मोम रब्त-ए-पैकर-आराई निकाले क्या निहाल-ए-शम्अ बे-तुख़्म-ए-शरार आतिश ख़याल-ए-दूद था सर-जोश-ए-साैदा-ए-ग़लत-फ़हमी अगर रखती न ख़ाकिस्तर-नशीनी का ग़ुबार आतिश हवा-ए-पर-फ़िशानी बर्क़-ए-ख़िर्मन-हा-ए-ख़ातिर है ब-बाल-ए-शोला-ए-बेताब है परवाना-ज़ार आतिश नहीं बर्क़-ओ-शरर जुज़ वहशत-ए-ज़ब्त-ए-तपीदन-हा बिला गर्दान-ए-बे-परवा ख़रामी-हा-ए-यार आतिश धुएँ से आग के इक अब्र-ए-दरिया-बार हो पैदा 'असद' हैदर-परस्तों से अगर होवे दो-चार आतिश " huzuur-e-shaah-men-ahl-e-sukhan-kii-aazmaaish-hai-mirza-ghalib-ghazals," हुज़ूर-ए-शाह में अहल-ए-सुख़न की आज़माइश है चमन में ख़ुश-नवायान-ए-चमन की आज़माइश है क़द ओ गेसू में क़ैस ओ कोहकन की आज़माइश है जहाँ हम हैं वहाँ दार-ओ-रसन की आज़माइश है करेंगे कोहकन के हौसले का इम्तिहान आख़िर अभी उस ख़स्ता के नेरवे तन की आज़माइश है नसीम-ए-मिस्र को क्या पीर-ए-कनआँ' की हवा-ख़्वाही उसे यूसुफ़ की बू-ए-पैरहन की आज़माइश है वो आया बज़्म में देखो न कहियो फिर कि ग़ाफ़िल थे शकेब-ओ-सब्र-ए-अहल-ए-अंजुमन की आज़माइश है रहे दिल ही में तीर अच्छा जिगर के पार हो बेहतर ग़रज़ शुस्त-ए-बुत-ए-नावक-फ़गन की आज़माइश है नहीं कुछ सुब्हा-ओ-ज़ुन्नार के फंदे में गीराई वफ़ादारी में शैख़ ओ बरहमन की आज़माइश है पड़ा रह ऐ दिल-ए-वाबस्ता बेताबी से क्या हासिल मगर फिर ताब-ए-ज़ुल्फ़-ए-पुर-शिकन की आज़माइश है रग-ओ-पय में जब उतरे ज़हर-ए-ग़म तब देखिए क्या हो अभी तो तल्ख़ी-ए-काम-ओ-दहन की आज़माइश है वो आवेंगे मिरे घर वा'दा कैसा देखना 'ग़ालिब' नए फ़ित्नों में अब चर्ख़-ए-कुहन की आज़माइश है " ham-par-jafaa-se-tark-e-vafaa-kaa-gumaan-nahiin-mirza-ghalib-ghazals," हम पर जफ़ा से तर्क-ए-वफ़ा का गुमाँ नहीं इक छेड़ है वगरना मुराद इम्तिहाँ नहीं किस मुँह से शुक्र कीजिए इस लुत्फ़-ए-ख़ास का पुर्सिश है और पा-ए-सुख़न दरमियाँ नहीं हम को सितम अज़ीज़ सितमगर को हम अज़ीज़ ना-मेहरबाँ नहीं है अगर मेहरबाँ नहीं बोसा नहीं न दीजिए दुश्नाम ही सही आख़िर ज़बाँ तो रखते हो तुम गर दहाँ नहीं हर-चंद जाँ-गुदाज़ी-ए-क़हर-ओ-इताब है हर-चंद पुश्त-ए-गर्मी-ए-ताब-ओ-तवाँ नहीं जाँ मुतरिब-ए-तराना-ए-हल-मिम-मज़ीद है लब पर्दा-संज-ए-ज़मज़मा-ए-अल-अमाँ नहीं ख़ंजर से चीर सीना अगर दिल न हो दो-नीम दिल में छुरी चुभो मिज़ा गर ख़ूँ-चकाँ नहीं है नंग-ए-सीना दिल अगर आतिश-कदा न हो है आर-ए-दिल नफ़स अगर आज़र-फ़िशाँ नहीं नुक़साँ नहीं जुनूँ में बला से हो घर ख़राब सौ गज़ ज़मीं के बदले बयाबाँ गिराँ नहीं कहते हो क्या लिखा है तिरी सरनविश्त में गोया जबीं पे सजदा-ए-बुत का निशाँ नहीं पाता हूँ उस से दाद कुछ अपने कलाम की रूहुल-क़ुदुस अगरचे मिरा हम-ज़बाँ नहीं जाँ है बहा-ए-बोसा वले क्यूँ कहे अभी 'ग़ालिब' को जानता है कि वो नीम-जाँ नहीं जिस जा कि पा-ए-सैल-ए-बला दरमियाँ नहीं दीवानगाँ को वाँ हवस-ए-ख़ानमाँ नहीं गुल ग़ुन्चग़ी में ग़र्क़ा-ए-दरिया-ए-रंग है ऐ आगही फ़रेब-ए-तमाशा कहाँ नहीं किस जुर्म से है चश्म तुझे हसरत क़ुबूल बर्ग-ए-हिना मगर मिज़ा-ए-ख़ूँ-फ़िशाँ नहीं हर रंग-ए-गर्दिश आइना ईजाद-ए-दर्द है अश्क-ए-सहाब जुज़ ब-विदा-ए-ख़िज़ाँ नहीं जुज़ इज्ज़ क्या करूँ ब-तमन्ना-ए-बे-ख़ुदी ताक़त हरीफ़-ए-सख़्ती-ए-ख़्वाब-ए-गिराँ नहीं इबरत से पूछ दर्द-ए-परेशानी-ए-निगाह ये गर्द-ए-वहम जुज़ बसर-ए-इम्तिहाँ नहीं बर्क़-ए-बजान-ए-हौसला आतिश-फ़गन 'असद' ऐ दिल-फ़सुर्दा ताक़त-ए-ज़ब्त-ए-फ़ुग़ाँ नहीं " pae-nazr-e-karam-tohfa-hai-sharm-e-naa-rasaaii-kaa-mirza-ghalib-ghazals," पए-नज़्र-ए-करम तोहफ़ा है शर्म-ए-ना-रसाई का ब-खूँ-ग़ल्तीदा-ए-सद-रंग दा'वा पारसाई का न हो हुस्न-ए-तमाशा-दोस्त रुस्वा बेवफ़ाई का ब-मोहर-ए-सद-नज़र साबित है दा'वा पारसाई का ज़कात-ए-हुस्न दे ऐ जल्वा-ए-बीनिश कि मेहर-आसा चराग़-ए-ख़ाना-ए-दर्वेश हो कासा गदाई का न मारा जान कर बे-जुर्म ग़ाफ़िल तेरी गर्दन पर रहा मानिंद-ए-ख़ून-ए-बे-गुनह हक़ आश्नाई का तमन्ना-ए-ज़बान महव-ए-सिपास-ए-बे-ज़बानी है मिटा जिस से तक़ाज़ा शिकवा-ए-बे-दस्त-ओ-पाई का वही इक बात है जो याँ नफ़स वाँ निकहत-ए-गुल है चमन का जल्वा बाइ'स है मिरी रंगीं-नवाई का दहान-ए-हर-बुत-ए-पैग़ारा-जू ज़ंजीर-ए-रुस्वाई अदम तक बेवफ़ा चर्चा है तेरी बेवफ़ाई का न दे नाले को इतना तूल 'ग़ालिब' मुख़्तसर लिख दे कि हसरत-संज हूँ अर्ज़-ए-सितम-हा-ए-जुदाई का जहाँ मिट जाए सई-ए-दीद ख़िज़्रआबाद-ए-आसाइश ब-जेब-ए-हर-निगह पिन्हाँ है हासिल रहनुमाई का ब-इज्ज़-आबाद वहम-ए-मुद्दआ तस्लीम-ए-शोख़ी है तग़ाफ़ुल को न कर मसरूफ़-ए-तम्कीं-आज़माई का 'असद' का क़िस्सा तूलानी है लेकिन मुख़्तसर ये है कि हसरत-कश रहा अर्ज़-ए-सितम-हा-ए-जुदाई का हवस गुस्ताख़ी-ए-आईना तकलीफ़-ए-नज़र-बाज़ी ब-जेब-ए-आरज़ू पिन्हाँ है हासिल दिलरुबाई का नज़र-बाज़ी तिलिस्म-ए-वहशत-आबाद-ए-परिस्ताँ है रहा बेगाना-ए-तासीर अफ़्सूँ आश्नाई का न पाया दर्दमंद-ए-दूरी-ए-यारान-ए-यक-दिल ने सवाद-ए-ख़त्त-ए-पेशानी से नुस्ख़ा मोम्याई का 'असद' ये इज्ज़-ओ-बे-सामानी-ए-फ़िरऔन-ए-तौअम है जिसे तू बंदगी कहता है दा'वा है ख़ुदाई का " gar-na-andoh-e-shab-e-furqat-bayaan-ho-jaaegaa-mirza-ghalib-ghazals," गर न अंदोह-ए-शब-ए-फ़ुर्क़त बयाँ हो जाएगा बे-तकल्लुफ़ दाग़-ए-मह मोहर-ए-दहाँ हो जाएगा ज़ोहरा गर ऐसा ही शाम-ए-हिज्र में होता है आब परतव-ए-महताब सैल-ए-ख़ानुमाँ हो जाएगा ले तो लूँ सोते में उस के पाँव का बोसा मगर ऐसी बातों से वो काफ़िर बद-गुमाँ हो जाएगा दिल को हम सर्फ-ए-वफ़ा समझे थे क्या मालूम था यानी ये पहले ही नज़्र-ए-इम्तिहाँ हो जाएगा सब के दिल में है जगह तेरी जो तू राज़ी हुआ मुझ पे गोया इक ज़माना मेहरबाँ हो जाएगा गर निगाह-ए-गर्म फ़रमाती रही तालीम-ए-ज़ब्त शोला ख़स में जैसे ख़ूँ रग में निहाँ हो जाएगा बाग़ में मुझ को न ले जा वर्ना मेरे हाल पर हर गुल-ए-तर एक चश्म-ए-ख़ूँ-फ़िशाँ हो जाएगा वाए! गर मेरा तिरा इंसाफ़ महशर में न हो अब तलक तो ये तवक़्क़ो है कि वाँ हो जाएगा फ़ाएदा क्या सोच आख़िर तू भी दाना है 'असद' दोस्ती नादाँ की है जी का ज़ियाँ हो जाएगा " lataafat-be-kasaafat-jalva-paidaa-kar-nahiin-saktii-mirza-ghalib-ghazals," लताफ़त बे-कसाफ़त जल्वा पैदा कर नहीं सकती चमन ज़ंगार है आईना-ए-बाद-ए-बहारी का हरीफ़-ए-जोशिश-ए-दरिया नहीं खुद्दारी-ए-साहिल जहाँ साक़ी हो तू बातिल है दा'वा होशियारी का बहार-ए-रंग-ए-ख़ून-ए-गुल है सामाँ अश्क-बारी का जुनून-ए-बर्क़ नश्तर है रग-ए-अब्र-ए-बहारी का बरा-ए-हल्ल-ए-मुश्किल हूँ ज़ि-पा उफ़्तादा-ए-हसरत बँधा है उक़्दा-ए-ख़ातिर से पैमाँ ख़ाकसारी का ब-वक़्त-ए-सर-निगूनी है तसव्वुर इंतिज़ारिस्ताँ निगह को आबलों से शग़्ल है अख़्तर-शुमारी का 'असद' साग़र-कश-ए-तस्लीम हो गर्दिश से गर्दूं की कि नंग-ए-फ़हम-ए-मस्ताँ है गिला बद-रोज़गारी का " biim-e-raqiib-se-nahiin-karte-vida-e-hosh-mirza-ghalib-ghazals," बीम-ए-रक़ीब से नहीं करते विदा-ए-होश मजबूर याँ तलक हुए ऐ इख़्तियार हैफ़ जलता है दिल कि क्यूँ न हम इक बार जल गए ऐ ना-तमामी-ए-नफ़स-ए-शोला-बार हैफ़ " vusat-e-sai-e-karam-dekh-ki-sar-taa-sar-e-khaak-mirza-ghalib-ghazals," वुसअत-ए-सई-ए-करम देख कि सर-ता-सर-ए-ख़ाक गुज़रे है आबला-पा अब्र-ए-गुहर-बार हुनूज़ यक-क़लम काग़ज़-ए-आतिश-ज़दा है सफ़्हा-ए-दश्त नक़्श-ए-पा में है तब-ए-गर्मी-ए-रफ़्तार हुनूज़ दाग़-ए-अतफ़ाल है दीवाना ब-कोहसार हुनूज़ ख़ल्वत-ए-संग में है नाला तलब-गार हुनूज़ ख़ाना है सैल से ख़ू-कर्दा-ए-दीदार हुनूज़ दूरबीं दर-ज़दा है रख़्ना-ए-दीवार हुनूज़ आई यक-उम्र से मअज़ूर-ए-तमाशा नर्गिस चश्म-ए-शबनम में न टूटा मिज़ा-ए-ख़ार हुनूज़ क्यूँ हुआ था तरफ़-ए-आबला-ए-पा या-रब जादा है वा-शुदन-ए-पेचिश-ए-तूमार हुनूज़ हों ख़मोशी-ए-चमन हसरत-ए-दीदार 'असद' मिज़ा है शाना-कश-ए-तुर्रा-ए-गुफ़्तार हुनूज़ " kyuun-jal-gayaa-na-taab-e-rukh-e-yaar-dekh-kar-mirza-ghalib-ghazals," क्यूँ जल गया न ताब-ए-रुख़-ए-यार देख कर जलता हूँ अपनी ताक़त-ए-दीदार देख कर आतिश-परस्त कहते हैं अहल-ए-जहाँ मुझे सरगर्म-ए-नाला-हा-ए-शरर-बार देख कर क्या आबरू-ए-इश्क़ जहाँ आम हो जफ़ा रुकता हूँ तुम को बे-सबब आज़ार देख कर आता है मेरे क़त्ल को पर जोश-ए-रश्क से मरता हूँ उस के हाथ में तलवार देख कर साबित हुआ है गर्दन-ए-मीना पे ख़ून-ए-ख़ल्क़ लरज़े है मौज-ए-मय तिरी रफ़्तार देख कर वा-हसरता कि यार ने खींचा सितम से हाथ हम को हरीस-ए-लज़्ज़त-ए-आज़ार देख कर बिक जाते हैं हम आप मता-ए-सुख़न के साथ लेकिन अयार-ए-तबअ-ए-ख़रीदार देख कर ज़ुन्नार बाँध सुब्हा-ए-सद-दाना तोड़ डाल रह-रौ चले है राह को हमवार देख कर इन आबलों से पाँव के घबरा गया था मैं जी ख़ुश हुआ है राह को पुर-ख़ार देख कर क्या बद-गुमाँ है मुझ से कि आईने में मिरे तूती का अक्स समझे है ज़ंगार देख कर गिरनी थी हम पे बर्क़-ए-तजल्ली न तूर पर देते हैं बादा ज़र्फ़-ए-क़दह-ख़्वार देख कर सर फोड़ना वो 'ग़ालिब'-ए-शोरीदा हाल का याद आ गया मुझे तिरी दीवार देख कर " tum-jaano-tum-ko-gair-se-jo-rasm-o-raah-ho-mirza-ghalib-ghazals," तुम जानो तुम को ग़ैर से जो रस्म-ओ-राह हो मुझ को भी पूछते रहो तो क्या गुनाह हो बचते नहीं मुवाख़ज़ा-ए-रोज़-ए-हश्र से क़ातिल अगर रक़ीब है तो तुम गवाह हो क्या वो भी बे-गुनह-कुश ओ हक़-ना-शनास हैं माना कि तुम बशर नहीं ख़ुर्शीद ओ माह हो उभरा हुआ नक़ाब में है उन के एक तार मरता हूँ मैं कि ये न किसी की निगाह हो जब मय-कदा छुटा तो फिर अब क्या जगह की क़ैद मस्जिद हो मदरसा हो कोई ख़ानक़ाह हो सुनते हैं जो बहिश्त की तारीफ़ सब दुरुस्त लेकिन ख़ुदा करे वो तिरा जल्वा-गाह हो 'ग़ालिब' भी गर न हो तो कुछ ऐसा ज़रर नहीं दुनिया हो या रब और मिरा बादशाह हो " ibn-e-maryam-huaa-kare-koii-mirza-ghalib-ghazals," इब्न-ए-मरियम हुआ करे कोई मेरे दुख की दवा करे कोई शरअ' ओ आईन पर मदार सही ऐसे क़ातिल का क्या करे कोई चाल जैसे कड़ी कमान का तीर दिल में ऐसे के जा करे कोई बात पर वाँ ज़बान कटती है वो कहें और सुना करे कोई बक रहा हूँ जुनूँ में क्या क्या कुछ कुछ न समझे ख़ुदा करे कोई न सुनो गर बुरा कहे कोई न कहो गर बुरा करे कोई रोक लो गर ग़लत चले कोई बख़्श दो गर ख़ता करे कोई कौन है जो नहीं है हाजत-मंद किस की हाजत रवा करे कोई क्या किया ख़िज़्र ने सिकंदर से अब किसे रहनुमा करे कोई जब तवक़्क़ो ही उठ गई 'ग़ालिब' क्यूँ किसी का गिला करे कोई " kahte-ho-na-denge-ham-dil-agar-padaa-paayaa-mirza-ghalib-ghazals," कहते हो न देंगे हम दिल अगर पड़ा पाया दिल कहाँ कि गुम कीजे हम ने मुद्दआ' पाया इश्क़ से तबीअ'त ने ज़ीस्त का मज़ा पाया दर्द की दवा पाई दर्द-ए-बे-दवा पाया दोस्त-दार-ए-दुश्मन है ए'तिमाद-ए-दिल मा'लूम आह बे-असर देखी नाला ना-रसा पाया सादगी ओ पुरकारी बे-ख़ुदी ओ हुश्यारी हुस्न को तग़ाफ़ुल में जुरअत-आज़मा पाया ग़ुंचा फिर लगा खिलने आज हम ने अपना दिल ख़ूँ किया हुआ देखा गुम किया हुआ पाया हाल-ए-दिल नहीं मा'लूम लेकिन इस क़दर या'नी हम ने बार-हा ढूँडा तुम ने बार-हा पाया शोर-ए-पंद-ए-नासेह ने ज़ख़्म पर नमक छिड़का आप से कोई पूछे तुम ने क्या मज़ा पाया है कहाँ तमन्ना का दूसरा क़दम या रब हम ने दश्त-ए-इम्काँ को एक नक़्श-ए-पा पाया बे-दिमाग़-ए-ख़जलत हूँ रश्क-ए-इम्तिहाँ ता-कै एक बेकसी तुझ को आलम-आश्ना पाया ख़ाक-बाज़ी-ए-उम्मीद कार-ख़ाना-ए-तिफ़्ली यास को दो-आलम से लब-ब-ख़ंदा वा पाया क्यूँ न वहशत-ए-ग़ालिब बाज-ख़्वाह-ए-तस्कीं हो कुश्ता-ए-तग़ाफ़ुल को ख़स्म-ए-ख़ूँ-बहा पाया फ़िक्र-ए-नाला में गोया हल्क़ा हूँ ज़े-सर-ता-पा उज़्व उज़्व जूँ ज़ंजीर यक-दिल-ए-सदा पाया शब नज़ारा-परवर था ख़्वाब में ख़याल उस का सुब्ह मौजा-ए-गुल को नक़्श-ए-बोरिया पाया जिस क़दर जिगर ख़ूँ हो कूचा दादन-ए-गुल है ज़ख्म-ए-तेग़-ए-क़ातिल को तुर्फ़ा दिल-कुशा पाया है मकीं की पा-दारी नाम-ए-साहिब-ए-ख़ाना हम से तेरे कूचे ने नक़्श-ए-मुद्दआ पाया ने 'असद' जफ़ा-साइल ने सितम जुनूँ-माइल तुझ को जिस क़दर ढूँडा उल्फ़त-आज़मा पाया " shab-ki-vo-majlis-faroz-e-khalvat-e-naamuus-thaa-mirza-ghalib-ghazals," शब कि वो मजलिस-फ़रोज़-ए-ख़ल्वत-ए-नामूस था रिश्ता-ए-हर-शम'अ ख़ार-ए-किस्वत-ए-फ़ानूस था मशहद-ए-आशिक़ से कोसों तक जो उगती है हिना किस क़दर या-रब हलाक-ए-हसरत-ए-पा-बोस था हासिल-ए-उल्फ़त न देखा जुज़-शिकस्त-ए-आरज़ू दिल-ब-दिल पैवस्ता गोया यक लब-ए-अफ़्सोस था क्या कहूँ बीमारी-ए-ग़म की फ़राग़त का बयाँ जो कि खाया ख़ून-ए-दिल बे-मिन्नत-ए-कैमूस था " dard-se-mere-hai-tujh-ko-be-qaraarii-haae-haae-mirza-ghalib-ghazals," दर्द से मेरे है तुझ को बे-क़रारी हाए हाए क्या हुई ज़ालिम तिरी ग़फ़लत-शिआरी हाए हाए तेरे दिल में गर न था आशोब-ए-ग़म का हौसला तू ने फिर क्यूँ की थी मेरी ग़म-गुसारी हाए हाए क्यूँ मिरी ग़म-ख़्वार्गी का तुझ को आया था ख़याल दुश्मनी अपनी थी मेरी दोस्त-दारी हाए हाए उम्र भर का तू ने पैमान-ए-वफ़ा बाँधा तो क्या उम्र को भी तो नहीं है पाएदारी हाए हाए ज़हर लगती है मुझे आब-ओ-हवा-ए-ज़िंदगी या'नी तुझ से थी इसे ना-साज़गारी हाए हाए गुल-फ़िशानी-हा-ए-नाज़-ए-जल्वा को क्या हो गया ख़ाक पर होती है तेरी लाला-कारी हाए हाए शर्म-ए-रुस्वाई से जा छुपना नक़ाब-ए-ख़ाक में ख़त्म है उल्फ़त की तुझ पर पर्दा-दारी हाए हाए ख़ाक में नामूस-ए-पैमान-ए-मोहब्बत मिल गई उठ गई दुनिया से राह-ओ-रस्म-ए-यारी हाए हाए हाथ ही तेग़-आज़मा का काम से जाता रहा दिल पे इक लगने न पाया ज़ख़्म-ए-कारी हाए हाए किस तरह काटे कोई शब-हा-ए-तार-ए-बर्शिगाल है नज़र ख़ू-कर्दा-ए-अख़्तर-शुमारी हाए हाए गोश महजूर-ए-पयाम ओ चश्म-ए-महरूम-ए-जमाल एक दिल तिस पर ये ना-उम्मीद-वारी हाए हाए इश्क़ ने पकड़ा न था 'ग़ालिब' अभी वहशत का रंग रह गया था दिल में जो कुछ ज़ौक़-ए-ख़्वारी हाए हाए " tagaaful-dost-huun-meraa-dimaag-e-ajz-aalii-hai-mirza-ghalib-ghazals," तग़ाफ़ुल-दोस्त हूँ मेरा दिमाग़-ए-अज्ज़ आली है अगर पहलू-तही कीजे तो जा मेरी भी ख़ाली है रहा आबाद आलम अहल-ए-हिम्मत के न होने से भरे हैं जिस क़दर जाम-ओ-सुबू मय-ख़ाना ख़ाली है " be-e-tidaaliyon-se-subuk-sab-men-ham-hue-mirza-ghalib-ghazals," बे-ए'तिदालियों से सुबुक सब में हम हुए जितने ज़ियादा हो गए उतने ही कम हुए पिन्हाँ था दाम सख़्त क़रीब आशियान के उड़ने न पाए थे कि गिरफ़्तार हम हुए हस्ती हमारी अपनी फ़ना पर दलील है याँ तक मिटे कि आप हम अपनी क़सम हुए सख़्ती कशान-ए-इश्क़ की पूछे है क्या ख़बर वो लोग रफ़्ता रफ़्ता सरापा अलम हुए तेरी वफ़ा से क्या हो तलाफ़ी कि दहर में तेरे सिवा भी हम पे बहुत से सितम हुए लिखते रहे जुनूँ की हिकायात-ए-ख़ूँ-चकाँ हर-चंद इस में हाथ हमारे क़लम हुए अल्लाह रे तेरी तुंदी-ए-ख़ू जिस के बीम से अजज़ा-ए-नाला दिल में मिरे रिज़्क़-ए-हम हुए अहल-ए-हवस की फ़त्ह है तर्क-ए-नबर्द-ए-इश्क़ जो पाँव उठ गए वही उन के अलम हुए नाले अदम में चंद हमारे सुपुर्द थे जो वाँ न खिंच सके सो वो याँ आ के दम हुए छोड़ी 'असद' न हम ने गदाई में दिल-लगी साइल हुए तो आशिक़-ए-अहल-ए-करम हुए " gam-nahiin-hotaa-hai-aazaadon-ko-besh-az-yak-nafas-mirza-ghalib-ghazals," ग़म नहीं होता है आज़ादों को बेश अज़-यक-नफ़स बर्क़ से करते हैं रौशन शम्-ए-मातम-ख़ाना हम महफ़िलें बरहम करे है गंजिंफ़ा-बाज़-ए-ख़याल हैं वरक़-गर्दानी-ए-नैरंग-ए-यक-बुत-ख़ाना हम बावजूद-ए-यक-जहाँ हंगामा पैदाई नहीं हैं चराग़ान-ए-शबिस्तान-ए-दिल-ए-परवाना हम ज़ोफ़ से है ने क़नाअत से ये तर्क-ए-जुस्तुजू हैं वबाल-ए-तकिया-गाह-ए-हिम्मत-ए-मर्दाना हम दाइम-उल-हब्स इस में हैं लाखों तमन्नाएँ 'असद' जानते हैं सीना-ए-पुर-ख़ूँ को ज़िंदाँ-ख़ाना हम बस-कि हैं बद-मस्त-ए-ब-शिकन ब-शिकन-ए-मय-ख़ाना हम मू-ए-शीशा को समझते हैं ख़त-ए-पैमाना हम बस-कि हर-यक-मू-ए-ज़ुल्फ़-अफ़्शाँ से है तार-ए-शुआअ' पंजा-ए-ख़ुर्शीद को समझे हैं दस्त-ए-शाना हम मश्क़-ए-अज़-ख़ुद-रफ़्तगी से हैं ब-गुलज़ार-ए-ख़याल आश्ना ताबीर-ए-ख़्वाब-ए-सब्ज़ा-ए-बेगाना हम फ़र्त-ए-बे-ख़्वाबी से हैं शब-हा-ए-हिज्र-ए-यार में जूँ ज़बान-ए-शम्अ' दाग़-ए-गर्मी-ए-अफ़्साना हम शाम-ए-ग़म में सोज़-ए-इश्क़-ए-आतिश-ए-रुख़्सार से पुर-फ़शान-ए-सोख़्तन हैं सूरत-ए-परवाना हम हसरत-ए-अर्ज़-ए-तमन्ना याँ से समझा चाहिए दो-जहाँ हश्र-ए-ज़बान-ए-ख़ुश्क हैं जूँ शाना हम कश्ती-ए-आलम ब-तूफ़ान-ए-तग़ाफ़ुल दे कि हैं आलम-ए-आब-ए-गुदाज़-ए-जौहर-ए-अफ़्साना हम वहशत-ए-बे-रब्ती-ए-पेच-ओ-ख़म-ए-हस्ती न पूछ नंग-ए-बालीदन हैं जूँ मू-ए-सर-ए-दीवाना हम " tum-apne-shikve-kii-baaten-na-khod-khod-ke-puuchho-mirza-ghalib-ghazals," तुम अपने शिकवे की बातें न खोद खोद के पूछो हज़र करो मिरे दिल से कि इस में आग दबी है दिला ये दर्द-ओ-अलम भी तो मुग़्तनिम है कि आख़िर न गिर्या-ए-सहरी है न आह-ए-नीम-शबी है नज़र ब-नक़्स-ए-गदायाँ कमाल-ए-बे-अदबी है कि ख़ार-ए-ख़ुश्क को भी दावा-ए-चमन-नसबी है हुआ विसाल से शौक़-ए-दिल-ए-हरीस ज़ियादा लब-ए-क़दह पे कफ़-ए-बादा जोश-ए-तिश्ना-लबी है ख़ुशा वो दिल कि सरापा तिलिस्म-ए-बे-ख़बरी हो जुनून ओ यास ओ अलम रिज़्क़-ए-मुद्दआ-तलबी है चमन में किस के ये बरहम हुइ है बज़्म-ए-तमाशा कि बर्ग बर्ग-ए-समन शीशा रेज़ा-ए-हलबी है इमाम-ए-ज़ाहिर-ओ-बातिन अमीर-ए-सूरत-ओ-मअनी 'अली' वली असदुल्लाह जानशीन-ए-नबी है " garm-e-fariyaad-rakhaa-shakl-e-nihaalii-ne-mujhe-mirza-ghalib-ghazals," गर्म-ए-फ़रियाद रखा शक्ल-ए-निहाली ने मुझे तब अमाँ हिज्र में दी बर्द-ए-लयाली ने मुझे निस्यह-ओ-नक़्द-ए-दो-आलम की हक़ीक़त मालूम ले लिया मुझ से मिरी हिम्मत-ए-आली ने मुझे कसरत-आराइ-ए-वहदत है परस्तारी-ए-वहम कर दिया काफ़िर इन असनाम-ए-ख़याली ने मुझे हवस-ए-गुल के तसव्वुर में भी खटका न रहा अजब आराम दिया बे-पर-ओ-बाली ने मुझे ज़िंदगी में भी रहा ज़ौक़-ए-फ़ना का मारा नश्शा बख़्शा ग़ज़ब उस साग़र-ए-ख़ाली ने मुझे बस-कि थी फ़स्ल-ए-ख़िज़ान-ए-चमानिस्तान-ए-सुख़न रंग-ए-शोहरत न दिया ताज़ा-ख़याली ने मुझे जल्वा-ए-ख़ुर से फ़ना होती है शबनम 'ग़ालिब' खो दिया सतवत-ए-अस्मा-ए-जलाली ने मुझे " phir-huaa-vaqt-ki-ho-baal-kushaa-mauj-e-sharaab-mirza-ghalib-ghazals," फिर हुआ वक़्त कि हो बाल-कुशा मौज-ए-शराब दे बत-ए-मय को दिल-ओ-दस्त-ए-शना मौज-ए-शराब पूछ मत वज्ह-ए-सियह-मस्ती-ए-अरबाब-ए-चमन साया-ए-ताक में होती है हवा मौज-ए-शराब जो हुआ ग़र्क़ा-ए-मय बख़्त-ए-रसा रखता है सर से गुज़रे पे भी है बाल-ए-हुमा मौज-ए-शराब है ये बरसात वो मौसम कि अजब क्या है अगर मौज-ए-हस्ती को करे फ़ैज़-ए-हवा मौज-ए-शराब चार मौज उठती है तूफ़ान-ए-तरब से हर सू मौज-ए-गुल मौज-ए-शफ़क़ मौज-ए-सबा मौज-ए-शराब जिस क़दर रूह-ए-नबाती है जिगर तिश्ना-ए-नाज़ दे है तस्कीं ब-दम-ए-आब-ए-बक़ा मौज-ए-शराब बस-कि दौड़े है रग-ए-ताक में ख़ूँ हो हो कर शहपर-ए-रंग से है बाल-कुशा मौज-ए-शराब मौजा-ए-गुल से चराग़ाँ है गुज़र-गाह-ए-ख़याल है तसव्वुर में ज़ि-बस जल्वा-नुमा मौज-ए-शराब नश्शे के पर्दे में है महव-ए-तमाशा-ए-दिमाग़ बस-कि रखती है सर-ए-नश-ओ-नुमा मौज-ए-शराब एक आलम पे हैं तूफ़ानी-ए-कैफ़ियत-ए-फ़स्ल मौजा-ए-सब्ज़ा-ए-नौ-ख़ेज़ से ता मौज-ए-शराब शरह-ए-हंगामा-ए-हस्ती है ज़हे मौसम-ए-गुल रह-बर-ए-क़तरा-बा-दरिया है ख़ोशा मौज-ए-शराब होश उड़ते हैं मिरे जल्वा-ए-गुल देख 'असद' फिर हुआ वक़्त कि हो बाल-कुशा मौज-ए-शराब " kaabe-men-jaa-rahaa-to-na-do-taana-kyaa-kahen-mirza-ghalib-ghazals," काबे में जा रहा तो न दो ता'ना क्या कहें भूला हूँ हक़्क़-ए-सोहबत-ए-अहल-ए-कुनिश्त को ताअ'त में ता रहे न मय-ओ-अंगबीं की लाग दोज़ख़ में डाल दो कोई ले कर बहिश्त को हूँ मुन्हरिफ़ न क्यूँ रह-ओ-रस्म-ए-सवाब से टेढ़ा लगा है क़त क़लम-ए-सरनविश्त को 'ग़ालिब' कुछ अपनी सई से लहना नहीं मुझे ख़िर्मन जले अगर न मलख़ खाए किश्त को " bas-ki-dushvaar-hai-har-kaam-kaa-aasaan-honaa-mirza-ghalib-ghazals," बस-कि दुश्वार है हर काम का आसाँ होना आदमी को भी मयस्सर नहीं इंसाँ होना गिर्या चाहे है ख़राबी मिरे काशाने की दर ओ दीवार से टपके है बयाबाँ होना वा-ए-दीवानगी-ए-शौक़ कि हर दम मुझ को आप जाना उधर और आप ही हैराँ होना जल्वा अज़-बस-कि तक़ाज़ा-ए-निगह करता है जौहर-ए-आइना भी चाहे है मिज़्गाँ होना इशरत-ए-क़त्ल-गह-ए-अहल-ए-तमन्ना मत पूछ ईद-ए-नज़्ज़ारा है शमशीर का उर्यां होना ले गए ख़ाक में हम दाग़-ए-तमन्ना-ए-नशात तू हो और आप ब-सद-रंग-ए-गुलिस्ताँ होना इशरत-ए-पारा-ए-दिल ज़ख़्म-ए-तमन्ना खाना लज़्ज़त-ए-रीश-ए-जिगर ग़र्क़-ए-नमक-दाँ होना की मिरे क़त्ल के बा'द उस ने जफ़ा से तौबा हाए उस ज़ूद-पशीमाँ का पशेमाँ होना हैफ़ उस चार गिरह कपड़े की क़िस्मत 'ग़ालिब' जिस की क़िस्मत में हो आशिक़ का गरेबाँ होना " vaan-us-ko-haul-e-dil-hai-to-yaan-main-huun-sharm-saar-mirza-ghalib-ghazals," वाँ उस को हौल-ए-दिल है तो याँ मैं हूँ शर्म-सार या'नी ये मेरी आह की तासीर से न हो अपने को देखता नहीं ज़ौक़-ए-सितम को देख आईना ता-कि दीदा-ए-नख़चीर से न हो " aaiina-dekh-apnaa-saa-munh-le-ke-rah-gae-mirza-ghalib-ghazals," आईना देख अपना सा मुँह ले के रह गए साहब को दिल न देने पे कितना ग़ुरूर था क़ासिद को अपने हाथ से गर्दन न मारिए उस की ख़ता नहीं है ये मेरा क़ुसूर था ज़ोफ़-ए-जुनूँ को वक़्त-ए-तपिश दर भी दूर था इक घर में मुख़्तसर बयाबाँ ज़रूर था ऐ वाए-ग़फ़लत-ए-निगह-ए-शौक़ वर्ना याँ हर पारा संग लख़्त-ए-दिल-ए-कोह-ए-तूर था दर्स-ए-तपिश है बर्क़ को अब जिस के नाम से वो दिल है ये कि जिस का तख़ल्लुस सुबूर था हर रंग में जला 'असद'-ए-फ़ित्ना-इन्तिज़ार परवाना-ए-तजल्ली-ए-शम-ए-ज़ुहूर था शायद कि मर गया तिरे रुख़्सार देख कर पैमाना रात माह का लबरेज़-ए-नूर था जन्नत है तेरी तेग़ के कुश्तों की मुंतज़िर जौहर सवाद-ए-जल्वा-ए-मिज़्गान-ए-हूर था " nikohish-hai-sazaa-fariyaadi-e-be-daad-e-dilbar-kii-mirza-ghalib-ghazals," निकोहिश है सज़ा फ़रियादी-ए-बे-दाद-ए-दिलबर की मबादा ख़ंदा-ए-दंदाँ-नुमा हो सुब्ह महशर की रग-ए-लैला को ख़ाक-ए-दश्त-ए-मजनूँ रेशगी बख़्शे अगर बोवे बजा-ए-दाना दहक़ाँ नोक निश्तर की पर-ए-परवाना शायद बादबान-ए-कश्ती-ए-मय था हुई मज्लिस की गर्मी से रवानी दौर-ए-साग़र की करूँ बे-दाद-ए-ज़ौक़-ए-पर-फ़िशानी अर्ज़ क्या क़ुदरत कि ताक़त उड़ गई उड़ने से पहले मेरे शहपर की कहाँ तक रोऊँ उस के खे़मे के पीछे क़यामत है मिरी क़िस्मत में या-रब क्या न थी दीवार पत्थर की ब-जुज़ दीवानगी होता न अंजाम-ए-ख़ुद-आराई अगर पैदा न करता आइना ज़ंजीर जौहर की ग़ुरूर-ए-लुत्फ़-ए-साक़ी नश्शा-ए-बे-बाकी-ए-मस्ताँ नम-ए-दामान-ए-इस्याँ है तरावत मौज-ए-कौसर की मिरा दिल माँगते हैं आरियत अहल-ए-हवस शायद ये जाना चाहते हैं आज दावत में समुंदर की 'असद' जुज़ आब-ए-बख़्शीदन ज़े-दरिया ख़िज़्र को क्या था डुबोता चश्मा-ए-हैवाँ में गर कश्ती सिकंदर की " ek-jaa-harf-e-vafaa-likhaa-thaa-so-bhii-mit-gayaa-mirza-ghalib-ghazals," एक जा हर्फ़-ए-वफ़ा लिक्खा था सो भी मिट गया ज़ाहिरन काग़ज़ तिरे ख़त का गलत-बर-दार है जी जले ज़ौक़-ए-फ़ना की ना-तमामी पर न क्यूँ हम नहीं जलते नफ़स हर चंद आतिश-बार है आग से पानी में बुझते वक़्त उठती है सदा हर कोई दरमांदगी में नाले से नाचार है है वही बद-मस्ती-ए-हर-ज़र्रा का ख़ुद उज़्र-ख़्वाह जिस के जल्वे से ज़मीं ता आसमाँ सरशार है मुझ से मत कह तू हमें कहता था अपनी ज़िंदगी ज़िंदगी से भी मिरा जी इन दिनों बे-ज़ार है आँख की तस्वीर सर-नामे पे खींची है कि ता तुझ पे खुल जावे कि इस को हसरत-ए-दीदार है " dil-miraa-soz-e-nihaan-se-be-muhaabaa-jal-gayaa-mirza-ghalib-ghazals," दिल मिरा सोज़-ए-निहाँ से बे-मुहाबा जल गया आतिश-ए-ख़ामोश की मानिंद गोया जल गया दिल में ज़ौक़-ए-वस्ल ओ याद-ए-यार तक बाक़ी नहीं आग इस घर में लगी ऐसी कि जो था जल गया मैं अदम से भी परे हूँ वर्ना ग़ाफ़िल बार-हा मेरी आह-ए-आतिशीं से बाल-ए-अन्क़ा जल गया अर्ज़ कीजे जौहर-ए-अंदेशा की गर्मी कहाँ कुछ ख़याल आया था वहशत का कि सहरा जल गया दिल नहीं तुझ को दिखाता वर्ना दाग़ों की बहार इस चराग़ाँ का करूँ क्या कार-फ़रमा जल गया मैं हूँ और अफ़्सुर्दगी की आरज़ू 'ग़ालिब' कि दिल देख कर तर्ज़-ए-तपाक-ए-अहल-ए-दुनिया जल गया ख़ानमान-ए-आशिक़ाँ दुकान-ए-आतिश-बाज़ है शो'ला-रू जब हो गए गर्म-ए-तमाशा जल गया ता कुजा अफ़सोस-ए-गरमी-हा-ए-सोहबत ऐ ख़याल दिल बा-सोज़-ए-आतिश-ए-दाग़-ए-तमन्ना जल गया है 'असद' बेगाना-ए-अफ़्सुर्दगी ऐ बेकसी दिल ज़-अंदाज़-ए-तपाक-ए-अहल-ए-दुनिया जल गया दूद मेरा सुंबुलिस्ताँ से करे है हम-सरी बस-कि शौक़-ए-आतिश-गुल से सरापा जल गया शम्अ-रूयाँ की सर-अंगुश्त-ए-हिनाई देख कर ग़ुंचा-ए-गुल पर-फ़िशाँ परवाना-आसा जल गया " naala-juz-husn-e-talab-ai-sitam-iijaad-nahiin-mirza-ghalib-ghazals," नाला जुज़ हुस्न-ए-तलब ऐ सितम-ईजाद नहीं है तक़ाज़ा-ए-जफ़ा शिकवा-ए-बेदाद नहीं इश्क़-ओ-मज़दूरी-ए-इशरत-गह-ए-ख़ुसरव क्या ख़ूब हम को तस्लीम निको-नामी-ए-फ़रहाद नहीं कम नहीं वो भी ख़राबी में प वुसअत मालूम दश्त में है मुझे वो ऐश कि घर याद नहीं अहल-ए-बीनश को है तूफ़ान-ए-हवादिस मकतब लुत्मा-ए-मौज कम-अज़ सैली-ए-उस्ताद नहीं वाए महरूमी-ए-तस्लीम-ओ-बदा हाल-ए-वफ़ा जानता है कि हमें ताक़त-ए-फ़रयाद नहीं रंग-ए-तमकीन-ए-गुल-ओ-लाला परेशाँ क्यूँ है गर चराग़ान-ए-सर-ए-रह-गुज़र-ए-बाद नहीं सबद-ए-गुल के तले बंद करे है गुलचीं मुज़्दा ऐ मुर्ग़ कि गुलज़ार में सय्याद नहीं नफ़्य से करती है इसबात तराविश गोया दी है जा-ए-दहन उस को दम-ए-ईजाद नहीं कम नहीं जल्वागरी में तिरे कूचे से बहिश्त यही नक़्शा है वले इस क़दर आबाद नहीं करते किस मुँह से हो ग़ुर्बत की शिकायत 'ग़ालिब' तुम को बे-मेहरी-ए-यारान-ए-वतन याद नहीं " jab-ba-taqriib-e-safar-yaar-ne-mahmil-baandhaa-mirza-ghalib-ghazals," जब ब-तक़रीब-ए-सफ़र यार ने महमिल बाँधा तपिश-ए-शौक़ ने हर ज़र्रे पे इक दिल बाँधा अहल-ए-बीनश ने ब-हैरत-कदा-ए-शोख़ी-ए-नाज़ जौहर-ए-आइना को तूती-ए-बिस्मिल बाँधा यास ओ उम्मीद ने यक-अरबदा मैदाँ माँगा इज्ज़-ए-हिम्मत ने तिलिस्म-ए-दिल-ए-साइल बाँधा न बंधे तिश्नगी-ए-ज़ौक़ के मज़मूँ 'ग़ालिब' गरचे दिल खोल के दरिया को भी साहिल बाँधा इस्तिलाहात-ए-असीरान-ए-तग़ाफ़ुल मत पूछ जो गिरह आप न खोली उसे मुश्किल बाँधा यार ने तिश्नगी-ए-शौक़ के मज़मूँ चाहे हम ने दिल खोल के दरिया को भी साहिल बाँधा तपिश-आईना परवाज़-ए-तमन्ना लाई नामा-ए-शौक़ ब-हाल-ए-दिल-ए-बिस्मिल बाँधा दीदा ता-दिल है यक-आईना चराग़ाँ किस ने ख़ल्वत-ए-नाज़ पे पैराया-ए-महफ़िल बाँधा ना-उमीदी ने ब-तक़रीब-ए-मज़ामीन-ए-ख़ुमार कूच-ए-मौज को ख़म्याज़ा-ए-साहिल बाँधा मुतरिब-ए-दिल ने मिरे तार-ए-नफ़स से 'ग़ालिब' साज़ पर रिश्ता पए नग़्मा-ए-'बेदिल' बाँधा " rahaa-gar-koii-taa-qayaamat-salaamat-mirza-ghalib-ghazals," रहा गर कोई ता-क़यामत सलामत फिर इक रोज़ मरना है हज़रत-सलामत जिगर को मिरे इश्क़-ए-खूँ-नाबा-मशरब लिखे है ख़ुदावंद-ए-नेमत सलामत अलर्रग़्म-ए-दुश्मन शहीद-ए-वफ़ा हूँ मुबारक मुबारक सलामत सलामत नहीं गर सर-ओ-बर्ग-ए-इदराक-ए-मानी तमाशा-ए-नैरंग-ए-सूरत सलामत दो-आलम की हस्ती पे ख़त्त-ए-फ़ना खींच दिल-ओ-दस्त-ए-अरबाब-ए-हिम्मत सलामत नहीं गर ब-काम-ए-दिल-ए-ख़स्ता गर्दूं जिगर-ख़ाई-ए-जोश-ए-हसरत सलामत न औरों की सुनता न कहता हूँ अपनी सर-ए-ख़स्ता दुश्वार-ए-वहशत सलामत वफ़ूर-ए-बला है हुजूम-ए-वफ़ा है सलामत मलामत मलामत सलामत न फ़िक्र-ए-सलामत न बीम-ए-मलामत ज़े-ख़ुद-रफ़्तगी-हा-ए-हैरत सलामत रहे 'ग़ालिब'-ए-ख़स्ता मग़्लूब-ए-गर्दूं ये क्या बे-नियाज़ी है हज़रत-सलामत " laagar-itnaa-huun-ki-gar-tuu-bazm-men-jaa-de-mujhe-mirza-ghalib-ghazals," लाग़र इतना हूँ कि गर तू बज़्म में जा दे मुझे मेरा ज़िम्मा देख कर गर कोई बतला दे मुझे क्या तअ'ज्जुब है जो उस को देख कर आ जाए रहम वाँ तलक कोई किसी हीले से पहुँचा दे मुझे मुँह न दिखलावे न दिखला पर ब-अंदाज़-ए-इताब खोल कर पर्दा ज़रा आँखें ही दिखला दे मुझे याँ तलक मेरी गिरफ़्तारी से वो ख़ुश है कि मैं ज़ुल्फ़ गर बन जाऊँ तो शाने में उलझा दे मुझे " paa-ba-daaman-ho-rahaa-huun-bas-ki-main-sahraa-navard-mirza-ghalib-ghazals," पा-ब-दामन हो रहा हूँ बस-कि मैं सहरा-नवर्द ख़ार-ए-पा हैं जौहर-ए-आईना-ए-ज़ानू मुझे देखना हालत मिरे दिल की हम-आग़ोशी के वक़्त है निगाह-ए-आश्ना तेरा सर-ए-हर-मू मुझे हूँ सरापा साज़-ए-आहंग-ए-शिकायत कुछ न पूछ है यही बेहतर कि लोगों में न छेड़े तू मुझे बाइस-ए-वामांदगी है उम्र-ए-फ़ुर्सत-जू मुझे कर दिया है पा-ब-ज़ंजीर-ए-रम-ए-आहू मुझे ख़ाक-ए-फ़ुर्सत बर-सर-ए-ज़ौक़-ए-फ़ना ऐ इंतिज़ार है ग़ुबार-ए-शीशा-ए-साअत रम-ए-आहू मुझे हम-ज़बाँ आया नज़र फ़िक्र-ए-सुख़न में तू मुझे मर्दुमुक है तूती-ए-आईना-ए-ज़ानू मुझे याद-ए-मिज़्गाँ में ब-नश्तर-ए-ज़ार-ए-सौदा-ए-ख़याल चाहिए वक़्त-ए-तपिश यक-दस्त सद-पहलू मुझे इज़्तिराब-ए-उम्र बे-मतलब नहीं आख़िर कि है जुसतुजू-ए-फ़ुर्सत-ए-रब्त-ए-सर-ए-ज़ानू मुझे चाहिए दरमान-ए-रीश-ए-दिल भी तेग़-ए-यार से मरम-ए-ज़ंगार है वो वसमा-ए-अबरू मुझे कसरत-ए-जौर-ओ-सितम से हो गया हूँ बे-दिमाग़ ख़ूब-रूयों ने बनाया 'ग़ालिब'-ए-बद-ख़ू मुझे फ़ुर्सत-ए-आराम-ए-ग़श हस्ती है बोहरान-ए-अदम है शिकस्त-ए-रंग-ए-इम्काँ गर्दिश-ए-पहलू मुझे साज़-ए-ईमा-ए-फ़ना है आलम-ए-पीरी 'असद' क़ामत-ए-ख़म से है हासिल शोख़ी-ए-अबरू मुझे " nahiin-hai-zakhm-koii-bakhiye-ke-dar-khur-mire-tan-men-mirza-ghalib-ghazals," नहीं है ज़ख़्म कोई बख़िये के दर-ख़ुर मिरे तन में हुआ है तार-ए-अश्क-ए-यास रिश्ता चश्म-ए-सोज़न में हुई है माने-ए-ज़ौक़-ए-तमाशा ख़ाना-वीरानी कफ़-ए-सैलाब बाक़ी है ब-रंग-ए-पुम्बा रौज़न में वदीअत-ख़ाना-ए-बेदाद-ए-काविश-हा-ए-मिज़गाँ हूँ नगीन-ए-नाम-ए-शाहिद है मिरे हर क़तरा-ए-ख़ूँ तन में बयाँ किस से हो ज़ुल्मत-गुस्तरी मेरे शबिस्ताँ की शब-ए-मह हो जो रख दूँ पुम्बा दीवारों के रौज़न में निकोहिश माना-ए-बे-रब्ती-ए-शोर-ए-जुनूँ आई हुआ है ख़ंदा-ए-अहबाब बख़िया जेब-ओ-दामन में हुए उस मेहर-वश के जल्वा-ए-तिमसाल के आगे पर-अफ़्शाँ जौहर आईने में मिस्ल-ए-ज़र्रा रौज़न में न जानूँ नेक हूँ या बद हूँ पर सोहबत-मुख़ालिफ़ है जो गुल हूँ तो हूँ गुलख़न में जो ख़स हूँ तो हूँ गुलशन में हज़ारों दिल दिये जोश-ए-जुनून-ए-इश्क़ ने मुझ को सियह हो कर सुवैदा हो गया हर क़तरा-ए-ख़ूँ तन में 'असद' ज़िंदानी-ए-तासीर-ए-उल्फ़त-हा-ए-ख़ूबाँ हूँ ख़म-ए-दस्त-ए-नवाज़िश हो गया है तौक़ गर्दन में फ़ुज़ूँ की दोस्तों ने हिर्स-ए-क़ातिल ज़ौक़-ए-कुश्तन में होए हैं बख़िया-हा-ए-ज़ख़्म जौहर तेग़-ए-दुश्मन में तमाशा करदनी है लुत्फ़-ए-ज़ख़्म-ए-इंतिज़ार ऐ दिल सुवैदा दाग़-ए-मर्हम मर्दुमुक है चश्म-ए-सोज़न में दिल-ओ-दीन-ओ-ख़िरद ताराज-ए-नाज़-ए-जल्वा-पैराई हुआ है जौहर-ए-आईना ख़ेल-ए-मोर ख़िर्मन में निकोहिश माने-ए-दीवानगी-हा-ए-जुनूँ आई लगाया ख़ंदा-ए-नासेह ने बख़िया जेब-ओ-दामन में " sab-kahaan-kuchh-laala-o-gul-men-numaayaan-ho-gaiin-mirza-ghalib-ghazals," सब कहाँ कुछ लाला-ओ-गुल में नुमायाँ हो गईं ख़ाक में क्या सूरतें होंगी कि पिन्हाँ हो गईं याद थीं हम को भी रंगा-रंग बज़्म-आराईयाँ लेकिन अब नक़्श-ओ-निगार-ए-ताक़-ए-निस्याँ हो गईं थीं बनात-उन-नाश-ए-गर्दुं दिन को पर्दे में निहाँ शब को उन के जी में क्या आई कि उर्यां हो गईं क़ैद में याक़ूब ने ली गो न यूसुफ़ की ख़बर लेकिन आँखें रौज़न-ए-दीवार-ए-ज़िंदाँ हो गईं सब रक़ीबों से हों ना-ख़ुश पर ज़नान-ए-मिस्र से है ज़ुलेख़ा ख़ुश कि महव-ए-माह-ए-कनआँ हो गईं जू-ए-ख़ूँ आँखों से बहने दो कि है शाम-ए-फ़िराक़ मैं ये समझूँगा कि शमएँ दो फ़रोज़ाँ हो गईं इन परी-ज़ादों से लेंगे ख़ुल्द में हम इंतिक़ाम क़ुदरत-ए-हक़ से यही हूरें अगर वाँ हो गईं नींद उस की है दिमाग़ उस का है रातें उस की हैं तेरी ज़ुल्फ़ें जिस के बाज़ू पर परेशाँ हो गईं मैं चमन में क्या गया गोया दबिस्ताँ खुल गया बुलबुलें सुन कर मिरे नाले ग़ज़ल-ख़्वाँ हो गईं वो निगाहें क्यूँ हुई जाती हैं या-रब दिल के पार जो मिरी कोताही-ए-क़िस्मत से मिज़्गाँ हो गईं बस-कि रोका मैं ने और सीने में उभरीं पै-ब-पै मेरी आहें बख़िया-ए-चाक-ए-गरेबाँ हो गईं वाँ गया भी मैं तो उन की गालियों का क्या जवाब याद थीं जितनी दुआएँ सर्फ़-ए-दरबाँ हो गईं जाँ-फ़िज़ा है बादा जिस के हाथ में जाम आ गया सब लकीरें हाथ की गोया रग-ए-जाँ हो गईं हम मुवह्हिद हैं हमारा केश है तर्क-ए-रूसूम मिल्लतें जब मिट गईं अजज़ा-ए-ईमाँ हो गईं रंज से ख़ूगर हुआ इंसाँ तो मिट जाता है रंज मुश्किलें मुझ पर पड़ीं इतनी कि आसाँ हो गईं यूँ ही गर रोता रहा 'ग़ालिब' तो ऐ अहल-ए-जहाँ देखना इन बस्तियों को तुम कि वीराँ हो गईं " kaar-gaah-e-hastii-men-laala-daag-saamaan-hai-mirza-ghalib-ghazals," कार-गाह-ए-हस्ती में लाला दाग़-सामाँ है बर्क़-ए-ख़िर्मन-ए-राहत ख़ून-ए-गर्म-ए-दहक़ाँ है ग़ुंचा ता शगुफ़्तन-हा बर्ग-ए-आफ़ियत मालूम बा-वजूद-ए-दिल-जमई ख़्वाब-ए-गुल परेशाँ है हम से रंज-ए-बेताबी किस तरह उठाया जाए दाग़ पुश्त-ए-दस्त-ए-इज्ज़ शो'ला ख़स-ब-दंदाँ है इश्क़ के तग़ाफ़ुल से हर्ज़ा-गर्द है आलम रू-ए-शश-जिहत-आफ़ाक़ पुश्त-ए-चश्म-ए-ज़िन्दाँ है " gaafil-ba-vahm-e-naaz-khud-aaraa-hai-varna-yaan-mirza-ghalib-ghazals," ग़ाफ़िल ब-वहम-ए-नाज़ ख़ुद-आरा है वर्ना याँ बे-शाना-ए-सबा नहीं तुर्रा गयाह का बज़्म-ए-क़दह से ऐश-ए-तमन्ना न रख कि रंग सैद-ए-ज़े-दाम-ए-जस्ता है उस दाम-गाह का रहमत अगर क़ुबूल करे क्या बईद है शर्मिंदगी से उज़्र न करना गुनाह का मक़्तल को किस नशात से जाता हूँ मैं कि है पुर-गुल ख़याल-ए-ज़ख्म से दामन निगाह का जाँ दर-हवा-ए-यक-निगह-ए-गर्म है 'असद' परवाना है वकील तिरे दाद-ख़्वाह का उज़्लत-गुज़ीन-ए-बज़्म हैं वामांदागान-ए-दीद मीना-ए-मय है आबला पा-ए-निगाह का हर गाम आबले से है दिल दर-तह-ए-क़दम क्या बीम अहल-ए-दर्द को सख़्ती-ए-राह का ताऊस-ए-दर-रिकाब है हर ज़र्रा आह का या-रब नफ़स ग़ुबार है किस जल्वा-गाह का जेब-ए-नियाज़-ए-इश्क़ निशाँ-दार-ए-नाज़ है आईना हूँ शिकस्तन-ए-तर्फ़-ए-कुलाह का " laazim-thaa-ki-dekho-miraa-rastaa-koii-din-aur-mirza-ghalib-ghazals," लाज़िम था कि देखो मिरा रस्ता कोई दिन और तन्हा गए क्यूँ अब रहो तन्हा कोई दिन और मिट जाएगा सर गर तिरा पत्थर न घिसेगा हूँ दर पे तिरे नासिया-फ़रसा कोई दिन और आए हो कल और आज ही कहते हो कि जाऊँ माना कि हमेशा नहीं अच्छा कोई दिन और जाते हुए कहते हो क़यामत को मिलेंगे क्या ख़ूब क़यामत का है गोया कोई दिन और हाँ ऐ फ़लक-ए-पीर जवाँ था अभी आरिफ़ क्या तेरा बिगड़ता जो न मरता कोई दिन और तुम माह-ए-शब-ए-चार-दहुम थे मिरे घर के फिर क्यूँ न रहा घर का वो नक़्शा कोई दिन और तुम कौन से थे ऐसे खरे दाद-ओ-सितद के करता मलक-उल-मौत तक़ाज़ा कोई दिन और मुझ से तुम्हें नफ़रत सही नय्यर से लड़ाई बच्चों का भी देखा न तमाशा कोई दिन और गुज़री न ब-हर-हाल ये मुद्दत ख़ुश ओ ना-ख़ुश करना था जवाँ-मर्ग गुज़ारा कोई दिन और नादाँ हो जो कहते हो कि क्यूँ जीते हैं 'ग़ालिब' क़िस्मत में है मरने की तमन्ना कोई दिन और " asad-ham-vo-junuun-jaulaan-gadaa-e-be-sar-o-paa-hain-mirza-ghalib-ghazals," 'असद' हम वो जुनूँ-जौलाँ गदा-ए-बे-सर-ओ-पा हैं कि है सर-पंजा-ए-मिज़्गान-ए-आहू पुश्त-ख़ार अपना " jaraahat-tohfa-almaas-armugaan-daag-e-jigar-hadiya-mirza-ghalib-ghazals," जराहत-तोहफ़ा अल्मास-अर्मुग़ाँ दाग़-ए-जिगर हदिया मुबारकबाद 'असद' ग़म-ख़्वार-ए-जान-ए-दर्दमंद आया जुनूँ गर्म इंतिज़ार ओ नाला बेताबी कमंद आया सुवैदा ता ब-लब ज़ंजीरी दूद सिपंद आया मह अख़्तर फ़शाँ की बहर इस्तिक़बाल आँखों से तमाशा किश्वर आईना में आईना बंद आया तग़ाफ़ुल बद-गुमानी बल्कि मेरी सख़्त जानी से निगाह बे हिजाब नाज़ को बीम गज़ंद आया फ़ज़ा ख़ंदा गुल तंग ओ ज़ौक़ ऐश बे पर्दा फ़राग़त गाह आग़ोश विदाअ' दिल पसंद आया अदम है ख़ैर ख़्वाह जल्वा को ज़िंदान बेताबी ख़िराम नाज़ बर्क़ ख़िरमन सई सिपंद आया " jo-na-naqd-e-daag-e-dil-kii-kare-shola-paasbaanii-mirza-ghalib-ghazals," जो न नक़्द-ए-दाग़-ए-दिल की करे शोला पासबानी तो फ़सुर्दगी निहाँ है ब-कमीन-ए-बे-ज़बानी मुझे उस से क्या तवक़्क़ो ब-ज़माना-ए-जवानी कभी कूदकी में जिस ने न सुनी मिरी कहानी यूँ ही दुख किसी को देना नहीं ख़ूब वर्ना कहता कि मिरे अदू को या रब मिले मेरी ज़िंदगानी " aaiina-kyuun-na-duun-ki-tamaashaa-kahen-jise-mirza-ghalib-ghazals," आईना क्यूँ न दूँ कि तमाशा कहें जिसे ऐसा कहाँ से लाऊँ कि तुझ सा कहें जिसे हसरत ने ला रखा तिरी बज़्म-ए-ख़याल में गुल-दस्ता-ए-निगाह सुवैदा कहें जिसे फूँका है किस ने गोश-ए-मोहब्बत में ऐ ख़ुदा अफ़्सून-ए-इंतिज़ार तमन्ना कहें जिसे सर पर हुजूम-ए-दर्द-ए-ग़रीबी से डालिए वो एक मुश्त-ए-ख़ाक कि सहरा कहें जिसे है चश्म-ए-तर में हसरत-ए-दीदार से निहाँ शौक़-ए-इनाँ गुसेख़्ता दरिया कहें जिसे दरकार है शगुफ़्तन-ए-गुल-हा-ए-ऐश को सुब्ह-ए-बहार पुम्बा-ए-मीना कहें जिसे 'ग़ालिब' बुरा न मान जो वाइ'ज़ बुरा कहे ऐसा भी कोई है कि सब अच्छा कहें जिसे या रब हमें तो ख़्वाब में भी मत दिखाइयो ये महशर-ए-ख़याल कि दुनिया कहें जिसे है इंतिज़ार से शरर आबाद रुस्तख़ेज़ मिज़्गान-ए-कोह-कन रग-ए-ख़ारा कहें जिसे किस फ़ुर्सत-ए-विसाल पे है गुल को अंदलीब ज़ख़्म-ए-फ़िराक़ ख़ंदा-ए-बे-जा कहें जिसे " har-ek-baat-pe-kahte-ho-tum-ki-tuu-kyaa-hai-mirza-ghalib-ghazals," हर एक बात पे कहते हो तुम कि तू क्या है तुम्हीं कहो कि ये अंदाज़-ए-गुफ़्तुगू क्या है न शो'ले में ये करिश्मा न बर्क़ में ये अदा कोई बताओ कि वो शोख़-ए-तुंद-ख़ू क्या है ये रश्क है कि वो होता है हम-सुख़न तुम से वगर्ना ख़ौफ़-ए-बद-आमोज़ी-ए-अदू क्या है चिपक रहा है बदन पर लहू से पैराहन हमारे जैब को अब हाजत-ए-रफ़ू क्या है जला है जिस्म जहाँ दिल भी जल गया होगा कुरेदते हो जो अब राख जुस्तुजू क्या है रगों में दौड़ते फिरने के हम नहीं क़ाइल जब आँख ही से न टपका तो फिर लहू क्या है वो चीज़ जिस के लिए हम को हो बहिश्त अज़ीज़ सिवाए बादा-ए-गुलफ़ाम-ए-मुश्क-बू क्या है पियूँ शराब अगर ख़ुम भी देख लूँ दो-चार ये शीशा ओ क़दह ओ कूज़ा ओ सुबू क्या है रही न ताक़त-ए-गुफ़्तार और अगर हो भी तो किस उमीद पे कहिए कि आरज़ू क्या है हुआ है शह का मुसाहिब फिरे है इतराता वगर्ना शहर में 'ग़ालिब' की आबरू क्या है " arz-e-naaz-e-shokhi-e-dandaan-baraae-khanda-hai-mirza-ghalib-ghazals," अर्ज़-ए-नाज़-ए-शोख़ी-ए-दंदाँ बराए-ख़ंदा है दावा-ए-जमियत-ए-अहबाब जा-ए-ख़ंदा है है अदम में ग़ुंचा महव-ए-इबरत-ए-अंजाम-ए-गुल यक-जहाँ ज़ानू तअम्मुल दर-क़फ़ा-ए-ख़ंदा है कुल्फ़त-ए-अफ़्सुर्दगी को ऐश-ए-बेताबी हराम वर्ना दंदाँ दर दिल अफ़्शुर्दन बिना-ए-ख़ंदा है शोरिश-ए-बातिन के हैं अहबाब मुंकिर वर्ना याँ दिल मुहीत-ए-गिर्या ओ लब आशना-ए-ख़ंदा है ख़ुद-फ़रोशी-हा-ए-हस्ती बस-कि जा-ए-ख़ंदा है हर शिकस्त-ए-क़ीमत-ए-दिल में सदा-ए-ख़ंदा है नक़्श-ए-इबरत दर नज़र या नक़्द-ए-इशरत दर बिसात दो-जहाँ वुसअत ब-क़द्र-ए-यक-फ़ज़ा-ए-ख़ंदा है जा-ए-इस्तिहज़ा है इशरत-कोशी-ए-हस्ती 'असद' सुब्ह ओ शबनम फ़ुर्सत-ए-नश्व-ओ-नुमा-ए-ख़ंदा है " ek-ek-qatre-kaa-mujhe-denaa-padaa-hisaab-mirza-ghalib-ghazals," एक एक क़तरे का मुझे देना पड़ा हिसाब ख़ून-ए-जिगर वदीअत-ए-मिज़्गान-ए-यार था अब मैं हूँ और मातम-ए-यक-शहर-आरज़ू तोड़ा जो तू ने आइना तिमसाल-दार था गलियों में मेरी ना'श को खींचे फिरो कि मैं जाँ-दादा-ए-हवा-ए-सर-ए-रहगुज़ार था मौज-ए-सराब-ए-दश्त-ए-वफ़ा का न पूछ हाल हर ज़र्रा मिस्ल-ए-जौहर-ए-तेग़ आब-दार था कम जानते थे हम भी ग़म-ए-इश्क़ को पर अब देखा तो कम हुए प ग़म-ए-रोज़गार था किस का जुनून-ए-दीद तमन्ना-शिकार था आईना-ख़ाना वादी-ए-जौहर-ग़ुबार था किस का ख़याल आइना-ए-इन्तिज़ार था हर बर्ग-ए-गुल के पर्दे में दिल बे-क़रार था जूँ ग़ुंचा-ओ-गुल आफ़त-ए-फ़ाल-ए-नज़र न पूछ पैकाँ से तेरे जल्वा-ए-ज़ख़्म आश्कार था देखी वफ़ा-ए-फ़ुर्सत-ए-रंज-ओ-नशात-ए-दहर ख़म्याज़ा यक-दराज़ी-ए-उम्र-ए-ख़ुमार था सुब्ह-ए-क़यामत एक दुम-ए-गुर्ग थी 'असद' जिस दश्त में वो शोख़-ए-दो-आलम शिकार था " ham-rashk-ko-apne-bhii-gavaaraa-nahiin-karte-mirza-ghalib-ghazals," हम रश्क को अपने भी गवारा नहीं करते मरते हैं वले उन की तमन्ना नहीं करते दर-पर्दा उन्हें ग़ैर से है रब्त-ए-निहानी ज़ाहिर का ये पर्दा है कि पर्दा नहीं करते ये बाइस-ए-नौमीदी-ए-अर्बाब-ए-हवस है 'ग़ालिब' को बुरा कहते हैं अच्छा नहीं करते " sar-gashtagii-men-aalam-e-hastii-se-yaas-hai-mirza-ghalib-ghazals," सर-गश्तगी में आलम-ए-हस्ती से यास है तस्कीं को दे नवेद कि मरने की आस है लेता नहीं मिरे दिल-ए-आवारा की ख़बर अब तक वो जानता है कि मेरे ही पास है कीजिए बयाँ सुरूर-ए-तप-ए-ग़म कहाँ तलक हर मू मिरे बदन पे ज़बान-ए-सिपास है है वो ग़ुरूर-ए-हुस्न से बेगाना-ए-वफ़ा हर-चंद उस के पास दिल-ए-हक़-शनास है पी जिस क़दर मिले शब-ए-महताब में शराब इस बलग़मी-मिज़ाज को गर्मी ही रास है हर इक मकान को है मकीं से शरफ़ 'असद' मजनूँ जो मर गया है तो जंगल उदास है क्या ग़म है उस को जिस का 'अली' सा इमाम हो इतना भी ऐ फ़लक-ज़दा क्यूँ बद-हवास है " himmat-e-iltijaa-nahiin-baaqii-faiz-ahmad-faiz-ghazals," हिम्मत-ए-इल्तिजा नहीं बाक़ी ज़ब्त का हौसला नहीं बाक़ी इक तिरी दीद छिन गई मुझ से वर्ना दुनिया में क्या नहीं बाक़ी अपनी मश्क़-ए-सितम से हाथ न खींच मैं नहीं या वफ़ा नहीं बाक़ी तेरी चश्म-ए-अलम-नवाज़ की ख़ैर दिल में कोई गिला नहीं बाक़ी हो चुका ख़त्म अहद-ए-हिज्र-ओ-विसाल ज़िंदगी में मज़ा नहीं बाक़ी " chaand-nikle-kisii-jaanib-tirii-zebaaii-kaa-faiz-ahmad-faiz-ghazals," चाँद निकले किसी जानिब तिरी ज़ेबाई का रंग बदले किसी सूरत शब-ए-तन्हाई का दौलत-ए-लब से फिर ऐ ख़ुसरव-ए-शीरीं-दहनाँ आज अर्ज़ां हो कोई हर्फ़ शनासाई का गर्मी-ए-रश्क से हर अंजुमन-ए-गुल-बदनाँ तज़्किरा छेड़े तिरी पैरहन-आराई का सेहन-ए-गुलशन में कभी ऐ शह-ए-शमशाद-क़दाँ फिर नज़र आए सलीक़ा तिरी रानाई का एक बार और मसीहा-ए-दिल-ए-दिल-ज़दगाँ कोई वा'दा कोई इक़रार मसीहाई का दीदा ओ दिल को सँभालो कि सर-ए-शाम-ए-फ़िराक़ साज़-ओ-सामान बहम पहुँचा है रुस्वाई का " kuchh-pahle-in-aankhon-aage-kyaa-kyaa-na-nazaaraa-guzre-thaa-faiz-ahmad-faiz-ghazals," कुछ पहले इन आँखों आगे क्या क्या न नज़ारा गुज़रे था क्या रौशन हो जाती थी गली जब यार हमारा गुज़रे था थे कितने अच्छे लोग कि जिन को अपने ग़म से फ़ुर्सत थी सब पूछें थे अहवाल जो कोई दर्द का मारा गुज़रे था अब के ख़िज़ाँ ऐसी ठहरी वो सारे ज़माने भूल गए जब मौसम-ए-गुल हर फेरे में आ आ के दोबारा गुज़रे था थी यारों की बोहतात तो हम अग़्यार से भी बेज़ार न थे जब मिल बैठे तो दुश्मन का भी साथ गवारा गुज़रे था अब तो हाथ सुझाई न देवे लेकिन अब से पहले तो आँख उठते ही एक नज़र में आलम सारा गुज़रे था " ab-jo-koii-puuchhe-bhii-to-us-se-kyaa-sharh-e-haalaat-karen-faiz-ahmad-faiz-ghazals," अब जो कोई पूछे भी तो उस से क्या शरह-ए-हालात करें दिल ठहरे तो दर्द सुनाएँ दर्द थमे तो बात करें शाम हुई फिर जोश-ए-क़दह ने बज़्म-ए-हरीफ़ाँ रौशन की घर को आग लगाएँ हम भी रौशन अपनी रात करें क़त्ल-ए-दिल-ओ-जाँ अपने सर है अपना लहू अपनी गर्दन पे मोहर-ब-लब बैठे हैं किस का शिकवा किस के साथ करें हिज्र में शब भर दर्द-ओ-तलब के चाँद सितारे साथ रहे सुब्ह की वीरानी में यारो कैसे बसर औक़ात करें " yuun-sajaa-chaand-ki-jhalkaa-tire-andaaz-kaa-rang-faiz-ahmad-faiz-ghazals," यूँ सजा चाँद कि झलका तिरे अंदाज़ का रंग यूँ फ़ज़ा महकी कि बदला मिरे हमराज़ का रंग साया-ए-चश्म में हैराँ रुख़-ए-रौशन का जमाल सुर्ख़ी-ए-लब में परेशाँ तिरी आवाज़ का रंग बे-पिए हूँ कि अगर लुत्फ़ करो आख़िर-ए-शब शीशा-ए-मय में ढले सुब्ह के आग़ाज़ का रंग चंग ओ नय रंग पे थे अपने लहू के दम से दिल ने लय बदली तो मद्धम हुआ हर साज़ का रंग इक सुख़न और कि फिर रंग-ए-तकल्लुम तेरा हर्फ़-ए-सादा को इनायत करे ए'जाज़ का रंग " sabhii-kuchh-hai-teraa-diyaa-huaa-sabhii-raahaten-sabhii-kulfaten-faiz-ahmad-faiz-ghazals," सभी कुछ है तेरा दिया हुआ सभी राहतें सभी कुल्फ़तें कभी सोहबतें कभी फ़ुर्क़तें कभी दूरियाँ कभी क़ुर्बतें ये सुख़न जो हम ने रक़म किए ये हैं सब वरक़ तिरी याद के कोई लम्हा सुब्ह-ए-विसाल का कोई शाम-ए-हिज्र की मुद्दतें जो तुम्हारी मान लें नासेहा तो रहेगा दामन-ए-दिल में क्या न किसी अदू की अदावतें न किसी सनम की मुरव्वतें चलो आओ तुम को दिखाएँ हम जो बचा है मक़्तल-ए-शहर में ये मज़ार अहल-ए-सफ़ा के हैं ये हैं अहल-ए-सिद्क़ की तुर्बतें मिरी जान आज का ग़म न कर कि न जाने कातिब-ए-वक़्त ने किसी अपने कल में भी भूल कर कहीं लिख रखी हों मसर्रतें " ham-par-tumhaarii-chaah-kaa-ilzaam-hii-to-hai-faiz-ahmad-faiz-ghazals," हम पर तुम्हारी चाह का इल्ज़ाम ही तो है दुश्नाम तो नहीं है ये इकराम ही तो है करते हैं जिस पे ता'न कोई जुर्म तो नहीं शौक़-ए-फ़ुज़ूल ओ उल्फ़त-ए-नाकाम ही तो है दिल मुद्दई के हर्फ़-ए-मलामत से शाद है ऐ जान-ए-जाँ ये हर्फ़ तिरा नाम ही तो है दिल ना-उमीद तो नहीं नाकाम ही तो है लम्बी है ग़म की शाम मगर शाम ही तो है दस्त-ए-फ़लक में गर्दिश-ए-तक़दीर तो नहीं दस्त-ए-फ़लक में गर्दिश-ए-अय्याम ही तो है आख़िर तो एक रोज़ करेगी नज़र वफ़ा वो यार-ए-ख़ुश-ख़िसाल सर-ए-बाम ही तो है भीगी है रात 'फ़ैज़' ग़ज़ल इब्तिदा करो वक़्त-ए-सरोद दर्द का हंगाम ही तो है " nasiib-aazmaane-ke-din-aa-rahe-hain-faiz-ahmad-faiz-ghazals," नसीब आज़माने के दिन आ रहे हैं क़रीब उन के आने के दिन आ रहे हैं जो दिल से कहा है जो दिल से सुना है सब उन को सुनाने के दिन आ रहे हैं अभी से दिल ओ जाँ सर-ए-राह रख दो कि लुटने लुटाने के दिन आ रहे हैं टपकने लगी उन निगाहों से मस्ती निगाहें चुराने के दिन आ रहे हैं सबा फिर हमें पूछती फिर रही है चमन को सजाने के दिन आ रहे हैं चलो 'फ़ैज़' फिर से कहीं दिल लगाएँ सुना है ठिकाने के दिन आ रहे हैं " na-ganvaao-naavak-e-niim-kash-dil-e-reza-reza-ganvaa-diyaa-faiz-ahmad-faiz-ghazals," न गँवाओ नावक-ए-नीम-कश दिल-ए-रेज़ा-रेज़ा गँवा दिया जो बचे हैं संग समेट लो तन-ए-दाग़-दाग़ लुटा दिया मिरे चारा-गर को नवेद हो सफ़-ए-दुश्मनाँ को ख़बर करो जो वो क़र्ज़ रखते थे जान पर वो हिसाब आज चुका दिया करो कज जबीं पे सर-ए-कफ़न मिरे क़ातिलों को गुमाँ न हो कि ग़ुरूर-ए-इश्क़ का बाँकपन पस-ए-मर्ग हम ने भुला दिया उधर एक हर्फ़ कि कुश्तनी यहाँ लाख उज़्र था गुफ़्तनी जो कहा तो सुन के उड़ा दिया जो लिखा तो पढ़ के मिटा दिया जो रुके तो कोह-ए-गिराँ थे हम जो चले तो जाँ से गुज़र गए रह-ए-यार हम ने क़दम क़दम तुझे यादगार बना दिया " kabhii-kabhii-yaad-men-ubharte-hain-naqsh-e-maazii-mite-mite-se-faiz-ahmad-faiz-ghazals," कभी कभी याद में उभरते हैं नक़्श-ए-माज़ी मिटे मिटे से वो आज़माइश दिल ओ नज़र की वो क़ुर्बतें सी वो फ़ासले से कभी कभी आरज़ू के सहरा में आ के रुकते हैं क़ाफ़िले से वो सारी बातें लगाव की सी वो सारे उनवाँ विसाल के से निगाह ओ दिल को क़रार कैसा नशात ओ ग़म में कमी कहाँ की वो जब मिले हैं तो उन से हर बार की है उल्फ़त नए सिरे से बहुत गिराँ है ये ऐश-ए-तन्हा कहीं सुबुक-तर कहीं गवारा वो दर्द-ए-पिन्हाँ कि सारी दुनिया रफ़ीक़ थी जिस के वास्ते से तुम्हीं कहो रिंद ओ मोहतसिब में है आज शब कौन फ़र्क़ ऐसा ये आ के बैठे हैं मय-कदे में वो उठ के आए हैं मय-कदे से " sab-qatl-ho-ke-tere-muqaabil-se-aae-hain-faiz-ahmad-faiz-ghazals," सब क़त्ल हो के तेरे मुक़ाबिल से आए हैं हम लोग सुर्ख़-रू हैं कि मंज़िल से आए हैं शम-ए-नज़र ख़याल के अंजुम जिगर के दाग़ जितने चराग़ हैं तिरी महफ़िल से आए हैं उठ कर तो आ गए हैं तिरी बज़्म से मगर कुछ दिल ही जानता है कि किस दिल से आए हैं हर इक क़दम अजल था हर इक गाम ज़िंदगी हम घूम फिर के कूचा-ए-क़ातिल से आए हैं बाद-ए-ख़िज़ाँ का शुक्र करो 'फ़ैज़' जिस के हाथ नामे किसी बहार-ए-शिमाइल से आए हैं " dil-men-ab-yuun-tire-bhuule-hue-gam-aate-hain-faiz-ahmad-faiz-ghazals," दिल में अब यूँ तिरे भूले हुए ग़म आते हैं जैसे बिछड़े हुए काबे में सनम आते हैं एक इक कर के हुए जाते हैं तारे रौशन मेरी मंज़िल की तरफ़ तेरे क़दम आते हैं रक़्स-ए-मय तेज़ करो साज़ की लय तेज़ करो सू-ए-मय-ख़ाना सफ़ीरान-ए-हरम आते हैं कुछ हमीं को नहीं एहसान उठाने का दिमाग़ वो तो जब आते हैं माइल-ब-करम आते हैं और कुछ देर न गुज़रे शब-ए-फ़ुर्क़त से कहो दिल भी कम दुखता है वो याद भी कम आते हैं " aae-kuchh-abr-kuchh-sharaab-aae-faiz-ahmad-faiz-ghazals," आए कुछ अब्र कुछ शराब आए इस के बा'द आए जो अज़ाब आए बाम-ए-मीना से माहताब उतरे दस्त-ए-साक़ी में आफ़्ताब आए हर रग-ए-ख़ूँ में फिर चराग़ाँ हो सामने फिर वो बे-नक़ाब आए उम्र के हर वरक़ पे दिल की नज़र तेरी मेहर-ओ-वफ़ा के बाब आए कर रहा था ग़म-ए-जहाँ का हिसाब आज तुम याद बे-हिसाब आए न गई तेरे ग़म की सरदारी दिल में यूँ रोज़ इंक़लाब आए जल उठे बज़्म-ए-ग़ैर के दर-ओ-बाम जब भी हम ख़ानुमाँ-ख़राब आए इस तरह अपनी ख़ामुशी गूँजी गोया हर सम्त से जवाब आए 'फ़ैज़' थी राह सर-ब-सर मंज़िल हम जहाँ पहुँचे कामयाब आए " ishq-minnat-e-kash-e-qaraar-nahiin-faiz-ahmad-faiz-ghazals," इश्क़ मिन्नत-कश-ए-क़रार नहीं हुस्न मजबूर-ए-इंतिज़ार नहीं तेरी रंजिश की इंतिहा मालूम हसरतों का मिरी शुमार नहीं अपनी नज़रें बिखेर दे साक़ी मय ब-अंदाज़ा-ए-ख़ुमार नहीं ज़ेर-ए-लब है अभी तबस्सुम-ए-दोस्त मुंतशिर जल्वा-ए-बहार नहीं अपनी तकमील कर रहा हूँ मैं वर्ना तुझ से तो मुझ को प्यार नहीं चारा-ए-इंतिज़ार कौन करे तेरी नफ़रत भी उस्तुवार नहीं 'फ़ैज़' ज़िंदा रहें वो हैं तो सही क्या हुआ गर वफ़ा-शिआर नहीं " aaj-yuun-mauj-dar-mauj-gam-tham-gayaa-is-tarah-gam-zadon-ko-qaraar-aa-gayaa-faiz-ahmad-faiz-ghazals-1," आज यूँ मौज-दर-मौज ग़म थम गया इस तरह ग़म-ज़दों को क़रार आ गया जैसे ख़ुश-बू-ए-ज़ुल्फ़-ए-बहार आ गई जैसे पैग़ाम-ए-दीदार-ए-यार आ गया जिस की दीद-ओ-तलब वहम समझे थे हम रू-ब-रू फिर सर-ए-रहगुज़ार आ गया सुब्ह-ए-फ़र्दा को फिर दिल तरसने लगा उम्र-ए-रफ़्ता तिरा ए'तिबार आ गया रुत बदलने लगी रंग-ए-दिल देखना रंग-ए-गुलशन से अब हाल खुलता नहीं ज़ख़्म छलका कोई या कोई गुल खिला अश्क उमडे कि अब्र-ए-बहार आ गया ख़ून-ए-उश्शाक़ से जाम भरने लगे दिल सुलगने लगे दाग़ जलने लगे महफ़िल-ए-दर्द फिर रंग पर आ गई फिर शब-ए-आरज़ू पर निखार आ गया सरफ़रोशी के अंदाज़ बदले गए दावत-ए-क़त्ल पर मक़्तल-ए-शहर में डाल कर कोई गर्दन में तौक़ आ गया लाद कर कोई काँधे पे दार आ गया 'फ़ैज़' क्या जानिए यार किस आस पर मुंतज़िर हैं कि लाएगा कोई ख़बर मय-कशों पर हुआ मोहतसिब मेहरबाँ दिल-फ़िगारों पे क़ातिल को प्यार आ गया " ye-jafaa-e-gam-kaa-chaara-vo-najaat-e-dil-kaa-aalam-faiz-ahmad-faiz-ghazals," ये जफ़ा-ए-ग़म का चारा वो नजात-ए-दिल का आलम तिरा हुस्न दस्त-ए-ईसा तिरी याद रू-ए-मर्यम दिल ओ जाँ फ़िदा-ए-राहे कभी आ के देख हमदम सर-ए-कू-ए-दिल-फ़िगाराँ शब-ए-आरज़ू का आलम तिरी दीद से सिवा है तिरे शौक़ में बहाराँ वो चमन जहाँ गिरी है तिरे गेसुओं की शबनम ये अजब क़यामतें हैं तिरे रहगुज़र में गुज़राँ न हुआ कि मर मिटें हम न हुआ कि जी उठें हम लो सुनी गई हमारी यूँ फिरे हैं दिन कि फिर से वही गोशा-ए-क़फ़स है वही फ़स्ल-ए-गुल का मातम " go-sab-ko-baham-saagar-o-baada-to-nahiin-thaa-faiz-ahmad-faiz-ghazals," गो सब को बहम साग़र ओ बादा तो नहीं था ये शहर उदास इतना ज़ियादा तो नहीं था गलियों में फिरा करते थे दो चार दिवाने हर शख़्स का सद चाक लबादा तो नहीं था मंज़िल को न पहचाने रह-ए-इश्क़ का राही नादाँ ही सही ऐसा भी सादा तो नहीं था थक कर यूँही पल भर के लिए आँख लगी थी सो कर ही न उट्ठें ये इरादा तो नहीं था वाइ'ज़ से रह-ओ-रस्म रही रिंद से सोहबत फ़र्क़ इन में कोई इतना ज़ियादा तो नहीं था " hamiin-se-apnii-navaa-ham-kalaam-hotii-rahii-faiz-ahmad-faiz-ghazals," हमीं से अपनी नवा हम-कलाम होती रही ये तेग़ अपने लहू में नियाम होती रही मुक़ाबिल-ए-सफ़-ए-आदा जिसे किया आग़ाज़ वो जंग अपने ही दिल में तमाम होती रही कोई मसीहा न ईफ़ा-ए-अहद को पहुँचा बहुत तलाश पस-ए-क़त्ल-ए-आम होती रही ये बरहमन का करम वो अता-ए-शैख़-ए-हरम कभी हयात कभी मय हराम होती रही जो कुछ भी बन न पड़ा 'फ़ैज़' लुट के यारों से तो रहज़नों से दुआ-ओ-सलाम होती रही " gulon-men-rang-bhare-baad-e-nau-bahaar-chale-faiz-ahmad-faiz-ghazals," गुलों में रंग भरे बाद-ए-नौ-बहार चले चले भी आओ कि गुलशन का कारोबार चले क़फ़स उदास है यारो सबा से कुछ तो कहो कहीं तो बहर-ए-ख़ुदा आज ज़िक्र-ए-यार चले कभी तो सुब्ह तिरे कुंज-ए-लब से हो आग़ाज़ कभी तो शब सर-ए-काकुल से मुश्क-बार चले बड़ा है दर्द का रिश्ता ये दिल ग़रीब सही तुम्हारे नाम पे आएँगे ग़म-गुसार चले जो हम पे गुज़री सो गुज़री मगर शब-ए-हिज्राँ हमारे अश्क तिरी आक़िबत सँवार चले हुज़ूर-ए-यार हुई दफ़्तर-ए-जुनूँ की तलब गिरह में ले के गरेबाँ का तार तार चले मक़ाम 'फ़ैज़' कोई राह में जचा ही नहीं जो कू-ए-यार से निकले तो सू-ए-दार चले " hairaan-hai-jabiin-aaj-kidhar-sajda-ravaa-hai-faiz-ahmad-faiz-ghazals," हैराँ है जबीं आज किधर सज्दा रवा है सर पर हैं ख़ुदावंद सर-ए-अर्श ख़ुदा है कब तक इसे सींचोगे तमन्ना-ए-समर में ये सब्र का पौदा तो न फूला न फला है मिलता है ख़िराज उस को तिरी नान-ए-जवीं से हर बादशह-ए-वक़्त तिरे दर का गदा है हर एक उक़ूबत से है तल्ख़ी में सवा-तर वो रंग जो ना-कर्दा गुनाहों की सज़ा है एहसान लिए कितने मसीहा-नफ़सों के क्या कीजिए दिल का न जला है न बुझा है " ham-ne-sab-sher-men-sanvaare-the-faiz-ahmad-faiz-ghazals," हम ने सब शेर में सँवारे थे हम से जितने सुख़न तुम्हारे थे रंग-ओ-ख़ुशबू के हुस्न-ओ-ख़ूबी के तुम से थे जितने इस्तिआरे थे तेरे क़ौल-ओ-क़रार से पहले अपने कुछ और भी सहारे थे जब वो लाल-ओ-गुहर हिसाब किए जो तिरे ग़म ने दिल पे वारे थे मेरे दामन में आ गिरे सारे जितने तश्त-ए-फ़लक में तारे थे उम्र-ए-जावेद की दुआ करते 'फ़ैज़' इतने वो कब हमारे थे " vo-buton-ne-daale-hain-vasvase-ki-dilon-se-khauf-e-khudaa-gayaa-faiz-ahmad-faiz-ghazals," वो बुतों ने डाले हैं वसवसे कि दिलों से ख़ौफ़-ए-ख़ुदा गया वो पड़ी हैं रोज़ क़यामतें कि ख़याल-ए-रोज़-ए-जज़ा गया जो नफ़स था ख़ार-ए-गुलू बना जो उठे थे हाथ लहू हुए वो नशात-ए-आह-ए-सहर गई वो वक़ार-ए-दस्त-ए-दुआ गया न वो रंग फ़स्ल-ए-बहार का न रविश वो अब्र-ए-बहार की जिस अदा से यार थे आश्ना वो मिज़ाज-ए-बाद-ए-सबा गया जो तलब पे अहद-ए-वफ़ा किया तो वो आबरू-ए-वफ़ा गई सर-ए-आम जब हुए मुद्दई' तो सवाब-ए-सिदक़-ओ-सफ़ा गया अभी बादबान को तह रखो अभी मुज़्तरिब है रुख़-ए-हवा किसी रास्ते में है मुंतज़िर वो सुकूँ जो आ के चला गया " shaam-e-firaaq-ab-na-puuchh-aaii-aur-aa-ke-tal-gaii-faiz-ahmad-faiz-ghazals," शाम-ए-फ़िराक़ अब न पूछ आई और आ के टल गई दिल था कि फिर बहल गया जाँ थी कि फिर सँभल गई बज़्म-ए-ख़याल में तिरे हुस्न की शम्अ जल गई दर्द का चाँद बुझ गया हिज्र की रात ढल गई जब तुझे याद कर लिया सुब्ह महक महक उठी जब तिरा ग़म जगा लिया रात मचल मचल गई दिल से तो हर मोआ'मला कर के चले थे साफ़ हम कहने में उन के सामने बात बदल बदल गई आख़िर-ए-शब के हम-सफ़र 'फ़ैज़' न जाने क्या हुए रह गई किस जगह सबा सुब्ह किधर निकल गई " baat-bas-se-nikal-chalii-hai-faiz-ahmad-faiz-ghazals," बात बस से निकल चली है दिल की हालत सँभल चली है अब जुनूँ हद से बढ़ चला है अब तबीअ'त बहल चली है अश्क ख़ूनाब हो चले हैं ग़म की रंगत बदल चली है या यूँही बुझ रही हैं शमएँ या शब-ए-हिज्र टल चली है लाख पैग़ाम हो गए हैं जब सबा एक पल चली है जाओ अब सो रहो सितारो दर्द की रात ढल चली है " nahiin-nigaah-men-manzil-to-justujuu-hii-sahii-faiz-ahmad-faiz-ghazals," नहीं निगाह में मंज़िल तो जुस्तुजू ही सही नहीं विसाल मयस्सर तो आरज़ू ही सही न तन में ख़ून फ़राहम न अश्क आँखों में नमाज़-ए-शौक़ तो वाजिब है बे-वज़ू ही सही किसी तरह तो जमे बज़्म मय-कदे वालो नहीं जो बादा-ओ-साग़र तो हाव-हू ही सही गर इंतिज़ार कठिन है तो जब तलक ऐ दिल किसी के वादा-ए-फ़र्दा की गुफ़्तुगू ही सही दयार-ए-ग़ैर में महरम अगर नहीं कोई तो 'फ़ैज़' ज़िक्र-ए-वतन अपने रू-ब-रू ही सही " rang-pairaahan-kaa-khushbuu-zulf-lahraane-kaa-naam-faiz-ahmad-faiz-ghazals," रंग पैराहन का ख़ुशबू ज़ुल्फ़ लहराने का नाम मौसम-ए-गुल है तुम्हारे बाम पर आने का नाम दोस्तो उस चश्म ओ लब की कुछ कहो जिस के बग़ैर गुलसिताँ की बात रंगीं है न मय-ख़ाने का नाम फिर नज़र में फूल महके दिल में फिर शमएँ जलीं फिर तसव्वुर ने लिया उस बज़्म में जाने का नाम दिलबरी ठहरा ज़बान-ए-ख़ल्क़ खुलवाने का नाम अब नहीं लेते परी-रू ज़ुल्फ़ बिखराने का नाम अब किसी लैला को भी इक़रार-ए-महबूबी नहीं इन दिनों बदनाम है हर एक दीवाने का नाम मोहतसिब की ख़ैर ऊँचा है उसी के फ़ैज़ से रिंद का साक़ी का मय का ख़ुम का पैमाने का नाम हम से कहते हैं चमन वाले ग़रीबान-ए-चमन तुम कोई अच्छा सा रख लो अपने वीराने का नाम 'फ़ैज़' उन को है तक़ाज़ा-ए-वफ़ा हम से जिन्हें आश्ना के नाम से प्यारा है बेगाने का नाम " kab-thahregaa-dard-ai-dil-kab-raat-basar-hogii-faiz-ahmad-faiz-ghazals," कब ठहरेगा दर्द ऐ दिल कब रात बसर होगी सुनते थे वो आएँगे सुनते थे सहर होगी कब जान लहू होगी कब अश्क गुहर होगा किस दिन तिरी शुनवाई ऐ दीदा-ए-तर होगी कब महकेगी फ़स्ल-ए-गुल कब बहकेगा मय-ख़ाना कब सुब्ह-ए-सुख़न होगी कब शाम-ए-नज़र होगी वाइ'ज़ है न ज़ाहिद है नासेह है न क़ातिल है अब शहर में यारों की किस तरह बसर होगी कब तक अभी रह देखें ऐ क़ामत-ए-जानाना कब हश्र मुअ'य्यन है तुझ को तो ख़बर होगी " darbaar-men-ab-satvat-e-shaahii-kii-alaamat-faiz-ahmad-faiz-ghazals," दरबार में अब सतवत-ए-शाही की अलामत दरबाँ का असा है कि मुसन्निफ़ का क़लम है आवारा है फिर कोह-ए-निदा पर जो बशारत तम्हीद-ए-मसर्रत है कि तूल-ए-शब-ए-ग़म है जिस धज्जी को गलियों में लिए फिरते हैं तिफ़्लाँ ये मेरा गरेबाँ है कि लश्कर का अलम है जिस नूर से है शहर की दीवार दरख़्शाँ ये ख़ून-ए-शहीदाँ है कि ज़र-ख़ाना-ए-जम है हल्क़ा किए बैठे रहो इक शम्अ को यारो कुछ रौशनी बाक़ी तो है हर-चंद कि कम है " vafaa-e-vaada-nahiin-vaada-e-digar-bhii-nahiin-faiz-ahmad-faiz-ghazals," वफ़ा-ए-वादा नहीं वादा-ए-दिगर भी नहीं वो मुझ से रूठे तो थे लेकिन इस क़दर भी नहीं बरस रही है हरीम-ए-हवस में दौलत-ए-हुस्न गदा-ए-इश्क़ के कासे में इक नज़र भी नहीं न जाने किस लिए उम्मीद-वार बैठा हूँ इक ऐसी राह पे जो तेरी रहगुज़र भी नहीं निगाह-ए-शौक़ सर-ए-बज़्म बे-हिजाब न हो वो बे-ख़बर ही सही इतने बे-ख़बर भी नहीं ये अहद-ए-तर्क-ए-मोहब्बत है किस लिए आख़िर सुकून-ए-क़ल्ब उधर भी नहीं इधर भी नहीं " na-ab-raqiib-na-naaseh-na-gam-gusaar-koii-faiz-ahmad-faiz-ghazals," न अब रक़ीब न नासेह न ग़म-गुसार कोई तुम आश्ना थे तो थीं आश्नाइयाँ क्या क्या जुदा थे हम तो मयस्सर थीं क़ुर्बतें कितनी बहम हुए तो पड़ी हैं जुदाइयाँ क्या क्या पहुँच के दर पे तिरे कितने मो'तबर ठहरे अगरचे रह में हुईं जग-हँसाइयाँ क्या क्या हम ऐसे सादा-दिलों की नियाज़-मंदी से बुतों ने की हैं जहाँ में ख़ुदाइयाँ क्या क्या सितम पे ख़ुश कभी लुत्फ़-ओ-करम से रंजीदा सिखाईं तुम ने हमें कज-अदाइयाँ क्या क्या " har-haqiiqat-majaaz-ho-jaae-faiz-ahmad-faiz-ghazals," हर हक़ीक़त मजाज़ हो जाए काफ़िरों की नमाज़ हो जाए दिल रहीन-ए-नियाज़ हो जाए बेकसी कारसाज़ हो जाए मिन्नत-ए-चारा-साज़ कौन करे दर्द जब जाँ-नवाज़ हो जाए इश्क़ दिल में रहे तो रुस्वा हो लब पे आए तो राज़ हो जाए लुत्फ़ का इंतिज़ार करता हूँ जौर ता हद्द-ए-नाज़ हो जाए उम्र बे-सूद कट रही है 'फ़ैज़' काश इफ़शा-ए-राज़ हो जाए " phir-hariif-e-bahaar-ho-baithe-faiz-ahmad-faiz-ghazals," फिर हरीफ़-ए-बहार हो बैठे जाने किस किस को आज रो बैठे थी मगर इतनी राएगाँ भी न थी आज कुछ ज़िंदगी से खो बैठे तेरे दर तक पहुँच के लौट आए इश्क़ की आबरू डुबो बैठे सारी दुनिया से दूर हो जाए जो ज़रा तेरे पास हो बैठे न गई तेरी बे-रुख़ी न गई हम तिरी आरज़ू भी खो बैठे 'फ़ैज़' होता रहे जो होना है शेर लिखते रहा करो बैठे " garmi-e-shauq-e-nazaaraa-kaa-asar-to-dekho-faiz-ahmad-faiz-ghazals," गर्मी-ए-शौक़-ए-नज़ारा का असर तो देखो गुल खिले जाते हैं वो साया-ए-तर तो देखो ऐसे नादाँ भी न थे जाँ से गुज़रने वाले नासेहो पंद-गरो राहगुज़र तो देखो वो तो वो है तुम्हें हो जाएगी उल्फ़त मुझ से इक नज़र तुम मिरे महबूब-ए-नज़र तो देखो वो जो अब चाक गरेबाँ भी नहीं करते हैं देखने वालो कभी उन का जिगर तो देखो दामन-ए-दर्द को गुलज़ार बना रक्खा है आओ इक दिन दिल-ए-पुर-ख़ूँ का हुनर तो देखो सुब्ह की तरह झमकता है शब-ए-ग़म का उफ़ुक़ 'फ़ैज़' ताबिंदगी-ए-दीदा-ए-तर तो देखो " tirii-umiid-tiraa-intizaar-jab-se-hai-faiz-ahmad-faiz-ghazals," तिरी उमीद तिरा इंतिज़ार जब से है न शब को दिन से शिकायत न दिन को शब से है किसी का दर्द हो करते हैं तेरे नाम रक़म गिला है जो भी किसी से तिरे सबब से है हुआ है जब से दिल-ए-ना-सुबूर बे-क़ाबू कलाम तुझ से नज़र को बड़े अदब से है अगर शरर है तो भड़के जो फूल है तो खिले तरह तरह की तलब तेरे रंग-ए-लब से है कहाँ गए शब-ए-फ़ुर्क़त के जागने वाले सितारा-ए-सहरी हम-कलाम कब से है " qarz-e-nigaah-e-yaar-adaa-kar-chuke-hain-ham-faiz-ahmad-faiz-ghazals," क़र्ज़-ए-निगाह-ए-यार अदा कर चुके हैं हम सब कुछ निसार-ए-राह-ए-वफ़ा कर चुके हैं हम कुछ इम्तिहान-ए-दस्त-ए-जफ़ा कर चुके हैं हम कुछ उन की दस्तरस का पता कर चुके हैं हम अब एहतियात की कोई सूरत नहीं रही क़ातिल से रस्म-ओ-राह सिवा कर चुके हैं हम देखें है कौन कौन ज़रूरत नहीं रही कू-ए-सितम में सब को ख़फ़ा कर चुके हैं हम अब अपना इख़्तियार है चाहे जहाँ चलें रहबर से अपनी राह जुदा कर चुके हैं हम उन की नज़र में क्या करें फीका है अब भी रंग जितना लहू था सर्फ़-ए-क़बा कर चुके हैं हम कुछ अपने दिल की ख़ू का भी शुक्राना चाहिए सौ बार उन की ख़ू का गिला कर चुके हैं हम " ab-ke-baras-dastuur-e-sitam-men-kyaa-kyaa-baab-iizaad-hue-faiz-ahmad-faiz-ghazals," अब के बरस दस्तूर-ए-सितम में क्या क्या बाब ईज़ाद हुए जो क़ातिल थे मक़्तूल हुए जो सैद थे अब सय्याद हुए पहले भी ख़िज़ाँ में बाग़ उजड़े पर यूँ नहीं जैसे अब के बरस सारे बूटे पत्ता पत्ता रविश रविश बर्बाद हुए पहले भी तवाफ़-ए-शम्-ए-वफ़ा थी रस्म मोहब्बत वालों की हम तुम से पहले भी यहाँ 'मंसूर' हुए 'फ़रहाद' हुए इक गुल के मुरझाने पर क्या गुलशन में कोहराम मचा इक चेहरा कुम्हला जाने से कितने दिल नाशाद हुए 'फ़ैज़' न हम 'यूसुफ़' न कोई 'याक़ूब' जो हम को याद करे अपनी क्या कनआँ में रहे या मिस्र में जा आबाद हुए " tum-aae-ho-na-shab-e-intizaar-guzrii-hai-faiz-ahmad-faiz-ghazals," तुम आए हो न शब-ए-इंतिज़ार गुज़री है तलाश में है सहर बार बार गुज़री है जुनूँ में जितनी भी गुज़री ब-कार गुज़री है अगरचे दिल पे ख़राबी हज़ार गुज़री है हुई है हज़रत-ए-नासेह से गुफ़्तुगू जिस शब वो शब ज़रूर सर-ए-कू-ए-यार गुज़री है वो बात सारे फ़साने में जिस का ज़िक्र न था वो बात उन को बहुत ना-गवार गुज़री है न गुल खिले हैं न उन से मिले न मय पी है अजीब रंग में अब के बहार गुज़री है चमन पे ग़ारत-ए-गुल-चीं से जाने क्या गुज़री क़फ़स से आज सबा बे-क़रार गुज़री है " kab-yaad-men-teraa-saath-nahiin-kab-haat-men-teraa-haat-nahiin-faiz-ahmad-faiz-ghazals," कब याद में तेरा साथ नहीं कब हात में तेरा हात नहीं सद-शुक्र कि अपनी रातों में अब हिज्र की कोई रात नहीं मुश्किल हैं अगर हालात वहाँ दिल बेच आएँ जाँ दे आएँ दिल वालो कूचा-ए-जानाँ में क्या ऐसे भी हालात नहीं जिस धज से कोई मक़्तल में गया वो शान सलामत रहती है ये जान तो आनी जानी है इस जाँ की तो कोई बात नहीं मैदान-ए-वफ़ा दरबार नहीं याँ नाम-ओ-नसब की पूछ कहाँ आशिक़ तो किसी का नाम नहीं कुछ इश्क़ किसी की ज़ात नहीं गर बाज़ी इश्क़ की बाज़ी है जो चाहो लगा दो डर कैसा गर जीत गए तो क्या कहना हारे भी तो बाज़ी मात नहीं " kab-tak-dil-kii-khair-manaaen-kab-tak-rah-dikhlaaoge-faiz-ahmad-faiz-ghazals," कब तक दिल की ख़ैर मनाएँ कब तक रह दिखलाओगे कब तक चैन की मोहलत दोगे कब तक याद न आओगे बीता दीद उम्मीद का मौसम ख़ाक उड़ती है आँखों में कब भेजोगे दर्द का बादल कब बरखा बरसाओगे अहद-ए-वफ़ा या तर्क-ए-मोहब्बत जो चाहो सो आप करो अपने बस की बात ही क्या है हम से क्या मनवाओगे किस ने वस्ल का सूरज देखा किस पर हिज्र की रात ढली गेसुओं वाले कौन थे क्या थे उन को क्या जतलाओगे 'फ़ैज़' दिलों के भाग में है घर भरना भी लुट जाना थी तुम इस हुस्न के लुत्फ़-ओ-करम पर कितने दिन इतराओगे " tire-gam-ko-jaan-kii-talaash-thii-tire-jaan-nisaar-chale-gae-faiz-ahmad-faiz-ghazals," तिरे ग़म को जाँ की तलाश थी तिरे जाँ-निसार चले गए तिरी रह में करते थे सर तलब सर-ए-रहगुज़ार चले गए तिरी कज-अदाई से हार के शब-ए-इंतिज़ार चली गई मिरे ज़ब्त-ए-हाल से रूठ कर मिरे ग़म-गुसार चले गए न सवाल-ए-वस्ल न अर्ज़-ए-ग़म न हिकायतें न शिकायतें तिरे अहद में दिल-ए-ज़ार के सभी इख़्तियार चले गए ये हमीं थे जिन के लिबास पर सर-ए-रह सियाही लिखी गई यही दाग़ थे जो सजा के हम सर-ए-बज़्म-ए-यार चले गए न रहा जुनून-ए-रुख़-ए-वफ़ा ये रसन ये दार करोगे क्या जिन्हें जुर्म-ए-इश्क़ पे नाज़ था वो गुनाहगार चले गए " chashm-e-maiguun-zaraa-idhar-kar-de-faiz-ahmad-faiz-ghazals," चश्म-ए-मयगूँ ज़रा इधर कर दे दस्त-ए-क़ुदरत को बे-असर कर दे तेज़ है आज दर्द-ए-दिल साक़ी तल्ख़ी-ए-मय को तेज़-तर कर दे जोश-ए-वहशत है तिश्ना-काम अभी चाक-ए-दामन को ता जिगर कर दे मेरी क़िस्मत से खेलने वाले मुझ को क़िस्मत से बे-ख़बर कर दे लुट रही है मिरी मता-ए-नियाज़ काश वो इस तरफ़ नज़र कर दे 'फ़ैज़' तकमील-ए-आरज़ू मालूम हो सके तो यूँही बसर कर दे " tumhaarii-yaad-ke-jab-zakhm-bharne-lagte-hain-faiz-ahmad-faiz-ghazals," तुम्हारी याद के जब ज़ख़्म भरने लगते हैं किसी बहाने तुम्हें याद करने लगते हैं हदीस-ए-यार के उनवाँ निखरने लगते हैं तो हर हरीम में गेसू सँवरने लगते हैं हर अजनबी हमें महरम दिखाई देता है जो अब भी तेरी गली से गुज़रने लगते हैं सबा से करते हैं ग़ुर्बत-नसीब ज़िक्र-ए-वतन तो चश्म-ए-सुब्ह में आँसू उभरने लगते हैं वो जब भी करते हैं इस नुत्क़ ओ लब की बख़िया-गरी फ़ज़ा में और भी नग़्मे बिखरने लगते हैं दर-ए-क़फ़स पे अँधेरे की मोहर लगती है तो 'फ़ैज़' दिल में सितारे उतरने लगते हैं " kuchh-mohtasibon-kii-khalvat-men-kuchh-vaaiz-ke-ghar-jaatii-hai-faiz-ahmad-faiz-ghazals," कुछ मोहतसिबों की ख़ल्वत में कुछ वाइ'ज़ के घर जाती है हम बादा-कशों के हिस्से की अब जाम में कम-तर जाती है यूँ अर्ज़-ओ-तलब से कम ऐ दिल पत्थर दिल पानी होते हैं तुम लाख रज़ा की ख़ू डालो कब ख़ू-ए-सितमगर जाती है बेदाद-गरों की बस्ती है याँ दाद कहाँ ख़ैरात कहाँ सर फोड़ती फिरती है नादाँ फ़रियाद जो दर दर जाती है हाँ जाँ के ज़ियाँ की हम को भी तशवीश है लेकिन क्या कीजे हर रह जो उधर को जाती है मक़्तल से गुज़र कर जाती है अब कूचा-ए-दिल-बर का रह-रौ रहज़न भी बने तो बात बने पहरे से अदू टलते ही नहीं और रात बराबर जाती है हम अहल-ए-क़फ़स तन्हा भी नहीं हर रोज़ नसीम-ए-सुब्ह-ए-वतन यादों से मोअत्तर आती है अश्कों से मुनव्वर जाती है " shaikh-saahab-se-rasm-o-raah-na-kii-faiz-ahmad-faiz-ghazals," शैख़ साहब से रस्म-ओ-राह न की शुक्र है ज़िंदगी तबाह न की तुझ को देखा तो सेर-चश्म हुए तुझ को चाहा तो और चाह न की तेरे दस्त-ए-सितम का इज्ज़ नहीं दिल ही काफ़िर था जिस ने आह न की थे शब-ए-हिज्र काम और बहुत हम ने फ़िक्र-ए-दिल-ए-तबाह न की कौन क़ातिल बचा है शहर में 'फ़ैज़' जिस से यारों ने रस्म-ओ-राह न की " ye-kis-khalish-ne-phir-is-dil-men-aashiyaana-kiyaa-faiz-ahmad-faiz-ghazals," ये किस ख़लिश ने फिर इस दिल में आशियाना किया फिर आज किस ने सुख़न हम से ग़ाएबाना किया ग़म-ए-जहाँ हो रुख़-ए-यार हो कि दस्त-ए-अदू सुलूक जिस से किया हम ने आशिक़ाना किया थे ख़ाक-ए-राह भी हम लोग क़हर-ए-तूफ़ाँ भी सहा तो क्या न सहा और किया तो क्या न किया ख़ुशा कि आज हर इक मुद्दई के लब पर है वो राज़ जिस ने हमें राँदा-ए-ज़माना किया वो हीला-गर जो वफ़ा-जू भी है जफ़ा-ख़ू भी किया भी 'फ़ैज़' तो किस बुत से दोस्ताना किया " ham-musaafir-yuunhii-masruuf-e-safar-jaaenge-faiz-ahmad-faiz-ghazals," हम मुसाफ़िर यूँही मसरूफ़-ए-सफ़र जाएँगे बे-निशाँ हो गए जब शहर तो घर जाएँगे किस क़दर होगा यहाँ मेहर-ओ-वफ़ा का मातम हम तिरी याद से जिस रोज़ उतर जाएँगे जौहरी बंद किए जाते हैं बाज़ार-ए-सुख़न हम किसे बेचने अलमास-ओ-गुहर जाएँगे नेमत-ए-ज़ीस्त का ये क़र्ज़ चुकेगा कैसे लाख घबरा के ये कहते रहें मर जाएँगे शायद अपना भी कोई बैत हुदी-ख़्वाँ बन कर साथ जाएगा मिरे यार जिधर जाएँगे 'फ़ैज़' आते हैं रह-ए-इश्क़ में जो सख़्त मक़ाम आने वालों से कहो हम तो गुज़र जाएँगे " raaz-e-ulfat-chhupaa-ke-dekh-liyaa-faiz-ahmad-faiz-ghazals," राज़-ए-उल्फ़त छुपा के देख लिया दिल बहुत कुछ जला के देख लिया और क्या देखने को बाक़ी है आप से दिल लगा के देख लिया वो मिरे हो के भी मिरे न हुए उन को अपना बना के देख लिया आज उन की नज़र में कुछ हम ने सब की नज़रें बचा के देख लिया 'फ़ैज़' तकमील-ए-ग़म भी हो न सकी इश्क़ को आज़मा के देख लिया " ab-vahii-harf-e-junuun-sab-kii-zabaan-thahrii-hai-faiz-ahmad-faiz-ghazals," अब वही हर्फ़-ए-जुनूँ सब की ज़बाँ ठहरी है जो भी चल निकली है वो बात कहाँ ठहरी है आज तक शैख़ के इकराम में जो शय थी हराम अब वही दुश्मन-ए-दीं राहत-ए-जाँ ठहरी है है ख़बर गर्म कि फिरता है गुरेज़ाँ नासेह गुफ़्तुगू आज सर-ए-कू-ए-बुताँ ठहरी है है वही आरिज़-ए-लैला वही शीरीं का दहन निगह-ए-शौक़ घड़ी भर को जहाँ ठहरी है वस्ल की शब थी तो किस दर्जा सुबुक गुज़री थी हिज्र की शब है तो क्या सख़्त गिराँ ठहरी है बिखरी इक बार तो हाथ आई है कब मौज-ए-शमीम दिल से निकली है तो कब लब पे फ़ुग़ाँ ठहरी है दस्त-ए-सय्याद भी आजिज़ है कफ़-ए-गुल-चीं भी बू-ए-गुल ठहरी न बुलबुल की ज़बाँ ठहरी है आते आते यूँही दम भर को रुकी होगी बहार जाते जाते यूँही पल भर को ख़िज़ाँ ठहरी है हम ने जो तर्ज़-ए-फ़ुग़ाँ की है क़फ़स में ईजाद 'फ़ैज़' गुलशन में वही तर्ज़-ए-बयाँ ठहरी है " aap-kii-yaad-aatii-rahii-raat-bhar-faiz-ahmad-faiz-ghazals," ''आप की याद आती रही रात भर'' चाँदनी दिल दुखाती रही रात भर गाह जलती हुई गाह बुझती हुई शम-ए-ग़म झिलमिलाती रही रात भर कोई ख़ुशबू बदलती रही पैरहन कोई तस्वीर गाती रही रात भर फिर सबा साया-ए-शाख़-ए-गुल के तले कोई क़िस्सा सुनाती रही रात भर जो न आया उसे कोई ज़ंजीर-ए-दर हर सदा पर बुलाती रही रात भर एक उम्मीद से दिल बहलता रहा इक तमन्ना सताती रही रात भर " donon-jahaan-terii-mohabbat-men-haar-ke-faiz-ahmad-faiz-ghazals," दोनों जहान तेरी मोहब्बत में हार के वो जा रहा है कोई शब-ए-ग़म गुज़ार के वीराँ है मय-कदा ख़ुम-ओ-साग़र उदास हैं तुम क्या गए कि रूठ गए दिन बहार के इक फ़ुर्सत-ए-गुनाह मिली वो भी चार दिन देखे हैं हम ने हौसले पर्वरदिगार के दुनिया ने तेरी याद से बेगाना कर दिया तुझ से भी दिल-फ़रेब हैं ग़म रोज़गार के भूले से मुस्कुरा तो दिए थे वो आज 'फ़ैज़' मत पूछ वलवले दिल-ए-ना-कर्दा-कार के " ab-vo-ye-kah-rahe-hain-mirii-maan-jaaiye-dagh-dehlvi-ghazals," अब वो ये कह रहे हैं मिरी मान जाइए अल्लाह तेरी शान के क़ुर्बान जाइए बिगड़े हुए मिज़ाज को पहचान जाइए सीधी तरह न मानिएगा मान जाइए किस का है ख़ौफ़ रोकने वाला ही कौन है हर रोज़ क्यूँ न जाइए मेहमान जाइए महफ़िल में किस ने आप को दिल में छुपा लिया इतनों में कौन चोर है पहचान जाइए हैं तेवरी में बल तो निगाहें फिरी हुई जाते हैं ऐसे आने से औसान जाइए दो मुश्किलें हैं एक जताने में शौक़ के पहले तो जान जाइए फिर मान जाइए इंसान को है ख़ाना-ए-हस्ती में लुत्फ़ क्या मेहमान आइए तो पशेमान जाइए गो वादा-ए-विसाल हो झूटा मज़ा तो है क्यूँ कर न ऐसे झूट के क़ुर्बान जाइए रह जाए बा'द-ए-वस्ल भी चेटक लगी हुई कुछ रखिए कुछ निकाल के अरमान जाइए अच्छी कही कि ग़ैर के घर तक ज़रा चलो मैं आप का नहीं हूँ निगहबान जाइए आए हैं आप ग़ैर के घर से खड़े खड़े ये और को जताइए एहसान, जाइए दोनों से इम्तिहान-ए-वफ़ा पर ये कह दिया मनवाइए रक़ीब को या मान जाइए क्या बद-गुमानियाँ हैं उन्हें मुझ को हुक्म है घर में ख़ुदा के भी तो न मेहमान जाइए क्या फ़र्ज़ है कि सब मिरी बातें क़ुबूल हैं सुन सुन के कुछ न मानिए कुछ मान जाइए सौदाइयान-ए-ज़ुल्फ़ में कुछ तो लटक भी हो जन्नत में जाइए तो परेशान जाइए दिल को जो देख लो तो यही प्यार से कहो क़ुर्बान जाइए तिरे क़ुर्बान जाइए दिल को जो देख लो तो यही प्यार से कहो क़ुर्बान जाइए तिरे क़ुर्बान जाइए जाने न दूँगा आप को बे-फ़ैसला हुए दिल के मुक़द्दमे को अभी छान जाइए ये तो बजा कि आप को दुनिया से क्या ग़रज़ जाती है जिस की जान उसे जान जाइए ग़ुस्से में हाथ से ये निशानी न गिर पड़े दामन में ले के मेरा गरेबान जाइए ये मुख़्तसर जवाब मिला अर्ज़-ए-वस्ल पर दिल मानता नहीं कि तिरी मान जाइए वो आज़मूदा-कार तो है गर वली नहीं जो कुछ बताए 'दाग़' उसे मान जाइए " milaate-ho-usii-ko-khaak-men-jo-dil-se-miltaa-hai-dagh-dehlvi-ghazals," मिलाते हो उसी को ख़ाक में जो दिल से मिलता है मिरी जाँ चाहने वाला बड़ी मुश्किल से मिलता है कहीं है ईद की शादी कहीं मातम है मक़्तल में कोई क़ातिल से मिलता है कोई बिस्मिल से मिलता है पस-ए-पर्दा भी लैला हाथ रख लेती है आँखों पर ग़ुबार-ए-ना-तवान-ए-क़ैस जब महमिल से मिलता है भरे हैं तुझ में वो लाखों हुनर ऐ मजमा-ए-ख़ूबी मुलाक़ाती तिरा गोया भरी महफ़िल से मिलता है मुझे आता है क्या क्या रश्क वक़्त-ए-ज़ब्ह उस से भी गला जिस दम लिपट कर ख़ंजर-ए-क़ातिल से मिलता है ब-ज़ाहिर बा-अदब यूँ हज़रत-ए-नासेह से मिलता हूँ मुरीद-ए-ख़ास जैसे मुर्शिद-ए-कामिल से मिलता है मिसाल-ए-गंज-ए-क़ारूँ अहल-ए-हाजत से नहीं छुपता जो होता है सख़ी ख़ुद ढूँड कर साइल से मिलता है जवाब इस बात का उस शोख़ को क्या दे सके कोई जो दिल ले कर कहे कम-बख़्त तू किस दिल से मिलता है छुपाए से कोई छुपती है अपने दिल की बेताबी कि हर तार-ए-नफ़स अपना रग-ए-बिस्मिल से मिलता है अदम की जो हक़ीक़त है वो पूछो अहल-ए-हस्ती से मुसाफ़िर को तो मंज़िल का पता मंज़िल से मिलता है ग़ज़ब है 'दाग़' के दिल से तुम्हारा दिल नहीं मिलता तुम्हारा चाँद सा चेहरा मह-ए-कामिल से मिलता है " saaf-kab-imtihaan-lete-hain-dagh-dehlvi-ghazals," साफ़ कब इम्तिहान लेते हैं वो तो दम दे के जान लेते हैं यूँ है मंज़ूर ख़ाना-वीरानी मोल मेरा मकान लेते हैं तुम तग़ाफ़ुल करो रक़ीबों से जानने वाले जान लेते हैं फिर न आना अगर कोई भेजे नामा-बर से ज़बान लेते हैं अब भी गिर पड़ के ज़ोफ़ से नाले सातवाँ आसमान लेते हैं तेरे ख़ंजर से भी तो ऐ क़ातिल नोक की नौ-जवान लेते हैं अपने बिस्मिल का सर है ज़ानू पर किस मोहब्बत से जान लेते हैं ये सुना है मिरे लिए तलवार इक मिरे मेहरबान लेते हैं ये न कह हम से तेरे मुँह में ख़ाक इस में तेरी ज़बान लेते हैं कौन जाता है उस गली में जिसे दूर से पासबान लेते हैं मंज़िल-ए-शौक़ तय नहीं होती ठेकियाँ ना-तवान लेते हैं कर गुज़रते हैं हो बुरी कि भली दिल में जो कुछ वो ठान लेते हैं वो झगड़ते हैं जब रक़ीबों से बीच में मुझ को सान लेते हैं ज़िद हर इक बात पर नहीं अच्छी दोस्त की दोस्त मान लेते हैं मुस्तइद हो के ये कहो तो सही आइए इम्तिहान लेते हैं 'दाग़' भी है अजीब सेहर-बयाँ बात जिस की वो मान लेते हैं " aarzuu-hai-vafaa-kare-koii-dagh-dehlvi-ghazals," आरज़ू है वफ़ा करे कोई जी न चाहे तो क्या करे कोई गर मरज़ हो दवा करे कोई मरने वाले का क्या करे कोई कोसते हैं जले हुए क्या क्या अपने हक़ में दुआ करे कोई उन से सब अपनी अपनी कहते हैं मेरा मतलब अदा करे कोई चाह से आप को तो नफ़रत है मुझ को चाहे ख़ुदा करे कोई उस गिले को गिला नहीं कहते गर मज़े का गिला करे कोई ये मिली दाद रंज-ए-फ़ुर्क़त की और दिल का कहा करे कोई तुम सरापा हो सूरत-ए-तस्वीर तुम से फिर बात क्या करे कोई कहते हैं हम नहीं ख़ुदा-ए-करीम क्यूँ हमारी ख़ता करे कोई जिस में लाखों बरस की हूरें हों ऐसी जन्नत को क्या करे कोई इस जफ़ा पर तुम्हें तमन्ना है कि मिरी इल्तिजा करे कोई मुँह लगाते ही 'दाग़' इतराया लुत्फ़ है फिर जफ़ा करे कोई " tamaashaa-e-dair-o-haram-dekhte-hain-dagh-dehlvi-ghazals," तमाशा-ए-दैर-ओ-हरम देखते हैं तुझे हर बहाने से हम देखते हैं हमारी तरफ़ अब वो कम देखते हैं वो नज़रें नहीं जिन को हम देखते हैं ज़माने के क्या क्या सितम देखते हैं हमीं जानते हैं जो हम देखते हैं फिरे बुत-कदे से तो ऐ अहल-ए-काबा फिर आ कर तुम्हारे क़दम देखते हैं हमें चश्म-ए-बीना दिखाती है सब कुछ वो अंधे हैं जो जाम-ए-जम देखते हैं न ईमा-ए-ख़्वाहिश न इज़हार-ए-मतलब मिरे मुँह को अहल-ए-करम देखते हैं कभी तोड़ते हैं वो ख़ंजर को अपने कभी नब्ज़-ए-बिस्मिल में दम देखते हैं ग़नीमत है चश्म-ए-तग़ाफ़ुल भी उन की बहुत देखते हैं जो कम देखते हैं ग़रज़ क्या कि समझें मिरे ख़त का मज़मूँ वो उनवान ओ तर्ज़-ए-रक़म देखते हैं सलामत रहे दिल बुरा है कि अच्छा हज़ारों में ये एक दम देखते हैं रहा कौन महफ़िल में अब आने वाला वो चारों तरफ़ दम-ब-दम देखते हैं उधर शर्म हाइल इधर ख़ौफ़ माने न वो देखते हैं न हम देखते हैं उन्हें क्यूँ न हो दिलरुबाई से नफ़रत कि हर दिल में वो ग़म अलम देखते हैं निगहबाँ से भी क्या हुई बद-गुमानी अब उस को तिरे साथ कम देखते हैं हमें 'दाग़' क्या कम है ये सरफ़राज़ी कि शाह-ए-दकन के क़दम देखते हैं " khaatir-se-yaa-lihaaz-se-main-maan-to-gayaa-dagh-dehlvi-ghazals," ख़ातिर से या लिहाज़ से मैं मान तो गया झूटी क़सम से आप का ईमान तो गया दिल ले के मुफ़्त कहते हैं कुछ काम का नहीं उल्टी शिकायतें हुईं एहसान तो गया डरता हूँ देख कर दिल-ए-बे-आरज़ू को मैं सुनसान घर ये क्यूँ न हो मेहमान तो गया क्या आए राहत आई जो कुंज-ए-मज़ार में वो वलवला वो शौक़ वो अरमान तो गया देखा है बुत-कदे में जो ऐ शैख़ कुछ न पूछ ईमान की तो ये है कि ईमान तो गया इफ़्शा-ए-राज़-ए-इश्क़ में गो ज़िल्लतें हुईं लेकिन उसे जता तो दिया जान तो गया गो नामा-बर से ख़ुश न हुआ पर हज़ार शुक्र मुझ को वो मेरे नाम से पहचान तो गया बज़्म-ए-अदू में सूरत-ए-परवाना दिल मिरा गो रश्क से जला तिरे क़ुर्बान तो गया होश ओ हवास ओ ताब ओ तवाँ 'दाग़' जा चुके अब हम भी जाने वाले हैं सामान तो गया " abhii-hamaarii-mohabbat-kisii-ko-kyaa-maaluum-dagh-dehlvi-ghazals," अभी हमारी मोहब्बत किसी को क्या मालूम किसी के दिल की हक़ीक़त किसी को क्या मालूम यक़ीं तो ये है वो ख़त का जवाब लिक्खेंगे मगर नविश्ता-ए-क़िस्मत किसी को क्या मालूम ब-ज़ाहिर उन को हया-दार लोग समझे हैं हया में जो है शरारत किसी को क्या मालूम क़दम क़दम पे तुम्हारे हमारे दिल की तरह बसी हुई है क़यामत किसी को क्या मालूम ये रंज ओ ऐश हुए हिज्र ओ वस्ल में हम को कहाँ है दोज़ख़ ओ जन्नत किसी को क्या मालूम जो सख़्त बात सुने दिल तो टूट जाता है इस आईने की नज़ाकत किसी को क्या मालूम किया करें वो सुनाने को प्यार की बातें उन्हें है मुझ से अदावत किसी को क्या मालूम ख़ुदा करे न फँसे दाम-ए-इश्क़ में कोई उठाई है जो मुसीबत किसी को क्या मालूम अभी तो फ़ित्ने ही बरपा किए हैं आलम में उठाएँगे वो क़यामत किसी को क्या मालूम जनाब-ए-'दाग़' के मशरब को हम से तो पूछो छुपे हुए हैं ये हज़रत किसी को क्या मालूम " uzr-aane-men-bhii-hai-aur-bulaate-bhii-nahiin-dagh-dehlvi-ghazals-3," उज़्र आने में भी है और बुलाते भी नहीं बाइस-ए-तर्क-ए-मुलाक़ात बताते भी नहीं मुंतज़िर हैं दम-ए-रुख़्सत कि ये मर जाए तो जाएँ फिर ये एहसान कि हम छोड़ के जाते भी नहीं सर उठाओ तो सही आँख मिलाओ तो सही नश्शा-ए-मय भी नहीं नींद के माते भी नहीं क्या कहा फिर तो कहो हम नहीं सुनते तेरी नहीं सुनते तो हम ऐसों को सुनाते भी नहीं ख़ूब पर्दा है कि चिलमन से लगे बैठे हैं साफ़ छुपते भी नहीं सामने आते भी नहीं मुझ से लाग़र तिरी आँखों में खटकते तो रहे तुझ से नाज़ुक मिरी नज़रों में समाते भी नहीं देखते ही मुझे महफ़िल में ये इरशाद हुआ कौन बैठा है उसे लोग उठाते भी नहीं हो चुका क़त्अ तअ'ल्लुक़ तो जफ़ाएँ क्यूँ हों जिन को मतलब नहीं रहता वो सताते भी नहीं ज़ीस्त से तंग हो ऐ 'दाग़' तो जीते क्यूँ हो जान प्यारी भी नहीं जान से जाते भी नहीं " gam-se-kahiin-najaat-mile-chain-paaen-ham-dagh-dehlvi-ghazals," ग़म से कहीं नजात मिले चैन पाएँ हम दिल ख़ून में नहाए तो गंगा नहाएँ हम जन्नत में जाएँ हम कि जहन्नम में जाएँ हम मिल जाए तो कहीं न कहीं तुझ को पाएँ हम जौफ़-ए-फ़लक में ख़ाक भी लज़्ज़त नहीं रही जी चाहता है तेरी जफ़ाएँ उठाएँ हम डर है न भूल जाए वो सफ़्फ़ाक रोज़-ए-हश्र दुनिया में लिखते जाते हैं अपनी ख़ताएँ हम मुमकिन है ये कि वादे पर अपने वो आ भी जाए मुश्किल ये है कि आप में उस वक़्त आएँ हम नाराज़ हो ख़ुदा तो करें बंदगी से ख़ुश माशूक़ रूठ जाए तो क्यूँकर मनाएँ हम सर दोस्तों का काट के रखते हैं सामने ग़ैरों से पूछते हैं क़सम किस की खाएँ हम कितना तिरा मिज़ाज ख़ुशामद-पसंद है कब तक करें ख़ुदा के लिए इल्तिजाएँ हम लालच अबस है दिल का तुम्हें वक़्त-ए-वापसीं ये माल वो नहीं कि जिसे छोड़ जाएँ हम सौंपा तुम्हें ख़ुदा को चले हम तो ना-मुराद कुछ पढ़ के बख़्शना जो कभी याद आएँ हम सोज़-ए-दरूँ से अपने शरर बन गए हैं अश्क क्यूँ आह-ए-सर्द को न पतिंगे लगाएँ हम ये जान तुम न लोगे अगर आप जाएगी उस बेवफ़ा की ख़ैर कहाँ तक मनाएँ हम हम-साए जागते रहे नालों से रात भर सोए हुए नसीब को क्यूँकर जगाएँ हम जल्वा दिखा रहा है वो आईना-ए-जमाल आती है हम को शर्म कि क्या मुँह दिखाएँ हम मानो कहा जफ़ा न करो तुम वफ़ा के बा'द ऐसा न हो कि फेर लें उल्टी दुआएँ हम दुश्मन से मिलते जुलते हैं ख़ातिर से दोस्ती क्या फ़ाएदा जो दोस्त को दुश्मन बनाएँ हम तू भूलने की चीज़ नहीं ख़ूब याद रख ऐ 'दाग़' किस तरह तुझे दिल से भुलाएँ हम " jalve-mirii-nigaah-men-kaun-o-makaan-ke-hain-dagh-dehlvi-ghazals," जल्वे मिरी निगाह में कौन-ओ-मकाँ के हैं मुझ से कहाँ छुपेंगे वो ऐसे कहाँ के हैं खुलते नहीं हैं राज़ जो सोज़-ए-निहाँ के हैं क्या फूटने के वास्ते छाले ज़बाँ के हैं करते हैं क़त्ल वो तलब-ए-मग़फ़िरत के बाद जो थे दुआ के हाथ वही इम्तिहाँ के हैं जिस रोज़ कुछ शरीक हुई मेरी मुश्त-ए-ख़ाक उस रोज़ से ज़मीं पे सितम आसमाँ के हैं बाज़ू दिखाए तुम ने लगा कर हज़ार हाथ पूरे पड़े तो वो भी बहुत इम्तिहाँ के हैं नासेह के सामने कभी सच बोलता नहीं मेरी ज़बाँ में रंग तुम्हारी ज़बाँ के हैं कैसा जवाब हज़रत-ए-दिल देखिए ज़रा पैग़ाम-बर के हाथ में टुकड़े ज़बाँ के हैं क्या इज़्तिराब-ए-शौक़ ने मुझ को ख़जिल किया वो पूछते हैं कहिए इरादे कहाँ के हैं आशिक़ तिरे अदम को गए किस क़दर तबाह पूछा हर एक ने ये मुसाफ़िर कहाँ के हैं हर-चंद 'दाग़' एक ही अय्यार है मगर दुश्मन भी तो छटे हुए सारे जहाँ के हैं " dil-e-naakaam-ke-hain-kaam-kharaab-dagh-dehlvi-ghazals," दिल-ए-नाकाम के हैं काम ख़राब कर लिया आशिक़ी में नाम ख़राब इस ख़राबात का यही है मज़ा कि रहे आदमी मुदाम ख़राब देख कर जिंस-ए-दिल वो कहते हैं क्यूँ करे कोई अपने दाम ख़राब अब्र-ए-तर से सबा ही अच्छी थी मेरी मिट्टी हुई तमाम ख़राब वो भी साक़ी मुझे नहीं देता वो जो टूटा पड़ा है जाम ख़राब क्या मिला हम को ज़िंदगी के सिवा वो भी दुश्वार ना-तमाम ख़राब वाह क्या मुँह से फूल झड़ते हैं ख़ूब-रू हो के ये कलाम ख़राब चाल की रहनुमा-ए-इश्क़ ने भी वो दिखाया जो था मक़ाम ख़राब 'दाग़' है बद-चलन तो होने दो सौ में होता है इक ग़ुलाम ख़राब " terii-suurat-ko-dekhtaa-huun-main-dagh-dehlvi-ghazals," तेरी सूरत को देखता हूँ मैं उस की क़ुदरत को देखता हूँ मैं जब हुई सुब्ह आ गए नासेह उन्हीं हज़रत को देखता हूँ मैं वो मुसीबत सुनी नहीं जाती जिस मुसीबत को देखता हूँ मैं देखने आए हैं जो मेरी नब्ज़ उन की सूरत को देखता हूँ मैं मौत मुझ को दिखाई देती है जब तबीअत को देखता हूँ मैं शब-ए-फ़ुर्क़त उठा उठा कर सर सुब्ह-ए-इशरत को देखता हूँ मैं दूर बैठा हुआ सर-ए-महफ़िल रंग-ए-सोहबत को देखता हूँ मैं हर मुसीबत है बे-मज़ा शब-ए-ग़म आफ़त आफ़त को देखता हूँ मैं न मोहब्बत को जानते हो तुम न मुरव्वत को देखता हूँ मैं कोई दुश्मन को यूँ न देखेगा जैसे क़िस्मत को देखता हूँ मैं हश्र में 'दाग़' कोई दोस्त नहीं सारी ख़िल्क़त को देखता हूँ मैं " idhar-dekh-lenaa-udhar-dekh-lenaa-dagh-dehlvi-ghazals-2," इधर देख लेना उधर देख लेना कन-अँखियों से उस को मगर देख लेना फ़क़त नब्ज़ से हाल ज़ाहिर न होगा मिरा दिल भी ऐ चारागर देख लेना कभी ज़िक्र-ए-दीदार आया तो बोले क़यामत से भी पेश-तर देख लेना न देना ख़त-ए-शौक़ घबरा के पहले महल मौक़ा ऐ नामा-बर देख लेना कहीं ऐसे बिगड़े सँवरते भी देखे न आएँगे वो राह पर देख लेना तग़ाफ़ुल में शोख़ी निराली अदा थी ग़ज़ब था वो मुँह फेर कर देख लेना शब-ए-वा'दा अपना यही मश्ग़ला था उठा कर नज़र सू-ए-दर देख लेना बुलाया जो ग़ैरों को दावत में तुम ने मुझे पेश-तर अपने घर देख लेना मोहब्बत के बाज़ार में और क्या है कोई दिल दिखाए अगर देख लेना मिरे सामने ग़ैर से भी इशारे इधर भी उधर देख कर देख लेना न हो नाज़ुक इतना भी मश्शाता कोई दहन देख लेना कमर देख लेना नहीं रखने देते जहाँ पाँव हम को उसी आस्ताने पे सर देख लेना तमाशा-ए-आलम की फ़ुर्सत है किस को ग़नीमत है बस इक नज़र देख लेना दिए जाते हैं आज कुछ लिख के तुम को उसे वक़्त-ए-फ़ुर्सत मगर देख लेना हमीं जान देंगे हमीं मर मिटेंगे हमें तुम किसी वक़्त पर देख लेना जलाया तो है 'दाग़' के दिल को तुम ने मगर इस का होगा असर देख लेना " maze-ishq-ke-kuchh-vahii-jaante-hain-dagh-dehlvi-ghazals," मज़े इश्क़ के कुछ वही जानते हैं कि जो मौत को ज़िंदगी जानते हैं शब-ए-वस्ल लीं उन की इतनी बलाएँ कि हमदम मिरे हाथ ही जानते हैं न हो दिल तो क्या लुत्फ़-ए-आज़ार-ओ-राहत बराबर ख़ुशी ना-ख़ुशी जानते हैं जो है मेरे दिल में उन्हीं को ख़बर है जो मैं जानता हूँ वही जानते हैं पड़ा हूँ सर-ए-बज़्म मैं दम चुराए मगर वो इसे बे-ख़ुदी जानते हैं कहाँ क़द्र-ए-हम-जिंस हम-जिंस को है फ़रिश्तों को भी आदमी जानते हैं कहूँ हाल-ए-दिल तो कहें उस से हासिल सभी को ख़बर है सभी जानते हैं वो नादान अंजान भोले हैं ऐसे कि सब शेवा-ए-दुश्मनी जानते हैं नहीं जानते इस का अंजाम क्या है वो मरना मेरा दिल-लगी जानते हैं समझता है तू 'दाग़' को रिंद ज़ाहिद मगर रिंद उस को वली जानते हैं " aap-kaa-e-tibaar-kaun-kare-dagh-dehlvi-ghazals," आप का ए'तिबार कौन करे रोज़ का इंतिज़ार कौन करे ज़िक्र-ए-मेहर-ओ-वफ़ा तो हम करते पर तुम्हें शर्मसार कौन करे हो जो उस चश्म-ए-मस्त से बे-ख़ुद फिर उसे होशियार कौन करे तुम तो हो जान इक ज़माने की जान तुम पर निसार कौन करे आफ़त-ए-रोज़गार जब तुम हो शिकवा-ए-रोज़गार कौन करे अपनी तस्बीह रहने दे ज़ाहिद दाना दाना शुमार कौन करे हिज्र में ज़हर खा के मर जाऊँ मौत का इंतिज़ार कौन करे आँख है तर्क-ए-ज़ुल्फ़ है सय्याद देखें दिल का शिकार कौन करे वा'दा करते नहीं ये कहते हैं तुझ को उम्मीद-वार कौन करे 'दाग़' की शक्ल देख कर बोले ऐसी सूरत को प्यार कौन करे " tum-aaiina-hii-na-har-baar-dekhte-jaao-dagh-dehlvi-ghazals," तुम आईना ही न हर बार देखते जाओ मिरी तरफ़ भी तो सरकार देखते जाओ न जाओ हाल-ए-दिल-ए-ज़ार देखते जाओ कि जी न चाहे तो नाचार देखते जाओ बहार-ए-उम्र में बाग़-ए-जहाँ की सैर करो खिला हुआ है ये गुलज़ार देखते जाओ यही तो चश्म-ए-हक़ीक़त निगर का सुर्मा है निज़ा-ए-काफ़िर-ओ-दीं-दार देखते जाओ उठाओ आँख न शरमाओ ये तो महफ़िल है ग़ज़ब से जानिब-ए-अग़्यार देखते जाओ नहीं है जिंस-ए-वफ़ा की तुम्हें जो क़द्र न हो बनेंगे कितने ख़रीदार देखते जाओ तुम्हें ग़रज़ जो करो रहम पाएमालों पर तुम अपनी शोख़ी-ए-रफ़्तार देखते जाओ क़सम भी खाई थी क़ुरआन भी उठाया था फिर आज है वही इंकार देखते जाओ ये शामत आई कि उस की गली में दिल ने कहा खुला है रौज़न-ए-दीवार देखते जाओ हुआ है क्या अभी हंगामा और कुछ होगा फ़ुग़ाँ में हश्र के आसार देखते जाओ शब-ए-विसाल अदू की यही निशानी है निशाँ-ए-बोसा-ए-रुख़्सार देखते जाओ तुम्हारी आँख मिरे दिल से ले सबब बे-वज्ह हुई है लड़ने को तय्यार देखते जाओ इधर को आ ही गए अब तो हज़रत-ए-ज़ाहिद यहीं है ख़ाना-ए-ख़ु़म्मार देखते जाओ रक़ीब बरसर-ए-परख़ाश हम से होता है बढ़ेगी मुफ़्त में तकरार देखते जाओ नहीं हैं जुर्म-ए-मोहब्बत में सब के सब मुल्ज़िम ख़ता मुआ'फ़ ख़ता-वार देखते जाओ दिखा रही है तमाशा फ़लक की नैरंगी नया है शो'बदा हर बार देखते जाओ बना दिया मिरी चाहत ने ग़ैरत-ए-यूसुफ़ तुम अपनी गर्मी-ए-बाज़ार देखते जाओ न जाओ बंद किए आँख रह-रवान-ए-अदम इधर उधर भी ख़बर-दार देखते जाओ सुनी-सुनाई पे हरगिज़ कभी अमल न करो हमारे हाल के अख़बार देखते जाओ कोई न कोई हर इक शेर में है बात ज़रूर जनाब-ए-'दाग़' के अशआ'र देखते जाओ " phire-raah-se-vo-yahaan-aate-aate-dagh-dehlvi-ghazals," फिरे राह से वो यहाँ आते आते अजल मर रही तू कहाँ आते आते न जाना कि दुनिया से जाता है कोई बहुत देर की मेहरबाँ आते आते सुना है कि आता है सर नामा-बर का कहाँ रह गया अरमुग़ाँ आते आते यक़ीं है कि हो जाए आख़िर को सच्ची मिरे मुँह में तेरी ज़बाँ आते आते सुनाने के क़ाबिल जो थी बात उन को वही रह गई दरमियाँ आते आते मुझे याद करने से ये मुद्दआ था निकल जाए दम हिचकियाँ आते आते अभी सिन ही क्या है जो बेबाकियाँ हों उन्हें आएँगी शोख़ियाँ आते आते कलेजा मिरे मुँह को आएगा इक दिन यूँही लब पर आह-ओ-फ़ुग़ाँ आते आते चले आते हैं दिल में अरमान लाखों मकाँ भर गया मेहमाँ आते आते नतीजा न निकला थके सब पयामी वहाँ जाते जाते यहाँ आते आते तुम्हारा ही मुश्ताक़-ए-दीदार होगा गया जान से इक जवाँ आते आते तिरी आँख फिरते ही कैसा फिरा है मिरी राह पर आसमाँ आते आते पड़ा है बड़ा पेच फिर दिल-लगी में तबीअत रुकी है जहाँ आते आते मिरे आशियाँ के तो थे चार तिनके चमन उड़ गया आँधियाँ आते आते किसी ने कुछ उन को उभारा तो होता न आते न आते यहाँ आते आते क़यामत भी आती थी हमराह उस के मगर रह गई हम-इनाँ आते आते बना है हमेशा ये दिल बाग़ ओ सहरा बहार आते आते ख़िज़ाँ आते आते नहीं खेल ऐ 'दाग़' यारों से कह दो कि आती है उर्दू ज़बाँ आते आते " baaqii-jahaan-men-qais-na-farhaad-rah-gayaa-dagh-dehlvi-ghazals," बाक़ी जहाँ में क़ैस न फ़रहाद रह गया अफ़्साना आशिक़ों का फ़क़त याद रह गया ये सख़्त-जाँ तो क़त्ल से नाशाद रह गया ख़ंजर चला तो बाज़ू-ए-जल्लाद रह गया पाबंदियों ने इश्क़ की बेकस रखा मुझे मैं सौ असीरियों में भी आज़ाद रह गया चश्म-ए-सनम ने यूँ तो बिगाड़े हज़ार घर इक काबा चंद रोज़ को आबाद रह गया महशर में जा-ए-शिकवा किया शुक्र यार का जो भूलना था मुझ को वही याद रह गया उन की तो बन पड़ी कि लगी जान मुफ़्त हाथ तेरी गिरह में क्या दिल-ए-नाशाद रह गया पुर-नूर हो रहेगा ये ज़ुल्मत-कदा अगर दिल में बुतों का शौक़-ए-ख़ुदा-दाद रह गया यूँ आँख उन की कर के इशारा पलट गई गोया कि लब से हो के कुछ इरशाद रह गया नासेह का जी चला था हमारी तरह मगर उल्फ़त की देख देख के उफ़्ताद रह गया हैं तेरे दिल में सब के ठिकाने बुरे भले मैं ख़ानुमाँ-ख़राब ही बर्बाद रह गया वो दिन गए कि थी मिरे सीने में कुछ ख़राश अब दिल कहाँ है दिल का निशाँ याद रह गया सूरत को तेरी देख के खिंचती है जान-ए-ख़ल्क़ दिल अपना थाम थाम के बहज़ाद रह गया ऐ 'दाग़' दिल ही दिल में घुले ज़ब्त-ए-इश्क़ से अफ़्सोस शौक़-ए-नाला-ओ-फ़रियाद रह गया " baat-merii-kabhii-sunii-hii-nahiin-dagh-dehlvi-ghazals," बात मेरी कभी सुनी ही नहीं जानते वो बुरी भली ही नहीं दिल-लगी उन की दिल-लगी ही नहीं रंज भी है फ़क़त हँसी ही नहीं लुत्फ़-ए-मय तुझ से क्या कहूँ ज़ाहिद हाए कम-बख़्त तू ने पी ही नहीं उड़ गई यूँ वफ़ा ज़माने से कभी गोया किसी में थी ही नहीं जान क्या दूँ कि जानता हूँ मैं तुम ने ये चीज़ ले के दी ही नहीं हम तो दुश्मन को दोस्त कर लेते पर करें क्या तिरी ख़ुशी ही नहीं हम तिरी आरज़ू पे जीते हैं ये नहीं है तो ज़िंदगी ही नहीं दिल-लगी दिल-लगी नहीं नासेह तेरे दिल को अभी लगी ही नहीं 'दाग़' क्यूँ तुम को बेवफ़ा कहता वो शिकायत का आदमी ही नहीं " kaabe-kii-hai-havas-kabhii-kuu-e-butaan-kii-hai-dagh-dehlvi-ghazals," काबे की है हवस कभी कू-ए-बुताँ की है मुझ को ख़बर नहीं मिरी मिट्टी कहाँ की है सुन के मिरा फ़साना उन्हें लुत्फ़ आ गया सुनता हूँ अब कि रोज़ तलब क़िस्सा-ख़्वाँ की है पैग़ाम-बर की बात पर आपस में रंज क्या मेरी ज़बान की है न तुम्हारी ज़बाँ की है कुछ ताज़गी हो लज़्ज़त-ए-आज़ार के लिए हर दम मुझे तलाश नए आसमाँ की है जाँ-बर भी हो गए हैं बहुत मुझ से नीम-जाँ क्या ग़म है ऐ तबीब जो पूरी वहाँ की है हसरत बरस रही है हमारे मज़ार पर कहते हैं सब ये क़ब्र किसी नौजवाँ की है वक़्त-ए-ख़िराम-ए-नाज़ दिखा दो जुदा जुदा ये चाल हश्र की ये रविश आसमाँ की है फ़ुर्सत कहाँ कि हम से किसी वक़्त तू मिले दिन ग़ैर का है रात तिरे पासबाँ की है क़ासिद की गुफ़्तुगू से तसल्ली हो किस तरह छुपती नहीं वो बात जो तेरी ज़बाँ की है जौर-ए-रक़ीब ओ ज़ुल्म-ए-फ़लक का नहीं ख़याल तशवीश एक ख़ातिर-ए-ना-मेहरबाँ की है सुन कर मिरा फ़साना-ए-ग़म उस ने ये कहा हो जाए झूट सच यही ख़ूबी बयाँ की है दामन संभाल बाँध कमर आस्तीं चढ़ा ख़ंजर निकाल दिल में अगर इम्तिहाँ की है हर हर नफ़स में दिल से निकलने लगा ग़ुबार क्या जाने गर्द-ए-राह ये किस कारवाँ की है क्यूँकि न आते ख़ुल्द से आदम ज़मीन पर मौज़ूँ वहीं वो ख़ूब है जो सुनते जहाँ की है तक़दीर से ये पूछ रहा हूँ कि इश्क़ में तदबीर कोई भी सितम-ए-ना-गहाँ की है उर्दू है जिस का नाम हमीं जानते हैं 'दाग़' हिन्दोस्ताँ में धूम हमारी ज़बाँ की है " dekh-kar-jauban-tiraa-kis-kis-ko-hairaanii-huii-dagh-dehlvi-ghazals," देख कर जोबन तिरा किस किस को हैरानी हुई इस जवानी पर जवानी आप दीवानी हुई पर्दे पर्दे में मोहब्बत दुश्मन-ए-जानी हुई ये ख़ुदा की मार क्या ऐ शौक़-ए-पिन्हानी हुई दिल का सौदा कर के उन से क्या पशेमानी हुई क़द्र उस की फिर कहाँ जिस शय की अर्ज़ानी हुई मेरे घर उस शोख़ की दो दिन से मेहमानी हुई बेकसी की आज कल क्या ख़ाना-वीरानी हुई तर्क-ए-रस्म-ओ-राह पर अफ़्सोस है दोनों तरफ़ हम से नादानी हुई या तुम से नादानी हुई इब्तिदा से इंतिहा तक हाल उन से कह तो दूँ फ़िक्र ये है और जो कह कर पशेमानी हुई ग़म क़यामत का नहीं वाइ'ज़ मुझे ये फ़िक्र है दीन कब बाक़ी रहा दुनिया अगर फ़ानी हुई तुम न शब को आओगे ये है यक़ीं आया हुआ तुम न मानोगे मिरी ये बात है मानी हुई मुझ में दम जब तक रहा मुश्किल में थे तीमारदार मेरी आसानी से सब यारों की आसानी हुई इस को क्या कहते हैं उतना ही बढ़ा शौक़-ए-विसाल जिस क़दर मशहूर उन की पाक-दामानी हुई बज़्म से उठने की ग़ैरत बैठने से दिल को रश्क देख कर ग़ैरों का मजमा क्या परेशानी हुई दावा-ए-तस्ख़ीर पर ये उस परी-वश ने कहा आप का दिल क्या हुआ मोहर-ए-सुलेमानी हुई खुल गईं ज़ुल्फ़ें मगर उस शोख़ मस्त-ए-नाज़ की झूमती बाद-ए-सबा फिरती है मस्तानी हुई मैं सरापा सज्दे करता उस के दर पर शौक़ से सर से पा तक क्यूँ न पेशानी ही पेशानी हुई दिल की क़ल्ब-ए-माहियत का हो उसे क्यूँकर यक़ीं कब हवा मिट्टी हुई है आग कब पानी हुई आते ही कहते हो अब घर जाएँगे अच्छी कही ये मसल पूरी यहाँ मन-मानी घर जानी हुई अरसा-ए-महशर में तुझ को ढूँड लाऊँ तो सही कोई छुप सकती है जो सूरत हो पहचानी हुई देख कर क़ातिल का ख़ाली हाथ भी जी डर गया उस की चीन-ए-आस्तीं भी चीन-ए-पेशानी हुई खा के धोका उस बुत-ए-कमसिन ने दामन में लिए अश्क-अफ़्शानी भी मेरी गौहर-अफ़्शानी हुई बेकसी पर मेरी अपनी तेग़ की हसरत तो देख चश्म-ए-जौहर भी ब-शक्ल-ए-चश्म-ए-हैरानी हुई बेकसी पर 'दाग़' की अफ़्सोस आता है हमें किस जगह किस वक़्त उस की ख़ाना-वीरानी हुई " le-chalaa-jaan-mirii-ruuth-ke-jaanaa-teraa-dagh-dehlvi-ghazals," ले चला जान मिरी रूठ के जाना तेरा ऐसे आने से तो बेहतर था न आना तेरा अपने दिल को भी बताऊँ न ठिकाना तेरा सब ने जाना जो पता एक ने जाना तेरा तू जो ऐ ज़ुल्फ़ परेशान रहा करती है किस के उजड़े हुए दिल में है ठिकाना तेरा आरज़ू ही न रही सुब्ह-ए-वतन की मुझ को शाम-ए-ग़ुर्बत है अजब वक़्त सुहाना तेरा ये समझ कर तुझे ऐ मौत लगा रक्खा है काम आता है बुरे वक़्त में आना तेरा ऐ दिल-ए-शेफ़्ता में आग लगाने वाले रंग लाया है ये लाखे का जमाना तेरा तू ख़ुदा तो नहीं ऐ नासेह-ए-नादाँ मेरा क्या ख़ता की जो कहा मैं ने न माना तेरा रंज क्या वस्ल-ए-अदू का जो तअ'ल्लुक़ ही नहीं मुझ को वल्लाह हँसाता है रुलाना तेरा काबा ओ दैर में या चश्म-ओ-दिल-ए-आशिक़ में इन्हीं दो-चार घरों में है ठिकाना तेरा तर्क-ए-आदत से मुझे नींद नहीं आने की कहीं नीचा न हो ऐ गोर सिरहाना तेरा मैं जो कहता हूँ उठाए हैं बहुत रंज-ए-फ़िराक़ वो ये कहते हैं बड़ा दिल है तवाना तेरा बज़्म-ए-दुश्मन से तुझे कौन उठा सकता है इक क़यामत का उठाना है उठाना तेरा अपनी आँखों में अभी कौंद गई बिजली सी हम न समझे कि ये आना है कि जाना तेरा यूँ तो क्या आएगा तू फ़र्त-ए-नज़ाकत से यहाँ सख़्त दुश्वार है धोके में भी आना तेरा 'दाग़' को यूँ वो मिटाते हैं ये फ़रमाते हैं तू बदल डाल हुआ नाम पुराना तेरा " tumhaare-khat-men-nayaa-ik-salaam-kis-kaa-thaa-dagh-dehlvi-ghazals," तुम्हारे ख़त में नया इक सलाम किस का था न था रक़ीब तो आख़िर वो नाम किस का था वो क़त्ल कर के मुझे हर किसी से पूछते हैं ये काम किस ने किया है ये काम किस का था वफ़ा करेंगे निबाहेंगे बात मानेंगे तुम्हें भी याद है कुछ ये कलाम किस का था रहा न दिल में वो बेदर्द और दर्द रहा मुक़ीम कौन हुआ है मक़ाम किस का था न पूछ-गछ थी किसी की वहाँ न आव-भगत तुम्हारी बज़्म में कल एहतिमाम किस का था तमाम बज़्म जिसे सुन के रह गई मुश्ताक़ कहो वो तज़्किरा-ए-ना-तमाम किस का था हमारे ख़त के तो पुर्ज़े किए पढ़ा भी नहीं सुना जो तू ने ब-दिल वो पयाम किस का था उठाई क्यूँ न क़यामत अदू के कूचे में लिहाज़ आप को वक़्त-ए-ख़िराम किस का था गुज़र गया वो ज़माना कहूँ तो किस से कहूँ ख़याल दिल को मिरे सुब्ह ओ शाम किस का था हमें तो हज़रत-ए-वाइज़ की ज़िद ने पिलवाई यहाँ इरादा-ए-शर्ब-ए-मुदाम किस का था अगरचे देखने वाले तिरे हज़ारों थे तबाह-हाल बहुत ज़ेर-ए-बाम किस का था वो कौन था कि तुम्हें जिस ने बेवफ़ा जाना ख़याल-ए-ख़ाम ये सौदा-ए-ख़ाम किस का था इन्हीं सिफ़ात से होता है आदमी मशहूर जो लुत्फ़ आम वो करते ये नाम किस का था हर इक से कहते हैं क्या 'दाग़' बेवफ़ा निकला ये पूछे उन से कोई वो ग़ुलाम किस का था " achchhii-suurat-pe-gazab-tuut-ke-aanaa-dil-kaa-dagh-dehlvi-ghazals," अच्छी सूरत पे ग़ज़ब टूट के आना दिल का याद आता है हमें हाए ज़माना दिल का तुम भी मुँह चूम लो बे-साख़्ता प्यार आ जाए मैं सुनाऊँ जो कभी दिल से फ़साना दिल का निगह-ए-यार ने की ख़ाना-ख़राबी ऐसी न ठिकाना है जिगर का न ठिकाना दिल का पूरी मेहंदी भी लगानी नहीं आती अब तक क्यूँकर आया तुझे ग़ैरों से लगाना दिल का ग़ुंचा-ए-गुल को वो मुट्ठी में लिए आते थे मैं ने पूछा तो किया मुझ से बहाना दिल का इन हसीनों का लड़कपन ही रहे या अल्लाह होश आता है तो आता है सताना दिल का दे ख़ुदा और जगह सीना ओ पहलू के सिवा कि बुरे वक़्त में हो जाए ठिकाना दिल का मेरी आग़ोश से क्या ही वो तड़प कर निकले उन का जाना था इलाही कि ये जाना दिल का निगह-ए-शर्म को बे-ताब किया काम किया रंग लाया तिरी आँखों में समाना दिल का उँगलियाँ तार-ए-गरेबाँ में उलझ जाती हैं सख़्त दुश्वार है हाथों से दबाना दिल का हूर की शक्ल हो तुम नूर के पुतले हो तुम और इस पर तुम्हें आता है जलाना दिल का छोड़ कर उस को तिरी बज़्म से क्यूँकर जाऊँ इक जनाज़े का उठाना है उठाना दिल का बे-दिली का जो कहा हाल तो फ़रमाते हैं कर लिया तू ने कहीं और ठिकाना दिल का बा'द मुद्दत के ये ऐ 'दाग़' समझ में आया वही दाना है कहा जिस ने न माना दिल का " is-nahiin-kaa-koii-ilaaj-nahiin-dagh-dehlvi-ghazals," इस नहीं का कोई इलाज नहीं रोज़ कहते हैं आप आज नहीं कल जो था आज वो मिज़ाज नहीं इस तलव्वुन का कुछ इलाज नहीं आइना देखते ही इतराए फिर ये क्या है अगर मिज़ाज नहीं ले के दिल रख लो काम आएगा गो अभी तुम को एहतियाज नहीं हो सकें हम मिज़ाज-दाँ क्यूँकर हम को मिलता तिरा मिज़ाज नहीं चुप लगी लाल-ए-जाँ-फ़ज़ा को तिरे इस मसीहा का कुछ इलाज नहीं दिल-ए-बे-मुद्दआ ख़ुदा ने दिया अब किसी शय की एहतियाज नहीं खोटे दामों में ये भी क्या ठहरा दिरहम-ए-'दाग़' का रिवाज नहीं बे-नियाज़ी की शान कहती है बंदगी की कुछ एहतियाज नहीं दिल-लगी कीजिए रक़ीबों से इस तरह का मिरा मिज़ाज नहीं इश्क़ है पादशाह-ए-आलम-गीर गरचे ज़ाहिर में तख़्त-ओ-ताज नहीं दर्द-ए-फ़ुर्क़त की गो दवा है विसाल इस के क़ाबिल भी हर मिज़ाज नहीं यास ने क्या बुझा दिया दिल को कि तड़प कैसी इख़्तिलाज नहीं हम तो सीरत-पसंद आशिक़ हैं ख़ूब-रू क्या जो ख़ुश-मिज़ाज नहीं हूर से पूछता हूँ जन्नत में इस जगह क्या बुतों का राज नहीं सब्र भी दिल को 'दाग़' दे लेंगे अभी कुछ इस की एहतियाज नहीं " ranj-kii-jab-guftuguu-hone-lagii-dagh-dehlvi-ghazals," रंज की जब गुफ़्तुगू होने लगी आप से तुम तुम से तू होने लगी चाहिए पैग़ाम-बर दोनों तरफ़ लुत्फ़ क्या जब दू-ब-दू होने लगी मेरी रुस्वाई की नौबत आ गई उन की शोहरत कू-ब-कू होने लगी है तिरी तस्वीर कितनी बे-हिजाब हर किसी के रू-ब-रू होने लगी ग़ैर के होते भला ऐ शाम-ए-वस्ल क्यूँ हमारे रू-ब-रू होने लगी ना-उम्मीदी बढ़ गई है इस क़दर आरज़ू की आरज़ू होने लगी अब के मिल कर देखिए क्या रंग हो फिर हमारी जुस्तुजू होने लगी 'दाग़' इतराए हुए फिरते हैं आज शायद उन की आबरू होने लगी " dil-pareshaan-huaa-jaataa-hai-dagh-dehlvi-ghazals," दिल परेशान हुआ जाता है और सामान हुआ जाता है ख़िदमत-ए-पीर-ए-मुग़ाँ कर ज़ाहिद तू अब इंसान हुआ जाता है मौत से पहले मुझे क़त्ल करो उस का एहसान हुआ जाता है लज़्ज़त-ए-इश्क़ इलाही मिट जाए दर्द अरमान हुआ जाता है दम ज़रा लो कि मिरा दम तुम पर अभी क़ुर्बान हुआ जाता है गिर्या क्या ज़ब्त करूँ ऐ नासेह अश्क पैमान हुआ जाता है बेवफ़ाई से भी रफ़्ता रफ़्ता वो मिरी जान हुआ जाता है अर्सा-ए-हश्र में वो आ पहुँचे साफ़ मैदान हुआ जाता है मदद ऐ हिम्मत-ए-दुश्वार-पसंद काम आसान हुआ जाता है छाई जाती है ये वहशत कैसी घर बयाबान हुआ जाता है शिकवा सुन आँख मिला कर ज़ालिम क्यूँ पशेमान हुआ जाता है आतिश-ए-शौक़ बुझी जाती है ख़ाक अरमान हुआ जाता है उज़्र जाने में न कर ऐ क़ासिद तू भी नादान हुआ जाता है मुज़्तरिब क्यूँ न हों अरमाँ दिल में क़ैद मेहमान हुआ जाता है 'दाग़' ख़ामोश न लग जाए नज़र शे'र दीवान हुआ जाता है " kaun-saa-taair-e-gum-gashta-use-yaad-aayaa-dagh-dehlvi-ghazals," कौन सा ताइर-ए-गुम-गश्ता उसे याद आया देखता भालता हर शाख़ को सय्याद आया मेरे क़ाबू में न पहरों दिल-ए-नाशाद आया वो मिरा भूलने वाला जो मुझे याद आया कोई भूला हुआ अंदाज़-ए-सितम याद आया कि तबस्सुम तुझे ज़ालिम दम-ए-बेदाद आया लाए हैं लोग जनाज़े की तरह महशर में किस मुसीबत से तिरा कुश्ता-ए-बेदाद आया जज़्ब-ए-वहशत तिरे क़ुर्बान तिरा क्या कहना खिंच के रग रग में मिरे नश्तर-ए-फ़स्साद आया उस के जल्वे को ग़रज़ कौन-ओ-मकाँ से क्या था दाद लेने के लिए हुस्न-ए-ख़ुदा-दाद आया बस्तियों से यही आवाज़ चली आती है जो किया तू ने वो आगे तिरे फ़रहाद आया दिल-ए-वीराँ से रक़ीबों ने मुरादें पाईं काम किस किस के मिरा ख़िर्मन-ए-बर्बाद आया इश्क़ के आते ही मुँह पर मिरे फूली है बसंत हो गया ज़र्द ये शागिर्द जब उस्ताद आया हो गया फ़र्ज़ मुझे शौक़ का दफ़्तर लिखना जब मिरे हाथ कोई ख़ामा-ए-फ़ौलाद आया ईद है क़त्ल मिरा अहल-ए-तमाशा के लिए सब गले मिलने लगे जब कि वो जल्लाद आया चैन करते हैं वहाँ रंज उठाने वाले काम उक़्बा में हमारा दिल-ए-नाशाद आया दी शब-ए-वस्ल मोअज़्ज़िन ने अज़ाँ पिछली रात हाए कम-बख़्त को किस वक़्त ख़ुदा याद आया मेरे नाले ने सुनाई है खरी किस किस को मुँह फ़रिश्तों पे ये गुस्ताख़ ये आज़ाद आया ग़म-ए-जावेद ने दी मुझ को मुबारकबादी जब सुना ये कि उन्हें शेवा-ए-बेदाद आया मैं तमन्ना-ए-शहादत का मज़ा भूल गया आज इस शौक़ से अरमान से जल्लाद आया शादियाना जो दिया नाला ओ शेवन ने दिया जब मुलाक़ात को नाशाद की नाशाद आया लीजिए सुनिए अब अफ़्साना-ए-फ़ुर्क़त मुझ से आप ने याद दिलाया तो मुझे याद आया आप की बज़्म में सब कुछ है मगर 'दाग़' नहीं हम को वो ख़ाना-ख़राब आज बहुत याद आया " dil-gayaa-tum-ne-liyaa-ham-kyaa-karen-dagh-dehlvi-ghazals," दिल गया तुम ने लिया हम क्या करें जाने वाली चीज़ का ग़म क्या करें हम ने मर कर हिज्र में पाई शिफ़ा ऐसे अच्छों का वो मातम क्या करें अपने ही ग़म से नहीं मिलती नजात इस बिना पर फ़िक्र-ए-आलम क्या करें एक साग़र पर है अपनी ज़िंदगी रफ़्ता रफ़्ता इस से भी कम क्या करें कर चुके सब अपनी अपनी हिकमतें दम निकलता हो तो हमदम क्या करें दिल ने सीखा शेवा-ए-बेगानगी ऐसे ना-महरम को महरम क्या करें मा'रका है आज हुस्न ओ इश्क़ का देखिए वो क्या करें हम क्या करें आईना है और वो हैं देखिए फ़ैसला दोनों ये बाहम क्या करें आदमी होना बहुत दुश्वार है फिर फ़रिश्ते हिर्स-ए-आदम क्या करें तुंद-ख़ू है कब सुने वो दिल की बात और भी बरहम को बरहम क्या करें हैदराबाद और लंगर याद है अब के दिल्ली में मोहर्रम क्या करें कहते हैं अहल-ए-सिफ़ारिश मुझ से 'दाग़' तेरी क़िस्मत है बुरी हम क्या करें " in-aankhon-ne-kyaa-kyaa-tamaashaa-na-dekhaa-dagh-dehlvi-ghazals," इन आँखों ने क्या क्या तमाशा न देखा हक़ीक़त में जो देखना था न देखा तुझे देख कर वो दुई उठ गई है कि अपना भी सानी न देखा न देखा उन आँखों के क़ुर्बान जाऊँ जिन्हों ने हज़ारों हिजाबों में परवाना देखा न हिम्मत न क़िस्मत न दिल है न आँखें न ढूँडा न पाया न समझा न देखा मरीज़ान-ए-उल्फ़त की क्या बे-कसी है मसीहा को भी चारा-फ़रमा न देखा बहुत दर्द-मंदों को देखा है तू ने ये सीना ये दिल ये कलेजा न देखा वो कब देख सकता है उस की तजल्ली जिस इंसान ने अपना ही जल्वा न देखा बहुत शोर सुनते थे इस अंजुमन का यहाँ आ के जो कुछ सुना था न देखा सफ़ाई है बाग़-ए-मोहब्बत में ऐसी कि बाद-ए-सबा ने भी तिनका न देखा उसे देख कर और को फिर जो देखे कोई देखने वाला ऐसा न देखा वो था जल्वा-आरा मगर तू ने मूसा न देखा न देखा न देखा न देखा गया कारवाँ छोड़ कर मुझ को तन्हा ज़रा मेरे आने का रस्ता न देखा कहाँ नक़्श-ए-अव्वल कहाँ नक़्श-ए-सानी ख़ुदा की ख़ुदाई में तुझ सा न देखा तिरी याद है या है तेरा तसव्वुर कभी 'दाग़' को हम ने तन्हा न देखा " dil-ko-kyaa-ho-gayaa-khudaa-jaane-dagh-dehlvi-ghazals," दिल को क्या हो गया ख़ुदा जाने क्यूँ है ऐसा उदास क्या जाने अपने ग़म में भी उस को सरफ़ा है न खिला जाने वो न खा जाने इस तजाहुल का क्या ठिकाना है जान कर जो न मुद्दआ' जाने कह दिया मैं ने राज़-ए-दिल अपना उस को तुम जानो या ख़ुदा जाने क्या ग़रज़ क्यूँ इधर तवज्जोह हो हाल-ए-दिल आप की बला जाने जानते जानते ही जानेगा मुझ में क्या है अभी वो क्या जाने क्या हम उस बद-गुमाँ से बात करें जो सताइश को भी गिला जाने तुम न पाओगे सादा-दिल मुझ सा जो तग़ाफ़ुल को भी हया जाने है अबस जुर्म-ए-इश्क़ पर इल्ज़ाम जब ख़ता-वार भी ख़ता जाने नहीं कोताह दामन-ए-उम्मीद आगे अब दस्त-ए-ना-रसा जाने जो हो अच्छा हज़ार अच्छों का वाइ'ज़ उस बुत को तू बुरा जाने की मिरी क़द्र मिस्ल-ए-शाह-ए-दकन किसी नव्वाब ने न राजा ने उस से उट्ठेगी क्या मुसीबत-ए-इश्क़ इब्तिदा को जो इंतिहा जाने 'दाग़' से कह दो अब न घबराओ काम अपना बता हुआ जाने " gair-ko-munh-lagaa-ke-dekh-liyaa-dagh-dehlvi-ghazals," ग़ैर को मुँह लगा के देख लिया झूट सच आज़मा के देख लिया उन के घर 'दाग़' जा के देख लिया दिल के कहने में आ के देख लिया कितनी फ़रहत-फ़ज़ा थी बू-ए-वफ़ा उस ने दिल को जला के देख लिया कभी ग़श में रहा शब-ए-वा'दा कभी गर्दन उठा के देख लिया जिंस-ए-दिल है ये वो नहीं सौदा हर जगह से मँगा के देख लिया लोग कहते हैं चुप लगी है तुझे हाल-ए-दिल भी सुना के देख लिया जाओ भी क्या करोगे मेहर-ओ-वफ़ा बार-हा आज़मा के देख लिया ज़ख़्म-ए-दिल में नहीं है क़तरा-ए-ख़ूँ ख़ूब हम ने दिखा के देख लिया इधर आईना है उधर दिल है जिस को चाहा उठा के देख लिया उन को ख़ल्वत-सरा में बे-पर्दा साफ़ मैदान पा के देख लिया उस ने सुब्ह-ए-शब-ए-विसाल मुझे जाते जाते भी आ के देख लिया तुम को है वस्ल-ए-ग़ैर से इंकार और जो हम ने आ के देख लिया 'दाग़' ने ख़ूब आशिक़ी का मज़ा जल के देखा जला के देख लिया " dil-churaa-kar-nazar-churaaii-hai-dagh-dehlvi-ghazals," दिल चुरा कर नज़र चुराई है लुट गए लुट गए दुहाई है एक दिन मिल के फिर नहीं मिलते किस क़यामत की ये जुदाई है ऐ असर कर न इंतिज़ार-ए-दुआ माँगना सख़्त बे-हयाई है मैं यहाँ हूँ वहाँ है दिल मेरा ना-रसाई अजब रसाई है इस तरह अहल-ए-नाज़ नाज़ करें बंदगी है कि ये ख़ुदाई है पानी पी पी के तौबा करता हूँ पारसाई सी पारसाई है वा'दा करने का इख़्तियार रहा बात करने में क्या बुराई है कब निकलता है अब जिगर से तीर ये भी क्या तेरी आश्नाई है 'दाग़' उन से दिमाग़ करते हैं नहीं मालूम क्या समाई है " ajab-apnaa-haal-hotaa-jo-visaal-e-yaar-hotaa-dagh-dehlvi-ghazals," अजब अपना हाल होता जो विसाल-ए-यार होता कभी जान सदक़े होती कभी दिल निसार होता कोई फ़ित्ना ता-क़यामत न फिर आश्कार होता तिरे दिल पे काश ज़ालिम मुझे इख़्तियार होता जो तुम्हारी तरह तुम से कोई झूटे वादे करता तुम्हीं मुंसिफ़ी से कह दो तुम्हें ए'तिबार होता ग़म-ए-इश्क़ में मज़ा था जो उसे समझ के खाते ये वो ज़हर है कि आख़िर मय-ए-ख़ुश-गवार होता ये मज़ा था दिल-लगी का कि बराबर आग लगती न तुझे क़रार होता न मुझे क़रार होता न मज़ा है दुश्मनी में न है लुत्फ़ दोस्ती में कोई ग़ैर ग़ैर होता कोई यार यार होता तिरे वादे पर सितमगर अभी और सब्र करते अगर अपनी ज़िंदगी का हमें ए'तिबार होता ये वो दर्द-ए-दिल नहीं है कि हो चारासाज़ कोई अगर एक बार मिटता तो हज़ार बार होता गए होश तेरे ज़ाहिद जो वो चश्म-ए-मस्त देखी मुझे क्या उलट न देते जो न बादा-ख़्वार होता मुझे मानते सब ऐसा कि अदू भी सज्दे करते दर-ए-यार काबा बनता जो मिरा मज़ार होता तुम्हें नाज़ हो न क्यूँकर कि लिया है 'दाग़' का दिल ये रक़म न हाथ लगती न ये इफ़्तिख़ार होता " is-adaa-se-vo-jafaa-karte-hain-dagh-dehlvi-ghazals," इस अदा से वो जफ़ा करते हैं कोई जाने कि वफ़ा करते हैं यूँ वफ़ा अहद-ए-वफ़ा करते हैं आप क्या कहते हैं क्या करते हैं हम को छेड़ोगे तो पछताओगे हँसने वालों से हँसा करते हैं नामा-बर तुझ को सलीक़ा ही नहीं काम बातों में बना करते हैं चलिए आशिक़ का जनाज़ा उट्ठा आप बैठे हुए क्या करते हैं ये बताता नहीं कोई मुझ को दिल जो आता है तो क्या करते हैं हुस्न का हक़ नहीं रहता बाक़ी हर अदा में वो अदा करते हैं तीर आख़िर बदल-ए-काफ़िर है हम अख़ीर आज दुआ करते हैं रोते हैं ग़ैर का रोना पहरों ये हँसी मुझ से हँसा करते हैं इस लिए दिल को लगा रक्खा है इस में महबूब रहा करते हैं तुम मिलोगे न वहाँ भी हम से हश्र से पहले गिला करते हैं झाँक कर रौज़न-ए-दर से मुझ को क्या वो शोख़ी से हया करते हैं उस ने एहसान जता कर ये कहा आप किस मुँह से गिला करते हैं रोज़ लेते हैं नया दिल दिलबर नहीं मालूम ये क्या करते हैं 'दाग़' तू देख तो क्या होता है जब्र पर सब्र किया करते हैं " lutf-vo-ishq-men-paae-hain-ki-jii-jaantaa-hai-dagh-dehlvi-ghazals," लुत्फ़ वो इश्क़ में पाए हैं कि जी जानता है रंज भी ऐसे उठाए हैं कि जी जानता है जो ज़माने के सितम हैं वो ज़माना जाने तू ने दिल इतने सताए हैं कि जी जानता है तुम नहीं जानते अब तक ये तुम्हारे अंदाज़ वो मिरे दिल में समाए हैं कि जी जानता है इन्हीं क़दमों ने तुम्हारे इन्हीं क़दमों की क़सम ख़ाक में इतने मिलाए हैं कि जी जानता है दोस्ती में तिरी दर-पर्दा हमारे दुश्मन इस क़दर अपने पराए हैं कि जी जानता है " uzr-un-kii-zabaan-se-niklaa-dagh-dehlvi-ghazals," उज़्र उन की ज़बान से निकला तीर गोया कमान से निकला वो छलावा इस आन से निकला अल-अमाँ हर ज़बान से निकला ख़ार-ए-हसरत बयान से निकला दिल का काँटा ज़बान से निकला फ़ित्ना-गर क्या मकान से निकला आसमाँ आसमान से निकला आ गया ग़श निगाह देखते ही मुद्दआ कब ज़बान से निकला खा गए थे वफ़ा का धोका हम झूट सच इम्तिहान से निकला दिल में रहने न दूँ तिरा शिकवा दिल में आया ज़बान से निकला वहम आते हैं देखिए क्या हो वो अकेला मकान से निकला तुम बरसते रहे सर-ए-महफ़िल कुछ भी मेरी ज़बान से निकला सच तो ये है मोआमला दिल का बाहर अपने गुमान से निकला उस को आयत हदीस क्या समझें जो तुम्हारी ज़बान से निकला पड़ गया जो ज़बाँ से तेरी हर्फ़ फिर न अपने मकान से निकला देख कर रू-ए-यार सल्ले-अला बे-तहाशा ज़बान से निकला लो क़यामत अब आई वो काफ़िर बन-बना कर मकान से निकला मर गए हम मगर तिरा अरमान दिल से निकला न जान से निकला रहरव-ए-राह-ए-इश्क़ थे लाखों आगे मैं कारवान से निकला समझो पत्थर की तुम लकीर उसे जो हमारी ज़बान से निकला बज़्म से तुम को ले के जाएँगे काम कब फूल-पान से निकला क्या मुरव्वत है नावक-ए-दिल-दोज़ पहले हरगिज़ न जान से निकला तेरे दीवानों का भी लश्कर आज किस तजम्मुल से शान से निकला मुड़ के देखा तो मैं ने कब देखा दूर जब पासबान से निकला वो हिले लब तुम्हारे वादे पर वो तुम्हारी ज़बान से निकला उस की बाँकी अदा ने जब मारा दम मिरा आन तान से निकला मेरे आँसू की उस ने की तारीफ़ ख़ूब मोती ये कान से निकला हम खड़े तुम से बातें करते थे ग़ैर क्यूँ दरमियान से निकला ज़िक्र अहल-ए-वफ़ा का जब आया 'दाग़' उन की ज़बान से निकला " sabaq-aisaa-padhaa-diyaa-tuu-ne-dagh-dehlvi-ghazals," सबक़ ऐसा पढ़ा दिया तू ने दिल से सब कुछ भला दिया तू ने हम निकम्मे हुए ज़माने के काम ऐसा सिखा दिया तू ने कुछ तअ'ल्लुक़ रहा न दुनिया से शग़्ल ऐसा बता दिया तू ने किस ख़ुशी की ख़बर सुना के मुझे ग़म का पुतला बना दिया तू ने क्या बताऊँ कि क्या लिया मैं ने क्या कहूँ मैं की क्या दिया तू ने बे-तलब जो मिला मिला मुझ को बे-ग़रज़ जो दिया दिया तू ने उम्र-ए-जावेद ख़िज़्र को बख़्शी आब-ए-हैवाँ पिला दिया तू ने नार-ए-नमरूद को किया गुलज़ार दोस्त को यूँ बचा दिया तू ने दस्त-ए-मूसा में फ़ैज़ बख़्शिश है नूर-ओ-लौह-ओ-असा दिया तू ने सुब्ह मौज नसीम गुलशन को नफ़स-ए-जाँ-फ़ज़ा दिया तू ने शब-ए-तीरा में शम्अ' रौशन को नूर ख़ुर्शीद का दिया तू ने नग़्मा बुलबुल को रंग-ओ-बू गुल को दिल-कश-ओ-ख़ुशनुमा दिया तू ने कहीं मुश्ताक़ से हिजाब हुआ कहीं पर्दा उठा दिया तू ने था मिरा मुँह न क़ाबिल-ए-लब्बैक का'बा मुझ को दिखा दिया तू ने जिस क़दर मैं ने तुझ से ख़्वाहिश की इस से मुझ को सिवा दिया तू ने रहबर-ए-ख़िज़्र-ओ-हादी-ए-इल्यास मुझ को वो रहनुमा दिया तू ने मिट गए दिल से नक़्श-ए-बातिल सब नक़्शा अपना जमा दिया तू ने है यही राह मंज़िल-ए-मक़्सूद ख़ूब रस्ते लगा दिया तू ने मुझ गुनहगार को जो बख़्श दिया तो जहन्नुम को क्या दिया तू ने 'दाग़' को कौन देने वाला था जो दिया ऐ ख़ुदा दिया तू ने " naa-ravaa-kahiye-naa-sazaa-kahiye-dagh-dehlvi-ghazals," ना-रवा कहिए ना-सज़ा कहिए कहिए कहिए मुझे बुरा कहिए तुझ को बद-अहद ओ बेवफ़ा कहिए ऐसे झूटे को और क्या कहिए दर्द दिल का न कहिए या कहिए जब वो पूछे मिज़ाज क्या कहिए फिर न रुकिए जो मुद्दआ कहिए एक के बा'द दूसरा कहिए आप अब मेरा मुँह न खुलवाएँ ये न कहिए कि मुद्दआ कहिए वो मुझे क़त्ल कर के कहते हैं मानता ही न था ये क्या कहिए दिल में रखने की बात है ग़म-ए-इश्क़ इस को हरगिज़ न बरमला कहिए तुझ को अच्छा कहा है किस किस ने कहने वालों को और क्या कहिए वो भी सुन लेंगे ये कभी न कभी हाल-ए-दिल सब से जा-ब-जा कहिए मुझ को कहिए बुरा न ग़ैर के साथ जो हो कहना जुदा जुदा कहिए इंतिहा इश्क़ की ख़ुदा जाने दम-ए-आख़िर को इब्तिदा कहिए मेरे मतलब से क्या ग़रज़ मतलब आप अपना तो मुद्दआ कहिए ऐसी कश्ती का डूबना अच्छा कि जो दुश्मन को नाख़ुदा कहिए सब्र फ़ुर्क़त में आ ही जाता है पर उसे देर-आश्ना कहिए आ गई आप को मसीहाई मरने वालों को मर्हबा कहिए आप का ख़ैर-ख़्वाह मेरे सिवा है कोई और दूसरा कहिए हाथ रख कर वो अपने कानों पर मुझ से कहते हैं माजरा कहिए होश जाते रहे रक़ीबों के 'दाग़' को और बा-वफ़ा कहिए " sab-log-jidhar-vo-hain-udhar-dekh-rahe-hain-dagh-dehlvi-ghazals," सब लोग जिधर वो हैं उधर देख रहे हैं हम देखने वालों की नज़र देख रहे हैं तेवर तिरे ऐ रश्क-ए-क़मर देख रहे हैं हम शाम से आसार-ए-सहर देख रहे हैं मेरा दिल-ए-गुम-गश्ता जो ढूँडा नहीं मिलता वो अपना दहन अपनी कमर देख रहे हैं कोई तो निकल आएगा सरबाज़-ए-मोहब्बत दिल देख रहे हैं वो जिगर देख रहे हैं है मजमा-ए-अग़्यार कि हंगामा-ए-महशर क्या सैर मिरे दीदा-ए-तर देख रहे हैं अब ऐ निगह-ए-शौक़ न रह जाए तमन्ना इस वक़्त उधर से वो इधर देख रहे हैं हर-चंद कि हर रोज़ की रंजिश है क़यामत हम कोई दिन उस को भी मगर देख रहे हैं आमद है किसी की कि गया कोई इधर से क्यूँ सब तरफ़-ए-राहगुज़र देख रहे हैं तकरार तजल्ली ने तिरे जल्वे में क्यूँ की हैरत-ज़दा सब अहल-ए-नज़र देख रहे हैं नैरंग है एक एक तिरा दीद के क़ाबिल हम ऐ फ़लक-ए-शोबदा-गर देख रहे हैं कब तक है तुम्हारा सुख़न-ए-तल्ख़ गवारा इस ज़हर में कितना है असर देख रहे हैं कुछ देख रहे हैं दिल-ए-बिस्मिल का तड़पना कुछ ग़ौर से क़ातिल का हुनर देख रहे हैं अब तक तो जो क़िस्मत ने दिखाया वही देखा आइंदा हो क्या नफ़ा ओ ज़रर देख रहे हैं पहले तो सुना करते थे आशिक़ की मुसीबत अब आँख से वो आठ पहर देख रहे हैं क्यूँ कुफ़्र है दीदार-ए-सनम हज़रत-ए-वाइज़ अल्लाह दिखाता है बशर देख रहे हैं ख़त ग़ैर का पढ़ते थे जो टोका तो वो बोले अख़बार का परचा है ख़बर देख रहे हैं पढ़ पढ़ के वो दम करते हैं कुछ हाथ पर अपने हँस हँस के मिरे ज़ख़्म-ए-जिगर देख रहे हैं मैं 'दाग़' हूँ मरता हूँ इधर देखिए मुझ को मुँह फेर के ये आप किधर देख रहे हैं " ye-baat-baat-men-kyaa-naazukii-nikaltii-hai-dagh-dehlvi-ghazals," ये बात बात में क्या नाज़ुकी निकलती है दबी दबी तिरे लब से हँसी निकलती है ठहर ठहर के जला दिल को एक बार न फूँक कि इस में बू-ए-मोहब्बत अभी निकलती है बजाए शिकवा भी देता हूँ मैं दुआ उस को मिरी ज़बाँ से करूँ क्या यही निकलती है ख़ुशी में हम ने ये शोख़ी कभी नहीं देखी दम-ए-इताब जो रंगत तिरी निकलती है हज़ार बार जो माँगा करो तो क्या हासिल दुआ वही है जो दिल से कभी निकलती है अदा से तेरी मगर खिंच रहीं हैं तलवारें निगह निगह से छुरी पर छुरी निकलती है मुहीत-ए-इश्क़ में है क्या उमीद ओ बीम मुझे कि डूब डूब के कश्ती मिरी निकलती है झलक रही है सर-ए-शाख़-ए-मिज़ा ख़ून की बूँद शजर में पहले समर से कली निकलती है शब-ए-फ़िराक़ जो खोले हैं हम ने ज़ख़्म-ए-जिगर ये इंतिज़ार है कब चाँदनी निकलती है समझ तो लीजिए कहने तो दीजिए मतलब बयाँ से पहले ही मुझ पर छुरी निकलती है ये दिल की आग है या दिल के नूर का है ज़ुहूर नफ़स नफ़स में मिरे रौशनी निकलती है कहा जो मैं ने कि मर जाऊँगा तो कहते हैं हमारे ज़ाइचे में ज़िंदगी निकलती है समझने वाले समझते हैं पेच की तक़रीर कि कुछ न कुछ तिरी बातों में फ़ी निकलती है दम-ए-अख़ीर तसव्वुर है किस परी-वश का कि मेरी रूह भी बन कर परी निकलती है सनम-कदे में भी है हुस्न इक ख़ुदाई का कि जो निकलती है सूरत परी निकलती है मिरे निकाले न निकलेगी आरज़ू मेरी जो तुम निकालना चाहो अभी निकलती है ग़म-ए-फ़िराक़ में हो 'दाग़' इस क़दर बेताब ज़रा से रंज में जाँ आप की निकलती है " kahte-hain-jis-ko-huur-vo-insaan-tumhiin-to-ho-dagh-dehlvi-ghazals," कहते हैं जिस को हूर वो इंसाँ तुम्हीं तो हो जाती है जिस पे जान मिरी जाँ तुम्हीं तो हो मतलब की कह रहे हैं वो दाना हमीं तो हैं मतलब की पूछते हो वो नादाँ तुम्हीं तो हो आता है बाद-ए-ज़ुल्म तुम्हीं को तो रहम भी अपने किए से दिल में पशेमाँ तुम्हीं तो हो पछताओगे बहुत मिरे दिल को उजाड़ कर इस घर में और कौन है मेहमाँ तुम्हीं तो हो इक रोज़ रंग लाएँगी ये मेहरबानियाँ हम जानते थे जान के ख़्वाहाँ तुम्हीं तो हो दिलदार ओ दिल-फ़रेब दिल-आज़ार ओ दिल-सिताँ लाखों में हम कहेंगे कि हाँ हाँ तुम्हीं तो हो करते हो 'दाग़' दूर से बुत-ख़ाने को सलाम अपनी तरह के एक मुसलमाँ तुम्हीं तो हो " un-ke-ik-jaan-nisaar-ham-bhii-hain-dagh-dehlvi-ghazals," उन के इक जाँ-निसार हम भी हैं हैं जहाँ सौ हज़ार हम भी हैं तुम भी बेचैन हम भी हैं बेचैन तुम भी हो बे-क़रार हम भी हैं ऐ फ़लक कह तो क्या इरादा है ऐश के ख़्वास्त-गार हम भी हैं खींच लाएगा जज़्ब-ए-दिल उन को हमा तन इंतिज़ार हम भी हैं बज़्म-ए-दुश्मन में ले चला है दिल कैसे बे-इख़्तियार हम भी हैं शहर ख़ाली किए दुकाँ कैसी एक ही बादा-ख़्वार हम भी हैं शर्म समझे तिरे तग़ाफ़ुल को वाह क्या होशियार हम भी हैं हाथ हम से मिलाओ ऐ मूसा आशिक़-ए-रू-ए-यार हम भी हैं ख़्वाहिश-ए-बादा-ए-तुहूर नहीं कैसे परहेज़-गार हम भी हैं तुम अगर अपनी गूँ के हो मा'शूक़ अपने मतलब के यार हम भी हैं जिस ने चाहा फँसा लिया हम को दिलबरों के शिकार हम भी हैं आई मय-ख़ाने से ये किस की सदा लाओ यारों के यार हम भी हैं ले ही तो लेगी दिल निगाह तिरी हर तरह होशियार हम भी हैं इधर आ कर भी फ़ातिहा पढ़ लो आज ज़ेर-ए-मज़ार हम भी हैं ग़ैर का हाल पूछिए हम से उस के जलसे के यार हम भी हैं कौन सा दिल है जिस में 'दाग़' नहीं इश्क़ में यादगार हम भी हैं " falak-detaa-hai-jin-ko-aish-un-ko-gam-bhii-hote-hain-dagh-dehlvi-ghazals," फ़लक देता है जिन को ऐश उन को ग़म भी होते हैं जहाँ बजते हैं नक़्क़ारे वहीं मातम भी होते हैं गिले शिकवे कहाँ तक होंगे आधी रात तो गुज़री परेशाँ तुम भी होते हो परेशाँ हम भी होते हैं जो रक्खे चारागर काफ़ूर दूनी आग लग जाए कहीं ये ज़ख़्म-ए-दिल शर्मिंदा-ए-मरहम भी होते हैं वो आँखें सामरी-फ़न हैं वो लब ईसा-नफ़स देखो मुझी पर सेहर होते हैं मुझी पर दम भी होते हैं ज़माना दोस्ती पर इन हसीनों की न इतराए ये आलम-दोस्त अक्सर दुश्मन-ए-आलम भी होते हैं ब-ज़ाहिर रहनुमा हैं और दिल में बद-गुमानी है तिरे कूचे में जो जाता है आगे हम भी होते हैं हमारे आँसुओं की आबदारी और ही कुछ है कि यूँ होने को रौशन गौहर-ए-शबनम भी होते हैं ख़ुदा के घर में क्या है काम ज़ाहिद बादा-ख़्वारों का जिन्हें मिलती नहीं वो तिश्ना-ए-ज़मज़म भी होते हैं हमारे साथ ही पैदा हुआ है इश्क़ ऐ नासेह जुदाई किस तरह से हो जुदा तवाम भी होते हैं नहीं घटती शब-ए-फ़ुर्क़त भी अक्सर हम ने देखा है जो बढ़ जाते हैं हद से वो ही घट कर कम भी होते हैं बचाऊँ पैरहन क्या चारागर मैं दस्त-ए-वहशत से कहीं ऐसे गरेबाँ दामन-ए-मरयम भी होते हैं तबीअत की कजी हरगिज़ मिटाए से नहीं मिटती कभी सीधे तुम्हारे गेसू-ए-पुर-ख़म भी होते हैं जो कहता हूँ कि मरता हूँ तो फ़रमाते हैं मर जाओ जो ग़श आता है तो मुझ पर हज़ारों दम भी होते हैं किसी का वादा-ए-दीदार तो ऐ 'दाग़' बर-हक़ है मगर ये देखिए दिल-शाद उस दिन हम भी होते हैं " saaz-ye-kiina-saaz-kyaa-jaanen-dagh-dehlvi-ghazals," साज़ ये कीना-साज़ क्या जानें नाज़ वाले नियाज़ क्या जानें शम्अ'-रू आप गो हुए लेकिन लुत्फ़-ए-सोज़-ओ-गुदाज़ क्या जानें कब किसी दर की जब्हा-साई की शैख़ साहब नमाज़ क्या जानें जो रह-ए-इश्क़ में क़दम रक्खें वो नशेब-ओ-फ़राज़ क्या जानें पूछिए मय-कशों से लुत्फ़-ए-शराब ये मज़ा पाक-बाज़ क्या जानें बले चितवन तिरी ग़ज़ब री निगाह क्या करेंगे ये नाज़ क्या जानें जिन को अपनी ख़बर नहीं अब तक वो मिरे दिल का राज़ क्या जानें हज़रत-ए-ख़िज़्र जब शहीद न हों लुत्फ़-ए-उम्र-ए-दराज़ क्या जानें जो गुज़रते हैं 'दाग़' पर सदमे आप बंदा-नवाज़ क्या जानें " zaahid-na-kah-burii-ki-ye-mastaane-aadmii-hain-dagh-dehlvi-ghazals," ज़ाहिद न कह बुरी कि ये मस्ताने आदमी हैं तुझ को लिपट पड़ेंगे दीवाने आदमी हैं ग़ैरों की दोस्ती पर क्यूँ ए'तिबार कीजे ये दुश्मनी करेंगे बेगाने आदमी हैं जो आदमी पे गुज़री वो इक सिवा तुम्हारे क्या जी लगा के सुनते अफ़्साने आदमी हैं क्या जुरअतें जो हम को दरबाँ तुम्हारा टोके कह दो कि ये तो जाने-पहचाने आदमी हैं मय बूँद भर पिला कर क्या हँस रहा है साक़ी भर भर के पीते आख़िर पैमाने आदमी हैं तुम ने हमारे दिल में घर कर लिया तो क्या है आबाद करते आख़िर वीराने आदमी हैं नासेह से कोई कह दे कीजे कलाम ऐसा हज़रत को ता कि कोई ये जाने आदमी हैं जब दावर-ए-क़यामत पूछेगा तुम पे रख कर कह देंगे साफ़ हम तो बेगाने आदमी हैं मैं वो बशर कि मुझ से हर आदमी को नफ़रत तुम शम्अ वो कि तुम पर परवाने आदमी हैं महफ़िल भरी हुई है सौदाइयों से उस की उस ग़ैरत-ए-परी पर दीवाने आदमी हैं शाबाश 'दाग़' तुझ को क्या तेग़-ए-इश्क़ खाई जी करते हैं वही जो मर्दाने आदमी हैं " jo-ho-saktaa-hai-us-se-vo-kisii-se-ho-nahiin-saktaa-dagh-dehlvi-ghazals," जो हो सकता है उस से वो किसी से हो नहीं सकता मगर देखो तो फिर कुछ आदमी से हो नहीं सकता मोहब्बत में करे क्या कुछ किसी से हो नहीं सकता मिरा मरना भी तो मेरी ख़ुशी से हो नहीं सकता अलग करना रक़ीबों का इलाही तुझ को आसाँ है मुझे मुश्किल कि मेरी बेकसी से हो नहीं सकता किया है वादा-ए-फ़र्दा उन्हों ने देखिए क्या हो यहाँ सब्र ओ तहम्मुल आज ही से हो नहीं सकता ये मुश्ताक़-ए-शहादत किस जगह जाएँ किसे ढूँडें कि तेरा काम क़ातिल जब तुझी से हो नहीं सकता लगा कर तेग़ क़िस्सा पाक कीजिए दाद-ख़्वाहों का किसी का फ़ैसला कर मुंसिफ़ी से हो नहीं सकता मिरा दुश्मन ब-ज़ाहिर चार दिन को दोस्त है तेरा किसी का हो रहे ये हर किसी से हो नहीं सकता पुर्सिश कहोगे क्या वहाँ जब याँ ये सूरत है अदा इक हर्फ़-ए-वादा नाज़ुकी से हो नहीं सकता न कहिए गो कि हाल-ए-दिल मगर रंग-आश्ना हैं हम ये ज़ाहिर आप की क्या ख़ामुशी से हो नहीं सकता किया जो हम ने ज़ालिम क्या करेगा ग़ैर मुँह क्या है करे तो सब्र ऐसा आदमी से हो नहीं सकता चमन में नाज़ बुलबुल ने किया जो अपनी नाले पर चटक कर ग़ुंचा बोला क्या किसी से हो नहीं सकता नहीं गर तुझ पे क़ाबू दिल है पर कुछ ज़ोर हो अपना करूँ क्या ये भी तो ना-ताक़ती से हो नहीं सकता न रोना है तरीक़े का न हँसना है सलीक़े का परेशानी में कोई काम जी से हो नहीं सकता हुआ हूँ इस क़दर महजूब अर्ज़-ए-मुद्दआ कर के कि अब तो उज़्र भी शर्मिंदगी से हो नहीं सकता ग़ज़ब में जान है क्या कीजे बदला रंज-ए-फ़ुर्क़त का बदी से कर नहीं सकते ख़ुशी से हो नहीं सकता मज़ा जो इज़्तिराब-ए-शौक़ से आशिक़ को है हासिल वो तस्लीम ओ रज़ा ओ बंदगी से हो नहीं सकता ख़ुदा जब दोस्त है ऐ 'दाग़' क्या दुश्मन से अंदेशा हमारा कुछ किसी की दुश्मनी से हो नहीं सकता " vo-zamaana-nazar-nahiin-aataa-dagh-dehlvi-ghazals," वो ज़माना नज़र नहीं आता कुछ ठिकाना नज़र नहीं आता जान जाती दिखाई देती है उन का आना नज़र नहीं आता इश्क़ दर-पर्दा फूँकता है आग ये जलाना नज़र नहीं आता इक ज़माना मिरी नज़र में रहा इक ज़माना नज़र नहीं आता दिल ने इस बज़्म में बिठा तो दिया उठ के जाना नज़र नहीं आता रहिए मुश्ताक़-ए-जल्वा-ए-दीदार हम ने माना नज़र नहीं आता ले चलो मुझ को राह-रवान-ए-अदम याँ ठिकाना नज़र नहीं आता दिल पे बैठा कहाँ से तीर-ए-निगाह ये निशाना नज़र नहीं आता तुम मिलाओगे ख़ाक में हम को दिल मिलाना नज़र नहीं आता आप ही देखते हैं हम को तो दिल का आना नज़र नहीं आता दिल-ए-पुर-आरज़ू लुटा ऐ 'दाग़' वो ख़ज़ाना नज़र नहीं आता " bhaven-tantii-hain-khanjar-haath-men-hai-tan-ke-baithe-hain-dagh-dehlvi-ghazals," भवें तनती हैं ख़ंजर हाथ में है तन के बैठे हैं किसी से आज बिगड़ी है कि वो यूँ बन के बैठे हैं दिलों पर सैकड़ों सिक्के तिरे जोबन के बैठे हैं कलेजों पर हज़ारों तीर इस चितवन के बैठे हैं इलाही क्यूँ नहीं उठती क़यामत माजरा क्या है हमारे सामने पहलू में वो दुश्मन के बैठे हैं ये गुस्ताख़ी ये छेड़ अच्छी नहीं है ऐ दिल-ए-नादाँ अभी फिर रूठ जाएँगे अभी तो मन के बैठे हैं असर है जज़्ब-ए-उल्फ़त में तो खिंच कर आ ही जाएँगे हमें पर्वा नहीं हम से अगर वो तन के बैठे हैं सुबुक हो जाएँगे गर जाएँगे वो बज़्म-ए-दुश्मन में कि जब तक घर में बैठे हैं वो लाखों मन के बैठे हैं फ़ुसूँ है या दुआ है या मुअ'म्मा खुल नहीं सकता वो कुछ पढ़ते हुए आगे मिरे मदफ़न के बैठे हैं बहुत रोया हूँ मैं जब से ये मैं ने ख़्वाब देखा है कि आप आँसू बहाते सामने दुश्मन के बैठे हैं खड़े हों ज़ेर-ए-तूबा वो न दम लेने को दम भर भी जो हसरत-मंद तेरे साया-ए-दामन के बैठे हैं तलाश-ए-मंज़िल-ए-मक़्सद की गर्दिश उठ नहीं सकती कमर खोले हुए रस्ते में हम रहज़न के बैठे हैं ये जोश-ए-गिर्या तो देखो कि जब फ़ुर्क़त में रोया हूँ दर ओ दीवार इक पल में मिरे मदफ़न के बैठे हैं निगाह-ए-शोख़ ओ चश्म-ए-शौक़ में दर-पर्दा छनती है कि वो चिलमन में हैं नज़दीक हम चिलमन के बैठे हैं ये उठना बैठना महफ़िल में उन का रंग लाएगा क़यामत बन के उट्ठेंगे भबूका बन के बैठे हैं किसी की शामत आएगी किसी की जान जाएगी किसी की ताक में वो बाम पर बन-ठन के बैठे हैं क़सम दे कर उन्हें ये पूछ लो तुम रंग-ढंग उस के तुम्हारी बज़्म में कुछ दोस्त भी दुश्मन के बैठे हैं कोई छींटा पड़े तो 'दाग़' कलकत्ते चले जाएँ अज़ीमाबाद में हम मुंतज़िर सावन के बैठे हैं " gazab-kiyaa-tire-vaade-pe-e-tibaar-kiyaa-dagh-dehlvi-ghazals," ग़ज़ब किया तिरे वअ'दे पे ए'तिबार किया तमाम रात क़यामत का इंतिज़ार किया किसी तरह जो न उस बुत ने ए'तिबार किया मिरी वफ़ा ने मुझे ख़ूब शर्मसार किया हँसा हँसा के शब-ए-वस्ल अश्क-बार किया तसल्लियाँ मुझे दे दे के बे-क़रार किया ये किस ने जल्वा हमारे सर-ए-मज़ार किया कि दिल से शोर उठा हाए बे-क़रार किया सुना है तेग़ को क़ातिल ने आब-दार किया अगर ये सच है तो बे-शुबह हम पे वार किया न आए राह पे वो इज्ज़ बे-शुमार किया शब-ए-विसाल भी मैं ने तो इंतिज़ार किया तुझे तो वादा-ए-दीदार हम से करना था ये क्या किया कि जहाँ को उमीद-वार किया ये दिल को ताब कहाँ है कि हो मआल-अंदेश उन्हों ने वअ'दा किया इस ने ए'तिबार किया कहाँ का सब्र कि दम पर है बन गई ज़ालिम ब तंग आए तो हाल-ए-दिल आश्कार किया तड़प फिर ऐ दिल-ए-नादाँ कि ग़ैर कहते हैं अख़ीर कुछ न बनी सब्र इख़्तियार किया मिले जो यार की शोख़ी से उस की बेचैनी तमाम रात दिल-ए-मुज़्तरिब को प्यार किया भुला भुला के जताया है उन को राज़-ए-निहाँ छुपा छुपा के मोहब्बत को आश्कार किया न उस के दिल से मिटाया कि साफ़ हो जाता सबा ने ख़ाक परेशाँ मिरा ग़ुबार किया हम ऐसे महव-ए-नज़ारा न थे जो होश आता मगर तुम्हारे तग़ाफ़ुल ने होश्यार किया हमारे सीने में जो रह गई थी आतिश-ए-हिज्र शब-ए-विसाल भी उस को न हम-कनार किया रक़ीब ओ शेवा-ए-उल्फ़त ख़ुदा की क़ुदरत है वो और इश्क़ भला तुम ने ए'तिबार किया ज़बान-ए-ख़ार से निकली सदा-ए-बिस्मिल्लाह जुनूँ को जब सर-ए-शोरीदा पर सवार किया तिरी निगह के तसव्वुर में हम ने ऐ क़ातिल लगा लगा के गले से छुरी को प्यार किया ग़ज़ब थी कसरत-ए-महफ़िल कि मैं ने धोके में हज़ार बार रक़ीबों को हम-कनार किया हुआ है कोई मगर उस का चाहने वाला कि आसमाँ ने तिरा शेवा इख़्तियार किया न पूछ दिल की हक़ीक़त मगर ये कहते हैं वो बे-क़रार रहे जिस ने बे-क़रार किया जब उन को तर्ज़-ए-सितम आ गए तो होश आया बुरा हो दिल का बुरे वक़्त होश्यार किया फ़साना-ए-शब-ए-ग़म उन को इक कहानी थी कुछ ए'तिबार किया कुछ न ए'तिबार किया असीरी दिल-ए-आशुफ़्ता रंग ला के रही तमाम तुर्रा-ए-तर्रार तार तार किया कुछ आ गई दावर-ए-महशर से है उम्मीद मुझे कुछ आप ने मिरे कहने का ए'तिबार किया किसी के इश्क़-ए-निहाँ में ये बद-गुमानी थी कि डरते डरते ख़ुदा पर भी आश्कार किया फ़लक से तौर क़यामत के बन न पड़ते थे अख़ीर अब तुझे आशोब-ए-रोज़गार किया वो बात कर जो कभी आसमाँ से हो न सके सितम किया तो बड़ा तू ने इफ़्तिख़ार किया बनेगा मेहर-ए-क़यामत भी एक ख़ाल-ए-सियाह जो चेहरा 'दाग़'-ए-सियह-रू ने आश्कार किया " majnuun-ne-shahr-chhodaa-to-sahraa-bhii-chhod-de-allama-iqbal-ghazals," मजनूँ ने शहर छोड़ा तो सहरा भी छोड़ दे नज़्ज़ारे की हवस हो तो लैला भी छोड़ दे वाइ'ज़ कमाल-ए-तर्क से मिलती है याँ मुराद दुनिया जो छोड़ दी है तो उक़्बा भी छोड़ दे तक़लीद की रविश से तो बेहतर है ख़ुद-कुशी रस्ता भी ढूँड ख़िज़्र का सौदा भी छोड़ दे मानिंद-ए-ख़ामा तेरी ज़बाँ पर है हर्फ़-ए-ग़ैर बेगाना शय पे नाज़िश-ए-बेजा भी छोड़ दे लुत्फ़-ए-कलाम क्या जो न हो दिल में दर्द-ए-इश्क़ बिस्मिल नहीं है तू तो तड़पना भी छोड़ दे शबनम की तरह फूलों पे रो और चमन से चल इस बाग़ में क़याम का सौदा भी छोड़ दे है आशिक़ी में रस्म अलग सब से बैठना बुत-ख़ाना भी हरम भी कलीसा भी छोड़ दे सौदा-गरी नहीं ये इबादत ख़ुदा की है ऐ बे-ख़बर जज़ा की तमन्ना भी छोड़ दे अच्छा है दिल के साथ रहे पासबान-ए-अक़्ल लेकिन कभी कभी इसे तन्हा भी छोड़ दे जीना वो क्या जो हो नफ़स-ए-ग़ैर पर मदार शोहरत की ज़िंदगी का भरोसा भी छोड़ दे शोख़ी सी है सवाल-ए-मुकर्रर में ऐ कलीम शर्त-ए-रज़ा ये है कि तक़ाज़ा भी छोड़ दे वाइ'ज़ सुबूत लाए जो मय के जवाज़ में 'इक़बाल' को ये ज़िद है कि पीना भी छोड़ दे " hazaar-khauf-ho-lekin-zabaan-ho-dil-kii-rafiiq-allama-iqbal-ghazals," हज़ार ख़ौफ़ हो लेकिन ज़बाँ हो दिल की रफ़ीक़ यही रहा है अज़ल से क़लंदरों का तरीक़ हुजूम क्यूँ है ज़ियादा शराब-ख़ाने में फ़क़त ये बात कि पीर-ए-मुग़ाँ है मर्द-ए-ख़लीक़ इलाज-ए-ज़ोफ़-ए-यक़ीं इन से हो नहीं सकता ग़रीब अगरचे हैं 'राज़ी' के नुक्ता-हाए-दक़ीक़ मुरीद-ए-सादा तो रो रो के हो गया ताइब ख़ुदा करे कि मिले शैख़ को भी ये तौफ़ीक़ उसी तिलिस्म-ए-कुहन में असीर है आदम बग़ल में उस की हैं अब तक बुतान-ए-अहद-ए-अतीक़ मिरे लिए तो है इक़रार-ए-बिल-लिसाँ भी बहुत हज़ार शुक्र कि मुल्ला हैं साहिब-ए-तसदीक़ अगर हो इश्क़ तो है कुफ़्र भी मुसलमानी न हो तो मर्द-ए-मुसलमाँ भी काफ़िर ओ ज़िंदीक़ " har-shai-musaafir-har-chiiz-raahii-allama-iqbal-ghazals," हर शय मुसाफ़िर हर चीज़ राही क्या चाँद तारे क्या मुर्ग़ ओ माही तू मर्द-ए-मैदाँ तू मीर-ए-लश्कर नूरी हुज़ूरी तेरे सिपाही कुछ क़द्र अपनी तू ने न जानी ये बे-सवादी ये कम-निगाही दुनिया-ए-दूँ की कब तक ग़ुलामी या राहेबी कर या पादशाही पीर-ए-हरम को देखा है मैं ने किरदार-ए-बे-सोज़ गुफ़्तार वाही " khird-mandon-se-kyaa-puuchhuun-ki-merii-ibtidaa-kyaa-hai-allama-iqbal-ghazals," ख़िर्द-मंदों से क्या पूछूँ कि मेरी इब्तिदा क्या है कि मैं इस फ़िक्र में रहता हूँ मेरी इंतिहा क्या है ख़ुदी को कर बुलंद इतना कि हर तक़दीर से पहले ख़ुदा बंदे से ख़ुद पूछे बता तेरी रज़ा क्या है मक़ाम-ए-गुफ़्तुगू क्या है अगर मैं कीमिया-गर हूँ यही सोज़-ए-नफ़स है और मेरी कीमिया क्या है नज़र आईं मुझे तक़दीर की गहराइयाँ इस में न पूछ ऐ हम-नशीं मुझ से वो चश्म-ए-सुर्मा-सा क्या है अगर होता वो 'मजज़ूब'-ए-फ़रंगी इस ज़माने में तो 'इक़बाल' उस को समझाता मक़ाम-ए-किबरिया क्या है नवा-ए-सुब्ह-गाही ने जिगर ख़ूँ कर दिया मेरा ख़ुदाया जिस ख़ता की ये सज़ा है वो ख़ता क्या है " digar-guun-hai-jahaan-taaron-kii-gardish-tez-hai-saaqii-allama-iqbal-ghazals," दिगर-गूँ है जहाँ तारों की गर्दिश तेज़ है साक़ी दिल-ए-हर-ज़र्रा में ग़ोग़ा-ए-रुस्ता-ख़े़ज़ है साक़ी मता-ए-दीन-ओ-दानिश लुट गई अल्लाह-वालों की ये किस काफ़िर-अदा का ग़म्ज़ा-ए-ख़ूँ-रेज़ है साक़ी वही देरीना बीमारी वही ना-मोहकमी दिल की इलाज इस का वही आब-ए-नशात-अंगेज़ है साक़ी हरम के दिल में सोज़-ए-आरज़ू पैदा नहीं होता कि पैदाई तिरी अब तक हिजाब-आमेज़ है साक़ी न उट्ठा फिर कोई 'रूमी' अजम के लाला-ज़ारों से वही आब-ओ-गिल-ए-ईराँ वही तबरेज़ है साक़ी नहीं है ना-उमीद 'इक़बाल' अपनी किश्त-ए-वीराँ से ज़रा नम हो तो ये मिट्टी बहुत ज़रख़ेज़ है साक़ी फ़क़ीर-ए-राह को बख़्शे गए असरार-ए-सुल्तानी बहा मेरी नवा की दौलत-ए-परवेज़ है साक़ी " jab-ishq-sikhaataa-hai-aadaab-e-khud-aagaahii-allama-iqbal-ghazals," जब इश्क़ सिखाता है आदाब-ए-ख़ुद-आगाही खुलते हैं ग़ुलामों पर असरार-ए-शहंशाही 'अत्तार' हो 'रूमी' हो 'राज़ी' हो 'ग़ज़ाली' हो कुछ हाथ नहीं आता बे-आह-ए-सहर-गाही नौमीद न हो इन से ऐ रहबर-ए-फ़रज़ाना कम-कोश तो हैं लेकिन बे-ज़ौक़ नहीं राही ऐ ताइर-ए-लाहूती उस रिज़्क़ से मौत अच्छी जिस रिज़्क़ से आती हो पर्वाज़ में कोताही दारा ओ सिकंदर से वो मर्द-ए-फ़क़ीर औला हो जिस की फ़क़ीरी में बू-ए-असदूल-लाही आईन-ए-जवाँ-मर्दां हक़-गोई ओ बे-बाकी अल्लाह के शेरों को आती नहीं रूबाही " vahii-merii-kam-nasiibii-vahii-terii-be-niyaazii-allama-iqbal-ghazals," वही मेरी कम-नसीबी वही तेरी बे-नियाज़ी मिरे काम कुछ न आया ये कमाल-ए-नै-नवाज़ी मैं कहाँ हूँ तू कहाँ है ये मकाँ कि ला-मकाँ है ये जहाँ मिरा जहाँ है कि तिरी करिश्मा-साज़ी इसी कश्मकश में गुज़रीं मिरी ज़िंदगी की रातें कभी सोज़-ओ-साज़-ए-'रूमी' कभी पेच-ओ-ताब-ए-'राज़ी' वो फ़रेब-ख़ुर्दा शाहीं कि पला हो करगसों में उसे क्या ख़बर कि क्या है रह-ओ-रस्म-ए-शाहबाज़ी न ज़बाँ कोई ग़ज़ल की न ज़बाँ से बा-ख़बर मैं कोई दिल-कुशा सदा हो अजमी हो या कि ताज़ी नहीं फ़क़्र ओ सल्तनत में कोई इम्तियाज़ ऐसा ये सिपह की तेग़-बाज़ी वो निगह की तेग़-बाज़ी कोई कारवाँ से टूटा कोई बद-गुमाँ हरम से कि अमीर-ए-कारवाँ में नहीं ख़ू-ए-दिल-नवाज़ी " na-tuu-zamiin-ke-liye-hai-na-aasmaan-ke-liye-allama-iqbal-ghazals," न तू ज़मीं के लिए है न आसमाँ के लिए जहाँ है तेरे लिए तू नहीं जहाँ के लिए ये अक़्ल ओ दिल हैं शरर शोला-ए-मोहब्बत के वो ख़ार-ओ-ख़स के लिए है ये नीस्ताँ के लिए मक़ाम-ए-परवरिश-ए-आह-ओ-लाला है ये चमन न सैर-ए-गुल के लिए है न आशियाँ के लिए रहेगा रावी ओ नील ओ फ़ुरात में कब तक तिरा सफ़ीना कि है बहर-ए-बे-कराँ के लिए निशान-ए-राह दिखाते थे जो सितारों को तरस गए हैं किसी मर्द-ए-राह-दाँ के लिए निगह बुलंद सुख़न दिल-नवाज़ जाँ पुर-सोज़ यही है रख़्त-ए-सफ़र मीर-ए-कारवाँ के लिए ज़रा सी बात थी अंदेशा-ए-अजम ने उसे बढ़ा दिया है फ़क़त ज़ेब-ए-दास्ताँ के लिए मिरे गुलू में है इक नग़्मा जिब्राईल-आशोब संभाल कर जिसे रक्खा है ला-मकाँ के लिए " agar-kaj-rau-hain-anjum-aasmaan-teraa-hai-yaa-meraa-allama-iqbal-ghazals," अगर कज-रौ हैं अंजुम आसमाँ तेरा है या मेरा मुझे फ़िक्र-ए-जहाँ क्यूँ हो जहाँ तेरा है या मेरा अगर हंगामा-हा-ए-शौक़ से है ला-मकाँ ख़ाली ख़ता किस की है या रब ला-मकाँ तेरा है या मेरा उसे सुब्ह-ए-अज़ल इंकार की जुरअत हुई क्यूँकर मुझे मालूम क्या वो राज़-दाँ तेरा है या मेरा मोहम्मद भी तिरा जिबरील भी क़ुरआन भी तेरा मगर ये हर्फ़-ए-शीरीं तर्जुमाँ तेरा है या मेरा इसी कौकब की ताबानी से है तेरा जहाँ रौशन ज़वाल-ए-आदम-ए-ख़ाकी ज़ियाँ तेरा है या मेरा " zamaana-aayaa-hai-be-hijaabii-kaa-aam-diidaar-e-yaar-hogaa-allama-iqbal-ghazals," ज़माना आया है बे-हिजाबी का आम दीदार-ए-यार होगा सुकूत था पर्दा-दार जिस का वो राज़ अब आश्कार होगा गुज़र गया अब वो दौर साक़ी कि छुप के पीते थे पीने वाले बनेगा सारा जहान मय-ख़ाना हर कोई बादा-ख़्वार होगा कभी जो आवारा-ए-जुनूँ थे वो बस्तियों में आ बसेंगे बरहना-पाई वही रहेगी मगर नया ख़ार-ज़ार होगा सुना दिया गोश मुंतज़िर को हिजाज़ की ख़ामुशी ने आख़िर जो अहद सहराइयों से बाँधा गया था पर उस्तुवार होगा निकल के सहरा से जिस ने रूमा की सल्तनत को उलट दिया था सुना है ये क़ुदसियों से मैं ने वो शेर फिर होशियार होगा किया मिरा तज़्किरा जो साक़ी ने बादा-ख़्वारों की अंजुमन में तो पीर मय-ख़ाना सुन के कहने लगा कि मुँह फट है ख़ार होगा दयार मग़रिब के रहने वालो ख़ुदा की बस्ती दुकाँ नहीं है खरा है जिसे तुम समझ रहे हो वो अब ज़र कम-अयार होगा तुम्हारी तहज़ीब अपने ख़ंजर से आप ही ख़ुद-कुशी करेगी जो शाख़-ए-नाज़ुक पे आशियाना बनेगा ना-पाएदार होगा सफ़ीना-ए-बर्ग-ए-गुल बना लेगा क़ाफ़िला मोर-ए-ना-तावाँ का हज़ार मौजों की हो कशाकश मगर ये दरिया से पार होगा चमन में लाला दिखाता फिरता है दाग़ अपना कली कली को ये जानता है कि इस दिखावे से दिल जलों में शुमार होगा जो एक था ऐ निगाह तू ने हज़ार कर के हमें दिखाया यही अगर कैफ़ियत है तेरी तो फिर किसे ए'तिबार होगा कहा जो क़मरी से मैं ने इक दिन यहाँ के आज़ाद पागल हैं तो ग़ुंचे कहने लगे हमारे चमन का ये राज़दार होगा ख़ुदा के आशिक़ तो हैं हज़ारों बनों में फिरते हैं मारे मारे मैं उस का बंदा बनूँगा जिस को ख़ुदा के बंदों से प्यार होगा ये रस्म बरहम फ़ना है ऐ दिल गुनाह है जुम्बिश नज़र भी रहेगी क्या आबरू हमारी जो तू यहाँ बे-क़रार होगा मैं ज़ुल्मत-ए-शब में ले के निकलूँगा अपने दरमाँदा कारवाँ को शह निशाँ होगी आह मेरी नफ़स मिरा शो'ला बार होगा नहीं है ग़ैर अज़ नुमूद कुछ भी जो मुद्दआ तेरी ज़िंदगी का तू इक नफ़स में जहाँ से मिटना तुझे मिसाल शरार होगा न पूछ इक़बाल का ठिकाना अभी वही कैफ़ियत है उस की कहीं सर-ए-राहगुज़ार बैठा सितम-कश इंतिज़ार होगा " ye-payaam-de-gaii-hai-mujhe-baad-e-subh-gaahii-allama-iqbal-ghazals," ये पयाम दे गई है मुझे बाद-ए-सुब्ह-गाही कि ख़ुदी के आरिफ़ों का है मक़ाम पादशाही तिरी ज़िंदगी इसी से तिरी आबरू इसी से जो रही ख़ुदी तो शाही न रही तो रू-सियाही न दिया निशान-ए-मंज़िल मुझे ऐ हकीम तू ने मुझे क्या गिला हो तुझ से तू न रह-नशीं न राही मिरे हल्क़ा-ए-सुख़न में अभी ज़ेर-ए-तर्बियत हैं वो गदा कि जानते हैं रह-ओ-रस्म-ए-कज-कुलाही ये मुआमले हैं नाज़ुक जो तिरी रज़ा हो तू कर कि मुझे तो ख़ुश न आया ये तरिक़-ए-ख़ानक़ाही तू हुमा का है शिकारी अभी इब्तिदा है तेरी नहीं मस्लहत से ख़ाली ये जहान-ए-मुर्ग़-ओ-माही तू अरब हो या अजम हो तिरा ला इलाह इल्ला लुग़त-ए-ग़रीब जब तक तिरा दिल न दे गवाही " kushaada-dast-e-karam-jab-vo-be-niyaaz-kare-allama-iqbal-ghazals," कुशादा दस्त-ए-करम जब वो बे-नियाज़ करे नियाज़-मंद न क्यूँ आजिज़ी पे नाज़ करे बिठा के अर्श पे रक्खा है तू ने ऐ वाइ'ज़ ख़ुदा वो क्या है जो बंदों से एहतिराज़ करे मिरी निगाह में वो रिंद ही नहीं साक़ी जो होशियारी ओ मस्ती में इम्तियाज़ करे मुदाम गोश-ब-दिल रह ये साज़ है ऐसा जो हो शिकस्ता तो पैदा नवा-ए-राज़ करे कोई ये पूछे कि वाइ'ज़ का क्या बिगड़ता है जो बे-अमल पे भी रहमत वो बे-नियाज़ करे सुख़न में सोज़ इलाही कहाँ से आता है ये चीज़ वो है कि पत्थर को भी गुदाज़ करे तमीज़-ए-लाला-ओ-गुल से है नाला-ए-बुलबुल जहाँ में वा न कोई चश्म-ए-इम्तियाज़ करे ग़ुरूर-ए-ज़ोहद ने सिखला दिया है वाइ'ज़ को कि बंदगान-ए-ख़ुदा पर ज़बाँ दराज़ करे हवा हो ऐसी कि हिन्दोस्ताँ से ऐ 'इक़बाल' उड़ा के मुझ को ग़ुबार-ए-रह-ए-हिजाज़ करे " vo-harf-e-raaz-ki-mujh-ko-sikhaa-gayaa-hai-junuun-allama-iqbal-ghazals," वो हर्फ़-ए-राज़ कि मुझ को सिखा गया है जुनूँ ख़ुदा मुझे नफ़स-ए-जिबरईल दे तो कहूँ सितारा क्या मिरी तक़दीर की ख़बर देगा वो ख़ुद फ़राख़ी-ए-अफ़्लाक में है ख़्वार ओ ज़ुबूँ हयात क्या है ख़याल ओ नज़र की मजज़ूबी ख़ुदी की मौत है अँदेशा-हा-ए-गूना-गूँ अजब मज़ा है मुझे लज़्ज़त-ए-ख़ुदी दे कर वो चाहते हैं कि मैं अपने आप में न रहूँ ज़मीर-ए-पाक ओ निगाह-ए-बुलंद ओ मस्ती-ए-शौक़ न माल-ओ-दौलत-ए-क़ारूँ न फ़िक्र-ए-अफ़लातूँ सबक़ मिला है ये मेराज-ए-मुस्तफ़ा से मुझे कि आलम-ए-बशरीयत की ज़द में है गर्दूं ये काएनात अभी ना-तमाम है शायद कि आ रही है दमादम सदा-ए-कुन-फ़यकूँ इलाज आतिश-ए-'रूमी' के सोज़ में है तिरा तिरी ख़िरद पे है ग़ालिब फ़िरंगियों का फ़ुसूँ उसी के फ़ैज़ से मेरी निगाह है रौशन उसी के फ़ैज़ से मेरे सुबू में है जेहूँ " dil-soz-se-khaalii-hai-nigah-paak-nahiin-hai-allama-iqbal-ghazals," दिल सोज़ से ख़ाली है निगह पाक नहीं है फिर इस में अजब क्या कि तू बेबाक नहीं है है ज़ौक़-ए-तजल्ली भी इसी ख़ाक में पिन्हाँ ग़ाफ़िल तू निरा साहिब-ए-इदराक नहीं है वो आँख कि है सुर्मा-ए-अफ़रंग से रौशन पुरकार ओ सुख़न-साज़ है नमनाक नहीं है क्या सूफ़ी ओ मुल्ला को ख़बर मेरे जुनूँ की उन का सर-ए-दामन भी अभी चाक नहीं है कब तक रहे महकूमी-ए-अंजुम में मिरी ख़ाक या मैं नहीं या गर्दिश-ए-अफ़्लाक नहीं है बिजली हूँ नज़र कोह ओ बयाबाँ पे है मेरी मेरे लिए शायाँ ख़स-ओ-ख़ाशाक नहीं है आलम है फ़क़त मोमिन-ए-जाँबाज़ की मीरास मोमिन नहीं जो साहिब-ए-लौलाक नहीं है " gulzaar-e-hast-e-buud-na-begaana-vaar-dekh-allama-iqbal-ghazals," गुलज़ार-ए-हस्त-ओ-बूद न बेगाना-वार देख है देखने की चीज़ इसे बार बार देख आया है तू जहाँ में मिसाल-ए-शरार देख दम दे न जाए हस्ती-ना-पाएदार देख माना कि तेरी दीद के क़ाबिल नहीं हूँ मैं तू मेरा शौक़ देख मिरा इंतिज़ार देख खोली हैं ज़ौक़-ए-दीद ने आँखें तिरी अगर हर रहगुज़र में नक़्श-ए-कफ़-ए-पा-ए-यार देख " khudii-ho-ilm-se-mohkam-to-gairat-e-jibriil-allama-iqbal-ghazals," ख़ुदी हो इल्म से मोहकम तो ग़ैरत-ए-जिब्रील अगर हो इश्क़ से मोहकम तो सूर-ए-इस्राफ़ील अज़ाब-ए-दानिश-ए-हाज़िर से बा-ख़बर हूँ मैं कि मैं इस आग में डाला गया हूँ मिस्ल-ए-ख़लील फ़रेब-ख़ुर्दा-ए-मंज़िल है कारवाँ वर्ना ज़ियादा राहत-ए-मंज़िल से है नशात-ए-रहील नज़र नहीं तो मिरे हल्क़ा-ए-सुख़न में न बैठ कि नुक्ता-हा-ए-ख़ुदी हैं मिसाल-ए-तेग़-ए-असील मुझे वो दर्स-ए-फ़रंग आज याद आते हैं कहाँ हुज़ूर की लज़्ज़त कहाँ हिजाब-ए-दलील अँधेरी शब है जुदा अपने क़ाफ़िले से है तू तिरे लिए है मिरा शोला-ए-नवा क़िंदील ग़रीब ओ सादा ओ रंगीं है दस्तान-ए-हरम निहायत इस की हुसैन इब्तिदा है इस्माईल " aalam-e-aab-o-khaak-o-baad-sirr-e-ayaan-hai-tuu-ki-main-allama-iqbal-ghazals," आलम-ए-आब-ओ-ख़ाक-ओ-बाद सिर्र-ए-अयाँ है तू कि मैं वो जो नज़र से है निहाँ उस का जहाँ है तू कि मैं वो शब-ए-दर्द-ओ-सोज़-ओ-ग़म कहते हैं ज़िंदगी जिसे उस की सहर है तू कि मैं उस की अज़ाँ है तू कि मैं किस की नुमूद के लिए शाम ओ सहर हैं गर्म-ए-सैर शाना-ए-रोज़गार पर बार-ए-गिराँ है तू कि मैं तू कफ़-ए-ख़ाक ओ बे-बसर मैं कफ़-ए-ख़ाक ओ ख़ुद-निगर किश्त-ए-वजूद के लिए आब-ए-रवाँ है तू कि मैं " apnii-jaulaan-gaah-zer-e-aasmaan-samjhaa-thaa-main-allama-iqbal-ghazals," अपनी जौलाँ-गाह ज़ेर-ए-आसमाँ समझा था मैं आब ओ गिल के खेल को अपना जहाँ समझा था मैं बे-हिजाबी से तिरी टूटा निगाहों का तिलिस्म इक रिदा-ए-नील-गूँ को आसमाँ समझा था मैं कारवाँ थक कर फ़ज़ा के पेच-ओ-ख़म में रह गया मेहर ओ माह ओ मुश्तरी को हम-इनाँ समझा था मैं इश्क़ की इक जस्त ने तय कर दिया क़िस्सा तमाम इस ज़मीन ओ आसमाँ को बे-कराँ समझा था मैं कह गईं राज़-ए-मोहब्बत पर्दा-दारी-हा-ए-शौक़ थी फ़ुग़ाँ वो भी जिसे ज़ब्त-ए-फ़ुग़ाँ समझा था मैं थी किसी दरमाँदा रह-रौ की सदा-ए-दर्दनाक जिस को आवाज़-ए-रहील-ए-कारवाँ समझा था मैं " asar-kare-na-kare-sun-to-le-mirii-fariyaad-allama-iqbal-ghazals," असर करे न करे सुन तो ले मिरी फ़रियाद नहीं है दाद का तालिब ये बंदा-ए-आज़ाद ये मुश्त-ए-ख़ाक ये सरसर ये वुसअ'त-ए-अफ़्लाक करम है या कि सितम तेरी लज़्ज़त-ए-ईजाद ठहर सका न हवा-ए-चमन में ख़ेमा-ए-गुल यही है फ़स्ल-ए-बहारी यही है बाद-ए-मुराद क़ुसूर-वार ग़रीब-उद-दयार हूँ लेकिन तिरा ख़राबा फ़रिश्ते न कर सके आबाद मिरी जफ़ा-तलबी को दुआएँ देता है वो दश्त-ए-सादा वो तेरा जहान-ए-बे-बुनियाद ख़तर-पसंद तबीअत को साज़गार नहीं वो गुल्सिताँ कि जहाँ घात में न हो सय्याद मक़ाम-ए-शौक़ तिरे क़ुदसियों के बस का नहीं उन्हीं का काम है ये जिन के हौसले हैं ज़ियाद " fitrat-ko-khirad-ke-ruu-ba-ruu-kar-allama-iqbal-ghazals," फ़ितरत को ख़िरद के रू-ब-रू कर तस्ख़ीर-ए-मक़ाम-ए-रंग-ओ-बू कर तू अपनी ख़ुदी को खो चुका है खोई हुई शय की जुस्तुजू कर तारों की फ़ज़ा है बे-कराना तू भी ये मक़ाम-ए-आरज़ू कर उर्यां हैं तिरे चमन की हूरें चाक-ए-गुल-ओ-लाला को रफ़ू कर बे-ज़ौक़ नहीं अगरचे फ़ितरत जो उस से न हो सका वो तू कर " aql-go-aastaan-se-duur-nahiin-allama-iqbal-ghazals," अक़्ल गो आस्ताँ से दूर नहीं उस की तक़दीर में हुज़ूर नहीं दिल-ए-बीना भी कर ख़ुदा से तलब आँख का नूर दिल का नूर नहीं इल्म में भी सुरूर है लेकिन ये वो जन्नत है जिस में हूर नहीं क्या ग़ज़ब है कि इस ज़माने में एक भी साहब-ए-सुरूर नहीं इक जुनूँ है कि बा-शुऊर भी है इक जुनूँ है कि बा-शुऊर नहीं ना-सुबूरी है ज़िंदगी दिल की आह वो दिल कि ना-सुबूर नहीं बे-हुज़ूरी है तेरी मौत का राज़ ज़िंदा हो तू तो बे-हुज़ूर नहीं हर गुहर ने सदफ़ को तोड़ दिया तू ही आमादा-ए-ज़ुहूर नहीं अरिनी मैं भी कह रहा हूँ मगर ये हदीस-ए-कलीम-ओ-तूर नहीं " ik-daanish-e-nuuraanii-ik-daanish-e-burhaanii-allama-iqbal-ghazals," इक दानिश-ए-नूरानी इक दानिश-ए-बुरहानी है दानिश-ए-बुरहानी हैरत की फ़रावानी इस पैकर-ए-ख़ाकी में इक शय है सो वो तेरी मेरे लिए मुश्किल है इस शय की निगहबानी अब क्या जो फ़ुग़ाँ मेरी पहुँची है सितारों तक तू ने ही सिखाई थी मुझ को ये ग़ज़ल-ख़्वानी हो नक़्श अगर बातिल तकरार से क्या हासिल क्या तुझ को ख़ुश आती है आदम की ये अर्ज़ानी मुझ को तो सिखा दी है अफ़रंग ने ज़िंदीक़ी इस दौर के मुल्ला हैं क्यूँ नंग-ए-मुसलमानी तक़दीर शिकन क़ुव्वत बाक़ी है अभी इस में नादाँ जिसे कहते हैं तक़दीर का ज़िंदानी तेरे भी सनम-ख़ाने मेरे भी सनम-ख़ाने दोनों के सनम ख़ाकी दोनों के सनम फ़ानी " kabhii-ai-haqiiqat-e-muntazar-nazar-aa-libaas-e-majaaz-men-allama-iqbal-ghazals," कभी ऐ हक़ीक़त-ए-मुंतज़र नज़र आ लिबास-ए-मजाज़ में कि हज़ारों सज्दे तड़प रहे हैं मिरी जबीन-ए-नियाज़ में तरब-आशना-ए-ख़रोश हो तो नवा है महरम-ए-गोश हो वो सरोद क्या कि छुपा हुआ हो सुकूत-ए-पर्दा-ए-साज़ में तू बचा बचा के न रख इसे तिरा आइना है वो आइना कि शिकस्ता हो तो अज़ीज़-तर है निगाह-ए-आइना-साज़ में दम-ए-तौफ़ किरमक-ए-शम्अ ने ये कहा कि वो असर-ए-कुहन न तिरी हिकायत-ए-सोज़ में न मिरी हदीस-ए-गुदाज़ में न कहीं जहाँ में अमाँ मिली जो अमाँ मिली तो कहाँ मिली मिरे जुर्म-ए-ख़ाना-ख़राब को तिरे अफ़्व-ए-बंदा-नवाज़ में न वो इश्क़ में रहीं गर्मियाँ न वो हुस्न में रहीं शोख़ियाँ न वो ग़ज़नवी में तड़प रही न वो ख़म है ज़ुल्फ़-ए-अयाज़ मैं मैं जो सर-ब-सज्दा हुआ कभी तो ज़मीं से आने लगी सदा तिरा दिल तो है सनम-आश्ना तुझे क्या मिलेगा नमाज़ में " tuu-abhii-rahguzar-men-hai-qaid-e-maqaam-se-guzar-allama-iqbal-ghazals," तू अभी रहगुज़र में है क़ैद-ए-मक़ाम से गुज़र मिस्र ओ हिजाज़ से गुज़र पारस ओ शाम से गुज़र जिस का अमल है बे-ग़रज़ उस की जज़ा कुछ और है हूर ओ ख़ियाम से गुज़र बादा-ओ-जाम से गुज़र गरचे है दिल-कुशा बहुत हुस्न-ए-फ़रंग की बहार ताएरक-ए-बुलंद-बाम दाना-ओ-दाम से गुज़र कोह-शिगाफ़ तेरी ज़र्ब तुझ से कुशाद-ए-शर्क़-ओ-ग़र्ब तेग़-ए-हिलाल की तरह ऐश-ए-नियाम से गुज़र तेरा इमाम बे-हुज़ूर तेरी नमाज़ बे-सुरूर ऐसी नमाज़ से गुज़र ऐसे इमाम से गुज़र " laa-phir-ik-baar-vahii-baada-o-jaam-ai-saaqii-allama-iqbal-ghazals," ला फिर इक बार वही बादा ओ जाम ऐ साक़ी हाथ आ जाए मुझे मेरा मक़ाम ऐ साक़ी तीन सौ साल से हैं हिन्द के मय-ख़ाने बंद अब मुनासिब है तिरा फ़ैज़ हो आम ऐ साक़ी मेरी मीना-ए-ग़ज़ल में थी ज़रा सी बाक़ी शेख़ कहता है कि है ये भी हराम ऐ साक़ी शेर मर्दों से हुआ बेश-ए-तहक़ीक़ तही रह गए सूफ़ी ओ मुल्ला के ग़ुलाम ऐ साक़ी इश्क़ की तेग़-ए-जिगर-दार उड़ा ली किस ने इल्म के हाथ में ख़ाली है नियाम ऐ साक़ी सीना रौशन हो तो है सोज़-ए-सुख़न ऐन-ए-हयात हो न रौशन तो सुख़न मर्ग-ए-दवाम ऐ साक़ी तू मिरी रात को महताब से महरूम न रख तिरे पैमाने में है माह-ए-तमाम ऐ साक़ी " anokhii-vaza-hai-saare-zamaane-se-niraale-hain-allama-iqbal-ghazals," अनोखी वज़्अ है सारे ज़माने से निराले हैं ये आशिक़ कौन सी बस्ती के या-रब रहने वाले हैं इलाज-ए-दर्द में भी दर्द की लज़्ज़त पे मरता हूँ जो थे छालों में काँटे नोक-ए-सोज़न से निकाले हैं फला-फूला रहे या-रब चमन मेरी उमीदों का जिगर का ख़ून दे दे कर ये बूटे मैं ने पाले हैं रुलाती है मुझे रातों को ख़ामोशी सितारों की निराला इश्क़ है मेरा निराले मेरे नाले हैं न पूछो मुझ से लज़्ज़त ख़ानमाँ-बर्बाद रहने की नशेमन सैकड़ों मैं ने बना कर फूँक डाले हैं नहीं बेगानगी अच्छी रफ़ीक़-ए-राह-ए-मंज़िल से ठहर जा ऐ शरर हम भी तो आख़िर मिटने वाले हैं उमीद-ए-हूर ने सब कुछ सिखा रक्खा है वाइ'ज़ को ये हज़रत देखने में सीधे-साधे भोले भाले हैं मिरे अशआ'र ऐ 'इक़बाल' क्यूँ प्यारे न हों मुझ को मिरे टूटे हुए दिल के ये दर्द-अंगेज़ नाले हैं " aflaak-se-aataa-hai-naalon-kaa-javaab-aakhir-allama-iqbal-ghazals," अफ़्लाक से आता है नालों का जवाब आख़िर करते हैं ख़िताब आख़िर उठते हैं हिजाब आख़िर अहवाल-ए-मोहब्बत में कुछ फ़र्क़ नहीं ऐसा सोज़ ओ तब-ओ-ताब अव्वल सोज़ ओ तब-ओ-ताब आख़िर मैं तुझ को बताता हूँ तक़दीर-ए-उमम क्या है शमशीर-ओ-सिनाँ अव्वल ताऊस-ओ-रुबाब आख़िर मय-ख़ाना-ए-यूरोप के दस्तूर निराले हैं लाते हैं सुरूर अव्वल देते हैं शराब आख़िर क्या दबदबा-ए-नादिर क्या शौकत-ए-तैमूरी हो जाते हैं सब दफ़्तर ग़र्क़-ए-मय-ए-नाब आख़िर ख़ल्वत की घड़ी गुज़री जल्वत की घड़ी आई छुटने को है बिजली से आग़ोश-ए-सहाब आख़िर था ज़ब्त बहुत मुश्किल इस सैल-ए-मआ'नी का कह डाले क़लंदर ने असरार-ए-किताब आख़िर " pareshaan-ho-ke-merii-khaak-aakhir-dil-na-ban-jaae-allama-iqbal-ghazals," परेशाँ हो के मेरी ख़ाक आख़िर दिल न बन जाए जो मुश्किल अब है या रब फिर वही मुश्किल न बन जाए न कर दें मुझ को मजबूर-ए-नवाँ फ़िरदौस में हूरें मिरा सोज़-ए-दरूँ फिर गर्मी-ए-महफ़िल न बन जाए कभी छोड़ी हुई मंज़िल भी याद आती है राही को खटक सी है जो सीने में ग़म-ए-मंज़िल न बन जाए बनाया इश्क़ ने दरिया-ए-ना-पैदा-कराँ मुझ को ये मेरी ख़ुद-निगह-दारी मिरा साहिल न बन जाए कहीं इस आलम-ए-बे-रंग-ओ-बू में भी तलब मेरी वही अफ़्साना-ए-दुंबाला-ए-महमिल न बन जाए उरूज-ए-आदम-ए-ख़ाकी से अंजुम सहमे जाते हैं कि ये टूटा हुआ तारा मह-ए-कामिल न बन जाए " musalmaan-ke-lahuu-men-hai-saliiqa-dil-navaazii-kaa-allama-iqbal-ghazals," मुसलमाँ के लहू में है सलीक़ा दिल-नवाज़ी का मुरव्वत हुस्न-ए-आलम-गीर है मर्दान-ए-ग़ाज़ी का शिकायत है मुझे या रब ख़ुदावंदान-ए-मकतब से सबक़ शाहीं बच्चों को दे रहे हैं ख़ाक-बाज़ी का बहुत मुद्दत के नख़चीरों का अंदाज़-ए-निगह बदला कि मैं ने फ़ाश कर डाला तरीक़ा शाहबाज़ी का क़लंदर जुज़ दो हर्फ़-ए-ला-इलाह कुछ भी नहीं रखता फ़क़ीह-ए-शहर क़ारूँ है लुग़त-हा-ए-हिजाज़ी का हदीस-ए-बादा-ओ-मीना-ओ-जाम आती नहीं मुझ को न कर ख़ारा-शग़ाफ़ों से तक़ाज़ा शीशा-साज़ी का कहाँ से तू ने ऐ 'इक़बाल' सीखी है ये दरवेशी कि चर्चा पादशाहों में है तेरी बे-नियाज़ी का " khirad-ke-paas-khabar-ke-sivaa-kuchh-aur-nahiin-allama-iqbal-ghazals," ख़िरद के पास ख़बर के सिवा कुछ और नहीं तिरा इलाज नज़र के सिवा कुछ और नहीं हर इक मक़ाम से आगे मक़ाम है तेरा हयात ज़ौक़-ए-सफ़र के सिवा कुछ और नहीं गिराँ-बहा है तो हिफ़्ज़-ए-ख़ुदी से है वर्ना गुहर में आब-ए-गुहर के सिवा कुछ और नहीं रगों में गर्दिश-ए-ख़ूँ है अगर तो क्या हासिल हयात सोज़-ए-जिगर के सिवा कुछ और नहीं उरूस-ए-लाला मुनासिब नहीं है मुझ से हिजाब कि मैं नसीम-ए-सहर के सिवा कुछ और नहीं जिसे कसाद समझते हैं ताजिरान-ए-फ़रंग वो शय मता-ए-हुनर के सिवा कुछ और नहीं बड़ा करीम है 'इक़बाल'-ए-बे-नवा लेकिन अता-ए-शोला शरर के सिवा कुछ और नहीं " zaahir-ki-aankh-se-na-tamaashaa-kare-koii-allama-iqbal-ghazals-29, sakhtiyaan-kartaa-huun-dil-par-gair-se-gaafil-huun-main-allama-iqbal-ghazals," सख़्तियाँ करता हूँ दिल पर ग़ैर से ग़ाफ़िल हूँ मैं हाए क्या अच्छी कही ज़ालिम हूँ मैं जाहिल हूँ मैं मैं जभी तक था कि तेरी जल्वा-पैराई न थी जो नुमूद-ए-हक़ से मिट जाता है वो बातिल हूँ मैं इल्म के दरिया से निकले ग़ोता-ज़न गौहर-ब-दस्त वाए महरूमी ख़ज़फ़ चैन लब साहिल हूँ मैं है मिरी ज़िल्लत ही कुछ मेरी शराफ़त की दलील जिस की ग़फ़लत को मलक रोते हैं वो ग़ाफ़िल हूँ मैं बज़्म-ए-हस्ती अपनी आराइश पे तू नाज़ाँ न हो तू तो इक तस्वीर है महफ़िल की और महफ़िल हूँ मैं ढूँढता फिरता हूँ मैं 'इक़बाल' अपने-आप को आप ही गोया मुसाफ़िर आप ही मंज़िल हूँ मैं " na-aate-hamen-is-men-takraar-kyaa-thii-allama-iqbal-ghazals," न आते हमें इस में तकरार क्या थी मगर वा'दा करते हुए आर क्या थी तुम्हारे पयामी ने सब राज़ खोला ख़ता इस में बंदे की सरकार क्या थी भरी बज़्म में अपने आशिक़ को ताड़ा तिरी आँख मस्ती में हुश्यार क्या थी तअम्मुल तो था उन को आने में क़ासिद मगर ये बता तर्ज़-ए-इंकार क्या थी खिंचे ख़ुद-बख़ुद जानिब-ए-तूर मूसा कशिश तेरी ऐ शौक़-ए-दीदार क्या थी कहीं ज़िक्र रहता है 'इक़बाल' तेरा फ़ुसूँ था कोई तेरी गुफ़्तार क्या थी " yaa-rab-ye-jahaan-e-guzraan-khuub-hai-lekin-allama-iqbal-ghazals," या रब ये जहान-ए-गुज़राँ ख़ूब है लेकिन क्यूँ ख़्वार हैं मर्दान-ए-सफ़ा-केश ओ हुनर-मंद गो इस की ख़ुदाई में महाजन का भी है हाथ दुनिया तो समझती है फ़रंगी को ख़ुदावंद तू बर्ग-ए-गया है न वही अहल-ए-ख़िरद रा ओ किश्त-ए-गुल-ओ-लाला ब-बख़शद ब-ख़रे चंद हाज़िर हैं कलीसा में कबाब ओ मय-ए-गुलगूँ मस्जिद में धरा क्या है ब-जुज़ मौइज़ा ओ पंद अहकाम तिरे हक़ हैं मगर अपने मुफ़स्सिर तावील से क़ुरआँ को बना सकते हैं पाज़ंद फ़िरदौस जो तेरा है किसी ने नहीं देखा अफ़रंग का हर क़र्या है फ़िरदौस की मानिंद मुद्दत से है आवारा-ए-अफ़्लाक मिरा फ़िक्र कर दे इसे अब चाँद के ग़ारों में नज़र-बंद फ़ितरत ने मुझे बख़्शे हैं जौहर मलाकूती ख़ाकी हूँ मगर ख़ाक से रखता नहीं पैवंद दरवेश-ए-ख़ुदा-मस्त न शर्क़ी है न ग़र्बी घर मेरा न दिल्ली न सफ़ाहाँ न समरक़ंद कहता हूँ वही बात समझता हूँ जिसे हक़ ने आबला-ए-मस्जिद हूँ न तहज़ीब का फ़रज़ंद अपने भी ख़फ़ा मुझ से हैं बेगाने भी ना-ख़ुश मैं ज़हर-ए-हलाहल को कभी कह न सका क़ंद मुश्किल है इक बंदा-ए-हक़-बीन-ओ-हक़-अंदेश ख़ाशाक के तोदे को कहे कोह-ए-दमावंद हूँ आतिश-ए-नमरूद के शो'लों में भी ख़ामोश मैं बंदा-ए-मोमिन हूँ नहीं दाना-ए-असपंद पुर-सोज़ नज़र-बाज़ ओ निको-बीन ओ कम आरज़ू आज़ाद ओ गिरफ़्तार ओ तही कीसा ओ ख़ुरसंद हर हाल में मेरा दिल-ए-बे-क़ैद है ख़ुर्रम क्या छीनेगा ग़ुंचे से कोई ज़ौक़-ए-शकर-ख़ंद चुप रह न सका हज़रत-ए-यज़्दाँ में भी 'इक़बाल' करता कोई इस बंदा-ए-गुस्ताख़ का मुँह बंद " sitaaron-se-aage-jahaan-aur-bhii-hain-allama-iqbal-ghazals-1," सितारों से आगे जहाँ और भी हैं अभी इश्क़ के इम्तिहाँ और भी हैं तही ज़िंदगी से नहीं ये फ़ज़ाएँ यहाँ सैकड़ों कारवाँ और भी हैं क़नाअत न कर आलम-ए-रंग-ओ-बू पर चमन और भी आशियाँ और भी हैं अगर खो गया इक नशेमन तो क्या ग़म मक़ामात-ए-आह-ओ-फ़ुग़ाँ और भी हैं तू शाहीं है परवाज़ है काम तेरा तिरे सामने आसमाँ और भी हैं इसी रोज़ ओ शब में उलझ कर न रह जा कि तेरे ज़मान ओ मकाँ और भी हैं गए दिन कि तन्हा था मैं अंजुमन में यहाँ अब मिरे राज़-दाँ और भी हैं " tujhe-yaad-kyaa-nahiin-hai-mire-dil-kaa-vo-zamaana-allama-iqbal-ghazals," तुझे याद क्या नहीं है मिरे दिल का वो ज़माना वो अदब-गह-ए-मोहब्बत वो निगह का ताज़ियाना ये बुतान-ए-अस्र-ए-हाज़िर कि बने हैं मदरसे में न अदा-ए-काफ़िराना न तराश-ए-आज़राना नहीं इस खुली फ़ज़ा में कोई गोशा-ए-फ़राग़त ये जहाँ अजब जहाँ है न क़फ़स न आशियाना रग-ए-ताक मुंतज़िर है तिरी बारिश-ए-करम की कि अजम के मय-कदों में न रही मय-ए-मुग़ाना मिरे हम-सफ़ीर इसे भी असर-ए-बहार समझे उन्हें क्या ख़बर कि क्या है ये नवा-ए-आशिक़ाना मिरे ख़ाक ओ ख़ूँ से तू ने ये जहाँ किया है पैदा सिला-ए-शाहिद क्या है तब-ओ-ताब-ए-जावेदाना तिरी बंदा-परवरी से मिरे दिन गुज़र रहे हैं न गिला है दोस्तों का न शिकायत-ए-ज़माना " tire-ishq-kii-intihaa-chaahtaa-huun-allama-iqbal-ghazals," तिरे इश्क़ की इंतिहा चाहता हूँ मिरी सादगी देख क्या चाहता हूँ सितम हो कि हो वादा-ए-बे-हिजाबी कोई बात सब्र-आज़मा चाहता हूँ ये जन्नत मुबारक रहे ज़ाहिदों को कि मैं आप का सामना चाहता हूँ ज़रा सा तो दिल हूँ मगर शोख़ इतना वही लन-तरानी सुना चाहता हूँ कोई दम का मेहमाँ हूँ ऐ अहल-ए-महफ़िल चराग़-ए-सहर हूँ बुझा चाहता हूँ भरी बज़्म में राज़ की बात कह दी बड़ा बे-अदब हूँ सज़ा चाहता हूँ " naala-hai-bulbul-e-shoriida-tiraa-khaam-abhii-allama-iqbal-ghazals," नाला है बुलबुल-ए-शोरीदा तिरा ख़ाम अभी अपने सीने में इसे और ज़रा थाम अभी पुख़्ता होती है अगर मस्लहत-अंदेश हो अक़्ल इश्क़ हो मस्लहत-अंदेश तो है ख़ाम अभी बे-ख़तर कूद पड़ा आतिश-ए-नमरूद में इश्क़ अक़्ल है महव-ए-तमाशा-ए-लब-ए-बाम अभी इश्क़ फ़र्मूदा-ए-क़ासिद से सुबुक-गाम-ए-अमल अक़्ल समझी ही नहीं म'अनी-ए-पैग़ाम अभी शेवा-ए-इश्क़ है आज़ादी ओ दहर-आशेबी तू है ज़ुन्नारी-ए-बुत-ख़ाना-ए-अय्याम अभी उज़्र-ए-परहेज़ पे कहता है बिगड़ कर साक़ी है तिरे दिल में वही काविश-ए-अंजाम अभी सई-ए-पैहम है तराज़ू-कम-ओ-कैफ़-ए-हयात तेरी मीज़ाँ है शुमार-ए-सहर-ओ-शाम अभी अब्र-ए-नैसाँ ये तुनुक-बख़्शी-ए-शबनम कब तक मेरे कोहसार के लाले हैं तही-जाम अभी बादा-गर्दान-ए-अजम वो अरबी मेरी शराब मिरे साग़र से झिजकते हैं मय-आशाम अभी ख़बर 'इक़बाल' की लाई है गुलिस्ताँ से नसीम नौ-गिरफ़्तार फड़कता है तह-ए-दाम अभी " phir-charaag-e-laala-se-raushan-hue-koh-o-daman-allama-iqbal-ghazals-3," फिर चराग़-ए-लाला से रौशन हुए कोह ओ दमन मुझ को फिर नग़्मों पे उकसाने लगा मुर्ग़-ए-चमन फूल हैं सहरा में या परियाँ क़तार अंदर क़तार ऊदे ऊदे नीले नीले पीले पीले पैरहन बर्ग-ए-गुल पर रख गई शबनम का मोती बाद-ए-सुब्ह और चमकाती है उस मोती को सूरज की किरन हुस्न-ए-बे-परवा को अपनी बे-नक़ाबी के लिए हों अगर शहरों से बन प्यारे तो शहर अच्छे कि बन अपने मन में डूब कर पा जा सुराग़-ए-ज़ि़ंदगी तू अगर मेरा नहीं बनता न बन अपना तो बन मन की दुनिया मन की दुनिया सोज़ ओ मस्ती जज़्ब ओ शौक़ तन की दुनिया तन की दुनिया सूद ओ सौदा मक्र ओ फ़न मन की दौलत हाथ आती है तो फिर जाती नहीं तन की दौलत छाँव है आता है धन जाता है धन मन की दुनिया में न पाया मैं ने अफ़रंगी का राज मन की दुनिया में न देखे मैं ने शैख़ ओ बरहमन पानी पानी कर गई मुजको क़लंदर की ये बात तू झुका जब ग़ैर के आगे न मन तेरा न तन " gesuu-e-taabdaar-ko-aur-bhii-taabdaar-kar-allama-iqbal-ghazals," गेसू-ए-ताबदार को और भी ताबदार कर होश ओ ख़िरद शिकार कर क़ल्ब ओ नज़र शिकार कर इश्क़ भी हो हिजाब में हुस्न भी हो हिजाब में या तो ख़ुद आश्कार हो या मुझे आश्कार कर तू है मुहीत-ए-बे-कराँ मैं हूँ ज़रा सी आबजू या मुझे हम-कनार कर या मुझे बे-कनार कर मैं हूँ सदफ़ तो तेरे हाथ मेरे गुहर की आबरू मैं हूँ ख़ज़फ़ तो तू मुझे गौहर-ए-शाहवार कर नग़्मा-ए-नौ-बहार अगर मेरे नसीब में न हो उस दम-ए-नीम-सोज़ को ताइरक-ए-बहार कर बाग़-ए-बहिश्त से मुझे हुक्म-ए-सफ़र दिया था क्यूँ कार-ए-जहाँ दराज़ है अब मिरा इंतिज़ार कर रोज़-ए-हिसाब जब मिरा पेश हो दफ़्तर-ए-अमल आप भी शर्मसार हो मुझ को भी शर्मसार कर " khudii-vo-bahr-hai-jis-kaa-koii-kinaara-nahiin-allama-iqbal-ghazals," ख़ुदी वो बहर है जिस का कोई किनारा नहीं तू आबजू इसे समझा अगर तो चारा नहीं तिलिस्म-ए-गुंबद-ए-गर्दूं को तोड़ सकते हैं ज़ुजाज की ये इमारत है संग-ए-ख़ारा नहीं ख़ुदी में डूबते हैं फिर उभर भी आते हैं मगर ये हौसला-ए-मर्द-ए-हेच-कारा नहीं तिरे मक़ाम को अंजुम-शनास क्या जाने कि ख़ाक-ए-ज़ि़ंदा है तू ताबा-ए-सितारा नहीं यहीं बहिश्त भी है हूर ओ जिबरईल भी है तिरी निगह में अभी शोख़ी-ए-नज़ारा नहीं मिरे जुनूँ ने ज़माने को ख़ूब पहचाना वो पैरहन मुझे बख़्शा कि पारा पारा नहीं ग़ज़ब है ऐन-ए-करम में बख़ील है फ़ितरत कि लाल-ए-नाब में आतिश तो है शरारा नहीं " nigaah-e-faqr-men-shaan-e-sikandarii-kyaa-hai-allama-iqbal-ghazals," निगाह-ए-फ़क़्र में शान-ए-सिकंदरी क्या है ख़िराज की जो गदा हो वो क़ैसरी क्या है बुतों से तुझ को उमीदें ख़ुदा से नौमीदी मुझे बता तो सही और काफ़िरी क्या है फ़लक ने उन को अता की है ख़्वाजगी कि जिन्हें ख़बर नहीं रविश-ए-बंदा-परवरी क्या है फ़क़त निगाह से होता है फ़ैसला दिल का न हो निगाह में शोख़ी तो दिलबरी क्या है इसी ख़ता से इताब-ए-मुलूक है मुझ पर कि जानता हूँ मआल-ए-सिकंदरी क्या है किसे नहीं है तमन्ना-ए-सरवरी लेकिन ख़ुदी की मौत हो जिस में वो सरवरी क्या है ख़ुश आ गई है जहाँ को क़लंदरी मेरी वगर्ना शे'र मिरा क्या है शाइ'री क्या है " be-takalluf-bosa-e-zulf-e-chaliipaa-liijiye-akbar-allahabadi-ghazals," बे-तकल्लुफ़ बोसा-ए-ज़ुल्फ़-ए-चलीपा लीजिए नक़्द-ए-दिल मौजूद है फिर क्यूँ न सौदा लीजिए दिल तो पहले ले चुके अब जान के ख़्वाहाँ हैं आप इस में भी मुझ को नहीं इंकार अच्छा लीजिए पाँव पकड़ कर कहती है ज़ंजीर-ए-ज़िंदाँ में रहो वहशत-ए-दिल का है ईमा राह-ए-सहरा लीजिए ग़ैर को तो कर के ज़िद करते हैं खाने में शरीक मुझ से कहते हैं अगर कुछ भूक हो खा लीजिए ख़ुश-नुमा चीज़ें हैं बाज़ार-ए-जहाँ में बे-शुमार एक नक़द-ए-दिल से या-रब मोल क्या क्या लीजिए कुश्ता आख़िर आतिश-ए-फ़ुर्क़त से होना है मुझे और चंदे सूरत-ए-सीमाब तड़पा लीजिए फ़स्ल-ए-गुल के आते ही 'अकबर' हुए बेहोश आप खोलिए आँखों को साहब जाम-ए-सहबा लीजिए " dil-ho-kharaab-diin-pe-jo-kuchh-asar-pade-akbar-allahabadi-ghazals," दिल हो ख़राब दीन पे जो कुछ असर पड़े अब कार-ए-आशिक़ी तो बहर-कैफ़ कर पड़े इश्क़-ए-बुताँ का दीन पे जो कुछ असर पड़े अब तो निबाहना है जब इक काम कर पड़े मज़हब छुड़ाया इश्वा-ए-दुनिया ने शैख़ से देखी जो रेल ऊँट से आख़िर उतर पड़े बेताबियाँ नसीब न थीं वर्ना हम-नशीं ये क्या ज़रूर था कि उन्हीं पर नज़र पड़े बेहतर यही है क़स्द उधर का करें न वो ऐसा न हो कि राह में दुश्मन का घर पड़े हम चाहते हैं मेल वजूद-ओ-अदम में हो मुमकिन तो है जो बीच में उन की कमर पड़े दाना वही है दिल जो करे आप का ख़याल बीना वही नज़र है कि जो आप पर पड़े होनी न चाहिए थी मोहब्बत मगर हुई पड़ना न चाहिए था ग़ज़ब में मगर पड़े शैतान की न मान जो राहत-नसीब हो अल्लाह को पुकार मुसीबत अगर पड़े ऐ शैख़ उन बुतों की ये चालाकियाँ तो देख निकले अगर हरम से तो 'अकबर' के घर पड़े " gamza-nahiin-hotaa-ki-ishaaraa-nahiin-hotaa-akbar-allahabadi-ghazals," ग़म्ज़ा नहीं होता कि इशारा नहीं होता आँख उन से जो मिलती है तो क्या क्या नहीं होता जल्वा न हो मा'नी का तो सूरत का असर क्या बुलबुल गुल-ए-तस्वीर का शैदा नहीं होता अल्लाह बचाए मरज़-ए-इश्क़ से दिल को सुनते हैं कि ये आरिज़ा अच्छा नहीं होता तश्बीह तिरे चेहरे को क्या दूँ गुल-ए-तर से होता है शगुफ़्ता मगर इतना नहीं होता मैं नज़्अ' में हूँ आएँ तो एहसान है उन का लेकिन ये समझ लें कि तमाशा नहीं होता हम आह भी करते हैं तो हो जाते हैं बदनाम वो क़त्ल भी करते हैं तो चर्चा नहीं होता " shekh-ne-naaquus-ke-sur-men-jo-khud-hii-taan-lii-akbar-allahabadi-ghazals," शेख़ ने नाक़ूस के सुर में जो ख़ुद ही तान ली फिर तो यारों ने भजन गाने की खुल कर ठान ली मुद्दतों क़ाइम रहेंगी अब दिलों में गर्मियाँ मैं ने फोटो ले लिया उस ने नज़र पहचान ली रो रहे हैं दोस्त मेरी लाश पर बे-इख़्तियार ये नहीं दरयाफ़्त करते किस ने इस की जान ली मैं तो इंजन की गले-बाज़ी का क़ाइल हो गया रह गए नग़्मे हुदी-ख़्वानों के ऐसी तान ली हज़रत-ए-'अकबर' के इस्तिक़्लाल का हूँ मो'तरिफ़ ता-ब-मर्ग उस पर रहे क़ाइम जो दिल में ठान ली " na-haasil-huaa-sabr-o-aaraam-dil-kaa-akbar-allahabadi-ghazals," न हासिल हुआ सब्र-ओ-आराम दिल का न निकला कभी तुम से कुछ काम दिल का मोहब्बत का नश्शा रहे क्यूँ न हर-दम भरा है मय-ए-इश्क़ से जाम दिल का फँसाया तो आँखों ने दाम-ए-बला में मगर इश्क़ में हो गया नाम दिल का हुआ ख़्वाब रुस्वा ये इश्क़-ए-बुताँ में ख़ुदा ही है अब मेरे बदनाम दिल का ये बाँकी अदाएँ ये तिरछी निगाहें यही ले गईं सब्र-ओ-आराम दिल का धुआँ पहले उठता था आग़ाज़ था वो हुआ ख़ाक अब ये है अंजाम दिल का जब आग़ाज़-ए-उल्फ़त ही में जल रहा है तो क्या ख़ाक बतलाऊँ अंजाम दिल का ख़ुदा के लिए फेर दो मुझ को साहब जो सरकार में कुछ न हो काम दिल का पस-ए-मर्ग उन पर खुला हाल-ए-उल्फ़त गई ले के रूह अपनी पैग़ाम दिल का तड़पता हुआ यूँ न पाया हमेशा कहूँ क्या मैं आग़ाज़-ओ-अंजाम दिल का दिल उस बे-वफ़ा को जो देते हो 'अकबर' तो कुछ सोच लो पहले अंजाम दिल का " tariiq-e-ishq-men-mujh-ko-koii-kaamil-nahiin-miltaa-akbar-allahabadi-ghazals," तरीक़-ए-इश्क़ में मुझ को कोई कामिल नहीं मिलता गए फ़रहाद ओ मजनूँ अब किसी से दिल नहीं मिलता भरी है अंजुमन लेकिन किसी से दिल नहीं मिलता हमीं में आ गया कुछ नक़्स या कामिल नहीं मिलता पुरानी रौशनी में और नई में फ़र्क़ इतना है उसे कश्ती नहीं मिलती इसे साहिल नहीं मिलता पहुँचना दाद को मज़लूम का मुश्किल ही होता है कभी क़ाज़ी नहीं मिलते कभी क़ातिल नहीं मिलता हरीफ़ों पर ख़ज़ाने हैं खुले याँ हिज्र-ए-गेसू है वहाँ पे बिल है और याँ साँप का भी बिल नहीं मिलता ये हुस्न ओ इश्क़ ही का काम है शुबह करें किस पर मिज़ाज उन का नहीं मिलता हमारा दिल नहीं मिलता छुपा है सीना ओ रुख़ दिल-सिताँ हाथों से करवट में मुझे सोते में भी वो हुस्न से ग़ाफ़िल नहीं मिलता हवास-ओ-होश गुम हैं बहर-ए-इरफ़ान-ए-इलाही में यही दरिया है जिस में मौज को साहिल नहीं मिलता किताब-ए-दिल मुझे काफ़ी है 'अकबर' दर्स-ए-हिकमत को मैं स्पेन्सर से मुस्तग़नी हूँ मुझ से मिल नहीं मिलता " zid-hai-unhen-puuraa-miraa-armaan-na-karenge-akbar-allahabadi-ghazals," ज़िद है उन्हें पूरा मिरा अरमाँ न करेंगे मुँह से जो नहीं निकली है अब हाँ न करेंगे क्यूँ ज़ुल्फ़ का बोसा मुझे लेने नहीं देते कहते हैं कि वल्लाह परेशाँ न करेंगे है ज़ेहन में इक बात तुम्हारे मुतअल्लिक़ ख़ल्वत में जो पूछोगे तो पिन्हाँ न करेंगे वाइज़ तो बनाते हैं मुसलमान को काफ़िर अफ़्सोस ये काफ़िर को मुसलमाँ न करेंगे क्यूँ शुक्र-गुज़ारी का मुझे शौक़ है इतना सुनता हूँ वो मुझ पर कोई एहसाँ न करेंगे दीवाना न समझे हमें वो समझे शराबी अब चाक कभी जेब ओ गरेबाँ न करेंगे वो जानते हैं ग़ैर मिरे घर में है मेहमाँ आएँगे तो मुझ पर कोई एहसाँ न करेंगे " dil-miraa-jis-se-bahaltaa-koii-aisaa-na-milaa-akbar-allahabadi-ghazals," दिल मिरा जिस से बहलता कोई ऐसा न मिला बुत के बंदे मिले अल्लाह का बंदा न मिला बज़्म-ए-याराँ से फिरी बाद-ए-बहारी मायूस एक सर भी उसे आमादा-ए-सौदा न मिला गुल के ख़्वाहाँ तो नज़र आए बहुत इत्र-फ़रोश तालिब-ए-ज़मज़मा-ए-बुलबुल-ए-शैदा न मिला वाह क्या राह दिखाई है हमें मुर्शिद ने कर दिया काबे को गुम और कलीसा न मिला रंग चेहरे का तो कॉलेज ने भी रक्खा क़ाइम रंग-ए-बातिन में मगर बाप से बेटा न मिला सय्यद उट्ठे जो गज़ट ले के तो लाखों लाए शैख़ क़ुरआन दिखाते फिरे पैसा न मिला होशयारों में तो इक इक से सिवा हैं 'अकबर' मुझ को दीवानों में लेकिन कोई तुझ सा न मिला " aankhen-mujhe-talvon-se-vo-malne-nahiin-dete-akbar-allahabadi-ghazals," आँखें मुझे तलवों से वो मलने नहीं देते अरमान मिरे दिल के निकलने नहीं देते ख़ातिर से तिरी याद को टलने नहीं देते सच है कि हमीं दिल को सँभलने नहीं देते किस नाज़ से कहते हैं वो झुँझला के शब-ए-वस्ल तुम तो हमें करवट भी बदलने नहीं देते परवानों ने फ़ानूस को देखा तो ये बोले क्यूँ हम को जलाते हो कि जलने नहीं देते हैरान हूँ किस तरह करूँ अर्ज़-ए-तमन्ना दुश्मन को तो पहलू से वो टलने नहीं देते दिल वो है कि फ़रियाद से लबरेज़ है हर वक़्त हम वो हैं कि कुछ मुँह से निकलने नहीं देते गर्मी-ए-मोहब्बत में वो हैं आह से माने' पंखा नफ़स-ए-सर्द का झलने नहीं देते " huun-main-parvaana-magar-shama-to-ho-raat-to-ho-akbar-allahabadi-ghazals," हूँ मैं परवाना मगर शम्अ तो हो रात तो हो जान देने को हूँ मौजूद कोई बात तो हो दिल भी हाज़िर सर-ए-तस्लीम भी ख़म को मौजूद कोई मरकज़ हो कोई क़िबला-ए-हाजात तो हो दिल तो बेचैन है इज़हार-ए-इरादत के लिए किसी जानिब से कुछ इज़हार-ए-करामात तो हो दिल-कुशा बादा-ए-साफ़ी का किसे ज़ौक़ नहीं बातिन-अफ़रोज़ कोई पीर-ए-ख़राबात तो हो गुफ़्तनी है दिल-ए-पुर-दर्द का क़िस्सा लेकिन किस से कहिए कोई मुस्तफ़्सिर-ए-हालात तो हो दास्तान-ए-ग़म-ए-दिल कौन कहे कौन सुने बज़्म में मौक़ा-ए-इज़हार-ए-ख़यालात तो हो वादे भी याद दिलाते हैं गिले भी हैं बहुत वो दिखाई भी तो दें उन से मुलाक़ात तो हो कोई वाइ'ज़ नहीं फ़ितरत से बलाग़त में सिवा मगर इंसान में कुछ फ़हम-ए-इशारात तो हो " dard-to-maujuud-hai-dil-men-davaa-ho-yaa-na-ho-akbar-allahabadi-ghazals," दर्द तो मौजूद है दिल में दवा हो या न हो बंदगी हालत से ज़ाहिर है ख़ुदा हो या न हो झूमती है शाख़-ए-गुल खिलते हैं ग़ुंचे दम-ब-दम बा-असर गुलशन में तहरीक-ए-सबा हो या न हो वज्द में लाते हैं मुझ को बुलबुलों के ज़मज़मे आप के नज़दीक बा-मअ'नी सदा हो या न हो कर दिया है ज़िंदगी ने बज़्म-ए-हस्ती में शरीक उस का कुछ मक़्सूद कोई मुद्दआ हो या न हो क्यूँ सिवल-सर्जन का आना रोकता है हम-नशीं इस में है इक बात ऑनर की शिफ़ा हो या न हो मौलवी साहिब न छोड़ेंगे ख़ुदा गो बख़्श दे घेर ही लेंगे पुलिस वाले सज़ा हो या न हो मिमबरी से आप पर तो वार्निश हो जाएगी क़ौम की हालत में कुछ इस से जिला हो या न हो मो'तरिज़ क्यूँ हो अगर समझे तुम्हें सय्याद दिल ऐसे गेसू हूँ तो शुबह दाम का हो या न हो " har-qadam-kahtaa-hai-tuu-aayaa-hai-jaane-ke-liye-akbar-allahabadi-ghazals-3," हर क़दम कहता है तू आया है जाने के लिए मंज़िल-ए-हस्ती नहीं है दिल लगाने के लिए क्या मुझे ख़ुश आए ये हैरत-सरा-ए-बे-सबात होश उड़ने के लिए है जान जाने के लिए दिल ने देखा है बिसात-ए-क़ुव्वत-ए-इदराक को क्या बढ़े इस बज़्म में आँखें उठाने के लिए ख़ूब उम्मीदें बंधीं लेकिन हुईं हिरमाँ नसीब बदलियाँ उट्ठीं मगर बिजली गिराने के लिए साँस की तरकीब पर मिट्टी को प्यार आ ही गया ख़ुद हुई क़ैद उस को सीने से लगाने के लिए जब कहा मैं ने भुला दो ग़ैर को हँस कर कहा याद फिर मुझ को दिलाना भूल जाने के लिए दीदा-बाज़ी वो कहाँ आँखें रहा करती हैं बंद जान ही बाक़ी नहीं अब दिल लगाने के लिए मुझ को ख़ुश आई है मस्ती शैख़ जी को फ़रबही मैं हूँ पीने के लिए और वो हैं खाने के लिए अल्लाह अल्लाह के सिवा आख़िर रहा कुछ भी न याद जो किया था याद सब था भूल जाने के लिए सुर कहाँ के साज़ कैसा कैसी बज़्म-ए-सामईन जोश-ए-दिल काफ़ी है 'अकबर' तान उड़ाने के लिए " aaj-aaraaish-e-gesuu-e-dotaa-hotii-hai-akbar-allahabadi-ghazals," आज आराइश-ए-गेसू-ए-दोता होती है फिर मिरी जान गिरफ़्तार-ए-बला होती है शौक़-ए-पा-बोसी-ए-जानाँ मुझे बाक़ी है हनूज़ घास जो उगती है तुर्बत पे हिना होती है फिर किसी काम का बाक़ी नहीं रहता इंसाँ सच तो ये है कि मोहब्बत भी बला होती है जो ज़मीं कूचा-ए-क़ातिल में निकलती है नई वक़्फ़ वो बहर-ए-मज़ार-ए-शोहदा होती है जिस ने देखी हो वो चितवन कोई उस से पूछे जान क्यूँ-कर हदफ़-ए-तीर-ए-क़ज़ा होती है नज़्अ' का वक़्त बुरा वक़्त है ख़ालिक़ की पनाह है वो साअ'त कि क़यामत से सिवा होती है रूह तो एक तरफ़ होती है रुख़्सत तन से आरज़ू एक तरफ़ दिल से जुदा होती है ख़ुद समझता हूँ कि रोने से भला क्या हासिल पर करूँ क्या यूँही तस्कीन ज़रा होती है रौंदते फिरते हैं वो मजमा-ए-अग़्यार के साथ ख़ूब तौक़ीर-ए-मज़ार-ए-शोहदा होती है मुर्ग़-ए-बिस्मिल की तरह लोट गया दिल मेरा निगह-ए-नाज़ की तासीर भी क्या होती है नाला कर लेने दें लिल्लाह न छेड़ें अहबाब ज़ब्त करता हूँ तो तकलीफ़ सिवा होती है जिस्म तो ख़ाक में मिल जाते हुए देखते हैं रूह क्या जाने किधर जाती है क्या होती है हूँ फ़रेब-ए-सितम-ए-यार का क़ाइल 'अकबर' मरते मरते न खुला ये कि जफ़ा होती है " phir-gaii-aap-kii-do-din-men-tabiiat-kaisii-akbar-allahabadi-ghazals," फिर गई आप की दो दिन में तबीअ'त कैसी ये वफ़ा कैसी थी साहब ये मुरव्वत कैसी दोस्त अहबाब से हँस बोल के कट जाएगी रात रिंद-ए-आज़ाद हैं हम को शब-ए-फ़ुर्क़त कैसी जिस हसीं से हुई उल्फ़त वही माशूक़ अपना इश्क़ किस चीज़ को कहते हैं तबीअ'त कैसी है जो क़िस्मत में वही होगा न कुछ कम न सिवा आरज़ू कहते हैं किस चीज़ को हसरत कैसी हाल खुलता नहीं कुछ दिल के धड़कने का मुझे आज रह रह के भर आती है तबीअ'त कैसी कूचा-ए-यार में जाता तो नज़ारा करता क़ैस आवारा है जंगल में ये वहशत कैसी " halqe-nahiin-hain-zulf-ke-halqe-hain-jaal-ke-akbar-allahabadi-ghazals," हल्क़े नहीं हैं ज़ुल्फ़ के हल्क़े हैं जाल के हाँ ऐ निगाह-ए-शौक़ ज़रा देख-भाल के पहुँचे हैं ता-कमर जो तिरे गेसू-ए-रसा मा'नी ये हैं कमर भी बराबर है बाल के बोस-ओ-कनार-ओ-वस्ल-ए-हसीनाँ है ख़ूब शग़्ल कमतर बुज़ुर्ग होंगे ख़िलाफ़ इस ख़याल के क़ामत से तेरे साने-ए-क़ुदरत ने ऐ हसीं दिखला दिया है हश्र को साँचे में ढाल के शान-ए-दिमाग़ इश्क़ के जल्वे से ये बढ़ी रखता है होश भी क़दम अपने सँभाल के ज़ीनत मुक़द्दमा है मुसीबत का दहर में सब शम्अ' को जलाते हैं साँचे में ढाल के हस्ती के हक़ के सामने क्या अस्ल-ए-ईन-ओ-आँ पुतले ये सब हैं आप के वहम-ओ-ख़याल के तलवार ले के उठता है हर तालिब-ए-फ़रोग़ दौर-ए-फ़लक में हैं ये इशारे हिलाल के पेचीदा ज़िंदगी के करो तुम मुक़द्दमे दिखला ही देगी मौत नतीजा निकाल के " charkh-se-kuchh-umiid-thii-hii-nahiin-akbar-allahabadi-ghazals," चर्ख़ से कुछ उमीद थी ही नहीं आरज़ू मैं ने कोई की ही नहीं मज़हबी बहस मैं ने की ही नहीं फ़ालतू अक़्ल मुझ में थी ही नहीं चाहता था बहुत सी बातों को मगर अफ़्सोस अब वो जी ही नहीं जुरअत-ए-अर्ज़-ए-हाल क्या होती नज़र-ए-लुत्फ़ उस ने की ही नहीं इस मुसीबत में दिल से क्या कहता कोई ऐसी मिसाल थी ही नहीं आप क्या जानें क़द्र-ए-या-अल्लाह जब मुसीबत कोई पड़ी ही नहीं शिर्क छोड़ा तो सब ने छोड़ दिया मेरी कोई सोसाइटी ही नहीं पूछा 'अकबर' है आदमी कैसा हँस के बोले वो आदमी ही नहीं " bahut-rahaa-hai-kabhii-lutf-e-yaar-ham-par-bhii-akbar-allahabadi-ghazals," बहुत रहा है कभी लुत्फ़-ए-यार हम पर भी गुज़र चुकी है ये फ़स्ल-ए-बहार हम पर भी उरूस-ए-दहर को आया था प्यार हम पर भी ये बेसवा थी किसी शब निसार हम पर भी बिठा चुका है ज़माना हमें भी मसनद पर हुआ किए हैं जवाहिर निसार हम पर भी अदू को भी जो बनाया है तुम ने महरम-ए-राज़ तो फ़ख़्र क्या जो हुआ ए'तिबार हम पर भी ख़ता किसी की हो लेकिन खुली जो उन की ज़बाँ तो हो ही जाते हैं दो एक वार हम पर भी हम ऐसे रिंद मगर ये ज़माना है वो ग़ज़ब कि डाल ही दिया दुनिया का बार हम पर भी हमें भी आतिश-ए-उल्फ़त जला चुकी 'अकबर' हराम हो गई दोज़ख़ की नार हम पर भी " ummiid-tuutii-huii-hai-merii-jo-dil-miraa-thaa-vo-mar-chukaa-hai-akbar-allahabadi-ghazals," उम्मीद टूटी हुई है मेरी जो दिल मिरा था वो मर चुका है जो ज़िंदगानी को तल्ख़ कर दे वो वक़्त मुझ पर गुज़र चुका है अगरचे सीने में साँस भी है नहीं तबीअत में जान बाक़ी अजल को है देर इक नज़र की फ़लक तो काम अपना कर चुका है ग़रीब-ख़ाने की ये उदासी ये ना-दुरुस्ती नहीं क़दीमी चहल पहल भी कभी यहाँ थी कभी ये घर भी सँवर चुका है ये सीना जिस में ये दाग़ में अब मसर्रतों का कभी था मख़्ज़न वो दिल जो अरमान से भरा था ख़ुशी से उस में ठहर चुका है ग़रीब अकबर के गर्द क्यूँ में ख़याल वाइ'ज़ से कोई कह दे उसे डराते हो मौत से क्या वो ज़िंदगी ही से डर चुका है " ishq-e-but-men-kufr-kaa-mujh-ko-adab-karnaa-padaa-akbar-allahabadi-ghazals," इश्क़-ए-बुत में कुफ़्र का मुझ को अदब करना पड़ा जो बरहमन ने कहा आख़िर वो सब करना पड़ा सब्र करना फ़ुर्क़त-ए-महबूब में समझे थे सहल खुल गया अपनी समझ का हाल जब करना पड़ा तजरबे ने हुब्ब-ए-दुनिया से सिखाया एहतिराज़ पहले कहते थे फ़क़त मुँह से और अब करना पड़ा शैख़ की मज्लिस में भी मुफ़्लिस की कुछ पुर्सिश नहीं दीन की ख़ातिर से दुनिया को तलब करना पड़ा क्या कहूँ बे-ख़ुद हुआ मैं किस निगाह-ए-मस्त से अक़्ल को भी मेरी हस्ती का अदब करना पड़ा इक़तिज़ा फ़ितरत का रुकता है कहीं ऐ हम-नशीं शैख़-साहिब को भी आख़िर कार-ए-शब करना पड़ा आलम-ए-हस्ती को था मद्द-ए-नज़र कत्मान-ए-राज़ एक शय को दूसरी शय का सबब करना पड़ा शेर ग़ैरों के उसे मुतलक़ नहीं आए पसंद हज़रत-ए-'अकबर' को बिल-आख़िर तलब करना पड़ा " dil-e-maayuus-men-vo-shorishen-barpaa-nahiin-hotiin-akbar-allahabadi-ghazals," दिल-ए-मायूस में वो शोरिशें बरपा नहीं होतीं उमीदें इस क़दर टूटीं कि अब पैदा नहीं होतीं मिरी बेताबियाँ भी जुज़्व हैं इक मेरी हस्ती की ये ज़ाहिर है कि मौजें ख़ारिज अज़ दरिया नहीं होतीं वही परियाँ हैं अब भी राजा इन्दर के अखाड़े में मगर शहज़ादा-ए-गुलफ़ाम पर शैदा नहीं होतीं यहाँ की औरतों को इल्म की पर्वा नहीं बे-शक मगर ये शौहरों से अपने बे-परवा नहीं होतीं तअ'ल्लुक़ दिल का क्या बाक़ी मैं रक्खूँ बज़्म-ए-दुनिया से वो दिलकश सूरतें अब अंजुमन-आरा नहीं होतीं हुआ हूँ इस क़दर अफ़्सुर्दा रंग-ए-बाग़-ए-हस्ती से हवाएँ फ़स्ल-ए-गुल की भी नशात-अफ़्ज़ा नहीं होतीं क़ज़ा के सामने बे-कार होते हैं हवास 'अकबर' खुली होती हैं गो आँखें मगर बीना नहीं होतीं " hayaa-se-sar-jhukaa-lenaa-adaa-se-muskuraa-denaa-akbar-allahabadi-ghazals," हया से सर झुका लेना अदा से मुस्कुरा देना हसीनों को भी कितना सहल है बिजली गिरा देना ये तर्ज़ एहसान करने का तुम्हीं को ज़ेब देता है मरज़ में मुब्तला कर के मरीज़ों को दवा देना बलाएँ लेते हैं उन की हम उन पर जान देते हैं ये सौदा दीद के क़ाबिल है क्या लेना है क्या देना ख़ुदा की याद में महवियत-ए-दिल बादशाही है मगर आसाँ नहीं है सारी दुनिया को भुला देना " apnii-girah-se-kuchh-na-mujhe-aap-diijiye-akbar-allahabadi-ghazals," अपनी गिरह से कुछ न मुझे आप दीजिए अख़बार में तो नाम मिरा छाप दीजिए देखो जिसे वो पाइनियर ऑफ़िस में है डटा बहर-ए-ख़ुदा मुझे भी कहीं छाप दीजिए चश्म-ए-जहाँ से हालत-ए-असली छुपी नहीं अख़बार में जो चाहिए वो छाप दीजिए दा'वा बहुत बड़ा है रियाज़ी में आप को तूल-ए-शब-ए-फ़िराक़ को तो नाप दीजिए सुनते नहीं हैं शैख़ नई रौशनी की बात इंजन की उन के कान में अब भाप दीजिए इस बुत के दर पे ग़ैर से 'अकबर' ने कह दिया ज़र ही मैं देने लाया हूँ जान आप दीजिए " duniyaa-men-huun-duniyaa-kaa-talabgaar-nahiin-huun-akbar-allahabadi-ghazals," दुनिया में हूँ दुनिया का तलबगार नहीं हूँ बाज़ार से गुज़रा हूँ ख़रीदार नहीं हूँ ज़िंदा हूँ मगर ज़ीस्त की लज़्ज़त नहीं बाक़ी हर-चंद कि हूँ होश में हुश्यार नहीं हूँ इस ख़ाना-ए-हस्ती से गुज़र जाऊँगा बे-लौस साया हूँ फ़क़त नक़्श-ब-दीवार नहीं हूँ अफ़्सुर्दा हूँ इबरत से दवा की नहीं हाजत ग़म का मुझे ये ज़ोफ़ है बीमार नहीं हूँ वो गुल हूँ ख़िज़ाँ ने जिसे बर्बाद किया है उलझूँ किसी दामन से मैं वो ख़ार नहीं हूँ या रब मुझे महफ़ूज़ रख उस बुत के सितम से मैं उस की इनायत का तलबगार नहीं हूँ गो दावा-ए-तक़्वा नहीं दरगाह-ए-ख़ुदा में बुत जिस से हों ख़ुश ऐसा गुनहगार नहीं हूँ अफ़्सुर्दगी ओ ज़ोफ़ की कुछ हद नहीं 'अकबर' काफ़िर के मुक़ाबिल में भी दीं-दार नहीं हूँ " khushii-hai-sab-ko-ki-operation-men-khuub-nishtar-ye-chal-rahaa-hai-akbar-allahabadi-ghazals," ख़ुशी है सब को कि ऑपरेशन में ख़ूब निश्तर ये चल रहा है किसी को इस की ख़बर नहीं है मरीज़ का दम निकल रहा है फ़ना इसी रंग पर है क़ाइम फ़लक वही चाल चल रहा है शिकस्ता ओ मुंतशिर है वो कल जो आज साँचे में ढल रहा है ये देखते हो जो कासा-ए-सर ग़ुरूर-ए-ग़फ़लत से कल था ममलू यही बदन नाज़ से पला था जो आज मिट्टी में गल रहा है समझ हो जिस की बलीग़ समझे नज़र हो जिस की वसीअ' देखे अभी यहाँ ख़ाक भी उड़ेगी जहाँ ये क़ुल्ज़ुम उबल रहा है कहाँ का शर्क़ी कहाँ का ग़र्बी तमाम दुख सुख है ये मसावी यहाँ भी इक बा-मुराद ख़ुश है वहाँ भी इक ग़म से जल रहा है उरूज-ए-क़ौमी ज़वाल-ए-क़ौमी ख़ुदा की क़ुदरत के हैं करिश्मे हमेशा रद्द-ओ-बदल के अंदर ये अम्र पोलिटिकल रहा है मज़ा है स्पीच का डिनर में ख़बर ये छपती है पाइनियर में फ़लक की गर्दिश के साथ ही साथ काम यारों का चल रहा है " vo-havaa-na-rahii-vo-chaman-na-rahaa-vo-galii-na-rahii-vo-hasiin-na-rahe-akbar-allahabadi-ghazals," वो हवा न रही वो चमन न रहा वो गली न रही वो हसीं न रहे वो फ़लक न रहा वो समाँ न रहा वो मकाँ न रहे वो मकीं न रहे वो गुलों में गुलों की सी बू न रही वो अज़ीज़ों में लुत्फ़ की ख़ू न रही वो हसीनों में रंग-ए-वफ़ा न रहा कहें और की क्या वो हमीं न रहे न वो आन रही न उमंग रही न वो रिंदी ओ ज़ोहद की जंग रही सू-ए-क़िबला निगाहों के रुख़ न रहे और दर पे नक़्श-ए-जबीं न रहे न वो जाम रहे न वो मस्त रहे न फ़िदाई-ए-अहद-ए-अलस्त रहे वो तरीक़ा-ए-कार-ए-जहाँ न रहा वो मशाग़िल-ए-रौनक़-ए-दीं न रहे हमें लाख ज़माना लुभाए तो क्या नए रंग जो चर्ख़ दिखाए तो क्या ये मुहाल है अहल-ए-वफ़ा के लिए ग़म-ए-मिल्लत ओ उल्फ़त-ए-दीं न रहे तिरे कूचा-ए-ज़ुल्फ़ में दिल है मिरा अब उसे मैं समझता हूँ दाम-ए-बला ये अजीब सितम है अजीब जफ़ा कि यहाँ न रहे तो कहीं न रहे ये तुम्हारे ही दम से है बज़्म-ए-तरब अभी जाओ न तुम न करो ये ग़ज़ब कोई बैठ के लुत्फ़ उठाएगा क्या कि जो रौनक़-ए-बज़्म तुम्हीं न रहे जो थीं चश्म-ए-फ़लक की भी नूर-ए-नज़र वही जिन पे निसार थे शम्स ओ क़मर सो अब ऐसी मिटी हैं वो अंजुमनें कि निशान भी उन के कहीं न रहे वही सूरतें रह गईं पेश-ए-नज़र जो ज़माने को फेरें इधर से उधर मगर ऐसे जमाल-ए-जहाँ-आरा जो थे रौनक़-ए-रू-ए-ज़मीं न रहे ग़म ओ रंज में 'अकबर' अगर है घिरा तो समझ ले कि रंज को भी है फ़ना किसी शय को नहीं है जहाँ में बक़ा वो ज़ियादा मलूल ओ हज़ीं न रहे " khudaa-alii-gadh-ke-madrase-ko-tamaam-amraaz-se-shifaa-de-akbar-allahabadi-ghazals," ख़ुदा अलीगढ़ के मदरसे को तमाम अमराज़ से शिफ़ा दे भरे हुए हैं रईस-ज़ादे अमीर-ज़ादे शरीफ़-ज़ादे लतीफ़ ओ ख़ुश-वज़्अ चुस्त-ओ-चालाक ओ साफ़-ओ-पाकीज़ा शाद-ओ-ख़ुर्रम तबीअतों में है उन की जौदत दिलों में उन के हैं नेक इरादे कमाल मेहनत से पढ़ रहे हैं कमाल ग़ैरत से बढ़ रहे हैं सवार मशरिक़ की राह में हैं तो मग़रिबी राह में पियादे हर इक है उन में का बे-शक ऐसा कि आप उसे जानते हैं जैसा दिखाए महफ़िल में क़द्द-ए-रअना जो आप आएँ तो सर झुका दे फ़क़ीर माँगें तो साफ़ कह दें कि तू है मज़बूत जा कमा खा क़ुबूल फ़रमाएँ आप दावत तो अपना सरमाया कुल खिला दे बुतों से उन को नहीं लगावट मिसों की लेते नहीं वो आहट तमाम क़ुव्वत है सर्फ़-ए-ख़्वाँदन नज़र के भोले हैं दिल की सादे नज़र भी आए जो ज़ुल्फ़-ए-पेचाँ तो समझें ये कोई पालिसी है इलेक्ट्रिक लाईट उस को समझें जो बर्क़-वश कोई कोई दे निकलते हैं कर के ग़ोल-बंदी ब-नाम-ए-तहज़ीब ओ दर्द-मंदी ये कह के लेते हैं सब से चंदे हमें जो तुम दो तुम्हें ख़ुदा दे उन्हें इसी बात पर यक़ीन है कि बस यही असल कार-ए-दीं है इसी सी होगा फ़रोग़-ए-क़ौमी इसी से चमकेंगे बाप दादे मकान-ए-कॉलेज के सब मकीं हैं अभी उन्हें तजरबे नहीं हैं ख़बर नहीं है कि आगे चल कर है कैसी मंज़िल हैं कैसी जादे दिलों में उन के है नूर-ए-ईमाँ क़वी नहीं है मगर निगहबाँ हवा-ए-मंतिक़ अदा-ए-तिफ़ली ये शम्अ ऐसा न हो बुझा दे फ़रेब दे कर निकाले मतलब सिखाए तहक़ीर-ए-दीन-ओ-मज़हब मिटा दे आख़िर को वज़-ए-मिल्लत नुमूद-ए-ज़ाती को गर बढ़ा दे यही बस 'अकबर' की इल्तिजा है जनाब-ए-बारी में ये दुआ है उलूम-ओ-हिकमत का दर्स उन को प्रोफ़ेसर दें समझ ख़ुदा दे " ik-bosa-diijiye-miraa-iimaan-liijiye-akbar-allahabadi-ghazals," इक बोसा दीजिए मिरा ईमान लीजिए गो बुत हैं आप बहर-ए-ख़ुदा मान लीजिए दिल ले के कहते हैं तिरी ख़ातिर से ले लिया उल्टा मुझी पे रखते हैं एहसान लीजिए ग़ैरों को अपने हाथ से हँस कर खिला दिया मुझ से कबीदा हो के कहा पान लीजिए मरना क़ुबूल है मगर उल्फ़त नहीं क़ुबूल दिल तो न दूँगा आप को मैं जान लीजिए हाज़िर हुआ करूँगा मैं अक्सर हुज़ूर में आज अच्छी तरह से मुझे पहचान लीजिए " hangaama-hai-kyuun-barpaa-thodii-sii-jo-pii-lii-hai-akbar-allahabadi-ghazals," हंगामा है क्यूँ बरपा थोड़ी सी जो पी ली है डाका तो नहीं मारा चोरी तो नहीं की है ना-तजरबा-कारी से वाइ'ज़ की ये हैं बातें इस रंग को क्या जाने पूछो तो कभी पी है उस मय से नहीं मतलब दिल जिस से है बेगाना मक़्सूद है उस मय से दिल ही में जो खिंचती है ऐ शौक़ वही मय पी ऐ होश ज़रा सो जा मेहमान-ए-नज़र इस दम एक बर्क़-ए-तजल्ली है वाँ दिल में कि सदमे दो याँ जी में कि सब सह लो उन का भी अजब दिल है मेरा भी अजब जी है हर ज़र्रा चमकता है अनवार-ए-इलाही से हर साँस ये कहती है हम हैं तो ख़ुदा भी है सूरज में लगे धब्बा फ़ितरत के करिश्मे हैं बुत हम को कहें काफ़िर अल्लाह की मर्ज़ी है तालीम का शोर ऐसा तहज़ीब का ग़ुल इतना बरकत जो नहीं होती निय्यत की ख़राबी है सच कहते हैं शैख़ 'अकबर' है ताअत-ए-हक़ लाज़िम हाँ तर्क-ए-मय-ओ-शाहिद ये उन की बुज़ुर्गी है " jo-tumhaare-lab-e-jaan-bakhsh-kaa-shaidaa-hogaa-akbar-allahabadi-ghazals," जो तुम्हारे लब-ए-जाँ-बख़्श का शैदा होगा उठ भी जाएगा जहाँ से तो मसीहा होगा वो तो मूसा हुआ जो तालिब-ए-दीदार हुआ फिर वो क्या होगा कि जिस ने तुम्हें देखा होगा क़ैस का ज़िक्र मिरे शान-ए-जुनूँ के आगे अगले वक़्तों का कोई बादिया-पैमा होगा आरज़ू है मुझे इक शख़्स से मिलने की बहुत नाम क्या लूँ कोई अल्लाह का बंदा होगा लाल-ए-लब का तिरे बोसा तो मैं लेता हूँ मगर डर ये है ख़ून-ए-जिगर बाद में पीना होगा " jazba-e-dil-ne-mire-taasiir-dikhlaaii-to-hai-akbar-allahabadi-ghazals," जज़्बा-ए-दिल ने मिरे तासीर दिखलाई तो है घुंघरूओं की जानिब-ए-दर कुछ सदा आई तो है इश्क़ के इज़हार में हर-चंद रुस्वाई तो है पर करूँ क्या अब तबीअत आप पर आई तो है आप के सर की क़सम मेरे सिवा कोई नहीं बे-तकल्लुफ़ आइए कमरे में तन्हाई तो है जब कहा मैं ने तड़पता है बहुत अब दिल मिरा हंस के फ़रमाया तड़पता होगा सौदाई तो है देखिए होती है कब राही सू-ए-मुल्क-ए-अदम ख़ाना-ए-तन से हमारी रूह घबराई तो है दिल धड़कता है मिरा लूँ बोसा-ए-रुख़ या न लूँ नींद में उस ने दुलाई मुँह से सरकाई तो है देखिए लब तक नहीं आती गुल-ए-आरिज़ की याद सैर-ए-गुलशन से तबीअ'त हम ने बहलाई तो है मैं बला में क्यूँ फँसूँ दीवाना बन कर उस के साथ दिल को वहशत हो तो हो कम्बख़्त सौदाई तो है ख़ाक में दिल को मिलाया जल्वा-ए-रफ़्तार से क्यूँ न हो ऐ नौजवाँ इक शान-ए-रानाई तो है यूँ मुरव्वत से तुम्हारे सामने चुप हो रहें कल के जलसों की मगर हम ने ख़बर पाई तो है बादा-ए-गुल-रंग का साग़र इनायत कर मुझे साक़िया ताख़ीर क्या है अब घटा छाई तो है जिस की उल्फ़त पर बड़ा दावा था कल 'अकबर' तुम्हें आज हम जा कर उसे देख आए हरजाई तो है " jahaan-men-haal-miraa-is-qadar-zabuun-huaa-akbar-allahabadi-ghazals," जहाँ में हाल मिरा इस क़दर ज़बून हुआ कि मुझ को देख के बिस्मिल को भी सुकून हुआ ग़रीब दिल ने बहुत आरज़ूएँ पैदा कीं मगर नसीब का लिक्खा कि सब का ख़ून हुआ वो अपने हुस्न से वाक़िफ़ मैं अपनी अक़्ल से सैर उन्हों ने होश सँभाला मुझे जुनून हुआ उम्मीद-ए-चश्म-ए-मुरव्वत कहाँ रही बाक़ी ज़रीया बातों का जब सिर्फ़ टेलीफ़ोन हुआ निगाह-ए-गर्म क्रिसमस में भी रही हम पर हमारे हक़ में दिसम्बर भी माह-ए-जून हुआ " tirii-zulfon-men-dil-uljhaa-huaa-hai-akbar-allahabadi-ghazals," तिरी ज़ुल्फ़ों में दिल उलझा हुआ है बला के पेच में आया हुआ है न क्यूँकर बू-ए-ख़ूँ नामे से आए उसी जल्लाद का लिक्खा हुआ है चले दुनिया से जिस की याद में हम ग़ज़ब है वो हमें भूला हुआ है कहूँ क्या हाल अगली इशरतों का वो था इक ख़्वाब जो भूला हुआ है जफ़ा हो या वफ़ा हम सब में ख़ुश हैं करें क्या अब तो दिल अटका हुआ है हुई है इश्क़ ही से हुस्न की क़द्र हमीं से आप का शोहरा हुआ है बुतों पर रहती है माइल हमेशा तबीअत को ख़ुदाया क्या हुआ है परेशाँ रहते हो दिन रात 'अकबर' ये किस की ज़ुल्फ़ का सौदा हुआ है " na-bahte-ashk-to-taasiir-men-sivaa-hote-akbar-allahabadi-ghazals," न बहते अश्क तो तासीर में सिवा होते सदफ़ में रहते ये मोती तो बे-बहा होते मुझ ऐसे रिंद से रखते ज़रूर ही उल्फ़त जनाब-ए-शैख़ अगर आशिक़-ए-ख़ुदा होते गुनाहगारों ने देखा जमाल-ए-रहमत को कहाँ नसीब ये होता जो बे-ख़ता होते जनाब-ए-हज़रत-ए-नासेह का वाह क्या कहना जो एक बात न होती तो औलिया होते मज़ाक़-ए-इश्क़ नहीं शेख़ में ये है अफ़्सोस ये चाशनी भी जो होती तो क्या से क्या होते महल्ल-ए-शुक्र हैं 'अकबर' ये दरफ़शाँ नज़्में हर इक ज़बाँ को ये मोती नहीं अता होते " khatm-kiyaa-sabaa-ne-raqs-gul-pe-nisaar-ho-chukii-akbar-allahabadi-ghazals," ख़त्म किया सबा ने रक़्स गुल पे निसार हो चुकी जोश-ए-नशात हो चुका सौत-ए-हज़ार हो चुकी रंग-ए-बनफ़शा मिट गया सुंबुल-ए-तर नहीं रहा सेहन-ए-चमन में ज़ीनत-ए-नक़्श-ओ-निगार हो चुकी मस्ती-ए-लाला अब कहाँ उस का प्याला अब कहाँ दौर-ए-तरब गुज़र गया आमद-ए-यार हो चुकी रुत वो जो थी बदल गई आई बस और निकल गई थी जो हवा में निकहत-ए-मुश्क-ए-ततार हो चुकी अब तक उसी रविश पे है 'अकबर'-ए-मस्त-ओ-बे-ख़बर कह दे कोई अज़ीज़-ए-मन फ़स्ल-ए-बहार हो चुकी " saans-lete-hue-bhii-dartaa-huun-akbar-allahabadi-ghazals," साँस लेते हुए भी डरता हूँ ये न समझें कि आह करता हूँ बहर-ए-हस्ती में हूँ मिसाल-ए-हबाब मिट ही जाता हूँ जब उभरता हूँ इतनी आज़ादी भी ग़नीमत है साँस लेता हूँ बात करता हूँ शैख़ साहब ख़ुदा से डरते हों मैं तो अंग्रेज़ों ही से डरता हूँ आप क्या पूछते हैं मेरा मिज़ाज शुक्र अल्लाह का है मरता हूँ ये बड़ा ऐब मुझ में है 'अकबर' दिल में जो आए कह गुज़रता हूँ " aah-jo-dil-se-nikaalii-jaaegii-akbar-allahabadi-ghazals," आह जो दिल से निकाली जाएगी क्या समझते हो कि ख़ाली जाएगी इस नज़ाकत पर ये शमशीर-ए-जफ़ा आप से क्यूँकर सँभाली जाएगी क्या ग़म-ए-दुनिया का डर मुझ रिंद को और इक बोतल चढ़ा ली जाएगी शैख़ की दावत में मय का काम क्या एहतियातन कुछ मँगा ली जाएगी याद-ए-अबरू में है 'अकबर' महव यूँ कब तिरी ये कज-ख़याली जाएगी " na-ruuh-e-mazhab-na-qalb-e-aarif-na-shaairaana-zabaan-baaqii-akbar-allahabadi-ghazals," न रूह-ए-मज़हब न क़ल्ब-ए-आरिफ़ न शाइ'राना ज़बान बाक़ी ज़मीं हमारी बदल गई है अगरचे है आसमान बाक़ी शब-ए-गुज़िश्ता के साज़ ओ सामाँ के अब कहाँ हैं निशान बाक़ी ज़बान-ए-शमा-ए-सहर पे हसरत की रह गई दास्तान बाक़ी जो ज़िक्र आता है आख़िरत का तो आप होते हैं साफ़ मुनकिर ख़ुदा की निस्बत भी देखता हूँ यक़ीन रुख़्सत गुमान बाक़ी फ़ुज़ूल है उन की बद-दिमाग़ी कहाँ है फ़रियाद अब लबों पर ये वार पर वार अब अबस हैं कहाँ बदन में है जान बाक़ी मैं अपने मिटने के ग़म में नालाँ उधर ज़माना है शाद ओ ख़ंदाँ इशारा करती है चश्म-ए-दौराँ जो आन बाक़ी जहान बाक़ी इसी लिए रह गई हैं आँखें कि मेरे मिटने का रंग देखें सुनूँ वो बातें जो होश उड़ाएँ इसी लिए हैं ये कान बाक़ी तअ'ज्जुब आता है तिफ़्ल-ए-दिल पर कि हो गया मस्त-ए-नज़्म-ए-'अकबर' अभी मिडिल पास तक नहीं है बहुत से हैं इम्तिहान बाक़ी " unhen-nigaah-hai-apne-jamaal-hii-kii-taraf-akbar-allahabadi-ghazals," उन्हें निगाह है अपने जमाल ही की तरफ़ नज़र उठा के नहीं देखते किसी की तरफ़ तवज्जोह अपनी हो क्या फ़न्न-ए-शाइरी की तरफ़ नज़र हर एक की जाती है ऐब ही की तरफ़ लिखा हुआ है जो रोना मिरे मुक़द्दर में ख़याल तक नहीं जाता कभी हँसी की तरफ़ तुम्हारा साया भी जो लोग देख लेते हैं वो आँख उठा के नहीं देखते परी की तरफ़ बला में फँसता है दिल मुफ़्त जान जाती है ख़ुदा किसी को न ले जाए उस गली की तरफ़ कभी जो होती है तकरार ग़ैर से हम से तो दिल से होते हो दर-पर्दा तुम उसी की तरफ़ निगाह पड़ती है उन पर तमाम महफ़िल की वो आँख उठा के नहीं देखते किसी की तरफ़ निगाह उस बुत-ए-ख़ुद-बीं की है मिरे दिल पर न आइने की तरफ़ है न आरसी की तरफ़ क़ुबूल कीजिए लिल्लाह तोहफ़ा-ए-दिल को नज़र न कीजिए इस की शिकस्तगी की तरफ़ यही नज़र है जो अब क़ातिल-ए-ज़माना हुई यही नज़र है कि उठती न थी किसी की तरफ़ ग़रीब-ख़ाना में लिल्लाह दो-घड़ी बैठो बहुत दिनों में तुम आए हो इस गली की तरफ़ ज़रा सी देर ही हो जाएगी तो क्या होगा घड़ी घड़ी न उठाओ नज़र घड़ी की तरफ़ जो घर में पूछे कोई ख़ौफ़ क्या है कह देना चले गए थे टहलते हुए किसी की तरफ़ हज़ार जल्वा-ए-हुस्न-ए-बुताँ हो ऐ 'अकबर' तुम अपना ध्यान लगाए रहो उसी की तरफ़ " jab-yaas-huii-to-aahon-ne-siine-se-nikalnaa-chhod-diyaa-akbar-allahabadi-ghazals," जब यास हुई तो आहों ने सीने से निकलना छोड़ दिया अब ख़ुश्क-मिज़ाज आँखें भी हुईं दिल ने भी मचलना छोड़ दिया नावक-फ़गनी से ज़ालिम की जंगल में है इक सन्नाटा सा मुर्ग़ान-ए-ख़ुश-अलहाँ हो गए चुप आहू ने उछलना छोड़ दिया क्यूँ किब्र-ओ-ग़ुरूर इस दौर पे है क्यूँ दोस्त फ़लक को समझा है गर्दिश से ये अपनी बाज़ आया या रंग बदलना छोड़ दिया बदली वो हवा गुज़रा वो समाँ वो राह नहीं वो लोग नहीं तफ़रीह कहाँ और सैर कुजा घर से भी निकलना छोड़ दिया वो सोज़-ओ-गुदाज़ उस महफ़िल में बाक़ी न रहा अंधेर हुआ परवानों ने जलना छोड़ दिया शम्ओं ने पिघलना छोड़ दिया हर गाम पे चंद आँखें निगराँ हर मोड़ पे इक लेसंस-तलब उस पार्क में आख़िर ऐ 'अकबर' मैं ने तो टहलना छोड़ दिया क्या दीन को क़ुव्वत दें ये जवाँ जब हौसला-अफ़्ज़ा कोई नहीं क्या होश सँभालें ये लड़के ख़ुद उस ने सँभलना छोड़ दिया इक़बाल मुसाइद जब न रहा रक्खे ये क़दम जिस मंज़िल में अश्जार से साया दूर हुआ चश्मों ने उबलना छोड़ दिया अल्लाह की राह अब तक है खुली आसार-ओ-निशाँ सब क़ाएम हैं अल्लाह के बंदों ने लेकिन उस राह में चलना छोड़ दिया जब सर में हवा-ए-ताअत थी सरसब्ज़ शजर उम्मीद का था जब सर-सर-ए-इस्याँ चलने लगी इस पेड़ ने फलना छोड़ दिया उस हूर-लक़ा को घर लाए हो तुम को मुबारक ऐ 'अकबर' लेकिन ये क़यामत की तुम ने घर से जो निकलना छोड़ दिया " gale-lagaaen-karen-pyaar-tum-ko-eid-ke-din-akbar-allahabadi-ghazals," गले लगाएँ करें प्यार तुम को ईद के दिन इधर तो आओ मिरे गुल-एज़ार ईद के दिन ग़ज़ब का हुस्न है आराइशें क़यामत की अयाँ है क़ुदरत-ए-परवरदिगार ईद के दिन सँभल सकी न तबीअ'त किसी तरह मेरी रहा न दिल पे मुझे इख़्तियार ईद के दिन वो साल भर से कुदूरत भरी जो थी दिल में वो दूर हो गई बस एक बार ईद के दिन लगा लिया उन्हें सीने से जोश-ए-उल्फ़त में ग़रज़ कि आ ही गया मुझ को प्यार ईद के दिन कहीं है नग़्मा-ए-बुलबुल कहीं है ख़ंदा-ए-गुल अयाँ है जोश-ए-शबाब-ए-बहार ईद के दिन सिवय्याँ दूध शकर मेवा सब मुहय्या है मगर ये सब है मुझे नागवार ईद के दिन मिले अगर लब-ए-शीरीं का तेरे इक बोसा तो लुत्फ़ हो मुझे अलबत्ता यार ईद के दिन " haal-e-dil-main-sunaa-nahiin-saktaa-akbar-allahabadi-ghazals," हाल-ए-दिल मैं सुना नहीं सकता लफ़्ज़ मा'ना को पा नहीं सकता इश्क़ नाज़ुक-मिज़ाज है बेहद अक़्ल का बोझ उठा नहीं सकता होश आरिफ़ की है यही पहचान कि ख़ुदी में समा नहीं सकता पोंछ सकता है हम-नशीं आँसू दाग़-ए-दिल को मिटा नहीं सकता मुझ को हैरत है उस की क़ुदरत पर अलम उस को घटा नहीं सकता " apne-pahluu-se-vo-gairon-ko-uthaa-hii-na-sake-akbar-allahabadi-ghazals," अपने पहलू से वो ग़ैरों को उठा ही न सके उन को हम क़िस्सा-ए-ग़म अपना सुना ही न सके ज़ेहन मेरा वो क़यामत कि दो-आलम पे मुहीत आप ऐसे कि मिरे ज़ेहन में आ ही न सके देख लेते जो उन्हें तो मुझे रखते म'अज़ूर शैख़-साहिब मगर उस बज़्म में जा ही न सके अक़्ल महँगी है बहुत इश्क़ ख़िलाफ़-ए-तहज़ीब दिल को इस अहद में हम काम में ला ही न सके हम तो ख़ुद चाहते थे चैन से बैठें कोई दम आप की याद मगर दिल से भुला ही न सके इश्क़ कामिल है उसी का कि पतंगों की तरह ताब नज़्ज़ारा-ए-माशूक़ की ला ही न सके दाम-ए-हस्ती की भी तरकीब अजब रक्खी है जो फँसे उस में वो फिर जान बचा ही न सके मज़हर-ए-जल्वा-ए-जानाँ है हर इक शय 'अकबर' बे-अदब आँख किसी सम्त उठा ही न सके ऐसी मंतिक़ से तो दीवानगी बेहतर 'अकबर' कि जो ख़ालिक़ की तरफ़ दिल को झुका ही न सके " falsafii-ko-bahs-ke-andar-khudaa-miltaa-nahiin-akbar-allahabadi-ghazals," फ़लसफ़ी को बहस के अंदर ख़ुदा मिलता नहीं डोर को सुलझा रहा है और सिरा मिलता नहीं मा'रिफ़त ख़ालिक़ की आलम में बहुत दुश्वार है शहर-ए-तन में जब कि ख़ुद अपना पता मिलता नहीं ग़ाफ़िलों के लुत्फ़ को काफ़ी है दुनियावी ख़ुशी आक़िलों को बे-ग़म-ए-उक़्बा मज़ा मिलता नहीं कश्ती-ए-दिल की इलाही बहर-ए-हस्ती में हो ख़ैर नाख़ुदा मिलते हैं लेकिन बा-ख़ुदा मिलता नहीं ग़ाफ़िलों को क्या सुनाऊँ दास्तान-ए-इश्क़-ए-यार सुनने वाले मिलते हैं दर्द-आश्ना मिलता नहीं ज़िंदगानी का मज़ा मिलता था जिन की बज़्म में उन की क़ब्रों का भी अब मुझ को पता मिलता नहीं सिर्फ़ ज़ाहिर हो गया सरमाया-ए-ज़ेब-ओ-सफ़ा क्या तअ'ज्जुब है जो बातिन बा-सफ़ा मिलता नहीं पुख़्ता तबओं पर हवादिस का नहीं होता असर कोहसारों में निशान-ए-नक़्श-ए-पा मिलता नहीं शैख़-साहिब बरहमन से लाख बरतें दोस्ती बे-भजन गाए तो मंदिर से टिका मिलता नहीं जिस पे दिल आया है वो शीरीं-अदा मिलता नहीं ज़िंदगी है तल्ख़ जीने का मज़ा मिलता नहीं लोग कहते हैं कि बद-नामी से बचना चाहिए कह दो बे उस के जवानी का मज़ा मिलता नहीं अहल-ए-ज़ाहिर जिस क़दर चाहें करें बहस-ओ-जिदाल मैं ये समझा हूँ ख़ुदी में तो ख़ुदा मिलता नहीं चल बसे वो दिन कि यारों से भरी थी अंजुमन हाए अफ़्सोस आज सूरत-आश्ना मिलता नहीं मंज़िल-ए-इशक़-ओ-तवक्कुल मंज़िल-ए-एज़ाज़ है शाह सब बस्ते हैं याँ कोई गदा मिलता नहीं बार तकलीफों का मुझ पर बार-ए-एहसाँ से है सहल शुक्र की जा है अगर हाजत-रवा मिलता नहीं चाँदनी रातें बहार अपनी दिखाती हैं तो क्या बे तिरे मुझ को तो लुत्फ़ ऐ मह-लक़ा मिलता नहीं मा'नी-ए-दिल का करे इज़हार 'अकबर' किस तरह लफ़्ज़ मौज़ूँ बहर-ए-कश्फ़-ए-मुद्दआ मिलता नहीं " maanii-ko-bhulaa-detii-hai-suurat-hai-to-ye-hai-akbar-allahabadi-ghazals," मा'नी को भुला देती है सूरत है तो ये है नेचर भी सबक़ सीख ले ज़ीनत है तो ये है कमरे में जो हँसती हुई आई मिस-ए-राना टीचर ने कहा इल्म की आफ़त है तो ये है ये बात तो अच्छी है कि उल्फ़त हो मिसों से हूर उन को समझते हैं क़यामत है तो ये है पेचीदा मसाइल के लिए जाते हैं इंग्लैण्ड ज़ुल्फ़ों में उलझ आते हैं शामत है तो ये है पब्लिक में ज़रा हाथ मिला लीजिए मुझ से साहब मिरे ईमान की क़ीमत है तो ये है " bithaaii-jaaengii-parde-men-biibayaan-kab-tak-akbar-allahabadi-ghazals," बिठाई जाएँगी पर्दे में बीबियाँ कब तक बने रहोगे तुम इस मुल्क में मियाँ कब तक हरम-सरा की हिफ़ाज़त को तेग़ ही न रही तो काम देंगी ये चिलमन की तीलियाँ कब तक मियाँ से बीबी हैं पर्दा है उन को फ़र्ज़ मगर मियाँ का इल्म ही उट्ठा तो फिर मियाँ कब तक तबीअतों का नुमू है हवा-ए-मग़रिब में ये ग़ैरतें ये हरारत ये गर्मियाँ कब तक अवाम बाँध लें दोहर तो थर्ड वानटर में सेकंड-फ़र्स्ट की हों बंद खिड़कियाँ कब तक जो मुँह दिखाई की रस्मों पे है मुसिर इबलीस छुपेंगी हज़रत-ए-हवा की बेटियाँ कब तक जनाब हज़रत-ए-'अकबर' हैं हामी-ए-पर्दा मगर वो कब तक और उन की रुबाइयाँ कब तक " havaa-e-shab-bhii-hai-ambar-afshaan-uruuj-bhii-hai-mah-e-mubiin-kaa-akbar-allahabadi-ghazals," हवा-ए-शब भी है अम्बर-अफ़्शाँ उरूज भी है मह-ए-मुबीं का निसार होने की दो इजाज़त महल नहीं है नहीं नहीं का अगर हो ज़ौक़-ए-सुजूद पैदा सितारा हो औज पर जबीं का निशान-ए-सज्दा ज़मीन पर हो तो फ़ख़्र है वो रुख़-ए-ज़मीं का सबा भी उस गुल के पास आई तो मेरे दिल को हुआ ये खटका कोई शगूफ़ा न ये खिलाए पयाम लाई न हो कहीं का न मेहर ओ मह पर मिरी नज़र है न लाला-ओ-गुल की कुछ ख़बर है फ़रोग़-ए-दिल के लिए है काफ़ी तसव्वुर उस रू-ए-आतिशीं का न इल्म-ए-फ़ितरत में तुम हो माहिर न ज़ौक़-ए-ताअत है तुम से ज़ाहिर ये बे-उसूली बहुत बुरी है तुम्हें न रक्खेगी ये कहीं का " rang-e-sharaab-se-mirii-niyyat-badal-gaii-akbar-allahabadi-ghazals," रंग-ए-शराब से मिरी निय्यत बदल गई वाइज़ की बात रह गई साक़ी की चल गई तय्यार थे नमाज़ पे हम सुन के ज़िक्र-ए-हूर जल्वा बुतों का देख के निय्यत बदल गई मछली ने ढील पाई है लुक़्मे पे शाद है सय्याद मुतमइन है कि काँटा निगल गई चमका तिरा जमाल जो महफ़िल में वक़्त-ए-शाम परवाना बे-क़रार हुआ शम्अ' जल गई उक़्बा की बाज़-पुर्स का जाता रहा ख़याल दुनिया की लज़्ज़तों में तबीअ'त बहल गई हसरत बहुत तरक़्क़ी-ए-दुख़्तर की थी उन्हें पर्दा जो उठ गया तो वो आख़िर निकल गई " agar-dil-vaaqif-e-nairangii-e-tab-e-sanam-hotaa-akbar-allahabadi-ghazals," अगर दिल वाक़िफ़-ए-नैरंगी-ए-तब-ए-सनम होता ज़माने की दो-रंगी का उसे हरगिज़ न ग़म होता ये पाबंद-ए-मुसीबत दिल के हाथों हम तो रहते हैं नहीं तो चैन से कटती न दिल होता न ग़म होता उन्हीं की बे-वफ़ाई का ये है आठों-पहर सदमा वही होते जो क़ाबू में तो फिर काहे को ग़म होता लब-ओ-चश्म-ए-सनम गर देखने पाते कहीं शाइ'र कोई शीरीं-सुख़न होता कोई जादू-रक़म होता बहुत अच्छा हुआ आए न वो मेरी अयादत को जो वो आते तो ग़ैर आते जो ग़ैर आते तो ग़म होता अगर क़ब्रें नज़र आतीं न दारा-ओ-सिकन्दर की मुझे भी इश्तियाक़-ए-दौलत-ओ-जाह-ओ-हशम होता लिए जाता है जोश-ए-शौक़ हम को राह-ए-उल्फ़त में नहीं तो ज़ोफ़ से दुश्वार चलना दो-क़दम होता न रहने पाए दीवारों में रौज़न शुक्र है वर्ना तुम्हें तो दिल-लगी होती ग़रीबों पर सितम होता " kahaan-vo-ab-lutf-e-baahamii-hai-mohabbaton-men-bahut-kamii-hai-akbar-allahabadi-ghazals," कहाँ वो अब लुत्फ़-ए-बाहमी है मोहब्बतों में बहुत कमी है चली है कैसी हवा इलाही कि हर तबीअत में बरहमी है मिरी वफ़ा में है क्या तज़लज़ुल मिरी इताअ'त में क्या कमी है ये क्यूँ निगाहें फिरी हैं मुझ से मिज़ाज में क्यूँ ये बरहमी है वही है फ़ज़्ल-ए-ख़ुदा से अब तक तरक़्की-ए-कार-ए-हुस्न ओ उल्फ़त न वो हैं मश्क़-ए-सितम में क़ासिर न ख़ून-ए-दिल की यहाँ कमी है अजीब जल्वे हैं होश दुश्मन कि वहम के भी क़दम रुके हैं अजीब मंज़र हैं हैरत-अफ़्ज़ा नज़र जहाँ थी वहीं थमी है न कोई तकरीम-ए-बाहमी है न प्यार बाक़ी है अब दिलों में ये सिर्फ़ तहरीर में डियर सर है या जनाब-ए-मुकर्रमी है कहाँ के मुस्लिम कहाँ के हिन्दू भुलाई हैं सब ने अगली रस्में अक़ीदे सब के हैं तीन-तेरह न ग्यारहवीं है न अष्टमी है नज़र मिरी और ही तरफ़ है हज़ार रंग-ए-ज़माना बदले हज़ार बातें बनाए नासेह जमी है दिल में जो कुछ जमी है अगरचे मैं रिंद-ए-मोहतरम हूँ मगर इसे शैख़ से न पूछो कि उन के आगे तो इस ज़माने में सारी दुनिया जहन्नमी है " kyaa-jaaniye-sayyad-the-haq-aagaah-kahaan-tak-akbar-allahabadi-ghazals," क्या जानिए सय्यद थे हक़ आगाह कहाँ तक समझे न कि सीधी है मिरी राह कहाँ तक मंतिक़ भी तो इक चीज़ है ऐ क़िबला ओ काबा दे सकती है काम आप की वल्लाह कहाँ तक अफ़्लाक तो इस अहद में साबित हुए मादूम अब क्या कहूँ जाती है मिरी आह कहाँ तक कुछ सनअत ओ हिरफ़त पे भी लाज़िम है तवज्जोह आख़िर ये गवर्नमेंट से तनख़्वाह कहाँ तक मरना भी ज़रूरी है ख़ुदा भी है कोई चीज़ ऐ हिर्स के बंदो हवस-ए-जाह कहाँ तक तहसीन के लायक़ तिरा हर शेर है 'अकबर' अहबाब करें बज़्म में अब वाह कहाँ तक " jurm-e-ulfat-pe-hamen-log-sazaa-dete-hain-sahir-ludhianvi-ghazals," जुर्म-ए-उल्फ़त पे हमें लोग सज़ा देते हैं कैसे नादान हैं शो'लों को हवा देते हैं हम से दीवाने कहीं तर्क-ए-वफ़ा करते हैं जान जाए कि रहे बात निभा देते हैं आप दौलत के तराज़ू में दिलों को तौलें हम मोहब्बत से मोहब्बत का सिला देते हैं तख़्त क्या चीज़ है और लाल-ओ-जवाहर क्या हैं इश्क़ वाले तो ख़ुदाई भी लुटा देते हैं हम ने दिल दे भी दिया अहद-ए-वफ़ा ले भी लिया आप अब शौक़ से दे लें जो सज़ा देते हैं " is-taraf-se-guzre-the-qaafile-bahaaron-ke-sahir-ludhianvi-ghazals-3," इस तरफ़ से गुज़रे थे क़ाफ़िले बहारों के आज तक सुलगते हैं ज़ख़्म रहगुज़ारों के ख़ल्वतों के शैदाई ख़ल्वतों में खुलते हैं हम से पूछ कर देखो राज़ पर्दा-दारों के गेसुओं की छाँव में दिल-नवाज़ चेहरे हैं या हसीं धुँदलकों में फूल हैं बहारों के पहले हँस के मिलते हैं फिर नज़र चुराते हैं आश्ना-सिफ़त हैं लोग अजनबी दयारों के तुम ने सिर्फ़ चाहा है हम ने छू के देखे हैं पैरहन घटाओं के जिस्म बर्क़-पारों के शुग़्ल-ए-मय-परस्ती गो जश्न-ए-ना-मुरादी था यूँ भी कट गए कुछ दिन तेरे सोगवारों के " ye-vaadiyaan-ye-fazaaen-bulaa-rahii-hain-tumhen-sahir-ludhianvi-ghazals," ये वादियाँ ये फ़ज़ाएँ बुला रही हैं तुम्हें ख़मोशियों की सदाएँ बुला रही हैं तुम्हें तरस रहे हैं जवाँ फूल होंट छूने को मचल मचल के हवाएँ बुला रही हैं तुम्हें तुम्हारी ज़ुल्फ़ों से ख़ुशबू की भीक लेने को झुकी झुकी सी घटाएँ बुला रही हैं तुम्हें हसीन चम्पई पैरों को जब से देखा है नदी की मस्त अदाएँ बुला रही हैं तुम्हें मिरा कहा न सुनो उन की बात तो सुन लो हर एक दिल की दुआएँ बुला रही हैं तुम्हें " gulshan-gulshan-phuul-sahir-ludhianvi-ghazals," गुलशन गुलशन फूल दामन दामन धूल मरने पर ताज़ीर जीने पर महसूल हर जज़्बा मस्लूब हर ख़्वाहिश मक़्तूल इश्क़ परेशाँ-हाल नाज़-ए-हुस्न मलूल ना'रा-ए-हक़ मा'तूब मक्र-ओ-रिया मक़्बूल संवरा नहीं जहाँ आए कई रसूल " chehre-pe-khushii-chhaa-jaatii-hai-aankhon-men-suruur-aa-jaataa-hai-sahir-ludhianvi-ghazals," चेहरे पे ख़ुशी छा जाती है आँखों में सुरूर आ जाता है जब तुम मुझे अपना कहते हो अपने पे ग़ुरूर आ जाता है तुम हुस्न की ख़ुद इक दुनिया हो शायद ये तुम्हें मालूम नहीं महफ़िल में तुम्हारे आने से हर चीज़ पे नूर आ जाता है हम पास से तुम को क्या देखें तुम जब भी मुक़ाबिल होते हो बेताब निगाहों के आगे पर्दा सा ज़रूर आ जाता है जब तुम से मोहब्बत की हम ने तब जा के कहीं ये राज़ खुला मरने का सलीक़ा आते ही जीने का शुऊ'र आ जाता है " tirii-duniyaa-men-jiine-se-to-behtar-hai-ki-mar-jaaen-sahir-ludhianvi-ghazals," तिरी दुनिया में जीने से तो बेहतर है कि मर जाएँ वही आँसू वही आहें वही ग़म है जिधर जाएँ कोई तो ऐसा घर होता जहाँ से प्यार मिल जाता वही बेगाने चेहरे हैं जहाँ जाएँ जिधर जाएँ अरे ओ आसमाँ वाले बता इस में बुरा क्या है ख़ुशी के चार झोंके गर इधर से भी गुज़र जाएँ " barbaad-e-mohabbat-kii-duaa-saath-liye-jaa-sahir-ludhianvi-ghazals," बरबाद-ए-मोहब्बत की दुआ साथ लिए जा टूटा हुआ इक़रार-ए-वफ़ा साथ लिए जा इक दिल था जो पहले ही तुझे सौंप दिया था ये जान भी ऐ जान-ए-अदा साथ लिए जा तपती हुई राहों से तुझे आँच न पहुँचे दीवानों के अश्कों की घटा साथ लिए जा शामिल है मिरा ख़ून-ए-जिगर तेरी हिना में ये कम हो तो अब ख़ून-ए-वफ़ा साथ लिए जा हम जुर्म-ए-मोहब्बत की सज़ा पाएँगे तन्हा जो तुझ से हुई हो वो ख़ता साथ लिए जा " sazaa-kaa-haal-sunaaen-jazaa-kii-baat-karen-sahir-ludhianvi-ghazals," सज़ा का हाल सुनाएँ जज़ा की बात करें ख़ुदा मिला हो जिन्हें वो ख़ुदा की बात करें उन्हें पता भी चले और वो ख़फ़ा भी न हों इस एहतियात से क्या मुद्दआ की बात करें हमारे अहद की तहज़ीब में क़बा ही नहीं अगर क़बा हो तो बंद-ए-क़बा की बात करें हर एक दौर का मज़हब नया ख़ुदा लाया करें तो हम भी मगर किस ख़ुदा की बात करें वफ़ा-शिआर कई हैं कोई हसीं भी तो हो चलो फिर आज उसी बेवफ़ा की बात करें " tarab-zaaron-pe-kyaa-biitii-sanam-khaanon-pe-kyaa-guzrii-sahir-ludhianvi-ghazals," तरब-ज़ारों पे क्या बीती सनम-ख़ानों पे क्या गुज़री दिल-ए-ज़िंदा तिरे मरहूम अरमानों पे क्या गुज़री ज़मीं ने ख़ून उगला आसमाँ ने आग बरसाई जब इंसानों के दिल बदले तो इंसानों पे क्या गुज़री हमें ये फ़िक्र उन की अंजुमन किस हाल में होगी उन्हें ये ग़म कि उन से छुट के दीवानों पे क्या गुज़री मिरा इल्हाद तो ख़ैर एक ला'नत था सो है अब तक मगर इस आलम-ए-वहशत में ईमानों पे क्या गुज़री ये मंज़र कौन सा मंज़र है पहचाना नहीं जाता सियह-ख़ानों से कुछ पूछो शबिस्तानों पे क्या गुज़री चलो वो कुफ़्र के घर से सलामत आ गए लेकिन ख़ुदा की मुम्लिकत में सोख़्ता-जानों पे क्या गुज़री " aqaaed-vahm-hain-mazhab-khayaal-e-khaam-hai-saaqii-sahir-ludhianvi-ghazals," अक़ाएद वहम हैं मज़हब ख़याल-ए-ख़ाम है साक़ी अज़ल से ज़ेहन-ए-इंसाँ बस्ता-ए-औहाम है साक़ी हक़ीक़त-आश्नाई अस्ल में गुम-कर्दा राही है उरूस-ए-आगही परवुर्दा-ए-इब्हाम है साक़ी मुबारक हो ज़ईफ़ी को ख़िरद की फ़लसफ़ा-रानी जवानी बे-नियाज़-ए-इबरत-ए-अंजाम है साक़ी हवस होगी असीर-ए-हल्क़ा-ए-नेक-ओ-बद-ए-आलम मोहब्बत मावरा-ए-फ़िक्र-ए-नंग-ओ-नाम है साक़ी अभी तक रास्ते के पेच-ओ-ख़म से दिल धड़कता है मिरा ज़ौक़-ए-तलब शायद अभी तक ख़ाम है साक़ी वहाँ भेजा गया हूँ चाक करने पर्दा-ए-शब को जहाँ हर सुब्ह के दामन पे अक्स-ए-शाम है साक़ी मिरे साग़र में मय है और तिरे हाथों में बरबत है वतन की सर-ज़मीं में भूक से कोहराम है साक़ी ज़माना बरसर-ए-पैकार है पुर-हौल शो'लों से तिरे लब पर अभी तक नग़्मा-ए-ख़य्याम है साक़ी " sansaar-kii-har-shai-kaa-itnaa-hii-fasaana-hai-sahir-ludhianvi-ghazals," संसार की हर शय का इतना ही फ़साना है इक धुँद से आना है इक धुँद में जाना है ये राह कहाँ से है ये राह कहाँ तक है ये राज़ कोई राही समझा है न जाना है इक पल की पलक पर है ठहरी हुई ये दुनिया इक पल के झपकने तक हर खेल सुहाना है क्या जाने कोई किस पर किस मोड़ पर क्या बीते इस राह में ऐ राही हर मोड़ बहाना है हम लोग खिलौना हैं इक ऐसे खिलाड़ी का जिस को अभी सदियों तक ये खेल रचाना है " main-zinda-huun-ye-mushtahar-kiijiye-sahir-ludhianvi-ghazals-3," मैं ज़िंदा हूँ ये मुश्तहर कीजिए मिरे क़ातिलों को ख़बर कीजिए ज़मीं सख़्त है आसमाँ दूर है बसर हो सके तो बसर कीजिए सितम के बहुत से हैं रद्द-ए-अमल ज़रूरी नहीं चश्म तर कीजिए वही ज़ुल्म बार-ए-दिगर है तो फिर वही जुर्म बार-ए-दिगर कीजिए क़फ़स तोड़ना बाद की बात है अभी ख़्वाहिश-ए-बाल-ओ-पर कीजिए " miltii-hai-zindagii-men-mohabbat-kabhii-kabhii-sahir-ludhianvi-ghazals," मिलती है ज़िंदगी में मोहब्बत कभी कभी होती है दिलबरों की इनायत कभी कभी शर्मा के मुँह न फेर नज़र के सवाल पर लाती है ऐसे मोड़ पे क़िस्मत कभी कभी खुलते नहीं हैं रोज़ दरीचे बहार के आती है जान-ए-मन ये क़यामत कभी कभी तन्हा न कट सकेंगे जवानी के रास्ते पेश आएगी किसी की ज़रूरत कभी कभी फिर खो न जाएँ हम कहीं दुनिया की भीड़ में मिलती है पास आने की मोहलत कभी कभी " khuddaariyon-ke-khuun-ko-arzaan-na-kar-sake-sahir-ludhianvi-ghazals-3," ख़ुद्दारियों के ख़ून को अर्ज़ां न कर सके हम अपने जौहरों को नुमायाँ न कर सके हो कर ख़राब-ए-मय तिरे ग़म तो भुला दिए लेकिन ग़म-ए-हयात का दरमाँ न कर सके टूटा तिलिस्म-ए-अहद-ए-मोहब्बत कुछ इस तरह फिर आरज़ू की शम्अ फ़िरोज़ाँ न कर सके हर शय क़रीब आ के कशिश अपनी खो गई वो भी इलाज-ए-शौक़-ए-गुरेज़ाँ न कर सके किस दर्जा दिल-शिकन थे मोहब्बत के हादसे हम ज़िंदगी में फिर कोई अरमाँ न कर सके मायूसियों ने छीन लिए दिल के वलवले वो भी नशात-ए-रूह का सामाँ न कर सके " ab-aaen-yaa-na-aaen-idhar-puuchhte-chalo-sahir-ludhianvi-ghazals," अब आएँ या न आएँ इधर पूछते चलो क्या चाहती है उन की नज़र पूछते चलो हम से अगर है तर्क-ए-तअ'ल्लुक़ तो क्या हुआ यारो कोई तो उन की ख़बर पूछते चलो जो ख़ुद को कह रहे हैं कि मंज़िल-शनास हैं उन को भी क्या ख़बर है मगर पूछते चलो किस मंज़िल-ए-मुराद की जानिब रवाँ हैं हम ऐ रह-रवान-ए-ख़ाक-बसर पूछते चलो " ye-zulf-agar-khul-ke-bikhar-jaae-to-achchhaa-sahir-ludhianvi-ghazals," ये ज़ुल्फ़ अगर खुल के बिखर जाए तो अच्छा इस रात की तक़दीर सँवर जाए तो अच्छा जिस तरह से थोड़ी सी तिरे साथ कटी है बाक़ी भी उसी तरह गुज़र जाए तो अच्छा दुनिया की निगाहों में भला क्या है बुरा क्या ये बोझ अगर दिल से उतर जाए तो अच्छा वैसे तो तुम्हीं ने मुझे बरबाद किया है इल्ज़ाम किसी और के सर जाए तो अच्छा " ye-zamiin-kis-qadar-sajaaii-gaii-sahir-ludhianvi-ghazals," ये ज़मीं किस क़दर सजाई गई ज़िंदगी की तड़प बढ़ाई गई आईने से बिगड़ के बैठ गए जिन की सूरत जिन्हें दिखाई गई दुश्मनों ही से भी तो निभ जाए दोस्तों से तो आश्नाई गई नस्ल-दर-नस्ल इंतिज़ार रहा क़स्र टूटे न बे-नवाई गई ज़िंदगी का नसीब क्या कहिए एक सीता थी जो सताई गई हम न अवतार थे न पैग़म्बर क्यूँ ये अज़्मत हमें दिलाई गई मौत पाई सलीब पर हम ने उम्र बन-बास में बिताई गई " har-qadam-marhala-e-daar-o-saliib-aaj-bhii-hai-sahir-ludhianvi-ghazals," हर क़दम मरहला-दार-ओ-सलीब आज भी है जो कभी था वही इंसाँ का नसीब आज भी है जगमगाते हैं उफ़ुक़ पर ये सितारे लेकिन रास्ता मंज़िल-ए-हस्ती का मुहीब आज भी है सर-ए-मक़्तल जिन्हें जाना था वो जा भी पहुँचे सर-ए-मिंबर कोई मोहतात ख़तीब आज भी है अहल-ए-दानिश ने जिसे अम्र-ए-मुसल्लम माना अहल-ए-दिल के लिए वो बात अजीब आज भी है ये तिरी याद है या मेरी अज़ियत-कोशी एक नश्तर सा रग-ए-जाँ के क़रीब आज भी है कौन जाने ये तिरा शायर-ए-आशुफ़्ता-मिज़ाज कितने मग़रूर ख़ुदाओं का रक़ीब आज भी है " parbaton-ke-pedon-par-shaam-kaa-baseraa-hai-sahir-ludhianvi-ghazals," पर्बतों के पेड़ों पर शाम का बसेरा है सुरमई उजाला है चम्पई अंधेरा है दोनों वक़्त मिलते हैं दो दिलों की सूरत से आसमाँ ने ख़ुश हो कर रंग सा बिखेरा है ठहरे ठहरे पानी में गीत सरसराते हैं भीगे भीगे झोंकों में ख़ुशबुओं का डेरा है क्यूँ न जज़्ब हो जाएँ इस हसीं नज़ारे में रौशनी का झुरमुट है मस्तियों का घेरा है " jab-kabhii-un-kii-tavajjoh-men-kamii-paaii-gaii-sahir-ludhianvi-ghazals," जब कभी उन की तवज्जोह में कमी पाई गई अज़-सर-ए-नौ दास्तान-ए-शौक़ दोहराई गई बिक गए जब तेरे लब फिर तुझ को क्या शिकवा अगर ज़िंदगानी बादा ओ साग़र से बहलाई गई ऐ ग़म-ए-दुनिया तुझे क्या इल्म तेरे वास्ते किन बहानों से तबीअ'त राह पर लाई गई हम करें तर्क-ए-वफ़ा अच्छा चलो यूँ ही सही और अगर तर्क-ए-वफ़ा से भी न रुस्वाई गई कैसे कैसे चश्म ओ आरिज़ गर्द-ए-ग़म से बुझ गए कैसे कैसे पैकरों की शान-ए-ज़ेबाई गई दिल की धड़कन में तवाज़ुन आ चला है ख़ैर हो मेरी नज़रें बुझ गईं या तेरी रानाई गई उन का ग़म उन का तसव्वुर उन के शिकवे अब कहाँ अब तो ये बातें भी ऐ दिल हो गईं आई गई जुरअत-ए-इंसाँ पे गो तादीब के पहरे रहे फ़ितरत-ए-इंसाँ को कब ज़ंजीर पहनाई गई अरसा-ए-हस्ती में अब तेशा-ज़नों का दौर है रस्म-ए-चंगेज़ी उठी तौक़ीर-ए-दाराई गई " har-tarah-ke-jazbaat-kaa-elaan-hain-aankhen-sahir-ludhianvi-ghazals," हर तरह के जज़्बात का एलान हैं आँखें शबनम कभी शो'ला कभी तूफ़ान हैं आँखें आँखों से बड़ी कोई तराज़ू नहीं होती तुलता है बशर जिस में वो मीज़ान हैं आँखें आँखें ही मिलाती हैं ज़माने में दिलों को अंजान हैं हम तुम अगर अंजान हैं आँखें लब कुछ भी कहें इस से हक़ीक़त नहीं खुलती इंसान के सच झूट की पहचान हैं आँखें आँखें न झुकीं तेरी किसी ग़ैर के आगे दुनिया में बड़ी चीज़ मिरी जान! हैं आँखें " main-zindagii-kaa-saath-nibhaataa-chalaa-gayaa-sahir-ludhianvi-ghazals," मैं ज़िंदगी का साथ निभाता चला गया हर फ़िक्र को धुएँ में उड़ाता चला गया बर्बादियों का सोग मनाना फ़ुज़ूल था बर्बादियों का जश्न मनाता चला गया जो मिल गया उसी को मुक़द्दर समझ लिया जो खो गया मैं उस को भुलाता चला गया ग़म और ख़ुशी में फ़र्क़ न महसूस हो जहाँ मैं दिल को उस मक़ाम पे लाता चला गया " na-to-zamiin-ke-liye-hai-na-aasmaan-ke-liye-sahir-ludhianvi-ghazals," न तो ज़मीं के लिए है न आसमाँ के लिए तिरा वजूद है अब सिर्फ़ दास्ताँ के लिए पलट के सू-ए-चमन देखने से क्या होगा वो शाख़ ही न रही जो थी आशियाँ के लिए ग़रज़-परस्त जहाँ में वफ़ा तलाश न कर ये शय बनी थी किसी दूसरे जहाँ के लिए " tum-apnaa-ranj-o-gam-apnii-pareshaanii-mujhe-de-do-sahir-ludhianvi-ghazals," तुम अपना रंज-ओ-ग़म अपनी परेशानी मुझे दे दो तुम्हें ग़म की क़सम इस दिल की वीरानी मुझे दे दो ये माना मैं किसी क़ाबिल नहीं हूँ इन निगाहों में बुरा क्या है अगर ये दुख ये हैरानी मुझे दे दो मैं देखूँ तो सही दुनिया तुम्हें कैसे सताती है कोई दिन के लिए अपनी निगहबानी मुझे दे दो वो दिल जो मैं ने माँगा था मगर ग़ैरों ने पाया है बड़ी शय है अगर उस की पशेमानी मुझे दे दो " ahl-e-dil-aur-bhii-hain-ahl-e-vafaa-aur-bhii-hain-sahir-ludhianvi-ghazals," अहल-ए-दिल और भी हैं अहल-ए-वफ़ा और भी हैं एक हम ही नहीं दुनिया से ख़फ़ा और भी हैं हम पे ही ख़त्म नहीं मस्लक-ए-शोरीदा-सरी चाक-ए-दिल और भी हैं चाक-ए-क़बा और भी हैं क्या हुआ गर मिरे यारों की ज़बानें चुप हैं मेरे शाहिद मिरे यारों के सिवा और भी हैं सर सलामत है तो क्या संग-ए-मलामत की कमी जान बाक़ी है तो पैकान-ए-क़ज़ा और भी हैं मुंसिफ़-ए-शहर की वहदत पे न हर्फ़ आ जाए लोग कहते हैं कि अर्बाब-ए-जफ़ा और भी हैं " dekhaa-to-thaa-yuunhii-kisii-gaflat-shiaar-ne-sahir-ludhianvi-ghazals," देखा तो था यूँही किसी ग़फ़लत-शिआर ने दीवाना कर दिया दिल-ए-बे-इख़्तियार ने ऐ आरज़ू के धुँदले ख़राबो जवाब दो फिर किस की याद आई थी मुझ को पुकारने तुझ को ख़बर नहीं मगर इक सादा-लौह को बरबाद कर दिया तिरे दो दिन के प्यार ने मैं और तुम से तर्क-ए-मोहब्बत की आरज़ू दीवाना कर दिया है ग़म-ए-रोज़गार ने अब ऐ दिल-ए-तबाह तिरा क्या ख़याल है हम तो चले थे काकुल-ए-गीती सँवारने " bhadkaa-rahe-hain-aag-lab-e-nagmagar-se-ham-sahir-ludhianvi-ghazals," भड़का रहे हैं आग लब-ए-नग़्मागर से हम ख़ामोश क्या रहेंगे ज़माने के डर से हम कुछ और बढ़ गए जो अँधेरे तो क्या हुआ मायूस तो नहीं हैं तुलू-ए-सहर से हम ले दे के अपने पास फ़क़त इक नज़र तो है क्यूँ देखें ज़िंदगी को किसी की नज़र से हम माना कि इस ज़मीं को न गुलज़ार कर सके कुछ ख़ार कम तो कर गए गुज़रे जिधर से हम " duur-rah-kar-na-karo-baat-qariib-aa-jaao-sahir-ludhianvi-ghazals," दूर रह कर न करो बात क़रीब आ जाओ याद रह जाएगी ये रात क़रीब आ जाओ एक मुद्दत से तमन्ना थी तुम्हें छूने की आज बस में नहीं जज़्बात क़रीब आ जाओ सर्द झोंकों से भड़कते हैं बदन में शो'ले जान ले लेगी ये बरसात क़रीब आ जाओ इस क़दर हम से झिजकने की ज़रूरत क्या है ज़िंदगी भर का है अब साथ क़रीब आ जाओ " bhuule-se-mohabbat-kar-baithaa-naadaan-thaa-bechaaraa-dil-hii-to-hai-sahir-ludhianvi-ghazals," भूले से मोहब्बत कर बैठा, नादाँ था बेचारा, दिल ही तो है हर दिल से ख़ता हो जाती है, बिगड़ो न ख़ुदारा, दिल ही तो है इस तरह निगाहें मत फेरो, ऐसा न हो धड़कन रुक जाए सीने में कोई पत्थर तो नहीं एहसास का मारा, दिल ही तो है जज़्बात भी हिन्दू होते हैं चाहत भी मुसलमाँ होती है दुनिया का इशारा था लेकिन समझा न इशारा, दिल ही तो है बेदाद-गरों की ठोकर से सब ख़्वाब सुहाने चूर हुए अब दिल का सहारा ग़म ही तो है अब ग़म का सहारा दिल ही तो है " har-chand-mirii-quvvat-e-guftaar-hai-mahbuus-sahir-ludhianvi-ghazals," हर-चंद मिरी क़ुव्वत-ए-गुफ़्तार है महबूस ख़ामोश मगर तब-ए-ख़ुद-आरा नहीं होती मामूरा-ए-एहसास में है हश्र सा बरपा इंसान की तज़लील गवारा नहीं होती नालाँ हूँ मैं बेदारी-ए-एहसास के हाथों दुनिया मिरे अफ़्कार की दुनिया नहीं होती बेगाना-सिफ़त जादा-ए-मंज़िल से गुज़र जा हर चीज़ सज़ा-वार-ए-नज़ारा नहीं होती फ़ितरत की मशिय्यत भी बड़ी चीज़ है लेकिन फ़ितरत कभी बे-बस का सहारा नहीं होती " tang-aa-chuke-hain-kashmakash-e-zindagii-se-ham-sahir-ludhianvi-ghazals," तंग आ चुके हैं कशमकश-ए-ज़िंदगी से हम ठुकरा न दें जहाँ को कहीं बे-दिली से हम मायूसी-ए-मआल-ए-मोहब्बत न पूछिए अपनों से पेश आए हैं बेगानगी से हम लो आज हम ने तोड़ दिया रिश्ता-ए-उमीद लो अब कभी गिला न करेंगे किसी से हम उभरेंगे एक बार अभी दिल के वलवले गो दब गए हैं बार-ए-ग़म-ए-ज़िंदगी से हम गर ज़िंदगी में मिल गए फिर इत्तिफ़ाक़ से पूछेंगे अपना हाल तिरी बेबसी से हम अल्लाह-रे फ़रेब-ए-मशिय्यत कि आज तक दुनिया के ज़ुल्म सहते रहे ख़ामुशी से हम " kyaa-jaanen-tirii-ummat-kis-haal-ko-pahunchegii-sahir-ludhianvi-ghazals," क्या जानें तिरी उम्मत किस हाल को पहुँचेगी बढ़ती चली जाती है तादाद इमामों की हर गोशा-ए-मग़रिब में हर ख़ित्ता-ए-मशरिक़ में तशरीह दिगर-गूँ है अब तेरे पयामों की वो लोग जिन्हें कल तक दावा था रिफ़ाक़त का तज़लील पे उतरे हैं अपनों ही के नामों की बिगड़े हुए तेवर हैं नौ-उम्र सियासत के बिफरी हुई साँसें हैं नौ-मश्क़ निज़ामों की तबक़ों से निकल कर हम फ़िर्क़ों में न बट जाएँ बन कर न बिगड़ जाए तक़दीर ग़ुलामों की " apnaa-dil-pesh-karuun-apnii-vafaa-pesh-karuun-sahir-ludhianvi-ghazals," अपना दिल पेश करूँ अपनी वफ़ा पेश करूँ कुछ समझ में नहीं आता तुझे क्या पेश करूँ तेरे मिलने की ख़ुशी में कोई नग़्मा छेड़ूँ या तिरे दर्द-ए-जुदाई का गिला पेश करूँ मेरे ख़्वाबों में भी तू मेरे ख़यालों में भी तू कौन सी चीज़ तुझे तुझ से जुदा पेश करूँ जो तिरे दिल को लुभाए वो अदा मुझ में नहीं क्यूँ न तुझ को कोई तेरी ही अदा पेश करूँ " dekhaa-hai-zindagii-ko-kuchh-itne-qariib-se-sahir-ludhianvi-ghazals-1," देखा है ज़िंदगी को कुछ इतने क़रीब से चेहरे तमाम लगने लगे हैं अजीब से ऐ रूह-ए-अस्र जाग कहाँ सो रही है तू आवाज़ दे रहे हैं पयम्बर सलीब से इस रेंगती हयात का कब तक उठाएँ बार बीमार अब उलझने लगे हैं तबीब से हर गाम पर है मजमा-ए-उश्शाक़ मुंतज़िर मक़्तल की राह मिलती है कू-ए-हबीब से इस तरह ज़िंदगी ने दिया है हमारा साथ जैसे कोई निबाह रहा हो रक़ीब से " dekhaa-hai-zindagii-ko-kuchh-itnaa-qariib-se-sahir-ludhianvi-ghazals," देखा है ज़िंदगी को कुछ इतना क़रीब से चेहरे तमाम लगने लगे हैं अजीब से कहने को दिल की बात जिन्हें ढूँडते थे हम महफ़िल में आ गए हैं वो अपने नसीब से नीलाम हो रहा था किसी नाज़नीं का प्यार क़ीमत नहीं चुकाई गई इक ग़रीब से तेरी वफ़ा की लाश पे ला मैं ही डाल दूँ रेशम का ये कफ़न जो मिला है रक़ीब से " merii-taqdiir-men-jalnaa-hai-to-jal-jaauungaa-sahir-ludhianvi-ghazals," मेरी तक़दीर में जलना है तो जल जाऊँगा तेरा वा'दा तो नहीं हूँ जो बदल जाऊँगा सोज़ भर दो मिरे सपने में ग़म-ए-उल्फ़त का मैं कोई मोम नहीं हूँ जो पिघल जाऊँगा दर्द कहता है ये घबरा के शब-ए-फ़ुर्क़त में आह बन कर तिरे पहलू से निकल जाऊँगा मुझ को समझाओ न 'साहिर' मैं इक दिन ख़ुद ही ठोकरें खा के मोहब्बत में सँभल जाऊँगा " kabhii-khud-pe-kabhii-haalaat-pe-ronaa-aayaa-sahir-ludhianvi-ghazals," कभी ख़ुद पे कभी हालात पे रोना आया बात निकली तो हर इक बात पे रोना आया हम तो समझे थे कि हम भूल गए हैं उन को क्या हुआ आज ये किस बात पे रोना आया किस लिए जीते हैं हम किस के लिए जीते हैं बारहा ऐसे सवालात पे रोना आया कौन रोता है किसी और की ख़ातिर ऐ दोस्त सब को अपनी ही किसी बात पे रोना आया " ab-koii-gulshan-na-ujde-ab-vatan-aazaad-hai-sahir-ludhianvi-ghazals," अब कोई गुलशन न उजड़े अब वतन आज़ाद है रूह गंगा की हिमाला का बदन आज़ाद है खेतियाँ सोना उगाएँ वादियाँ मोती लुटाएँ आज गौतम की ज़मीं तुलसी का बन आज़ाद है मंदिरों में संख बाजे मस्जिदों में हो अज़ाँ शैख़ का धर्म और दीन-ए-बरहमन आज़ाद है लूट कैसी भी हो अब इस देश में रहने न पाए आज सब के वास्ते धरती का धन आज़ाद है " itnii-hasiin-itnii-javaan-raat-kyaa-karen-sahir-ludhianvi-ghazals," इतनी हसीन इतनी जवाँ रात क्या करें जागे हैं कुछ अजीब से जज़्बात क्या करें पेड़ों के बाज़ुओं में महकती है चाँदनी बेचैन हो रहे हैं ख़यालात क्या करें साँसों में घुल रही है किसी साँस की महक दामन को छू रहा है कोई हात क्या करें शायद तुम्हारे आने से ये भेद खुल सके हैरान हैं कि आज नई बात क्या करें " fan-jo-naadaar-tak-nahiin-pahunchaa-sahir-ludhianvi-ghazals," फ़न जो नादार तक नहीं पहुँचा अभी मेयार तक नहीं पहुँचा उस ने बर-वक़्त बे-रुख़ी बरती शौक़ आज़ार तक नहीं पहुँचा अक्स-ए-मय हो कि जल्वा-ए-गुल हो रंग-ए-रुख़्सार तक नहीं पहुँचा हर्फ़-ए-इंकार सर बुलंद रहा ज़ोफ़-ए-इक़रार तक नहीं पहुँचा हुक्म-ए-सरकार की पहुँच मत पूछ अहल-ए-सरकार तक नहीं पहुँचा अद्ल-गाहें तो दूर की शय हैं क़त्ल अख़बार तक नहीं पहुँचा इन्क़िलाबात-ए-दहर की बुनियाद हक़ जो हक़दार तक नहीं पहुँचा वो मसीहा-नफ़स नहीं जिस का सिलसिला-दार तक नहीं पहुँचा " tod-lenge-har-ik-shai-se-rishta-tod-dene-kii-naubat-to-aae-sahir-ludhianvi-ghazals," तोड़ लेंगे हर इक शय से रिश्ता तोड़ देने की नौबत तो आए हम क़यामत के ख़ुद मुंतज़िर हैं पर किसी दिन क़यामत तो आए हम भी सुक़रात हैं अहद-ए-नौ के तिश्ना-लब ही न मर जाएँ यारो ज़हर हो या मय-ए-आतिशीं हो कोई जाम-ए-शहादत तो आए एक तहज़ीब है दोस्ती की एक मेयार है दुश्मनी का दोस्तों ने मुरव्वत न सीखी दुश्मनों को अदावत तो आए रिंद रस्ते में आँखें बिछाएँ जो कहे बिन सुने मान जाएँ नासेह-ए-नेक-तीनत किसी शब सू-ए-कू-ए-मलामत तो आए इल्म ओ तहज़ीब तारीख़ ओ मंतिक़ लोग सोचेंगे इन मसअलों पर ज़िंदगी के मशक़्क़त-कदे में कोई अहद-ए-फ़राग़त तो आए काँप उट्ठें क़स्र-ए-शाही के गुम्बद थरथराए ज़मीं माबदों की कूचा-गर्दों की वहशत तो जागे ग़म-ज़दों को बग़ावत तो आए " sansaar-se-bhaage-phirte-ho-bhagvaan-ko-tum-kyaa-paaoge-sahir-ludhianvi-ghazals," संसार से भागे फिरते हो भगवान को तुम क्या पाओगे इस लोक को भी अपना न सके उस लोक में भी पछताओगे ये पाप है क्या ये पुन है क्या रीतों पर धर्म की मोहरें हैं हर युग में बदलते धर्मों को कैसे आदर्श बनाओगे ये भोग भी एक तपस्या है तुम त्याग के मारे क्या जानो अपमान रचियता का होगा रचना को अगर ठुकराओगे हम कहते हैं ये जग अपना है तुम कहते हो झूटा सपना है हम जन्म बिता कर जाएँगे तुम जन्म गँवा कर जाओगे " havas-nasiib-nazar-ko-kahiin-qaraar-nahiin-sahir-ludhianvi-ghazals," हवस-नसीब नज़र को कहीं क़रार नहीं मैं मुंतज़िर हूँ मगर तेरा इंतिज़ार नहीं हमीं से रंग-ए-गुलिस्ताँ हमीं से रंग-ए-बहार हमीं को नज़्म-ए-गुलिस्ताँ पे इख़्तियार नहीं अभी न छेड़ मोहब्बत के गीत ऐ मुतरिब अभी हयात का माहौल ख़ुश-गवार नहीं तुम्हारे अहद-ए-वफ़ा को मैं अहद क्या समझूँ मुझे ख़ुद अपनी मोहब्बत पे ए'तिबार नहीं न जाने कितने गिले इस में मुज़्तरिब हैं नदीम वो एक दिल जो किसी का गिला-गुज़ार नहीं गुरेज़ का नहीं क़ाइल हयात से लेकिन जो सच कहूँ कि मुझे मौत नागवार नहीं ये किस मक़ाम पे पहुँचा दिया ज़माने ने कि अब हयात पे तेरा भी इख़्तियार नहीं " mohabbat-tark-kii-main-ne-garebaan-sii-liyaa-main-ne-sahir-ludhianvi-ghazals," मोहब्बत तर्क की मैं ने गरेबाँ सी लिया मैं ने ज़माने अब तो ख़ुश हो ज़हर ये भी पी लिया मैं ने अभी ज़िंदा हूँ लेकिन सोचता रहता हूँ ख़ल्वत में कि अब तक किस तमन्ना के सहारे जी लिया मैं ने उन्हें अपना नहीं सकता मगर इतना भी क्या कम है कि कुछ मुद्दत हसीं ख़्वाबों में खो कर जी लिया मैं ने बस अब तो दामन-ए-दिल छोड़ दो बेकार उम्मीदो बहुत दुख सह लिए मैं ने बहुत दिन जी लिया मैं ने " lab-pe-paabandii-to-hai-ehsaas-par-pahraa-to-hai-sahir-ludhianvi-ghazals," लब पे पाबंदी तो है एहसास पर पहरा तो है फिर भी अहल-ए-दिल को अहवाल-ए-बशर कहना तो है ख़ून-ए-आ'दा से न हो ख़ून-ए-शहीदाँ ही से हो कुछ न कुछ इस दौर में रंग-ए-चमन निखरा तो है अपनी ग़ैरत बेच डालें अपना मस्लक छोड़ दें रहनुमाओं में भी कुछ लोगों का ये मंशा तो है है जिन्हें सब से ज़ियादा दा'वा-ए-हुब्बुल-वतन आज उन की वज्ह से हुब्ब-ए-वतन रुस्वा तो है बुझ रहे हैं एक इक कर के अक़ीदों के दिए इस अँधेरे का भी लेकिन सामना करना तो है झूट क्यूँ बोलें फ़रोग़-ए-मस्लहत के नाम पर ज़िंदगी प्यारी सही लेकिन हमें मरना तो है " sharmaa-ke-yuun-na-dekh-adaa-ke-maqaam-se-sahir-ludhianvi-ghazals," शर्मा के यूँ न देख अदा के मक़ाम से अब बात बढ़ चुकी है हया के मक़ाम से तस्वीर खींच ली है तिरे शोख़ हुस्न की मेरी नज़र ने आज ख़ता के मक़ाम से दुनिया को भूल कर मिरी बाँहों में झूल जा आवाज़ दे रहा हूँ वफ़ा के मक़ाम से दिल के मुआ'मले में नतीजे की फ़िक्र क्या आगे है इश्क़ जुर्म-ओ-सज़ा के मक़ाम से " bujhaa-diye-hain-khud-apne-haathon-mohabbaton-ke-diye-jalaa-ke-sahir-ludhianvi-ghazals," बुझा दिए हैं ख़ुद अपने हाथों मोहब्बतों के दिए जला के मिरी वफ़ा ने उजाड़ दी हैं उमीद की बस्तियाँ बसा के तुझे भुला देंगे अपने दिल से ये फ़ैसला तो किया है लेकिन न दिल को मालूम है न हम को जिएँगे कैसे तुझे भुला के कभी मिलेंगे जो रास्ते में तो मुँह फिरा कर पलट पड़ेंगे कहीं सुनेंगे जो नाम तेरा तो चुप रहेंगे नज़र झुका के न सोचने पर भी सोचती हूँ कि ज़िंदगानी में क्या रहेगा तिरी तमन्ना को दफ़्न कर के तिरे ख़यालों से दूर जा के " ponchh-kar-ashk-apnii-aankhon-se-muskuraao-to-koii-baat-bane-sahir-ludhianvi-ghazals," पोंछ कर अश्क अपनी आँखों से मुस्कुराओ तो कोई बात बने सर झुकाने से कुछ नहीं होता सर उठाओ तो कोई बात बने ज़िंदगी भीक में नहीं मिलती ज़िंदगी बढ़ के छीनी जाती है अपना हक़ संग-दिल ज़माने से छीन पाओ तो कोई बात बने रंग और नस्ल ज़ात और मज़हब जो भी है आदमी से कमतर है इस हक़ीक़त को तुम भी मेरी तरह मान जाओ तो कोई बात बने नफ़रतों के जहान में हम को प्यार की बस्तियाँ बसानी हैं दूर रहना कोई कमाल नहीं पास आओ तो कोई बात बने " bahut-ghutan-hai-koii-suurat-e-bayaan-nikle-sahir-ludhianvi-ghazals," बहुत घुटन है कोई सूरत-ए-बयाँ निकले अगर सदा न उठे कम से कम फ़ुग़ाँ निकले फ़क़ीर-ए-शहर के तन पर लिबास बाक़ी है अमीर-ए-शहर के अरमाँ अभी कहाँ निकले हक़ीक़तें हैं सलामत तो ख़्वाब बहुतेरे मलाल क्यूँ हो कि कुछ ख़्वाब राएगाँ निकले उधर भी ख़ाक उड़ी है इधर भी ख़ाक उड़ी जहाँ जहाँ से बहारों के कारवाँ निकले सितम के दौर में हम अहल-ए-दिल ही काम आए ज़बाँ पे नाज़ था जिन को वो बे-ज़बाँ निकले " sadiyon-se-insaan-ye-suntaa-aayaa-hai-sahir-ludhianvi-ghazals," सदियों से इंसान ये सुनता आया है दुख की धूप के आगे सुख का साया है हम को इन सस्ती ख़ुशियों का लोभ न दो हम ने सोच समझ कर ग़म अपनाया है झूट तो क़ातिल ठहरा इस का क्या रोना सच ने भी इंसाँ का ख़ूँ बहाया है पैदाइश के दिन से मौत की ज़द में हैं इस मक़्तल में कौन हमें ले आया है अव्वल अव्वल जिस दिल ने बर्बाद किया आख़िर आख़िर वो दिल ही काम आया है इतने दिन एहसान किया दीवानों पर जितने दिन लोगों ने साथ निभाया है " sang-e-jafaa-kaa-gam-nahiin-dast-e-talab-kaa-dar-nahiin-nazm-tabaa-tabaaii-ghazals," संग-ए-जफ़ा का ग़म नहीं दस्त-ए-तलब का डर नहीं अपना है उस पर आशियाँ नख़्ल जो बारवर नहीं सुनते हो अहल-ए-क़ाफ़िला मैं कोई राहबर नहीं देख रहा हूँ तुम में से एक भी राह पर नहीं मौत का घर है आसमाँ इस से कहीं मफ़र नहीं निकलें तो कोई दर नहीं भागें तो रहगुज़र नहीं पहले जिगर पर आह का नाम न था निशाँ न था आख़िर-ए-कार ये हुआ आह तो है जिगर नहीं सुब्ह-ए-अज़ल से ता-अबद क़िस्सा न होगा ये तमाम जौर-ए-फ़लक की दास्ताँ ऐसी भी मुख़्तसर नहीं बर्ग-ए-ख़िज़ाँ-रसीदा हूँ छेड़ न मुझ को ऐ नसीम ज़ौक़ फ़ुग़ाँ का है मुझे शिक्वा-ए-अब्र-ए-तर नहीं मुंकिर-ए-हश्र है किधर देखे तू आँख खोल कर हश्र की जो ख़बर न दे ऐसी कोई सहर नहीं शबनम ओ गुल को देख कर वज्द न आए किस तरह ख़ंदा बे-सबब नहीं गिर्या बे-असर नहीं तेरे फ़क़ीर का ग़ुरूर ताजवरों से है सिवा तर्फ़-ए-कुलह में दे शिकन उस को ये दर्द-ए-सर नहीं कोशक ओ क़स्र ओ बाम-ओ-दर तू ने बिना किए तो क्या हैफ़ है ख़ानुमाँ-ख़राब दिल में किसी के घेर नहीं नाला-कशी रक़ीब से मेरी तरह मुहाल है दिल नहीं हौसला नहीं ज़ोहरा नहीं जिगर नहीं शातिर-ए-पीर-ए-आसमाँ वाह-री तेरी दस्तबुर्द ख़ुसरव ओ कैक़िबाद की तेग़ नहीं कमर नहीं शान करीम की ये है हाँ से हो पेशतर अता लुत्फ़ अता का क्या हो जब हाँ से हो पेशतर नहीं लाख वो बे-रुख़ी करे लाख वो कज-रवी करे कुछ तो मलाल इस का हो दिल को मिरे मगर नहीं सुन के बुरा न मानिए सच को न झूट जानिए ज़िक्र है कुछ गिला नहीं बात है नेश्तर नहीं " kis-liye-phirte-hain-ye-shams-o-qamar-donon-saath-nazm-tabaa-tabaaii-ghazals," किस लिए फिरते हैं ये शम्स ओ क़मर दोनों साथ किस को ये ढूँडते हैं बरहना-सर दोनों साथ कैसी या-रब ये हवा सुब्ह-ए-शब-ए-वस्ल चली बुझ गया दिल मिरा और शम-ए-सहर दोनों साथ ब'अद मेरे न रहा इश्क़ की मंज़िल का निशाँ मिट गए राह-रौ ओ राहगुज़र दोनों साथ ऐ जुनूँ देख इसी सहरा में अकेला हूँ मैं रहते जिस दश्त में हैं ख़ौफ़-ओ-ख़तर दोनों साथ मुझ को हैरत है शब-ए-ऐश की कोताही पर या ख़ुदा आए थे क्या शाम-ओ-सहर दोनों साथ उस ने फेरी निगह-ए-नाज़ ये मालूम हुआ खिंच गया सीने से तीर और जिगर दोनों साथ ग़म को दी दिल ने जगह दिल को जगह पहलू ने एक गोशे में करेंगे ये बसर दोनों साथ इस को रोकूँ मैं इलाही कि सँभालूँ उस को कि तड़पने लगे दिल और जिगर दोनों साथ नाज़ बढ़ता गया बढ़ते गए जूँ जूँ गेसू बल्कि लेने लगे अब ज़ुल्फ़ ओ कमर दोनों साथ तुझ से मतलब है नहीं दुनिया ओ उक़्बा से ग़रज़ तू नहीं जब तो उजड़ जाएँ ये घर दोनों साथ बात सुनना न किसी चाहने वाले की कभी कान में फूँक रहे हैं ये गुहर दोनों साथ आँधियाँ आह की भी अश्क का सैलाब भी है देते हैं दिल की ख़राबी की ख़बर दोनों साथ क्या कहूँ ज़ोहरा ओ ख़ुर्शीद का आलम ऐ 'नज़्म' निकले ख़ल्वत से जूँही वक़्त-ए-सहर दोनों साथ " hansii-men-vo-baat-main-ne-kah-dii-ki-rah-gae-aap-dang-ho-kar-nazm-tabaa-tabaaii-ghazals," हँसी में वो बात मैं ने कह दी कि रह गए आप दंग हो कर छुपा हुआ था जो राज़ दिल में खुला वो चेहरे का रंग हो कर हमेशा कूच ओ मक़ाम अपना रहा है ख़िज़्र-ए-रह-ए-तरीक़त रुका तो मैं संग-ए-मील बन कर चला तो आवाज़-ए-चंग हो कर न तोड़ते आरसी अगर तुम तो इतने यूसुफ़ नज़र न आते ये क़ाफ़िला खींच लाई सारा शिकस्त-ए-आईना ज़ंग हो कर शबाब ओ पीरी का आना जाना ग़ज़ब का पुर-दर्द है फ़साना ये रह गई बन के गर्द-ए-हसरत वो उड़ गया रुख़ से रंग हो कर जो राज़ दिल से ज़बाँ तक आया तो उस को क़ाबू में फिर न पाया ज़बाँ से निकला कलाम बन कर कमाँ से छूटा ख़दंग हो कर ग़ज़ब है बहर-ए-फ़ना का धारा कि मुझ को उलझा के मारा मारा नफ़स ने मौजों का जाल बुन कर लहद ने काम-ए-नहंग हो कर मिला दिल-ए-ना-हिफ़ाज़ मुझ को तो क्या किसी का लिहाज़ मुझ को कहीं गरेबाँ न फाड़ डालें जनाब-ए-नासेह भी तंग हो कर जो अब की मीना-ए-मय को तोड़ा चलेगी तलवार मोहतसिब से लहू भी रिंदों का देख लेना बहा मय-ए-लाला-रंग हो कर न ज़ब्त से शिकवा लब तक आया न सब्र ने आह खींचने दी रहा दहन में वो क़ुफ़्ल बन कर गिराया छाती पे संग हो कर समझ ले सूफ़ी अगर ये नुक्ता है एक बज़्म-ए-समा-ए-हस्ती तो नौ-पियाले ये आसमाँ के बजें अभी जल-तरंग हो कर भला हो अफ़्सुर्दा-ख़ातिरी का कि हसरतों को दबा के रक्खा बचा लिया हरज़गी से उस ने लिहाज़-ए-नामूस-ओ-नंग हो कर जिगर-ख़राशी से पाई फ़ुर्सत न सीना-कावी से नाख़ुनों ने गला गरेबाँ ने घूँट डाला जुनूँ की शोरिश से तंग हो कर बदल के दुनिया ने भेस सदहा इसे डराया उसे लुभाया कभी ज़न-ए-पीर-ज़ाल बन कर कभी बुत-ए-शोख़-ओ-शंग हो कर उठे थे तलवार खींच कर तुम तो फिर तअम्मुल न चाहिए था कि रह गई मेरे दिल की हसरत शहीद-ए-तेग़-ए-दरंग हो कर जो वलवले थे वो दब गए सब हुजूम-ए-लैत-ओ-लअल में 'हैदर' जो हौसले थे वो दिल ही दिल में रहे दरेग़-ओ-दरंग हो कर " bidat-masnuun-ho-gaii-hai-nazm-tabaa-tabaaii-ghazals," बिदअ'त मस्नून हो गई है उम्मत मतऊन हो गई है क्या कहना तिरी दुआ का ज़ाहिद गर्दूं का सुतून हो गई है रहने दो अजल जो घात में है मुझ पर मफ़्तून हो गई है हसरत को ग़ुबार-ए-दिल में ढूँडो ज़िंदा मदफ़ून हो गई है वहशत का था नाम अव्वल अव्वल अब तो वो जुनून हो गई है वाइज़ ने बुरी नज़र से देखा मय शीशे में ख़ून हो गई है आरिज़ के क़रीन गुलाब का फूल हम-रंग की दून हो गई है बंदा हूँ तिरा ज़बान-ए-शीरीं दुनिया मम्नून हो गई है 'हैदर' शब-ए-ग़म में मर्ग-ए-नागाह शादी का शुगून हो गई है " mujh-ko-samjho-yaadgaar-e-raftagaan-e-lucknow-nazm-tabaa-tabaaii-ghazals," मुझ को समझो यादगार-ए-रफ़्तगान-ए-लखनऊ हूँ क़द-ए-आदम ग़ुबार-ए-कारवान-ए-लखनऊ ख़ून-ए-हसरत कह रहा है दास्तान-ए-लखनऊ रह गया है अब यही रंगीं-बयान-ए-लखनऊ गोश-ए-इबरत से सुने कोई मिरी फ़रियाद है बुलबुल-ए-ख़ूनीं नवा-ए-बोस्तान-ए-लखनऊ मेरे हर आँसू में इक आईना-ए-तस्वीर है मेरे हर नाले में है तर्ज़-ए-फ़ुग़ान-ए-लखनऊ ढूँढता है अब किसे ले कर चराग़-ए-आफ़्ताब क्यूँ मिटाया ऐ फ़लक तू ने निशान-ए-लखनऊ लखनऊ जिन से इबारत थी हुए वो नापदीद है निशान-ए-लखनऊ बाक़ी न शान-ए-लखनऊ अब नज़र आता नहीं वो मजमा-ए-अहल-ए-कमाल खा गए उन को ज़मीन-ओ-आसमान-ए-लखनऊ पहले था अहल-ए-ज़बाँ का दौर अब गर्दिश में हैं चाहिए थी तेग़-ए-उर्दू को फ़सान-ए-लखनऊ मर्सिया-गो कितने यकता-ए-ज़माना थे यहाँ कोई तो इतनों में होता नौहा-ख़्वान-ए-लखनऊ ये ग़ुबार-ए-ना-तावाँ ख़ाकिस्तर-ए-परवाना है ख़ानदान अपना था शम्-ए-दूदमान-ए-लखनऊ चलता था जब घुटनियों अपने यहाँ तिफ़्ल-ए-रज़ीअ' सज्दा करते थे उसे गर्दन-कुशान-ए-लखनऊ अहद-ए-पीराना-सरी में क्यूँ न शीरीं हो सुख़न बचपने में मैं ने चूसी है ज़बान-ए-लखनऊ गुलशन-ए-फ़िरदौस पर क्या नाज़ है रिज़वाँ तुझे पूछ उस के दिल से जो है रुत्बा-दान-ए-लखनऊ बू-ए-उन्स आती है 'हैदर' ख़ाक-ए-मटिया-बुर्ज से जम्अ' हैं इक जा वतन-आवारगान-ए-लखनऊ " udaa-kar-kaag-shiishe-se-mai-e-gul-guun-nikaltii-hai-nazm-tabaa-tabaaii-ghazals," उड़ा कर काग शीशे से मय-ए-गुल-गूँ निकलती है शराबी जम्अ हैं मय-ख़ाना में टोपी उछलती है बहार-ए-मय-कशी आई चमन की रुत बदलती है घटा मस्ताना उठती है हवा मस्ताना चलती है ज़-ख़ुद-रफ़्ता तबीअत कब सँभाले से सँभलती है न बन आती है नासेह से न कुछ वाइज़ की चलती है ये किस की है तमन्ना चुटकियाँ लेती है जो दिल में ये किस की आरज़ू है जो कलेजे को मसलती है वो दीवाना है जो इस फ़स्ल में फ़स्दें न खुलवाए रग-ए-हर-शाख़-ए-गुल से ख़ून की नद्दी उबलती है सहर होते ही दम निकला ग़श आते ही अजल आई कहाँ हूँ मैं नसीम-ए-सुब्ह पंखा किस को झलती है तमत्तो एक का है एक के नुक़साँ से आलम में कि साया फैलता जाता है जूँ जूँ धूप ढलती है बिना रक्खी है ग़म पर ज़ीस्त की ये हो गया साबित न लपका आह का छूटेगा जब तक साँस चलती है क़रार इक दम नहीं आता है ख़ून-ए-बे-गुनह पी कर कि अब तो ख़ुद ब-ख़ुद तलवार रह रह कर उगलती है जहन्नम की न आँच आएगी मय-ख़्वारों पे ओ वाइज़ शराब आलूदा हो जो शय वो कब आतिश में जलती है न दिखलाना इलाही एक आफ़त है शब-ए-फ़ुर्क़त न जो काटे से कटती है न जो टाले से टलती है ये अच्छा शुग़्ल वहशत में निकाला तू ने ऐ 'हैदर' गरेबाँ में उलझने से तबीअत तो बहलती है " is-vaaste-adam-kii-manzil-ko-dhuundte-hain-nazm-tabaa-tabaaii-ghazals," इस वास्ते अदम की मंज़िल को ढूँडते हैं मुद्दत से दोस्तों की महफ़िल को ढूँडते हैं ये दिल के पार हो कर फिर दिल को ढूँडते हैं तीर-ए-निगाह उस के बिस्मिल को ढूँडते हैं इक लहर में न थे हम क्यूँ ऐ हबाब देखा यूँ आँख बंद कर के साहिल को ढूँडते हैं तर्ज़-ए-करम की शाहिद हैं मेवा-दार शाख़ें इस तरह सर झुका कर साइल को ढूँडते हैं है वस्ल ओ हिज्र अपना ऐ क़ैस तुर्फ़ा-मज़मूँ महमिल में बैठे हैं और महमिल को ढूँडते हैं तूल-ए-अमल का रस्ता मुमकिन नहीं कि तय हो मंज़िल पे भी पहुँच कर मंज़िल को ढूँडते हैं हसरत शबाब की है अय्याम-ए-शेब में भी मादूम की हवस है ज़ाइल को ढूँडते हैं उठते हैं वलवले कुछ हर बार दर्द बन कर क्या जानिए जिगर को या दिल को ढूँडते हैं ज़ख़्म-ए-जिगर का मेरे है रश्क दोस्तों को मरता हूँ मैं कि ये क्यूँ क़ातिल को ढूँडते हैं अहल-ए-हवस की कश्ती यक बाम ओ दो हवा है दरिया-ए-इश्क़ में भी साहिल को ढूँडते हैं आया जो रहम मुझ पर इस में भी चाल है कुछ सीने पे हाथ रख कर अब दिल को ढूँडते हैं करते हैं कार-ए-फ़रहाद आसाँ ज़मीन में भी मुश्किल-पसंद हैं हम मुश्किल को ढूँडते हैं ऐ ख़िज़्र पय-ए-ख़जिस्ता बहर-ए-ख़ुदा करम कर भटके हुए मुसाफ़िर मंज़िल को ढूँडते हैं दिल-ख़्वाह तेरे इश्वे दिल-जू तिरे इशारे वो दिल टटोलते हैं ये दिल को ढूँडते हैं ऐ 'नज़्म' क्या बताएँ हज्ज-ओ-तवाफ़ अपना काबे में भी किसी की महमिल को ढूँडते हैं " subha-hai-zunnaar-kyuun-kaisii-kahii-nazm-tabaa-tabaaii-ghazals," सुब्हा है ज़ुन्नार क्यूँ कैसी कही ज़ाहिद-ए-अय्यार क्यूँ कैसी कही कट गए अग़्यार क्यूँ कैसी कही छा गई हर बार क्यूँ कैसी कही हैं ये सब इक़रार झूटे या नहीं कीजिए इक़रार क्यूँ कैसी कही रूठने से आप का मतलब ये है इस को आए प्यार क्यूँ कैसी कही कह दिया मैं ने सहर है झूट-मूट हो गए बेदार क्यूँ कैसी कही एक तो कहते हैं सदहा भपतियाँ और फिर इसरार क्यूँ कैसी कही नासेहा ये बहस दीवानों के साथ अक़्ल की है मार क्यूँ कैसी कही या ख़फ़ा थे या ज़रा सी बात पर हो गई बौछार क्यूँ कैसी कही मुझ से बैअत कर ले तू भी वाइज़ा हाथ लाना यार क्यूँ कैसी कही सुर्मा दे कर दिल के लेने का है क़स्द आँख तो कर चार क्यूँ कैसी कही जान दे दे चल के दर पर यार के ओ दिल-ए-बीमार क्यूँ कैसी कही क्या ही बिगड़े हो पत्ते की बात पर हो गए बेज़ार क्यूँ कैसी कही अब तो 'हैदर' और ही कुछ रंग हैं मानता हूँ यार क्यूँ कैसी कही " ehsaan-le-na-himmat-e-mardaana-chhod-kar-nazm-tabaa-tabaaii-ghazals," एहसान ले न हिम्मत-ए-मर्दाना छोड़ कर रस्ता भी चल तू सब्ज़ा-ए-बेगाना छोड़ कर मरने के बा'द फिर नहीं कोई शरीक-ए-हाल जाता है शम-ए-कुश्ता को परवाना छोड़ कर होंटों पे आज तक हैं शब-ए-ऐश के मज़े साक़ी का लब लिया लब-ए-पैमाना छोड़ कर अफ़ई नहीं खुली हुई ज़ुल्फ़ों का अक्स है जाते कहाँ हो आईना ओ शाना छोड़ कर तूल-ए-अमल पे दिल न लगाना कि अहल-ए-बज़्म जाएँगे ना-तमाम ये अफ़्साना छोड़ कर लबरेज़ जाम-ए-उम्र हुआ आ गई अजल लो उठ गए भरा हुआ पैमाना छोड़ कर उस पीर-ज़ाल-ए-दहर की हम ठोकरों में हैं जब से गई है हिम्मत-ए-मर्दाना छोड़ कर पहरों हमारा आप में आना मुहाल है कोसों निकल गया दिल-ए-दीवाना छोड़ कर उतरा जो शीशा ताक़ से ज़ाहिद का है ये हाल करता है रक़्स सज्दा-ए-शुकराना छोड़ कर ये सुमअ'-ओ-रिया तो निशानी है कुफ़्र की ज़ुन्नार बाँध सुब्हा-ए-सद-दाना छोड़ कर रिंदान-ए-मय-कदा भी हैं ऐ ख़िज़्र मुंतज़िर बस्ती में आइए कभी वीराना छोड़ कर एहसान सर पे लग़्ज़िश-ए-मस्ताना का हुआ हम दो क़दम न जा सके मय-ख़ाना छोड़ कर वादी बहुत मुहीब है बीम-ओ-उमीद का देखेंगे शेर पर दिल-ए-दीवाना छोड़ कर रो रो के कर रही है सुराही विदाअ' उसे जाता है दूर दूर जो पैमाना छोड़ कर तौबा तो की है 'नज़्म' बिना होगी किस तरह क्यूँ-कर जिओगे मशरब-ए-रिंदाना छोड़ कर " abas-hai-naaz-e-istignaa-pe-kal-kii-kyaa-khabar-kyaa-ho-nazm-tabaa-tabaaii-ghazals," अबस है नाज़-ए-इस्तिग़्ना पे कल की क्या ख़बर क्या हो ख़ुदा मालूम ये सामान क्या हो जाए सर क्या हो ये आह-ए-बे-असर क्या हो ये नख़्ल-ए-बे-समर क्या हो न हो जब दर्द ही या-रब तो दिल क्या हो जिगर क्या हो जहाँ इंसान खो जाता हो ख़ुद फिर उस की महफ़िल में रसाई किस तरह हो दख़्ल क्यूँकर हो गुज़र क्या हो न पूछूँगा मैं ये भी जाम में है ज़हर या अमृत तुम्हारे हाथ से अंदेशा-ए-नफ़-ओ-ज़रर क्या हो मुरव्वत से हो बेगाना वफ़ा से दूर हो कोसों ये सच है नाज़नीं हो ख़ूबसूरत हो मगर क्या हो शगूफ़े देख कर मुट्ठी में ज़र को मुस्कुराते हैं कि जब उम्र इस क़दर कोताह रखते हैं तो ज़र क्या हो रहा करती है ये हैरत मुझे ज़ुहद-ए-रियाई पर ख़ुदा से जो नहीं डरता उसे बंदे का डर क्या हो कहा मैं ने कि 'नज़्म'-ए-मुब्तला मरता है हसरत में कहा उस ने अगर मर जाए तो मेरा ज़रर क्या हो कहा मैं ने कि है सोज़-ए-जिगर और उफ़ नहीं करता कहा इस की इजाज़त ही नहीं फिर नौहागर क्या हो कहा मैं ने कि दे उस को इजाज़त आह करने की कहा उस ने भड़क उठ्ठे अगर सोज़-ए-जिगर क्या हो कहा मैं ने कि आँसू आँख का लेकिन नहीं थमता कहा आँखें कोई तलवों से मल डाले अगर क्या हो कहा मैं ने क़दम भर पर है वो सूरत दिखा आओ कहा मुँह फेर कर इतना किसी को दर्द-ए-सर क्या हो कहा मैं ने असर मुतलक़ नहीं क्या संग-दिल है तू कहा जब दिल हो पत्थर का तो पत्थर पर असर क्या हो कहा मैं ने जो मर जाए तो क्या हो सोच तू दिल में कहा ना-आक़िबत-अँदेश ने कुछ सोच कर क्या हो कहा मैं ने ख़बर भी है कि दी जाँ उस ने घुट घट कर कहा मर जाए चुपके से तो फिर मुझ को ख़बर क्या हो " koii-mai-de-yaa-na-de-ham-rind-e-be-parvaa-hain-aap-nazm-tabaa-tabaaii-ghazals," कोई मय दे या न दे हम रिंद-ए-बे-पर्वा हैं आप साक़िया अपनी बग़ल में शीशा-ए-सहबा हैं आप ग़ाफ़िल ओ होश्यार वो तिमसाल-ए-यक-आईना हैं वर्ता-ए-हैरत में नादाँ आप हैं दाना हैं आप क्यूँ रहे मेरी दुआ मिन्नत-कश-ए-बाल-ए-मलक नाला-ए-मस्ताना मेरे आसमाँ-पैमा हैं आप है तअ'ज्जुब ख़िज़्र को और आब-ए-हैवाँ की तलब और फिर उज़्लत-गुज़ीन-ए-दामन-ए-सहरा हैं आप मंज़िल-ए-तूल-ए-अमल दरपेश और मोहलत है कम राह किस से पूछिए हैरत में नक़्श-ए-पा हैं आप हक़ से तालिब दीद के हों हम बसीर ऐसे नहीं हम को जो कोतह-नज़र समझें वो ना-बीना हैं आप गुल हमा-तन-ज़ख़्म हैं फिर भी हमा-तन-गोश हैं बे-असर कुछ नाला-हा-ए-बुलबुल-ए-शैदा हैं आप हिर्स से शिकवा करूँ क्या हाथ फैलाने का मैं कहती है वो अपने हाथों ख़ल्क़ में रुस्वा हैं आप हम से ऐ अहल-ए-तन'अउम मुँह छुपाना चाहिए दम भरा करते हैं हम और आइना-सीमा हैं आप " pursish-jo-hogii-tujh-se-jallaad-kyaa-karegaa-nazm-tabaa-tabaaii-ghazals," पुर्सिश जो होगी तुझ से जल्लाद क्या करेगा ले ख़ून मैं ने बख़्शा तू याद क्या करेगा हूँ दाम में पुर-अफ़्शाँ और सादगी से हैराँ क्यूँ तेज़ की हैं छुरियाँ सय्याद क्या करेगा ज़ालिम ये सोच कर अब देता है बोसा-ए-लब जब होंट सी दिए फिर फ़रियाद क्या करेगा ज़ंजीर तार-ए-दामाँ है तौक़ इक गरेबाँ ज़ोर-ए-जुनूँ न कम हो हद्दाद क्या करेगा हम डूब कर मरेंगे हसरत रहेगी तुझ को जब ख़ाक ही न होगी बर्बाद क्या करेगा याक़ूब क़त्अ कर दें उम्मीद-ए-वस्ल दिल से यूसुफ़ सा बंदा कोई आज़ाद क्या करेगा दिल ले के पूछता है तू किस का शेफ़्ता है भूला अभी से ज़ालिम फिर याद क्या करेगा ऐ ख़त्त-ए-ब्याज़ आरिज़ दरकार है जो तुझ को तहरीर हुस्न की कुछ रूदाद क्या करेगा कुंज-ए-क़फ़स से इक दिन होगी रिहाई अपनी मर जाएँगे तो आख़िर सय्याद किया करेगा मिस्ल-ए-सिपंद दिल है बेताब सोज़-ए-ग़म में रह जाएगा तड़प कर फ़रियाद क्या करेगा ऐ शैख़ भर गया है क्यूँ वाज़ की हवा में रीश-ए-सफ़ेद अपनी बर्बाद क्या करेगा ज़ुल्म-ओ-सितम से भी अब ज़ालिम ने हाथ खींचा इस से सितम वो बढ़ कर ईजाद क्या करेगा अज़-बस-कि बे-हुनर हूँ मैं नंग-ए-मो'तरिज़ हूँ मज़मूँ पे मेरे कोई ईराद क्या करेगा ऐ ''नज़्म'' जिस को चाहे वो दे बहिश्त दोज़ख़ नमरूद क्या करेगा शद्दाद क्या करेगा " kyaa-kaarvaan-e-hastii-guzraa-ravaa-ravii-men-nazm-tabaa-tabaaii-ghazals," क्या कारवान-ए-हस्ती गुज़रा रवा-रवी में फ़र्दा को मैं ने देखा गर्द-ओ-ग़ुबार-ए-दी में थे महव लाला-ओ-गुल किस कैफ़-ए-बे-ख़ुदी में ज़ख़्म-ए-जिगर के टाँके टूटे हँसी हँसी में यारान-ए-बज़्म-ए-इशरत ढूँडूँ कहाँ मैं तुम को तारों की छाँव में या पिछले की चाँदनी में हर उक़्दा में जहाँ के पोशीदा है कशाकश है मौज-ए-ख़ंदा-ए-गुल पिन्हाँ कली कली में ज़ख़्मों में ख़ुद चमक है और उस पे ये सितम है रंग-ए-परीदा से मैं रहता हूँ चाँदनी में हम किस शुमार में थे पुर्सिश जो हम से होती ये इम्तियाज़ पाया आशोब-ए-आगही में हुक्म-ए-क़ज़ा हो जैसा सरज़द हो फ़ेअ'ल वैसा बंदा का दख़्ल भी है फिर इस कही बदी में रफ़्तार-ए-साया को है पस्त-ओ-बुलंद यकसाँ ठोकर कभी न खाए राह-ए-फ़रोतनी में वज्द आ गया फ़लक को ग़श आ गया ज़मीं को दो तरह के असर थे इक सौत-ए-सरमदी में ताबीर उस की शायद एक वापसीं नफ़स हो जो ख़्वाब देखते थे हम सारी ज़िंदगी में लाई हुबाब तक को सैल-ए-फ़ना बहा कर इक आह खींचने को इक दम की ज़िंदगी में महशर की आफ़तों का धड़का नहीं रहा अब सौ हश्र मैं ने देखे दो दिन की ज़िंदगी में पहलू में तू हो ऐ दिल फिर हसरतें हज़ारों किस बात की कमी है तेरी सलामती में पुर्सान-ए-हाल वो हो और सामने बुला कर क्या जानिए ज़बाँ से क्या निकले बे-ख़ुदी में तू एक ज़िल्ल-ए-हस्ती फिर कैसी ख़ुद-परस्ती साया की परवरिश है दामान-ए-बे-ख़ुदी में हाएल बस इक नफ़स है महशर में और हम में पर्दा हबाब का है फ़र्दा में और दी में आँखें दिखा रही है दिन से मुझे शब-ए-ग़म आसार तीरगी के हैं दिन की रौशनी में तू ने तो अपने दर से मुझ को उठा दिया है परछाईं फिर रही है मेरी उसी गली में सज्दा का हुक्म मुझ को तू ने तो अब दिया है पहले ही लिख चुका हूँ मैं ख़त्त-ए-बंदगी में ऐ 'नज़्म' छेड़ कर हम तुझ को हुए पशेमाँ क्या जानते थे ज़ालिम रो देगा दिल-लगी में " ye-aah-e-be-asar-kyaa-ho-ye-nakhl-e-be-samar-kyaa-ho-nazm-tabaa-tabaaii-ghazals," ये आह-ए-बे-असर क्या हो ये नख़्ल-ए-बे-समर क्या हो न हो जब दर्द ही यारब तो दिल क्या हो जिगर क्या हो बग़ल-गीर आरज़ू से हैं मुरादें आरज़ू मुझ से यहाँ इस वक़्त तो इक ईद है तुम जल्वा-गर क्या हो मुक़द्दर में ये लिक्खा है कटेगी उम्र मर-मर कर अभी से मर गए हम देखिए अब उम्र भर क्या हो मुरव्वत से हो बेगाना वफ़ा से दूर हो कोसों ये सच है नाज़नीं हो ख़ूबसूरत हो मगर क्या हो लगा कर ज़ख़्म में टाँके क़ज़ा तेरी न आ जाए जो वो सफ़्फ़ाक सुन पाए बता ऐ चारा-गर क्या हो क़यामत के बखेड़े पड़ गए आते ही दुनिया में ये माना हम ने मर जाना तो मुमकिन है मगर क्या हो कहा मैं ने कि 'नज़्म'-ए-मुब्तला मरता है हसरत में कहा उस ने अगर मर जाए तो मेरा ज़रर क्या हो " ye-huaa-maaal-hubaab-kaa-jo-havaa-men-bhar-ke-ubhar-gayaa-nazm-tabaa-tabaaii-ghazals," ये हुआ मआल हुबाब का जो हवा में भर के उभर गया कि सदा है लुतमा-ए-मौज की सर-ए-पुर-ग़ुरूर किधर गया मुझे जज़्ब-ए-दिल ने ऐ जुज़ बहक के रखा क़दम कोई मुझे पर लगाए शौक़ ने कहीं थक के मैं जो ठहर गया मुझे पीरी और शबाब में जो है इम्तियाज़ तो इस क़दर कोई झोंका बाद-ए-सहर का था मिरे पास से जो गुज़र गया असर उस के इश्वा-ए-नाज़ का जो हुआ वो किस से बयाँ करूँ मुझे तो अजल की है आरज़ू उसे वहम है कि ये मर गया तुझे ऐ ख़तीब-ए-चमन नहीं ख़बर अपने ख़ुत्बा-ए-शौक़ में कि किताब-ए-गुल का वरक़ वरक़ तिरी बे-ख़ुदी से बिखर गया किसे तू सुनाता है हम-नशीं कि है इश्वा-ए-दुश्मन-ए-अक़्ल-ओ-दीं तिरे कहने का है मुझे यक़ीं मैं तिरे डराने से डर गया करूँ ज़िक्र क्या मैं शबाब का सुने कौन क़िस्सा ये ख़्वाब का ये वो रात थी कि गुज़र गई ये वो नश्शा था कि उतर गया दिल-ए-ना-तवाँ को तकान हो मुझे उस की ताब न थी ज़रा ग़म-ए-इंतिज़ार से बच गया था नवेद-ए-वस्ल से मर गया मिरे सब्र-ओ-ताब के सामने न हुजूम-ए-ख़ौफ़-ओ-रजा रहा वो चमक के बर्क़ रह गई वो गरज के अब्र गुज़र गया मुझे बहर-ए-ग़म से उबूर की नहीं फ़िक्र ऐ मिरे चारा-गर नहीं कोई चारा-कार अब मिरे सर से आब गुज़र गया मुझे राज़-ए-इश्क़ के ज़ब्त में जो मज़ा मिला है न पूछिए मय-ए-अँगबीं का ये घूँट था कि गले से मेरे उतर गया नहीं अब जहान में दोस्ती कभी रास्ते में जो मिल गए नहीं मतलब एक को एक से ये इधर चला वो उधर गया अगर आ के ग़ुस्सा नहीं रहा तो लगी थी आग कि बुझ गई जो हसद का जोश फ़रो हुआ तो ये ज़हर चढ़ के उतर गया तुझे 'नज़्म' वादी-ए-शौक़ में अबस एहतियात है इस क़दर कहीं गिरते गिरते सँभल गया कहीं चलते चलते ठहर गया " phirii-huii-mirii-aankhen-hain-teg-zan-kii-taraf-nazm-tabaa-tabaaii-ghazals," फिरी हुई मिरी आँखें हैं तेग़-ज़न की तरफ़ चला है छोड़ के बिस्मिल मुझे हिरन की तरफ़ बनाया तोड़ के आईना आईना-ख़ाना न देखी राह जो ख़ल्वत से अंजुमन की तरफ़ रह-ए-वफ़ा को न छोड़ा वो अंदलीब हूँ मैं छुटा क़फ़स से तो पर्वाज़ की चमन की तरफ़ गुरेज़ चाहिए तूल-ए-अमल से सालिक को सुना है राह ये जाती है राहज़न की तरफ़ सरा-ए-दहर में सोओगे ग़ाफ़िलो कब तक उठो तो क्या तुम्हें जाना नहीं वतन की तरफ़ जो अहल-ए-दिल हैं अलग हैं वो अहल-ए-ज़ाहिर से न मैं हूँ शैख़ की जानिब न बरहमन की तरफ़ जहान-ए-हादसा-आगीन में बशर का वरूद गुज़र हबाब का दरिया-ए-मौजज़न की तरफ़ इसी उमीद पे हम दिन ख़िज़ाँ के काटते हैं कभी तो बाद-ए-बहार आएगी चमन की तरफ़ बिछड़ के तुझ से मुझे है उमीद मिलने की सुना है रूह को आना है फिर बदन की तरफ़ गवाह कौन मिरे क़त्ल का हो महशर में अभी से सारा ज़माना है तेग़-ज़न की तरफ़ ख़बर दी उठ के क़यामत ने उस के आने की ख़ुदा ही ख़ैर करे रुख़ है अंजुमन की तरफ़ वो अपने रुख़ की सबाहत को आप देखते हैं झुके हुए गुल-ए-नर्गिस हैं यासमन की तरफ़ तमाम बज़्म है क्या महव उस की बातों में नज़र दहन की तरफ़ कान है सुख़न की तरफ़ असीर हो गया दिल गेसुओं में ख़ूब हुआ चला था डूब के मरने चह-ए-ज़क़न की तरफ़ ये मय-कशों की अदा अब्र-ए-तर भी सीख गए किनार-ए-जू से जो उठ्ठे चले चमन की तरफ़ ज़हे-नसीब जो हो कर्बला की मौत ऐ 'नज़्म' कि उड़ के ख़ाक-ए-शिफ़ा आए ख़ुद कफ़न की तरफ़ " tanhaa-nahiin-huun-gar-dil-e-diivaana-saath-hai-nazm-tabaa-tabaaii-ghazals," तन्हा नहीं हूँ गर दिल-ए-दीवाना साथ है वो हर्ज़ा-गर्द हूँ कि परी-ख़ाना साथ है हंगामा इक परी की सवारी का देखना क्या धूम है कि सैकड़ों दीवाना साथ है दिल में हैं लाख तरह के हीले भरे हुए फिर मशवरा को आईना ओ शाना साथ है रोज़-ए-सियह में साथ कोई दे तो जानिए जब तक फ़रोग़-ए-शम्अ है परवाना साथ है देता नहीं है साथ तही-दस्त का कोई जब तक कि मय है शीशे में पैमाना साथ है सीखा हूँ मै-कदे में तरीक़-ए-फ़रोतनी जब तक कि सर है सज्दा-ए-शुकराना साथ है जो बे-बसर हैं ढूँडते फिरते हैं दूर दूर और हर क़दम पे जल्वा-ए-जानाना साथ है क्या ख़ौफ़ हो हमें ज़न-ए-दुनिया के मक्र का अपनी मदद को हिम्मत-ए-मर्दाना साथ है ग़म की किताब से दिल-ए-सद-पारा कम नहीं जिस बज़्म में गए यही अफ़्साना साथ है मानिंद-ए-गर्द-बाद हूँ ख़ाना-ब-दोश मैं सहरा में हूँ मगर मिरा काशाना साथ है " aa-ke-mujh-tak-kashtii-e-mai-saaqiyaa-ultii-phirii-nazm-tabaa-tabaaii-ghazals," आ के मुझ तक कश्ती-ए-मय साक़िया उल्टी फिरी आज क्या नद्दी बही उल्टी हवा उल्टी फिरी आते आते लब पर आह-ए-ना-रसा उल्टी फिरी वो भी मेरा ही दबाने को गला उल्टी फिरी मुड़ के देखा उस ने और वार अबरुओं का चल गया इक छुरी सीधी फिरी और इक ज़रा उल्टी फिरी ला सका नज़्ज़ारा-ए-रुख़्सार-ए-रौशन की न ताब जा के आईने पे चेहरे की ज़िया उल्टी फिरी रास्त-बाज़ों ही को पीसा आसमाँ ने रात दिन वा-ए-क़िस्मत जब फिरी ये आसिया उल्टी फिरी जो बड़ा बोल एक दिन बोले थे पेश आया वही गुम्बद-ए-गर्दूं से टकरा कर सदा उल्टी फिरी रिज़्क़ खा कर ग़ैर की क़िस्मत का ज़ंबूर-ए-असल तू ने देखा हल्क़ तक जा कर ग़िज़ा उल्टी फिरी तू सताइश-गर है उस का जो है तेरा मद्ह-ख़्वाँ ये तो ऐ मुशफ़िक़ ज़मीर-ए-मर्हबा उल्टी फिरी जिस पर आई थी तबीअत की उसी ने कुछ न क़द्र जिंस-ए-दिल मानिंद-ए-जिंस-ए-नारवा उल्टी फिरी या तो कुशी डूबती थी या चली साहिल से दूर वाए नाकामी फिरी भी तो हवा उल्टी फिरी गिरने वाला है किसी दुश्मन पे क्या तीर-ए-शहाब आसमाँ तक जा के क्यूँ आह-ए-रसा उल्टी फिरी जी गया मैं उस के आ जाने से दुश्मन मर गया देख कर ईसा को बालीं पर क़ज़ा उल्टी फिरी मर गया बे-मौत मैं आख़िर अजल भी दूर है कूचा-ए-क़ातिल का बतला कर पता उल्टी फिरी हिज्र की शब मुझ को उल्टी साँस लेते देख कर एक ही दम में वहाँ जा कर सबा उल्टी फिरी है मिरा वीराना-ए-ग़म 'नज़्म' ऐसा हौल-नाक मौज-ए-सैल आई तो ले कर बोरिया उल्टी फिरी " junuun-ke-valvale-jab-ghut-gae-dil-men-nihaan-ho-kar-nazm-tabaa-tabaaii-ghazals," जुनूँ के वलवले जब घुट गए दिल में निहाँ हो कर तो उट्ठे हैं धुआँ हो कर गिरे हैं बिजलियाँ हो कर कुछ आगे बढ़ चले सामान-ए-राहत ला-मकाँ हो कर फ़लक पीछे रहा जाता है गर्द-ए-कारवाँ हो कर किसी दिन तो चले ऐ आसमाँ बाद-ए-मुराद ऐसी कि उतरें कश्ती-ए-मय पर घटाएँ बादबाँ हो कर न जाने किस बयाबाँ मर्ग ने मिट्टी नहीं पाई बगूले जा रहे हैं कारवाँ-दर-कारवाँ हो कर वफ़ूर-ए-ज़ब्त से बेताबी-ए-दिल बढ़ नहीं सकती गले तक आ के रह जाते हैं नाले हिचकियाँ हो कर गुलू-गीर अब तो ऐसा इंक़लाब-ए-रंग-ए-आलम है कि नग़्मे निकले मिन्क़ार-ए-अनादिल से फ़ुग़ाँ हो कर जो हो कर अब्र से मायूस ख़ुद सींचे कभी दहक़ाँ जला दें खेत को पानी की लहरें बिजलियाँ हो कर जहाँ में वाशुद-ए-ख़ातिर के सामाँ हो गए लाशे जगह राहत की ना-मुम्किन हुई है ला-मकाँ हो कर हँसे कोई न बिजली के सिवा इस दार-ए-मातम में अगर रह जाए सारा खेत किश्त-ए-ज़ाफ़राँ हो कर अलम में आशियाँ के इस क़दर तिनके चुने मैं ने कि आख़िर बाइस-ए-तस्कीं हुए हैं आशियाँ हो कर घटाएँ घिर के क्या क्या हसरत-ए-फ़रहाद पर रोईं चमन तक आ गईं नहरें पहाड़ों से रवाँ हो कर दिल-ए-शैदा ने पाया इश्क़ में मेराज का रुत्बा यहाँ अक्सर बुतों के ज़ुल्म टूटे आसमाँ हो कर जो डरते डरते दिल से एक हर्फ़-ए-शौक़ निकला था वो उस के सामने आया ज़बाँ पर दास्ताँ हो कर निकल आए हैं हर इक़रार में इंकार के पहलू बना देती हैं हैराँ तेरी बातें मक्र याँ हो कर नज़ाकत का ये आलम फूल भी तोड़े तो बल खा कर न जाने दिल मिरा किस तरह तोड़ा पहलवाँ हो कर तदर्रौ-ओ-कबक पर हँस कर उठ्ठे ख़ुद लड़खड़ाते हैं सुबुक करते हैं उन को पाएँचे बार-ए-गिराँ हो कर गला घोंटा है ज़ब्त-ए-ग़म ने कुछ ऐसा कि मुश्किल है कि निकले मुँह से आवाज़-ए-शिकस्त-ए-दिल फ़ुग़ाँ हो कर पता अंदेशा-ए-सालिक ने पाया मंज़िल-ए-दिल का तू पल्टा ला-मकाँ से आसमाँ-दर-आसमाँ हो कर हुई फिर देखिए आ बुस्तन-ए-शादी-ओ-ग़म दुनिया अभी पैदा हुए थे रंज-ओ-राहत तो अमाँ हो कर जो निकली होगी कोई आरज़ू तो ये भी निकलेगा तुम्हारा तीर-ए-हसरत बन गया दिल में निहाँ हो कर उतर जाएगा तू ओ आफ़्ताब-ए-हुस्न कोठे से गिरेगा साया-ए-दीवार हम पर आसमाँ हो कर " yuun-main-siidhaa-gayaa-vahshat-men-bayaabaan-kii-taraf-nazm-tabaa-tabaaii-ghazals," यूँ मैं सीधा गया वहशत में बयाबाँ की तरफ़ हाथ जिस तरह से आता है गरेबाँ की तरफ़ बैठे बैठे दिल-ए-ग़म-गीं को ये क्या लहर आई उठ के तूफ़ान चला दीदा-ए-गिर्यां की तरफ़ देखना लाला-ए-ख़ुद-रौ का लहकना साक़ी कोह से दौड़ गई आग बयाबाँ की तरफ़ रो दिया देख के अक्सर मैं बहार-ए-शबनम हँस दिया देख के अक्सर गुल-ए-ख़ंदाँ की तरफ़ बात छुपती नहीं पड़ती हैं निगाहें सब की उस के दामन की तरफ़ मेरे गरेबाँ की तरफ़ सैकड़ों दाग़-ए-गुनह धो गए रहमत से तिरी क्या घटा झूम के आई थी गुलिस्ताँ की तरफ़ चश्म-ए-आईना परेशाँ-नज़री सीख गई देखता था ये बहुत ज़ुल्फ़-ए-परेशाँ की तरफ़ सर झुकाए हुए है 'नज़्म' बसान-ए-ख़ामा सम्त सज्दे की है तेरी ख़त-ए-फ़रमाँ की तरफ़ " yuun-to-na-tere-jism-men-hain-ziinhaar-haath-nazm-tabaa-tabaaii-ghazals," यूँ तो न तेरे जिस्म में हैं ज़ीनहार हाथ देने के ऐ करीम मगर हैं हज़ार हाथ अंगड़ाइयों में फैलते हैं बार बार हाथ शीशा की सम्त बढ़ते हैं बे-इख़्तियार हाथ डूबे हैं तर्क-ए-सइ से अफ़सोस तो ये है साहिल था हाथ भर पे लगाते जो चार हाथ आती है जब नसीम तो कहती है मौज-ए-बहर यूँ आबरू समेट अगर हों हज़ार हाथ दरपय हैं मेरे क़त्ल के अहबाब और मैं ख़ुश हूँ कि मेरे ख़ून में रंगते हैं यार हाथ दामन-कशाँ चली है बदन से निकल के रूह खिंचते हैं फैलते हैं जो यूँ बार बार हाथ मिटता नहीं नविश्ता-ए-क़िस्मत किसी तरह पत्थर से सर को फोड़ कि ज़ानू पे मार हाथ साक़ी सँभालना कि है लबरेज़ जाम-ए-मय लग़्ज़िश है मेरे पाँव में और राशा-दार हाथ मुतरिब से पूछ मसअला-ए-जब्र-ओ-इख़्तियार क्या ताल सम पे उठते हैं बे-इख़्तियार हाथ मैं और हूँ अलाएक-ए-दुनिया के दाम में मेरा न एक हाथ न उस के हज़ार हाथ ऐ 'नज़्म' वस्ल में भी रहा तू न चैन से दिल को हुआ क़रार तो है बे-क़रार हाथ " is-mahiina-bhar-kahaan-thaa-saaqiyaa-achchhii-tarah-nazm-tabaa-tabaaii-ghazals," इस महीना भर कहाँ था साक़िया अच्छी तरह आ इधर आ ईद तो मिल लें ज़रा अच्छी तरह उँगलियाँ कानों में रख कर ऐ मुसाफ़िर सुन ज़रा आ रही है साफ़ आवाज़-ए-दरा अच्छी तरह चश्म-ए-मूसा ला सकी इक उस के जल्वे की न ताब चश्म-ए-दिल से जिस को देखा बार-हा अच्छी तरह फ़ासला ऐसा नहीं कुछ अर्श की ज़ंजीर से क्या कहूँ बढ़ता नहीं दस्त-ए-दुआ अच्छी तरह अहल-ए-सूरत को नहीं है अच्छी सीरत से ग़रज़ अच्छी सूरत चाहिए अच्छी अदा अच्छी तरह शाहिदान-ए-लाला-ओ-गुल की ख़बर लाई है कुछ साल भर के ब'अद आई ऐ सबा अच्छी तरह सीख लेगी बल की लेना ता-कमर आने तो दो बल अभी करती नहीं ज़ुल्फ़-ए-दोता अच्छी तरह शीशा-ओ-जाम-ओ-सुबू भर ले मय-ए-गुल-रंग से आज साक़ी घिर के आई है घटा अच्छी तरह लेते हैं अहल-ए-जुनूँ क्या क्या तसव्वुर के मज़े आँख से परियों को देखा बार-हा अच्छी तरह दे रही है उस की ख़ामोशी सदा-ए-दूर-बाश ये नहीं कहता कि 'नज़्म'-ए-मुब्तला अच्छी तरह " aa-gayaa-phir-ramazaan-kyaa-hogaa-nazm-tabaa-tabaaii-ghazals," आ गया फिर रमज़ाँ क्या होगा हाए ऐ पीर-ए-मुग़ाँ क्या होगा बाग़-ए-जन्नत में समाँ क्या होगा तू नहीं जब तो वहाँ क्या होगा ख़ुश वो होता है मिरे नालों से और अंदाज़-ए-फ़ुग़ाँ क्या होगा दूर की राह है सामाँ हैं बड़े इतनी मोहलत है कहाँ क्या होगा देख लो रंग-ए-परीदा को मिरे दिल जलेगा तो धुआँ क्या होगा होगा बस एक निगह में जो तमाम वो ब-हसरत निगराँ क्या होगा हम ने माना कि मिला मुल्क-ए-जहाँ न रहे हम तो जहाँ क्या होगा मर के जब ख़ाक में मिलना ठहरा फिर ये तुर्बत का निशाँ क्या होगा जिस तरह दिल हुआ टुकड़े अज़-ख़ुद चाक इस तरह कताँ क्या होगा या तिरा ज़िक्र है या नाम तिरा और फिर विर्द-ए-ज़बाँ क्या होगा इश्क़ से बाज़ न आना 'हैदर' राज़ होने दे अयाँ क्या होगा " kyaa-kahen-kis-se-pyaar-kar-baithe-syed-ali-haider-taba-tabai-ghazals," क्या कहें किस से प्यार कर बैठे अपने दिल को फ़िगार कर बैठे सब्र की इक क़बा जो बाक़ी थी उस को भी तार तार कर बैठे आज फिर उन की आमद आमद है हम ख़िज़ाँ को बहार कर बैठे वाए उस बुत का वा'दा-ए-फ़र्दा उम्र भर इंतिज़ार कर बैठे ख़ुद जो ग़म हैं तो आइना हैराँ किस ग़ज़ब का सिंघार कर बैठे हम तही-दस्त तुझ को क्या देते जान तुझ पर निसार कर बैठे " nadaamat-hai-banaa-kar-is-chaman-men-aashiyaan-mujh-ko-nazm-tabaa-tabaaii-ghazals," नदामत है बना कर इस चमन में आशियाँ मुझ को मिला हमदम यहाँ कोई न कोई हम-ज़बाँ मुझ को दिखाए जा रवानी तौसन-ए-उम्र-ए-रवाँ मुझ को हिलाल-ए-बर्क़ से रख हम-रिकाब-ओ-हम-इनाँ मुझ को बनाया ना-तवानी ने सुलैमान-ए-ज़माँ मुझ को उड़ा कर ले चले मौज-ए-नसीम-ए-बोस्ताँ मुझ को दम-ए-सुब्ह-ए-अज़ल से मैं नवा-संजों में हूँ तेरे बताया बुलबुल-ए-सिदरा ने अंदाज़-ए-फ़ुग़ाँ मुझ को मिरी बातों में क्या मालूम कब सोए वो कब जागे सिरे से इस लिए कहनी पड़ी फिर दास्ताँ मुझ को बहा कर क़ाफ़िला से दूर जिस्म-ए-ज़ार को फेंका कि मौज-ए-सैल थी बाँग-ए-दरा-ए-कारवाँ मुझ को ये दिल की बे-क़रारी ख़ाक हो कर भी न जाएगी सुनाती है लब-ए-साहिल से ये रेग-ए-रवाँ मुझ को उड़ाई ख़ाक जिस सहरा में तेरे वास्ते मैं ने थका-माँदा मिला इन मंज़िलों में आसमाँ मुझ को तसव्वुर शम्अ का जिस को जिला दे हूँ वो परवाना लग उट्ठी आग दिल में जब नज़र आया धुआँ मुझ को वो जिस आलम में जा पहुँचा वहाँ मैं किस तरह जाऊँ हुआ दिल आप से बाहर पिन्हा कर बेड़ियाँ मुझ को ग़ुबार-ए-राह से ऐ 'नज़्म' ये आवाज़ आती है गई ऐ उम्र-ए-रफ़्ता तू किधर फेंका कहाँ मुझ को " kisii-se-bas-ki-umiid-e-kushuud-e-kaar-nahiin-nazm-tabaa-tabaaii-ghazals," किसी से बस कि उमीद-ए-कुशूद-ए-कार नहीं मुझे अजल के भी आने का ए'तिबार नहीं जवाब नामे का क़ासिद मज़ार पर लाया कि जानता था उसे ताब-ए-इंतिज़ार नहीं ये कह के उठ गई बालीं से मेरी शम-ए-सहर तमाम हो गई शब और तुझे क़रार नहीं जो तू हो पास तो हूर-ओ-क़ुसूर सब कुछ हो जो तू नहीं तो नहीं बल्कि ज़ीनहार नहीं ख़िज़ाँ के आने से पहले ही था मुझे मा'लूम कि रंग-ओ-बू-ए-चमन का कुछ ए'तिबार नहीं ग़ज़ल कही है कि मोती पिरोए हैं ऐ 'नज़्म' वो कौन शे'र है जो दुर्र-ए-शाहवार नहीं " gavaahii-kaise-tuuttii-muaamla-khudaa-kaa-thaa-parveen-shakir-ghazals," गवाही कैसे टूटती मुआ'मला ख़ुदा का था मिरा और उस का राब्ता तो हाथ और दुआ का था गुलाब क़ीमत-ए-शगुफ़्त शाम तक चुका सके अदा वो धूप को हुआ जो क़र्ज़ भी सबा का था बिखर गया है फूल तो हमीं से पूछ-गछ हुई हिसाब बाग़बाँ से है किया-धरा हवा का था लहू-चशीदा हाथ उस ने चूम कर दिखा दिया जज़ा वहाँ मिली जहाँ कि मरहला सज़ा का था जो बारिशों से क़ब्ल अपना रिज़्क़ घर में भर चुका वो शहर-ए-मोर से न था प दूरबीं बला का था " vo-ham-nahiin-jinhen-sahnaa-ye-jabr-aa-jaataa-parveen-shakir-ghazals," वो हम नहीं जिन्हें सहना ये जब्र आ जाता तिरी जुदाई में किस तरह सब्र आ जाता फ़सीलें तोड़ न देते जो अब के अहल-ए-क़फ़स तू और तरह का एलान-ए-जब्र आ जाता वो फ़ासला था दुआ और मुस्तजाबी में कि धूप माँगने जाते तो अब्र आ जाता वो मुझ को छोड़ के जिस आदमी के पास गया बराबरी का भी होता तो सब्र आ जाता वज़ीर ओ शाह भी ख़स-ख़ानों से निकल आते अगर गुमान में अँगार-ए-क़ब्र आ जाता " apnii-tanhaaii-mire-naam-pe-aabaad-kare-parveen-shakir-ghazals," अपनी तन्हाई मिरे नाम पे आबाद करे कौन होगा जो मुझे उस की तरह याद करे दिल अजब शहर कि जिस पर भी खुला दर इस का वो मुसाफ़िर इसे हर सम्त से बरबाद करे अपने क़ातिल की ज़ेहानत से परेशान हूँ मैं रोज़ इक मौत नए तर्ज़ की ईजाद करे इतना हैराँ हो मिरी बे-तलबी के आगे वा क़फ़स में कोई दर ख़ुद मिरा सय्याद करे सल्ब-ए-बीनाई के अहकाम मिले हैं जो कभी रौशनी छूने की ख़्वाहिश कोई शब-ज़ाद करे सोच रखना भी जराएम में है शामिल अब तो वही मासूम है हर बात पे जो साद करे जब लहू बोल पड़े उस के गवाहों के ख़िलाफ़ क़ाज़ी-ए-शहर कुछ इस बाब में इरशाद करे उस की मुट्ठी में बहुत रोज़ रहा मेरा वजूद मेरे साहिर से कहो अब मुझे आज़ाद करे " vo-to-khush-buu-hai-havaaon-men-bikhar-jaaegaa-parveen-shakir-ghazals," वो तो ख़ुश-बू है हवाओं में बिखर जाएगा मसअला फूल का है फूल किधर जाएगा हम तो समझे थे कि इक ज़ख़्म है भर जाएगा क्या ख़बर थी कि रग-ए-जाँ में उतर जाएगा वो हवाओं की तरह ख़ाना-ब-जाँ फिरता है एक झोंका है जो आएगा गुज़र जाएगा वो जब आएगा तो फिर उस की रिफ़ाक़त के लिए मौसम-ए-गुल मिरे आँगन में ठहर जाएगा आख़िरश वो भी कहीं रेत पे बैठी होगी तेरा ये प्यार भी दरिया है उतर जाएगा मुझ को तहज़ीब के बर्ज़ख़ का बनाया वारिस जुर्म ये भी मिरे अज्दाद के सर जाएगा " ik-hunar-thaa-kamaal-thaa-kyaa-thaa-parveen-shakir-ghazals," इक हुनर था कमाल था क्या था मुझ में तेरा जमाल था क्या था तेरे जाने पे अब के कुछ न कहा दिल में डर था मलाल था क्या था बर्क़ ने मुझ को कर दिया रौशन तेरा अक्स-ए-जलाल था क्या था हम तक आया तू बहर-ए-लुत्फ़-ओ-करम तेरा वक़्त-ए-ज़वाल था क्या था जिस ने तह से मुझे उछाल दिया डूबने का ख़याल था क्या था जिस पे दिल सारे अहद भूल गया भूलने का सवाल था क्या था तितलियाँ थे हम और क़ज़ा के पास सुर्ख़ फूलों का जाल था क्या था " vaqt-e-rukhsat-aa-gayaa-dil-phir-bhii-ghabraayaa-nahiin-parveen-shakir-ghazals," वक़्त-ए-रुख़्सत आ गया दिल फिर भी घबराया नहीं उस को हम क्या खोएँगे जिस को कभी पाया नहीं ज़िंदगी जितनी भी है अब मुस्तक़िल सहरा में है और इस सहरा में तेरा दूर तक साया नहीं मेरी क़िस्मत में फ़क़त दुर्द-ए-तह-ए-साग़र ही है अव्वल-ए-शब जाम मेरी सम्त वो लाया नहीं तेरी आँखों का भी कुछ हल्का गुलाबी रंग था ज़ेहन ने मेरे भी अब के दिल को समझाया नहीं कान भी ख़ाली हैं मेरे और दोनों हाथ भी अब के फ़स्ल-ए-गुल ने मुझ को फूल पहनाया नहीं " chalne-kaa-hausla-nahiin-ruknaa-muhaal-kar-diyaa-parveen-shakir-ghazals," चलने का हौसला नहीं रुकना मुहाल कर दिया इश्क़ के इस सफ़र ने तो मुझ को निढाल कर दिया ऐ मिरी गुल-ज़मीं तुझे चाह थी इक किताब की अहल-ए-किताब ने मगर क्या तिरा हाल कर दिया मिलते हुए दिलों के बीच और था फ़ैसला कोई उस ने मगर बिछड़ते वक़्त और सवाल कर दिया अब के हवा के साथ है दामन-ए-यार मुंतज़िर बानू-ए-शब के हाथ में रखना सँभाल कर दिया मुमकिना फ़ैसलों में एक हिज्र का फ़ैसला भी था हम ने तो एक बात की उस ने कमाल कर दिया मेरे लबों पे मोहर थी पर मेरे शीशा-रू ने तो शहर के शहर को मिरा वाक़िफ़-ए-हाल कर दिया चेहरा ओ नाम एक साथ आज न याद आ सके वक़्त ने किस शबीह को ख़्वाब ओ ख़याल कर दिया मुद्दतों बा'द उस ने आज मुझ से कोई गिला किया मंसब-ए-दिलबरी पे क्या मुझ को बहाल कर दिया " agarche-tujh-se-bahut-ikhtilaaf-bhii-na-huaa-parveen-shakir-ghazals," अगरचे तुझ से बहुत इख़्तिलाफ़ भी न हुआ मगर ये दिल तिरी जानिब से साफ़ भी न हुआ तअ'ल्लुक़ात के बर्ज़ख़ में ही रखा मुझ को वो मेरे हक़ में न था और ख़िलाफ़ भी न हुआ अजब था जुर्म-ए-मोहब्बत कि जिस पे दिल ने मिरे सज़ा भी पाई नहीं और मुआ'फ़ भी न हुआ मलामतों में कहाँ साँस ले सकेंगे वो लोग कि जिन से कू-ए-जफ़ा का तवाफ़ भी न हुआ अजब नहीं है कि दिल पर जमी मिली काई बहुत दिनों से तो ये हौज़ साफ़ भी न हुआ हवा-ए-दहर हमें किस लिए बुझाती है हमें तो तुझ से कभी इख़्तिलाफ़ भी न हुआ " taraash-kar-mire-baazuu-udaan-chhod-gayaa-parveen-shakir-ghazals," तराश कर मिरे बाज़ू उड़ान छोड़ गया हवा के पास बरहना कमान छोड़ गया रफ़ाक़तों का मिरी उस को ध्यान कितना था ज़मीन ले ली मगर आसमान छोड़ गया अजीब शख़्स था बारिश का रंग देख के भी खुले दरीचे पे इक फूल-दान छोड़ गया जो बादलों से भी मुझ को छुपाए रखता था बढ़ी है धूप तो बे-साएबान छोड़ गया निकल गया कहीं अन-देखे पानियों की तरफ़ ज़मीं के नाम खुला बादबान छोड़ गया उक़ाब को थी ग़रज़ फ़ाख़्ता पकड़ने से जो गिर गई तो यूँही नीम-जान छोड़ गया न जाने कौन सा आसेब दिल में बस्ता है कि जो भी ठहरा वो आख़िर मकान छोड़ गया अक़ब में गहरा समुंदर है सामने जंगल किस इंतिहा पे मिरा मेहरबान छोड़ गया " kyaa-kare-merii-masiihaaii-bhii-karne-vaalaa-parveen-shakir-ghazals-3," क्या करे मेरी मसीहाई भी करने वाला ज़ख़्म ही ये मुझे लगता नहीं भरने वाला ज़िंदगी से किसी समझौते के बा-वस्फ़ अब तक याद आता है कोई मारने मरने वाला उस को भी हम तिरे कूचे में गुज़ार आए हैं ज़िंदगी में वो जो लम्हा था सँवरने वाला उस का अंदाज़-ए-सुख़न सब से जुदा था शायद बात लगती हुई लहजा वो मुकरने वाला शाम होने को है और आँख में इक ख़्वाब नहीं कोई इस घर में नहीं रौशनी करने वाला दस्तरस में हैं अनासिर के इरादे किस के सो बिखर के ही रहा कोई बिखरने वाला इसी उम्मीद पे हर शाम बुझाए हैं चराग़ एक तारा है सर-ए-बाम उभरने वाला " kuu-ba-kuu-phail-gaii-baat-shanaasaaii-kii-parveen-shakir-ghazals," कू-ब-कू फैल गई बात शनासाई की उस ने ख़ुशबू की तरह मेरी पज़ीराई की कैसे कह दूँ कि मुझे छोड़ दिया है उस ने बात तो सच है मगर बात है रुस्वाई की वो कहीं भी गया लौटा तो मिरे पास आया बस यही बात है अच्छी मिरे हरजाई की तेरा पहलू तिरे दिल की तरह आबाद रहे तुझ पे गुज़रे न क़यामत शब-ए-तन्हाई की उस ने जलती हुई पेशानी पे जब हाथ रखा रूह तक आ गई तासीर मसीहाई की अब भी बरसात की रातों में बदन टूटता है जाग उठती हैं अजब ख़्वाहिशें अंगड़ाई की " harf-e-taaza-naii-khushbuu-men-likhaa-chaahtaa-hai-parveen-shakir-ghazals," हर्फ़-ए-ताज़ा नई ख़ुशबू में लिखा चाहता है बाब इक और मोहब्बत का खुला चाहता है एक लम्हे की तवज्जोह नहीं हासिल उस की और ये दिल कि उसे हद से सिवा चाहता है इक हिजाब-ए-तह-ए-इक़रार है माने वर्ना गुल को मालूम है क्या दस्त-ए-सबा चाहता है रेत ही रेत है इस दिल में मुसाफ़िर मेरे और ये सहरा तिरा नक़्श-ए-कफ़-ए-पा चाहता है यही ख़ामोशी कई रंग में ज़ाहिर होगी और कुछ रोज़ कि वो शोख़ खुला चाहता है रात को मान लिया दिल ने मुक़द्दर लेकिन रात के हाथ पे अब कोई दिया चाहता है तेरे पैमाने में गर्दिश नहीं बाक़ी साक़ी और तिरी बज़्म से अब कोई उठा चाहता है " baarish-huii-to-phuulon-ke-tan-chaak-ho-gae-parveen-shakir-ghazals," बारिश हुई तो फूलों के तन चाक हो गए मौसम के हाथ भीग के सफ़्फ़ाक हो गए बादल को क्या ख़बर है कि बारिश की चाह में कैसे बुलंद-ओ-बाला शजर ख़ाक हो गए जुगनू को दिन के वक़्त परखने की ज़िद करें बच्चे हमारे अहद के चालाक हो गए लहरा रही है बर्फ़ की चादर हटा के घास सूरज की शह पे तिनके भी बेबाक हो गए बस्ती में जितने आब-गज़ीदा थे सब के सब दरिया के रुख़ बदलते ही तैराक हो गए सूरज-दिमाग़ लोग भी अबलाग़-ए-फ़िक्र में ज़ुल्फ़-ए-शब-ए-फ़िराक़ के पेचाक हो गए जब भी ग़रीब-ए-शहर से कुछ गुफ़्तुगू हुई लहजे हवा-ए-शाम के नमनाक हो गए " bahut-royaa-vo-ham-ko-yaad-kar-ke-parveen-shakir-ghazals," बहुत रोया वो हम को याद कर के हमारी ज़िंदगी बरबाद कर के पलट कर फिर यहीं आ जाएँगे हम वो देखे तो हमें आज़ाद कर के रिहाई की कोई सूरत नहीं है मगर हाँ मिन्नत-ए-सय्याद कर के बदन मेरा छुआ था उस ने लेकिन गया है रूह को आबाद कर के हर आमिर तूल देना चाहता है मुक़र्रर ज़ुल्म की मीआ'द कर के " gulaab-haath-men-ho-aankh-men-sitaara-ho-parveen-shakir-ghazals," गुलाब हाथ में हो आँख में सितारा हो कोई वजूद मोहब्बत का इस्तिआ'रा हो मैं गहरे पानी की इस रौ के साथ बहती रहूँ जज़ीरा हो कि मुक़ाबिल कोई किनारा हो कभी-कभार उसे देख लें कहीं मिल लें ये कब कहा था कि वो ख़ुश-बदन हमारा हो क़ुसूर हो तो हमारे हिसाब में लिख जाए मोहब्बतों में जो एहसान हो तुम्हारा हो ये इतनी रात गए कौन दस्तकें देगा कहीं हवा का ही उस ने न रूप धारा हो उफ़ुक़ तो क्या है दर-ए-कहकशाँ भी छू आएँ मुसाफ़िरों को अगर चाँद का इशारा हो मैं अपने हिस्से के सुख जिस के नाम कर डालूँ कोई तो हो जो मुझे इस तरह का प्यारा हो अगर वजूद में आहंग है तो वस्ल भी है वो चाहे नज़्म का टुकड़ा कि नस्र-पारा हो " chaarasaazon-kii-aziyyat-nahiin-dekhii-jaatii-parveen-shakir-ghazals," चारासाज़ों की अज़िय्यत नहीं देखी जाती तेरे बीमार की हालत नहीं देखी जाती देने वाले की मशिय्यत पे है सब कुछ मौक़ूफ़ माँगने वाले की हाजत नहीं देखी जाती दिन बहल जाता है लेकिन तिरे दीवानों की शाम होती है तो वहशत नहीं देखी जाती तमकनत से तुझे रुख़्सत तो किया है लेकिन हम से इन आँखों की हसरत नहीं देखी जाती कौन उतरा है ये आफ़ाक़ की पहनाई में आइना-ख़ाने की हैरत नहीं देखी जाती " kuchh-to-havaa-bhii-sard-thii-kuchh-thaa-tiraa-khayaal-bhii-parveen-shakir-ghazals," कुछ तो हवा भी सर्द थी कुछ था तिरा ख़याल भी दिल को ख़ुशी के साथ साथ होता रहा मलाल भी बात वो आधी रात की रात वो पूरे चाँद की चाँद भी ऐन चैत का उस पे तिरा जमाल भी सब से नज़र बचा के वो मुझ को कुछ ऐसे देखता एक दफ़ा तो रुक गई गर्दिश-ए-माह-ओ-साल भी दिल तो चमक सकेगा क्या फिर भी तराश के देख लें शीशा-गिरान-ए-शहर के हाथ का ये कमाल भी उस को न पा सके थे जब दिल का अजीब हाल था अब जो पलट के देखिए बात थी कुछ मुहाल भी मेरी तलब था एक शख़्स वो जो नहीं मिला तो फिर हाथ दुआ से यूँ गिरा भूल गया सवाल भी उस की सुख़न-तराज़ियाँ मेरे लिए भी ढाल थीं उस की हँसी में छुप गया अपने ग़मों का हाल भी गाह क़रीब-ए-शाह-रग गाह बईद-ए-वहम-ओ-ख़्वाब उस की रफ़ाक़तों में रात हिज्र भी था विसाल भी उस के ही बाज़ुओं में और उस को ही सोचते रहे जिस्म की ख़्वाहिशों पे थे रूह के और जाल भी शाम की ना-समझ हवा पूछ रही है इक पता मौज-ए-हवा-ए-कू-ए-यार कुछ तो मिरा ख़याल भी " paa-ba-gil-sab-hain-rihaaii-kii-kare-tadbiir-kaun-parveen-shakir-ghazals," पा-ब-गिल सब हैं रिहाई की करे तदबीर कौन दस्त-बस्ता शहर में खोले मिरी ज़ंजीर कौन मेरा सर हाज़िर है लेकिन मेरा मुंसिफ़ देख ले कर रहा है मेरी फ़र्द-ए-जुर्म को तहरीर कौन आज दरवाज़ों पे दस्तक जानी पहचानी सी है आज मेरे नाम लाता है मिरी ताज़ीर कौन कोई मक़्तल को गया था मुद्दतों पहले मगर है दर-ए-ख़ेमा पे अब तक सूरत-ए-तस्वीर कौन मेरी चादर तो छिनी थी शाम की तन्हाई में बे-रिदाई को मिरी फिर दे गया तश्हीर कौन सच जहाँ पा-बस्ता मुल्ज़िम के कटहरे में मिले उस अदालत में सुनेगा अद्ल की तफ़्सीर कौन नींद जब ख़्वाबों से प्यारी हो तो ऐसे अहद में ख़्वाब देखे कौन और ख़्वाबों को दे ता'बीर कौन रेत अभी पिछले मकानों की न वापस आई थी फिर लब-ए-साहिल घरौंदा कर गया ता'मीर कौन सारे रिश्ते हिजरतों में साथ देते हैं तो फिर शहर से जाते हुए होता है दामन-गीर कौन दुश्मनों के साथ मेरे दोस्त भी आज़ाद हैं देखना है खींचता है मुझ पे पहला तीर कौन " shab-vahii-lekin-sitaara-aur-hai-parveen-shakir-ghazals," शब वही लेकिन सितारा और है अब सफ़र का इस्तिआ'रा और है एक मुट्ठी रेत में कैसे रहे इस समुंदर का किनारा और है मौज के मुड़ने में कितनी देर है नाव डाली और धारा और है जंग का हथियार तय कुछ और था तीर सीने में उतारा और है मत्न में तो जुर्म साबित है मगर हाशिया सारे का सारा और है साथ तो मेरा ज़मीं देती मगर आसमाँ का ही इशारा और है धूप में दीवार ही काम आएगी तेज़ बारिश का सहारा और है हारने में इक अना की बात थी जीत जाने में ख़सारा और है सुख के मौसम उँगलियों पर गिन लिए फ़स्ल-ए-ग़म का गोश्वारा और है देर से पलकें नहीं झपकीं मिरी पेश-ए-जाँ अब के नज़ारा और है और कुछ पल उस का रस्ता देख लूँ आसमाँ पर एक तारा और है हद चराग़ों की यहाँ से ख़त्म है आज से रस्ता हमारा और है " charaag-e-raah-bujhaa-kyaa-ki-rahnumaa-bhii-gayaa-parveen-shakir-ghazals," चराग़-ए-राह बुझा क्या कि रहनुमा भी गया हवा के साथ मुसाफ़िर का नक़्श-ए-पा भी गया मैं फूल चुनती रही और मुझे ख़बर न हुई वो शख़्स आ के मिरे शहर से चला भी गया बहुत अज़ीज़ सही उस को मेरी दिलदारी मगर ये है कि कभी दिल मिरा दुखा भी गया अब उन दरीचों पे गहरे दबीज़ पर्दे हैं वो ताँक-झाँक का मा'सूम सिलसिला भी गया सब आए मेरी अयादत को वो भी आया था जो सब गए तो मिरा दर्द-आश्ना भी गया ये ग़ुर्बतें मिरी आँखों में कैसी उतरी हैं कि ख़्वाब भी मिरे रुख़्सत हैं रतजगा भी गया " bakht-se-koii-shikaayat-hai-na-aflaak-se-hai-parveen-shakir-ghazals," बख़्त से कोई शिकायत है न अफ़्लाक से है यही क्या कम है कि निस्बत मुझे इस ख़ाक से है ख़्वाब में भी तुझे भूलूँ तो रवा रख मुझ से वो रवय्या जो हवा का ख़स-ओ-ख़ाशाक से है बज़्म-ए-अंजुम में क़बा ख़ाक की पहनी मैं ने और मिरी सारी फ़ज़ीलत इसी पोशाक से है इतनी रौशन है तिरी सुब्ह कि होता है गुमाँ ये उजाला तो किसी दीदा-ए-नमनाक से है हाथ तो काट दिए कूज़ा-गरों के हम ने मो'जिज़े की वही उम्मीद मगर चाक से है " rasta-bhii-kathin-dhuup-men-shiddat-bhii-bahut-thii-parveen-shakir-ghazals," रस्ता भी कठिन धूप में शिद्दत भी बहुत थी साए से मगर उस को मोहब्बत भी बहुत थी खे़मे न कोई मेरे मुसाफ़िर के जलाए ज़ख़्मी था बहुत पाँव मसाफ़त भी बहुत थी सब दोस्त मिरे मुंतज़िर-ए-पर्दा-ए-शब थे दिन में तो सफ़र करने में दिक़्क़त भी बहुत थी बारिश की दुआओं में नमी आँख की मिल जाए जज़्बे की कभी इतनी रिफ़ाक़त भी बहुत थी कुछ तो तिरे मौसम ही मुझे रास कम आए और कुछ मिरी मिट्टी में बग़ावत भी बहुत थी फूलों का बिखरना तो मुक़द्दर ही था लेकिन कुछ इस में हवाओं की सियासत भी बहुत थी वो भी सर-ए-मक़्तल है कि सच जिस का था शाहिद और वाक़िफ़-ए-अहवाल-ए-अदालत भी बहुत थी इस तर्क-ए-रिफ़ाक़त पे परेशाँ तो हूँ लेकिन अब तक के तिरे साथ पे हैरत भी बहुत थी ख़ुश आए तुझे शहर-ए-मुनाफ़िक़ की अमीरी हम लोगों को सच कहने की आदत भी बहुत थी " bajaa-ki-aankh-men-niindon-ke-silsile-bhii-nahiin-parveen-shakir-ghazals," बजा कि आँख में नींदों के सिलसिले भी नहीं शिकस्त-ए-ख़्वाब के अब मुझ में हौसले भी नहीं नहीं नहीं ये ख़बर दुश्मनों ने दी होगी वो आए आ के चले भी गए मिले भी नहीं ये कौन लोग अँधेरों की बात करते हैं अभी तो चाँद तिरी याद के ढले भी नहीं अभी से मेरे रफ़ूगर के हाथ थकने लगे अभी तो चाक मिरे ज़ख़्म के सिले भी नहीं ख़फ़ा अगरचे हमेशा हुए मगर अब के वो बरहमी है कि हम से उन्हें गिले भी नहीं " dhanak-dhanak-mirii-poron-ke-khvaab-kar-degaa-parveen-shakir-ghazals," धनक धनक मिरी पोरों के ख़्वाब कर देगा वो लम्स मेरे बदन को गुलाब कर देगा क़बा-ए-जिस्म के हर तार से गुज़रता हुआ किरन का प्यार मुझे आफ़्ताब कर देगा जुनूँ-पसंद है दिल और तुझ तक आने में बदन को नाव लहू को चनाब कर देगा मैं सच कहूँगी मगर फिर भी हार जाऊँगी वो झूट बोलेगा और ला-जवाब कर देगा अना-परस्त है इतना कि बात से पहले वो उठ के बंद मिरी हर किताब कर देगा सुकूत-ए-शहर-ए-सुख़न में वो फूल सा लहजा समाअ'तों की फ़ज़ा ख़्वाब ख़्वाब कर देगा इसी तरह से अगर चाहता रहा पैहम सुख़न-वरी में मुझे इंतिख़ाब कर देगा मिरी तरह से कोई है जो ज़िंदगी अपनी तुम्हारी याद के नाम इंतिसाब कर देगा " ab-itnii-saadgii-laaen-kahaan-se-parveen-shakir-ghazals," अब इतनी सादगी लाएँ कहाँ से ज़मीं की ख़ैर माँगें आसमाँ से अगर चाहें तो वो दीवार कर दें हमें अब कुछ नहीं कहना ज़बाँ से सितारा ही नहीं जब साथ देता तो कश्ती काम ले क्या बादबाँ से भटकने से मिले फ़ुर्सत तो पूछें पता मंज़िल का मीर-ए-कारवाँ से तवज्जोह बर्क़ की हासिल रही है सो है आज़ाद फ़िक्र-ए-आशियाँ से हवा को राज़-दाँ हम ने बनाया और अब नाराज़ ख़ुशबू के बयाँ से ज़रूरी हो गई है दिल की ज़ीनत मकीं पहचाने जाते हैं मकाँ से फ़ना-फ़िल-इश्क़ होना चाहते थे मगर फ़ुर्सत न थी कार-ए-जहाँ से वगर्ना फ़स्ल-ए-गुल की क़द्र क्या थी बड़ी हिकमत है वाबस्ता ख़िज़ाँ से किसी ने बात की थी हँस के शायद ज़माने भर से हैं हम ख़ुद गुमाँ से मैं इक इक तीर पे ख़ुद ढाल बनती अगर होता वो दुश्मन की कमाँ से जो सब्ज़ा देख कर ख़ेमे लगाएँ उन्हें तकलीफ़ क्यूँ पहुँचे ख़िज़ाँ से जो अपने पेड़ जलते छोड़ जाएँ उन्हें क्या हक़ कि रूठें बाग़बाँ से " aks-e-khushbuu-huun-bikharne-se-na-roke-koii-parveen-shakir-ghazals," अक्स-ए-ख़ुशबू हूँ बिखरने से न रोके कोई और बिखर जाऊँ तो मुझ को न समेटे कोई काँप उठती हूँ मैं ये सोच के तन्हाई में मेरे चेहरे पे तिरा नाम न पढ़ ले कोई जिस तरह ख़्वाब मिरे हो गए रेज़ा रेज़ा उस तरह से न कभी टूट के बिखरे कोई मैं तो उस दिन से हिरासाँ हूँ कि जब हुक्म मिले ख़ुश्क फूलों को किताबों में न रक्खे कोई अब तो इस राह से वो शख़्स गुज़रता भी नहीं अब किस उम्मीद पे दरवाज़े से झाँके कोई कोई आहट कोई आवाज़ कोई चाप नहीं दिल की गलियाँ बड़ी सुनसान हैं आए कोई " dasne-lage-hain-khvaab-magar-kis-se-boliye-parveen-shakir-ghazals," डसने लगे हैं ख़्वाब मगर किस से बोलिए मैं जानती थी पाल रही हूँ संपोलिए बस ये हुआ कि उस ने तकल्लुफ़ से बात की और हम ने रोते रोते दुपट्टे भिगो लिए पलकों पे कच्ची नींदों का रस फैलता हो जब ऐसे में आँख धूप के रुख़ कैसे खोलिए तेरी बरहना-पाई के दुख बाँटते हुए हम ने ख़ुद अपने पाँव में काँटे चुभो लिए मैं तेरा नाम ले के तज़ब्ज़ुब में पड़ गई सब लोग अपने अपने अज़ीज़ों को रो लिए ख़ुश-बू कहीं न जाए प इसरार है बहुत और ये भी आरज़ू कि ज़रा ज़ुल्फ़ खोलिए तस्वीर जब नई है नया कैनवस भी है फिर तश्तरी में रंग पुराने न घोलिए " ek-suuraj-thaa-ki-taaron-ke-gharaane-se-uthaa-parveen-shakir-ghazals," एक सूरज था कि तारों के घराने से उठा आँख हैरान है क्या शख़्स ज़माने से उठा किस से पूछूँ तिरे आक़ा का पता ऐ रहवार ये अलम वो है न अब तक किसी शाने से उठा हल्क़ा-ए-ख़्वाब को ही गिर्द-ए-गुलू कस डाला दस्त-ए-क़ातिल का भी एहसाँ न दिवाने से उठा फिर कोई अक्स शुआ'ओं से न बनने पाया कैसा महताब मिरे आइना-ख़ाने से उठा क्या लिखा था सर-ए-महज़र जिसे पहचानते ही पास बैठा हुआ हर दोस्त बहाने से उठा " kamaal-e-zabt-ko-khud-bhii-to-aazmaauungii-parveen-shakir-ghazals," कमाल-ए-ज़ब्त को ख़ुद भी तो आज़माऊँगी मैं अपने हाथ से उस की दुल्हन सजाऊँगी सुपुर्द कर के उसे चाँदनी के हाथों में मैं अपने घर के अँधेरों को लौट आऊँगी बदन के कर्ब को वो भी समझ न पाएगा मैं दिल में रोऊँगी आँखों में मुस्कुराऊँगी वो क्या गया कि रिफ़ाक़त के सारे लुत्फ़ गए मैं किस से रूठ सकूँगी किसे मनाऊँगी अब उस का फ़न तो किसी और से हुआ मंसूब मैं किस की नज़्म अकेले में गुनगुनाऊँगी वो एक रिश्ता-ए-बेनाम भी नहीं लेकिन मैं अब भी उस के इशारों पे सर झुकाऊँगी बिछा दिया था गुलाबों के साथ अपना वजूद वो सो के उट्ठे तो ख़्वाबों की राख उठाऊँगी समाअ'तों में घने जंगलों की साँसें हैं मैं अब कभी तिरी आवाज़ सुन न पाऊँगी जवाज़ ढूँड रहा था नई मोहब्बत का वो कह रहा था कि मैं उस को भूल जाऊँगी " qadmon-men-bhii-takaan-thii-ghar-bhii-qariib-thaa-parveen-shakir-ghazals," क़दमों में भी तकान थी घर भी क़रीब था पर क्या करें कि अब के सफ़र ही अजीब था निकले अगर तो चाँद दरीचे में रुक भी जाए इस शहर-ए-बे-चराग़ में किस का नसीब था आँधी ने उन रुतों को भी बे-कार कर दिया जिन का कभी हुमा सा परिंदा नसीब था कुछ अपने-आप से ही उसे कश्मकश न थी मुझ में भी कोई शख़्स उसी का रक़ीब था पूछा किसी ने मोल तो हैरान रह गया अपनी निगाह में कोई कितना ग़रीब था मक़्तल से आने वाली हवा को भी कब मिला ऐसा कोई दरीचा कि जो बे-सलीब था " kuchh-faisla-to-ho-ki-kidhar-jaanaa-chaahiye-parveen-shakir-ghazals," कुछ फ़ैसला तो हो कि किधर जाना चाहिए पानी को अब तो सर से गुज़र जाना चाहिए नश्तर-ब-दस्त शहर से चारागरी की लौ ऐ ज़ख़्म-ए-बे-कसी तुझे भर जाना चाहिए हर बार एड़ियों पे गिरा है मिरा लहू मक़्तल में अब ब-तर्ज़-ए-दिगर जाना चाहिए क्या चल सकेंगे जिन का फ़क़त मसअला ये है जाने से पहले रख़्त-ए-सफ़र जाना चाहिए सारा ज्वार-भाटा मिरे दिल में है मगर इल्ज़ाम ये भी चाँद के सर जाना चाहिए जब भी गए अज़ाब-ए-दर-ओ-बाम था वही आख़िर को कितनी देर से घर जाना चाहिए तोहमत लगा के माँ पे जो दुश्मन से दाद ले ऐसे सुख़न-फ़रोश को मर जाना चाहिए " khulii-aankhon-men-sapnaa-jhaanktaa-hai-parveen-shakir-ghazals," खुली आँखों में सपना झाँकता है वो सोया है कि कुछ कुछ जागता है तिरी चाहत के भीगे जंगलों में मिरा तन मोर बन कर नाचता है मुझे हर कैफ़ियत में क्यूँ न समझे वो मेरे सब हवाले जानता है मैं उस की दस्तरस में हूँ मगर वो मुझे मेरी रज़ा से माँगता है किसी के ध्यान में डूबा हुआ दिल बहाने से मुझे भी टालता है सड़क को छोड़ कर चलना पड़ेगा कि मेरे घर का कच्चा रास्ता है " justujuu-khoe-huon-kii-umr-bhar-karte-rahe-parveen-shakir-ghazals," जुस्तुजू खोए हुओं की उम्र भर करते रहे चाँद के हमराह हम हर शब सफ़र करते रहे रास्तों का इल्म था हम को न सम्तों की ख़बर शहर-ए-ना-मालूम की चाहत मगर करते रहे हम ने ख़ुद से भी छुपाया और सारे शहर को तेरे जाने की ख़बर दीवार-ओ-दर करते रहे वो न आएगा हमें मालूम था इस शाम भी इंतिज़ार उस का मगर कुछ सोच कर करते रहे आज आया है हमें भी उन उड़ानों का ख़याल जिन को तेरे ज़ो'म में बे-बाल-ओ-पर करते रहे " gae-mausam-men-jo-khilte-the-gulaabon-kii-tarah-parveen-shakir-ghazals," गए मौसम में जो खिलते थे गुलाबों की तरह दिल पे उतरेंगे वही ख़्वाब अज़ाबों की तरह राख के ढेर पे अब रात बसर करनी है जल चुके हैं मिरे ख़ेमे मिरे ख़्वाबों की तरह साअत-ए-दीद कि आरिज़ हैं गुलाबी अब तक अव्वलीं लम्हों के गुलनार हिजाबों की तरह वो समुंदर है तो फिर रूह को शादाब करे तिश्नगी क्यूँ मुझे देता है सराबों की तरह ग़ैर-मुमकिन है तिरे घर के गुलाबों का शुमार मेरे रिसते हुए ज़ख़्मों के हिसाबों की तरह याद तो होंगी वो बातें तुझे अब भी लेकिन शेल्फ़ में रक्खी हुई बंद किताबों की तरह कौन जाने कि नए साल में तू किस को पढ़े तेरा मेआ'र बदलता है निसाबों की तरह शोख़ हो जाती है अब भी तिरी आँखों की चमक गाहे गाहे तिरे दिलचस्प जवाबों की तरह हिज्र की शब मिरी तन्हाई पे दस्तक देगी तेरी ख़ुश-बू मिरे खोए हुए ख़्वाबों की तरह " ab-bhalaa-chhod-ke-ghar-kyaa-karte-parveen-shakir-ghazals," अब भला छोड़ के घर क्या करते शाम के वक़्त सफ़र क्या करते तेरी मसरूफ़ियतें जानते हैं अपने आने की ख़बर क्या करते जब सितारे ही नहीं मिल पाए ले के हम शम्स-ओ-क़मर क्या करते वो मुसाफ़िर ही खुली धूप का था साए फैला के शजर क्या करते ख़ाक ही अव्वल ओ आख़िर ठहरी कर के ज़र्रे को गुहर क्या करते राय पहले से बना ली तू ने दिल में अब हम तिरे घर क्या करते इश्क़ ने सारे सलीक़े बख़्शे हुस्न से कस्ब-ए-हुनर क्या करते " tuutii-hai-merii-niind-magar-tum-ko-is-se-kyaa-parveen-shakir-ghazals," टूटी है मेरी नींद मगर तुम को इस से क्या बजते रहें हवाओं से दर तुम को इस से क्या तुम मौज मौज मिस्ल-ए-सबा घूमते रहो कट जाएँ मेरी सोच के पर तुम को इस से क्या औरों का हाथ थामो उन्हें रास्ता दिखाओ मैं भूल जाऊँ अपना ही घर तुम को इस से क्या अब्र-ए-गुरेज़-पा को बरसने से क्या ग़रज़ सीपी में बन न पाए गुहर तुम को इस से क्या ले जाएँ मुझ को माल-ए-ग़नीमत के साथ अदू तुम ने तो डाल दी है सिपर तुम को इस से क्या तुम ने तो थक के दश्त में खे़मे लगा लिए तन्हा कटे किसी का सफ़र तुम को इस से क्या " terii-khushbuu-kaa-pataa-kartii-hai-parveen-shakir-ghazals," तेरी ख़ुश्बू का पता करती है मुझ पे एहसान हवा करती है चूम कर फूल को आहिस्ता से मोजज़ा बाद-ए-सबा करती है खोल कर बंद-ए-क़बा गुल के हवा आज ख़ुश्बू को रिहा करती है अब्र बरसते तो इनायत उस की शाख़ तो सिर्फ़ दुआ करती है ज़िंदगी फिर से फ़ज़ा में रौशन मिशअल-ए-बर्ग-ए-हिना करती है हम ने देखी है वो उजली साअत रात जब शेर कहा करती है शब की तन्हाई में अब तो अक्सर गुफ़्तुगू तुझ से रहा करती है दिल को उस राह पे चलना ही नहीं जो मुझे तुझ से जुदा करती है ज़िंदगी मेरी थी लेकिन अब तो तेरे कहने में रहा करती है उस ने देखा ही नहीं वर्ना ये आँख दिल का अहवाल कहा करती है मुसहफ़-ए-दिल पे अजब रंगों में एक तस्वीर बना करती है बे-नियाज़-ए-कफ़-ए-दरिया अंगुश्त रेत पर नाम लिखा करती है देख तू आन के चेहरा मेरा इक नज़र भी तिरी क्या करती है ज़िंदगी भर की ये ताख़ीर अपनी रंज मिलने का सिवा करती है शाम पड़ते ही किसी शख़्स की याद कूचा-ए-जाँ में सदा करती है मसअला जब भी चराग़ों का उठा फ़ैसला सिर्फ़ हवा करती है मुझ से भी उस का है वैसा ही सुलूक हाल जो तेरा अना करती है दुख हुआ करता है कुछ और बयाँ बात कुछ और हुआ करती है " duaa-kaa-tuutaa-huaa-harf-sard-aah-men-hai-parveen-shakir-ghazals," दुआ का टूटा हुआ हर्फ़ सर्द आह में है तिरी जुदाई का मंज़र अभी निगाह में है तिरे बदलने के बा-वस्फ़ तुझ को चाहा है ये ए'तिराफ़ भी शामिल मिरे गुनाह में है अज़ाब देगा तो फिर मुझ को ख़्वाब भी देगा मैं मुतमइन हूँ मिरा दिल तिरी पनाह में है बिखर चुका है मगर मुस्कुरा के मिलता है वो रख रखाव अभी मेरे कज-कुलाह में है जिसे बहार के मेहमान ख़ाली छोड़ गए वो इक मकान अभी तक मकीं की चाह में है यही वो दिन थे जब इक दूसरे को पाया था हमारी साल-गिरह ठीक अब के माह में है मैं बच भी जाऊँ तो तन्हाई मार डालेगी मिरे क़बीले का हर फ़र्द क़त्ल-गाह में है " teraa-ghar-aur-meraa-jangal-bhiigtaa-hai-saath-saath-parveen-shakir-ghazals," तेरा घर और मेरा जंगल भीगता है साथ साथ ऐसी बरसातें कि बादल भीगता है साथ साथ बचपने का साथ है फिर एक से दोनों के दुख रात का और मेरा आँचल भीगता है साथ साथ वो अजब दुनिया कि सब ख़ंजर-ब-कफ़ फिरते हैं और काँच के प्यालों में संदल भीगता है साथ साथ बारिश-ए-संग-ए-मलामत में भी वो हमराह है मैं भी भीगूँ ख़ुद भी पागल भीगता है साथ साथ लड़कियों के दुख अजब होते हैं सुख उस से अजीब हँस रही हैं और काजल भीगता है साथ साथ बारिशें जाड़े की और तन्हा बहुत मेरा किसान जिस्म और इकलौता कम्बल भीगता है साथ साथ " shauq-e-raqs-se-jab-tak-ungliyaan-nahiin-khultiin-parveen-shakir-ghazals," शौक़-ए-रक़्स से जब तक उँगलियाँ नहीं खुलतीं पाँव से हवाओं के बेड़ियाँ नहीं खुलतीं पेड़ को दुआ दे कर कट गई बहारों से फूल इतने बढ़ आए खिड़कियाँ नहीं खुलतीं फूल बन के सैरों में और कौन शामिल था शोख़ी-ए-सबा से तो बालियाँ नहीं खुलतीं हुस्न के समझने को उम्र चाहिए जानाँ दो घड़ी की चाहत में लड़कियाँ नहीं खुलतीं कोई मौजा-ए-शीरीं चूम कर जगाएगी सूरजों के नेज़ों से सीपियाँ नहीं खुलतीं माँ से क्या कहेंगी दुख हिज्र का कि ख़ुद पर भी इतनी छोटी उम्रों की बच्चियाँ नहीं खुलतीं शाख़ शाख़ सरगर्दां किस की जुस्तुजू में हैं कौन से सफ़र में हैं तितलियाँ नहीं खुलतीं आधी रात की चुप में किस की चाप उभरती है छत पे कौन आता है सीढ़ियाँ नहीं खुलतीं पानियों के चढ़ने तक हाल कह सकें और फिर क्या क़यामतें गुज़रीं बस्तियाँ नहीं खुलतीं " ham-ne-hii-lautne-kaa-iraada-nahiin-kiyaa-parveen-shakir-ghazals," हम ने ही लौटने का इरादा नहीं किया उस ने भी भूल जाने का वा'दा नहीं किया दुख ओढ़ते नहीं कभी जश्न-ए-तरब में हम मल्बूस-ए-दिल को तन का लबादा नहीं किया जो ग़म मिला है बोझ उठाया है उस का ख़ुद सर ज़ेर-ए-बार-ए-साग़र-ओ-बादा नहीं किया कार-ए-जहाँ हमें भी बहुत थे सफ़र की शाम उस ने भी इल्तिफ़ात ज़ियादा नहीं किया आमद पे तेरी इत्र ओ चराग़ ओ सुबू न हों इतना भी बूद-ओ-बाश को सादा नहीं किया " ashk-aankh-men-phir-atak-rahaa-hai-parveen-shakir-ghazals," अश्क आँख में फिर अटक रहा है कंकर सा कोई खटक रहा है मैं उस के ख़याल से गुरेज़ाँ वो मेरी सदा झटक रहा है तहरीर उसी की है मगर दिल ख़त पढ़ते हुए अटक रहा है हैं फ़ोन पे किस के साथ बातें और ज़ेहन कहाँ भटक रहा है सदियों से सफ़र में है समुंदर साहिल पे थकन टपक रहा है इक चाँद सलीब-ए-शाख़-ए-गुल पर बाली की तरह लटक रहा है " qaid-men-guzregii-jo-umr-bade-kaam-kii-thii-parveen-shakir-ghazals," क़ैद में गुज़रेगी जो उम्र बड़े काम की थी पर मैं क्या करती कि ज़ंजीर तिरे नाम की थी जिस के माथे पे मिरे बख़्त का तारा चमका चाँद के डूबने की बात उसी शाम की थी मैं ने हाथों को ही पतवार बनाया वर्ना एक टूटी हुई कश्ती मिरे किस काम की थी वो कहानी कि अभी सूइयाँ निकलीं भी न थीं फ़िक्र हर शख़्स को शहज़ादी के अंजाम की थी ये हवा कैसे उड़ा ले गई आँचल मेरा यूँ सताने की तो आदत मिरे घनश्याम की थी बोझ उठाते हुए फिरती है हमारा अब तक ऐ ज़मीं-माँ तिरी ये उम्र तो आराम की थी " apnii-rusvaaii-tire-naam-kaa-charchaa-dekhuun-parveen-shakir-ghazals," अपनी रुस्वाई तिरे नाम का चर्चा देखूँ इक ज़रा शेर कहूँ और मैं क्या क्या देखूँ नींद आ जाए तो क्या महफ़िलें बरपा देखूँ आँख खुल जाए तो तन्हाई का सहरा देखूँ शाम भी हो गई धुँदला गईं आँखें भी मिरी भूलने वाले मैं कब तक तिरा रस्ता देखूँ एक इक कर के मुझे छोड़ गईं सब सखियाँ आज मैं ख़ुद को तिरी याद में तन्हा देखूँ काश संदल से मिरी माँग उजाले आ कर इतने ग़ैरों में वही हाथ जो अपना देखूँ तू मिरा कुछ नहीं लगता है मगर जान-ए-हयात जाने क्यूँ तेरे लिए दिल को धड़कना देखूँ बंद कर के मिरी आँखें वो शरारत से हँसे बूझे जाने का मैं हर रोज़ तमाशा देखूँ सब ज़िदें उस की मैं पूरी करूँ हर बात सुनूँ एक बच्चे की तरह से उसे हँसता देखूँ मुझ पे छा जाए वो बरसात की ख़ुश्बू की तरह अंग अंग अपना इसी रुत में महकता देखूँ फूल की तरह मिरे जिस्म का हर लब खुल जाए पंखुड़ी पंखुड़ी उन होंटों का साया देखूँ मैं ने जिस लम्हे को पूजा है उसे बस इक बार ख़्वाब बन कर तिरी आँखों में उतरता देखूँ तू मिरी तरह से यकता है मगर मेरे हबीब जी में आता है कोई और भी तुझ सा देखूँ टूट जाएँ कि पिघल जाएँ मिरे कच्चे घड़े तुझ को मैं देखूँ कि ये आग का दरिया देखूँ " apnii-hii-sadaa-sunuun-kahaan-tak-parveen-shakir-ghazals," अपनी ही सदा सुनूँ कहाँ तक जंगल की हवा रहूँ कहाँ तक हर बार हवा न होगी दर पर हर बार मगर उठूँ कहाँ तक दम घटता है घर में हब्स वो है ख़ुश्बू के लिए रुकूँ कहाँ तक फिर आ के हवाएँ खोल देंगी ज़ख़्म अपने रफ़ू करूँ कहाँ तक साहिल पे समुंदरों से बच कर मैं नाम तिरा लिखूँ कहाँ तक तन्हाई का एक एक लम्हा हंगामों से क़र्ज़ लूँ कहाँ तक गर लम्स नहीं तो लफ़्ज़ ही भेज मैं तुझ से जुदा रहूँ कहाँ तक सुख से भी तो दोस्ती कभी हो दुख से ही गले मिलूँ कहाँ तक मंसूब हो हर किरन किसी से अपने ही लिए जलूँ कहाँ तक आँचल मिरे भर के फट रहे हैं फूल उस के लिए चुनूँ कहाँ तक " mushkil-hai-ki-ab-shahr-men-nikle-koii-ghar-se-parveen-shakir-ghazals," मुश्किल है कि अब शहर में निकले कोई घर से दस्तार पे बात आ गई होती हुई सर से बरसा भी तो किस दश्त के बे-फ़ैज़ बदन पर इक उम्र मिरे खेत थे जिस अब्र को तरसे कल रात जो ईंधन के लिए कट के गिरा है चिड़ियों को बड़ा प्यार था उस बूढ़े शजर से मेहनत मिरी आँधी से तो मंसूब नहीं थी रहना था कोई रब्त शजर का भी समर से ख़ुद अपने से मिलने का तो यारा न था मुझ में मैं भीड़ में गुम हो गई तन्हाई के डर से बे-नाम मसाफ़त ही मुक़द्दर है तो क्या ग़म मंज़िल का तअ'य्युन कभी होता है सफ़र से पथराया है दिल यूँ कि कोई इस्म पढ़ा जाए ये शहर निकलता नहीं जादू के असर से निकले हैं तो रस्ते में कहीं शाम भी होगी सूरज भी मगर आएगा इस रहगुज़र से " baadbaan-khulne-se-pahle-kaa-ishaara-dekhnaa-parveen-shakir-ghazals," बादबाँ खुलने से पहले का इशारा देखना मैं समुंदर देखती हूँ तुम किनारा देखना यूँ बिछड़ना भी बहुत आसाँ न था उस से मगर जाते जाते उस का वो मुड़ कर दोबारा देखना किस शबाहत को लिए आया है दरवाज़े पे चाँद ऐ शब-ए-हिज्राँ ज़रा अपना सितारा देखना क्या क़यामत है कि जिन के नाम पर पसपा हुए उन ही लोगों को मुक़ाबिल में सफ़-आरा देखना जब बनाम-ए-दिल गवाही सर की माँगी जाएगी ख़ून में डूबा हुआ परचम हमारा देखना जीतने में भी जहाँ जी का ज़ियाँ पहले से है ऐसी बाज़ी हारने में क्या ख़सारा देखना आइने की आँख ही कुछ कम न थी मेरे लिए जाने अब क्या क्या दिखाएगा तुम्हारा देखना एक मुश्त-ए-ख़ाक और वो भी हवा की ज़द में है ज़िंदगी की बेबसी का इस्तिआ'रा देखना " puuraa-dukh-aur-aadhaa-chaand-parveen-shakir-ghazals," पूरा दुख और आधा चाँद हिज्र की शब और ऐसा चाँद दिन में वहशत बहल गई रात हुई और निकला चाँद किस मक़्तल से गुज़रा होगा इतना सहमा सहमा चाँद यादों की आबाद गली में घूम रहा है तन्हा चाँद मेरी करवट पर जाग उठ्ठे नींद का कितना कच्चा चाँद मेरे मुँह को किस हैरत से देख रहा है भोला चाँद इतने घने बादल के पीछे कितना तन्हा होगा चाँद आँसू रोके नूर नहाए दिल दरिया तन सहरा चाँद इतने रौशन चेहरे पर भी सूरज का है साया चाँद जब पानी में चेहरा देखा तू ने किस को सोचा चाँद बरगद की इक शाख़ हटा कर जाने किस को झाँका चाँद बादल के रेशम झूले में भोर समय तक सोया चाँद रात के शाने पर सर रक्खे देख रहा है सपना चाँद सूखे पत्तों के झुरमुट पर शबनम थी या नन्हा चाँद हाथ हिला कर रुख़्सत होगा उस की सूरत हिज्र का चाँद सहरा सहरा भटक रहा है अपने इश्क़ में सच्चा चाँद रात के शायद एक बजे हैं सोता होगा मेरा चाँद " dil-kaa-kyaa-hai-vo-to-chaahegaa-musalsal-milnaa-parveen-shakir-ghazals," दिल का क्या है वो तो चाहेगा मुसलसल मिलना वो सितमगर भी मगर सोचे किसी पल मिलना वाँ नहीं वक़्त तो हम भी हैं अदीम-उल-फ़ुर्सत उस से क्या मिलिए जो हर रोज़ कहे कल मिलना इश्क़ की रह के मुसाफ़िर का मुक़द्दर मालूम शहर की सोच में हो और उसे जंगल मिलना उस का मिलना है अजब तरह का मिलना जैसे दश्त-ए-उम्मीद में अंदेशे का बादल मिलना दामन-ए-शब को अगर चाक भी कर लीं तो कहाँ नूर में डूबा हुआ सुब्ह का आँचल मिलना " bichhdaa-hai-jo-ik-baar-to-milte-nahiin-dekhaa-parveen-shakir-ghazals," बिछड़ा है जो इक बार तो मिलते नहीं देखा इस ज़ख़्म को हम ने कभी सिलते नहीं देखा इक बार जिसे चाट गई धूप की ख़्वाहिश फिर शाख़ पे उस फूल को खिलते नहीं देखा यक-लख़्त गिरा है तो जड़ें तक निकल आईं जिस पेड़ को आँधी में भी हिलते नहीं देखा काँटों में घिरे फूल को चूम आएगी लेकिन तितली के परों को कभी छिलते नहीं देखा किस तरह मिरी रूह हरी कर गया आख़िर वो ज़हर जिसे जिस्म में खिलते नहीं देखा " dil-kaa-khoj-na-paayaa-hargiz-dekhaa-khol-jo-qabron-ko-naji-shakir-ghazals," दिल का खोज न पाया हरगिज़ देखा खोल जो क़ब्रों को जीते जी ढूँडे सो पावे ख़बर करो बे-ख़बरों को तोशक बाला पोश रज़ाई है भूले मजनूँ बरसों तक जब दिखलावे ज़ुल्फ़ सजन की बन में आवते अब्रों को काफ़िर नफ़स हर एक का तरसा ज़र कूँ पाया बख़्तों सीं आतिश की पूजा में गुज़री उम्र तमाम उन गब्रों को मर्द जो आजिज़ हो तन मन सीं कहे ख़ुश-आमद बावर कर मोहताजी का ख़ासा है रूबाह करे है बबरों को वादा चूक फिर आया 'नाजी' दर्स की ख़ातिर फड़के मत छूट गले तेरे ऐ ज़ालिम सब्र कहाँ बे-सब्रों को " zikr-har-subh-o-shaam-hai-teraa-naji-shakir-ghazals," ज़िक्र हर सुब्ह ओ शाम है तेरा विर्द-ए-आशिक़ कूँ नाम है तेरा मत कर आज़ाद दाम-ए-ज़ुल्फ़ सीं दिल बाल-बाँधा ग़ुलाम है तेरा लश्कर-ए-ग़म ने दिल सीं कूच किया जब से इस में मक़ाम है तेरा जाम-ए-मय का पिलाना है बे-रंग शौक़ जिन कूँ मुदाम है तेरा आज 'नाजी' से रम न कर ऐ शोख़ देख मुद्दत सीं राम है तेरा " ye-daur-guzraa-kabhii-na-dekhiin-piyaa-kii-ankhiyaan-khumaar-matiyaan-naji-shakir-ghazals," ये दौर गुज़रा कभी न देखीं पिया की अँखियाँ ख़ुमार-मतियाँ कहे थे मरदुम शराबी उन कूँ निकल गईं अपनी दे ग़लतियाँ सिवाए गुल के वो शोख़ अँखियाँ किसी तरफ़ को नहीं हैं राग़िब तो बर्ग-ए-नर्गिस उपर बजा है लिखूँ जो अपने सजन कूँ पतियाँ सनम की ज़ुल्फ़ाँ को हिज्र में अब गए हैं मुझ नैन हैं ख़्वाब राहत लगे है काँटा नज़र में सोना कटेंगी कैसे ये काली रतियाँ जो शम्अ-रू के दो लब हैं शीरीं तो सब्ज़ा-ए-ख़त बजा है उस पर ज़मीन पकड़ी है तूतियों ने सुनीं जो मीठी पिया की बतियाँ ख़याल कर कर भटक रहा हूँ नज़र जो आए तेवर हैं बाँके बनाओ बनता नहीं है 'नाजी' जो उस सजन को लगाऊँ छतियाँ " lab-e-shiiriin-hai-misrii-yuusuf-e-saanii-hai-ye-ladkaa-naji-shakir-ghazals," लब-ए-शीरीं है मिस्री यूसुफ़-ए-सानी है ये लड़का न छोड़ेगा मेरा दिल चाह-ए-कनआनी है ये लड़का लिया बोसा किसी ने और गरेबाँ-गीर है मेरा डुबाया चाहता है सब को तूफ़ानी है ये लड़का सर ऊपर लाल चीरा और दहन जूँ ग़ुंचा-ए-रंगीं बहार-ए-मुद्दआ लाल-ए-बदख़शानी है ये लड़का क़यामत है झमक बाज़ू के तावीज़-ए-तलाई की हिसार-ए-हुस्न कूँ क़ाइम किया बानी है ये लड़का हुए रू-पोश उस का हुस्न देख अंजुम के जूँ ख़ूबाँ चमकता है ब-रंग-ए-मेहर नूरानी है ये लड़का क़यामत क़ामत उस का जिन ने देखा सो हुआ बिस्मिल मगर सर ता क़दम तेग़-ए-सुलेमानी है ये लड़का मैं अपना जान ओ दिल क़ुर्बां करूँ ऊस पर सेती 'नाजी' जिसे देखें सीं हुए ईद रमज़ानी है ये लड़का " ai-sabaa-kah-bahaar-kii-baaten-naji-shakir-ghazals," ऐ सबा कह बहार की बातें इस बुत-ए-गुल-एज़ार की बातें किस पे छोड़े निगाह का शहबाज़ क्या करे है शिकार की बातें मेहरबानी सीं या हों ग़ुस्से सीं प्यारी लगती हैं यार की बातें छोड़ते कब हैं नक़्द-ए-दिल कूँ सनम जब ये करते हैं प्यार की बातें पूछिए कुछ कहें हैं कुछ 'नाजी' आ पड़ीं रोज़गार की बातें " kamar-kii-baat-sunte-hain-ye-kuchh-paaii-nahiin-jaatii-naji-shakir-ghazals," कमर की बात सुनते हैं ये कुछ पाई नहीं जाती कहे हैं बात ऐसी ख़याल में मेरे नहीं आती जो चाहो सैर-ए-दरिया वक़्फ़ है मुझ चश्म की कश्ती हर एक मू-ए-पलक मेरा है गोया घाट ख़ैराती ब-रंग उस के नहीं महबूब दिल रोने को आशिक़ के सआदत ख़ाँ है लड़का वज़्अ कर लेता है बरसाती जो कोई असली है ठंडा गर्म याक़ूती में क्यूँकर हो न लावे ताब तेरे लब की जो नामर्द है ज़ाती न देखा बाग़ में नर्गिस नीं तुझ कूँ शर्म जाने सीं इसी ग़म में हुई है सर-निगूँ वो वक़्त नहीं पाती कहाँ मुमकिन है 'नाजी' सा कि तक़्वा और सलाह आवे निगाह-ए-मस्त-ए-ख़ूबाँ वो नहीं लेता ख़राबाती " tere-bhaaii-ko-chaahaa-ab-terii-kartaa-huun-paa-bosii-naji-shakir-ghazals," तेरे भाई को चाहा अब तेरी करता हूँ पा-बोसी मुझे सरताज कर रख जान में आशिक़ हूँ मौरूसी रफ़ू कर दे हैं ऐसा प्यार जो आशिक़ हैं यकसू सीं फड़ा कर और सीं शाल अपनी कहता है मुझे तू सी हुआ मख़्फ़ी मज़ा अब शाहिदी सीं शहद की ज़ाहिर मगर ज़ंबूर ने शीरीनी उन होंटों की जा चूसी किसे ये ताब जो उस की तजल्ली में रहे ठहरा रुमूज़-ए-तौर लाती है सजन तेरी कमर मू सी समाता नईं इज़ार अपने में अबतर देख रंग उस का करे किम-ख़्वाब सो जाने की यूँ पाते हैं जासूसी ब-रंग-ए-शम्अ क्यूँ याक़ूब की आँखें नहीं रौशन ज़माने में सुना यूसुफ़ का पैराहन था फ़ानूसी न छोड़ूँ उस लब-ए-इरफ़ाँ को 'नाजी' और लुटा दूँ सब मिले गर मुझ को मुल्क-ए-ख़ुसरवी और ताज-ए-काऊसी " dekh-mohan-tirii-kamar-kii-taraf-naji-shakir-ghazals," देख मोहन तिरी कमर की तरफ़ फिर गया मानी अपने घर की तरफ़ जिन ने देखे तिरे लब-ए-शीरीं नज़र उस की नहीं शकर की तरफ़ है मुहाल उन का दाम में आना दिल है माइल बुताँ का ज़र की तरफ़ तेरे रुख़्सार की सफ़ाई देख चश्म दाना की नईं गुहर की तरफ़ हैं ख़ुशामद-तलब सब अहल-ए-दुवल ग़ौर करते नईं हुनर की तरफ़ माह-रू ने सफ़र किया है जिधर दिल मिरा है उसी नगर की तरफ़ हश्र में पाक-बाज़ है 'नाजी' बद-अमल जाएँगे सक़र की तरफ़ " dekhii-bahaar-ham-ne-kal-zor-mai-kade-men-naji-shakir-ghazals," देखी बहार हम ने कल ज़ोर मय-कदे में हँसने सीं उस सजन के था शोर मय-कदे में थे जोश-ए-मुल सीं ऐसी शोरिश में दाग़ दिल के गोया कि कूदते हैं ये मोर मय-कदे में फंदा रखा था मैं ने शायद कि वो परी-रू देखे तो पास मेरे हो दौर मय-कदे में है आरज़ू कि हमदम वो माह-रू हो मेरा दे शाम सीं जो प्याला हो भोर मय-कदे में साक़ी वही है मेरा 'नाजी' कि गर मरूँ मैं मुझ वास्ते बना दे जा गोर मय-कदे में " mah-rukhaan-kii-jo-mehrbaanii-hai-naji-shakir-ghazals," मह-रुख़ाँ की जो मेहरबानी है ये मदद मुझ पे आसमानी है रश्क सीं उस के साफ़ चेहरे के चश्म पर आइने की पानी है दाम में बुल-हवस के आया नईं क्यूँ कि ये बाज़ आश्यानी है चर्ब है शम्अ पर जमाल उस का शम्अ की रौशनी ज़बानी है उस के रुख़्सार देख जीता हूँ आरज़ी मेरी ज़िंदगानी है सिर्फ़ सूरत का बंद नईं 'नाजी' आशिक़-ए-साहब-ए-मआनी है " ishq-to-mushkil-hai-ai-dil-kaun-kahtaa-sahl-hai-bahadur-shah-zafar-ghazals," इश्क़ तो मुश्किल है ऐ दिल कौन कहता सहल है लेक नादानी से अपनी तू ने समझा सहल है गर खुले दिल की गिरह तुझ से तो हम जानें तुझे ऐ सबा ग़ुंचे का उक़्दा खोल देना सहल है हमदमो दिल के लगाने में कहो लगता है क्या पर छुड़ाना इस का मुश्किल है लगाना सहल है गरचे मुश्किल है बहुत मेरा इलाज-ए-दर्द-ए-दिल पर जो तू चाहे तो ऐ रश्क-ए-मसीहा सहल है है बहुत दुश्वार मरना ये सुना करते थे हम पर जुदाई में तिरी हम ने जो देखा सहल है शम्अ ने जल कर जलाया बज़्म में परवाने को बिन जले अपने जलाना क्या किसी का सहल है इश्क़ का रस्ता सरासर है दम-ए-शमशीर पर बुल-हवस इस राह में रखना क़दम क्या सहल है ऐ 'ज़फ़र' कुछ हो सके तो फ़िक्र कर उक़्बा का तू कर न दुनिया का तरद्दुद कार-ए-दुनिया सहल है " kaafir-tujhe-allaah-ne-suurat-to-parii-dii-bahadur-shah-zafar-ghazals," काफ़िर तुझे अल्लाह ने सूरत तो परी दी पर हैफ़ तिरे दिल में मोहब्बत न ज़री दी दी तू ने मुझे सल्तनत-ए-बहर-ओ-बर ऐ इश्क़ होंटों को जो ख़ुश्की मिरी आँखों को तरी दी ख़ाल-ए-लब-ए-शीरीं का दिया बोसा कब उस ने इक चाट लगाने को मिरे नीशकरी दी काफ़िर तिरे सौदा-ए-सर-ए-ज़ुल्फ़ ने मुझ को क्या क्या न परेशानी ओ आशुफ़्ता-सरी दी मेहनत से है अज़्मत कि ज़माने में नगीं को बे-काविश-ए-सीना न कभी नामवरी दी सय्याद ने दी रुख़्सत-ए-परवाज़ पर अफ़्सोस तू ने न इजाज़त मुझे बे-बाल-ओ-परी दी कहता तिरा कुछ सोख़्ता-जाँ लेक अजल ने फ़ुर्सत न उसे मिस्ल-ए-चराग़-ए-सहरी दी क़स्साम-ए-अज़ल ने न रखा हम को भी महरूम गरचे न दिया कोई हुनर बे-हुनरी दी उस चश्म में है सुरमे का दुम्बाला पुर-आशोब क्यूँ हाथ में बदमस्त के बंदूक़ भरी दी दिल दे के किया हम ने तिरी ज़ुल्फ़ का सौदा इक आप बला अपने लिए मोल ख़रीदी साक़ी ने दिया क्या मुझे इक साग़र-ए-सरशार गोया कि दो आलम से 'ज़फ़र' बे-ख़बरी दी " hai-dil-ko-jo-yaad-aaii-falak-e-piir-kisii-kii-bahadur-shah-zafar-ghazals," है दिल को जो याद आई फ़लक-ए-पीर किसी की आँखों के तले फिरती है तस्वीर किसी की गिर्या भी है नाला भी है और आह-ओ-फ़ुग़ाँ भी पर दिल में हुई उस के न तासीर किसी की हाथ आए है क्या ख़ाक तिरे ख़ाक-ए-कफ़-ए-पा जब तक कि न क़िस्मत में हो इक्सीर किसी की यारो वो है बिगड़ा हुआ बातें न बनाओ कुछ पेश नहीं जाने की तक़रीर किसी की नाज़ाँ न हो मुनइ'म कि जहाँ तेरा महल है होवेगी यहाँ पहले भी ता'मीर किसी की मेरी गिरह-ए-दिल न खुली है न खुलेगी जब तक न खुले ज़ुल्फ़-ए-गिरह-गीर किसी की आता भी अगर है तो वो फिर जाए है उल्टा जिस वक़्त उलट जाए है तक़दीर किसी की इस अबरू ओ मिज़्गाँ से 'ज़फ़र' तेज़ ज़ियादा ख़ंजर न किसी का है न शमशीर किसी की जो दिल से उधर जाए नज़र दिल हो गिरफ़्तार मुजरिम हो कोई और हो तक़्सीर किसी की " khvaah-kar-insaaf-zaalim-khvaah-kar-bedaad-tuu-bahadur-shah-zafar-ghazals," ख़्वाह कर इंसाफ़ ज़ालिम ख़्वाह कर बेदाद तू पर जो फ़रियादी हैं उन की सुन तो ले फ़रियाद तू दम-ब-दम भरते हैं हम तेरी हवा-ख़्वाही का दम कर न बद-ख़ुओं के कहने से हमें बर्बाद तू क्या गुनह क्या जुर्म क्या तक़्सीर मेरी क्या ख़ता बन गया जो इस तरह हक़ में मिरे जल्लाद तू क़ैद से तेरी कहाँ जाएँगे हम बे-बाल-ओ-पर क्यूँ क़फ़स में तंग करता है हमें सय्याद तू दिल को दिल से राह है तो जिस तरह से हम तुझे याद करते हैं करे यूँ ही हमें भी याद तू दिल तिरा फ़ौलाद हो तो आप हो आईना-वार साफ़ यक-बारी सुने मेरी अगर रूदाद तू शाद ओ ख़ुर्रम एक आलम को किया उस ने 'ज़फ़र' पर सबब क्या है कि है रंजीदा ओ नाशाद तू " kyuunki-ham-duniyaa-men-aae-kuchh-sabab-khultaa-nahiin-bahadur-shah-zafar-ghazals," क्यूँकि हम दुनिया में आए कुछ सबब खुलता नहीं इक सबब क्या भेद वाँ का सब का सब खुलता नहीं पूछता है हाल भी गर वो तो मारे शर्म के ग़ुंचा-ए-तस्वीर के मानिंद लब खुलता नहीं शाहिद-ए-मक़्सूद तक पहुँचेंगे क्यूँकर देखिए बंद है बाब-ए-तमन्ना है ग़ज़ब खुलता नहीं बंद है जिस ख़ाना-ए-ज़िंदाँ में दीवाना तेरा उस का दरवाज़ा परी-रू रोज़ ओ शब खुलता नहीं दिल है ये ग़ुंचा नहीं है इस का उक़्दा ऐ सबा खोलने का जब तलक आवे न ढब खुलता नहीं इश्क़ ने जिन को किया ख़ातिर-गिरफ़्ता उन का दिल लाख होवे गरचे सामान-ए-तरब खुलता नहीं किस तरह मालूम होवे उस के दिल का मुद्दआ मुझ से बातों में 'ज़फ़र' वो ग़ुंचा-लब खुलता नहीं " vaan-iraada-aaj-us-qaatil-ke-dil-men-aur-hai-bahadur-shah-zafar-ghazals," वाँ इरादा आज उस क़ातिल के दिल में और है और यहाँ कुछ आरज़ू बिस्मिल के दिल में और है वस्ल की ठहरावे ज़ालिम तो किसी सूरत से आज वर्ना ठहरी कुछ तिरे माइल के दिल में और है है हिलाल ओ बद्र में इक नूर पर जो रौशनी दिल में नाक़िस के है वो कामिल के दिल में और है पहले तो मिलता है दिलदारी से क्या क्या दिलरुबा बाँधता मंसूबे फिर वो मिल के दिल में और है है मुझे बाद-अज़-सवाल-ए-बोसा ख़्वाहिश वस्ल की ये तमन्ना एक इस साइल के दिल में और है गो वो महफ़िल में न बोला पा गए चितवन से हम आज कुछ उस रौनक़-ए-महफ़िल के दिल में और है यूँ तो है वो ही दिल-ए-आलम के दिल में ऐ 'ज़फ़र' उस का आलम मर्द-ए-साहब दिल के दिल में और है " bharii-hai-dil-men-jo-hasrat-kahuun-to-kis-se-kahuun-bahadur-shah-zafar-ghazals," भरी है दिल में जो हसरत कहूँ तो किस से कहूँ सुने है कौन मुसीबत कहूँ तो किस से कहूँ जो तू हो साफ़ तो कुछ मैं भी साफ़ तुझ से कहूँ तिरे है दिल में कुदूरत कहूँ तो किस से कहूँ न कोहकन है न मजनूँ कि थे मिरे हमदर्द मैं अपना दर्द-ए-मोहब्बत कहूँ तो किस से कहूँ दिल उस को आप दिया आप ही पशेमाँ हूँ कि सच है अपनी नदामत कहूँ तो किस से कहूँ कहूँ मैं जिस से उसे होवे सुनते ही वहशत फिर अपना क़िस्सा-ए-वहशत कहूँ तो किस से कहूँ रहा है तू ही तो ग़म-ख़्वार ऐ दिल-ए-ग़म-गीं तिरे सिवा ग़म-ए-फ़ुर्क़त कहूँ तो किस से कहूँ जो दोस्त हो तो कहूँ तुझ से दोस्ती की बात तुझे तो मुझ से अदावत कहूँ तो किस से कहूँ न मुझ को कहने की ताक़त कहूँ तो क्या अहवाल न उस को सुनने की फ़ुर्सत कहूँ तो किस से कहूँ किसी को देखता इतना नहीं हक़ीक़त में 'ज़फ़र' मैं अपनी हक़ीक़त कहूँ तो किस से कहूँ " lagtaa-nahiin-hai-dil-miraa-ujde-dayaar-men-bahadur-shah-zafar-ghazals," लगता नहीं है दिल मिरा उजड़े दयार में किस की बनी है आलम-ए-ना-पाएदार में इन हसरतों से कह दो कहीं और जा बसें इतनी जगह कहाँ है दिल-ए-दाग़-दार में काँटों को मत निकाल चमन से ओ बाग़बाँ ये भी गुलों के साथ पले हैं बहार में बुलबुल को बाग़बाँ से न सय्याद से गिला क़िस्मत में क़ैद लिक्खी थी फ़स्ल-ए-बहार में कितना है बद-नसीब 'ज़फ़र' दफ़्न के लिए दो गज़ ज़मीन भी न मिली कू-ए-यार में " yaa-mujhe-afsar-e-shaahaana-banaayaa-hotaa-bahadur-shah-zafar-ghazals," या मुझे अफ़सर-ए-शाहाना बनाया होता या मिरा ताज गदायाना बनाया होता अपना दीवाना बनाया मुझे होता तू ने क्यूँ ख़िरद-मंद बनाया न बनाया होता ख़ाकसारी के लिए गरचे बनाया था मुझे काश ख़ाक-ए-दर-ए-जानाना बनाया होता नश्शा-ए-इश्क़ का गर ज़र्फ़ दिया था मुझ को उम्र का तंग न पैमाना बनाया होता दिल-ए-सद-चाक बनाया तो बला से लेकिन ज़ुल्फ़-ए-मुश्कीं का तिरे शाना बनाया होता सूफ़ियों के जो न था लायक़-ए-सोहबत तो मुझे क़ाबिल-ए-जलसा-ए-रिंदाना बनाया होता था जलाना ही अगर दूरी-ए-साक़ी से मुझे तो चराग़-ए-दर-ए-मय-ख़ाना बनाया होता शोला-ए-हुस्न चमन में न दिखाया उस ने वर्ना बुलबुल को भी परवाना बनाया होता रोज़ मामूरा-ए-दुनिया में ख़राबी है 'ज़फ़र' ऐसी बस्ती को तो वीराना बनाया होता " mohabbat-chaahiye-baaham-hamen-bhii-ho-tumhen-bhii-ho-bahadur-shah-zafar-ghazals," मोहब्बत चाहिए बाहम हमें भी हो तुम्हें भी हो ख़ुशी हो इस में या हो ग़म हमें भी हो तुम्हें भी हो ग़नीमत तुम इसे समझो कि इस ख़ुम-ख़ाने में यारो नसीब इक-दम दिल-ए-ख़ुर्रम हमें भी हो तुम्हें भी हो दिलाओ हज़रत-ए-दिल तुम न याद-ए-ख़त-ए-सब्ज़ उस का कहीं ऐसा न हो ये सम हमें भी हो तुम्हें भी हो हमेशा चाहता है दिल कि मिल कर कीजे मय-नोशी मयस्सर जाम-ए-मय-ए-जम-जम हमें भी हो तुम्हें भी हो हम अपना इश्क़ चमकाएँ तुम अपना हुस्न चमकाओ कि हैराँ देख कर आलम हमें भी हो तुम्हें भी हो रहे हिर्स-ओ-हवा दाइम अज़ीज़ो साथ जब अपने न क्यूँकर फ़िक्र-ए-बेश-ओ-कम हमें भी हो तुम्हें भी हो 'ज़फ़र' से कहता है मजनूँ कहीं दर्द-ए-दिल महज़ूँ जो ग़म से फ़ुर्सत अब इक दम हमें भी हो तुम्हें भी हो " gaii-yak-ba-yak-jo-havaa-palat-nahiin-dil-ko-mere-qaraar-hai-bahadur-shah-zafar-ghazals," गई यक-ब-यक जो हवा पलट नहीं दिल को मेरे क़रार है करूँ उस सितम को मैं क्या बयाँ मिरा ग़म से सीना फ़िगार है ये रेआया-ए-हिन्द तबह हुई कहूँ क्या जो इन पे जफ़ा हुई जिसे देखा हाकिम-ए-वक़्त ने कहा ये भी क़ाबिल-ए-दार है ये किसी ने ज़ुल्म भी है सुना कि दी फाँसी लोगों को बे-गुनाह वही कलमा-गोयों की सम्त से अभी दिल में उन के बुख़ार है न था शहर-ए-देहली ये था चमन कहो किस तरह का था याँ अमन जो ख़िताब था वो मिटा दिया फ़क़त अब तो उजड़ा दयार है यही तंग हाल जो सब का है ये करिश्मा क़ुदरत-ए-रब का है जो बहार थी सो ख़िज़ाँ हुई जो ख़िज़ाँ थी अब वो बहार है शब-ओ-रोज़ फूल में जो तुले कहो ख़ार-ए-ग़म को वो क्या सहे मिले तौक़ क़ैद में जब उन्हें कहा गुल के बदले ये हार है सभी जादा मातम-ए-सख़्त है कहो कैसी गर्दिश-ए-बख़्त है न वो ताज है न वो तख़्त है न वह शाह है न दयार है जो सुलूक करते थे और से वही अब हैं कितने ज़लील से वो हैं तंग चर्ख़ के जौर से रहा तन पे उन के न तार है न वबाल तन पे है सर मिरा नहीं जान जाने का डर ज़रा कटे ग़म ही, निकले जो दम मिरा मुझे अपनी ज़िंदगी बार है क्या है ग़म 'ज़फ़र' तुझे हश्र का जो ख़ुदा ने चाहा तो बरमला हमें है वसीला रसूल का वो हमारा हामी-ए-कार है " dekho-insaan-khaak-kaa-putlaa-banaa-kyaa-chiiz-hai-bahadur-shah-zafar-ghazals," देखो इंसाँ ख़ाक का पुतला बना क्या चीज़ है बोलता है इस में क्या वो बोलता क्या चीज़ है रू-ब-रू उस ज़ुल्फ़ के दाम-ए-बला क्या चीज़ है उस निगह के सामने तीर-ए-क़ज़ा क्या चीज़ है यूँ तो हैं सारे बुताँ ग़ारत-गर-ए-ईमाँ-ओ-दीं एक वो काफ़िर सनम नाम-ए-ख़ुदा क्या चीज़ है जिस ने दिल मेरा दिया दाम-ए-मोहब्बत में फँसा वो नहीं मालूम मुज को नासेहा क्या चीज़ है होवे इक क़तरा जो ज़हराब-ए-मोहब्बत का नसीब ख़िज़्र फिर तो चश्मा-ए-आब-ए-बक़ा क्या चीज़ है मर्ग ही सेहत है उस की मर्ग ही उस का इलाज इश्क़ का बीमार क्या जाने दवा क्या चीज़ है दिल मिरा बैठा है ले कर फिर मुझी से वो निगार पूछता है हाथ में मेरे बता क्या चीज़ है ख़ाक से पैदा हुए हैं देख रंगा-रंग गुल है तो ये नाचीज़ लेकिन इस में क्या क्या चीज़ है जिस की तुझ को जुस्तुजू है वो तुझी में है 'ज़फ़र' ढूँडता फिर फिर के तो फिर जा-ब-जा क्या चीज़ है " vaan-rasaaii-nahiin-to-phir-kyaa-hai-bahadur-shah-zafar-ghazals," वाँ रसाई नहीं तो फिर क्या है ये जुदाई नहीं तो फिर क्या है हो मुलाक़ात तो सफ़ाई से और सफ़ाई नहीं तो फिर क्या है दिलरुबा को है दिलरुबाई शर्त दिलरुबाई नहीं तो फिर क्या है गिला होता है आश्नाई में आश्नाई नहीं तो फिर क्या है अल्लाह अल्लाह रे उन बुतों का ग़ुरूर ये ख़ुदाई नहीं तो फिर क्या है मौत आई तो टल नहीं सकती और आई नहीं तो फिर क्या है मगस-ए-क़ाब अग़निया होना है बे-हयाई नहीं तो फिर क्या है बोसा-ए-लब दिल-ए-शिकस्ता को मोम्याई नहीं तो फिर क्या है नहीं रोने में गर 'ज़फ़र' तासीर जग-हँसाई नहीं तो फिर क्या है " gaaliyaan-tankhvaah-thahrii-hai-agar-bat-jaaegii-bahadur-shah-zafar-ghazals," गालियाँ तनख़्वाह ठहरी है अगर बट जाएगी आशिक़ों के घर मिठाई लब शकर बट जाएगी रू-ब-रू गर होगा यूसुफ़ और तू आ जाएगा उस की जानिब से ज़ुलेख़ा की नज़र बट जाएगी रहज़नों में नाज़-ओ-ग़म्ज़ा की ये जिंस-ए-दीन-ओ-दिल जूँ मता-ए-बुर्दा आख़िर हम-दिगर बट जाएगी होगा क्या गर बोल उट्ठे ग़ैर बातों में मिरी फिर तबीअत मेरी ऐ बेदाद गर बट जाएगी दौलत-ए-दुनिया नहीं जाने की हरगिज़ तेरे साथ बाद तेरे सब यहीं ऐ बे-ख़बर बट जाएगी कर ले ऐ दिल जान को भी रंज-ओ-ग़म में तू शरीक ये जो मेहनत तुझ पे है कुछ कुछ मगर बट जाएगी मूँग छाती पे जो दलते हैं किसी की देखना जूतियों में दाल उन की ऐ 'ज़फ़र' बट जाएगी " zulf-jo-rukh-par-tire-ai-mehr-e-talat-khul-gaii-bahadur-shah-zafar-ghazals," ज़ुल्फ़ जो रुख़ पर तिरे ऐ मेहर-ए-तलअत खुल गई हम को अपनी तीरा-रोज़ी की हक़ीक़त खुल गई क्या तमाशा है रग-ए-लैला में डूबा नेश्तर फ़स्द-ए-मजनूँ बाइस-ए-जोश-ए-मोहब्बत खुल गई दिल का सौदा इक निगह पर है तिरी ठहरा हुआ नर्ख़ तू क्या पूछता है अब तो क़ीमत खुल गई आईने को नाज़ था क्या अपने रू-ए-साफ़ पर आँख ही पर देखते ही तेरी सूरत खुल गई थी असीरान-ए-क़फ़स को आरज़ू परवाज़ की खुल गई खिड़की क़फ़स की क्या कि क़िस्मत खुल गई तेरे आरिज़ पर हुआ आख़िर ग़ुबार-ए-ख़त नुमूद खुल गई आईना-रू दिल की कुदूरत खुल गई बे-तकल्लुफ़ आए तुम खोले हुए बंद-ए-क़बा अब गिरह दिल की हमारे फ़िल-हक़ीक़त खुल गई बाँधी ज़ाहिद ने तवक्कुल पर कमर सौ बार चुस्त लेकिन आख़िर बाइस-ए-सुस्ती-ए-हिम्मत खुल गई खुलते खुलते रुक गए वो उन को तू ने ऐ 'ज़फ़र' सच कहो किस आँख से देखा कि चाहत खुल गई " kyuunkar-na-khaaksaar-rahen-ahl-e-kiin-se-duur-bahadur-shah-zafar-ghazals," क्यूँकर न ख़ाकसार रहें अहल-ए-कीं से दूर देखो ज़मीं फ़लक से फ़लक है ज़मीं से दूर परवाना वस्ल-ए-शम्अ पे देता है अपनी जाँ क्यूँकर रहे दिल उस के रुख़-ए-आतिशीं से दूर मज़मून-ए-वस्ल-व-हिज्र जो नामे में है रक़म है हर्फ़ भी कहीं से मिले और कहीं से दूर गो तीर-ए-बे-गुमाँ है मिरे पास पर अभी जाए निकल के सीना-ए-चर्ख़-ए-बरीं से दूर वो कौन है कि जाते नहीं आप जिस के पास लेकिन हमेशा भागते हो तुम हमीं से दूर हैरान हूँ कि उस के मुक़ाबिल हो आईना जो पुर-ग़ुरूर खिंचता है माह-ए-मुबीं से दूर याँ तक अदू का पास है उन को कि बज़्म में वो बैठते भी हैं तो मिरे हम-नशीं से दूर मंज़ूर हो जो दीद तुझे दिल की आँख से पहुँचे तिरी नज़र निगह-ए-दूर-बीं से दूर दुनिया-ए-दूँ की दे न मोहब्बत ख़ुदा 'ज़फ़र' इंसाँ को फेंक दे है ये ईमान ओ दीं से दूर " baat-karnii-mujhe-mushkil-kabhii-aisii-to-na-thii-bahadur-shah-zafar-ghazals," बात करनी मुझे मुश्किल कभी ऐसी तो न थी जैसी अब है तिरी महफ़िल कभी ऐसी तो न थी ले गया छीन के कौन आज तिरा सब्र ओ क़रार बे-क़रारी तुझे ऐ दिल कभी ऐसी तो न थी उस की आँखों ने ख़ुदा जाने किया क्या जादू कि तबीअ'त मिरी माइल कभी ऐसी तो न थी अक्स-ए-रुख़्सार ने किस के है तुझे चमकाया ताब तुझ में मह-ए-कामिल कभी ऐसी तो न थी अब की जो राह-ए-मोहब्बत में उठाई तकलीफ़ सख़्त होती हमें मंज़िल कभी ऐसी तो न थी पा-ए-कूबाँ कोई ज़िंदाँ में नया है मजनूँ आती आवाज़-ए-सलासिल कभी ऐसी तो न थी निगह-ए-यार को अब क्यूँ है तग़ाफ़ुल ऐ दिल वो तिरे हाल से ग़ाफ़िल कभी ऐसी तो न थी चश्म-ए-क़ातिल मिरी दुश्मन थी हमेशा लेकिन जैसी अब हो गई क़ातिल कभी ऐसी तो न थी क्या सबब तू जो बिगड़ता है 'ज़फ़र' से हर बार ख़ू तिरी हूर-शमाइल कभी ऐसी तो न थी " havaa-men-phirte-ho-kyaa-hirs-aur-havaa-ke-liye-bahadur-shah-zafar-ghazals," हवा में फिरते हो क्या हिर्स और हवा के लिए ग़ुरूर छोड़ दो ऐ ग़ाफ़िलो ख़ुदा के लिए गिरा दिया है हमें किस ने चाह-ए-उल्फ़त में हम आप डूबे किसी अपने आश्ना के लिए जहाँ में चाहिए ऐवान ओ क़स्र शाहों को ये एक गुम्बद-ए-गर्दूं है बस गदा के लिए वो आईना है कि जिस को है हाजत-ए-सीमाब इक इज़्तिराब है काफ़ी दिल-ए-सफ़ा के लिए तपिश से दिल का हो क्या जाने सीने में क्या हाल जो तेरे तीर का रौज़न न हो हवा के लिए तबीब-ए-इश्क़ की दुक्काँ में ढूँडते फिरते ये दर्दमंद-ए-मोहब्बत तिरी दवा के लिए जो हाथ आए 'ज़फ़र' ख़ाक-पा-ए-'फ़ख़रूद्दीन' तो मैं रखूँ उसे आँखों के तूतिया के लिए " ham-ne-tirii-khaatir-se-dil-e-zaar-bhii-chhodaa-bahadur-shah-zafar-ghazals," हम ने तिरी ख़ातिर से दिल-ए-ज़ार भी छोड़ा तू भी न हुआ यार और इक यार भी छोड़ा क्या होगा रफ़ूगर से रफ़ू मेरा गरेबान ऐ दस्त-ए-जुनूँ तू ने नहीं तार भी छोड़ा दीं दे के गया कुफ़्र के भी काम से आशिक़ तस्बीह के साथ उस ने तो ज़ुन्नार भी छोड़ा गोशे में तिरी चश्म-ए-सियह-मस्त के दिल ने की जब से जगह ख़ाना-ए-ख़ु़म्मार भी छोड़ा इस से है ग़रीबों को तसल्ली कि अजल ने मुफ़्लिस को जो मारा तो न ज़रदार भी छोड़ा टेढ़े न हो हम से रखो इख़्लास तो सीधा तुम प्यार से रुकते हो तो लो प्यार भी छोड़ा क्या छोड़ें असीरान-ए-मोहब्बत को वो जिस ने सदक़े में न इक मुर्ग़-ए-गिरफ़्तार भी छोड़ा पहुँची मिरी रुस्वाई की क्यूँकर ख़बर उस को उस शोख़ ने तो देखना अख़बार भी छोड़ा करता था जो याँ आने का झूटा कभी इक़रार मुद्दत से 'ज़फ़र' उस ने वो इक़रार भी छोड़ा " karenge-qasd-ham-jis-dam-tumhaare-ghar-men-aavenge-bahadur-shah-zafar-ghazals," करेंगे क़स्द हम जिस दम तुम्हारे घर में आवेंगे जो होगी उम्र भर की राह तो दम भर में आवेंगे अगर हाथों से उस शीरीं-अदा के ज़ब्ह होंगे हम तो शर्बत के से घूँट आब-ए-दम-ए-ख़ंजर में आवेंगे यही गर जोश-ए-गिर्या है तो बह कर साथ अश्कों के हज़ारों पारा-ए-दिल मेरे चश्म-ए-तर में आवेंगे गर इस क़ैद-ए-बला से अब की छूटेंगे तो फिर हरगिज़ न हम दाम-ए-फ़रेब-ए-शोख़-ए-ग़ारत-गर में आवेंगे न जाते गरचे मर जाते जो हम मालूम कर जाते कि इतना तंग जा कर कूचा-ए-दिलबर में आवेंगे गरेबाँ-चाक लाखों हाथ से उस मेहर-ए-तलअत के ब-रंग-ए-सुब्ह-ए-महशर अरसा-ए-महशर में आवेंगे जो सरगरदानी अपनी तेरे दीवाने दिखाएँगे तो फिर क्या क्या बगूले दश्त के चक्कर में आवेंगे 'ज़फ़र' अपना करिश्मा गर दिखाया चश्म-ए-साक़ी ने तमाशे जाम-ए-जम के सब नज़र साग़र में आवेंगे " main-huun-aasii-ki-pur-khataa-kuchh-huun-bahadur-shah-zafar-ghazals," मैं हूँ आसी कि पुर-ख़ता कुछ हूँ तेरा बंदा हूँ ऐ ख़ुदा कुछ हूँ जुज़्व ओ कुल को नहीं समझता मैं दिल में थोड़ा सा जानता कुछ हूँ तुझ से उल्फ़त निबाहता हूँ मैं बा-वफ़ा हूँ कि बेवफ़ा कुछ हूँ जब से ना-आश्ना हूँ मैं सब से तब कहीं उस से आश्ना कुछ हूँ नश्शा-ए-इश्क़ ले उड़ा है मुझे अब मज़े में उड़ा रहा कुछ हूँ ख़्वाब मेरा है ऐन बेदारी मैं तो उस में भी देखता कुछ हूँ गरचे कुछ भी नहीं हूँ मैं लेकिन उस पे भी कुछ न पूछो क्या कुछ हूँ समझे वो अपना ख़ाकसार मुझे ख़ाक-ए-रह हूँ कि ख़ाक-ए-पा कुछ हूँ चश्म-ए-अल्ताफ़ फ़ख़्र-ए-दीं से हूँ ऐ 'ज़फ़र' कुछ से हो गया कुछ हूँ " rukh-jo-zer-e-sumbul-e-pur-pech-o-taab-aa-jaaegaa-bahadur-shah-zafar-ghazals," रुख़ जो ज़ेर-ए-सुंबल-ए-पुर-पेच-ओ-ताब आ जाएगा फिर के बुर्ज-ए-सुंबले में आफ़्ताब आ जाएगा तेरा एहसाँ होगा क़ासिद गर शिताब आ जाएगा सब्र मुझ को देख कर ख़त का जवाब आ जाएगा हो न बेताब इतना गर उस का इताब आ जाएगा तू ग़ज़ब में ऐ दिल-ए-ख़ाना-ख़राब आ जाएगा इस क़दर रोना नहीं बेहतर बस अब अश्कों को रोक वर्ना तूफ़ाँ देख ऐ चश्म-ए-पुर-आब आ जाएगा पेश होवेगा अगर तेरे गुनाहों का हिसाब तंग ज़ालिम अरसा-ए-रोज़-ए-हिसाब आ जाएगा देख कर दस्त-ए-सितम में तेरी तेग़-ए-आबदार मेरे हर ज़ख़्म-ए-जिगर के मुँह में आब आ जाएगा अपनी चश्म-ए-मस्त की गर्दिश न ऐ साक़ी दिखा देख चक्कर में अभी जाम-ए-शराब आ जाएगा ख़ूब होगा हाँ जो सीने से निकल जाएगा तू चैन मुझ को ऐ दिल-ए-पुर-इज़्तिराब आ जाएगा ऐ 'ज़फ़र' उठ जाएगा जब पर्दा-ए-शर्म-ओ-हिजाब सामने वो यार मेरे बे-हिजाब आ जाएगा " shaane-kii-har-zabaan-se-sune-koii-laaf-e-zulf-bahadur-shah-zafar-ghazals," शाने की हर ज़बाँ से सुने कोई लाफ़-ए-ज़ुल्फ़ चीरे है सीना रात को ये मू-शिगाफ़-ए-ज़ुल्फ़ जिस तरह से कि काबे पे है पोशिश-ए-सियाह इस तरह इस सनम के है रुख़ पर ग़िलाफ़-ए-ज़ुल्फ़ बरहम है इस क़दर जो मिरे दिल से ज़ुल्फ़-ए-यार शामत-ज़दा ने क्या किया ऐसा ख़िलाफ़-ए-ज़ुल्फ़ मतलब न कुफ़्र ओ दीं से न दैर ओ हरम से काम करता है दिल तवाफ़-ए-इज़ार ओ तवाफ़-ए-ज़ु़ल्फ़ नाफ़-ए-ग़ज़ाल-ए-चीं है कि है नाफ़ा-ए-ततार क्यूँकर कहूँ कि है गिरह-ए-ज़ुल्फ़ नाफ़-ए-ज़ुल्फ़ आपस में आज दस्त-ओ-गरेबाँ है रोज़ ओ शब ऐ मेहर-वश ज़री का नहीं मू-ए-बाफ़-ए-ज़ुल्फ़ कहता है कोई जीम कोई लाम ज़ुल्फ़ को कहता हूँ मैं 'ज़फ़र' कि मुसत्तह है काफ़-ए-ज़ुल्फ़ " sab-rang-men-us-gul-kii-mire-shaan-hai-maujuud-bahadur-shah-zafar-ghazals," सब रंग में उस गुल की मिरे शान है मौजूद ग़ाफ़िल तू ज़रा देख वो हर आन है मौजूद हर तार का दामन के मिरे कर के तबर्रुक सर-बस्ता हर इक ख़ार-ए-बयाबान है मौजूद उर्यानी-ए-तन है ये ब-अज़-ख़िलअत-ए-शाही हम को ये तिरे इश्क़ में सामान है मौजूद किस तरह लगावे कोई दामाँ को तिरे हाथ होने को तू अब दस्त-ओ-गरेबान है मौजूद लेता ही रहा रात तिरे रुख़ की बलाएँ तू पूछ ले ये ज़ुल्फ़-ए-परेशान है मौजूद तुम चश्म-ए-हक़ीक़त से अगर आप को देखो आईना-ए-हक़ में दिल-ए-इंसान है मौजूद कहता है 'ज़फ़र' हैं ये सुख़न आगे सभों के जो कोई यहाँ साहिब-ए-इरफ़ान है मौजूद " hijr-ke-haath-se-ab-khaak-pade-jiine-men-bahadur-shah-zafar-ghazals," हिज्र के हाथ से अब ख़ाक पड़े जीने में दर्द इक और उठा आह नया सीने में ख़ून-ए-दिल पीने से जो कुछ है हलावत हम को ये मज़ा और किसी को नहीं मय पीने में दिल को किस शक्ल से अपने न मुसफ़्फ़ा रक्खूँ जल्वा-गर यार की सूरत है इस आईने में अश्क ओ लख़्त-ए-जिगर आँखों में नहीं हैं मेरे हैं भरे लाल ओ गुहर इश्क़ के गंजीने में शक्ल-ए-आईना 'ज़फ़र' से तो न रख दिल में ख़याल कुछ मज़ा भी है भला जान मिरी लेने में " na-durveshon-kaa-khirqa-chaahiye-na-taaj-e-shaahaanaa-bahadur-shah-zafar-ghazals," न दरवेशों का ख़िर्क़ा चाहिए न ताज-ए-शाहाना मुझे तो होश दे इतना रहूँ मैं तुझ पे दीवाना किताबों में धरा है क्या बहुत लिख लिख के धो डालीं हमारे दिल पे नक़्श-ए-कल-हज्र है तेरा फ़रमाना ग़नीमत जान जो दम गुज़रे कैफ़ियत से गुलशन में दिए जा साक़ी-ए-पैमाँ-शिकन भर भर के पैमाना न देखा वो कहीं जल्वा जो देखा ख़ाना-ए-दिल में बहुत मस्जिद में सर मारा बहुत सा ढूँडा बुत-ख़ाना कुछ ऐसा हो कि जिस से मंज़िल-ए-मक़्सूद को पहुँचूँ तरीक़-ए-पारसाई होवे या हो राह-ए-रिंदाना ये सारी आमद-ओ-शुद है नफ़स की आमद-ओ-शुद पर इसी तक आना जाना है न फिर जाना न फिर आना 'ज़फ़र' वो ज़ाहिद-ए-बेदर्द की हू-हक़ से बेहतर है करे गर रिंद दर्द-ए-दिल से हाव-हु-ए-मस्ताना " ham-ye-to-nahiin-kahte-ki-gam-kah-nahiin-sakte-bahadur-shah-zafar-ghazals," हम ये तो नहीं कहते कि ग़म कह नहीं सकते पर जो सबब-ए-ग़म है वो हम कह नहीं सकते हम देखते हैं तुम में ख़ुदा जाने बुतो क्या इस भेद को अल्लाह की क़सम कह नहीं सकते रुस्वा-ए-जहाँ करता है रो रो के हमें तू हम तुझे कुछ ऐ दीदा-ए-नम कह नहीं सकते क्या पूछता है हम से तू ऐ शोख़ सितमगर जो तू ने किए हम पे सितम कह नहीं सकते है सब्र जिन्हें तल्ख़-कलामी को तुम्हारी शर्बत ही बताते हैं सम कह नहीं सकते जब कहते हैं कुछ बात रुकावट की तिरे हम रुक जाता है ये सीने में दम कह नहीं सकते अल्लाह रे तिरा रो'ब कि अहवाल-ए-दिल अपना दे देते हैं हम कर के रक़म कह नहीं सकते तूबा-ए-बहिश्ती है तुम्हारा क़द-ए-रा'ना हम क्यूँकर कहें सर्व-ए-इरम कह नहीं सकते जो हम पे शब-ए-हिज्र में उस माह-ए-लक़ा के गुज़रे हैं 'ज़फ़र' रंज ओ अलम कह नहीं सकते " jab-ki-pahluu-men-hamaare-but-e-khud-kaam-na-ho-bahadur-shah-zafar-ghazals," जब कि पहलू में हमारे बुत-ए-ख़ुद-काम न हो गिर्ये से शाम-ओ-सहर क्यूँ कि हमें काम न हो ले गया दिल का जो आराम हमारे या रब उस दिल-आराम को मुतलक़ कभी आराम न हो जिस को समझे लब-ए-पाँ-ख़ुर्दा वो मालिदा-मिसी मर्दुमाँ देखियो फूली वो कहीं शाम न हो आज तशरीफ़ गुलिस्ताँ में वो मय-कश लाया कफ़-ए-नर्गिस पे धरा क्यूँकि भला जाम न हो कर मुझे क़त्ल वहाँ अब कि न हो कोई जहाँ ता मिरी जाँ तू कहीं ख़ल्क़ में बदनाम न हो देख कर खोलियो तू काकुल-ए-पेचाँ की गिरह कि मिरा ताइर-ए-दिल उस के तह-ए-दाम न हो बिन तिरे ऐ बुत-ए-ख़ुद-काम ये दिल को है ख़तर तेरे आशिक़ का तमाम आह कहीं काम न हो आज हर एक जो यारो नज़र आता है निढाल अपनी अबरू की वो खींचे हुए समसाम न हो है मिरे शोख़ की बालीदा वो काफ़िर आँखें जिस के हम चश्म ज़रा नर्गिस-ए-बादाम न हो सुब्ह होती ही नहीं और नहीं कटती रात रुख़ पे खोले वो कहीं ज़ुल्फ-ए-सियाह-फ़ाम न हो ऐ 'ज़फ़र' चर्ख़ पे ख़ुर्शीद जो यूँ काँपे है जल्वा-गर आज कहीं यार लब-ए-बाम न हो " na-us-kaa-bhed-yaarii-se-na-ayyaarii-se-haath-aayaa-bahadur-shah-zafar-ghazals," न उस का भेद यारी से न अय्यारी से हाथ आया ख़ुदा आगाह है दिल की ख़बरदारी से हाथ आया न हों जिन के ठिकाने होश वो मंज़िल को क्या पहुँचे कि रस्ता हाथ आया जिस की हुश्यारी से हाथ आया हुआ हक़ में हमारे क्यूँ सितमगर आसमाँ इतना कोई पूछे कि ज़ालिम क्या सितमगारी से हाथ आया अगरचे माल-ए-दुनिया हाथ भी आया हरीसों के तो देखा हम ने किस किस ज़िल्लत-ओ-ख़्वारी से हाथ आया न कर ज़ालिम दिल-आज़ारी जो ये दिल मंज़ूर है लेना किसी का दिल जो हाथ आया तो दिलदारी से हाथ आया अगरचे ख़ाकसारी कीमिया का सहल नुस्ख़ा है व-लेकिन हाथ आया जिस के दुश्वारी से हाथ आया हुई हरगिज़ न तेरे चश्म के बीमार को सेह्हत न जब तक ज़हर तेरे ख़त्त-ए-ज़ंगारी से हाथ आया कोई ये वहशी-ए-रम-दीदा तेरे हाथ आया था पर ऐ सय्याद-वश दिल की गिरफ़्तारी से हाथ आया 'ज़फ़र' जो दो जहाँ में गौहर-ए-मक़्सूद था अपना जनाब-ए-फ़ख़्र-ए-दीं की वो मदद-गारी से हाथ आया " nibaah-baat-kaa-us-hiila-gar-se-kuchh-na-huaa-bahadur-shah-zafar-ghazals," निबाह बात का उस हीला-गर से कुछ न हुआ इधर से क्या न हुआ पर उधर से कुछ न हुआ जवाब-ए-साफ़ तो लाता अगर न लाता ख़त लिखा नसीब का जो नामा-बर से कुछ न हुआ हमेशा फ़ित्ने ही बरपा किए मिरे सर पर हुआ ये और तो उस फ़ित्ना-गर से कुछ न हुआ बला से गिर्या-ए-शब तू ही कुछ असर करता अगरचे इश्क़ में आह-ए-सहर से कुछ न हुआ जला जला के किया शम्अ साँ तमाम मुझे बस और तो मुझे सोज़-ए-जिगर से कुछ न हुआ रहीं अदू से वही गर्म-जोशियाँ उस की इस आह-ए-सर्द और इस चश्म-ए-तर से कुछ न हुआ उठाया इश्क़ में क्या क्या न दर्द-ए-सर मैं ने हुसूल पर मुझे उस दर्द-ए-सर से कुछ न हुआ शब-ए-विसाल में भी मेरी जान को आराम अज़ीज़ो दर्द-ए-जुदाई के डर से कुछ न हुआ न दूँगा दिल उसे मैं ये हमेशा कहता था वो आज ले ही गया और 'ज़फ़र' से कुछ न हुआ " shamshiir-e-barhana-maang-gazab-baalon-kii-mahak-phir-vaisii-hii-bahadur-shah-zafar-ghazals," शमशीर-ए-बरहना माँग ग़ज़ब बालों की महक फिर वैसी ही जूड़े की गुंधावट क़हर-ए-ख़ुदा बालों की महक फिर वैसी ही आँखें हैं कटोरा सी वो सितम गर्दन है सुराही-दार ग़ज़ब और उसी में शराब-ए-सुर्ख़ी-ए-पाँ रखती है झलक फिर वैसी ही हर बात में उस की गर्मी है हर नाज़ में उस के शोख़ी है क़ामत है क़यामत चाल परी चलने में फड़क फिर वैसी ही गर रंग भबूका आतिश है और बीनी शोला-ए-सरकश है तो बिजली सी कौंदे है परी आरिज़ की चमक फिर वैसी ही नौ-ख़ेज़ कुचें दो ग़ुंचा हैं है नर्म शिकम इक ख़िर्मन-ए-गुल बारीक कमर जो शाख़-ए-गुल रखती है लचक फिर वैसी ही है नाफ़ कोई गिर्दाब-ए-बला और गोल सुरीं रानें हैं सफ़ा है साक़ बिलोरीं शम-ए-ज़िया पाँव की कफ़क फिर वैसी ही महरम है हबाब-ए-आब-ए-रवाँ सूरज की किरन है उस पे लिपट जाली की कुर्ती है वो बला गोटे की धनक फिर वैसी ही वो गाए तो आफ़त लाए है हर ताल में लेवे जान निकाल नाच उस का उठाए सौ फ़ित्ने घुँगरू की झनक फिर वैसी ही हर बात पे हम से वो जो 'ज़फ़र' करता है लगावट मुद्दत से और उस की चाहत रखते हैं हम आज तलक फिर वैसी ही " qaaruun-uthaa-ke-sar-pe-sunaa-ganj-le-chalaa-bahadur-shah-zafar-ghazals," क़ारूँ उठा के सर पे सुना गंज ले चला दुनिया से क्या बख़ील ब-जुज़ रंज ले चला मिन्नत थी बोसा-ए-लब-ए-शीरीं कि दिल मिरा मुझ को सू-ए-मज़ार-ए-शकर गंज ले चला साक़ी सँभालता है तो जल्दी मुझे संभाल वर्ना उड़ा के पाँ नशा-ए-बंज ले चला दौड़ा के हाथ छाती पे हम उन की यूँ फिरे जैसे कोई चोर आ के हो नारंज ले चला चौसर का लुत्फ़ ये है कि जिस वक़्त पो पड़े हम बर-चहार बोले तो बर-पंज ले चला जिस दम 'ज़फ़र' ने पढ़ के ग़ज़ल हाथ से रखी आँखों पे रख हर एक सुख़न-संज ले चला " mar-gae-ai-vaah-un-kii-naaz-bardaarii-men-ham-bahadur-shah-zafar-ghazals," मर गए ऐ वाह उन की नाज़-बरदारी में हम दिल के हाथों से पड़े कैसी गिरफ़्तारी में हम सब पे रौशन है हमारी सोज़िश-ए-दिल बज़्म में शम्अ साँ जलते हैं अपनी गर्म-बाज़ारी में हम याद में है तेरे दम की आमद-ओ-शुद पुर-ख़याल बे-ख़बर सब से हैं इस दम की ख़बरदारी में हम जब हँसाया गर्दिश-ए-गर्दूं ने हम को शक्ल-ए-गुल मिस्ल-ए-शबनम हैं हमेशा गिर्या ओ ज़ारी में हम चश्म ओ दिल बीना है अपने रोज़ ओ शब ऐ मर्दुमाँ गरचे सोते हैं ब-ज़ाहिर पर हैं बेदारी में हम दोश पर रख़्त-ए-सफ़र बाँधे है क्या ग़ुंचा सबा देखते हैं सब को याँ जैसे कि तय्यारी में हम कब तलक बे-दीद से या रब रखें चश्म-ए-वफ़ा लग रहे हैं आज कल तो दिल की ग़म-ख़्वारी में हम देख कर आईना क्या कहता है यारो अब वो शोख़ माह से सद चंद बेहतर हैं अदा-दारी में हम ऐ 'ज़फ़र' लिख तू ग़ज़ल बहर ओ क़वाफ़ी फेर कर ख़ामा-ए-दुर-रेज़ से हैं अब गुहर-बारी में हम " na-do-dushnaam-ham-ko-itnii-bad-khuuii-se-kyaa-haasil-bahadur-shah-zafar-ghazals," न दो दुश्नाम हम को इतनी बद-ख़़ूई से क्या हासिल तुम्हें देना ही होगा बोसा ख़म-रूई से क्या हासिल दिल-आज़ारी ने तेरी कर दिया बिल्कुल मुझे बे-दिल न कर अब मेरी दिल-जूई कि दिल-जूई से क्या हासिल न जब तक चाक हो दिल फाँस कब दिल की निकलती है जहाँ हो काम ख़ंजर का वहाँ सूई से क्या हासिल बुराई या भलाई गो है अपने वास्ते लेकिन किसी को क्यूँ कहें हम बद कि बद-गूई से क्या हासिल न कर फ़िक्र-ए-ख़िज़ाब ऐ शैख़ तू पीरी में जाने दे जवाँ होना नहीं मुमकिन सियह-रूई से क्या हासिल चढ़ाए आस्तीं ख़ंजर-ब-कफ़ वो यूँ जो फिरता है उसे क्या जाने है उस अरबदा-जूई से क्या हासिल अबस पम्बा न रख दाग़-ए-दिल-ए-सोज़ाँ पे तू मेरे कि अंगारे पे होगा चारागर रूई से क्या हासिल शमीम-ए-ज़ुल्फ़ हो उस की तो हो फ़रहत मिरे दिल को सबा होवेगा मुश्क-चीं की ख़ुशबूई से क्या हासिल न होवे जब तलक इंसाँ को दिल से मेल-ए-यक-जानिब 'ज़फ़र' लोगों के दिखलाने को यकसूई से क्या हासिल " nahiin-ishq-men-is-kaa-to-ranj-hamen-ki-qaraar-o-shakeb-zaraa-na-rahaa-bahadur-shah-zafar-ghazals," नहीं इश्क़ में इस का तो रंज हमें कि क़रार ओ शकेब ज़रा न रहा ग़म-ए-इश्क़ तो अपना रफ़ीक़ रहा कोई और बला से रहा न रहा दिया अपनी ख़ुदी को जो हम ने उठा वो जो पर्दा सा बीच में था न रहा रहे पर्दे में अब न वो पर्दा-नशीं कोई दूसरा उस के सिवा न रहा न थी हाल की जब हमें ख़बर रहे देखते औरों के ऐब ओ हुनर पड़ी अपनी बुराइयों पर जो नज़र तो निगाह में कोई बुरा न रहा तिरे रुख़ के ख़याल में कौन से दिन उठे मुझ पे न फ़ित्ना-ए-रोज़-ए-जज़ा तिरी ज़ुल्फ़ के ध्यान में कौन सी शब मिरे सर पे हुजूम-ए-बला न रहा हमें साग़र-ए-बादा के देने में अब करे देर जो साक़ी तो हाए ग़ज़ब कि ये अहद-ए-नशात ये दौर-ए-तरब न रहेगा जहाँ में सदा न रहा कई रोज़ में आज वो मेहर-लिक़ा हुआ मेरे जो सामने जल्वा-नुमा मुझे सब्र ओ क़रार ज़रा न रहा उसे पास-ए-हिजाब-ओ-हया न रहा तिरे ख़ंजर ओ तेग़ की आब-ए-रवाँ हुई जब कि सबील-ए-सितम-ज़दगाँ गए कितने ही क़ाफ़िले ख़ुश्क-ज़बाँ कोई तिश्ना-ए-आब-ए-बक़ा न रहा मुझे साफ़ बताए निगार अगर तो ये पूछूँ मैं रो रो के ख़ून-ए-जिगर मले पाँव से किस के हैं दीदा-ए-तर कफ़-ए-पा पे जो रंग-ए-हिना न रहा उसे चाहा था मैं ने कि रोक रखूँ मिरी जान भी जाए तो जाने न दूँ किए लाख फ़रेब करोड़ फ़ुसूँ न रहा न रहा न रहा न रहा लगे यूँ तो हज़ारों ही तीर-ए-सितम कि तड़पते रहे पड़े ख़ाक पे हम वले नाज़ ओ करिश्मा की तेग़-ए-दो-दम लगी ऐसी कि तस्मा लगा न रहा 'ज़फ़र' आदमी उस को न जानिएगा वो हो कैसा ही साहब-ए-फ़हम-ओ-ज़का जिसे ऐश में याद-ए-ख़ुदा न रही जिसे तैश में ख़ौफ़-ए-ख़ुदा न रहा " jab-kabhii-dariyaa-men-hote-saya-afgan-aap-hain-bahadur-shah-zafar-ghazals," जब कभी दरिया में होते साया-अफ़गन आप हैं फ़िल्स-ए-माही को बताते माह-ए-रौशन आप हैं सीते हैं सोज़न से चाक-ए-सीना क्या ऐ चारासाज़ ख़ार-ए-ग़म सीने में अपने मिस्ल-ए-सोज़न आप हैं प्यार से कर के हमाइल ग़ैर की गर्दन में हाथ मारते तेग़-ए-सितम से मुझ को गर्दन आप हैं खींच कर आँखों में अपनी सुर्मा-ए-दुम्बाला-दार करते पैदा सेहर से नर्गिस में सोसन आप हैं देख कर सहरा में मुझ को पहले घबराया था क़ैस फिर जो पहचाना तो बोला हज़रत-ए-मन आप हैं जी धड़कता है कहीं तार-ए-रग-ए-गुल चुभ न जाए सेज पर फूलों की करते क़स्द-ए-ख़ुफ़तन आप हैं क्या मज़ा है तेग़-ए-क़ातिल में कि अक्सर सैद-ए-इश्क़ आन कर उस पर रगड़ते अपनी गर्दन आप हैं मुझ से तुम क्या पूछते हो कैसे हैं हम क्या कहें जी ही जाने है कि जैसे मुश्फ़िक़-ए-मन आप हैं पुर-ग़ुरूर ओ पुर-तकब्बुर पुर-जफ़ा ओ पुर-सितम पुर-फ़रेब ओ पुर-दग़ा पुर-मक्र ओ पुर-फ़न आप हैं ज़ुल्म-पेशा ज़ु़ल्म-शेवा ज़ु़ल्म-रान ओ ज़ुल्म-दोस्त दुश्मन-ए-दिल दुश्मन-ए-जाँ दुश्मन-ए-तन आप हैं यक्का-ताज़ ओ नेज़ा-बाज़ ओ अरबदा-जू तुंद-ख़ू तेग़-ज़न दश्ना-गुज़ार ओ नावक-अफ़गन आप हैं तस्मा-कश तराज़ ओ ग़ारत-गर ताराज-साज़ काफ़िर यग़माई ओ क़ज़्ज़ाक़ रहज़न आप हैं फ़ित्ना-जू बेदाद-गर सफ़्फ़ाक ओ अज़्लम कीना-वर गर्म-जंग ओ गर्म-क़त्ल ओ गर्म-कुश्तन आप हैं बद-मिज़ाज ओ बद-दिमाग़ व बद-शिआ'र ओ बद-सुलूक बद-तरीक़ ओ बद-ज़बाँ बद-अहद ओ बद-ज़न आप हैं बे-मुरव्वत बेवफ़ा ना-मेहरबाँ ना-आश्ना मेरे क़ातिल मेरे हासिद मेरे दुश्मन आप हैं ऐ 'ज़फ़र' क्या पा-ए-क़ातिल के है बोसे की हवस यूँ जो बिस्मिल हो के सरगर्म-ए-तपीदन आप हैं " kyaa-kuchh-na-kiyaa-aur-hain-kyaa-kuchh-nahiin-karte-bahadur-shah-zafar-ghazals," क्या कुछ न किया और हैं क्या कुछ नहीं करते कुछ करते हैं ऐसा ब-ख़ुदा कुछ नहीं करते अपने मरज़-ए-ग़म का हकीम और कोई है हम और तबीबों की दवा कुछ नहीं करते मालूम नहीं हम से हिजाब उन को है कैसा औरों से तो वो शर्म ओ हया कुछ नहीं करते गो करते हैं ज़ाहिर को सफ़ा अहल-ए-कुदूरत पर दिल को नहीं करते सफ़ा कुछ नहीं करते वो दिलबरी अब तक मिरी कुछ करते हैं लेकिन तासीर तिरे नाले दिला कुछ नहीं करते दिल हम ने दिया था तुझे उम्मीद-ए-वफ़ा पर तुम हम से नहीं करते वफ़ा कुछ नहीं करते करते हैं वो इस तरह 'ज़फ़र' दिल पे जफ़ाएँ ज़ाहिर में ये जानो कि जफ़ा कुछ नहीं करते " tufta-jaanon-kaa-ilaaj-ai-ahl-e-daanish-aur-hai-bahadur-shah-zafar-ghazals," तुफ़्ता-जानों का इलाज ऐ अहल-ए-दानिश और है इश्क़ की आतिश बला है उस की सोज़िश और है क्यूँ न वहशत में चुभे हर मू ब-शक्ल-ए-नीश-तेज़ ख़ार-ए-ग़म की तेरे दीवाने की काविश और है मुतरिबो बा-साज़ आओ तुम हमारी बज़्म में साज़-ओ-सामाँ से तुम्हारी इतनी साज़िश और है थूकता भी दुख़्तर-ए-रज़ पर नहीं मस्त-ए-अलस्त जो कि है उस फ़ाहिशा पर ग़श वो फ़ाहिश और है ताब क्या हम-ताब होवे उस से ख़ुर्शीद-ए-फ़लक आफ़्ताब-ए-दाग़-ए-दिल की अपने ताबिश और है सब मिटा दें दिल से हैं जितनी कि उस में ख़्वाहिशें गर हमें मालूम हो कुछ उस की ख़्वाहिश और है अब्र मत हम-चश्म होना चश्म-ए-दरिया-बार से तेरी बारिश और है और उस की बारिश और है है तो गर्दिश चर्ख़ की भी फ़ित्ना-अंगेज़ी में ताक़ तेरी चश्म-ए-फ़ित्ना-ज़ा की लेक गर्दिश और है बुत-परस्ती जिस से होवे हक़-परस्ती ऐ 'ज़फ़र' क्या कहूँ तुझ से कि वो तर्ज़-ए-परस्तिश और है " paan-khaa-kar-surma-kii-tahriir-phir-khiinchii-to-kyaa-bahadur-shah-zafar-ghazals," पान खा कर सुर्मा की तहरीर फिर खींची तो क्या जब मिरा ख़ूँ हो चुका शमशीर फिर खींची तो क्या ऐ मुहव्विस जब कि ज़र तेरे नसीबों में नहीं तू ने मेहनत भी पय-ए-इक्सीर फिर खींची तो क्या गर खिंचे सीने से नावक रूह तू क़ालिब से खींच ऐ अजल जब खिंच गया वो तीर फिर खींची तो क्या खींचता था पाँव मेरा पहले ही ज़ंजीर से ऐ जुनूँ तू ने मिरी ज़ंजीर फिर खींची तो क्या दार ही पर उस ने खींचा जब सर-ए-बाज़ार-इश्क़ लाश भी मेरी पय-ए-तशहीर फिर खींची तो क्या खींच अब नाला कोई ऐसा कि हो उस को असर तू ने ऐ दिल आह-ए-पुर-तासीर फिर खींची तो क्या चाहिए उस का तसव्वुर ही से नक़्शा खींचना देख कर तस्वीर को तस्वीर फिर खींची तो क्या खींच ले अव्वल ही से दिल की इनान-ए-इख़्तियार तू ने गर ऐ आशिक़-ए-दिल-गीर फिर खींची तो क्या क्या हुआ आगे उठाए गर 'ज़फ़र' अहसान-ए-अक़्ल और अगर अब मिन्नत-ए-तदबीर फिर खींची तो क्या " dekh-dil-ko-mire-o-kaafir-e-be-piir-na-tod-bahadur-shah-zafar-ghazals," देख दिल को मिरे ओ काफ़िर-ए-बे-पीर न तोड़ घर है अल्लाह का ये इस की तो ता'मीर न तोड़ ग़ुल सदा वादी-ए-वहशत में रखूँगा बरपा ऐ जुनूँ देख मिरे पाँव की ज़ंजीर न तोड़ देख टुक ग़ौर से आईना-ए-दिल को मेरे इस में आता है नज़र आलम-ए-तस्वीर न तोड़ ताज-ए-ज़र के लिए क्यूँ शम्अ का सर काटे है रिश्ता-ए-उल्फ़त-ए-परवाना को गुल-गीर न तोड़ अपने बिस्मिल से ये कहता था दम-ए-नज़अ वो शोख़ था जो कुछ अहद सो ओ आशिक़-ए-दिल-गीर न तोड़ रक़्स-ए-बिस्मिल का तमाशा मुझे दिखला कोई दम दस्त ओ पा मार के दम तू तह-ए-शमशीर न तोड़ सहम कर ऐ 'ज़फ़र' उस शोख़ कमाँ-दार से कह खींच कर देख मिरे सीने से तू तीर न तोड़ " vaaqif-hain-ham-ki-hazrat-e-gam-aise-shakhs-hain-bahadur-shah-zafar-ghazals," वाक़िफ़ हैं हम कि हज़रत-ए-ग़म ऐसे शख़्स हैं और फिर हम उन के यार हैं हम ऐसे शख़्स हैं दीवाने तेरे दश्त में रक्खेंगे जब क़दम मजनूँ भी लेगा उन के क़दम ऐसे शख़्स हैं जिन पे हों ऐसे ज़ुल्म ओ सितम हम नहीं वो लोग हों रोज़ बल्कि लुत्फ़ ओ करम ऐसे शख़्स हैं यूँ तो बहुत हैं और भी ख़ूबान-ए-दिल-फ़रेब पर जैसे पुर-फ़न आप हैं कम ऐसे शख़्स हैं क्या क्या जफ़ा-कशों पे हैं उन दिलबरों के ज़ुल्म ऐसों के सहते ऐसे सितम ऐसे शख़्स हैं दीं क्या है बल्कि दीजिए ईमान भी उन्हें ज़ाहिद ये बुत ख़ुदा की क़सम ऐसे शख़्स हैं आज़ुर्दा हूँ अदू के जो कहने पे ऐ 'ज़फ़र' ने ऐसे शख़्स वो हैं न हम ऐसे शख़्स हैं " kyaa-kahuun-dil-maail-e-zulf-e-dotaa-kyuunkar-huaa-bahadur-shah-zafar-ghazals," क्या कहूँ दिल माइल-ए-ज़ुल्फ़-ए-दोता क्यूँकर हुआ ये भला चंगा गिरफ़्तार-ए-बला क्यूँकर हुआ जिन को मेहराब-ब-इबादत हो ख़म-ए-अबरू-ए-यार उन का काबे में कहो सज्दा अदा क्यूँकर हुआ दीदा-ए-हैराँ हमारा था तुम्हारे ज़ेर-ए-पा हम को हैरत है कि पैदा नक़्श-ए-पा क्यूँकर हुआ नामा-बर ख़त दे के उस नौ-ख़त को तू ने क्या कहा क्या ख़ता तुझ से हुई और वो ख़फ़ा क्यूँकर हुआ ख़ाकसारी क्या अजब खोवे अगर दिल का ग़ुबार ख़ाक से देखो कि आईना सफ़ा क्यूँकर हुआ जिन को यकताई का दा'वा था वो मिस्ल-ए-आईना उन को हैरत है कि पैदा दूसरा क्यूँकर हुआ तेरे दाँतों के तसव्वुर से न था गर आब-दार जो बहा आँसू वो दुर्र-ए-बे-बहा क्यूँकर हुआ जो न होना था हुआ हम पर तुम्हारे इश्क़ में तुम ने इतना भी न पूछा क्या हुआ क्यूँकर हुआ वो तो है ना-आश्ना मशहूर आलम में 'ज़फ़र' पर ख़ुदा जाने वो तुझ से आश्ना क्यूँकर हुआ " ye-qissa-vo-nahiin-tum-jis-ko-qissa-khvaan-se-suno-bahadur-shah-zafar-ghazals," ये क़िस्सा वो नहीं तुम जिस को क़िस्सा-ख़्वाँ से सुनो मिरे फ़साना-ए-ग़म को मिरी ज़बाँ से सुनो सुनाओ दर्द-ए-दिल अपना तो दम-ब-दम फ़रियाद मिसाल-ए-नय मिरी हर एक उस्तुख़्वाँ से सुनो करो हज़ार सितम ले के ज़िक्र क्या यक यार शिकायत अपनी तुम इस अपने नीम-जाँ से सुनो ख़ुदा के वास्ते ऐ हमदमो न बोलो तुम पयाम लाया है क्या नामा-बर वहाँ से सुनो तुम्हारे इश्क़ ने रुस्वा किया जहाँ में हमें हमारा ज़िक्र न तुम क्यूँकि इक जहाँ से सुनो सुनो तुम अपनी जो तेग़-ए-निगाह के औसाफ़ जो तुम को सुनना हो उस शोख़-ए-दिल-सिताँ से सुनो 'ज़फ़र' वो बोसा तो क्या देगा पर कोई दुश्नाम जो तुम को सुनना हो उस शोख़-ए-दिल-सिताँ से सुनो " hote-hote-chashm-se-aaj-ashk-baarii-rah-gaii-bahadur-shah-zafar-ghazals," होते होते चश्म से आज अश्क-बारी रह गई आबरू बारे तिरी अब्र-ए-बहारी रह गई आते आते इस तरफ़ उन की सवारी रह गई दिल की दिल में आरज़ू-ए-जाँ-निसारी रह गई हम को ख़तरा था कि लोगों में था चर्चा और कुछ बात ख़त आने से तेरे पर हमारी रह गई टुकड़े टुकड़े हो के उड़ जाएगा सब संग-ए-मज़ार दिल में बा'द-अज़-मर्ग कुछ गर बे-क़रारी रह गई इतना मिलिए ख़ाक में जो ख़ाक में ढूँडे कोई ख़ाकसारी ख़ाक की गर ख़ाकसारी रह गई आओ गर आना है क्यूँ गिन गिन के रखते हो क़दम और कोई दम की है याँ दम-शुमारी रह गई हो गया जिस दिन से अपने दिल पर उस को इख़्तियार इख़्तियार अपना गया बे-इख़्तियारी रह गई जब क़दम उस काफ़िर-ए-बद-केश की जानिब बढ़े दूर पहुँचे सौ क़दम परहेज़-गारी रह गई खींचते ही तेग़ अदा के दम हुआ अपना हवा आह दिल में आरज़ू-ए-ज़ख़्म-ए-कारी रह गई और तो ग़म-ख़्वार सारे कर चुके ग़म-ख़्वार्गी अब फ़क़त है एक ग़म की ग़म-गुसारी रह गई शिकवा अय्यारी का यारों से बजा है ऐ 'ज़फ़र' इस ज़माने में यही है रस्म-ए-यारी रह गई " jigar-ke-tukde-hue-jal-ke-dil-kabaab-huaa-bahadur-shah-zafar-ghazals," जिगर के टुकड़े हुए जल के दिल कबाब हुआ ये इश्क़ जान को मेरे कोई अज़ाब हुआ किया जो क़त्ल मुझे तुम ने ख़ूब काम किया कि मैं अज़ाब से छूटा तुम्हें सवाब हुआ कभी तो शेफ़्ता उस ने कहा कभी शैदा ग़रज़ कि रोज़ नया इक मुझे ख़िताब हुआ पियूँ न रश्क से ख़ूँ क्यूँकि दम-ब-दम अपना कि साथ ग़ैर के वो आज हम-शराब हुआ तुम्हारे लब के लब-ए-जाम ने लिए बोसे लब अपने काटा किया मैं न कामयाब हुआ गली गली तिरी ख़ातिर फिरा ब-चश्म-ए-पुर-आब लगा के तुझ से दिल अपना बहुत ख़राब हुआ तिरी गली में बहाए फिरे है सैल-ए-सरिश्क हमारा कासा-ए-सर क्या हुआ हबाब हुआ जवाब-ए-ख़त के न लिखने से ये हुआ मालूम कि आज से हमें ऐ नामा-बर जवाब हुआ मँगाई थी तिरी तस्वीर दिल की तस्कीं को मुझे तो देखते ही और इज़्तिराब हुआ सितम तुम्हारे बहुत और दिन हिसाब का एक मुझे है सोच ये ही किस तरह हिसाब हुआ 'ज़फ़र' बदल के रदीफ़ और तू ग़ज़ल वो सुना कि जिस का तुझ से हर इक शेर इंतिख़ाब हुआ " vo-sau-sau-atkhaton-se-ghar-se-baahar-do-qadam-nikle-bahadur-shah-zafar-ghazals," वो सौ सौ अठखटों से घर से बाहर दो क़दम निकले बला से उस की गर उस में किसी मुज़्तर का दम निकले कहाँ आँसू के क़तरे ख़ून-ए-दिल से हैं बहम निकले ये दिल में जम्अ थे मुद्दत से कुछ पैकान-ए-ग़म निकले मिरे मज़मून-ए-सोज़-ए-दिल से ख़त सब जल गया मेरा क़लम से हर्फ़ जो निकले शरर ही यक-क़लम निकले निकाल ऐ चारागर तू शौक़ से लेकिन सर-ए-पैकाँ उधर निकले जिगर से तीर उधर क़ालिब से दम निकले तसव्वुर से लब-ए-लालीं के तेरे हम अगर रो दें तो जो लख़्त-ए-जिगर आँखों से निकले इक रक़म निकले नहीं डरते अगर हों लाख ज़िंदाँ यार ज़िंदाँ से जुनून अब तो मिसाल-ए-नाला-ए-ज़ंजीर हम निकले जिगर पर दाग़ लब पर दूद-ए-दिल और अश्क दामन में तिरी महफ़िल से हम मानिंद-ए-शम्अ सुब्ह-दम निकले अगर होता ज़माना गेसु-ए-शब-रंग का तेरे मिरी शब-दीज़ सौदा का ज़ियादा-तर क़दम निकले कजी जिन की तबीअत में है कब होती वो सीधी है कहो शाख़-ए-गुल-ए-तस्वीर से किस तरह ख़म निकले शुमार इक शब किया हम ने जो अपने दिल के दाग़ों से तो अंजुम चर्ख़-ए-हशतुम के बहुत से उन से कम निकले ख़ुदा के वास्ते ज़ाहिद उठा पर्दा न काबे का कहीं ऐसा न हो याँ भी वही काफ़िर-सनम निकले तमन्ना है ये दिल में जब तलक है दम में दम अपने 'ज़फ़र' मुँह से हमारे नाम उस का दम-ब-दम निकले " na-daaim-gam-hai-ne-ishrat-kabhii-yuun-hai-kabhii-vuun-hai-bahadur-shah-zafar-ghazals," न दाइम ग़म है ने इशरत कभी यूँ है कभी वूँ है तबद्दुल याँ है हर साअ'त कभी यूँ है कभी वूँ है गरेबाँ-चाक हूँ गाहे उड़ाता ख़ाक हूँ गाहे लिए फिरती मुझे वहशत कभी यूँ है कभी वूँ है अभी हैं वो मिरे हमदम अभी हो जाएँगे दुश्मन नहीं इक वज़्अ पर सोहबत कभी यूँ है कभी वूँ है जो शक्ल-ए-शीशा गिर्यां हूँ तो मिस्ल-ए-जाम ख़ंदाँ हूँ यही है याँ की कैफ़िय्यत कभी यूँ है कभी वूँ है किसी वक़्त अश्क हैं जारी किसी वक़्त आह और ज़ारी ग़रज़ हाल-ए-ग़म-ए-फ़ुर्क़त कभी यूँ है कभी वूँ है कोई दिन है बहार-ए-गुल फिर आख़िर है ख़िज़ाँ बिल्कुल चमन है मंज़िल-ए-इबरत कभी यूँ है कभी वूँ है 'ज़फ़र' इक बात पर दाइम वो होवे किस तरह क़ाइम जो अपनी फेरता निय्यत कभी यूँ है कभी वूँ है " tukde-nahiin-hain-aansuon-men-dil-ke-chaar-paanch-bahadur-shah-zafar-ghazals," टुकड़े नहीं हैं आँसुओं में दिल के चार पाँच सुरख़ाब बैठे पानी में हैं मिल के चार पाँच मुँह खोले हैं ये ज़ख़्म जो बिस्मिल के चार पाँच फिर लेंगे बोसे ख़ंजर-ए-क़ातिल के चार पाँच कहने हैं मतलब उन से हमें दिल के चार पाँच क्या कहिए एक मुँह हैं वहाँ मिल के चार पाँच दरिया में गिर पड़ा जो मिरा अश्क एक गर्म बुत-ख़ाने लब पे हो गए साहिल के चार पाँच दो-चार लाशे अब भी पड़े तेरे दर पे हैं और आगे दब चुके हैं तले गिल के चार पाँच राहें हैं दो मजाज़ ओ हक़ीक़त है जिन का नाम रस्ते नहीं हैं इश्क़ की मंज़िल के चार पाँच रंज ओ ताब मुसीबत ओ ग़म यास ओ दर्द ओ दाग़ आह ओ फ़ुग़ाँ रफ़ीक़ हैं ये दिल के चार पाँच दो तीन झटके दूँ जूँ ही वहशत के ज़ोर में ज़िंदाँ में टुकड़े होवें सलासिल के चार पाँच फ़रहाद ओ क़ैस ओ वामिक़ ओ अज़रा थे चार दोस्त अब हम भी आ मिले तो हुए मिल के चार पाँच नाज़ ओ अदा ओ ग़म्ज़ा निगह पंजा-ए-मिज़ा मारें हैं एक दिल को ये पिल पिल के चार पाँच ईमा है ये कि देवेंगे नौ दिन के बाद दिल लिख भेजे ख़त में शे'र जो बे-दिल के चार पाँच हीरे के नौ-रतन नहीं तेरे हुए हैं जमा ये चाँदनी के फूल मगर खिल के चार पाँच मीना-ए-नुह-फ़लक है कहाँ बादा-ए-नशात शीशे हैं ये तो ज़हर-ए-हलाहल के चार पाँच नाख़ुन करें हैं ज़ख़्मों को दो दो मिला के एक थे आठ दस सो हो गए अब छिल के चार पाँच गर अंजुम-ए-फ़लक से भी तादाद कीजिए निकलें ज़ियादा दाग़ मिरे दिल के चार पाँच मारें जो सर पे सिल को उठा कर क़लक़ से हम दस पाँच टुकड़े सर के हों और सिल के चार पाँच मान ऐ 'ज़फ़र' तू पंज-तन ओ चार-यार को हैं सदर-ए-दीन की यही महफ़िल के चार पाँच " yaan-khaak-kaa-bistar-hai-gale-men-kafanii-hai-bahadur-shah-zafar-ghazals," याँ ख़ाक का बिस्तर है गले में कफ़नी है वाँ हाथ में आईना है गुल पैरहनी है हाथों से हमें इश्क़ के दिन रात नहीं चैन फ़रियाद ओ फ़ुग़ाँ दिन को है शब नारा-ज़नी है हुश्यार हो ग़फ़लत से तू ग़ाफ़िल न हो ऐ दिल अपनी तो नज़र में ये जगह बे-वतनी है कुछ कह नहीं सकता हूँ ज़बाँ से कि ज़रा देख क्या जाए है जिस जाए न कुछ दम-ज़दनी है मिज़्गाँ पे मिरे लख़्त-ए-जिगर ही नहीं यारो इस तार से वो रिश्ता अक़ीक़-ए-यमनी है लिख और ग़ज़ल क़ाफ़िए को फेर 'ज़फ़र' तू अब तब्अ' की दरिया की तिरी मौज-ज़नी है " itnaa-na-apne-jaame-se-baahar-nikal-ke-chal-bahadur-shah-zafar-ghazals," इतना न अपने जामे से बाहर निकल के चल दुनिया है चल-चलाव का रस्ता सँभल के चल कम-ज़र्फ़ पुर-ग़ुरूर ज़रा अपना ज़र्फ़ देख मानिंद जोश-ए-ग़म न ज़ियादा उबल के चल फ़ुर्सत है इक सदा की यहाँ सोज़-ए-दिल के साथ उस पर सपंद-वार न इतना उछल के चल ये ग़ोल-वश हैं इन को समझ तू न रहनुमा साए से बच के अहल-ए-फ़रेब-व-दग़ल के चल औरों के बल पे बल न कर इतना न चल निकल बल है तो बल के बल पे तू कुछ अपने बल के चल इंसाँ को कल का पुतला बनाया है उस ने आप और आप ही वो कहता है पुतले को कल के चल फिर आँखें भी तो दीं हैं कि रख देख कर क़दम कहता है कौन तुझ को न चल चल सँभल के चल है तुर्फ़ा अम्न-गाह निहाँ-ख़ाना-ए-अदम आँखों के रू-ब-रू से तू लोगों के टल के चल क्या चल सकेगा हम से कि पहचानते हैं हम तू लाख अपनी चाल को ज़ालिम बदल के चल है शम्अ सर के बल जो मोहब्बत में गर्म हो परवाना अपने दिल से ये कहता है जल के चल बुलबुल के होश निकहत-ए-गुल की तरह उड़ा गुलशन में मेरे साथ ज़रा इत्र मल के चल गर क़स्द सू-ए-दिल है तिरा ऐ निगाह-ए-यार दो-चार तीर पैक से आगे अजल के चल जो इम्तिहान-ए-तब्अ करे अपना ऐ 'ज़फ़र' तो कह दो उस को तौर पे तू इस ग़ज़ल के चल " hai-justujuu-ki-khuub-se-hai-khuub-tar-kahaan-altaf-hussain-hali-ghazals," है जुस्तुजू कि ख़ूब से है ख़ूब-तर कहाँ अब ठहरती है देखिए जा कर नज़र कहाँ हैं दौर-ए-जाम-ए-अव्वल-ए-शब में ख़ुदी से दूर होती है आज देखिए हम को सहर कहाँ या रब इस इख़्तिलात का अंजाम हो ब-ख़ैर था उस को हम से रब्त मगर इस क़दर कहाँ इक उम्र चाहिए कि गवारा हो नीश-ए-इश्क़ रक्खी है आज लज़्ज़त-ए-ज़ख़्म-ए-जिगर कहाँ बस हो चुका बयाँ कसल-ओ-रंज-ए-राह का ख़त का मिरे जवाब है ऐ नामा-बर कहाँ कौन ओ मकाँ से है दिल-ए-वहशी कनारा-गीर इस ख़ानुमाँ-ख़राब ने ढूँडा है घर कहाँ हम जिस पे मर रहे हैं वो है बात ही कुछ और आलम में तुझ से लाख सही तू मगर कहाँ होती नहीं क़ुबूल दुआ तर्क-ए-इश्क़ की दिल चाहता न हो तो ज़बाँ में असर कहाँ 'हाली' नशात-ए-नग़्मा-ओ-मय ढूँढते हो अब आए हो वक़्त-ए-सुब्ह रहे रात भर कहाँ " ab-vo-aglaa-saa-iltifaat-nahiin-altaf-hussain-hali-ghazals," अब वो अगला सा इल्तिफ़ात नहीं जिस पे भूले थे हम वो बात नहीं मुझ को तुम से ए'तिमाद-ए-वफ़ा तुम को मुझ से पर इल्तिफ़ात नहीं रंज क्या क्या हैं एक जान के साथ ज़िंदगी मौत है हयात नहीं यूँही गुज़रे तो सहल है लेकिन फ़ुर्सत-ए-ग़म को भी सबात नहीं कोई दिल-सोज़ हो तो कीजे बयाँ सरसरी दिल की वारदात नहीं ज़र्रा ज़र्रा है मज़हर-ए-ख़ुर्शीद जाग ऐ आँख दिन है रात नहीं क़ैस हो कोहकन हो या 'हाली' आशिक़ी कुछ किसी की ज़ात नहीं " us-ke-jaate-hii-ye-kyaa-ho-gaii-ghar-kii-suurat-altaf-hussain-hali-ghazals," उस के जाते ही ये क्या हो गई घर की सूरत न वो दीवार की सूरत है न दर की सूरत किस से पैमान-ए-वफ़ा बाँध रही है बुलबुल कल न पहचान सकेगी गुल-ए-तर की सूरत है ग़म-ए-रोज़-ए-जुदाई न नशात-ए-शब-ए-वस्ल हो गई और ही कुछ शाम-ओ-सहर की सूरत अपनी जेबों से रहें सारे नमाज़ी हुश्यार इक बुज़ुर्ग आते हैं मस्जिद में ख़िज़र की सूरत देखिए शैख़ मुसव्विर से खिचे या न खिचे सूरत और आप से बे-ऐब बशर की सूरत वाइ'ज़ो आतिश-ए-दोज़ख़ से जहाँ को तुम ने ये डराया है कि ख़ुद बन गए डर की सूरत क्या ख़बर ज़ाहिद-ए-क़ाने को कि क्या चीज़ है हिर्स उस ने देखी ही नहीं कीसा-ए-ज़र की सूरत मैं बचा तीर-ए-हवादिस से निशाना बन कर आड़े आई मिरी तस्लीम-ए-सिपर की सूरत शौक़ में उस के मज़ा दर्द में उस के लज़्ज़त नासेहो उस से नहीं कोई मफ़र की सूरत हमला अपने पे भी इक बाद-ए-हज़ीमत है ज़रूर रह गई है यही इक फ़त्ह ओ ज़फ़र की सूरत रहनुमाओं के हुए जाते हैं औसान ख़ता राह में कुछ नज़र आती है ख़तर की सूरत यूँ तो आया है तबाही में ये बेड़ा सौ बार पर डराती है बहुत आज भँवर की सूरत उन को 'हाली' भी बुलाते हैं घर अपने मेहमाँ देखना आप की और आप के घर की सूरत " kah-do-koii-saaqii-se-ki-ham-marte-hain-pyaase-altaf-hussain-hali-ghazals," कह दो कोई साक़ी से कि हम मरते हैं प्यासे गर मय नहीं दे ज़हर ही का जाम बला से जो कुछ है सो है उस के तग़ाफ़ुल की शिकायत क़ासिद से है तकरार न झगड़ा है सबा से दल्लाला ने उम्मीद दिलाई तो है लेकिन देते नहीं कुछ दिल को तसल्ली ये दिलासे है वस्ल तो तक़दीर के हाथ ऐ शह-ए-ख़ूबाँ याँ हैं तो फ़क़त तेरी मोहब्बत के हैं प्यासे प्यासे तिरे सर-गश्ता हैं जो राह-ए-तलब में होंटों को वो करते नहीं तर आब-ए-बक़ा से दर गुज़रे दवा से तो भरोसे पे दुआ के दर गुज़रें दुआ से भी दुआ है ये ख़ुदा से इक दर्द हो बस आठ पहर दिल में कि जिस को तख़फ़ीफ़ दवा से हो न तस्कीन दुआ से 'हाली' दिल-ए-इंसाँ में है गुम दौलत-ए-कौनैन शर्मिंदा हों क्यूँ ग़ैर के एहसान-ओ-अता से जब वक़्त पड़े दीजिए दस्तक दर-ए-दिल पर झुकिए फ़ुक़रा से न झमकिये उमरा से " dil-ko-dard-aashnaa-kiyaa-tuu-ne-altaf-hussain-hali-ghazals," दिल को दर्द-आश्ना किया तू ने दर्द-ए-दिल को दवा किया तू ने तब-ए-इंसाँ को दी सिरिश्त-ए-वफ़ा ख़ाक को कीमिया किया तू ने वस्ल-ए-जानाँ मुहाल ठहराया क़त्ल-ए-आशिक़ रवा किया तू ने था न जुज़ ग़म बिसात-ए-आशिक़ में ग़म को राहत-फ़ज़ा किया तू ने जान थी इक वबाल फ़ुर्क़त में शौक़ को जाँ-गुज़ा किया तू ने थी मोहब्बत में नंग मिन्नत-ए-ग़ैर जज़्ब-ए-दिल को रसा किया तू ने राह ज़ाहिद को जब कहीं न मिली दर-ए-मय-ख़ाना वा किया तू ने क़त्अ होने ही जब लगा पैवंद ग़ैर को आश्ना किया तू ने थी जहाँ कारवाँ को देनी राह इश्क़ को रहनुमा किया तू ने नाव भर कर जहाँ डुबोनी थी अक़्ल को नाख़ुदा किया तू ने बढ़ गई जब पिदर को मेहर-ए-पिसर उस को उस से जुदा किया तू ने जब हुआ मुल्क ओ माल रहज़न-ए-होश बादशह को गदा किया तू ने जब मिली काम-ए-जाँ को लज़्ज़त-ए-दर्द दर्द को बे-दवा किया तू ने जब दिया राह-रौ को ज़ौक़-ए-तलब सई को ना-रसा किया तू ने पर्दा-ए-चश्म थे हिजाब बहुत हुस्न को ख़ुद-नुमा किया तू ने इश्क़ को ताब-ए-इंतिज़ार न थी ग़ुर्फ़ा इक दिल में वा किया तू ने हरम आबाद और दैर ख़राब जो किया सब बजा किया तू ने सख़्त अफ़्सुर्दा तब्अ' थी अहबाब हम को जादू नवा किया तू ने फिर जो देखा तो कुछ न था या रब कौन पूछे कि क्या किया तू ने 'हाली' उट्ठा हिला के महफ़िल को आख़िर अपना कहा किया तू ने " ranj-aur-ranj-bhii-tanhaaii-kaa-altaf-hussain-hali-ghazals," रंज और रंज भी तन्हाई का वक़्त पहुँचा मिरी रुस्वाई का उम्र शायद न करे आज वफ़ा काटना है शब-ए-तन्हाई का तुम ने क्यूँ वस्ल में पहलू बदला किस को दा'वा है शकेबाई का एक दिन राह पे जा पहुँचे हम शौक़ था बादिया-पैमाई का उस से नादान ही बन कर मिलिए कुछ इजारा नहीं दानाई का सात पर्दों में नहीं ठहरती आँख हौसला क्या है तमाशाई का दरमियाँ पा-ए-नज़र है जब तक हम को दा'वा नहीं बीनाई का कुछ तो है क़द्र तमाशाई की है जो ये शौक़ ख़ुद-आराई का उस को छोड़ा तो है लेकिन ऐ दिल मुझ को डर है तिरी ख़ुद-राई का बज़्म-ए-दुश्मन में न जी से उतरा पूछना क्या तिरी ज़ेबाई का यही अंजाम था ऐ फ़स्ल-ए-ख़िज़ाँ गुल ओ बुलबुल की शनासाई का मदद ऐ जज़्बा-ए-तौफ़ीक़ कि याँ हो चुका काम तवानाई का मोहतसिब उज़्र बहुत हैं लेकिन इज़्न हम को नहीं गोयाई का होंगे 'हाली' से बहुत आवारा घर अभी दूर है रुस्वाई का " haq-vafaa-ke-jo-ham-jataane-lage-altaf-hussain-hali-ghazals," हक़ वफ़ा के जो हम जताने लगे आप कुछ कह के मुस्कुराने लगे था यहाँ दिल में तान-ए-वस्ल-ए-अदू उज़्र उन की ज़बाँ पे आने लगे हम को जीना पड़ेगा फ़ुर्क़त में वो अगर हिम्मत आज़माने लगे डर है मेरी ज़बाँ न खुल जाए अब वो बातें बहुत बनाने लगे जान बचती नज़र नहीं आती ग़ैर उल्फ़त बहुत जताने लगे तुम को करना पड़ेगा उज़्र-ए-जफ़ा हम अगर दर्द-ए-दिल सुनाने लगे सख़्त मुश्किल है शेवा-ए-तस्लीम हम भी आख़िर को जी चुराने लगे जी में है लूँ रज़ा-ए-पीर-ए-मुग़ाँ क़ाफ़िले फिर हरम को जाने लगे सिर्र-ए-बातिन को फ़ाश कर या रब अहल-ए-ज़ाहिर बहुत सताने लगे वक़्त-ए-रुख़्सत था सख़्त 'हाली' पर हम भी बैठे थे जब वो जाने लगे " hai-ye-takiya-tirii-ataaon-par-altaf-hussain-hali-ghazals," है ये तकिया तिरी अताओं पर वही इसरार है ख़ताओं पर रहें ना-आश्ना ज़माने से हक़ है तेरा ये आश्नाओं पर रहरवो बा-ख़बर रहो कि गुमाँ रहज़नी का है रहनुमाओं पर है वो देर आश्ना तो ऐब है क्या मरते हैं हम इन्हीं अदाओं पर उस के कूचे में हैं वो बे-पर ओ बाल उड़ते फिरते हैं जो हवाओं पर शहसवारों पे बंद है जो राह वक़्फ़ है याँ बरहना पाँव पर नहीं मुनइ'म को उस की बूँद नसीब मेंह बरसता है जो गदाओं पर नहीं महदूद बख़्शिशें तेरी ज़ाहिदों पर न पारसाओं पर हक़ से दरख़्वास्त अफ़्व की 'हाली' कीजे किस मुँह से इन ख़ताओं पर " vasl-kaa-us-ke-dil-e-zaar-tamannaaii-hai-altaf-hussain-hali-ghazals," वस्ल का उस के दिल-ए-ज़ार तमन्नाई है न मुलाक़ात है जिस से न शनासाई है क़त्अ उम्मीद ने दिल कर दिए यकसू सद शुक्र शक्ल मुद्दत में ये अल्लाह ने दिखलाई है क़ूव्वत-ए-दस्त-ए-ख़ुदाई है शकेबाई में वक़्त जब आ के पड़ा है यही काम आई है डर नहीं ग़ैर का जो कुछ है सो अपना डर है हम ने जब खाई है अपने ही से ज़क खाई है नशे में चूर न हों झाँझ में मख़्मूर न हों पंद ये पीर-ए-ख़राबात ने फ़रमाई है नज़र आती नहीं अब दिल में तमन्ना कोई बाद मुद्दत के तमन्ना मिरी बर आई है बात सच्ची कही और उँगलियाँ उट्ठीं सब की सच में 'हाली' कोई रुस्वाई सी रुस्वाई है " jiite-jii-maut-ke-tum-munh-men-na-jaanaa-hargiz-altaf-hussain-hali-ghazals," जीते जी मौत के तुम मुँह में न जाना हरगिज़ दोस्तो दिल न लगाना न लगाना हरगिज़ इश्क़ भी ताक में बैठा है नज़र-बाज़ों की देखना शेर से आँखें न लड़ाना हरगिज़ हाथ मलने न हों पीरी में अगर हसरत से तो जवानी में न ये रोग बसाना हरगिज़ जितने रस्ते थे तिरे हो गए वीराँ ऐ इश्क़ आ के वीरानों में अब घर न बसाना हरगिज़ कूच सब कर गए दिल्ली से तिरे क़द्र-शनास क़द्र याँ रह के अब अपनी न गँवाना हरगिज़ तज़्किरा देहली-ए-मरहूम का ऐ दोस्त न छेड़ न सुना जाएगा हम से ये फ़साना हरगिज़ ढूँडता है दिल-ए-शोरीदा बहाने मुतरिब दर्द-अंगेज़ ग़ज़ल कोई न गाना हरगिज़ सोहबतें अगली मुसव्विर हमें याद आएँगी कोई दिलचस्प मुरक़्क़ा न दिखाना हरगिज़ ले के दाग़ आएगा सीने पे बहुत ऐ सय्याह देख इस शहर के खंडरों में न जाना हरगिज़ चप्पे चप्पे पे हैं याँ गौहर-ए-यकता तह-ए-ख़ाक दफ़्न होगा कहीं इतना न ख़ज़ाना हरगिज़ मिट गए तेरे मिटाने के निशाँ भी अब तो ऐ फ़लक इस से ज़ियादा न मिटाना हरगिज़ वो तो भूले थे हमें हम भी उन्हें भूल गए ऐसा बदला है न बदलेगा ज़माना हरगिज़ हम को गर तू ने रुलाया तो रुलाया ऐ चर्ख़ हम पे ग़ैरों को तो ज़ालिम न हँसाना हरगिज़ आख़िरी दौर में भी तुझ को क़सम है साक़ी भर के इक जाम न प्यासों को पिलाना हरगिज़ बख़्त सोए हैं बहुत जाग के ऐ दौर-ए-ज़माँ न अभी नींद के मातों को जगाना हरगिज़ कभी ऐ इल्म ओ हुनर घर था तुम्हारा दिल्ली हम को भूले हो तो घर भूल न जाना हरगिज़ शाइरी मर चुकी अब ज़िंदा न होगी यारो याद कर कर के उसे जी न कुढ़ाना हरगिज़ 'ग़ालिब' ओ 'शेफ़्ता' ओ 'नय्यर' ओ 'आज़ुर्दा' ओ 'ज़ौक़' अब दिखाएगा ये शक्लें न ज़माना हरगिज़ 'मोमिन' ओ 'अल्वी' ओ 'सहबाई' ओ 'ममनूँ' के बाद शेर का नाम न लेगा कोई दाना हरगिज़ कर दिया मर के यगानों ने यगाना हम को वर्ना याँ कोई न था हम में यगाना हरगिज़ 'दाग़' ओ 'मजरूह' को सुन लो कि फिर इस गुलशन में न सुनेगा कोई बुलबुल का तराना हरगिज़ रात आख़िर हुई और बज़्म हुई ज़ेर-ओ-ज़बर अब न देखोगे कभी लुत्फ़-ए-शबाना हरगिज़ बज़्म-ए-मातम तो नहीं बज़्म-ए-सुख़न है 'हाली' याँ मुनासिब नहीं रो रो के रुलाना हरगिज़ " koii-mahram-nahiin-miltaa-jahaan-men-altaf-hussain-hali-ghazals," कोई महरम नहीं मिलता जहाँ में मुझे कहना है कुछ अपनी ज़बाँ में क़फ़स में जी नहीं लगता किसी तरह लगा दो आग कोई आशियाँ में कोई दिन बुल-हवस भी शाद हो लें धरा क्या है इशारात-ए-निहाँ में कहीं अंजाम आ पहुँचा वफ़ा का घुला जाता हूँ अब के इम्तिहाँ में नया है लीजिए जब नाम उस का बहुत वुसअ'त है मेरी दास्ताँ में दिल-ए-पुर-दर्द से कुछ काम लूँगा अगर फ़ुर्सत मिली मुझ को जहाँ में बहुत जी ख़ुश हुआ 'हाली' से मिल कर अभी कुछ लोग बाक़ी हैं जहाँ में " hashr-tak-yaan-dil-shakebaa-chaahiye-altaf-hussain-hali-ghazals," हश्र तक याँ दिल शकेबा चाहिए कब मिलें दिलबर से देखा चाहिए है तजल्ली भी नक़ाब-ए-रू-ए-यार उस को किन आँखों से देखा चाहिए ग़ैर-मुमकिन है न हो तासीर-ए-ग़म हाल-ए-दिल फिर उस को लिक्खा चाहिए है दिल-अफ़गारों की दिलदारी ज़रूर गर नहीं उल्फ़त मदारा चाहिए है कुछ इक बाक़ी ख़लिश उम्मीद की ये भी मिट जाए तो फिर क्या चाहिए दोस्तों की भी न हो परवा जिसे बे-नियाज़ी उस की देखा चाहिए भा गए हैं आप के अंदाज़ ओ नाज़ कीजिए इग़्माज़ जितना चाहिए शैख़ है इन की निगह जादू भरी सोहबत-ए-रिंदाँ से बचना चाहिए लग गई चुप 'हाली'-ए-रंजूर को हाल इस का किस से पूछा चाहिए " haqiiqat-mahram-e-asraar-se-puuchh-altaf-hussain-hali-ghazals," हक़ीक़त महरम-ए-असरार से पूछ मज़ा अंगूर का मय-ख़्वार से पूछ वफ़ा अग़्यार की अग़्यार से सुन मिरी उल्फ़त दर ओ दीवार से पूछ हमारी आह-ए-बे-तासीर का हाल कुछ अपने दिल से कुछ अग़्यार से पूछ दिलों में डालना ज़ौक़-ए-असीरी कमंद-ए-गेसू-ए-ख़मदार से पूछ दिल-ए-महजूर से सुन लज़्ज़त-ए-वस्ल नशात-ए-आफ़ियत बीमार से पूछ नहीं जुज़ गिर्या-ए-ग़म हासिल-ए-इश्क़ हमारी चश्म-ए-दरिया-बार से पूछ नहीं आब-ए-बक़ा जुज़ जल्वा-ए-दोस्त किसी लब-तिश्ना-ए-दीदार से पूछ फ़रेब-ए-वादा-ए-दिलदार की क़द्र शहीद-ए-ख़ंजर-ए-इंकार से पूछ फ़ुग़ान-ए-शौक़ को माने नहीं वस्ल ये नुक्ता अंदलीब-ए-ज़ार से पूछ तसव्वुर में किया करते हैं जो हम वो तस्वीर-ए-ख़याल-ए-यार से पूछ मता-ए-बे-बहा है शेर-ए-'हाली' मिरी क़ीमत मिरी गुफ़्तार से पूछ " dil-se-khayaal-e-dost-bhulaayaa-na-jaaegaa-altaf-hussain-hali-ghazals," दिल से ख़याल-ए-दोस्त भुलाया न जाएगा सीने में दाग़ है कि मिटाया न जाएगा तुम को हज़ार शर्म सही मुझ को लाख ज़ब्त उल्फ़त वो राज़ है कि छुपाया न जाएगा ऐ दिल रज़ा-ए-ग़ैर है शर्त-ए-रज़ा-ए-दोस्त ज़िन्हार बार-ए-इश्क़ उठाया न जाएगा देखी हैं ऐसी उन की बहुत मेहरबानियाँ अब हम से मुँह में मौत के जाया न जाएगा मय तुंद ओ ज़र्फ़-ए-हौसला-ए-अहल-ए-बज़्म तंग साक़ी से जाम भर के पिलाया न जाएगा राज़ी हैं हम कि दोस्त से हो दुश्मनी मगर दुश्मन को हम से दोस्त बनाया न जाएगा क्यूँ छेड़ते हो ज़िक्र न मिलने का रात के पूछेंगे हम सबब तो बताया न जाएगा बिगड़ें न बात बात पे क्यूँ जानते हैं वो हम वो नहीं कि हम को मनाया न जाएगा मिलना है आप से तो नहीं हस्र ग़ैर पर किस किस से इख़्तिलात बढ़ाया न जाएगा मक़्सूद अपना कुछ न खुला लेकिन इस क़दर या'नी वो ढूँडते हैं जो पाया न जाएगा झगड़ों में अहल-ए-दीं के न 'हाली' पड़ें बस आप क़िस्सा हुज़ूर से ये चुकाया न जाएगा " go-javaanii-men-thii-kaj-raaii-bahut-altaf-hussain-hali-ghazals," गो जवानी में थी कज-राई बहुत पर जवानी हम को याद आई बहुत ज़ेर-ए-बुर्क़ा तू ने क्या दिखला दिया जम्अ हैं हर सू तमाशाई बहुत हट पे इस की और पिस जाते हैं दिल रास है कुछ उस को ख़ुद-राई बहुत सर्व या गुल आँख में जचते नहीं दिल पे है नक़्श उस की रानाई बहुत चूर था ज़ख़्मों में और कहता था दिल राहत इस तकलीफ़ में पाई बहुत आ रही है चाह-ए-यूसुफ़ से सदा दोस्त याँ थोड़े हैं और भाई बहुत वस्ल के हो हो के सामाँ रह गए मेंह न बरसा और घटा छाई बहुत जाँ-निसारी पर वो बोल उट्ठे मिरी हैं फ़िदाई कम तमाशाई बहुत हम ने हर अदना को आला कर दिया ख़ाकसारी अपनी काम आई बहुत कर दिया चुप वाक़िआत-ए-दहर ने थी कभी हम में भी गोयाई बहुत घट गईं ख़ुद तल्ख़ियाँ अय्याम की या गई कुछ बढ़ शकेबाई बहुत हम न कहते थे कि 'हाली' चुप रहो रास्त-गोई में है रुस्वाई बहुत " main-to-main-gair-ko-marne-se-ab-inkaar-nahiin-altaf-hussain-hali-ghazals," मैं तो मैं ग़ैर को मरने से अब इंकार नहीं इक क़यामत है तिरे हाथ में तलवार नहीं कुछ पता मंज़िल-ए-मक़्सूद का पाया हम ने जब ये जाना कि हमें ताक़त-ए-रफ़्तार नहीं चश्म-ए-बद-दूर बहुत फिरते हैं अग़्यार के साथ ग़ैरत-ए-इश्क़ से अब तक वो ख़बर-दार नहीं हो चुका नाज़ उठाने में है गो काम तमाम लिल्लाहिल-हम्द कि बाहम कोई तकरार नहीं मुद्दतों रश्क ने अग़्यार से मिलने न दिया दिल ने आख़िर ये दिया हुक्म कि कुछ आर नहीं अस्ल मक़्सूद का हर चीज़ में मिलता है पता वर्ना हम और किसी शय के तलबगार नहीं बात जो दिल में छुपाते नहीं बनती 'हाली' सख़्त मुश्किल है कि वो क़ाबिल-ए-इज़हार नहीं " ishq-ko-tark-e-junuun-se-kyaa-garaz-altaf-hussain-hali-ghazals," इश्क़ को तर्क-ए-जुनूँ से क्या ग़रज़ चर्ख़-ए-गर्दां को सुकूँ से क्या ग़रज़ दिल में है ऐ ख़िज़्र गर सिदक़-ए-तलब राह-रौ को रहनुमों से क्या ग़रज़ हाजियो है हम को घर वाले से काम घर के मेहराब ओ सुतूँ से क्या ग़रज़ गुनगुना कर आप रो पड़ते हैं जो उन को चंग ओ अरग़नूँ से क्या ग़रज़ नेक कहना नेक जिस को देखना हम को तफ़्तीश-ए-दरूँ से क्या ग़रज़ दोस्त हैं जब ज़ख़्म-ए-दिल से बे-ख़बर उन को अपने अश्क-ए-ख़ूँ से क्या ग़रज़ इश्क़ से है मुजतनिब ज़ाहिद अबस शेर को सैद-ए-ज़बूँ से क्या ग़रज़ कर चुका जब शैख़ तस्ख़ीर-ए-क़ुलूब अब उसे दुनिया-ए-दूँ से क्या ग़रज़ आए हो 'हाली' पए-तस्लीम याँ आप को चून-ओ-चगूँ से क्या ग़रज़ " kabk-o-qumrii-men-hai-jhagdaa-ki-chaman-kis-kaa-hai-altaf-hussain-hali-ghazals," कब्क ओ क़ुमरी में है झगड़ा कि चमन किस का है कल बता देगी ख़िज़ाँ ये कि वतन किस का है फ़ैसला गर्दिश-ए-दौराँ ने किया है सौ बार मर्व किस का है बदख़शान ओ ख़ुतन किस का है दम से यूसुफ़ के जब आबाद था याक़ूब का घर चर्ख़ कहता था कि ये बैत-ए-हुज़न किस का है मुतमइन इस से मुसलमाँ न मसीही न यहूद दोस्त क्या जानिए ये चर्ख़-ए-कुहन किस का है वाइ'ज़ इक ऐब से तू पाक है या ज़ात-ए-ख़ुदा वर्ना बे-ऐब ज़माने में चलन किस का है आज कुछ और दिनों से है सिवा इस्तिग़राक़ अज़्म-ए-तस्ख़ीर फिर ऐ शेख़-ए-ज़मन किस का है आँख पड़ती है हर इक अहल-ए-नज़र की तुम पर तुम में रूप ऐ गुल ओ नसरीन ओ समन किस का है इश्क़ उधर अक़्ल इधर धुन में चले हैं तेरी रस्ता अब देखिए दोनों में कठिन किस का है शान देखी नहीं गर तू ने चमन में उस की वलवला तुझ में ये ऐ मुर्ग़-ए-चमन किस का है हैं फ़साहत में मसल वाइ'ज़ ओ 'हाली' दोनों देखना ये है कि बे-लाग सुख़न किस का है " vaan-agar-jaaen-to-le-kar-jaaen-kyaa-altaf-hussain-hali-ghazals," वाँ अगर जाएँ तो ले कर जाएँ क्या मुँह उसे हम जा के ये दिखलाएँ क्या दिल में है बाक़ी वही हिर्स-ए-गुनाह फिर किए से अपने हम पछताएँ क्या आओ लें उस को हमीं जा कर मना उस की बे-परवाइयों पर जाएँ क्या दिल को मस्जिद से न मंदिर से है उन्स ऐसे वहशी को कहीं बहलाएँ क्या जानता दुनिया को है इक खेल तू खेल क़ुदरत के तुझे दिखलाएँ क्या उम्र की मंज़िल तो जूँ तूँ कट गई मरहले अब देखिए पेश आएँ क्या दिल को सब बातों की है नासेह ख़बर समझे समझाए को बस समझाएँ क्या मान लीजे शैख़ जो दा'वा करे इक बुज़ुर्ग-ए-दीं को हम झुटलाएँ क्या हो चुके 'हाली' ग़ज़ल-ख़्वानी के दिन रागनी बे-वक़्त की अब गाएँ क्या " ghar-hai-vahshat-khez-aur-bastii-ujaad-altaf-hussain-hali-ghazals," घर है वहशत-ख़ेज़ और बस्ती उजाड़ हो गई एक इक घड़ी तुझ बिन पहाड़ आज तक क़स्र-ए-अमल है ना-तमाम बंध चुकी है बार-हा खुल खुल के पाड़ है पहुँचना अपना चोटी तक मुहाल ऐ तलब निकला बहुत ऊँचा पहाड़ खेलना आता है हम को भी शिकार पर नहीं ज़ाहिद कोई टट्टी की आड़ दिल नहीं रौशन तो हैं किस काम के सौ शबिस्ताँ में अगर रौशन हैं झाड़ ईद और नौरोज़ है सब दिल के साथ दिल नहीं हाज़िर तो दुनिया है उजाड़ खेत रस्ते पर है और रह-रौ सवार किश्त है सरसब्ज़ और नीची है बाड़ बात वाइ'ज़ की कोई पकड़ी गई इन दिनों कम-तर है कुछ हम पर लताड़ तुम ने 'हाली' खोल कर नाहक़ ज़बाँ कर लिया सारी ख़ुदाई से बिगाड़ " junuun-kaar-farmaa-huaa-chaahtaa-hai-altaf-hussain-hali-ghazals," जुनूँ कार-फ़रमा हुआ चाहता है क़दम दश्त पैमा हुआ चाहता है दम-ए-गिर्या किस का तसव्वुर है दिल में कि अश्क अश्क दरिया हुआ चाहता है ख़त आने लगे शिकवा-आमेज़ उन के मिलाप उन से गोया हुआ चाहता है बहुत काम लेने थे जिस दिल से हम को वो सर्फ़-ए-तमन्ना हुआ चाहता है अभी लेने पाए नहीं दम जहाँ में अजल का तक़ाज़ा हुआ चाहता है मुझे कल के वादे पे करते हैं रुख़्सत कोई वा'दा पूरा हुआ चाहता है फ़ुज़ूँ तर है कुछ इन दिनों ज़ौक़-ए-इस्याँ दर-ए-रहमत अब वा हुआ चाहता है क़लक़ गर यही है तो राज़-ए-निहानी कोई दिन में रुस्वा हुआ चाहता है वफ़ा शर्त-ए-उल्फ़त है लेकिन कहाँ तक दिल अपना भी तुझ सा हुआ चाहता है बहुत हज़ उठाता है दिल तुझ से मिल कर क़लक़ देखिए क्या हुआ चाहता है ग़म-ए-रश्क को तल्ख़ समझे थे हमदम सो वो भी गवारा हुआ चाहता है बहुत चैन से दिन गुज़रते हैं 'हाली' कोई फ़ित्ना बरपा हुआ चाहता है " khuubiyaan-apne-men-go-be-intihaa-paate-hain-ham-altaf-hussain-hali-ghazals," ख़ूबियाँ अपने में गो बे-इंतिहा पाते हैं हम पर हर इक ख़ूबी में दाग़ इक ऐब का पाते हैं हम ख़ौफ़ का कोई निशाँ ज़ाहिर नहीं अफ़आ'ल में गो कि दिल में मुत्तसिल ख़ौफ़-ए-ख़ुदा पाते हैं हम करते हैं ताअ'त तो कुछ ख़्वाहाँ नुमाइश के नहीं पर गुनह छुप छुप के करने में मज़ा पाते हैं हम दीदा ओ दिल को ख़यानत से नहीं रख सकते बाज़ गरचे दस्त-ओ-पा को अक्सर बे-ख़ता पाते हैं हम दिल में दर्द-ए-इश्क़ ने मुद्दत से कर रक्खा है घर पर उसे आलूदा-ए-हिर्स-ओ-हवा पाते हैं हम हो के नादिम जुर्म से फिर जुर्म करते हैं वही जुर्म से गो आप को नादिम सदा पाते हैं हम हैं फ़िदा उन दोस्तों पर जिन में हो सिद्क़ ओ सफ़ा पर बहुत कम आप में सिद्क़ ओ सफ़ा पाते हैं हम गो किसी को आप से होने नहीं देते ख़फ़ा इक जहाँ से आप को लेकिन ख़फ़ा पाते हैं हम जानते अपने सिवा सब को हैं बे-मेहर ओ वफ़ा अपने में गर शम्मा-ए-मेहर-ओ-वफ़ा पाते हैं हम बुख़्ल से मंसूब करते हैं ज़माने को सदा गर कभी तौफ़ीक़-ए-ईसार ओ अता पाते हैं हम हो अगर मक़्सद में नाकामी तो कर सकते हैं सब्र दर्द-ए-ख़ुद-कामी को लेकिन बे-दवा पाते हैं हम ठहरते जाते हैं जितने चश्म-ए-आलम में भले हाल नफ़्स-ए-दूँ का उतना ही बुरा पाते हैं हम जिस क़दर झुक झुक के मिलते हैं बुज़ुर्ग ओ ख़ुर्द से किब्र ओ नाज़ उतना ही अपने में सिवा पाते हैं हम गो भलाई करके हम-जिंसों से ख़ुश होता है जी तह-नशीं उस में मगर दुर्द-ए-रिया पाते हैं हम है रिदा-ए-नेक-नामी दोश पर अपने मगर दाग़ रुस्वाई के कुछ ज़ेर-ए-रिदा पाते हैं हम राह के तालिब हैं पर बे-राह पड़ते हैं क़दम देखिए क्या ढूँढते हैं और क्या पाते हैं हम नूर के हम ने गले देखे हैं ऐ 'हाली' मगर रंग कुछ तेरी अलापों में नया पाते हैं हम " aage-badhe-na-qissa-e-ishq-e-butaan-se-ham-altaf-hussain-hali-ghazals-3," आगे बढ़े न क़िस्सा-ए-इश्क़-ए-बुताँ से हम सब कुछ कहा मगर न खुले राज़दाँ से हम अब भागते हैं साया-ए-इश्क़-ए-बुताँ से हम कुछ दिल से हैं डरे हुए कुछ आसमाँ से हम हँसते हैं उस के गिर्या-ए-बे-इख़्तियार पर भूले हैं बात कह के कोई राज़दाँ से हम अब शौक़ से बिगड़ के ही बातें किया करो कुछ पा गए हैं आप के तर्ज़-ए-बयाँ से हम जन्नत में तो नहीं अगर ये ज़ख़्म-ए-तेग़-ए-इश्क़ बदलेंगे तुझ को ज़िंदगी-ए-जावेदाँ से हम " baat-kuchh-ham-se-ban-na-aaii-aaj-altaf-hussain-hali-ghazals," बात कुछ हम से बन न आई आज बोल कर हम ने मुँह की खाई आज चुप पर अपनी भरम थे क्या क्या कुछ बात बिगड़ी बनी बनाई आज शिकवा करने की ख़ू न थी अपनी पर तबीअत ही कुछ भर आई आज बज़्म साक़ी ने दी उलट सारी ख़ूब भर भर के ख़ुम लुंढाई आज मासियत पर है देर से या रब नफ़्स और शरा में लड़ाई आज ग़ालिब आता है नफ़्स-ए-दूँ या शरअ' देखनी है तिरी ख़ुदाई आज चोर है दिल में कुछ न कुछ यारो नींद फिर रात भर न आई आज ज़द से उल्फ़त की बच के चलना था मुफ़्त 'हाली' ने चोट खाई आज " dhuum-thii-apnii-paarsaaii-kii-altaf-hussain-hali-ghazals," धूम थी अपनी पारसाई की की भी और किस से आश्नाई की क्यूँ बढ़ाते हो इख़्तिलात बहुत हम को ताक़त नहीं जुदाई की मुँह कहाँ तक छुपाओगे हम से तुम को आदत है ख़ुद-नुमाई की लाग में हैं लगाओ की बातें सुल्ह में छेड़ है लड़ाई की मिलते ग़ैरों से हो मिलो लेकिन हम से बातें करो सफ़ाई की दिल रहा पा-ए-बंद-ए-उल्फ़त-ए-दाम थी अबस आरज़ू रिहाई की दिल भी पहलू में हो तो याँ किस से रखिए उम्मीद दिलरुबाई की शहर ओ दरिया से बाग़ ओ सहरा से बू नहीं आती आश्नाई की न मिला कोई ग़ारत-ए-ईमाँ रह गई शर्म पारसाई की बख़्त-ए-हम-दास्तानी-ए-शैदा तू ने आख़िर को ना-रसाई की सोहबत-ए-गाह-गाही-ए-रश्की तू ने भी हम से बेवफ़ाई की मौत की तरह जिस से डरते थे साअ'त आ पहुँची उस जुदाई की ज़िंदा फिरने की है हवस 'हाली' इंतिहा है ये बे-हयाई की " burii-aur-bhalii-sab-guzar-jaaegii-altaf-hussain-hali-ghazals," बुरी और भली सब गुज़र जाएगी ये कश्ती यूँही पार उतर जाएगी मिलेगा न गुलचीं को गुल का पता हर इक पंखुड़ी यूँ बिखर जाएगी रहेंगे न मल्लाह ये दिन सदा कोई दिन में गंगा उतर जाएगी इधर एक हम और ज़माना उधर ये बाज़ी तो सो बिसवे हर जाएगी बनावट की शेख़ी नहीं रहती शैख़ ये इज़्ज़त तो जाएगी पर जाएगी न पूरी हुई हैं उमीदें न हों यूँही उम्र सारी गुज़र जाएगी सुनेंगे न 'हाली' की कब तक सदा यही एक दिन काम कर जाएगी " kar-ke-biimaar-dii-davaa-tuu-ne-altaf-hussain-hali-ghazals," कर के बीमार दी दवा तू ने जान से पहले दिल लिया तू ने रह-रव-ए-तिश्ना-लब न घबराना अब लिया चश्मा-ए-बक़ा तू ने शैख़ जब दिल ही दैर में न लगा आ के मस्जिद से क्या लिया तू ने दूर हो ऐ दिल-ए-मआल अंदेश खो दिया उम्र का मज़ा तू ने एक बेगाना वार कर के निगाह क्या किया चश्म-ए-आश्ना तू ने दिल ओ दीं खो के आए थे सू-ए-दैर याँ भी सब कुछ दिया ख़ुदा तू ने ख़ुश है उम्मीद-ए-ख़ुल्द पर 'हाली' कोई पूछे कि क्या किया तू ने " gam-e-furqat-hii-men-marnaa-ho-to-dushvaar-nahiin-altaf-hussain-hali-ghazals," ग़म-ए-फ़ुर्क़त ही में मरना हो तो दुश्वार नहीं शादी-ए-वस्ल भी आशिक़ को सज़ा-वार नहीं ख़ूब-रूई के लिए ज़िश्ती-ए-ख़ू भी है ज़रूर सच तो ये है कि कोई तुझ सा तरह-दार नहीं क़ौल देने में तअम्मुल न क़सम से इंकार हम को सच्चा नज़र आता कोई इक़रार नहीं कल ख़राबात में इक गोशे से आती थी सदा दिल में सब कुछ है मगर रुख़्सत-ए-गुफ़्तार नहीं हक़ हुआ किस से अदा उस की वफ़ादारी का जिस के नज़दीक जफ़ा बाइस-ए-आज़ार नहीं देखते हैं कि पहुँचती है वहाँ कौन सी राह काबा ओ दैर से कुछ हम को सरोकार नहीं होंगे क़ाइल वो अभी मतला-ए-सानी सुन कर जो तजल्ली में ये कहते हैं कि तकरार नहीं " ibtidaa-se-ham-zaiif-o-naa-tavaan-paidaa-hue-meer-anees-ghazals," इब्तिदा से हम ज़ईफ़ ओ ना-तवाँ पैदा हुए उड़ गया जब रंग रुख़ से उस्तुख़्वाँ पैदा हुए ख़ाकसारी ने दिखाईं रिफ़अ'तों पर रिफ़अतें इस ज़मीं से वाह क्या क्या आसमाँ पैदा हुए इल्म ख़ालिक़ का ख़ज़ाना है मियान-ए-काफ़-ओ-नून एक कुन कहने से ये कौन-ओ-मकाँ पैदा हुए ज़ब्त देखो सब की सुन ली और कुछ अपनी कही इस ज़बाँ-दानी पर ऐसे बे-ज़बाँ पैदा हुए शोर-बख़्ती आई हिस्से में उन्हीं के वा नसीब तल्ख़-कामी के लिए शीरीं-ज़बाँ पैदा हुए एहतियात-ए-जिस्म क्या अंजाम को सोचो 'अनीस' ख़ाक होने को ये मुश्त-ए-उस्तुख़्वाँ पैदा हुए " ishaare-kyaa-nigah-e-naaz-e-dil-rubaa-ke-chale-meer-anees-ghazals," इशारे क्या निगह-ए-नाज़-ए-दिलरुबा के चले सितम के तीर चले नीमचे क़ज़ा के चले गुनह का बोझ जो गर्दन पे हम उठा के चले ख़ुदा के आगे ख़जालत से सर झुका के चले तलब से आर है अल्लाह से फ़क़ीरों को कहीं जो हो गया फेरा सदा सुना के चले पुकारे कहती थी हसरत से ना'श आशिक़ की सनम किधर को हमें ख़ाक में मिला के चले मिसाल-ए-माही-ए-बे-आब मौजें तड़पा कीं हबाब फूट के रोए जो तुम नहा के चले मक़ाम यूँ हुआ इस कारगाह-ए-दुनिया में कि जैसे दिन को मुसाफ़िर सरा में आ के चले किसी का दिल न किया हम ने पाएमाल कभी चले जो राह तो च्यूँटी को भी बचा के चले मिला जिन्हें उन्हें उफ़्तादगी से औज मिला उन्हीं ने खाई है ठोकर जो सर उठा के चले 'अनीस' दम का भरोसा नहीं ठहर जाओ चराग़ ले के कहाँ सामने हवा के चले " miraa-raaz-e-dil-aashkaaraa-nahiin-meer-anees-ghazals," मिरा राज़-ए-दिल आश्कारा नहीं वो दरिया हूँ जिस का किनारा नहीं वो गुल हूँ जुदा सब से है जिस का रंग वो बू हूँ कि जो आश्कारा नहीं वो पानी हूँ शीरीं नहीं जिस में शोर वो आतिश हूँ जिस में शरारा नहीं बहुत ज़ाल-ए-दुनिया ने दीं बाज़ियाँ मैं वो नौजवाँ हूँ जो हारा नहीं जहन्नम से हम बे-क़रारों को क्या जो आतिश पे ठहरे वो पारा नहीं फ़क़ीरों की मज्लिस है सब से जुदा अमीरों का याँ तक गुज़ारा नहीं सिकंदर की ख़ातिर भी है सद्द-ए-बाब जो दारा भी हो तो मदारा नहीं किसी ने तिरी तरह से ऐ 'अनीस' उरूस-ए-सुख़न को सँवारा नहीं " numuud-o-buud-ko-aaqil-habaab-samjhe-hain-meer-anees-ghazals," नुमूद ओ बूद को आक़िल हबाब समझे हैं वो जागते हैं जो दुनिया को ख़्वाब समझे हैं कभी बुरा नहीं जाना किसी को अपने सिवा हर एक ज़र्रे को हम आफ़्ताब समझे हैं अजब नहीं है जो शीशों में भर के ले जाएँ इन आँसुओं को फ़रिश्ते गुलाब समझे हैं ज़माना एक तरह पर कभी नहीं रहता इसी को अहल-ए-जहाँ इंक़िलाब समझे हैं उन्हीं को दार-ए-बक़ा की है पुख़्तगी का ख़याल जो बे-सबाती-ए-दहर-ए-ख़राब समझे हैं शबाब खो के भी ग़फ़लत वही है पीरों को सहर की नींद को भी शब का ख़्वाब समझे हैं लहद में आएँ नकीरैन आएँ बिस्मिल्लाह हर इक सवाल का हम भी जवाब समझे हैं अगर ग़ुरूर है आदा को अपनी कसरत पर तो इस हयात को हम भी हबाब समझे हैं न कुछ ख़बर है हदीसों की इन सफ़ीहों को न ये मआनी-ए-उम्मुल-किताब समझे हैं कभी शक़ी मुतमत्ता न होंगे दुनिया से जिसे ये आब उसे हम सराब समझे हैं मज़ील-ए-अक़्ल है दुनिया की दौलत ऐ मुनइ'म उसी के नश्शे को सूफ़ी शराब समझे हैं हरारतें हैं मआल-ए-हलावत-ए-दुनिया वो ज़हर है जिसे हम शहद-ए-नाब समझे हैं 'अनीस' मख़मल ओ दीबा से क्या फ़क़ीरों को इसी ज़मीन को हम फ़र्श-ए-ख़्वाब समझे हैं " shahiid-e-ishq-hue-qais-naamvar-kii-tarah-meer-anees-ghazals," शहीद-ए-इश्क़ हुए क़ैस नामवर की तरह जहाँ में ऐब भी हम ने किए हुनर की तरह कुछ आज शाम से चेहरा है फ़क़ सहर की तरह ढला ही जाता हूँ फ़ुर्क़त में दोपहर की तरह सियाह-बख़्तों को यूँ बाग़ से निकाल ऐ चर्ख़ कि चार फूल तो दामन में हों सिपर की तरह तमाम ख़ल्क़ है ख़्वाहान-ए-आबरु ऐ रब छुपा मुझे सदफ़-ए-क़ब्र में गुहर की तरह तुझी को देखूँगा जब तक हैं बरक़रार आँखें मिरी नज़र न फिरेगी तिरी नज़र की तरह हमारी क़ब्र पे क्या एहतियाज-ए-अम्बर-ओ-ऊद सुलग रहा है हर इक उस्तुख़्वाँ अगर की तरह नहीफ़-ओ-ज़ार हैं क्या ज़ोर बाग़बाँ से चले जहाँ बिठा दिया बस रह गए शजर की तरह तुम्हारे हल्क़ा-ब-गोशों में एक हम भी हैं पड़ा रहे ये सुख़न कान में गुहर की तरह 'अनीस' यूँ हुआ हाल-ए-जवानी-ओ-पीरी बढ़े थे नख़्ल की सूरत गिरे समर की तरह " khud-naved-e-zindagii-laaii-qazaa-mere-liye-meer-anees-ghazals," ख़ुद नवेद-ए-ज़िंदगी लाई क़ज़ा मेरे लिए शम-ए-कुश्ता हूँ फ़ना में है बक़ा मेरे लिए ज़िंदगी में तो न इक दम ख़ुश किया हँस बोल कर आज क्यूँ रोते हैं मेरे आश्ना मेरे लिए कुंज-ए-उज़्लत में मिसाल-ए-आसिया हूँ गोशा-गीर रिज़्क़ पहुँचाता है घर बैठे ख़ुदा मेरे लिए तू सरापा अज्र ऐ ज़ाहिद मैं सर-ता-पा गुनाह बाग़-ए-जन्नत तेरी ख़ातिर कर्बला मेरे लिए नाम रौशन कर के क्यूँकर बुझ न जाता मिस्ल-ए-शम्अ' ना-मुवाफ़िक़ थी ज़माने की हवा मेरे लिए हर नफ़स आईना-ए-दिल से ये आती है सदा ख़ाक तू हो जा तो हासिल हो जिला मेरे लिए ख़ाक से है ख़ाक को उल्फ़त तड़पता हूँ 'अनीस' कर्बला के वास्ते मैं कर्बला मेरे लिए " sadaa-hai-fikr-e-taraqqii-buland-biinon-ko-meer-anees-ghazals," सदा है फ़िक्र-ए-तरक़्क़ी बुलंद-बीनों को हम आसमान से लाए हैं इन ज़मीनों को पढ़ें दुरूद न क्यूँ देख कर हसीनों को ख़याल-ए-सनअत-ए-साने है पाक-बीनों को कमाल-ए-फ़क़्र भी शायाँ है पाक-बीनों को ये ख़ाक तख़्त है हम बोरिया-नशीनों को लहद में सोए हैं छोड़ा है शह-नशीनों को क़ज़ा कहाँ से कहाँ ले गई मकीनों को ये झुर्रियाँ नहीं हाथों पे ज़ोफ़-ए-पीरी ने चुना है जामा-ए-असली की आस्तीनों को लगा रहा हूँ मज़ामीन-ए-नौ के फिर अम्बार ख़बर करो मिरे ख़िर्मन के ख़ोशा-चीनों को भला तरद्दुद-ए-बेजा से उन में क्या हासिल उठा चुके हैं ज़मींदार जिन ज़मीनों को उन्हीं को आज नहीं बैठने की जा मिलती मुआ'फ़ करते थे जो लोग कल ज़मीनों को ये ज़ाएरों को मिलीं सरफ़राज़ियाँ वर्ना कहाँ नसीब कि चूमें मलक जबीनों को सजाया हम ने मज़ामीं के ताज़ा फूलों से बसा दिया है इन उजड़ी हुई ज़मीनों को लहद भी देखिए इन में नसीब हो कि न हो कि ख़ाक छान के पाया है जिन ज़मीनों को ज़वाल-ए-ताक़त ओ मू-ए-सपीद ओ ज़ोफ़-ए-बसर इन्हीं से पाए बशर मौत के क़रीनों को नहीं ख़बर उन्हें मिट्टी में अपने मिलने की ज़मीं में गाड़ के बैठे हैं जो दफ़ीनों को ख़बर नहीं उन्हें क्या बंदोबस्त-ए-पुख़्ता की जो ग़स्ब करने लगे ग़ैर की ज़मीनों को जहाँ से उठ गए जो लोग फिर नहीं मिलते कहाँ से ढूँड के अब लाएँ हम-नशीनों को नज़र में फिरती है वो तीरगी ओ तन्हाई लहद की ख़ाक है सुर्मा मआल-बीनों को ख़याल-ए-ख़ातिर-ए-अहबाब चाहिए हर दम 'अनीस' ठेस न लग जाए आबगीनों को " koii-aniis-koii-aashnaa-nahiin-rakhte-meer-anees-ghazals," कोई अनीस कोई आश्ना नहीं रखते किसी की आस बग़ैर अज़ ख़ुदा नहीं रखते किसी को क्या हो दिलों की शिकस्तगी की ख़बर कि टूटने में ये शीशे सदा नहीं रखते फ़क़ीर दोस्त जो हो हम को सरफ़राज़ करे कुछ और फ़र्श ब-जुज़ बोरिया नहीं रखते मुसाफ़िरो शब-ए-अव्वल बहुत है तीरा ओ तार चराग़-ए-क़ब्र अभी से जला नहीं रखते वो लोग कौन से हैं ऐ ख़ुदा-ए-कौन-ओ-मकाँ सुख़न से कान को जो आश्ना नहीं रखते मुसाफ़िरान-ए-अदम का पता मिले क्यूँकर वो यूँ गए कि कहीं नक़्श-ए-पा नहीं रखते तप-ए-दरूँ ग़म-ए-फ़ुर्क़त वरम-ए-पयादा-रवी मरज़ तो इतने हैं और कुछ दवा नहीं रखते खुलेगा हाल उन्हें जब कि आँख बंद हुई जो लोग उल्फ़त-ए-मुश्किल-कुशा नहीं रखते जहाँ की लज़्ज़त ओ ख़्वाहिश से है बशर का ख़मीर वो कौन हैं कि जो हिर्स-ओ-हवा नहीं रखते 'अनीस' बेच के जाँ अपनी हिन्द से निकलो जो तोशा-ए-सफ़र-ए-कर्बला नहीं रखते " vajd-ho-bulbul-e-tasviir-ko-jis-kii-buu-se-meer-anees-ghazals," वज्द हो बुलबुल-ए-तस्वीर को जिस की बू से उस से गुल-रंग का दा'वा करे फिर किस रू से शम्अ' के रोने पे बस साफ़ हँसी आती है आतिश-ए-दिल कहीं कम होती है चार आँसू से एक दिन वो था कि तकिया था किसी का बाज़ू अब सर उठता ही नहीं अपने सर-ए-ज़ानू से नज़्अ' में हूँ मिरी मुश्किल करो आसाँ यारों खोलो तावीज़-ए-शिफ़ा जल्द मिरे बाज़ू से शोख़ी-ए-चश्म का तू किस की है दीवाना 'अनीस' आँखें मलता है जो यूँ नक़्श-ए-कफ़-ए-आहू से " abhii-farmaan-aayaa-hai-vahaan-se-jaun-eliya-ghazals," अभी फ़रमान आया है वहाँ से कि हट जाऊँ मैं अपने दरमियाँ से यहाँ जो है तनफ़्फ़ुस ही में गुम है परिंदे उड़ रहे हैं शाख़-ए-जाँ से दरीचा बाज़ है यादों का और मैं हवा सुनता हूँ पेड़ों की ज़बाँ से ज़माना था वो दिल की ज़िंदगी का तिरी फ़ुर्क़त के दिन लाऊँ कहाँ से था अब तक मा'रका बाहर का दरपेश अभी तो घर भी जाना है यहाँ से फुलाँ से थी ग़ज़ल बेहतर फुलाँ की फुलाँ के ज़ख़्म अच्छे थे फुलाँ से ख़बर क्या दूँ मैं शहर-ए-रफ़्तगाँ की कोई लौटे भी शहर-ए-रफ़्तगाँ से यही अंजाम क्या तुझ को हवस था कोई पूछे तो मीर-ए-दास्ताँ से " dil-jo-hai-aag-lagaa-duun-us-ko-jaun-eliya-ghazals," दिल जो है आग लगा दूँ उस को और फिर ख़ुद ही हवा दूँ उस को जो भी है उस को गँवा बैठा है मैं भला कैसे गँवा दूँ उस को तुझ गुमाँ पर जो इमारत की थी सोचता हूँ कि मैं ढा दूँ उस को जिस्म में आग लगा दूँ उस के और फिर ख़ुद ही बुझा दूँ उस को हिज्र की नज़्र तो देनी है उसे सोचता हूँ कि भुला दूँ उस को जो नहीं है मिरे दिल की दुनिया क्यूँ न मैं 'जौन' मिटा दूँ उस को " tumhaaraa-hijr-manaa-luun-agar-ijaazat-ho-jaun-eliya-ghazals," तुम्हारा हिज्र मना लूँ अगर इजाज़त हो मैं दिल किसी से लगा लूँ अगर इजाज़त हो तुम्हारे बा'द भला क्या हैं वअदा-ओ-पैमाँ बस अपना वक़्त गँवा लूँ अगर इजाज़त हो तुम्हारे हिज्र की शब-हा-ए-कार में जानाँ कोई चराग़ जला लूँ अगर इजाज़त हो जुनूँ वही है वही मैं मगर है शहर नया यहाँ भी शोर मचा लूँ अगर इजाज़त हो किसे है ख़्वाहिश-ए-मरहम-गरी मगर फिर भी मैं अपने ज़ख़्म दिखा लूँ अगर इजाज़त हो तुम्हारी याद में जीने की आरज़ू है अभी कुछ अपना हाल सँभालूँ अगर इजाज़त हो " iizaa-dahii-kii-daad-jo-paataa-rahaa-huun-main-jaun-eliya-ghazals," ईज़ा-दही की दाद जो पाता रहा हूँ मैं हर नाज़-आफ़रीं को सताता रहा हूँ मैं ऐ ख़ुश-ख़िराम पाँव के छाले तो गिन ज़रा तुझ को कहाँ कहाँ न फिराता रहा हूँ मैं इक हुस्न-ए-बे-मिसाल की तमसील के लिए परछाइयों पे रंग गिराता रहा हूँ मैं क्या मिल गया ज़मीर-ए-हुनर बेच कर मुझे इतना कि सिर्फ़ काम चलाता रहा हूँ मैं रूहों के पर्दा-पोश गुनाहों से बे-ख़बर जिस्मों की नेकियाँ ही गिनाता रहा हूँ मैं तुझ को ख़बर नहीं कि तिरा कर्ब देख कर अक्सर तिरा मज़ाक़ उड़ाता रहा हूँ मैं शायद मुझे किसी से मोहब्बत नहीं हुई लेकिन यक़ीन सब को दिलाता रहा हूँ मैं इक सत्र भी कभी न लिखी मैं ने तेरे नाम पागल तुझी को याद भी आता रहा हूँ मैं जिस दिन से ए'तिमाद में आया तिरा शबाब उस दिन से तुझ पे ज़ुल्म ही ढाता रहा हूँ मैं अपना मिसालिया मुझे अब तक न मिल सका ज़र्रों को आफ़्ताब बनाता रहा हूँ मैं बेदार कर के तेरे बदन की ख़ुद-आगही तेरे बदन की उम्र घटाता रहा हूँ मैं कल दोपहर अजीब सी इक बे-दिली रही बस तीलियाँ जला के बुझाता रहा हूँ मैं " tang-aagosh-men-aabaad-karuungaa-tujh-ko-jaun-eliya-ghazals," तंग आग़ोश में आबाद करूँगा तुझ को हूँ बहुत शाद कि नाशाद करूँगा तुझ को फ़िक्र-ए-ईजाद में गुम हूँ मुझे ग़ाफ़िल न समझ अपने अंदाज़ पर ईजाद करूँगा तुझ को नश्शा है राह की दूरी का कि हमराह है तू जाने किस शहर में आबाद करूँगा तुझ को मेरी बाँहों में बहकने की सज़ा भी सुन ले अब बहुत देर में आज़ाद करूँगा तुझ को मैं कि रहता हूँ ब-सद-नाज़ गुरेज़ाँ तुझ से तू न होगा तो बहुत याद करूँगा तुझ को " badaa-ehsaan-ham-farmaa-rahe-hain-jaun-eliya-ghazals," बड़ा एहसान हम फ़रमा रहे हैं कि उन के ख़त उन्हें लौटा रहे हैं नहीं तर्क-ए-मोहब्बत पर वो राज़ी क़यामत है कि हम समझा रहे हैं यक़ीं का रास्ता तय करने वाले बहुत तेज़ी से वापस आ रहे हैं ये मत भूलो कि ये लम्हात हम को बिछड़ने के लिए मिलवा रहे हैं तअ'ज्जुब है कि इश्क़-ओ-आशिक़ी से अभी कुछ लोग धोका खा रहे हैं तुम्हें चाहेंगे जब छिन जाओगी तुम अभी हम तुम को अर्ज़ां पा रहे हैं किसी सूरत उन्हें नफ़रत हो हम से हम अपने ऐब ख़ुद गिनवा रहे हैं वो पागल मस्त है अपनी वफ़ा में मिरी आँखों में आँसू आ रहे हैं दलीलों से उसे क़ाइल किया था दलीलें दे के अब पछता रहे हैं तिरी बाँहों से हिजरत करने वाले नए माहौल में घबरा रहे हैं ये जज़्ब-ए-इश्क़ है या जज़्बा-ए-रहम तिरे आँसू मुझे रुलवा रहे हैं अजब कुछ रब्त है तुम से कि तुम को हम अपना जान कर ठुकरा रहे हैं वफ़ा की यादगारें तक न होंगी मिरी जाँ बस कोई दिन जा रहे हैं " nayaa-ik-rishta-paidaa-kyuun-karen-ham-jaun-eliya-ghazals," नया इक रिश्ता पैदा क्यूँ करें हम बिछड़ना है तो झगड़ा क्यूँ करें हम ख़मोशी से अदा हो रस्म-ए-दूरी कोई हंगामा बरपा क्यूँ करें हम ये काफ़ी है कि हम दुश्मन नहीं हैं वफ़ा-दारी का दावा क्यूँ करें हम वफ़ा इख़्लास क़ुर्बानी मोहब्बत अब इन लफ़्ज़ों का पीछा क्यूँ करें हम हमारी ही तमन्ना क्यूँ करो तुम तुम्हारी ही तमन्ना क्यूँ करें हम किया था अहद जब लम्हों में हम ने तो सारी उम्र ईफ़ा क्यूँ करें हम नहीं दुनिया को जब पर्वा हमारी तो फिर दुनिया की पर्वा क्यूँ करें हम ये बस्ती है मुसलामानों की बस्ती यहाँ कार-ए-मसीहा क्यूँ करें हम " ik-hunar-hai-jo-kar-gayaa-huun-main-jaun-eliya-ghazals," इक हुनर है जो कर गया हूँ मैं सब के दिल से उतर गया हूँ मैं कैसे अपनी हँसी को ज़ब्त करूँ सुन रहा हूँ कि घर गया हूँ मैं क्या बताऊँ कि मर नहीं पाता जीते-जी जब से मर गया हूँ मैं अब है बस अपना सामना दर-पेश हर किसी से गुज़र गया हूँ मैं वही नाज़-ओ-अदा वही ग़म्ज़े सर-ब-सर आप पर गया हूँ मैं अजब इल्ज़ाम हूँ ज़माने का कि यहाँ सब के सर गया हूँ मैं कभी ख़ुद तक पहुँच नहीं पाया जब कि वाँ उम्र भर गया हूँ मैं तुम से जानाँ मिला हूँ जिस दिन से बे-तरह ख़ुद से डर गया हूँ मैं कू-ए-जानाँ में सोग बरपा है कि अचानक सुधर गया हूँ मैं " ai-subah-main-ab-kahaan-rahaa-huun-jaun-eliya-ghazals," ऐ सुबह मैं अब कहाँ रहा हूँ ख़्वाबों ही में सर्फ़ हो चुका हूँ सब मेरे बग़ैर मुतमइन हों मैं सब के बग़ैर जी रहा हूँ क्या है जो बदल गई है दुनिया मैं भी तो बहुत बदल गया हूँ गो अपने हज़ार नाम रख लूँ पर अपने सिवा मैं और क्या हूँ मैं जुर्म का ए'तिराफ़ कर के कुछ और है जो छुपा गया हूँ मैं और फ़क़त उसी की ख़्वाहिश अख़्लाक़ में झूट बोलता हूँ इक शख़्स जो मुझ से वक़्त ले कर आज आ न सका तो ख़ुश हुआ हूँ हर शख़्स से बे-नियाज़ हो जा फिर सब से ये कह कि मैं ख़ुदा हूँ चरके तो तुझे दिए हैं मैं ने पर ख़ून भी मैं ही थूकता हूँ रोया हूँ तो अपने दोस्तों में पर तुझ से तो हँस के ही मिला हूँ ऐ शख़्स मैं तेरी जुस्तुजू से बेज़ार नहीं हूँ थक गया हूँ मैं शम-ए-सहर का नग़्मा-गर था अब थक के कराहने लगा हूँ कल पर ही रखो वफ़ा की बातें मैं आज बहुत बोझा हुआ हूँ कोई भी नहीं है मुझ से नादिम बस तय ये हुआ कि मैं बुरा हूँ " juz-gumaan-aur-thaa-hii-kyaa-meraa-jaun-eliya-ghazals," जुज़ गुमाँ और था ही क्या मेरा फ़क़त इक मेरा नाम था मेरा निकहत-ए-पैरहन से उस गुल की सिलसिला बे-सबा रहा मेरा मुझ को ख़्वाहिश ही ढूँडने की न थी मुझ में खोया रहा ख़ुदा मेरा थूक दे ख़ून जान ले वो अगर आलम-ए-तर्क-ए-मुद्दआ मेरा जब तुझे मेरी चाह थी जानाँ बस वही वक़्त था कड़ा मेरा कोई मुझ तक पहुँच नहीं पाता इतना आसान है पता मेरा आ चुका पेश वो मुरव्वत से अब चलूँ काम हो चुका मेरा आज मैं ख़ुद से हो गया मायूस आज इक यार मर गया मेरा " jo-huaa-jaun-vo-huaa-bhii-nahiin-jaun-eliya-ghazals," जो हुआ 'जौन' वो हुआ भी नहीं या'नी जो कुछ भी था वो था भी नहीं बस गया जब वो शहर-ए-दिल में मिरे फिर मैं इस शहर में रहा भी नहीं इक अजब तौर हाल है कि जो है या'नी मैं भी नहीं ख़ुदा भी नहीं लम्हों से अब मुआ'मला क्या हो दिल पे अब कुछ गुज़र रहा भी नहीं जानिए मैं चला गया हूँ कहाँ मैं तो ख़ुद से कहीं गया भी नहीं तू मिरे दिल में आन के बस जा और तू मेरे पास आ भी नहीं " ruuh-pyaasii-kahaan-se-aatii-hai-jaun-eliya-ghazals," रूह प्यासी कहाँ से आती है ये उदासी कहाँ से आती है है वो यक-सर सुपुर्दगी तो भला बद-हवासी कहाँ से आती है वो हम-आग़ोश है तो फिर दिल में ना-शनासी कहाँ से आती है एक ज़िंदान-ए-बे-दिली और शाम ये सबा सी कहाँ से आती है तू है पहलू में फिर तिरी ख़ुश्बू हो के बासी कहाँ से आती है दिल है शब-सोख़्ता सिवाए उम्मीद तू निदा सी कहाँ से आती है मैं हूँ तुझ में और आस हूँ तेरी तो निरासी कहाँ से आती है " har-dhadkan-haijaanii-thii-har-khaamoshii-tuufaanii-thii-jaun-eliya-ghazals," हर धड़कन हैजानी थी हर ख़ामोशी तूफ़ानी थी फिर भी मोहब्बत सिर्फ़ मुसलसल मिलने की आसानी थी जिस दिन उस से बात हुई थी उस दिन भी बे-कैफ़ था मैं जिस दिन उस का ख़त आया है उस दिन भी वीरानी थी जब उस ने मुझ से ये कहा था इश्क़ रिफ़ाक़त ही तो नहीं तब मैं ने हर शख़्स की सूरत मुश्किल से पहचानी थी जिस दिन वो मिलने आई है उस दिन की रूदाद ये है उस का बलाउज़ नारंजी था उस की सारी धानी थी उलझन सी होने लगती थी मुझ को अक्सर और वो यूँ मेरा मिज़ाज-ए-इश्क़ था शहरी उस की वफ़ा दहक़ानी थी अब तो उस के बारे में तुम जो चाहो वो कह डालो वो अंगड़ाई मेरे कमरे तक तो बड़ी रूहानी थी नाम पे हम क़ुर्बान थे उस के लेकिन फिर ये तौर हुआ उस को देख के रुक जाना भी सब से बड़ी क़ुर्बानी थी मुझ से बिछड़ कर भी वो लड़की कितनी ख़ुश ख़ुश रहती है उस लड़की ने मुझ से बिछड़ कर मर जाने की ठानी थी इश्क़ की हालत कुछ भी नहीं थी बात बढ़ाने का फ़न था लम्हे ला-फ़ानी ठहरे थे क़तरों की तुग़्यानी थी जिस को ख़ुद मैं ने भी अपनी रूह का इरफ़ाँ समझा था वो तो शायद मेरे प्यासे होंटों की शैतानी थी था दरबार-ए-कलाँ भी उस का नौबत-ख़ाना उस का था थी मेरे दिल की जो रानी अमरोहे की रानी थी " bahut-dil-ko-kushaada-kar-liyaa-kyaa-jaun-eliya-ghazals," बहुत दिल को कुशादा कर लिया क्या ज़माने भर से वा'दा कर लिया क्या तो क्या सच-मुच जुदाई मुझ से कर ली तो ख़ुद अपने को आधा कर लिया क्या हुनर-मंदी से अपनी दिल का सफ़्हा मिरी जाँ तुम ने सादा कर लिया क्या जो यकसर जान है उस के बदन से कहो कुछ इस्तिफ़ादा कर लिया क्या बहुत कतरा रहे हो मुग़्बचों से गुनाह-ए-तर्क-ए-बादा कर लिया क्या यहाँ के लोग कब के जा चुके हैं सफ़र जादा-ब-जादा कर लिया क्या उठाया इक क़दम तू ने न उस तक बहुत अपने को माँदा कर लिया क्या तुम अपनी कज-कुलाही हार बैठीं बदन को बे-लिबादा कर लिया क्या बहुत नज़दीक आती जा रही हो बिछड़ने का इरादा कर लिया क्या " abhii-ik-shor-saa-uthaa-hai-kahiin-jaun-eliya-ghazals," अभी इक शोर सा उठा है कहीं कोई ख़ामोश हो गया है कहीं है कुछ ऐसा कि जैसे ये सब कुछ इस से पहले भी हो चुका है कहीं तुझ को क्या हो गया कि चीज़ों को कहीं रखता है ढूँढता है कहीं जो यहाँ से कहीं न जाता था वो यहाँ से चला गया है कहीं आज शमशान की सी बू है यहाँ क्या कोई जिस्म जल रहा है कहीं हम किसी के नहीं जहाँ के सिवा ऐसी वो ख़ास बात क्या है कहीं तू मुझे ढूँड मैं तुझे ढूँडूँ कोई हम में से रह गया है कहीं कितनी वहशत है दरमियान-ए-हुजूम जिस को देखो गया हुआ है कहीं मैं तो अब शहर में कहीं भी नहीं क्या मिरा नाम भी लिखा है कहीं इसी कमरे से कोई हो के विदाअ' इसी कमरे में छुप गया है कहीं मिल के हर शख़्स से हुआ महसूस मुझ से ये शख़्स मिल चुका है कहीं " kaam-kii-baat-main-ne-kii-hii-nahiin-jaun-eliya-ghazals," काम की बात मैं ने की ही नहीं ये मिरा तौर-ए-ज़िंदगी ही नहीं ऐ उमीद ऐ उमीद-ए-नौ-मैदाँ मुझ से मय्यत तिरी उठी ही नहीं मैं जो था उस गली का मस्त-ए-ख़िराम उस गली में मिरी चली ही नहीं ये सुना है कि मेरे कूच के बा'द उस की ख़ुश्बू कहीं बसी ही नहीं थी जो इक फ़ाख़्ता उदास उदास सुब्ह वो शाख़ से उड़ी ही नहीं मुझ में अब मेरा जी नहीं लगता और सितम ये कि मेरा जी ही नहीं वो जो रहती थी दिल-मोहल्ले में फिर वो लड़की मुझे मिली ही नहीं जाइए और ख़ाक उड़ाइए आप अब वो घर क्या कि वो गली ही नहीं हाए वो शौक़ जो नहीं था कभी हाए वो ज़िंदगी जो थी ही नहीं " us-ke-pahluu-se-lag-ke-chalte-hain-jaun-eliya-ghazals," उस के पहलू से लग के चलते हैं हम कहीं टालने से टलते हैं बंद है मय-कदों के दरवाज़े हम तो बस यूँही चल निकलते हैं मैं उसी तरह तो बहलता हूँ और सब जिस तरह बहलते हैं वो है जान अब हर एक महफ़िल की हम भी अब घर से कम निकलते हैं क्या तकल्लुफ़ करें ये कहने में जो भी ख़ुश है हम उस से जलते हैं है उसे दूर का सफ़र दर-पेश हम सँभाले नहीं सँभलते हैं शाम फ़ुर्क़त की लहलहा उठी वो हवा है कि ज़ख़्म भरते हैं है अजब फ़ैसले का सहरा भी चल न पड़िए तो पाँव जलते हैं हो रहा हूँ मैं किस तरह बर्बाद देखने वाले हाथ मलते हैं तुम बनो रंग तुम बनो ख़ुशबू हम तो अपने सुख़न में ढलते हैं " thiik-hai-khud-ko-ham-badalte-hain-jaun-eliya-ghazals," ठीक है ख़ुद को हम बदलते हैं शुक्रिया मश्वरत का चलते हैं हो रहा हूँ मैं किस तरह बरबाद देखने वाले हाथ मलते हैं है वो जान अब हर एक महफ़िल की हम भी अब घर से कम निकलते हैं क्या तकल्लुफ़ करें ये कहने में जो भी ख़ुश है हम उस से जलते हैं है उसे दूर का सफ़र दर-पेश हम सँभाले नहीं सँभलते हैं तुम बनो रंग तुम बनो ख़ुश्बू हम तो अपने सुख़न में ढलते हैं मैं उसी तरह तो बहलता हूँ और सब जिस तरह बहलते हैं है अजब फ़ैसले का सहरा भी चल न पड़िए तो पाँव जलते हैं " zabt-kar-ke-hansii-ko-bhuul-gayaa-jaun-eliya-ghazals," ज़ब्त कर के हँसी को भूल गया मैं तो उस ज़ख़्म ही को भूल गया ज़ात-दर-ज़ात हम-सफ़र रह कर अजनबी अजनबी को भूल गया सुब्ह तक वज्ह-ए-जाँ-कनी थी जो बात मैं उसे शाम ही को भूल गया अहद-ए-वाबस्तगी गुज़ार के मैं वज्ह-ए-वाबस्तगी को भूल गया सब दलीलें तो मुझ को याद रहीं बहस क्या थी उसी को भूल गया क्यूँ न हो नाज़ इस ज़ेहानत पर एक मैं हर किसी को भूल गया सब से पुर-अम्न वाक़िआ ये है आदमी आदमी को भूल गया क़हक़हा मारते ही दीवाना हर ग़म-ए-ज़िंदगी को भूल गया ख़्वाब-हा-ख़्वाब जिस को चाहा था रंग-हा-रंग उसी को भूल गया क्या क़यामत हुई अगर इक शख़्स अपनी ख़ुश-क़िस्मती को भूल गया सोच कर उस की ख़ल्वत-अंजुमनी वाँ मैं अपनी कमी को भूल गया सब बुरे मुझ को याद रहते हैं जो भला था उसी को भूल गया उन से वा'दा तो कर लिया लेकिन अपनी कम-फ़ुर्सती को भूल गया बस्तियो अब तो रास्ता दे दो अब तो मैं उस गली को भूल गया उस ने गोया मुझी को याद रखा मैं भी गोया उसी को भूल गया या'नी तुम वो हो वाक़ई? हद है मैं तो सच-मुच सभी को भूल गया आख़िरी बुत ख़ुदा न क्यूँ ठहरे बुत-शिकन बुत-गरी को भूल गया अब तो हर बात याद रहती है ग़ालिबन मैं किसी को भूल गया उस की ख़ुशियों से जलने वाला 'जौन' अपनी ईज़ा-दही को भूल गया " dil-ne-vafaa-ke-naam-par-kaar-e-vafaa-nahiin-kiyaa-jaun-eliya-ghazals," दिल ने वफ़ा के नाम पर कार-ए-वफ़ा नहीं किया ख़ुद को हलाक कर लिया ख़ुद को फ़िदा नहीं किया ख़ीरा-सरान-ए-शौक़ का कोई नहीं है जुम्बा-दार शहर में इस गिरोह ने किस को ख़फ़ा नहीं किया जो भी हो तुम पे मो'तरिज़ उस को यही जवाब दो आप बहुत शरीफ़ हैं आप ने क्या नहीं किया निस्बत इल्म है बहुत हाकिम-ए-वक़त को अज़ीज़ उस ने तो कार-ए-जहल भी बे-उलमा नहीं किया जिस को भी शैख़ ओ शाह ने हुक्म-ए-ख़ुदा दिया क़रार हम ने नहीं क्या वो काम हाँ ब-ख़ुदा नहीं किया " apne-sab-yaar-kaam-kar-rahe-hain-jaun-eliya-ghazals," अपने सब यार काम कर रहे हैं और हम हैं कि नाम कर रहे हैं तेग़-बाज़ी का शौक़ अपनी जगह आप तो क़त्ल-ए-आम कर रहे हैं दाद-ओ-तहसीन का ये शोर है क्यूँ हम तो ख़ुद से कलाम कर रहे हैं हम हैं मसरूफ़-ए-इंतिज़ाम मगर जाने क्या इंतिज़ाम कर रहे हैं है वो बेचारगी का हाल कि हम हर किसी को सलाम कर रहे हैं एक क़त्ताला चाहिए हम को हम ये एलान-ए-आम कर रहे हैं क्या भला साग़र-ए-सिफ़ाल कि हम नाफ़-प्याले को जाम कर रहे हैं हम तो आए थे अर्ज़-ए-मतलब को और वो एहतिराम कर रहे हैं न उठे आह का धुआँ भी कि वो कू-ए-दिल में ख़िराम कर रहे हैं उस के होंटों पे रख के होंट अपने बात ही हम तमाम कर रहे हैं हम अजब हैं कि उस के कूचे में बे-सबब धूम-धाम कर रहे हैं " aap-apnaa-gubaar-the-ham-to-jaun-eliya-ghazals," आप अपना ग़ुबार थे हम तो याद थे यादगार थे हम तो पर्दगी हम से क्यूँ रखा पर्दा तेरे ही पर्दा-दार थे हम तो वक़्त की धूप में तुम्हारे लिए शजर-ए-साया-दार थे हम तो उड़े जाते हैं धूल के मानिंद आँधियों पर सवार थे हम तो हम ने क्यूँ ख़ुद पे ए'तिबार किया सख़्त बे-ए'तिबार थे हम तो शर्म है अपनी बार बारी की बे-सबब बार बार थे हम तो क्यूँ हमें कर दिया गया मजबूर ख़ुद ही बे-इख़्तियार थे हम तो तुम ने कैसे भुला दिया हम को तुम से ही मुस्तआ'र थे हम तो ख़ुश न आया हमें जिए जाना लम्हे लम्हे पे बार थे हम तो सह भी लेते हमारे ता'नों को जान-ए-मन जाँ-निसार थे हम तो ख़ुद को दौरान-ए-हाल में अपने बे-तरह नागवार थे हम तो तुम ने हम को भी कर दिया बरबाद नादिर-ए-रोज़गार थे हम तो हम को यारों ने याद भी न रखा 'जौन' यारों के यार थे हम तो " saare-rishte-tabaah-kar-aayaa-jaun-eliya-ghazals," सारे रिश्ते तबाह कर आया दिल-ए-बर्बाद अपने घर आया आख़िरश ख़ून थूकने से मियाँ बात में तेरी क्या असर आया था ख़बर में ज़ियाँ दिल ओ जाँ का हर तरफ़ से मैं बे-ख़बर आया अब यहाँ होश में कभी अपने नहीं आऊँगा मैं अगर आया मैं रहा उम्र भर जुदा ख़ुद से याद मैं ख़ुद को उम्र भर आया वो जो दिल नाम का था एक नफ़र आज मैं इस से भी मुकर आया मुद्दतों बा'द घर गया था मैं जाते ही मैं वहाँ से डर आया " be-qaraarii-sii-be-qaraarii-hai-jaun-eliya-ghazals," बे-क़रारी सी बे-क़रारी है वस्ल है और फ़िराक़ तारी है जो गुज़ारी न जा सकी हम से हम ने वो ज़िंदगी गुज़ारी है निघरे क्या हुए कि लोगों पर अपना साया भी अब तो भारी है बिन तुम्हारे कभी नहीं आई क्या मिरी नींद भी तुम्हारी है आप में कैसे आऊँ मैं तुझ बिन साँस जो चल रही है आरी है उस से कहियो कि दिल की गलियों में रात दिन तेरी इंतिज़ारी है हिज्र हो या विसाल हो कुछ हो हम हैं और उस की यादगारी है इक महक सम्त-ए-दिल से आई थी मैं ये समझा तिरी सवारी है हादसों का हिसाब है अपना वर्ना हर आन सब की बारी है ख़ुश रहे तू कि ज़िंदगी अपनी उम्र भर की उमीद-वारी है " ham-jii-rahe-hain-koii-bahaana-kiye-bagair-jaun-eliya-ghazals," हम जी रहे हैं कोई बहाना किए बग़ैर उस के बग़ैर उस की तमन्ना किए बग़ैर अम्बार उस का पर्दा-ए-हुरमत बना मियाँ दीवार तक नहीं गिरी पर्दा किए बग़ैर याराँ वो जो है मेरा मसीहा-ए-जान-ओ-दिल बे-हद अज़ीज़ है मुझे अच्छा किए बग़ैर मैं बिस्तर-ए-ख़याल पे लेटा हूँ उस के पास सुब्ह-ए-अज़ल से कोई तक़ाज़ा किए बग़ैर उस का है जो भी कुछ है मिरा और मैं मगर वो मुझ को चाहिए कोई सौदा किए बग़ैर ये ज़िंदगी जो है उसे मअना भी चाहिए वा'दा हमें क़ुबूल है ईफ़ा किए बग़ैर ऐ क़ातिलों के शहर बस इतनी ही अर्ज़ है मैं हूँ न क़त्ल कोई तमाशा किए बग़ैर मुर्शिद के झूट की तो सज़ा बे-हिसाब है तुम छोड़ियो न शहर को सहरा किए बग़ैर उन आँगनों में कितना सुकून ओ सुरूर था आराइश-ए-नज़र तिरी पर्वा किए बग़ैर याराँ ख़ुशा ये रोज़ ओ शब-ए-दिल कि अब हमें सब कुछ है ख़ुश-गवार गवारा किए बग़ैर गिर्या-कुनाँ की फ़र्द में अपना नहीं है नाम हम गिर्या-कुन अज़ल के हैं गिर्या किए बग़ैर आख़िर हैं कौन लोग जो बख़्शे ही जाएँगे तारीख़ के हराम से तौबा किए बग़ैर वो सुन्नी बच्चा कौन था जिस की जफ़ा ने 'जौन' शीआ' बना दिया हमें शीआ' किए बग़ैर अब तुम कभी न आओगे या'नी कभी कभी रुख़्सत करो मुझे कोई वा'दा किए बग़ैर " kis-se-izhaar-e-muddaaa-kiije-jaun-eliya-ghazals," किस से इज़हार-ए-मुद्दआ कीजे आप मिलते नहीं हैं क्या कीजे हो न पाया ये फ़ैसला अब तक आप कीजे तो क्या किया कीजे आप थे जिस के चारा-गर वो जवाँ सख़्त बीमार है दुआ कीजे एक ही फ़न तो हम ने सीखा है जिस से मिलिए उसे ख़फ़ा कीजे है तक़ाज़ा मिरी तबीअ'त का हर किसी को चराग़-पा कीजे है तो बारे ये आलम-ए-असबाब बे-सबब चीख़ने लगा कीजे आज हम क्या गिला करें उस से गिला-ए-तंगी-ए-क़बा कीजे नुत्क़ हैवान पर गराँ है अभी गुफ़्तुगू कम से कम किया कीजे हज़रत-ए-ज़ुल्फ़-ए-ग़ालिया-अफ़्शाँ नाम अपना सबा सबा कीजे ज़िंदगी का अजब मोआ'मला है एक लम्हे में फ़ैसला कीजे मुझ को आदत है रूठ जाने की आप मुझ को मना लिया कीजे मिलते रहिए इसी तपाक के साथ बेवफ़ाई की इंतिहा कीजे कोहकन को है ख़ुद-कुशी ख़्वाहिश शाह-बानो से इल्तिजा कीजे मुझ से कहती थीं वो शराब आँखें आप वो ज़हर मत पिया कीजे रंग हर रंग में है दाद-तलब ख़ून थूकूँ तो वाह-वा कीजे " aish-e-ummiid-hii-se-khatra-hai-jaun-eliya-ghazals," ऐश-ए-उम्मीद ही से ख़तरा है दिल को अब दिल-दही से ख़तरा है है कुछ ऐसा कि उस की जल्वत में हमें अपनी कमी से ख़तरा है जिस के आग़ोश का हूँ दीवाना उस के आग़ोश ही से ख़तरा है याद की धूप तो है रोज़ की बात हाँ मुझे चाँदनी से ख़तरा है है अजब कुछ मोआ'मला दरपेश अक़्ल को आगही से ख़तरा है शहर-ए-ग़द्दार जान ले कि तुझे एक अमरोहवी से ख़तरा है है अजब तौर हालत-ए-गिर्या कि मिज़ा को नमी से ख़तरा है हाल ख़ुश लखनऊ का दिल्ली का बस उन्हें 'मुसहफ़ी' से ख़तरा है आसमानों में है ख़ुदा तन्हा और हर आदमी से ख़तरा है मैं कहूँ किस तरह ये बात उस से तुझ को जानम मुझी से ख़तरा है आज भी ऐ कनार-ए-बान मुझे तेरी इक साँवली से ख़तरा है उन लबों का लहू न पी जाऊँ अपनी तिश्ना-लबी से ख़तरा है 'जौन' ही तो है 'जौन' के दरपय 'मीर' को 'मीर' ही से ख़तरा है अब नहीं कोई बात ख़तरे की अब सभी को सभी से ख़तरा है " sar-hii-ab-phodiye-nadaamat-men-jaun-eliya-ghazals," सर ही अब फोड़िए नदामत में नींद आने लगी है फ़ुर्क़त में हैं दलीलें तिरे ख़िलाफ़ मगर सोचता हूँ तिरी हिमायत में रूह ने इश्क़ का फ़रेब दिया जिस्म को जिस्म की अदावत में अब फ़क़त आदतों की वर्ज़िश है रूह शामिल नहीं शिकायत में इश्क़ को दरमियाँ न लाओ कि मैं चीख़ता हूँ बदन की उसरत में ये कुछ आसान तो नहीं है कि हम रूठते अब भी हैं मुरव्वत में वो जो ता'मीर होने वाली थी लग गई आग उस इमारत में ज़िंदगी किस तरह बसर होगी दिल नहीं लग रहा मोहब्बत में हासिल-ए-कुन है ये जहान-ए-ख़राब यही मुमकिन था इतनी उजलत में फिर बनाया ख़ुदा ने आदम को अपनी सूरत पे ऐसी सूरत में और फिर आदमी ने ग़ौर किया छिपकिली की लतीफ़ सनअ'त में ऐ ख़ुदा जो कहीं नहीं मौजूद क्या लिखा है हमारी क़िस्मत में " dil-kii-takliif-kam-nahiin-karte-jaun-eliya-ghazals," दिल की तकलीफ़ कम नहीं करते अब कोई शिकवा हम नहीं करते जान-ए-जाँ तुझ को अब तिरी ख़ातिर याद हम कोई दम नहीं करते दूसरी हार की हवस है सो हम सर-ए-तस्लीम ख़म नहीं करते वो भी पढ़ता नहीं है अब दिल से हम भी नाले को नम नहीं करते जुर्म में हम कमी करें भी तो क्यूँ तुम सज़ा भी तो कम नहीं करते " ab-kisii-se-miraa-hisaab-nahiin-jaun-eliya-ghazals," अब किसी से मिरा हिसाब नहीं मेरी आँखों में कोई ख़्वाब नहीं ख़ून के घूँट पी रहा हूँ मैं ये मिरा ख़ून है शराब नहीं मैं शराबी हूँ मेरी आस न छीन तू मिरी आस है सराब नहीं नोच फेंके लबों से मैं ने सवाल ताक़त-ए-शोख़ी-ए-जवाब नहीं अब तो पंजाब भी नहीं पंजाब और ख़ुद जैसा अब दो-आब नहीं ग़म अबद का नहीं है आन का है और इस का कोई हिसाब नहीं बूदश इक रू है एक रू या'नी इस की फ़ितरत में इंक़लाब नहीं " aaj-lab-e-guhar-fishaan-aap-ne-vaa-nahiin-kiyaa-jaun-eliya-ghazals," आज लब-ए-गुहर-फ़िशाँ आप ने वा नहीं किया तज़्किरा-ए-ख़जिस्ता-ए-आब-ओ-हवा नहीं किया कैसे कहें कि तुझ को भी हम से है वास्ता कोई तू ने तो हम से आज तक कोई गिला नहीं किया जाने तिरी नहीं के साथ कितने ही जब्र थे कि थे मैं ने तिरे लिहाज़ में तेरा कहा नहीं किया मुझ को ये होश ही न था तू मिरे बाज़ुओं में है या'नी तुझे अभी तलक मैं ने रिहा नहीं किया तू भी किसी के बाब में अहद-शिकन हो ग़ालिबन मैं ने भी एक शख़्स का क़र्ज़ अदा नहीं किया हाँ वो निगाह-ए-नाज़ भी अब नहीं माजरा-तलब हम ने भी अब की फ़स्ल में शोर बपा नहीं किया " kitne-aish-se-rahte-honge-kitne-itraate-honge-jaun-eliya-ghazals," कितने ऐश से रहते होंगे कितने इतराते होंगे जाने कैसे लोग वो होंगे जो उस को भाते होंगे शाम हुए ख़ुश-बाश यहाँ के मेरे पास आ जाते हैं मेरे बुझने का नज़्ज़ारा करने आ जाते होंगे वो जो न आने वाला है ना उस से मुझ को मतलब था आने वालों से क्या मतलब आते हैं आते होंगे उस की याद की बाद-ए-सबा में और तो क्या होता होगा यूँही मेरे बाल हैं बिखरे और बिखर जाते होंगे यारो कुछ तो ज़िक्र करो तुम उस की क़यामत बाँहों का वो जो सिमटते होंगे उन में वो तो मर जाते होंगे मेरा साँस उखड़ते ही सब बैन करेंगे रोएँगे या'नी मेरे बा'द भी या'नी साँस लिए जाते होंगे " jii-hii-jii-men-vo-jal-rahii-hogii-jaun-eliya-ghazals," जी ही जी में वो जल रही होगी चाँदनी में टहल रही होगी चाँद ने तान ली है चादर-ए-अब्र अब वो कपड़े बदल रही होगी सो गई होगी वो शफ़क़-अंदाम सब्ज़ क़िंदील जल रही होगी सुर्ख़ और सब्ज़ वादियों की तरफ़ वो मिरे साथ चल रही होगी चढ़ते चढ़ते किसी पहाड़ी पर अब वो करवट बदल रही होगी पेड़ की छाल से रगड़ खा कर वो तने से फिसल रही होगी नील-गूँ झील नाफ़ तक पहने संदलीं जिस्म मल रही होगी हो के वो ख़्वाब-ए-ऐश से बेदार कितनी ही देर शल रही होगी " ab-vo-ghar-ik-viiraana-thaa-bas-viiraana-zinda-thaa-jaun-eliya-ghazals," अब वो घर इक वीराना था बस वीराना ज़िंदा था सब आँखें दम तोड़ चुकी थीं और मैं तन्हा ज़िंदा था सारी गली सुनसान पड़ी थी बाद-ए-फ़ना के पहरे में हिज्र के दालान और आँगन में बस इक साया ज़िंदा था वो जो कबूतर उस मूखे में रहते थे किस देस उड़े एक का नाम नवाज़िंदा था और इक का बाज़िंदा था वो दोपहर अपनी रुख़्सत की ऐसा-वैसा धोका थी अपने अंदर अपनी लाश उठाए मैं झूटा ज़िंदा था थीं वो घर रातें भी कहानी वा'दे और फिर दिन गिनना आना था जाने वाले को जाने वाला ज़िंदा था दस्तक देने वाले भी थे दस्तक सुनने वाले भी था आबाद मोहल्ला सारा हर दरवाज़ा ज़िंदा था पीले पत्तों को सह-पहर की वहशत पुर्सा देती थी आँगन में इक औंधे घड़े पर बस इक कव्वा ज़िंदा था " khuub-hai-shauq-kaa-ye-pahluu-bhii-jaun-eliya-ghazals," ख़ूब है शौक़ का ये पहलू भी मैं भी बरबाद हो गया तू भी हुस्न-ए-मग़मूम तमकनत में तिरी फ़र्क़ आया न यक-सर-ए-मू भी ये न सोचा था ज़ेर-ए-साया-ए-ज़ुल्फ़ कि बिछड़ जाएगी ये ख़ुश-बू भी हुस्न कहता था छेड़ने वाले छेड़ना ही तो बस नहीं छू भी हाए वो उस का मौज-ख़ेज़ बदन मैं तो प्यासा रहा लब-ए-जू भी याद आते हैं मो'जिज़े अपने और उस के बदन का जादू भी यासमीं उस की ख़ास महरम-ए-राज़ याद आया करेगी अब तू भी याद से उस की है मिरा परहेज़ ऐ सबा अब न आइयो तू भी हैं यही 'जौन-एलिया' जो कभी सख़्त मग़रूर भी थे बद-ख़ू भी " siina-dahak-rahaa-ho-to-kyaa-chup-rahe-koii-jaun-eliya-ghazals," सीना दहक रहा हो तो क्या चुप रहे कोई क्यूँ चीख़ चीख़ कर न गला छील ले कोई साबित हुआ सुकून-ए-दिल-ओ-जाँ कहीं नहीं रिश्तों में ढूँढता है तो ढूँडा करे कोई तर्क-ए-तअल्लुक़ात कोई मसअला नहीं ये तो वो रास्ता है कि बस चल पड़े कोई दीवार जानता था जिसे मैं वो धूल थी अब मुझ को ए'तिमाद की दावत न दे कोई मैं ख़ुद ये चाहता हूँ कि हालात हूँ ख़राब मेरे ख़िलाफ़ ज़हर उगलता फिरे कोई ऐ शख़्स अब तो मुझ को सभी कुछ क़ुबूल है ये भी क़ुबूल है कि तुझे छीन ले कोई हाँ ठीक है मैं अपनी अना का मरीज़ हूँ आख़िर मिरे मिज़ाज में क्यूँ दख़्ल दे कोई इक शख़्स कर रहा है अभी तक वफ़ा का ज़िक्र काश उस ज़बाँ-दराज़ का मुँह नोच ले कोई " haalat-e-haal-ke-sabab-haalat-e-haal-hii-gaii-jaun-eliya-ghazals," हालत-ए-हाल के सबब हालत-ए-हाल ही गई शौक़ में कुछ नहीं गया शौक़ की ज़िंदगी गई तेरा फ़िराक़ जान-ए-जाँ ऐश था क्या मिरे लिए या'नी तिरे फ़िराक़ में ख़ूब शराब पी गई तेरे विसाल के लिए अपने कमाल के लिए हालत-ए-दिल कि थी ख़राब और ख़राब की गई उस की उमीद-ए-नाज़ का हम से ये मान था कि आप उम्र गुज़ार दीजिए उम्र गुज़ार दी गई एक ही हादसा तो है और वो ये कि आज तक बात नहीं कही गई बात नहीं सुनी गई बा'द भी तेरे जान-ए-जाँ दिल में रहा अजब समाँ याद रही तिरी यहाँ फिर तिरी याद भी गई उस के बदन को दी नुमूद हम ने सुख़न में और फिर उस के बदन के वास्ते एक क़बा भी सी गई मीना-ब-मीना मय-ब-मय जाम-ब-जाम जम-ब-जम नाफ़-पियाले की तिरे याद अजब सही गई कहनी है मुझ को एक बात आप से या'नी आप से आप के शहर-ए-वस्ल में लज़्ज़त-ए-हिज्र भी गई सेहन-ए-ख़याल-ए-यार में की न बसर शब-ए-फ़िराक़ जब से वो चाँदना गया जब से वो चाँदनी गई " zindagii-kyaa-hai-ik-kahaanii-hai-jaun-eliya-ghazals," ज़िंदगी क्या है इक कहानी है ये कहानी नहीं सुनानी है है ख़ुदा भी अजीब या'नी जो न ज़मीनी न आसमानी है है मिरे शौक़-ए-वस्ल को ये गिला उस का पहलू सरा-ए-फ़ानी है अपनी तामीर-ए-जान-ओ-दिल के लिए अपनी बुनियाद हम को ढानी है ये है लम्हों का एक शहर-ए-अज़ल याँ की हर बात ना-गहानी है चलिए ऐ जान-ए-शाम आज तुम्हें शम्अ इक क़ब्र पर जलानी है रंग की अपनी बात है वर्ना आख़िरश ख़ून भी तो पानी है इक अबस का वजूद है जिस से ज़िंदगी को मुराद पानी है शाम है और सहन में दिल के इक अजब हुज़न-ए-आसमानी है " be-dilii-kyaa-yuunhii-din-guzar-jaaenge-jaun-eliya-ghazals," बे-दिली क्या यूँही दिन गुज़र जाएँगे सिर्फ़ ज़िंदा रहे हम तो मर जाएँगे रक़्स है रंग पर रंग हम-रक़्स हैं सब बिछड़ जाएँगे सब बिखर जाएँगे ये ख़राबातियान-ए-ख़िरद-बाख़्ता सुब्ह होते ही सब काम पर जाएँगे कितनी दिलकश हो तुम कितना दिल-जू हूँ मैं क्या सितम है कि हम लोग मर जाएँगे है ग़नीमत कि असरार-ए-हस्ती से हम बे-ख़बर आए हैं बे-ख़बर जाएँगे " chalo-baad-e-bahaarii-jaa-rahii-hai-jaun-eliya-ghazals," चलो बाद-ए-बहारी जा रही है पिया-जी की सवारी जा रही है शुमाल-ए-जावेदान-ए-सब्ज़-ए-जाँ से तमन्ना की अमारी जा रही है फ़ुग़ाँ ऐ दुश्मन-ए-दार-ए-दिल-ओ-जाँ मिरी हालत सुधारी जा रही है है पहलू में टके की इक हसीना तिरी फ़ुर्क़त गुज़ारी जा रही है जो इन रोज़ों मिरा ग़म है वो ये है कि ग़म से बुर्दबारी जा रही है है सीने में अजब इक हश्र बरपा कि दिल से बे-क़रारी जा रही है मैं पैहम हार कर ये सोचता हूँ वो क्या शय है जो हारी जा रही है दिल उस के रू-ब-रू है और गुम-सुम कोई अर्ज़ी गुज़ारी जा रही है वो सय्यद बच्चा हो और शैख़ के साथ मियाँ इज़्ज़त हमारी जा रही है है बरपा हर गली में शोर-ए-नग़्मा मिरी फ़रियाद मारी जा रही है वो याद अब हो रही है दिल से रुख़्सत मियाँ प्यारों की प्यारी जा रही है दरेग़ा तेरी नज़दीकी मियाँ-जान तिरी दूरी पे वारी जा रही है बहुत बद-हाल हैं बस्ती तिरे लोग तो फिर तू क्यूँ सँवारी जा रही है तिरी मरहम-निगाही ऐ मसीहा ख़राश-ए-दिल पे वारी जा रही है ख़राबे में अजब था शोर बरपा दिलों से इंतिज़ारी जा रही है " sharmindagii-hai-ham-ko-bahut-ham-mile-tumhen-jaun-eliya-ghazals," शर्मिंदगी है हम को बहुत हम मिले तुम्हें तुम सर-ब-सर ख़ुशी थे मगर ग़म मिले तुम्हें मैं अपने आप में न मिला इस का ग़म नहीं ग़म तो ये है कि तुम भी बहुत कम मिले तुम्हें है जो हमारा एक हिसाब उस हिसाब से आती है हम को शर्म कि पैहम मिले तुम्हें तुम को जहान-ए-शौक़-ओ-तमन्ना में क्या मिला हम भी मिले तो दरहम ओ बरहम मिले तुम्हें अब अपने तौर ही में नहीं तुम सो काश कि ख़ुद में ख़ुद अपना तौर कोई दम मिले तुम्हें इस शहर-ए-हीला-जू में जो महरम मिले मुझे फ़रियाद जान-ए-जाँ वही महरम मिले तुम्हें देता हूँ तुम को ख़ुश्की-ए-मिज़्गाँ की मैं दुआ मतलब ये है कि दामन-ए-पुर-नम मिले तुम्हें मैं उन में आज तक कभी पाया नहीं गया जानाँ जो मेरे शौक़ के आलम मिले तुम्हें तुम ने हमारे दिल में बहुत दिन सफ़र किया शर्मिंदा हैं कि उस में बहुत ख़म मिले तुम्हें यूँ हो कि और ही कोई हव्वा मिले मुझे हो यूँ कि और ही कोई आदम मिले तुम्हें " aakhirii-baar-aah-kar-lii-hai-jaun-eliya-ghazals," आख़िरी बार आह कर ली है मैं ने ख़ुद से निबाह कर ली है अपने सर इक बला तो लेनी थी मैं ने वो ज़ुल्फ़ अपने सर ली है दिन भला किस तरह गुज़ारोगे वस्ल की शब भी अब गुज़र ली है जाँ-निसारों पे वार क्या करना मैं ने बस हाथ में सिपर ली है जो भी माँगो उधार दूँगा मैं उस गली में दुकान कर ली है मेरा कश्कोल कब से ख़ाली था मैं ने इस में शराब भर ली है और तो कुछ नहीं किया मैं ने अपनी हालत तबाह कर ली है शैख़ आया था मोहतसिब को लिए मैं ने भी उन की वो ख़बर ली है " umr-guzregii-imtihaan-men-kyaa-jaun-eliya-ghazals," उम्र गुज़रेगी इम्तिहान में क्या दाग़ ही देंगे मुझ को दान में क्या मेरी हर बात बे-असर ही रही नक़्स है कुछ मिरे बयान में क्या मुझ को तो कोई टोकता भी नहीं यही होता है ख़ानदान में क्या अपनी महरूमियाँ छुपाते हैं हम ग़रीबों की आन-बान में क्या ख़ुद को जाना जुदा ज़माने से आ गया था मिरे गुमान में क्या शाम ही से दुकान-ए-दीद है बंद नहीं नुक़सान तक दुकान में क्या ऐ मिरे सुब्ह-ओ-शाम-ए-दिल की शफ़क़ तू नहाती है अब भी बान में क्या बोलते क्यूँ नहीं मिरे हक़ में आबले पड़ गए ज़बान में क्या ख़ामुशी कह रही है कान में क्या आ रहा है मिरे गुमान में क्या दिल कि आते हैं जिस को ध्यान बहुत ख़ुद भी आता है अपने ध्यान में क्या वो मिले तो ये पूछना है मुझे अब भी हूँ मैं तिरी अमान में क्या यूँ जो तकता है आसमान को तू कोई रहता है आसमान में क्या है नसीम-ए-बहार गर्द-आलूद ख़ाक उड़ती है उस मकान में क्या ये मुझे चैन क्यूँ नहीं पड़ता एक ही शख़्स था जहान में क्या " tuu-bhii-chup-hai-main-bhii-chup-huun-ye-kaisii-tanhaaii-hai-jaun-eliya-ghazals," तू भी चुप है मैं भी चुप हूँ ये कैसी तन्हाई है तेरे साथ तिरी याद आई क्या तू सच-मुच आई है शायद वो दिन पहला दिन था पलकें बोझल होने का मुझ को देखते ही जब उस की अंगड़ाई शर्माई है उस दिन पहली बार हुआ था मुझ को रिफ़ाक़त का एहसास जब उस के मल्बूस की ख़ुश्बू घर पहुँचाने आई है हुस्न से अर्ज़-ए-शौक़ न करना हुस्न को ज़क पहुँचाना है हम ने अर्ज़-ए-शौक़ न कर के हुस्न को ज़क पहुँचाई है हम को और तो कुछ नहीं सूझा अलबत्ता उस के दिल में सोज़-ए-रक़ाबत पैदा कर के उस की नींद उड़ाई है हम दोनों मिल कर भी दिलों की तन्हाई में भटकेंगे पागल कुछ तो सोच ये तू ने कैसी शक्ल बनाई है इशक़-ए-पेचाँ की संदल पर जाने किस दिन बेल चढ़े क्यारी में पानी ठहरा है दीवारों पर काई है हुस्न के जाने कितने चेहरे हुस्न के जाने कितने नाम इश्क़ का पेशा हुस्न-परस्ती इश्क़ बड़ा हरजाई है आज बहुत दिन बा'द मैं अपने कमरे तक आ निकला था जूँ ही दरवाज़ा खोला है उस की ख़ुश्बू आई है एक तो इतना हब्स है फिर मैं साँसें रोके बैठा हूँ वीरानी ने झाड़ू दे के घर में धूल उड़ाई है " ham-to-jaise-vahaan-ke-the-hii-nahiin-jaun-eliya-ghazals," हम तो जैसे वहाँ के थे ही नहीं बे-अमाँ थे अमाँ के थे ही नहीं हम कि हैं तेरी दास्ताँ यकसर हम तिरी दास्ताँ के थे ही नहीं उन को आँधी में ही बिखरना था बाल ओ पर आशियाँ के थे ही नहीं अब हमारा मकान किस का है हम तो अपने मकाँ के थे ही नहीं हो तिरी ख़ाक-ए-आस्ताँ पे सलाम हम तिरे आस्ताँ के थे ही नहीं हम ने रंजिश में ये नहीं सोचा कुछ सुख़न तो ज़बाँ के थे ही नहीं दिल ने डाला था दरमियाँ जिन को लोग वो दरमियाँ के थे ही नहीं उस गली ने ये सुन के सब्र किया जाने वाले यहाँ के थे ही नहीं " apnaa-khaaka-lagtaa-huun-jaun-eliya-ghazals," अपना ख़ाका लगता हूँ एक तमाशा लगता हूँ आईनों को ज़ंग लगा अब मैं कैसा लगता हूँ अब मैं कोई शख़्स नहीं उस का साया लगता हूँ सारे रिश्ते तिश्ना हैं क्या मैं दरिया लगता हूँ उस से गले मिल कर ख़ुद को तन्हा तन्हा लगता हूँ ख़ुद को मैं सब आँखों में धुँदला धुँदला लगता हूँ मैं हर लम्हा इस घर से जाने वाला लगता हूँ क्या हुए वो सब लोग कि मैं सूना सूना लगता हूँ मस्लहत इस में क्या है मेरी टूटा फूटा लगता हूँ क्या तुम को इस हाल में भी मैं दुनिया का लगता हूँ कब का रोगी हूँ वैसे शहर-ए-मसीहा लगता हूँ मेरा तालू तर कर दो सच-मुच प्यासा लगता हूँ मुझ से कमा लो कुछ पैसे ज़िंदा मुर्दा लगता हूँ मैं ने सहे हैं मक्र अपने अब बेचारा लगता हूँ " ek-hii-muzhda-subh-laatii-hai-jaun-eliya-ghazals," एक ही मुज़्दा सुब्ह लाती है धूप आँगन में फैल जाती है रंग-ए-मौसम है और बाद-ए-सबा शहर कूचों में ख़ाक उड़ाती है फ़र्श पर काग़ज़ उड़ते फिरते हैं मेज़ पर गर्द जमती जाती है सोचता हूँ कि उस की याद आख़िर अब किसे रात भर जगाती है मैं भी इज़्न-ए-नवा-गरी चाहूँ बे-दिली भी तो लब हिलाती है सो गए पेड़ जाग उठी ख़ुश्बू ज़िंदगी ख़्वाब क्यूँ दिखाती है उस सरापा वफ़ा की फ़ुर्क़त में ख़्वाहिश-ए-ग़ैर क्यूँ सताती है आप अपने से हम-सुख़न रहना हम-नशीं साँस फूल जाती है क्या सितम है कि अब तिरी सूरत ग़ौर करने पे याद आती है कौन इस घर की देख-भाल करे रोज़ इक चीज़ टूट जाती है " aadmii-vaqt-par-gayaa-hogaa-jaun-eliya-ghazals," आदमी वक़्त पर गया होगा वक़्त पहले गुज़र गया होगा वो हमारी तरफ़ न देख के भी कोई एहसान धर गया होगा ख़ुद से मायूस हो के बैठा हूँ आज हर शख़्स मर गया होगा शाम तेरे दयार में आख़िर कोई तो अपने घर गया होगा मरहम-ए-हिज्र था अजब इक्सीर अब तो हर ज़ख़्म भर गया होगा " ghar-se-ham-ghar-talak-gae-honge-jaun-eliya-ghazals," घर से हम घर तलक गए होंगे अपने ही आप तक गए होंगे हम जो अब आदमी हैं पहले कभी जाम होंगे छलक गए होंगे वो भी अब हम से थक गया होगा हम भी अब उस से थक गए होंगे शब जो हम से हुआ मुआ'फ़ करो नहीं पी थी बहक गए होंगे कितने ही लोग हिर्स-ए-शोहरत में दार पर ख़ुद लटक गए होंगे शुक्र है इस निगाह-ए-कम का मियाँ पहले ही हम खटक गए होंगे हम तो अपनी तलाश में अक्सर अज़ समा-ता-समक गए होंगे उस का लश्कर जहाँ-तहाँ या'नी हम भी बस बे-कुमक गए होंगे 'जौन' अल्लाह और ये आलम बीच में हम अटक गए होंगे " gaahe-gaahe-bas-ab-yahii-ho-kyaa-jaun-eliya-ghazals," गाहे गाहे बस अब यही हो क्या तुम से मिल कर बहुत ख़ुशी हो क्या मिल रही हो बड़े तपाक के साथ मुझ को यकसर भुला चुकी हो क्या याद हैं अब भी अपने ख़्वाब तुम्हें मुझ से मिल कर उदास भी हो क्या बस मुझे यूँही इक ख़याल आया सोचती हो तो सोचती हो क्या अब मिरी कोई ज़िंदगी ही नहीं अब भी तुम मेरी ज़िंदगी हो क्या क्या कहा इश्क़ जावेदानी है! आख़िरी बार मिल रही हो क्या हाँ फ़ज़ा याँ की सोई सोई सी है तो बहुत तेज़ रौशनी हो क्या मेरे सब तंज़ बे-असर ही रहे तुम बहुत दूर जा चुकी हो क्या दिल में अब सोज़-ए-इंतिज़ार नहीं शम-ए-उम्मीद बुझ गई हो क्या इस समुंदर पे तिश्ना-काम हूँ मैं बान तुम अब भी बह रही हो क्या " khud-apne-dil-men-kharaashen-utaarnaa-hongii-mohsin-naqvi-ghazals," ख़ुद अपने दिल में ख़राशें उतारना होंगी अभी तो जाग के रातें गुज़ारना होंगी तिरे लिए मुझे हँस हँस के बोलना होगा मिरे लिए तुझे ज़ुल्फ़ें सँवारना होंगी तिरी सदा से तुझी को तराशना होगा हवा की चाप से शक्लें उभारना होंगी अभी तो तेरी तबीअ'त को जीतने के लिए दिल ओ निगाह की शर्तें भी हारना होंगी तिरे विसाल की ख़्वाहिश के तेज़ रंगों से तिरे फ़िराक़ की सुब्हें निखारना होंगी ये शाइ'री ये किताबें ये आयतें दिल की निशानियाँ ये सभी तुझ पे वारना होंगी " jab-se-us-ne-shahr-ko-chhodaa-har-rasta-sunsaan-huaa-mohsin-naqvi-ghazals," जब से उस ने शहर को छोड़ा हर रस्ता सुनसान हुआ अपना क्या है सारे शहर का इक जैसा नुक़सान हुआ ये दिल ये आसेब की नगरी मस्कन सोचूँ वहमों का सोच रहा हूँ इस नगरी में तू कब से मेहमान हुआ सहरा की मुँह-ज़ोर हवाएँ औरों से मंसूब हुईं मुफ़्त में हम आवारा ठहरे मुफ़्त में घर वीरान हुआ मेरे हाल पे हैरत कैसी दर्द के तन्हा मौसम में पत्थर भी रो पड़ते हैं इंसान तो फिर इंसान हुआ इतनी देर में उजड़े दिल पर कितने महशर बीत गए जितनी देर में तुझ को पा कर खोने का इम्कान हुआ कल तक जिस के गिर्द था रक़्साँ इक अम्बोह सितारों का आज उसी को तन्हा पा कर मैं तो बहुत हैरान हुआ उस के ज़ख़्म छुपा कर रखिए ख़ुद उस शख़्स की नज़रों से उस से कैसा शिकवा कीजे वो तो अभी नादान हुआ जिन अश्कों की फीकी लौ को हम बे-कार समझते थे उन अश्कों से कितना रौशन इक तारीक मकान हुआ यूँ भी कम-आमेज़ था 'मोहसिन' वो इस शहर के लोगों में लेकिन मेरे सामने आ कर और भी कुछ अंजान हुआ " ham-jo-pahunche-sar-e-maqtal-to-ye-manzar-dekhaa-mohsin-naqvi-ghazals," हम जो पहुँचे सर-ए-मक़्तल तो ये मंज़र देखा सब से ऊँचा था जो सर नोक-ए-सिनाँ पर देखा हम से मत पूछ कि कब चाँद उभरता है यहाँ हम ने सूरज भी तिरे शहर में आ कर देखा ऐसे लिपटे हैं दर-ओ-बाम से अब के जैसे हादसों ने बड़ी मुद्दत में मिरा घर देखा अब ये सोचा है कि औरों का कहा मानेंगे अपनी आँखों पे भरोसा तो बहुत कर देखा एक इक पल में उतरता रहा सदियों का अज़ाब हिज्र की रात गुज़ारी है कि महशर देखा मुझ से मत पूछ मिरी तिश्ना-लबी के तेवर रेत चमकी तो ये समझो कि समुंदर देखा दुख ही ऐसा था कि 'मोहसिन' हुआ गुम-सुम वर्ना ग़म छुपा कर उसे हँसते हुए अक्सर देखा " azaab-e-diid-men-aankhen-lahuu-lahuu-kar-ke-mohsin-naqvi-ghazals," अज़ाब-ए-दीद में आँखें लहू लहू कर के मैं शर्मसार हुआ तेरी जुस्तुजू कर के खंडर की तह से बुरीदा-बदन सरों के सिवा मिला न कुछ भी ख़ज़ानों की आरज़ू कर के सुना है शहर में ज़ख़्मी दिलों का मेला है चलेंगे हम भी मगर पैरहन रफ़ू कर के मसाफ़त-ए-शब-ए-हिज्राँ के बा'द भेद खुला हवा दुखी है चराग़ों की आबरू कर के ज़मीं की प्यास उसी के लहू को चाट गई वो ख़ुश हुआ था समुंदर को आबजू कर के ये किस ने हम से लहू का ख़िराज फिर माँगा अभी तो सोए थे मक़्तल को सुर्ख़-रू कर के जुलूस-ए-अहल-ए-वफ़ा किस के दर पे पहुँचा है निशान-ए-तौक़-ए-वफ़ा ज़ीनत-ए-गुलू कर के उजाड़ रुत को गुलाबी बनाए रखती है हमारी आँख तिरी दीद से वुज़ू कर के कोई तो हब्स-ए-हवा से ये पूछता 'मोहसिन' मिला है क्या उसे कलियों को बे-नुमू कर के " zakhm-ke-phuul-se-taskiin-talab-kartii-hai-mohsin-naqvi-ghazals," ज़ख़्म के फूल से तस्कीन तलब करती है बाज़ औक़ात मिरी रूह ग़ज़ब करती है जो तिरी ज़ुल्फ़ से उतरे हों मिरे आँगन में चाँदनी ऐसे अँधेरों का अदब करती है अपने इंसाफ़ की ज़ंजीर न देखो कि यहाँ मुफ़्लिसी ज़ेहन की फ़रियाद भी कब करती है सेहन-ए-गुलशन में हवाओं की सदा ग़ौर से सुन हर कली मातम-ए-सद-जश्न-ए-तरब करती है सिर्फ़ दिन ढलने पे मौक़ूफ़ नहीं है 'मोहसिन' ज़िंदगी ज़ुल्फ़ के साए में भी शब करती है " khumaar-e-mausam-e-khushbuu-had-e-chaman-men-khulaa-mohsin-naqvi-ghazals," ख़ुमार-ए-मौसम-ए-ख़ुश्बू हद-ए-चमन में खुला मिरी ग़ज़ल का ख़ज़ाना तिरे बदन में खुला तुम उस का हुस्न कभी उस की बज़्म में देखो कि माहताब सदा शब के पैरहन में खुला अजब नशा था मगर उस की बख़्शिश-ए-लब में कि यूँ तो हम से भी क्या क्या न वो सुख़न में खुला न पूछ पहली मुलाक़ात में मिज़ाज उस का वो रंग रंग में सिमटा किरन किरन में खुला बदन की चाप निगह की ज़बाँ भी होती है ये भेद हम पे मगर उस की अंजुमन में खुला कि जैसे अब्र हवा की गिरह से खुल जाए सफ़र की शाम मिरा मेहरबाँ थकन में खुला कहूँ मैं किस से निशानी थी किस मसीहा की वो एक ज़ख़्म कि 'मोहसिन' मिरे कफ़न में खुला " ashk-apnaa-ki-tumhaaraa-nahiin-dekhaa-jaataa-mohsin-naqvi-ghazals," अश्क अपना कि तुम्हारा नहीं देखा जाता अब्र की ज़द में सितारा नहीं देखा जाता अपनी शह-ए-रग का लहू तन में रवाँ है जब तक ज़ेर-ए-ख़ंजर कोई प्यारा नहीं देखा जाता मौज-दर-मौज उलझने की हवस बे-मा'नी डूबता हो तो सहारा नहीं देखा जाता तेरे चेहरे की कशिश थी कि पलट कर देखा वर्ना सूरज तो दोबारा नहीं देखा जाता आग की ज़िद पे न जा फिर से भड़क सकती है राख की तह में शरारा नहीं देखा जाता ज़ख़्म आँखों के भी सहते थे कभी दिल वाले अब तो अबरू का इशारा नहीं देखा जाता क्या क़यामत है कि दिल जिस का नगर है 'मोहसिन' दिल पे उस का भी इजारा नहीं देखा जाता " har-ek-shab-yuunhii-dekhengii-suu-e-dar-aankhen-mohsin-naqvi-ghazals," हर एक शब यूँही देखेंगी सू-ए-दर आँखें तुझे गँवा के न सोएँगी उम्र-भर आँखें तुलू-ए-सुब्ह से पहले ही बुझ न जाएँ कहीं ये दश्त-ए-शब में सितारों की हम-सफ़र आँखें सितम ये कम तो नहीं दिल गिरफ़्तगी के लिए मैं शहर भर में अकेला इधर-उधर आँखें शुमार उस की सख़ावत का क्या करें कि वो शख़्स चराग़ बाँटता फिरता है छीन कर आँखें मैं ज़ख़्म ज़ख़्म हुआ जब तो मुझ पे भेद खुला कि पत्थरों को समझती रहीं गुहर आँखें मैं अपने अश्क सँभालूँगा कब तलक 'मोहसिन' ज़माना संग-ब-कफ़ है तो शीशागर आँखें " ye-kah-gae-hain-musaafir-lute-gharon-vaale-mohsin-naqvi-ghazals," ये कह गए हैं मुसाफ़िर लुटे घरों वाले डरें हवा से परिंदे खुले परों वाले ये मेरे दिल की हवस दश्त-ए-बे-कराँ जैसी वो तेरी आँख के तेवर समुंदरों वाले हवा के हाथ में कासे हैं ज़र्द पत्तों के कहाँ गए वो सख़ी सब्ज़ चादरों वाले कहाँ मिलेंगे वो अगले दिनों के शहज़ादे पहन के तन पे लिबादे गदागरों वाले पहाड़ियों में घिरे ये बुझे बुझे रस्ते कभी इधर से गुज़रते थे लश्करों वाले उन्ही पे हो कभी नाज़िल अज़ाब आग अजल वही नगर कभी ठहरें पयम्बरों वाले तिरे सुपुर्द करूँ आईने मुक़द्दर के इधर तो आ मिरे ख़ुश-रंग पत्थरों वाले किसी को देख के चुप चुप से क्यूँ हुए 'मोहसिन' कहाँ गए वो इरादे सुख़न-वरों वाले " jab-hijr-ke-shahr-men-dhuup-utrii-main-jaag-padaa-to-khvaab-huaa-mohsin-naqvi-ghazals," जब हिज्र के शहर में धूप उतरी मैं जाग पड़ा तो ख़्वाब हुआ मिरी सोच ख़िज़ाँ की शाख़ बनी तिरा चेहरा और गुलाब हुआ बर्फ़ीली रुत की तेज़ हवा क्यूँ झील में कंकर फेंक गई इक आँख की नींद हराम हुई इक चाँद का अक्स ख़राब हुआ तिरे हिज्र में ज़ेहन पिघलता था तिरे क़ुर्ब में आँखें जलती हैं तुझे खोना एक क़यामत था तिरा मिलना और अज़ाब हुआ भरे शहर में एक ही चेहरा था जिसे आज भी गलियाँ ढूँडती हैं किसी सुब्ह उसी की धूप खिली किसी रात वही महताब हुआ बड़ी उम्र के बा'द इन आँखों में कोई अब्र उतरा तिरी यादों का मिरे दिल की ज़मीं आबाद हुई मिरे ग़म का नगर शादाब हुआ कभी वस्ल में 'मोहसिन' दिल टूटा कभी हिज्र की रुत ने लाज रखी किसी जिस्म में आँखें खो बैठे कोई चेहरा खुली किताब हुआ " kis-ne-sang-e-khaamoshii-phenkaa-bhare-baazaar-par-mohsin-naqvi-ghazals," किस ने संग-ए-ख़ामुशी फेंका भरे-बाज़ार पर इक सुकूत-ए-मर्ग तारी है दर-ओ-दीवार पर तू ने अपनी ज़ुल्फ़ के साए में अफ़्साने कहे मुझ को ज़ंजीरें मिली हैं जुरअत-ए-इज़हार पर शाख़-ए-उरियाँ पर खिला इक फूल इस अंदाज़ से जिस तरह ताज़ा लहू चमके नई तलवार पर संग-दिल अहबाब के दामन में रुस्वाई के फूल मैं ने देखा है नया मंज़र फ़राज़-ए-दार पर अब कोई तोहमत भी वज्ह-ए-कर्ब-ए-रुसवाई नहीं ज़िंदगी इक उम्र से चुप है तिरे इसरार पर मैं सर-ए-मक़्तल हदीस-ए-ज़िंदगी कहता रहा उँगलियाँ उठती रहीं 'मोहसिन' मिरे किरदार पर " ye-dil-ye-paagal-dil-miraa-kyuun-bujh-gayaa-aavaargii-mohsin-naqvi-ghazals," ये दिल ये पागल दिल मिरा क्यूँ बुझ गया आवारगी इस दश्त में इक शहर था वो क्या हुआ आवारगी कल शब मुझे बे-शक्ल की आवाज़ ने चौंका दिया मैं ने कहा तू कौन है उस ने कहा आवारगी लोगो भला इस शहर में कैसे जिएँगे हम जहाँ हो जुर्म तन्हा सोचना लेकिन सज़ा आवारगी ये दर्द की तन्हाइयाँ ये दश्त का वीराँ सफ़र हम लोग तो उक्ता गए अपनी सुना आवारगी इक अजनबी झोंके ने जब पूछा मिरे ग़म का सबब सहरा की भीगी रेत पर मैं ने लिखा आवारगी उस सम्त वहशी ख़्वाहिशों की ज़द में पैमान-ए-वफ़ा उस सम्त लहरों की धमक कच्चा घड़ा आवारगी कल रात तन्हा चाँद को देखा था मैं ने ख़्वाब में 'मोहसिन' मुझे रास आएगी शायद सदा आवारगी " itnii-muddat-baad-mile-ho-mohsin-naqvi-ghazals," इतनी मुद्दत बा'द मिले हो किन सोचों में गुम फिरते हो इतने ख़ाइफ़ क्यूँ रहते हो हर आहट से डर जाते हो तेज़ हवा ने मुझ से पूछा रेत पे क्या लिखते रहते हो काश कोई हम से भी पूछे रात गए तक क्यूँ जागे हो में दरिया से भी डरता हूँ तुम दरिया से भी गहरे हो कौन सी बात है तुम में ऐसी इतने अच्छे क्यूँ लगते हो पीछे मुड़ कर क्यूँ देखा था पत्थर बन कर क्या तकते हो जाओ जीत का जश्न मनाओ में झूटा हूँ तुम सच्चे हो अपने शहर के सब लोगों से मेरी ख़ातिर क्यूँ उलझे हो कहने को रहते हो दिल में फिर भी कितने दूर खड़े हो रात हमें कुछ याद नहीं था रात बहुत ही याद आए हो हम से न पूछो हिज्र के क़िस्से अपनी कहो अब तुम कैसे हो 'मोहसिन' तुम बदनाम बहुत हो जैसे हो फिर भी अच्छे हो " ab-ke-baarish-men-to-ye-kaar-e-ziyaan-honaa-hii-thaa-mohsin-naqvi-ghazals," अब के बारिश में तो ये कार-ए-ज़ियाँ होना ही था अपनी कच्ची बस्तियों को बे-निशाँ होना ही था किस के बस में था हवा की वहशतों को रोकना बर्ग-ए-गुल को ख़ाक शोले को धुआँ होना ही था जब कोई सम्त-ए-सफ़र तय थी न हद्द-ए-रहगुज़र ऐ मिरे रह-रौ सफ़र तो राएगाँ होना ही था मुझ को रुकना था उसे जाना था अगले मोड़ तक फ़ैसला ये उस के मेरे दरमियाँ होना ही था चाँद को चलना था बहती सीपियों के साथ साथ मो'जिज़ा ये भी तह-ए-आब-ए-रवाँ होना ही था मैं नए चेहरों पे कहता था नई ग़ज़लें सदा मेरी इस आदत से उस को बद-गुमाँ होना ही था शहर से बाहर की वीरानी बसाना थी मुझे अपनी तन्हाई पे कुछ तो मेहरबाँ होना ही था अपनी आँखें दफ़्न करना थीं ग़ुबार-ए-ख़ाक में ये सितम भी हम पे ज़ेर-ए-आसमाँ होना ही था बे-सदा बस्ती की रस्में थीं यही 'मोहसिन' मिरे मैं ज़बाँ रखता था मुझ को बे-ज़बाँ होना ही था " saanson-ke-is-hunar-ko-na-aasaan-khayaal-kar-mohsin-naqvi-ghazals," साँसों के इस हुनर को न आसाँ ख़याल कर ज़िंदा हूँ साअ'तों को मैं सदियों में ढाल कर माली ने आज कितनी दुआएँ वसूल कीं कुछ फूल इक फ़क़ीर की झोली में डाल कर कुल यौम-ए-हिज्र ज़र्द ज़मानों का यौम है शब भर न जाग मुफ़्त में आँखें न लाल कर ऐ गर्द-बाद लौट के आना है फिर मुझे रखना मिरे सफ़र की अज़िय्यत सँभाल कर मेहराब में दिए की तरह ज़िंदगी गुज़ार मुँह-ज़ोर आँधियों में न ख़ुद को निढाल कर शायद किसी ने बुख़्ल-ए-ज़मीं पर किया है तंज़ गहरे समुंदरों से जज़ीरे निकाल कर ये नक़्द-ए-जाँ कि इस का लुटाना तो सहल है गर बन पड़े तो इस से भी मुश्किल सवाल कर 'मोहसिन' बरहना-सर चली आई है शाम-ए-ग़म ग़ुर्बत न देख इस पे सितारों की शाल कर " ek-pal-men-zindagii-bhar-kii-udaasii-de-gayaa-mohsin-naqvi-ghazals," एक पल में ज़िंदगी भर की उदासी दे गया वो जुदा होते हुए कुछ फूल बासी दे गया नोच कर शाख़ों के तन से ख़ुश्क पत्तों का लिबास ज़र्द मौसम बाँझ-रुत को बे-लिबासी दे गया सुब्ह के तारे मिरी पहली दुआ तेरे लिए तू दिल-ए-बे-सब्र को तस्कीं ज़रा सी दे गया लोग मलबों में दबे साए भी दफ़नाने लगे ज़लज़ला अहल-ए-ज़मीं को बद-हवासी दे गया तुंद झोंके की रगों में घोल कर अपना धुआँ इक दिया अंधी हवा को ख़ुद-शनासी दे गया ले गया 'मोहसिन' वो मुझ से अब्र बनता आसमाँ उस के बदले में ज़मीं सदियों की प्यासी दे गया " ab-vo-tuufaan-hai-na-vo-shor-havaaon-jaisaa-mohsin-naqvi-ghazals," अब वो तूफ़ाँ है न वो शोर हवाओं जैसा दिल का आलम है तिरे बा'द ख़लाओं जैसा काश दुनिया मिरे एहसास को वापस कर दे ख़ामुशी का वही अंदाज़ सदाओं जैसा पास रह कर भी हमेशा वो बहुत दूर मिला उस का अंदाज़-ए-तग़ाफ़ुल था ख़ुदाओं जैसा कितनी शिद्दत से बहारों को था एहसास-ए-मआ'ल फूल खिल कर भी रहा ज़र्द ख़िज़ाओं जैसा क्या क़यामत है कि दुनिया उसे सरदार कहे जिस का अंदाज़-ए-सुख़न भी हो गदाओं जैसा फिर तिरी याद के मौसम ने जगाए महशर फिर मिरे दिल में उठा शोर हवाओं जैसा बारहा ख़्वाब में पा कर मुझे प्यासा 'मोहसिन' उस की ज़ुल्फ़ों ने किया रक़्स घटाओं जैसा " bhadkaaen-mirii-pyaas-ko-aksar-tirii-aankhen-mohsin-naqvi-ghazals," भड़काएँ मिरी प्यास को अक्सर तिरी आँखें सहरा मिरा चेहरा है समुंदर तिरी आँखें फिर कौन भला दाद-ए-तबस्सुम उन्हें देगा रोएँगी बहुत मुझ से बिछड़ कर तिरी आँखें ख़ाली जो हुई शाम-ए-ग़रीबाँ की हथेली क्या क्या न लुटाती रहीं गौहर तेरी आँखें बोझल नज़र आती हैं ब-ज़ाहिर मुझे लेकिन खुलती हैं बहुत दिल में उतर कर तिरी आँखें अब तक मिरी यादों से मिटाए नहीं मिटता भीगी हुई इक शाम का मंज़र तिरी आँखें मुमकिन हो तो इक ताज़ा ग़ज़ल और भी कह लूँ फिर ओढ़ न लें ख़्वाब की चादर तिरी आँखें मैं संग-सिफ़त एक ही रस्ते में खड़ा हूँ शायद मुझे देखेंगी पलट कर तिरी आँखें यूँ देखते रहना उसे अच्छा नहीं 'मोहसिन' वो काँच का पैकर है तो पत्थर तिरी आँखें " saare-lahje-tire-be-zamaan-ek-main-mohsin-naqvi-ghazals," सारे लहजे तिरे बे-ज़माँ एक मैं इस भरे शहर में राएगाँ एक मैं वस्ल के शहर की रौशनी एक तू हिज्र के दश्त में कारवाँ एक मैं बिजलियों से भरी बारिशें ज़ोर पर अपनी बस्ती में कच्चा मकाँ एक मैं हसरतों से अटे आसमाँ के तले जलती-बुझती हुई कहकशाँ एक मैं मुझ को फ़ारिग़ दिनों की अमानत समझ भूली-बिसरी हुई दास्ताँ एक मैं रौनक़ें शोर मेले झमेले तिरे अपनी तन्हाई का राज़-दाँ एक मैं एक मैं अपनी ही ज़िंदगी का भरम अपनी ही मौत पर नौहा-ख़्वाँ एक मैं उस तरफ़ संग-बारी हर इक बाम से इस तरफ़ आइनों की दुकाँ एक मैं वो नहीं है तो 'मोहसिन' ये मत सोचना अब भटकता फिरूंगा कहाँ एक मैं " vo-dilaavar-jo-siyah-shab-ke-shikaarii-nikle-mohsin-naqvi-ghazals," वो दिलावर जो सियह शब के शिकारी निकले वो भी चढ़ते हुए सूरज के पुजारी निकले सब के होंटों पे मिरे बा'द हैं बातें मेरी मेरे दुश्मन मिरे लफ़्ज़ों के भिकारी निकले इक जनाज़ा उठा मक़्तल में अजब शान के साथ जैसे सज कर किसी फ़ातेह की सवारी निकले हम को हर दौर की गर्दिश ने सलामी दी है हम वो पत्थर हैं जो हर दौर में भारी निकले अक्स कोई हो ख़द-ओ-ख़ाल तुम्हारे देखूँ बज़्म कोई हो मगर बात तुम्हारी निकले अपने दुश्मन से मैं बे-वज्ह ख़फ़ा था 'मोहसिन' मेरे क़ातिल तो मिरे अपने हवारी निकले " main-dil-pe-jabr-karuungaa-tujhe-bhulaa-duungaa-mohsin-naqvi-ghazals," मैं दिल पे जब्र करूँगा तुझे भुला दूँगा मरूँगा ख़ुद भी तुझे भी कड़ी सज़ा दूँगा ये तीरगी मिरे घर का ही क्यूँ मुक़द्दर हो मैं तेरे शहर के सारे दिए बुझा दूँगा हवा का हाथ बटाऊँगा हर तबाही में हरे शजर से परिंदे मैं ख़ुद उड़ा दूँगा वफ़ा करूँगा किसी सोगवार चेहरे से पुरानी क़ब्र पे कतबा नया सजा दूँगा इसी ख़याल में गुज़री है शाम-ए-दर्द अक्सर कि दर्द हद से बढ़ेगा तो मुस्कुरा दूँगा तू आसमान की सूरत है गर पड़ेगा कभी ज़मीं हूँ मैं भी मगर तुझ को आसरा दूँगा बढ़ा रही हैं मिरे दुख निशानियाँ तेरी मैं तेरे ख़त तिरी तस्वीर तक जला दूँगा बहुत दिनों से मिरा दिल उदास है 'मोहसिन' इस आइने को कोई अक्स अब नया दूँगा " ba-naam-e-taaqat-koii-ishaara-nahiin-chalegaa-mohsin-naqvi-ghazals," ब-नाम-ए-ताक़त कोई इशारा नहीं चलेगा उदास नस्लों पे अब इजारा नहीं चलेगा हम अपनी धरती से अपनी हर सम्त ख़ुद तलाशें हमारी ख़ातिर कोई सितारा नहीं चलेगा हयात अब शाम-ए-ग़म की तश्बीह ख़ुद बनेगी तुम्हारी ज़ुल्फ़ों का इस्तिआ'रा नहीं चलेगा चलो सरों का ख़िराज नोक-ए-सिनाँ को बख़्शें कि जाँ बचाने का इस्तिख़ारा नहीं चलेगा हमारे जज़्बे बग़ावतों को तराशते हैं हमारे जज़्बों पे बस तुम्हारा नहीं चलेगा अज़ल से क़ाएम हैं दोनों अपनी ज़िदों पे 'मोहसिन' चलेगा पानी मगर किनारा नहीं चलेगा " zabaan-rakhtaa-huun-lekin-chup-khadaa-huun-mohsin-naqvi-ghazals," ज़बाँ रखता हूँ लेकिन चुप खड़ा हूँ मैं आवाज़ों के बन में घिर गया हूँ मिरे घर का दरीचा पूछता है मैं सारा दिन कहाँ फिरता रहा हूँ मुझे मेरे सिवा सब लोग समझें मैं अपने आप से कम बोलता हूँ सितारों से हसद की इंतिहा है मैं क़ब्रों पर चराग़ाँ कर रहा हूँ सँभल कर अब हवाओं से उलझना मैं तुझ से पेश-तर बुझने लगा हूँ मिरी क़ुर्बत से क्यूँ ख़ाइफ़ है दुनिया समुंदर हूँ मैं ख़ुद में गूँजता हूँ मुझे कब तक समेटेगा वो 'मोहसिन' मैं अंदर से बहुत टूटा हुआ हूँ " agarche-main-ik-chataan-saa-aadmii-rahaa-huun-mohsin-naqvi-ghazals," अगरचे मैं इक चटान सा आदमी रहा हूँ मगर तिरे बा'द हौसला है कि जी रहा हूँ वो रेज़ा रेज़ा मिरे बदन में उतर रहा है मैं क़तरा क़तरा उसी की आँखों को पी रहा हूँ तिरी हथेली पे किस ने लिक्खा है क़त्ल मेरा मुझे तो लगता है मैं तिरा दोस्त भी रहा हूँ खुली हैं आँखें मगर बदन है तमाम पत्थर कोई बताए मैं मर चुका हूँ कि जी रहा हूँ कहाँ मिलेगी मिसाल मेरी सितमगरी की कि मैं गुलाबों के ज़ख़्म काँटों से सी रहा हूँ न पूछ मुझ से कि शहर वालों का हाल क्या था कि मैं तो ख़ुद अपने घर में भी दो घड़ी रहा हूँ मिला तो बीते दिनों का सच उस की आँख में था वो आश्ना जिस से मुद्दतों अजनबी रहा हूँ भुला दे मुझ को कि बेवफ़ाई बजा है लेकिन गँवा न मुझ को कि मैं तिरी ज़िंदगी रहा हूँ वो अजनबी बन के अब मिले भी तो क्या है 'मोहसिन' ये नाज़ कम है कि मैं भी उस का कभी रहा हूँ " aap-kii-aankh-se-gahraa-hai-mirii-ruuh-kaa-zakhm-mohsin-naqvi-ghazals," आप की आँख से गहरा है मिरी रूह का ज़ख़्म आप क्या सोच सकेंगे मिरी तन्हाई को मैं तो दम तोड़ रहा था मगर अफ़्सुर्दा हयात ख़ुद चली आई मिरी हौसला-अफ़ज़ाई को लज़्ज़त-ए-ग़म के सिवा तेरी निगाहों के बग़ैर कौन समझा है मिरे ज़ख़्म की गहराई को मैं बढ़ाऊँगा तिरी शोहरत-ए-ख़ुश्बू का निखार तू दुआ दे मिरे अफ़्साना-ए-रुसवाई को वो तो यूँ कहिए कि इक क़ौस-ए-क़ुज़ह फैल गई वर्ना मैं भूल गया था तिरी अंगड़ाई को " ajiib-khauf-musallat-thaa-kal-havelii-par-mohsin-naqvi-ghazals," अजीब ख़ौफ़ मुसल्लत था कल हवेली पर लहु चराग़ जलाती रही हथेली पर सुनेगा कौन मगर एहतिजाज ख़ुश्बू का कि साँप ज़हर छिड़कता रहा चमेली पर शब-ए-फ़िराक़ मिरी आँख को थकन से बचा कि नींद वार न कर दे तिरी सहेली पर वो बेवफ़ा था तो फिर इतना मेहरबाँ क्यूँ था बिछड़ के उस से मैं सोचूँ उसी पहेली पर जला न घर का अँधेरा चराग़ से 'मोहसिन' सितम न कर मिरी जाँ अपने यार बेली पर " main-chup-rahaa-ki-zahr-yahii-mujh-ko-raas-thaa-mohsin-naqvi-ghazals," मैं चुप रहा कि ज़हर यही मुझ को रास था वो संग-ए-लफ़्ज़ फेंक के कितना उदास था अक्सर मिरी क़बा पे हँसी आ गई जिसे कल मिल गया तो वो भी दरीदा-लिबास था मैं ढूँढता था दूर ख़लाओं में एक जिस्म चेहरों का इक हुजूम मिरे आस-पास था तुम ख़ुश थे पत्थरों को ख़ुदा जान के मगर मुझ को यक़ीन है वो तुम्हारा क़यास था बख़्शा है जिस ने रूह को ज़ख़्मों का पैरहन 'मोहसिन' वो शख़्स कितना तबीअत-शनास था " gazlon-kii-dhanak-odh-mire-shola-badan-tuu-mohsin-naqvi-ghazals," ग़ज़लों की धनक ओढ़ मिरे शो'ला-बदन तू है मेरा सुख़न तू मिरा मौज़ू-ए-सुख़न तू कलियों की तरह फूट सर-ए-शाख़-ए-तमन्ना ख़ुशबू की तरह फैल चमन-ता-ब-चमन तू नाज़िल हो कभी ज़ेहन पे आयात की सूरत आयात में ढल जा कभी जिबरील दहन तू अब क्यूँ न सजाऊँ मैं तुझे दीदा ओ दिल में लगता है अँधेरे में सवेरे की किरन तू पहले न कोई रम्ज़-ए-सुख़न थी न किनाया अब नुक़्ता-ए-तकमील-ए-हुनर मेहवर-ए-फ़न तू ये कम तो नहीं तू मिरा मेयार-ए-नज़र है ऐ दोस्त मिरे वास्ते कुछ और न बन तू मुमकिन हो तो रहने दे मुझे ज़ुल्मत-ए-जाँ में ढूँडेगा कहाँ चाँदनी रातों का कफ़न तू " fazaa-kaa-habs-shaguufon-ko-baas-kyaa-degaa-mohsin-naqvi-ghazals," फ़ज़ा का हब्स शगूफ़ों को बास क्या देगा बदन-दरीदा किसी को लिबास क्या देगा ये दिल कि क़हत-ए-अना से ग़रीब ठहरा है मिरी ज़बाँ को ज़र-ए-इल्तिमास क्या देगा जो दे सका न पहाड़ों को बर्फ़ की चादर वो मेरी बाँझ ज़मीं को कपास क्या देगा ये शहर यूँ भी तो दहशत भरा नगर है यहाँ दिलों का शोर हवा को हिरास क्या देगा वो ज़ख़्म दे के मुझे हौसला भी देता है अब इस से बढ़ के तबीअत-शनास क्या देगा जो अपनी ज़ात से बाहर न आ सका अब तक वो पत्थरों को मता-ए-हवास क्या देगा वो मेरे अश्क बुझाएगा किस तरह 'मोहसिन' समुंदरों को वो सहरा की प्यास क्या देगा " havaa-e-hijr-men-jo-kuchh-thaa-ab-ke-khaak-huaa-mohsin-naqvi-ghazals," हवा-ए-हिज्र में जो कुछ था अब के ख़ाक हुआ कि पैरहन तो गया था बदन भी चाक हुआ अब उस से तर्क-ए-तअल्लुक़ करूँ तो मर जाऊँ बदन से रूह का इस दर्जा इश्तिराक हुआ यही कि सब की कमानें हमीं पे टूटी हैं चलो हिसाब-ए-सफ़-ए-दोस्ताँ तो पाक हुआ वो बे-सबब यूँही रूठा है लम्हा-भर के लिए ये सानेहा न सही फिर भी कर्ब-नाक हुआ उसी के क़ुर्ब ने तक़्सीम कर दिया आख़िर वो जिस का हिज्र मुझे वज्ह-ए-इंहिमाक हुआ शदीद वार न दुश्मन दिलेर था 'मोहसिन' मैं अपनी बे-ख़बरी से मगर हलाक हुआ " kathin-tanhaaiyon-se-kaun-khelaa-main-akelaa-mohsin-naqvi-ghazals," कठिन तन्हाइयों से कौन खेला मैं अकेला भरा अब भी मिरे गाँव का मेला मैं अकेला बिछड़ कर तुझ से मैं शब भर न सोया कौन रोया ब-जुज़ मेरे ये दुख भी किस ने झेला मैं अकेला ये बे-आवाज़ बंजर बन के बासी ये उदासी ये दहशत का सफ़र जंगल ये बेला मैं अकेला मैं देखूँ कब तलक मंज़र सुहाने सब पुराने वही दुनिया वही दिल का झमेला मैं अकेला वो जिस के ख़ौफ़ से सहरा सिधारे लोग सारे गुज़रने को है तूफ़ाँ का वो रेला मैं अकेला " ab-ye-sochuun-to-bhanvar-zehn-men-pad-jaate-hain-mohsin-naqvi-ghazals," अब ये सोचूँ तो भँवर ज़ेहन में पड़ जाते हैं कैसे चेहरे हैं जो मिलते ही बिछड़ जाते हैं क्यूँ तिरे दर्द को दें तोहमत-ए-वीरानी-ए-दिल ज़लज़लों में तो भरे शहर उजड़ जाते हैं मौसम-ए-ज़र्द में इक दिल को बचाऊँ कैसे ऐसी रुत में तो घने पेड़ भी झड़ जाते हैं अब कोई क्या मिरे क़दमों के निशाँ ढूँडेगा तेज़ आँधी में तो ख़ेमे भी उखड़ जाते हैं शग़्ल-ए-अर्बाब-ए-हुनर पूछते क्या हो कि ये लोग पत्थरों में भी कभी आइने जड़ जाती हैं सोच का आइना धुँदला हो तो फिर वक़्त के साथ चाँद चेहरों के ख़द-ओ-ख़ाल बिगड़ जाते हैं शिद्दत-ए-ग़म में भी ज़िंदा हूँ तो हैरत कैसी कुछ दिए तुंद हवाओं से भी लड़ जाते हैं वो भी क्या लोग हैं 'मोहसिन' जो वफ़ा की ख़ातिर ख़ुद-तराशीदा उसूलों पे भी अड़ जाते हैं " ujde-hue-logon-se-gurezaan-na-huaa-kar-mohsin-naqvi-ghazals," उजड़े हुए लोगों से गुरेज़ाँ न हुआ कर हालात की क़ब्रों के ये कतबे भी पढ़ा कर क्या जानिए क्यूँ तेज़ हवा सोच में गुम है ख़्वाबीदा परिंदों को दरख़्तों से उड़ा कर उस शख़्स के तुम से भी मरासिम हैं तो होंगे वो झूट न बोलेगा मिरे सामने आ कर हर वक़्त का हँसना तुझे बर्बाद न कर दे तन्हाई के लम्हों में कभी रो भी लिया कर वो आज भी सदियों की मसाफ़त पे खड़ा है ढूँडा था जिसे वक़्त की दीवार गिरा कर ऐ दिल तुझे दुश्मन की भी पहचान कहाँ है तू हल्क़ा-ए-याराँ में भी मोहतात रहा कर इस शब के मुक़द्दर में सहर ही नहीं 'मोहसिन' देखा है कई बार चराग़ों को बुझा कर " qatl-chhupte-the-kabhii-sang-kii-diivaar-ke-beach-mohsin-naqvi-ghazals," क़त्ल छुपते थे कभी संग की दीवार के बीच अब तो खुलने लगे मक़्तल भरे बाज़ार के बीच अपनी पोशाक के छिन जाने पे अफ़सोस न कर सर सलामत नहीं रहते यहाँ दस्तार के बीच सुर्ख़ियाँ अम्न की तल्क़ीन में मसरूफ़ रहीं हर्फ़ बारूद उगलते रहे अख़बार के बीच काश इस ख़्वाब की ता'बीर की मोहलत न मिले शो'ले उगते नज़र आए मुझे गुलज़ार के बीच ढलते सूरज की तमाज़त ने बिखर कर देखा सर-कशीदा मिरा साया सफ़-ए-अशजार के बीच रिज़्क़ मल्बूस मकाँ साँस मरज़ क़र्ज़ दवा मुनक़सिम हो गया इंसाँ इन्ही अफ़्कार के बीच देखे जाते न थे आँसू मिरे जिस से 'मोहसिन' आज हँसते हुए देखा उसे अग़्यार के बीच " main-kal-tanhaa-thaa-khilqat-so-rahii-thii-mohsin-naqvi-ghazals," मैं कल तन्हा था ख़िल्क़त सो रही थी मुझे ख़ुद से भी वहशत हो रही थी उसे जकड़ा हुआ था ज़िंदगी ने सिरहाने मौत बैठी रो रही थी खुला मुझ पर कि मेरी ख़ुश-नसीबी मिरे रस्ते में काँटे बो रही थी मुझे भी ना-रसाई का समर दे मुझे तेरी तमन्ना जो रही थी मिरा क़ातिल मिरे अंदर छुपा था मगर बद-नाम ख़िल्क़त हो रही थी बग़ावत कर के ख़ुद अपने लहू से ग़ुलामी दाग़ अपने धो रही थी लबों पर था सुकूत-ए-मर्ग लेकिन मिरे दिल में क़यामत सो रही थी ब-जुज़ मौज-ए-फ़ना दुनिया में 'मोहसिन' हमारी जुस्तुजू किस को रही थी " maarka-ab-ke-huaa-bhii-to-phir-aisaa-hogaa-mohsin-naqvi-ghazals," मा'रका अब के हुआ भी तो फिर ऐसा होगा तेरे दरिया पे मिरी प्यास का पहरा होगा उस की आँखें तिरे चेहरे पे बहुत बोलती हैं उस ने पलकों से तिरा जिस्म तराशा होगा कितने जुगनू इसी ख़्वाहिश में मिरे साथ चले कोई रस्ता तिरे घर को भी तो जाता होगा मैं भी अपने को भुलाए हुए फिरता हूँ बहुत आइना उस ने भी कुछ रोज़ न देखा होगा रात जल-थल मिरी आँखों में उतर आया था सूरत-ए-अब्र कोई टूट के बरसा होगा ये मसीहाई उसे भूल गई है 'मोहसिन' या फिर ऐसा है मिरा ज़ख़्म ही गहरा होगा " nayaa-hai-shahr-nae-aasre-talaash-karuun-mohsin-naqvi-ghazals," नया है शहर नए आसरे तलाश करूँ तू खो गया है कहाँ अब तुझे तलाश करूँ जो दश्त में भी जलाते थे फ़स्ल-ए-गुल के चराग़ मैं शहर में भी वही आबले तलाश करूँ तू अक्स है तो कभी मेरी चश्म-ए-तर में उतर तिरे लिए मैं कहाँ आइने तलाश करूँ तुझे हवास की आवारगी का इल्म कहाँ कभी मैं तुझ को तिरे सामने तलाश करूँ ग़ज़ल कहूँ कभी सादा से ख़त लिखूँ उस को उदास दिल के लिए मश्ग़ले तलाश करूँ मिरे वजूद से शायद मिले सुराग़ तिरा कभी मैं ख़ुद को तिरे वास्ते तलाश करूँ मैं चुप रहूँ कभी बे-वज्ह हँस पड़ूँ 'मोहसिन' उसे गँवा के अजब हौसले तलाश करूँ " phir-vahii-main-huun-vahii-shahr-badar-sannaataa-mohsin-naqvi-ghazals," फिर वही मैं हूँ वही शहर-बदर सन्नाटा मुझ को डस ले न कहीं ख़ाक-बसर सन्नाटा दश्त-ए-हस्ती में शब-ए-ग़म की सहर करने को हिज्र वालों ने लिया रख़्त-ए-सफ़र सन्नाटा किस से पूछूँ कि कहाँ है मिरा रोने वाला इस तरफ़ मैं हूँ मिरे घर से उधर सन्नाटा तू सदाओं के भँवर में मुझे आवाज़ तो दे तुझ को देगा मिरे होने की ख़बर सन्नाटा उस को हंगामा-ए-मंज़िल की ख़बर क्या दोगे जिस ने पाया हो सर-ए-राहगुज़र सन्नाटा हासिल-ए-कुंज-ए-क़फ़स वहम-ब-कफ़ तन्हाई रौनक़-ए-शाम-ए-सफ़र ता-ब-सहर सन्नाटा क़िस्मत-ए-शाइर-ए-सीमाब-सिफ़त दश्त की मौत क़ीमत-ए-रेज़ा-ए-अल्मास-ए-हुनर सन्नाटा जान-ए-'मोहसिन' मिरी तक़दीर में कब लिक्खा है डूबता चाँद तिरा क़ुर्ब-ए-गज़र सन्नाटा " jugnuu-guhar-charaag-ujaale-to-de-gayaa-mohsin-naqvi-ghazals," जुगनू गुहर चराग़ उजाले तो दे गया वो ख़ुद को ढूँडने के हवाले तो दे गया अब इस से बढ़ के क्या हो विरासत फ़क़ीर की बच्चों को अपनी भीक के प्याले तो दे गया अब मेरी सोच साए की सूरत है उस के गिर्द मैं बुझ के अपने चाँद को हाले तो दे गया शायद कि फ़स्ल-ए-संग-ज़नी कुछ क़रीब है वो खेलने को बर्फ़ के गाले तो दे गया अहल-ए-तलब पे उस के लिए फ़र्ज़ है दुआ ख़ैरात में वो चंद निवाले तो दे गया 'मोहसिन' उसे क़बा की ज़रूरत न थी मगर दुनिया को रोज़-ओ-शब के दोशाले तो दे गया " zikr-e-shab-e-firaaq-se-vahshat-use-bhii-thii-mohsin-naqvi-ghazals," ज़िक्र-ए-शब-ए-फ़िराक़ से वहशत उसे भी थी मेरी तरह किसी से मोहब्बत उसे भी थी मुझ को भी शौक़ था नए चेहरों की दीद का रस्ता बदल के चलने की आदत उसे भी थी इस रात देर तक वो रहा महव-ए-गुफ़्तुगू मसरूफ़ मैं भी कम था फ़राग़त उसे भी थी मुझ से बिछड़ के शहर में घुल-मिल गया वो शख़्स हालाँकि शहर-भर से अदावत उसे भी थी वो मुझ से बढ़ के ज़ब्त का आदी था जी गया वर्ना हर एक साँस क़यामत उसे भी थी सुनता था वो भी सब से पुरानी कहानियाँ शायद रफ़ाक़तों की ज़रूरत उसे भी थी तन्हा हुआ सफ़र में तो मुझ पे खुला ये भेद साए से प्यार धूप से नफ़रत उसे भी थी 'मोहसिन' मैं उस से कह न सका यूँ भी हाल दिल दरपेश एक ताज़ा मुसीबत उसे भी थी " tire-badan-se-jo-chhuu-kar-idhar-bhii-aataa-hai-mohsin-naqvi-ghazals," तिरे बदन से जो छू कर इधर भी आता है मिसाल-ए-रंग वो झोंका नज़र भी आता है तमाम शब जहाँ जलता है इक उदास दिया हवा की राह में इक ऐसा घर भी आता है वो मुझ को टूट के चाहेगा छोड़ जाएगा मुझे ख़बर थी उसे ये हुनर भी आता है उजाड़ बन में उतरता है एक जुगनू भी हवा के साथ कोई हम-सफ़र भी आता है वफ़ा की कौन सी मंज़िल पे उस ने छोड़ा था कि वो तो याद हमें भूल कर भी आता है जहाँ लहू के समुंदर की हद ठहरती है वहीं जज़ीरा-ए-लाल-ओ-गुहर भी आता है चले जो ज़िक्र फ़रिश्तों की पारसाई का तो ज़ेर-ए-बहस मक़ाम-ए-बशर भी आता है अभी सिनाँ को सँभाले रहें अदू मेरे कि उन सफ़ों में कहीं मेरा सर भी आता है कभी कभी मुझे मिलने बुलंदियों से कोई शुआ-ए-सुब्ह की सूरत उतर भी आता है इसी लिए मैं किसी शब न सो सका 'मोहसिन' वो माहताब कभी बाम पर भी आता है " bichhad-ke-mujh-se-ye-mashgala-ikhtiyaar-karnaa-mohsin-naqvi-ghazals," बिछड़ के मुझ से ये मश्ग़ला इख़्तियार करना हवा से डरना बुझे चराग़ों से प्यार करना खुली ज़मीनों में जब भी सरसों के फूल महकें तुम ऐसी रुत में सदा मिरा इंतिज़ार करना जो लोग चाहें तो फिर तुम्हें याद भी न आएँ कभी कभी तुम मुझे भी उन में शुमार करना किसी को इल्ज़ाम-ए-बेवफ़ाई कभी न देना मिरी तरह अपने आप को सोगवार करना तमाम वा'दे कहाँ तलक याद रख सकोगे जो भूल जाएँ वो अहद भी उस्तुवार करना ये किस की आँखों ने बादलों को सिखा दिया है कि सीना-ए-संग से रवाँ आबशार करना मैं ज़िंदगी से न खुल सका इस लिए भी 'मोहसिन' कि बहते पानी पे कब तलक ए'तिबार करना " labon-pe-harf-e-rajaz-hai-zirah-utaar-ke-bhii-mohsin-naqvi-ghazals," लबों पे हर्फ़-ए-रजज़ है ज़िरह उतार के भी मैं जश्न-ए-फ़तह मनाता हूँ जंग हार के भी उसे लुभा न सका मेरे बा'द का मौसम बहुत उदास लगा ख़ाल-ओ-ख़द सँवार के भी अब एक पल का तग़ाफ़ुल भी सह नहीं सकते हम अहल-ए-दिल कभी आदी थे इंतिज़ार के भी वो लम्हा भर की कहानी कि उम्र भर में कही अभी तो ख़ुद से तक़ाज़े थे इख़्तिसार के भी ज़मीन ओढ़ ली हम ने पहुँच के मंज़िल पर कि हम पे क़र्ज़ थे कुछ गर्द-ए-रहगुज़ार के भी मुझे न सुन मिरे बे-शक्ल अब दिखाई तो दे मैं थक गया हूँ फ़ज़ा में तुझे पुकार के भी मिरी दुआ को पलटना था फिर उधर 'मोहसिन' बहुत उजाड़ थे मंज़र उफ़ुक़ से पार के भी " ujad-ujad-ke-sanvartii-hai-tere-hijr-kii-shaam-mohsin-naqvi-ghazals," उजड़ उजड़ के सँवरती है तेरे हिज्र की शाम न पूछ कैसे गुज़रती है तेरे हिज्र की शाम ये बर्ग बर्ग उदासी बिखर रही है मिरी कि शाख़ शाख़ उतरती है तेरे हिज्र की शाम उजाड़ घर में कोई चाँद कब उतरता है सवाल मुझ से ये करती है तेरे हिज्र की शाम मिरे सफ़र में इक ऐसा भी मोड़ आता है जब अपने आप से डरती है तेरे हिज्र की शाम बहुत अज़ीज़ हैं दिल को ये ज़ख़्म ज़ख़्म रुतें इन्ही रुतों में निखरती है तेरे हिज्र की शाम ये मेरा दिल ये सरासर निगार-खाना-ए-ग़म सदा इसी में उतरती है तेरे हिज्र की शाम जहाँ जहाँ भी मिलें तेरी क़ुर्बतों के निशाँ वहाँ वहाँ से उभरती है तेरे हिज्र की शाम ये हादिसा तुझे शायद उदास कर देगा कि मेरे साथ ही मरती है तेरे हिज्र की शाम " ufuq-agarche-pighaltaa-dikhaaii-padtaa-hai-jaan-nisar-akhtar-ghazals," उफ़ुक़ अगरचे पिघलता दिखाई पड़ता है मुझे तो दूर सवेरा दिखाई पड़ता है हमारे शहर में बे-चेहरा लोग बसते हैं कभी कभी कोई चेहरा दिखाई पड़ता है चलो कि अपनी मोहब्बत सभी को बाँट आएँ हर एक प्यार का भूका दिखाई पड़ता है जो अपनी ज़ात से इक अंजुमन कहा जाए वो शख़्स तक मुझे तन्हा दिखाई पड़ता है न कोई ख़्वाब न कोई ख़लिश न कोई ख़ुमार ये आदमी तो अधूरा दिखाई पड़ता है लचक रही हैं शुआओं की सीढ़ियाँ पैहम फ़लक से कोई उतरता दिखाई पड़ता है चमकती रेत पे ये ग़ुस्ल-ए-आफ़्ताब तिरा बदन तमाम सुनहरा दिखाई पड़ता है " mauj-e-gul-mauj-e-sabaa-mauj-e-sahar-lagtii-hai-jaan-nisar-akhtar-ghazals," मौज-ए-गुल मौज-ए-सबा मौज-ए-सहर लगती है सर से पा तक वो समाँ है कि नज़र लगती है हम ने हर गाम पे सज्दों के जलाए हैं चराग़ अब हमें तेरी गली राहगुज़र लगती है लम्हे लम्हे में बसी है तिरी यादों की महक आज की रात तो ख़ुशबू का सफ़र लगती है जल गया अपना नशेमन तो कोई बात नहीं देखना ये है कि अब आग किधर लगती है सारी दुनिया में ग़रीबों का लहू बहता है हर ज़मीं मुझ को मिरे ख़ून से तर लगती है कोई आसूदा नहीं अहल-ए-सियासत के सिवा ये सदी दुश्मन-ए-अरबाब-ए-हुनर लगती है वाक़िआ शहर में कल तो कोई ऐसा न हुआ ये तो अख़बार के दफ़्तर की ख़बर लगती है लखनऊ क्या तिरी गलियों का मुक़द्दर था यही हर गली आज तिरी ख़ाक-बसर लगती है " mai-kashii-ab-mirii-aadat-ke-sivaa-kuchh-bhii-nahiin-jaan-nisar-akhtar-ghazals," मय-कशी अब मिरी आदत के सिवा कुछ भी नहीं ये भी इक तल्ख़ हक़ीक़त के सिवा कुछ भी नहीं फ़ित्ना-ए-अक़्ल के जूया मिरी दुनिया से गुज़र मेरी दुनिया में मोहब्बत के सिवा कुछ भी नहीं दिल में वो शोरिश-ए-जज़्बात कहाँ तेरे बग़ैर एक ख़ामोश क़यामत के सिवा कुछ भी नहीं मुझ को ख़ुद अपनी जवानी की क़सम है कि ये इश्क़ इक जवानी की शरारत के सिवा कुछ भी नहीं " tamaam-umr-azaabon-kaa-silsila-to-rahaa-jaan-nisar-akhtar-ghazals," तमाम उम्र अज़ाबों का सिलसिला तो रहा ये कम नहीं हमें जीने का हौसला तो रहा गुज़र ही आए किसी तरह तेरे दीवाने क़दम क़दम पे कोई सख़्त मरहला तो रहा चलो न इश्क़ ही जीता न अक़्ल हार सकी तमाम वक़्त मज़े का मुक़ाबला तो रहा मैं तेरी ज़ात में गुम हो सका न तू मुझ में बहुत क़रीब थे हम फिर भी फ़ासला तो रहा ये और बात कि हर छेड़ ला-उबाली थी तिरी नज़र का दिलों से मोआमला तो रहा " ashaar-mire-yuun-to-zamaane-ke-liye-hain-jaan-nisar-akhtar-ghazals," अशआ'र मिरे यूँ तो ज़माने के लिए हैं कुछ शेर फ़क़त उन को सुनाने के लिए हैं अब ये भी नहीं ठीक कि हर दर्द मिटा दें कुछ दर्द कलेजे से लगाने के लिए हैं सोचो तो बड़ी चीज़ है तहज़ीब बदन की वर्ना ये फ़क़त आग बुझाने के लिए हैं आँखों में जो भर लोगे तो काँटों से चुभेंगे ये ख़्वाब तो पलकों पे सजाने के लिए हैं देखूँ तिरे हाथों को तो लगता है तिरे हाथ मंदिर में फ़क़त दीप जलाने के लिए हैं ये इल्म का सौदा ये रिसाले ये किताबें इक शख़्स की यादों को भुलाने के लिए हैं " laakh-aavaara-sahii-shahron-ke-futpaathon-pe-ham-jaan-nisar-akhtar-ghazals," लाख आवारा सही शहरों के फ़ुटपाथों पे हम लाश ये किस की लिए फिरते हैं इन हाथों पे हम अब उन्हीं बातों को सुनते हैं तो आती है हँसी बे-तरह ईमान ले आए थे जिन बातों पे हम कोई भी मौसम हो दिल की आग कम होती नहीं मुफ़्त का इल्ज़ाम रख देते बरसातों पे हम ज़ुल्फ़ से छनती हुई उस के बदन की ताबिशें हँस दिया करते थे अक्सर चाँदनी रातों पे हम अब उन्हें पहचानते भी शर्म आती है हमें फ़ख़्र करते थे कभी जिन की मुलाक़ातों पे हम " sau-chaand-bhii-chamkenge-to-kyaa-baat-banegii-jaan-nisar-akhtar-ghazals," सौ चाँद भी चमकेंगे तो क्या बात बनेगी तुम आए तो इस रात की औक़ात बनेगी उन से यही कह आएँ कि अब हम न मिलेंगे आख़िर कोई तक़रीब-ए-मुलाक़ात बनेगी ऐ नावक-ए-ग़म दिल में है इक बूँद लहू की कुछ और तो क्या हम से मुदारात बनेगी ये हम से न होगा कि किसी एक को चाहें ऐ इश्क़ हमारी न तिरे सात बनेगी ये क्या है कि बढ़ते चलो बढ़ते चलो आगे जब बैठ के सोचेंगे तो कुछ बात बनेगी " aahat-sii-koii-aae-to-lagtaa-hai-ki-tum-ho-jaan-nisar-akhtar-ghazals," आहट सी कोई आए तो लगता है कि तुम हो साया कोई लहराए तो लगता है कि तुम हो जब शाख़ कोई हाथ लगाते ही चमन में शरमाए लचक जाए तो लगता है कि तुम हो संदल से महकती हुई पुर-कैफ़ हवा का झोंका कोई टकराए तो लगता है कि तुम हो ओढ़े हुए तारों की चमकती हुई चादर नद्दी कोई बल खाए तो लगता है कि तुम हो जब रात गए कोई किरन मेरे बराबर चुप-चाप सी सो जाए तो लगता है कि तुम हो " diida-o-dil-men-koii-husn-bikhartaa-hii-rahaa-jaan-nisar-akhtar-ghazals," दीदा ओ दिल में कोई हुस्न बिखरता ही रहा लाख पर्दों में छुपा कोई सँवरता ही रहा रौशनी कम न हुई वक़्त के तूफ़ानों में दिल के दरिया में कोई चाँद उतरता ही रहा रास्ते भर कोई आहट थी कि आती ही रही कोई साया मिरे बाज़ू से गुज़रता ही रहा मिट गया पर तिरी बाँहों ने समेटा न मुझे शहर दर शहर मैं गलियों में बिखरता ही रहा लम्हा लम्हा रहे आँखों में अंधेरे लेकिन कोई सूरज मिरे सीने में उभरता ही रहा " mujhe-maaluum-hai-main-saarii-duniyaa-kii-amaanat-huun-jaan-nisar-akhtar-ghazals," मुझे मालूम है मैं सारी दुनिया की अमानत हूँ मगर वो लम्हा जब मैं सिर्फ़ अपना हो सा जाता हूँ मैं तुम से दूर रहता हूँ तो मेरे साथ रहती हो तुम्हारे पास आता हूँ तो तन्हा हो सा जाता हूँ मैं चाहे सच ही बोलूँ हर तरह से अपने बारे में मगर तुम मुस्कुराती हो तो झूटा हो सा जाता हूँ तिरे गुल-रंग होंटों से दहकती ज़िंदगी पी कर मैं प्यासा और प्यासा और प्यासा हो सा जाता हूँ तुझे बाँहों में भर लेने की ख़्वाहिश यूँ उभरती है कि मैं अपनी नज़र में आप रुस्वा हो सा जाता हूँ " hausla-kho-na-diyaa-terii-nahiin-se-ham-ne-jaan-nisar-akhtar-ghazals," हौसला खो न दिया तेरी नहीं से हम ने कितनी शिकनों को चुना तेरी जबीं से हम ने वो भी क्या दिन थे कि दीवाना बने फिरते थे सुन लिया था तिरे बारे में कहीं से हम ने जिस जगह पहले-पहल नाम तिरा आता है दास्ताँ अपनी सुनाई है वहीं से हम ने यूँ तो एहसान हसीनों के उठाए हैं बहुत प्यार लेकिन जो किया है तो तुम्हीं से हम ने कुछ समझ कर ही ख़ुदा तुझ को कहा है वर्ना कौन सी बात कही इतने यक़ीं से हम ने " maanaa-ki-rang-rang-tiraa-pairahan-bhii-hai-jaan-nisar-akhtar-ghazals," माना कि रंग रंग तिरा पैरहन भी है पर इस में कुछ करिश्मा-ए-अक्स-ए-बदन भी है अक़्ल-ए-मआश ओ हिकमत-ए-दुनिया के बावजूद हम को अज़ीज़ इश्क़ का दीवाना-पन भी है मुतरिब भी तू नदीम भी तू साक़िया भी तू तू जान-ए-अंजुमन ही नहीं अंजुमन भी है बाज़ू छुआ जो तू ने तो उस दिन खुला ये राज़ तू सिर्फ़ रंग-ओ-बू ही नहीं है बदन भी है ये दौर किस तरह से कटेगा पहाड़ सा यारो बताओ हम में कोई कोहकन भी है " zamiin-hogii-kisii-qaatil-kaa-daamaan-ham-na-kahte-the-jaan-nisar-akhtar-ghazals," ज़मीं होगी किसी क़ातिल का दामाँ हम न कहते थे अकारत जाएगा ख़ून-ए-शहीदाँ हम न कहते थे इलाज-ए-चाक-ए-पैराहन हुआ तो इस तरह होगा सिया जाएगा काँटों से गरेबाँ हम न कहते थे तराने कुछ दिए लफ़्ज़ों में ख़ुद को क़ैद कर लेंगे अजब अंदाज़ से फैलेगा ज़िंदाँ हम न कहते थे कोई इतना न होगा लाश भी ले जा के दफ़ना दे इन्हीं सड़कों पे मर जाएगा इंसाँ हम न कहते थे नज़र लिपटी है शोलों में लहू तपता है आँखों में उठा ही चाहता है कोई तूफ़ाँ हम न कहते थे छलकते जाम में भीगी हुई आँखें उतर आईं सताएगी किसी दिन याद-ए-याराँ हम न कहते थे नई तहज़ीब कैसे लखनऊ को रास आएगी उजड़ जाएगा ये शहर-ए-ग़ज़ालाँ हम न कहते थे " ai-dard-e-ishq-tujh-se-mukarne-lagaa-huun-main-jaan-nisar-akhtar-ghazals," ऐ दर्द-ए-इश्क़ तुझ से मुकरने लगा हूँ मैं मुझ को संभाल हद से गुज़रने लगा हूँ मैं पहले हक़ीक़तों ही से मतलब था और अब एक आध बात फ़र्ज़ भी करने लगा हूँ मैं हर आन टूटते ये अक़ीदों के सिलसिले लगता है जैसे आज बिखरने लगा हूँ मैं ऐ चश्म-ए-यार मेरा सुधरना मुहाल था तेरा कमाल है कि सुधरने लगा हूँ मैं ये मेहर-ओ-माह अर्ज़-ओ-समा मुझ में खो गए इक काएनात बन के उभरने लगा हूँ मैं इतनों का प्यार मुझ से सँभाला न जाएगा लोगो तुम्हारे प्यार से डरने लगा हूँ मैं दिल्ली कहाँ गईं तिरे कूचों की रौनक़ें गलियों से सर झुका के गुज़रने लगा हूँ मैं " chaunk-chaunk-uthtii-hai-mahlon-kii-fazaa-raat-gae-jaan-nisar-akhtar-ghazals," चौंक चौंक उठती है महलों की फ़ज़ा रात गए कौन देता है ये गलियों में सदा रात गए ये हक़ाएक़ की चटानों से तराशी दुनिया ओढ़ लेती है तिलिस्मों की रिदा रात गए चुभ के रह जाती है सीने में बदन की ख़ुश्बू खोल देता है कोई बंद-ए-क़बा रात गए आओ हम जिस्म की शम्ओं से उजाला कर लें चाँद निकला भी तो निकलेगा ज़रा रात गए तू न अब आए तो क्या आज तलक आती है सीढ़ियों से तिरे क़दमों की सदा रात गए " vo-log-hii-har-daur-men-mahbuub-rahe-hain-jaan-nisar-akhtar-ghazals," वो लोग ही हर दौर में महबूब रहे हैं जो इश्क़ में तालिब नहीं मतलूब रहे हैं तूफ़ान की आवाज़ तो आती नहीं लेकिन लगता है सफ़ीने से कहीं डूब रहे हैं उन को न पुकारो ग़म-ए-दौराँ के लक़ब से जो दर्द किसी नाम से मंसूब रहे हैं हम भी तिरी सूरत के परस्तार हैं लेकिन कुछ और भी चेहरे हमें मर्ग़ूब रहे हैं अल्फ़ाज़ में इज़हार-ए-मोहब्बत के तरीक़े ख़ुद इश्क़ की नज़रों में भी मायूब रहे हैं इस अहद-ए-बसीरत में भी नक़्क़ाद हमारे हर एक बड़े नाम से मरऊब रहे हैं इतना भी न घबराओ नई तर्ज़-ए-अदा से हर दौर में बदले हुए उस्लूब रहे हैं " zulfen-siina-naaf-kamar-jaan-nisar-akhtar-ghazals," ज़ुल्फ़ें सीना नाफ़ कमर एक नदी में कितने भँवर सदियों सदियों मेरा सफ़र मंज़िल मंज़िल राहगुज़र कितना मुश्किल कितना कठिन जीने से जीने का हुनर गाँव में आ कर शहर बसे गाँव बिचारे जाएँ किधर फूँकने वाले सोचा भी फैलेगी ये आग किधर लाख तरह से नाम तिरा बैठा लिक्खूँ काग़ज़ पर छोटे छोटे ज़ेहन के लोग हम से उन की बात न कर पेट पे पत्थर बाँध न ले हाथ में सजते हैं पत्थर रात के पीछे रात चले ख़्वाब हुआ हर ख़्वाब-ए-सहर शब भर तो आवारा फिरे लौट चलें अब अपने घर " aae-kyaa-kyaa-yaad-nazar-jab-padtii-in-daalaanon-par-jaan-nisar-akhtar-ghazals," आए क्या क्या याद नज़र जब पड़ती इन दालानों पर उस का काग़ज़ चिपका देना घर के रौशन-दानों पर आज भी जैसे शाने पर तुम हाथ मिरे रख देती हो चलते चलते रुक जाता हूँ सारी की दूकानों पर बरखा की तो बात ही छोड़ो चंचल है पुर्वाई भी जाने किस का सब्ज़ दुपट्टा फेंक गई है धानों पर शहर के तपते फ़ुटपाथों पर गाँव के मौसम साथ चलें बूढ़े बरगद हाथ सा रख दें मेरे जलते शानों पर सस्ते दामों ले तो आते लेकिन दिल था भर आया जाने किस का नाम खुदा था पीतल के गुल-दानों पर उस का क्या मन-भेद बताऊँ उस का क्या अंदाज़ कहूँ बात भी मेरी सुनना चाहे हाथ भी रक्खे कानों पर और भी सीना कसने लगता और कमर बल खा जाती जब भी उस के पाँव फिसलने लगते थे ढलवानों पर शेर तो उन पर लिक्खे लेकिन औरों से मंसूब किए उन को क्या क्या ग़ुस्सा आया नज़्मों के उनवानों पर यारो अपने इश्क़ के क़िस्से यूँ भी कम मशहूर नहीं कल तो शायद नॉवेल लिक्खे जाएँ इन रूमानों पर " aankhen-churaa-ke-ham-se-bahaar-aae-ye-nahiin-jaan-nisar-akhtar-ghazals," आँखें चुरा के हम से बहार आए ये नहीं हिस्से में अपने सिर्फ़ ग़ुबार आए ये नहीं कू-ए-ग़म-ए-हयात में सब उम्र काट दी थोड़ा सा वक़्त वाँ भी गुज़ार आए ये नहीं ख़ुद इश्क़ क़ुर्ब-ए-जिस्म भी है क़ुर्ब-ए-जाँ के साथ हम दूर ही से उन को पुकार आए ये नहीं आँखों में दिल खुले हों तो मौसम की क़ैद क्या फ़स्ल-ए-बहार ही में बहार आए ये नहीं अब क्या करें कि हुस्न जहाँ है अज़ीज़ है तेरे सिवा किसी पे न प्यार आए ये नहीं वा'दों को ख़ून-ए-दिल से लिखो तब तो बात है काग़ज़ पे क़िस्मतों को सँवार आए ये नहीं कुछ रोज़ और कल की मुरव्वत में काट लें दिल को यक़ीन-ए-वादा-ए-यार आए ये नहीं " ranj-o-gam-maange-hai-andoh-o-balaa-maange-hai-jaan-nisar-akhtar-ghazals," रंज-ओ-ग़म माँगे है अंदोह-ओ-बला माँगे है दिल वो मुजरिम है कि ख़ुद अपनी सज़ा माँगे है चुप है हर ज़ख़्म-ए-गुलू चुप है शहीदों का लहू दस्त-ए-क़ातिल है जो मेहनत का सिला माँगे है तू भी इक दौलत-ए-नायाब है पर क्या कहिए ज़िंदगी और भी कुछ तेरे सिवा माँगे है खोई खोई ये निगाहें ये ख़मीदा पलकें हाथ उठाए कोई जिस तरह दुआ माँगे है रास अब आएगी अश्कों की न आहों की फ़ज़ा आज का प्यार नई आब-ओ-हवा माँगे है बाँसुरी का कोई नग़्मा न सही चीख़ सही हर सुकूत-ए-शब-ए-ग़म कोई सदा माँगे है लाख मुनकिर सही पर ज़ौक़-ए-परस्तिश मेरा आज भी कोई सनम कोई ख़ुदा माँगे है साँस वैसे ही ज़माने की रुकी जाती है वो बदन और भी कुछ तंग क़बा माँगे है दिल हर इक हाल से बेगाना हुआ जाता है अब तवज्जोह न तग़ाफ़ुल न अदा माँगे है " tuluu-e-subh-hai-nazren-uthaa-ke-dekh-zaraa-jaan-nisar-akhtar-ghazals," तुलू-ए-सुब्ह है नज़रें उठा के देख ज़रा शिकस्त-ए-ज़ुल्मत-ए-शब मुस्कुरा के देख ज़रा ग़म-ए-बहार ओ ग़म-ए-यार ही नहीं सब कुछ ग़म-ए-जहाँ से भी दिल को लगा के देख ज़रा बहार कौन सी सौग़ात ले के आई है हमारे ज़ख़्म-ए-तमन्ना तू आ के देख ज़रा हर एक सम्त से इक आफ़्ताब उभरेगा चराग़-ए-दैर-ओ-हरम तो बुझा के देख ज़रा वजूद-ए-इश्क़ की तारीख़ का पता तो चले वरक़ उलट के तू अर्ज़ ओ समा के देख ज़रा मिले तो तू ही मिले और कुछ क़ुबूल नहीं जहाँ में हौसले अहल-ए-वफ़ा के देख ज़रा तिरी नज़र से है रिश्ता मिरे गिरेबाँ का किधर है मेरी तरफ़ मुस्कुरा के देख ज़रा " ham-ne-kaatii-hain-tirii-yaad-men-raaten-aksar-jaan-nisar-akhtar-ghazals," हम ने काटी हैं तिरी याद में रातें अक्सर दिल से गुज़री हैं सितारों की बरातें अक्सर और तो कौन है जो मुझ को तसल्ली देता हाथ रख देती हैं दिल पर तिरी बातें अक्सर हुस्न शाइस्ता-ए-तहज़ीब-ए-अलम है शायद ग़म-ज़दा लगती हैं क्यूँ चाँदनी रातें अक्सर हाल कहना है किसी से तो मुख़ातब है कोई कितनी दिलचस्प हुआ करती हैं बातें अक्सर इश्क़ रहज़न न सही इश्क़ के हाथों फिर भी हम ने लुटती हुई देखी हैं बरातें अक्सर हम से इक बार भी जीता है न जीतेगा कोई वो तो हम जान के खा लेते हैं मातें अक्सर उन से पूछो कभी चेहरे भी पढ़े हैं तुम ने जो किताबों की किया करते हैं बातें अक्सर हम ने उन तुंद-हवाओं में जलाए हैं चराग़ जिन हवाओं ने उलट दी हैं बिसातें अक्सर " log-kahte-hain-ki-tuu-ab-bhii-khafaa-hai-mujh-se-jaan-nisar-akhtar-ghazals," लोग कहते हैं कि तू अब भी ख़फ़ा है मुझ से तेरी आँखों ने तो कुछ और कहा है मुझ से हाए उस वक़्त को कोसूँ कि दुआ दूँ यारो जिस ने हर दर्द मिरा छीन लिया है मुझ से दिल का ये हाल कि धड़के ही चला जाता है ऐसा लगता है कोई जुर्म हुआ है मुझ से खो गया आज कहाँ रिज़्क़ का देने वाला कोई रोटी जो खड़ा माँग रहा है मुझ से अब मिरे क़त्ल की तदबीर तो करनी होगी कौन सा राज़ है तेरा जो छुपा है मुझ से " achchhaa-hai-un-se-koii-taqaazaa-kiyaa-na-jaae-jaan-nisar-akhtar-ghazals," अच्छा है उन से कोई तक़ाज़ा किया न जाए अपनी नज़र में आप को रुस्वा किया न जाए हम हैं तिरा ख़याल है तेरा जमाल है इक पल भी अपने आप को तन्हा किया न जाए उठने को उठ तो जाएँ तिरी अंजुमन से हम पर तेरी अंजुमन को भी सूना किया न जाए उन की रविश जुदा है हमारी रविश जुदा हम से तो बात बात पे झगड़ा किया न जाए हर-चंद ए'तिबार में धोके भी हैं मगर ये तो नहीं किसी पे भरोसा किया न जाए लहजा बना के बात करें उन के सामने हम से तो इस तरह का तमाशा किया न जाए इनआ'म हो ख़िताब हो वैसे मिले कहाँ जब तक सिफ़ारिशों को इकट्ठा किया न जाए इस वक़्त हम से पूछ न ग़म रोज़गार के हम से हर एक घूँट को कड़वा किया न जाए " dil-ko-har-lamha-bachaate-rahe-jazbaat-se-ham-jaan-nisar-akhtar-ghazals," दिल को हर लम्हा बचाते रहे जज़्बात से हम इतने मजबूर रहे हैं कभी हालात से हम नश्शा-ए-मय से कहीं प्यास बुझी है दिल की तिश्नगी और बढ़ा लाए ख़राजात से हम आज तो मिल के भी जैसे न मिले हों तुझ से चौंक उठते थे कभी तेरी मुलाक़ात से हम इश्क़ में आज भी है नीम-निगाही का चलन प्यार करते हैं उसी हुस्न-ए-रिवायात से हम मर्कज़-ए-दीदा-ए-ख़ुबान-ए-जहाँ हैं भी तो क्या एक निस्बत भी तो रखते हैं तिरी ज़ात से हम " tuu-is-qadar-mujhe-apne-qariib-lagtaa-hai-jaan-nisar-akhtar-ghazals," तू इस क़दर मुझे अपने क़रीब लगता है तुझे अलग से जो सोचूँ अजीब लगता है जिसे न हुस्न से मतलब न इश्क़ से सरोकार वो शख़्स मुझ को बहुत बद-नसीब लगता है हुदूद-ए-ज़ात से बाहर निकल के देख ज़रा न कोई ग़ैर न कोई रक़ीब लगता है ये दोस्ती ये मरासिम ये चाहतें ये ख़ुलूस कभी कभी मुझे सब कुछ अजीब लगता है उफ़ुक़ पे दूर चमकता हुआ कोई तारा मुझे चराग़-ए-दयार-ए-हबीब लगता है " ham-se-bhaagaa-na-karo-duur-gazaalon-kii-tarah-jaan-nisar-akhtar-ghazals," हम से भागा न करो दूर ग़ज़ालों की तरह हम ने चाहा है तुम्हें चाहने वालों की तरह ख़ुद-ब-ख़ुद नींद सी आँखों में घुली जाती है महकी महकी है शब-ए-ग़म तिरे बालों की तरह तेरे बिन रात के हाथों पे ये तारों के अयाग़ ख़ूब-सूरत हैं मगर ज़हर के प्यालों की तरह और क्या इस से ज़ियादा कोई नरमी बरतूँ दिल के ज़ख़्मों को छुआ है तिरे गालों की तरह गुनगुनाते हुए और आ कभी उन सीनों में तेरी ख़ातिर जो महकते हैं शिवालों की तरह तेरी ज़ुल्फ़ें तिरी आँखें तिरे अबरू तिरे लब अब भी मशहूर हैं दुनिया में मिसालों की तरह हम से मायूस न हो ऐ शब-ए-दौराँ कि अभी दिल में कुछ दर्द चमकते हैं उजालों की तरह मुझ से नज़रें तो मिलाओ कि हज़ारों चेहरे मेरी आँखों में सुलगते हैं सवालों की तरह और तो मुझ को मिला क्या मिरी मेहनत का सिला चंद सिक्के हैं मिरे हाथ में छालों की तरह जुस्तुजू ने किसी मंज़िल पे ठहरने न दिया हम भटकते रहे आवारा ख़यालों की तरह ज़िंदगी जिस को तिरा प्यार मिला वो जाने हम तो नाकाम रहे चाहने वालों की तरह " khud-ba-khud-mai-hai-ki-shiishe-men-bharii-aave-hai-jaan-nisar-akhtar-ghazals," ख़ुद-ब-ख़ुद मय है कि शीशे में भरी आवे है किस बला की तुम्हें जादू-नज़री आवे है दिल में दर आवे है हर सुब्ह कोई याद ऐसे जूँ दबे-पाँव नसीम-ए-सहरी आवे है और भी ज़ख़्म हुए जाते हैं गहरे दिल के हम तो समझे थे तुम्हें चारागरी आवे है एक क़तरा भी लहू जब न रहे सीने में तब कहीं इश्क़ में कुछ बे-जिगरी आवे है चाक-ए-दामाँ-ओ-गिरेबाँ के भी आदाब हैं कुछ हर दिवाने को कहाँ जामा-दरी आवे है शजर-ए-इश्क़ तो माँगे है लहू के आँसू तब कहीं जा के कोई शाख़ हरी आवे है तू कभी राग कभी रंग कभी ख़ुश्बू है कैसी कैसी न तुझे इश्वा-गरी आवे है आप-अपने को भुलाना कोई आसान नहीं बड़ी मुश्किल से मियाँ बे-ख़बरी आवे है ऐ मिरे शहर-ए-निगाराँ तिरा क्या हाल हुआ चप्पे चप्पे पे मिरे आँख भरी आवे है साहिबो हुस्न की पहचान कोई खेल नहीं दिल लहू हो तो कहीं दीदा-वरी आवे है " zindagii-tujh-ko-bhulaayaa-hai-bahut-din-ham-ne-jaan-nisar-akhtar-ghazals," ज़िंदगी तुझ को भुलाया है बहुत दिन हम ने वक़्त ख़्वाबों में गँवाया है बहुत दिन हम ने अब ये नेकी भी हमें जुर्म नज़र आती है सब के ऐबों को छुपाया है बहुत दिन हम ने तुम भी इस दिल को दुखा लो तो कोई बात नहीं अपना दिल आप दुखाया है बहुत दिन हम ने मुद्दतों तर्क-ए-तमन्ना पे लहू रोया है इश्क़ का क़र्ज़ चुकाया है बहुत दिन हम ने क्या पता हो भी सके इस की तलाफ़ी कि नहीं शायरी तुझ को गँवाया है बहुत दिन हम ने " tumhaare-jashn-ko-jashn-e-farozaan-ham-nahiin-kahte-jaan-nisar-akhtar-ghazals," तुम्हारे जश्न को जश्न-ए-फ़रोज़ाँ हम नहीं कहते लहू की गर्म बूँदों को चराग़ाँ हम नहीं कहते अगर हद से गुज़र जाए दवा तो बन नहीं जाता किसी भी दर्द को दुनिया का दरमाँ हम नहीं कहते नज़र की इंतिहा कोई न दिल की इंतिहा कोई किसी भी हुस्न को हुस्न-ए-फ़रावाँ हम नहीं कहते किसी आशिक़ के शाने पर बिखर जाए तो क्या कहना मगर इस ज़ुल्फ़ को ज़ुल्फ़-ए-परेशाँ हम नहीं कहते न बू-ए-गुल महकती है न शाख़-ए-गुल लचकती है अभी अपने गुलिस्ताँ को गुलिस्ताँ हम नहीं कहते बहारों से जुनूँ को हर तरह निस्बत सही लेकिन शगुफ़्त-ए-गुल को आशिक़ का गरेबाँ हम नहीं कहते हज़ारों साल बीते हैं हज़ारों साल बीतेंगे बदल जाएगी कल तक़दीर-ए-इंसाँ हम नहीं कहते " vo-ham-se-aaj-bhii-daaman-kashaan-chale-hai-miyaan-jaan-nisar-akhtar-ghazals," वो हम से आज भी दामन-कशाँ चले है मियाँ किसी पे ज़ोर हमारा कहाँ चले है मियाँ जहाँ भी थक के कोई कारवाँ ठहरता है वहीं से एक नया कारवाँ चले है मियाँ जो एक सम्त गुमाँ है तो एक सम्त यक़ीं ये ज़िंदगी तो यूँही दरमियाँ चले है मियाँ बदलते रहते हैं बस नाम और तो क्या है हज़ारों साल से इक दास्ताँ चले है मियाँ हर इक क़दम है नई आज़माइशों का हुजूम तमाम उम्र कोई इम्तिहाँ चले है मियाँ वहीं पे घूमते रहना तो कोई बात नहीं ज़मीं चले है तो आगे कहाँ चले है मियाँ वो एक लम्हा-ए-हैरत कि लफ़्ज़ साथ न दें नहीं चले है न ऐसे में हाँ चले है मियाँ " subh-ke-dard-ko-raaton-kii-jalan-ko-bhuulen-jaan-nisar-akhtar-ghazals," सुब्ह के दर्द को रातों की जलन को भूलें किस के घर जाएँ कि इस वादा-शिकन को भूलें आज तक चोट दबाए नहीं दबती दिल की किस तरह उस सनम-ए-संग-बदन को भूलें अब सिवा इस के मुदावा-ए-ग़म-ए-दिल क्या है इतनी पी जाएँ कि हर रंज-ओ-मेहन को भूलें और तहज़ीब-ए-ग़म-ए-इश्क़ निभा दें कुछ दिन आख़िरी वक़्त में क्या अपने चलन को भूलें " jism-kii-har-baat-hai-aavaargii-ye-mat-kaho-jaan-nisar-akhtar-ghazals," जिस्म की हर बात है आवारगी ये मत कहो हम भी कर सकते हैं ऐसी शायरी ये मत कहो उस नज़र की उस बदन की गुनगुनाहट तो सुनो एक सी होती है हर इक रागनी ये मत कहो हम से दीवानों के बिन दुनिया सँवरती किस तरह अक़्ल के आगे है क्या दीवानगी ये मत कहो कट सकी हैं आज तक सोने की ज़ंजीरें कहाँ हम भी अब आज़ाद हैं यारो अभी ये मत कहो पाँव इतने तेज़ हैं उठते नज़र आते नहीं आज थक कर रह गया है आदमी ये मत कहो जितने वादे कल थे उतने आज भी मौजूद हैं उन के वादों में हुई है कुछ कमी ये मत कहो दिल में अपने दर्द की छिटकी हुई है चाँदनी हर तरफ़ फैली हुई है तीरगी ये मत कहो " bahut-dil-kar-ke-honton-kii-shagufta-taazgii-dii-hai-jaan-nisar-akhtar-ghazals," बहुत दिल कर के होंटों की शगुफ़्ता ताज़गी दी है चमन माँगा था पर उस ने ब-मुश्किल इक कली दी है मिरे ख़ल्वत-कदे के रात दिन यूँही नहीं सँवरे किसी ने धूप बख़्शी है किसी ने चाँदनी दी है नज़र को सब्ज़ मैदानों ने क्या क्या वुसअतें बख़्शीं पिघलते आबशारों ने हमें दरिया-दिली दी है मोहब्बत ना-रवा तक़्सीम की क़ाएल नहीं फिर भी मिरी आँखों को आँसू तेरे होंटों को हँसी दी है मिरी आवारगी भी इक करिश्मा है ज़माने में हर इक दरवेश ने मुझ को दुआ-ए-ख़ैर ही दी है कहाँ मुमकिन था कोई काम हम जैसे दिवानों से तुम्हीं ने गीत लिखवाए तुम्हीं ने शाइरी दी है " har-ek-ruuh-men-ik-gam-chhupaa-lage-hai-mujhe-jaan-nisar-akhtar-ghazals," हर एक रूह में इक ग़म छुपा लगे है मुझे ये ज़िंदगी तो कोई बद-दुआ लगे है मुझे पसंद-ए-ख़ातिर-ए-अहल-ए-वफ़ा है मुद्दत से ये दिल का दाग़ जो ख़ुद भी भला लगे है मुझे जो आँसुओं में कभी रात भीग जाती है बहुत क़रीब वो आवाज़-ए-पा लगे है मुझे मैं सो भी जाऊँ तो क्या मेरी बंद आँखों में तमाम रात कोई झाँकता लगे है मुझे मैं जब भी उस के ख़यालों में खो सा जाता हूँ वो ख़ुद भी बात करे तो बुरा लगे है मुझे मैं सोचता था कि लौटूँगा अजनबी की तरह ये मेरा गाँव तो पहचानता लगे है मुझे न जाने वक़्त की रफ़्तार क्या दिखाती है कभी कभी तो बड़ा ख़ौफ़ सा लगे है मुझे बिखर गया है कुछ इस तरह आदमी का वजूद हर एक फ़र्द कोई सानेहा लगे है मुझे अब एक आध क़दम का हिसाब क्या रखिए अभी तलक तो वही फ़ासला लगे है मुझे हिकायत-ए-ग़म-ए-दिल कुछ कशिश तो रखती है ज़माना ग़ौर से सुनता हुआ लगे है मुझे " jab-lagen-zakhm-to-qaatil-ko-duaa-dii-jaae-jaan-nisar-akhtar-ghazals," जब लगें ज़ख़्म तो क़ातिल को दुआ दी जाए है यही रस्म तो ये रस्म उठा दी जाए दिल का वो हाल हुआ है ग़म-ए-दौराँ के तले जैसे इक लाश चटानों में दबा दी जाए इन्हीं गुल-रंग दरीचों से सहर झाँकेगी क्यूँ न खिलते हुए ज़ख़्मों को दुआ दी जाए कम नहीं नश्शे में जाड़े की गुलाबी रातें और अगर तेरी जवानी भी मिला दी जाए हम से पूछो कि ग़ज़ल क्या है ग़ज़ल का फ़न क्या चंद लफ़्ज़ों में कोई आग छुपा दी जाए " har-ek-shakhs-pareshaan-o-darba-dar-saa-lage-jaan-nisar-akhtar-ghazals," हर एक शख़्स परेशान-ओ-दर-बदर सा लगे ये शहर मुझ को तो यारो कोई भँवर सा लगे अब उस के तर्ज़-ए-तजाहुल को क्या कहे कोई वो बे-ख़बर तो नहीं फिर भी बे-ख़बर सा लगे हर एक ग़म को ख़ुशी की तरह बरतना है ये दौर वो है कि जीना भी इक हुनर सा लगे नशात-ए-सोहबत-ए-रिंदाँ बहुत ग़नीमत है कि लम्हा लम्हा पुर-आशोब-ओ-पुर-ख़तर सा लगे किसे ख़बर है कि दुनिया का हश्र क्या होगा कभी कभी तो मुझे आदमी से डर सा लगे वो तुंद वक़्त की रौ है कि पाँव टिक न सकें हर आदमी कोई उखड़ा हुआ शजर सा लगे जहान-ए-नौ के मुकम्मल सिंगार की ख़ातिर सदी सदी का ज़माना भी मुख़्तसर सा लगे " tum-pe-kyaa-biit-gaii-kuchh-to-bataao-yaaro-jaan-nisar-akhtar-ghazals," तुम पे क्या बीत गई कुछ तो बताओ यारो मैं कोई ग़ैर नहीं हूँ कि छुपाओ यारो इन अंधेरों से निकलने की कोई राह करो ख़ून-ए-दिल से कोई मिशअल ही जलाओ यारो एक भी ख़्वाब न हो जिन में वो आँखें क्या हैं इक न इक ख़्वाब तो आँखों में बसाओ यारो बोझ दुनिया का उठाऊँगा अकेला कब तक हो सके तुम से तो कुछ हाथ बटाओ यारो ज़िंदगी यूँ तो न बाँहों में चली आएगी ग़म-ए-दौराँ के ज़रा नाज़ उठाओ यारो उम्र-भर क़त्ल हुआ हूँ मैं तुम्हारी ख़ातिर आख़िरी वक़्त तो सूली न चढ़ाओ यारो और कुछ देर तुम्हें देख के जी लूँ ठहरो मेरी बालीं से अभी उठ के न जाओ यारो " aaj-muddat-men-vo-yaad-aae-hain-jaan-nisar-akhtar-ghazals," आज मुद्दत में वो याद आए हैं दर ओ दीवार पे कुछ साए हैं आबगीनों से न टकरा पाए कोहसारों से तो टकराए हैं ज़िंदगी तेरे हवादिस हम को कुछ न कुछ राह पे ले आए हैं संग-रेज़ों से ख़ज़फ़-पारों से कितने हीरे कभी चुन लाए हैं इतने मायूस तो हालात नहीं लोग किस वास्ते घबराए हैं उन की जानिब न किसी ने देखा जो हमें देख के शरमाए हैं " muddat-huii-us-jaan-e-hayaa-ne-ham-se-ye-iqraar-kiyaa-jaan-nisar-akhtar-ghazals," मुद्दत हुई उस जान-ए-हया ने हम से ये इक़रार किया जितने भी बदनाम हुए हम उतना उस ने प्यार किया पहले भी ख़ुश-चश्मों में हम चौकन्ना से रहते थे तेरी सोई आँखों ने तो और हमें होशियार किया जाते जाते कोई हम से अच्छे रहना कह तो गया पूछे लेकिन पूछने वाले किस ने ये बीमार किया क़तरा क़तरा सिर्फ़ हुआ है इश्क़ में अपने दिल का लहू शक्ल दिखाई तब उस ने जब आँखों को ख़ूँ-बार किया हम पर कितनी बार पड़े ये दौरे भी तन्हाई के जो भी हम से मिलने आया मिलने से इंकार किया इश्क़ में क्या नुक़सान नफ़ा है हम को क्या समझाते हो हम ने सारी उम्र ही यारो दिल का कारोबार किया महफ़िल पर जब नींद सी छाई सब के सब ख़ामोश हुए हम ने तब कुछ शेर सुनाया लोगों को बेदार किया अब तुम सोचो अब तुम जानो जो चाहो अब रंग भरो हम ने तो इक नक़्शा खींचा इक ख़ाका तय्यार किया देश से जब प्रदेश सिधारे हम पर ये भी वक़्त पड़ा नज़्में छोड़ी ग़ज़लें छोड़ी गीतों का बेवपार किया " zindagii-ye-to-nahiin-tujh-ko-sanvaaraa-hii-na-ho-jaan-nisar-akhtar-ghazals," ज़िंदगी ये तो नहीं तुझ को सँवारा ही न हो कुछ न कुछ हम ने तिरा क़र्ज़ उतारा ही न हो दिल को छू जाती है यूँ रात की आवाज़ कभी चौंक उठता हूँ कहीं तू ने पुकारा ही न हो कभी पलकों पे चमकती है जो अश्कों की लकीर सोचता हूँ तिरे आँचल का किनारा ही न हो ज़िंदगी एक ख़लिश दे के न रह जा मुझ को दर्द वो दे जो किसी तरह गवारा ही न हो शर्म आती है कि उस शहर में हम हैं कि जहाँ न मिले भीक तो लाखों का गुज़ारा ही न हो " zaraa-sii-baat-pe-har-rasm-tod-aayaa-thaa-jaan-nisar-akhtar-ghazals," ज़रा सी बात पे हर रस्म तोड़ आया था दिल-ए-तबाह ने भी क्या मिज़ाज पाया था गुज़र गया है कोई लम्हा-ए-शरर की तरह अभी तो मैं उसे पहचान भी न पाया था मुआफ़ कर न सकी मेरी ज़िंदगी मुझ को वो एक लम्हा कि मैं तुझ से तंग आया था शगुफ़्ता फूल सिमट कर कली बने जैसे कुछ इस कमाल से तू ने बदन चुराया था पता नहीं कि मिरे बाद उन पे क्या गुज़री मैं चंद ख़्वाब ज़माने में छोड़ आया था " aise-chup-hain-ki-ye-manzil-bhii-kadii-ho-jaise-ahmad-faraz-ghazals," ऐसे चुप हैं कि ये मंज़िल भी कड़ी हो जैसे तेरा मिलना भी जुदाई की घड़ी हो जैसे अपने ही साए से हर गाम लरज़ जाता हूँ रास्ते में कोई दीवार खड़ी हो जैसे कितने नादाँ हैं तिरे भूलने वाले कि तुझे याद करने के लिए उम्र पड़ी हो जैसे तेरे माथे की शिकन पहले भी देखी थी मगर ये गिरह अब के मिरे दिल में पड़ी हो जैसे मंज़िलें दूर भी हैं मंज़िलें नज़दीक भी हैं अपने ही पाँव में ज़ंजीर पड़ी हो जैसे आज दिल खोल के रोए हैं तो यूँ ख़ुश हैं 'फ़राज़' चंद लम्हों की ये राहत भी बड़ी हो जैसे " qurbaton-men-bhii-judaaii-ke-zamaane-maange-ahmad-faraz-ghazals," क़ुर्बतों में भी जुदाई के ज़माने माँगे दिल वो बे-मेहर कि रोने के बहाने माँगे हम न होते तो किसी और के चर्चे होते ख़िल्क़त-ए-शहर तो कहने को फ़साने माँगे यही दिल था कि तरसता था मरासिम के लिए अब यही तर्क-ए-तअल्लुक़ के बहाने माँगे अपना ये हाल कि जी हार चुके लुट भी चुके और मोहब्बत वही अंदाज़ पुराने माँगे ज़िंदगी हम तिरे दाग़ों से रहे शर्मिंदा और तू है कि सदा आईना-ख़ाने माँगे दिल किसी हाल पे क़ाने ही नहीं जान-ए-'फ़राज़' मिल गए तुम भी तो क्या और न जाने माँगे " saaqiyaa-ek-nazar-jaam-se-pahle-pahle-ahmad-faraz-ghazals," साक़िया एक नज़र जाम से पहले पहले हम को जाना है कहीं शाम से पहले पहले नौ-गिरफ़्तार-ए-वफ़ा सई-ए-रिहाई है अबस हम भी उलझे थे बहुत दाम से पहले पहले ख़ुश हो ऐ दिल कि मोहब्बत तो निभा दी तू ने लोग उजड़ जाते हैं अंजाम से पहले पहले अब तिरे ज़िक्र पे हम बात बदल देते हैं कितनी रग़बत थी तिरे नाम से पहले पहले सामने उम्र पड़ी है शब-ए-तन्हाई की वो मुझे छोड़ गया शाम से पहले पहले कितना अच्छा था कि हम भी जिया करते थे 'फ़राज़' ग़ैर-मारूफ़ से गुमनाम से पहले पहले " ajab-junuun-e-masaafat-men-ghar-se-niklaa-thaa-ahmad-faraz-ghazals," अजब जुनून-ए-मसाफ़त में घर से निकला था ख़बर नहीं है कि सूरज किधर से निकला था ये कौन फिर से उन्हीं रास्तों में छोड़ गया अभी अभी तो अज़ाब-ए-सफ़र से निकला था ये तीर दिल में मगर बे-सबब नहीं उतरा कोई तो हर्फ़ लब-ए-चारागर से निकला था ये अब जो आग बना शहर शहर फैला है यही धुआँ मिरे दीवार-ओ-दर से निकला था मैं रात टूट के रोया तो चैन से सोया कि दिल का ज़हर मिरी चश्म-ए-तर से निकला था ये अब जो सर हैं ख़मीदा कुलाह की ख़ातिर ये ऐब भी तो हम अहल-ए-हुनर से निकला था वो क़ैस अब जिसे मजनूँ पुकारते हैं 'फ़राज़' तिरी तरह कोई दीवाना घर से निकला था " havaa-ke-zor-se-pindaar-e-baam-o-dar-bhii-gayaa-ahmad-faraz-ghazals," हवा के ज़ोर से पिंदार-ए-बाम-ओ-दर भी गया चराग़ को जो बचाते थे उन का घर भी गया पुकारते रहे महफ़ूज़ कश्तियों वाले मैं डूबता हुआ दरिया के पार उतर भी गया अब एहतियात की दीवार क्या उठाते हो जो चोर दिल में छुपा था वो काम कर भी गया मैं चुप रहा कि इसी में थी आफ़ियत जाँ की कोई तो मेरी तरह था जो दार पर भी गया सुलगते सोचते वीरान मौसमों की तरह कड़ा था अहद-ए-जवानी मगर गुज़र भी गया जिसे भुला न सका उस को याद क्या रखता जो नाम लब पे रहा ज़ेहन से उतर भी गया फटी फटी हुई आँखों से यूँ न देख मुझे तुझे तलाश है जिस शख़्स की वो मर भी गया मगर फ़लक को अदावत उसी के घर से थी जहाँ 'फ़राज़' न था सैल-ए-ग़म उधर भी गया " dukh-fasaana-nahiin-ki-tujh-se-kahen-ahmad-faraz-ghazals," दुख फ़साना नहीं कि तुझ से कहें दिल भी माना नहीं कि तुझ से कहें आज तक अपनी बेकली का सबब ख़ुद भी जाना नहीं कि तुझ से कहें बे-तरह हाल-ए-दिल है और तुझ से दोस्ताना नहीं कि तुझ से कहें एक तू हर्फ़-ए-आश्ना था मगर अब ज़माना नहीं कि तुझ से कहें क़ासिदा हम फ़क़ीर लोगों का इक ठिकाना नहीं कि तुझ से कहें ऐ ख़ुदा दर्द-ए-दिल है बख़्शिश-ए-दोस्त आब-ओ-दाना नहीं कि तुझ से कहें अब तो अपना भी उस गली में 'फ़राज़' आना जाना नहीं कि तुझ से कहें " huii-hai-shaam-to-aankhon-men-bas-gayaa-phir-tuu-ahmad-faraz-ghazals," हुई है शाम तो आँखों में बस गया फिर तू कहाँ गया है मिरे शहर के मुसाफ़िर तू मिरी मिसाल कि इक नख़्ल-ए-ख़ुश्क-ए-सहरा हूँ तिरा ख़याल कि शाख़-ए-चमन का ताइर तू मैं जानता हूँ कि दुनिया तुझे बदल देगी मैं मानता हूँ कि ऐसा नहीं ब-ज़ाहिर तू हँसी-ख़ुशी से बिछड़ जा अगर बिछड़ना है ये हर मक़ाम पे क्या सोचता है आख़िर तू फ़ज़ा उदास है रुत मुज़्महिल है मैं चुप हूँ जो हो सके तो चला आ किसी की ख़ातिर तू 'फ़राज़' तू ने उसे मुश्किलों में डाल दिया ज़माना साहब-ए-ज़र और सिर्फ़ शाएर तू " ab-aur-kyaa-kisii-se-maraasim-badhaaen-ham-ahmad-faraz-ghazals," अब और क्या किसी से मरासिम बढ़ाएँ हम ये भी बहुत है तुझ को अगर भूल जाएँ हम सहरा-ए-ज़िंदगी में कोई दूसरा न था सुनते रहे हैं आप ही अपनी सदाएँ हम इस ज़िंदगी में इतनी फ़राग़त किसे नसीब इतना न याद आ कि तुझे भूल जाएँ हम तू इतनी दिल-ज़दा तो न थी ऐ शब-ए-फ़िराक़ आ तेरे रास्ते में सितारे लुटाएँ हम वो लोग अब कहाँ हैं जो कहते थे कल 'फ़राज़' हे हे ख़ुदा-न-कर्दा तुझे भी रुलाएँ हम " rog-aise-bhii-gam-e-yaar-se-lag-jaate-hain-ahmad-faraz-ghazals," रोग ऐसे भी ग़म-ए-यार से लग जाते हैं दर से उठते हैं तो दीवार से लग जाते हैं इश्क़ आग़ाज़ में हल्की सी ख़लिश रखता है बाद में सैकड़ों आज़ार से लग जाते हैं पहले पहले हवस इक-आध दुकाँ खोलती है फिर तो बाज़ार के बाज़ार से लग जाते हैं बेबसी भी कभी क़ुर्बत का सबब बनती है रो न पाएँ तो गले यार से लग जाते हैं कतरनें ग़म की जो गलियों में उड़ी फिरती हैं घर में ले आओ तो अम्बार से लग जाते हैं दाग़ दामन के हों दिल के हों कि चेहरे के 'फ़राज़' कुछ निशाँ उम्र की रफ़्तार से लग जाते हैं " us-ne-sukuut-e-shab-men-bhii-apnaa-payaam-rakh-diyaa-ahmad-faraz-ghazals," उस ने सुकूत-ए-शब में भी अपना पयाम रख दिया हिज्र की रात बाम पर माह-ए-तमाम रख दिया आमद-ए-दोस्त की नवेद कू-ए-वफ़ा में आम थी मैं ने भी इक चराग़ सा दिल सर-ए-शाम रख दिया शिद्दत-ए-तिश्नगी में भी ग़ैरत-ए-मय-कशी रही उस ने जो फेर ली नज़र मैं ने भी जाम रख दिया उस ने नज़र नज़र में ही ऐसे भले सुख़न कहे मैं ने तो उस के पाँव में सारा कलाम रख दिया देखो ये मेरे ख़्वाब थे देखो ये मेरे ज़ख़्म हैं मैं ने तो सब हिसाब-ए-जाँ बर-सर-ए-आम रख दिया अब के बहार ने भी कीं ऐसी शरारतें कि बस कब्क-ए-दरी की चाल में तेरा ख़िराम रख दिया जो भी मिला उसी का दिल हल्क़ा-ब-गोश-ए-यार था उस ने तो सारे शहर को कर के ग़ुलाम रख दिया और 'फ़राज़' चाहिएँ कितनी मोहब्बतें तुझे माओं ने तेरे नाम पर बच्चों का नाम रख दिया " kathin-hai-raahguzar-thodii-duur-saath-chalo-ahmad-faraz-ghazals-1," कठिन है राहगुज़र थोड़ी दूर साथ चलो बहुत कड़ा है सफ़र थोड़ी दूर साथ चलो तमाम उम्र कहाँ कोई साथ देता है ये जानता हूँ मगर थोड़ी दूर साथ चलो नशे में चूर हूँ मैं भी तुम्हें भी होश नहीं बड़ा मज़ा हो अगर थोड़ी दूर साथ चलो ये एक शब की मुलाक़ात भी ग़नीमत है किसे है कल की ख़बर थोड़ी दूर साथ चलो अभी तो जाग रहे हैं चराग़ राहों के अभी है दूर सहर थोड़ी दूर साथ चलो तवाफ़-ए-मंज़िल-ए-जानाँ हमें भी करना है 'फ़राज़' तुम भी अगर थोड़ी दूर साथ चलो " juz-tire-koii-bhii-din-raat-na-jaane-mere-ahmad-faraz-ghazals," जुज़ तिरे कोई भी दिन रात न जाने मेरे तू कहाँ है मगर ऐ दोस्त पुराने मेरे तू भी ख़ुशबू है मगर मेरा तजस्सुस बेकार बर्ग-ए-आवारा की मानिंद ठिकाने मेरे शम्अ की लौ थी कि वो तू था मगर हिज्र की रात देर तक रोता रहा कोई सिरहाने मेरे ख़ल्क़ की बे-ख़बरी है कि मिरी रुस्वाई लोग मुझ को ही सुनाते हैं फ़साने मेरे लुट के भी ख़ुश हूँ कि अश्कों से भरा है दामन देख ग़ारत-गर-ए-दिल ये भी ख़ज़ाने मेरे आज इक और बरस बीत गया उस के बग़ैर जिस के होते हुए होते थे ज़माने मेरे काश तू भी मेरी आवाज़ कहीं सुनता हो फिर पुकारा है तुझे दिल की सदा ने मेरे काश तू भी कभी आ जाए मसीहाई को लोग आते हैं बहुत दिल को दुखाने मेरे काश औरों की तरह मैं भी कभी कह सकता बात सुन ली है मिरी आज ख़ुदा ने मेरे तू है किस हाल में ऐ ज़ूद-फ़रामोश मिरे मुझ को तो छीन लिया अहद-ए-वफ़ा ने मेरे चारागर यूँ तो बहुत हैं मगर ऐ जान-ए-'फ़राज़' जुज़ तिरे और कोई ज़ख़्म न जाने मेरे " ab-ke-tajdiid-e-vafaa-kaa-nahiin-imkaan-jaanaan-ahmad-faraz-ghazals," अब के तजदीद-ए-वफ़ा का नहीं इम्काँ जानाँ याद क्या तुझ को दिलाएँ तिरा पैमाँ जानाँ यूँही मौसम की अदा देख के याद आया है किस क़दर जल्द बदल जाते हैं इंसाँ जानाँ ज़िंदगी तेरी अता थी सो तिरे नाम की है हम ने जैसे भी बसर की तिरा एहसाँ जानाँ दिल ये कहता है कि शायद है फ़सुर्दा तू भी दिल की क्या बात करें दिल तो है नादाँ जानाँ अव्वल अव्वल की मोहब्बत के नशे याद तो कर बे-पिए भी तिरा चेहरा था गुलिस्ताँ जानाँ आख़िर आख़िर तो ये आलम है कि अब होश नहीं रग-ए-मीना सुलग उट्ठी कि रग-ए-जाँ जानाँ मुद्दतों से यही आलम न तवक़्क़ो न उमीद दिल पुकारे ही चला जाता है जानाँ जानाँ हम भी क्या सादा थे हम ने भी समझ रक्खा था ग़म-ए-दौराँ से जुदा है ग़म-ए-जानाँ जानाँ अब के कुछ ऐसी सजी महफ़िल-ए-याराँ जानाँ सर-ब-ज़ानू है कोई सर-ब-गरेबाँ जानाँ हर कोई अपनी ही आवाज़ से काँप उठता है हर कोई अपने ही साए से हिरासाँ जानाँ जिस को देखो वही ज़ंजीर-ब-पा लगता है शहर का शहर हुआ दाख़िल-ए-ज़िंदाँ जानाँ अब तिरा ज़िक्र भी शायद ही ग़ज़ल में आए और से और हुए दर्द के उनवाँ जानाँ हम कि रूठी हुई रुत को भी मना लेते थे हम ने देखा ही न था मौसम-ए-हिज्राँ जानाँ होश आया तो सभी ख़्वाब थे रेज़ा रेज़ा जैसे उड़ते हुए औराक़-ए-परेशाँ जानाँ " agarche-zor-havaaon-ne-daal-rakkhaa-hai-ahmad-faraz-ghazals," अगरचे ज़ोर हवाओं ने डाल रक्खा है मगर चराग़ ने लौ को सँभाल रक्खा है मोहब्बतों में तो मिलना है या उजड़ जाना मिज़ाज-ए-इश्क़ में कब ए'तिदाल रक्खा है हवा में नश्शा ही नश्शा फ़ज़ा में रंग ही रंग ये किस ने पैरहन अपना उछाल रक्खा है भले दिनों का भरोसा ही क्या रहें न रहें सो मैं ने रिश्ता-ए-ग़म को बहाल रक्खा है हम ऐसे सादा-दिलों को वो दोस्त हो कि ख़ुदा सभी ने वादा-ए-फ़र्दा पे टाल रक्खा है हिसाब-ए-लुत्फ़-ए-हरीफ़ाँ किया है जब तो खुला कि दोस्तों ने ज़ियादा ख़याल रक्खा है भरी बहार में इक शाख़ पर खिला है गुलाब कि जैसे तू ने हथेली पे गाल रक्खा है 'फ़राज़' इश्क़ की दुनिया तो ख़ूब-सूरत थी ये किस ने फ़ित्ना-ए-हिज्र-ओ-विसाल रक्खा है " karuun-na-yaad-magar-kis-tarah-bhulaauun-use-ahmad-faraz-ghazals," करूँ न याद मगर किस तरह भुलाऊँ उसे ग़ज़ल बहाना करूँ और गुनगुनाऊँ उसे वो ख़ार ख़ार है शाख़-ए-गुलाब की मानिंद मैं ज़ख़्म ज़ख़्म हूँ फिर भी गले लगाऊँ उसे ये लोग तज़्किरे करते हैं अपने लोगों के मैं कैसे बात करूँ अब कहाँ से लाऊँ उसे मगर वो ज़ूद-फ़रामोश ज़ूद-रंज भी है कि रूठ जाए अगर याद कुछ दिलाऊँ उसे वही जो दौलत-ए-दिल है वही जो राहत-ए-जाँ तुम्हारी बात पे ऐ नासेहो गँवाऊँ उसे जो हम-सफ़र सर-ए-मंज़िल बिछड़ रहा है 'फ़राज़' अजब नहीं है अगर याद भी न आऊँ उसे " jab-bhii-dil-khol-ke-roe-honge-ahmad-faraz-ghazals," जब भी दिल खोल के रोए होंगे लोग आराम से सोए होंगे बाज़ औक़ात ब-मजबूरी-ए-दिल हम तो क्या आप भी रोए होंगे सुब्ह तक दस्त-ए-सबा ने क्या क्या फूल काँटों में पिरोए होंगे वो सफ़ीने जिन्हें तूफ़ाँ न मिले ना-ख़ुदाओं ने डुबोए होंगे रात भर हँसते हुए तारों ने उन के आरिज़ भी भिगोए होंगे क्या अजब है वो मिले भी हों 'फ़राज़' हम किसी ध्यान में खोए होंगे " is-qadar-musalsal-thiin-shiddaten-judaaii-kii-ahmad-faraz-ghazals," इस क़दर मुसलसल थीं शिद्दतें जुदाई की आज पहली बार उस से मैं ने बेवफ़ाई की वर्ना अब तलक यूँ था ख़्वाहिशों की बारिश में या तो टूट कर रोया या ग़ज़ल-सराई की तज दिया था कल जिन को हम ने तेरी चाहत में आज उन से मजबूरन ताज़ा आश्नाई की हो चला था जब मुझ को इख़्तिलाफ़ अपने से तू ने किस घड़ी ज़ालिम मेरी हम-नवाई की तर्क कर चुके क़ासिद कू-ए-ना-मुरादाँ को कौन अब ख़बर लावे शहर-ए-आश्नाई की तंज़ ओ ता'ना ओ तोहमत सब हुनर हैं नासेह के आप से कोई पूछे हम ने क्या बुराई की फिर क़फ़स में शोर उट्ठा क़ैदियों का और सय्याद देखना उड़ा देगा फिर ख़बर रिहाई की दुख हुआ जब उस दर पर कल 'फ़राज़' को देखा लाख ऐब थे उस में ख़ू न थी गदाई की " ab-kyaa-sochen-kyaa-haalaat-the-kis-kaaran-ye-zahr-piyaa-hai-ahmad-faraz-ghazals," अब क्या सोचें क्या हालात थे किस कारन ये ज़हर पिया है हम ने उस के शहर को छोड़ा और आँखों को मूँद लिया है अपना ये शेवा तो नहीं था अपने ग़म औरों को सौंपें ख़ुद तो जागते या सोते हैं उस को क्यूँ बे-ख़्वाब किया है ख़िल्क़त के आवाज़े भी थे बंद उस के दरवाज़े भी थे फिर भी उस कूचे से गुज़रे फिर भी उस का नाम लिया है हिज्र की रुत जाँ-लेवा थी पर ग़लत सभी अंदाज़े निकले ताज़ा रिफ़ाक़त के मौसम तक मैं भी जिया हूँ वो भी जिया है एक 'फ़राज़' तुम्हीं तन्हा हो जो अब तक दुख के रसिया हो वर्ना अक्सर दिल वालों ने दर्द का रस्ता छोड़ दिया है " yuunhii-mar-mar-ke-jien-vaqt-guzaare-jaaen-ahmad-faraz-ghazals," यूँही मर मर के जिएँ वक़्त गुज़ारे जाएँ ज़िंदगी हम तिरे हाथों से न मारे जाएँ अब ज़मीं पर कोई गौतम न मोहम्मद न मसीह आसमानों से नए लोग उतारे जाएँ वो जो मौजूद नहीं उस की मदद चाहते हैं वो जो सुनता ही नहीं उस को पुकारे जाएँ बाप लर्ज़ां है कि पहुँची नहीं बारात अब तक और हम-जोलियाँ दुल्हन को सँवारे जाएँ हम कि नादान जुआरी हैं सभी जानते हैं दिल की बाज़ी हो तो जी जान से हारे जाएँ तज दिया तुम ने दर-ए-यार भी उकता के 'फ़राज़' अब कहाँ ढूँढने ग़म-ख़्वार तुम्हारे जाएँ " saamne-us-ke-kabhii-us-kii-sataaish-nahiin-kii-ahmad-faraz-ghazals," सामने उस के कभी उस की सताइश नहीं की दिल ने चाहा भी अगर होंटों ने जुम्बिश नहीं की अहल-ए-महफ़िल पे कब अहवाल खुला है अपना मैं भी ख़ामोश रहा उस ने भी पुर्सिश नहीं की जिस क़दर उस से तअल्लुक़ था चला जाता है उस का क्या रंज हो जिस की कभी ख़्वाहिश नहीं की ये भी क्या कम है कि दोनों का भरम क़ाएम है उस ने बख़्शिश नहीं की हम ने गुज़ारिश नहीं की इक तो हम को अदब आदाब ने प्यासा रक्खा उस पे महफ़िल में सुराही ने भी गर्दिश नहीं की हम कि दुख ओढ़ के ख़ल्वत में पड़े रहते हैं हम ने बाज़ार में ज़ख़्मों की नुमाइश नहीं की ऐ मिरे अब्र-ए-करम देख ये वीराना-ए-जाँ क्या किसी दश्त पे तू ने कभी बारिश नहीं की कट मरे अपने क़बीले की हिफ़ाज़त के लिए मक़्तल-ए-शहर में ठहरे रहे जुम्बिश नहीं की वो हमें भूल गया हो तो अजब क्या है 'फ़राज़' हम ने भी मेल-मुलाक़ात की कोशिश नहीं की " avval-avval-kii-dostii-hai-abhii-ahmad-faraz-ghazals," अव्वल अव्वल की दोस्ती है अभी इक ग़ज़ल है कि हो रही है अभी मैं भी शहर-ए-वफ़ा में नौ-वारिद वो भी रुक रुक के चल रही है अभी मैं भी ऐसा कहाँ का ज़ूद-शनास वो भी लगता है सोचती है अभी दिल की वारफ़्तगी है अपनी जगह फिर भी कुछ एहतियात सी है अभी गरचे पहला सा इज्तिनाब नहीं फिर भी कम कम सुपुर्दगी है अभी कैसा मौसम है कुछ नहीं खुलता बूँदा-बाँदी भी धूप भी है अभी ख़ुद-कलामी में कब ये नश्शा था जिस तरह रू-ब-रू कोई है अभी क़ुर्बतें लाख ख़ूब-सूरत हों दूरियों में भी दिलकशी है अभी फ़स्ल-ए-गुल में बहार पहला गुलाब किस की ज़ुल्फ़ों में टाँकती है अभी मुद्दतें हो गईं 'फ़राज़' मगर वो जो दीवानगी कि थी है अभी " tere-qariib-aa-ke-badii-uljhanon-men-huun-ahmad-faraz-ghazals," तेरे क़रीब आ के बड़ी उलझनों में हूँ मैं दुश्मनों में हूँ कि तिरे दोस्तों में हूँ मुझ से गुरेज़-पा है तो हर रास्ता बदल मैं संग-ए-राह हूँ तो सभी रास्तों में हूँ तू आ चुका है सत्ह पे कब से ख़बर नहीं बेदर्द मैं अभी उन्हीं गहराइयों में हूँ ऐ यार-ए-ख़ुश-दयार तुझे क्या ख़बर कि मैं कब से उदासियों के घने जंगलों में हूँ तू लूट कर भी अहल-ए-तमन्ना को ख़ुश नहीं याँ लुट के भी वफ़ा के इन्ही क़ाफ़िलों में हूँ बदला न मेरे बाद भी मौज़ू-ए-गुफ़्तुगू मैं जा चुका हूँ फिर भी तिरी महफ़िलों में हूँ मुझ से बिछड़ के तू भी तो रोएगा उम्र भर ये सोच ले कि मैं भी तिरी ख़्वाहिशों में हूँ तू हँस रहा है मुझ पे मिरा हाल देख कर और फिर भी मैं शरीक तिरे क़हक़हों में हूँ ख़ुद ही मिसाल-ए-लाला-ए-सेहरा लहू लहू और ख़ुद 'फ़राज़' अपने तमाशाइयों में हूँ " jis-samt-bhii-dekhuun-nazar-aataa-hai-ki-tum-ho-ahmad-faraz-ghazals," जिस सम्त भी देखूँ नज़र आता है कि तुम हो ऐ जान-ए-जहाँ ये कोई तुम सा है कि तुम हो ये ख़्वाब है ख़ुशबू है कि झोंका है कि पल है ये धुँद है बादल है कि साया है कि तुम हो इस दीद की साअत में कई रंग हैं लर्ज़ां मैं हूँ कि कोई और है दुनिया है कि तुम हो देखो ये किसी और की आँखें हैं कि मेरी देखूँ ये किसी और का चेहरा है कि तुम हो ये उम्र-ए-गुरेज़ाँ कहीं ठहरे तो ये जानूँ हर साँस में मुझ को यही लगता है कि तुम हो हर बज़्म में मौज़ू-ए-सुख़न दिल-ज़दगाँ का अब कौन है शीरीं है कि लैला है कि तुम हो इक दर्द का फैला हुआ सहरा है कि मैं हूँ इक मौज में आया हुआ दरिया है कि तुम हो वो वक़्त न आए कि दिल-ए-ज़ार भी सोचे इस शहर में तन्हा कोई हम सा है कि तुम हो आबाद हम आशुफ़्ता-सरों से नहीं मक़्तल ये रस्म अभी शहर में ज़िंदा है कि तुम हो ऐ जान-ए-'फ़राज़' इतनी भी तौफ़ीक़ किसे थी हम को ग़म-ए-हस्ती भी गवारा है कि तुम हो " tujh-se-mil-kar-to-ye-lagtaa-hai-ki-ai-ajnabii-dost-ahmad-faraz-ghazals," तुझ से मिल कर तो ये लगता है कि ऐ अजनबी दोस्त तू मिरी पहली मोहब्बत थी मिरी आख़िरी दोस्त लोग हर बात का अफ़्साना बना देते हैं ये तो दुनिया है मिरी जाँ कई दुश्मन कई दोस्त तेरे क़ामत से भी लिपटी है अमर-बेल कोई मेरी चाहत को भी दुनिया की नज़र खा गई दोस्त याद आई है तो फिर टूट के याद आई है कोई गुज़री हुई मंज़िल कोई भूली हुई दोस्त अब भी आए हो तो एहसान तुम्हारा लेकिन वो क़यामत जो गुज़रनी थी गुज़र भी गई दोस्त तेरे लहजे की थकन में तिरा दिल शामिल है ऐसा लगता है जुदाई की घड़ी आ गई दोस्त बारिश-ए-संग का मौसम है मिरे शहर में तो तू ये शीशे सा बदन ले के कहाँ आ गई दोस्त मैं उसे अहद-शिकन कैसे समझ लूँ जिस ने आख़िरी ख़त में ये लिक्खा था फ़क़त आप की दोस्त " silsile-tod-gayaa-vo-sabhii-jaate-jaate-ahmad-faraz-ghazals," सिलसिले तोड़ गया वो सभी जाते जाते वर्ना इतने तो मरासिम थे कि आते जाते शिकवा-ए-ज़ुल्मत-ए-शब से तो कहीं बेहतर था अपने हिस्से की कोई शम्अ' जलाते जाते कितना आसाँ था तिरे हिज्र में मरना जानाँ फिर भी इक उम्र लगी जान से जाते जाते जश्न-ए-मक़्तल ही न बरपा हुआ वर्ना हम भी पा-ब-जौलाँ ही सही नाचते गाते जाते इस की वो जाने उसे पास-ए-वफ़ा था कि न था तुम 'फ़राज़' अपनी तरफ़ से तो निभाते जाते " sunaa-hai-log-use-aankh-bhar-ke-dekhte-hain-ahmad-faraz-ghazals," सुना है लोग उसे आँख भर के देखते हैं सो उस के शहर में कुछ दिन ठहर के देखते हैं सुना है रब्त है उस को ख़राब-हालों से सो अपने आप को बरबाद कर के देखते हैं सुना है दर्द की गाहक है चश्म-ए-नाज़ उस की सो हम भी उस की गली से गुज़र के देखते हैं सुना है उस को भी है शेर ओ शाइरी से शग़फ़ सो हम भी मो'जिज़े अपने हुनर के देखते हैं सुना है बोले तो बातों से फूल झड़ते हैं ये बात है तो चलो बात कर के देखते हैं सुना है रात उसे चाँद तकता रहता है सितारे बाम-ए-फ़लक से उतर के देखते हैं सुना है दिन को उसे तितलियाँ सताती हैं सुना है रात को जुगनू ठहर के देखते हैं सुना है हश्र हैं उस की ग़ज़ाल सी आँखें सुना है उस को हिरन दश्त भर के देखते हैं सुना है रात से बढ़ कर हैं काकुलें उस की सुना है शाम को साए गुज़र के देखते हैं सुना है उस की सियह-चश्मगी क़यामत है सो उस को सुरमा-फ़रोश आह भर के देखते हैं सुना है उस के लबों से गुलाब जलते हैं सो हम बहार पे इल्ज़ाम धर के देखते हैं सुना है आइना तिमसाल है जबीं उस की जो सादा दिल हैं उसे बन-सँवर के देखते हैं सुना है जब से हमाइल हैं उस की गर्दन में मिज़ाज और ही लाल ओ गुहर के देखते हैं सुना है चश्म-ए-तसव्वुर से दश्त-ए-इम्काँ में पलंग ज़ाविए उस की कमर के देखते हैं सुना है उस के बदन की तराश ऐसी है कि फूल अपनी क़बाएँ कतर के देखते हैं वो सर्व-क़द है मगर बे-गुल-ए-मुराद नहीं कि उस शजर पे शगूफ़े समर के देखते हैं बस इक निगाह से लुटता है क़ाफ़िला दिल का सो रह-रवान-ए-तमन्ना भी डर के देखते हैं सुना है उस के शबिस्ताँ से मुत्तसिल है बहिश्त मकीं उधर के भी जल्वे इधर के देखते हैं रुके तो गर्दिशें उस का तवाफ़ करती हैं चले तो उस को ज़माने ठहर के देखते हैं किसे नसीब कि बे-पैरहन उसे देखे कभी कभी दर ओ दीवार घर के देखते हैं कहानियाँ ही सही सब मुबालग़े ही सही अगर वो ख़्वाब है ताबीर कर के देखते हैं अब उस के शहर में ठहरें कि कूच कर जाएँ 'फ़राज़' आओ सितारे सफ़र के देखते हैं " ab-ke-ham-bichhde-to-shaayad-kabhii-khvaabon-men-milen-ahmad-faraz-ghazals," अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिलें जिस तरह सूखे हुए फूल किताबों में मिलें ढूँढ उजड़े हुए लोगों में वफ़ा के मोती ये ख़ज़ाने तुझे मुमकिन है ख़राबों में मिलें ग़म-ए-दुनिया भी ग़म-ए-यार में शामिल कर लो नश्शा बढ़ता है शराबें जो शराबों में मिलें तू ख़ुदा है न मिरा इश्क़ फ़रिश्तों जैसा दोनों इंसाँ हैं तो क्यूँ इतने हिजाबों में मिलें आज हम दार पे खींचे गए जिन बातों पर क्या अजब कल वो ज़माने को निसाबों में मिलें अब न वो मैं न वो तू है न वो माज़ी है 'फ़राज़' जैसे दो शख़्स तमन्ना के सराबों में मिलें " qurbat-bhii-nahiin-dil-se-utar-bhii-nahiin-jaataa-ahmad-faraz-ghazals," क़ुर्बत भी नहीं दिल से उतर भी नहीं जाता वो शख़्स कोई फ़ैसला कर भी नहीं जाता आँखें हैं कि ख़ाली नहीं रहती हैं लहू से और ज़ख़्म-ए-जुदाई है कि भर भी नहीं जाता वो राहत-ए-जाँ है मगर इस दर-बदरी में ऐसा है कि अब ध्यान उधर भी नहीं जाता हम दोहरी अज़िय्यत के गिरफ़्तार मुसाफ़िर पाँव भी हैं शल शौक़-ए-सफ़र भी नहीं जाता दिल को तिरी चाहत पे भरोसा भी बहुत है और तुझ से बिछड़ जाने का डर भी नहीं जाता पागल हुए जाते हो 'फ़राज़' उस से मिले क्या इतनी सी ख़ुशी से कोई मर भी नहीं जाता " khaamosh-ho-kyuun-daad-e-jafaa-kyuun-nahiin-dete-ahmad-faraz-ghazals," ख़ामोश हो क्यूँ दाद-ए-जफ़ा क्यूँ नहीं देते बिस्मिल हो तो क़ातिल को दुआ क्यूँ नहीं देते वहशत का सबब रौज़न-ए-ज़िंदाँ तो नहीं है मेहर ओ मह ओ अंजुम को बुझा क्यूँ नहीं देते इक ये भी तो अंदाज़-ए-इलाज-ए-ग़म-ए-जाँ है ऐ चारागरो दर्द बढ़ा क्यूँ नहीं देते मुंसिफ़ हो अगर तुम तो कब इंसाफ़ करोगे मुजरिम हैं अगर हम तो सज़ा क्यूँ नहीं देते रहज़न हो तो हाज़िर है मता-ए-दिल-ओ-जाँ भी रहबर हो तो मंज़िल का पता क्यूँ नहीं देते क्या बीत गई अब के 'फ़राज़' अहल-ए-चमन पर यारान-ए-क़फ़स मुझ को सदा क्यूँ नहीं देते " jo-gair-the-vo-isii-baat-par-hamaare-hue-ahmad-faraz-ghazals," जो ग़ैर थे वो इसी बात पर हमारे हुए कि हम से दोस्त बहुत बे-ख़बर हमारे हुए किसे ख़बर वो मोहब्बत थी या रक़ाबत थी बहुत से लोग तुझे देख कर हमारे हुए अब इक हुजूम-ए-शिकस्ता-दिलाँ है साथ अपने जिन्हें कोई न मिला हम-सफ़र हमारे हुए किसी ने ग़म तो किसी ने मिज़ाज-ए-ग़म बख़्शा सब अपनी अपनी जगह चारागर हमारे हुए बुझा के ताक़ की शमएँ न देख तारों को इसी जुनूँ में तो बर्बाद घर हमारे हुए वो ए'तिमाद कहाँ से 'फ़राज़' लाएँगे किसी को छोड़ के वो अब अगर हमारे हुए " is-se-pahle-ki-be-vafaa-ho-jaaen-ahmad-faraz-ghazals," इस से पहले कि बे-वफ़ा हो जाएँ क्यूँ न ऐ दोस्त हम जुदा हो जाएँ तू भी हीरे से बन गया पत्थर हम भी कल जाने क्या से क्या हो जाएँ तू कि यकता था बे-शुमार हुआ हम भी टूटें तो जा-ब-जा हो जाएँ हम भी मजबूरियों का उज़्र करें फिर कहीं और मुब्तला हो जाएँ हम अगर मंज़िलें न बन पाए मंज़िलों तक का रास्ता हो जाएँ देर से सोच में हैं परवाने राख हो जाएँ या हवा हो जाएँ इश्क़ भी खेल है नसीबों का ख़ाक हो जाएँ कीमिया हो जाएँ अब के गर तू मिले तो हम तुझ से ऐसे लिपटें तिरी क़बा हो जाएँ बंदगी हम ने छोड़ दी है 'फ़राज़' क्या करें लोग जब ख़ुदा हो जाएँ " vahshaten-badhtii-gaiin-hijr-ke-aazaar-ke-saath-ahmad-faraz-ghazals," वहशतें बढ़ती गईं हिज्र के आज़ार के साथ अब तो हम बात भी करते नहीं ग़म-ख़्वार के साथ हम ने इक उम्र बसर की है ग़म-ए-यार के साथ 'मीर' दो दिन न जिए हिज्र के आज़ार के साथ अब तो हम घर से निकलते हैं तो रख देते हैं ताक़ पर इज़्ज़त-ए-सादात भी दस्तार के साथ इस क़दर ख़ौफ़ है अब शहर की गलियों में कि लोग चाप सुनते हैं तो लग जाते हैं दीवार के साथ एक तो ख़्वाब लिए फिरते हो गलियों गलियों उस पे तकरार भी करते हो ख़रीदार के साथ शहर का शहर ही नासेह हो तो क्या कीजिएगा वर्ना हम रिंद तो भिड़ जाते हैं दो-चार के साथ हम को उस शहर में ता'मीर का सौदा है जहाँ लोग मे'मार को चुन देते हैं दीवार के साथ जो शरफ़ हम को मिला कूचा-ए-जानाँ से 'फ़राज़' सू-ए-मक़्तल भी गए हैं उसी पिंदार के साथ " shoala-thaa-jal-bujhaa-huun-havaaen-mujhe-na-do-ahmad-faraz-ghazals," शो'ला था जल-बुझा हूँ हवाएँ मुझे न दो मैं कब का जा चुका हूँ सदाएँ मुझे न दो जो ज़हर पी चुका हूँ तुम्हीं ने मुझे दिया अब तुम तो ज़िंदगी की दुआएँ मुझे न दो ये भी बड़ा करम है सलामत है जिस्म अभी ऐ ख़ुसरवान-ए-शहर क़बाएँ मुझे न दो ऐसा न हो कभी कि पलट कर न आ सकूँ हर बार दूर जा के सदाएँ मुझे न दो कब मुझ को ए'तिराफ़-ए-मोहब्बत न था 'फ़राज़' कब मैं ने ये कहा है सज़ाएँ मुझे न दो " zindagii-se-yahii-gila-hai-mujhe-ahmad-faraz-ghazals," ज़िंदगी से यही गिला है मुझे तू बहुत देर से मिला है मुझे तू मोहब्बत से कोई चाल तो चल हार जाने का हौसला है मुझे दिल धड़कता नहीं टपकता है कल जो ख़्वाहिश थी आबला है मुझे हम-सफ़र चाहिए हुजूम नहीं इक मुसाफ़िर भी क़ाफ़िला है मुझे कोहकन हो कि क़ैस हो कि 'फ़राज़' सब में इक शख़्स ही मिला है मुझे " ab-shauq-se-ki-jaan-se-guzar-jaanaa-chaahiye-ahmad-faraz-ghazals," अब शौक़ से कि जाँ से गुज़र जाना चाहिए बोल ऐ हवा-ए-शहर किधर जाना चाहिए कब तक इसी को आख़िरी मंज़िल कहेंगे हम कू-ए-मुराद से भी उधर जाना चाहिए वो वक़्त आ गया है कि साहिल को छोड़ कर गहरे समुंदरों में उतर जाना चाहिए अब रफ़्तगाँ की बात नहीं कारवाँ की है जिस सम्त भी हो गर्द-ए-सफ़र जाना चाहिए कुछ तो सुबूत-ए-ख़ून-ए-तमन्ना कहीं मिले है दिल तही तो आँख को भर जाना चाहिए या अपनी ख़्वाहिशों को मुक़द्दस न जानते या ख़्वाहिशों के साथ ही मर जाना चाहिए " abhii-kuchh-aur-karishme-gazal-ke-dekhte-hain-ahmad-faraz-ghazals," अभी कुछ और करिश्मे ग़ज़ल के देखते हैं 'फ़राज़' अब ज़रा लहजा बदल के देखते हैं जुदाइयाँ तो मुक़द्दर हैं फिर भी जान-ए-सफ़र कुछ और दूर ज़रा साथ चल के देखते हैं रह-ए-वफ़ा में हरीफ़-ए-ख़िराम कोई तो हो सो अपने आप से आगे निकल के देखते हैं तू सामने है तो फिर क्यूँ यक़ीं नहीं आता ये बार बार जो आँखों को मल के देखते हैं ये कौन लोग हैं मौजूद तेरी महफ़िल में जो लालचों से तुझे मुझ को जल के देखते हैं ये क़ुर्ब क्या है कि यक-जाँ हुए न दूर रहे हज़ार एक ही क़ालिब में ढल के देखते हैं न तुझ को मात हुई है न मुझ को मात हुई सो अब के दोनों ही चालें बदल के देखते हैं ये कौन है सर-ए-साहिल कि डूबने वाले समुंदरों की तहों से उछल के देखते हैं अभी तलक तो न कुंदन हुए न राख हुए हम अपनी आग में हर रोज़ जल के देखते हैं बहुत दिनों से नहीं है कुछ उस की ख़ैर ख़बर चलो 'फ़राज़' को ऐ यार चल के देखते हैं " kyaa-aise-kam-sukhan-se-koii-guftuguu-kare-ahmad-faraz-ghazals," क्या ऐसे कम-सुख़न से कोई गुफ़्तुगू करे जो मुस्तक़िल सुकूत से दिल को लहू करे अब तो हमें भी तर्क-ए-मरासिम का दुख नहीं पर दिल ये चाहता है कि आग़ाज़ तू करे तेरे बग़ैर भी तो ग़नीमत है ज़िंदगी ख़ुद को गँवा के कौन तिरी जुस्तुजू करे अब तो ये आरज़ू है कि वो ज़ख़्म खाइए ता-ज़िंदगी ये दिल न कोई आरज़ू करे तुझ को भुला के दिल है वो शर्मिंदा-ए-नज़र अब कोई हादसा ही तिरे रू-ब-रू करे चुप-चाप अपनी आग में जलते रहो 'फ़राज़' दुनिया तो अर्ज़-ए-हाल से बे-आबरू करे " aankh-se-duur-na-ho-dil-se-utar-jaaegaa-ahmad-faraz-ghazals," आँख से दूर न हो दिल से उतर जाएगा वक़्त का क्या है गुज़रता है गुज़र जाएगा इतना मानूस न हो ख़ल्वत-ए-ग़म से अपनी तू कभी ख़ुद को भी देखेगा तो डर जाएगा डूबते डूबते कश्ती को उछाला दे दूँ मैं नहीं कोई तो साहिल पे उतर जाएगा ज़िंदगी तेरी अता है तो ये जाने वाला तेरी बख़्शिश तिरी दहलीज़ पे धर जाएगा ज़ब्त लाज़िम है मगर दुख है क़यामत का 'फ़राज़' ज़ालिम अब के भी न रोएगा तो मर जाएगा " main-to-maqtal-men-bhii-qismat-kaa-sikandar-niklaa-ahmad-faraz-ghazals," मैं तो मक़्तल में भी क़िस्मत का सिकंदर निकला क़ुरआ-ए-फ़ाल मिरे नाम का अक्सर निकला था जिन्हें ज़ो'म वो दरिया भी मुझी में डूबे मैं कि सहरा नज़र आता था समुंदर निकला मैं ने उस जान-ए-बहाराँ को बहुत याद किया जब कोई फूल मिरी शाख़-ए-हुनर पर निकला शहर-वालों की मोहब्बत का मैं क़ाएल हूँ मगर मैं ने जिस हाथ को चूमा वही ख़ंजर निकला तू यहीं हार गया है मिरे बुज़दिल दुश्मन मुझ से तन्हा के मुक़ाबिल तिरा लश्कर निकला मैं कि सहरा-ए-मोहब्बत का मुसाफ़िर था 'फ़राज़' एक झोंका था कि ख़ुश्बू के सफ़र पर निकला " har-koii-dil-kii-hathelii-pe-hai-sahraa-rakkhe-ahmad-faraz-ghazals," हर कोई दिल की हथेली पे है सहरा रक्खे किस को सैराब करे वो किसे प्यासा रक्खे उम्र भर कौन निभाता है तअल्लुक़ इतना ऐ मिरी जान के दुश्मन तुझे अल्लाह रक्खे हम को अच्छा नहीं लगता कोई हमनाम तिरा कोई तुझ सा हो तो फिर नाम भी तुझ सा रक्खे दिल भी पागल है कि उस शख़्स से वाबस्ता है जो किसी और का होने दे न अपना रक्खे कम नहीं तम-ए-इबादत भी तो हिर्स-ए-ज़र से फ़क़्र तो वो है कि जो दीन न दुनिया रक्खे हँस न इतना भी फ़क़ीरों के अकेले-पन पर जा ख़ुदा मेरी तरह तुझ को भी तन्हा रक्खे ये क़नाअ'त है इताअत है कि चाहत है 'फ़राज़' हम तो राज़ी हैं वो जिस हाल में जैसा रक्खे " ye-kyaa-ki-sab-se-bayaan-dil-kii-haalaten-karnii-ahmad-faraz-ghazals," ये क्या कि सब से बयाँ दिल की हालतें करनी 'फ़राज़' तुझ को न आईं मोहब्बतें करनी ये क़ुर्ब क्या है कि तू सामने है और हमें शुमार अभी से जुदाई की साअ'तें करनी कोई ख़ुदा हो कि पत्थर जिसे भी हम चाहें तमाम उम्र उसी की इबादतें करनी सब अपने अपने क़रीने से मुंतज़िर उस के किसी को शुक्र किसी को शिकायतें करनी हम अपने दिल से ही मजबूर और लोगों को ज़रा सी बात पे बरपा क़यामतें करनी मिलें जब उन से तो मुबहम सी गुफ़्तुगू करना फिर अपने आप से सौ सौ वज़ाहतें करनी ये लोग कैसे मगर दुश्मनी निबाहते हैं हमें तो रास न आईं मोहब्बतें करनी कभी 'फ़राज़' नए मौसमों में रो देना कभी तलाश पुरानी रिफाक़तें करनी " aashiqii-men-miir-jaise-khvaab-mat-dekhaa-karo-ahmad-faraz-ghazals," आशिक़ी में 'मीर' जैसे ख़्वाब मत देखा करो बावले हो जाओगे महताब मत देखा करो जस्ता जस्ता पढ़ लिया करना मज़ामीन-ए-वफ़ा पर किताब-ए-इश्क़ का हर बाब मत देखा करो इस तमाशे में उलट जाती हैं अक्सर कश्तियाँ डूबने वालों को ज़ेर-ए-आब मत देखा करो मय-कदे में क्या तकल्लुफ़ मय-कशी में क्या हिजाब बज़्म-ए-साक़ी में अदब आदाब मत देखा करो हम से दरवेशों के घर आओ तो यारों की तरह हर जगह ख़स-ख़ाना ओ बर्फ़ाब मत देखा करो माँगे-ताँगे की क़बाएँ देर तक रहती नहीं यार लोगों के लक़ब-अलक़ाब मत देखा करो तिश्नगी में लब भिगो लेना भी काफ़ी है 'फ़राज़' जाम में सहबा है या ज़हराब मत देखा करो " us-ko-judaa-hue-bhii-zamaana-bahut-huaa-ahmad-faraz-ghazals," उस को जुदा हुए भी ज़माना बहुत हुआ अब क्या कहें ये क़िस्सा पुराना बहुत हुआ ढलती न थी किसी भी जतन से शब-ए-फ़िराक़ ऐ मर्ग-ए-ना-गहाँ तिरा आना बहुत हुआ हम ख़ुल्द से निकल तो गए हैं पर ऐ ख़ुदा इतने से वाक़िए का फ़साना बहुत हुआ अब हम हैं और सारे ज़माने की दुश्मनी उस से ज़रा सा रब्त बढ़ाना बहुत हुआ अब क्यूँ न ज़िंदगी पे मोहब्बत को वार दें इस आशिक़ी में जान से जाना बहुत हुआ अब तक तो दिल का दिल से तआ'रुफ़ न हो सका माना कि उस से मिलना मिलाना बहुत हुआ क्या क्या न हम ख़राब हुए हैं मगर ये दिल ऐ याद-ए-यार तेरा ठिकाना बहुत हुआ कहता था नासेहों से मिरे मुँह न आइयो फिर क्या था एक हू का बहाना बहुत हुआ लो फिर तिरे लबों पे उसी बेवफ़ा का ज़िक्र अहमद-'फ़राज़' तुझ से कहा न बहुत हुआ " terii-baaten-hii-sunaane-aae-ahmad-faraz-ghazals-3," तेरी बातें ही सुनाने आए दोस्त भी दिल ही दुखाने आए फूल खिलते हैं तो हम सोचते हैं तेरे आने के ज़माने आए ऐसी कुछ चुप सी लगी है जैसे हम तुझे हाल सुनाने आए इश्क़ तन्हा है सर-ए-मंज़िल-ए-ग़म कौन ये बोझ उठाने आए अजनबी दोस्त हमें देख कि हम कुछ तुझे याद दिलाने आए दिल धड़कता है सफ़र के हंगाम काश फिर कोई बुलाने आए अब तो रोने से भी दिल दुखता है शायद अब होश ठिकाने आए क्या कहीं फिर कोई बस्ती उजड़ी लोग क्यूँ जश्न मनाने आए सो रहो मौत के पहलू में 'फ़राज़' नींद किस वक़्त न जाने आए " guftuguu-achchhii-lagii-zauq-e-nazar-achchhaa-lagaa-ahmad-faraz-ghazals," गुफ़्तुगू अच्छी लगी ज़ौक़-ए-नज़र अच्छा लगा मुद्दतों के बाद कोई हम-सफ़र अच्छा लगा दिल का दुख जाना तो दिल का मसअला है पर हमें उस का हँस देना हमारे हाल पर अच्छा लगा हर तरह की बे-सर-ओ-सामानियों के बावजूद आज वो आया तो मुझ को अपना घर अच्छा लगा बाग़बाँ गुलचीं को चाहे जो कहे हम को तो फूल शाख़ से बढ़ कर कफ़-ए-दिलदार पर अच्छा लगा कोई मक़्तल में न पहुँचा कौन ज़ालिम था जिसे तेग़-ए-क़ातिल से ज़ियादा अपना सर अच्छा लगा हम भी क़ाएल हैं वफ़ा में उस्तुवारी के मगर कोई पूछे कौन किस को उम्र भर अच्छा लगा अपनी अपनी चाहतें हैं लोग अब जो भी कहें इक परी-पैकर को इक आशुफ़्ता-सर अच्छा लगा 'मीर' के मानिंद अक्सर ज़ीस्त करता था 'फ़राज़' था तो वो दीवाना सा शाइर मगर अच्छा लगा " aisaa-hai-ki-sab-khvaab-musalsal-nahiin-hote-ahmad-faraz-ghazals," ऐसा है कि सब ख़्वाब मुसलसल नहीं होते जो आज तो होते हैं मगर कल नहीं होते अंदर की फ़ज़ाओं के करिश्मे भी अजब हैं मेंह टूट के बरसे भी तो बादल नहीं होते कुछ मुश्किलें ऐसी हैं कि आसाँ नहीं होतीं कुछ ऐसे मुअम्मे हैं कभी हल नहीं होते शाइस्तगी-ए-ग़म के सबब आँखों के सहरा नमनाक तो हो जाते हैं जल-थल नहीं होते कैसे ही तलातुम हों मगर क़ुल्ज़ुम-ए-जाँ में कुछ याद-जज़ीरे हैं कि ओझल नहीं होते उश्शाक़ के मानिंद कई अहल-ए-हवस भी पागल तो नज़र आते हैं पागल नहीं होते सब ख़्वाहिशें पूरी हों 'फ़राज़' ऐसा नहीं है जैसे कई अशआर मुकम्मल नहीं होते " phir-usii-rahguzaar-par-shaayad-ahmad-faraz-ghazals," फिर उसी रहगुज़ार पर शायद हम कभी मिल सकें मगर शायद जिन के हम मुंतज़िर रहे उन को मिल गए और हम-सफ़र शायद जान-पहचान से भी क्या होगा फिर भी ऐ दोस्त ग़ौर कर शायद अज्नबिय्यत की धुँद छट जाए चमक उठ्ठे तिरी नज़र शायद ज़िंदगी भर लहू रुलाएगी याद-ए-यारान-ए-बे-ख़बर शायद जो भी बिछड़े वो कब मिले हैं 'फ़राज़' फिर भी तू इंतिज़ार कर शायद " tujhe-hai-mashq-e-sitam-kaa-malaal-vaise-hii-ahmad-faraz-ghazals," तुझे है मश्क़-ए-सितम का मलाल वैसे ही हमारी जान थी जाँ पर वबाल वैसे ही चला था ज़िक्र ज़माने की बेवफ़ाई का सो आ गया है तुम्हारा ख़याल वैसे ही हम आ गए हैं तह-ए-दाम तो नसीब अपना वगरना उस ने तो फेंका था जाल वैसे ही मैं रोकना ही नहीं चाहता था वार उस का गिरी नहीं मिरे हाथों से ढाल वैसे ही ज़माना हम से भला दुश्मनी तो क्या रखता सो कर गया है हमें पाएमाल वैसे ही मुझे भी शौक़ न था दास्ताँ सुनाने का 'फ़राज़' उस ने भी पूछा था हाल वैसे ही " ranjish-hii-sahii-dil-hii-dukhaane-ke-liye-aa-ahmad-faraz-ghazals," रंजिश ही सही दिल ही दुखाने के लिए आ आ फिर से मुझे छोड़ के जाने के लिए आ कुछ तो मिरे पिंदार-ए-मोहब्बत का भरम रख तू भी तो कभी मुझ को मनाने के लिए आ पहले से मरासिम न सही फिर भी कभी तो रस्म-ओ-रह-ए-दुनिया ही निभाने के लिए आ किस किस को बताएँगे जुदाई का सबब हम तू मुझ से ख़फ़ा है तो ज़माने के लिए आ इक उम्र से हूँ लज़्ज़त-ए-गिर्या से भी महरूम ऐ राहत-ए-जाँ मुझ को रुलाने के लिए आ अब तक दिल-ए-ख़ुश-फ़हम को तुझ से हैं उम्मीदें ये आख़िरी शमएँ भी बुझाने के लिए आ " dost-ban-kar-bhii-nahiin-saath-nibhaane-vaalaa-ahmad-faraz-ghazals," दोस्त बन कर भी नहीं साथ निभाने वाला वही अंदाज़ है ज़ालिम का ज़माने वाला अब उसे लोग समझते हैं गिरफ़्तार मिरा सख़्त नादिम है मुझे दाम में लाने वाला सुब्ह-दम छोड़ गया निकहत-ए-गुल की सूरत रात को ग़ुंचा-ए-दिल में सिमट आने वाला क्या कहें कितने मरासिम थे हमारे उस से वो जो इक शख़्स है मुँह फेर के जाने वाला तेरे होते हुए आ जाती थी सारी दुनिया आज तन्हा हूँ तो कोई नहीं आने वाला मुंतज़िर किस का हूँ टूटी हुई दहलीज़ पे मैं कौन आएगा यहाँ कौन है आने वाला क्या ख़बर थी जो मिरी जाँ में घुला है इतना है वही मुझ को सर-ए-दार भी लाने वाला मैं ने देखा है बहारों में चमन को जलते है कोई ख़्वाब की ताबीर बताने वाला तुम तकल्लुफ़ को भी इख़्लास समझते हो 'फ़राज़' दोस्त होता नहीं हर हाथ मिलाने वाला " zikr-aae-to-mire-lab-se-duaaen-niklen-gulzar-ghazals," ज़िक्र आए तो मिरे लब से दुआएँ निकलें शम्अ' जलती है तो लाज़िम है शुआएँ निकलें वक़्त की ज़र्ब से कट जाते हैं सब के सीने चाँद का छलका उतर जाए तो क़ाशें निकलें दफ़्न हो जाएँ कि ज़रख़ेज़ ज़मीं लगती है कल इसी मिट्टी से शायद मिरी शाख़ें निकलें चंद उम्मीदें निचोड़ी थीं तो आहें टपकीं दिल को पिघलाएँ तो हो सकता है साँसें निकलें ग़ार के मुँह पे रखा रहने दो संग-ए-ख़ुर्शीद ग़ार में हाथ न डालो कहीं रातें निकलें " garm-laashen-giriin-fasiilon-se-gulzar-ghazals," गर्म लाशें गिरीं फ़सीलों से आसमाँ भर गया है चीलों से सूली चढ़ने लगी है ख़ामोशी लोग आए हैं सुन के मीलों से कान में ऐसे उतरी सरगोशी बर्फ़ फिसली हो जैसे टीलों से गूँज कर ऐसे लौटती है सदा कोई पूछे हज़ारों मीलों से प्यास भरती रही मिरे अंदर आँख हटती नहीं थी झीलों से लोग कंधे बदल बदल के चले घाट पहुँचे बड़े वसीलों से " aisaa-khaamosh-to-manzar-na-fanaa-kaa-hotaa-gulzar-ghazals," ऐसा ख़ामोश तो मंज़र न फ़ना का होता मेरी तस्वीर भी गिरती तो छनाका होता यूँ भी इक बार तो होता कि समुंदर बहता कोई एहसास तो दरिया की अना का होता साँस मौसम की भी कुछ देर को चलने लगती कोई झोंका तिरी पलकों की हवा का होता काँच के पार तिरे हाथ नज़र आते हैं काश ख़ुशबू की तरह रंग हिना का होता क्यूँ मिरी शक्ल पहन लेता है छुपने के लिए एक चेहरा कोई अपना भी ख़ुदा का होता " sabr-har-baar-ikhtiyaar-kiyaa-gulzar-ghazals," सब्र हर बार इख़्तियार किया हम से होता नहीं हज़ार किया आदतन तुम ने कर दिए वा'दे आदतन हम ने ए'तिबार किया हम ने अक्सर तुम्हारी राहों में रुक कर अपना ही इंतिज़ार किया फिर न माँगेंगे ज़िंदगी या-रब ये गुनह हम ने एक बार किया " vo-khat-ke-purze-udaa-rahaa-thaa-gulzar-ghazals," वो ख़त के पुर्ज़े उड़ा रहा था हवाओं का रुख़ दिखा रहा था बताऊँ कैसे वो बहता दरिया जब आ रहा था तो जा रहा था कुछ और भी हो गया नुमायाँ मैं अपना लिक्खा मिटा रहा था धुआँ धुआँ हो गई थीं आँखें चराग़ को जब बुझा रहा था मुंडेर से झुक के चाँद कल भी पड़ोसियों को जगा रहा था उसी का ईमाँ बदल गया है कभी जो मेरा ख़ुदा रहा था वो एक दिन एक अजनबी को मिरी कहानी सुना रहा था वो उम्र कम कर रहा था मेरी मैं साल अपने बढ़ा रहा था ख़ुदा की शायद रज़ा हो इस में तुम्हारा जो फ़ैसला रहा था " ek-parvaaz-dikhaaii-dii-hai-gulzar-ghazals," एक पर्वाज़ दिखाई दी है तेरी आवाज़ सुनाई दी है सिर्फ़ इक सफ़्हा पलट कर उस ने सारी बातों की सफ़ाई दी है फिर वहीं लौट के जाना होगा यार ने कैसी रिहाई दी है जिस की आँखों में कटी थीं सदियाँ उस ने सदियों की जुदाई दी है ज़िंदगी पर भी कोई ज़ोर नहीं दिल ने हर चीज़ पराई दी है आग में क्या क्या जला है शब भर कितनी ख़ुश-रंग दिखाई दी है " aankhon-men-jal-rahaa-hai-pa-bujhtaa-nahiin-dhuaan-gulzar-ghazals," आँखों में जल रहा है प बुझता नहीं धुआँ उठता तो है घटा सा बरसता नहीं धुआँ पलकों के ढाँपने से भी रुकता नहीं धुआँ कितनी उँडेलीं आँखें प बुझता नहीं धुआँ आँखों से आँसुओं के मरासिम पुराने हैं मेहमाँ ये घर में आएँ तो चुभता नहीं धुआँ चूल्हे नहीं जलाए कि बस्ती ही जल गई कुछ रोज़ हो गए हैं अब उठता नहीं धुआँ काली लकीरें खींच रहा है फ़ज़ाओं में बौरा गया है मुँह से क्यूँ खुलता नहीं धुआँ आँखों के पोछने से लगा आग का पता यूँ चेहरा फेर लेने से छुपता नहीं धुआँ चिंगारी इक अटक सी गई मेरे सीने में थोड़ा सा आ के फूँक दो उड़ता नहीं धुआँ " sahmaa-sahmaa-daraa-saa-rahtaa-hai-gulzar-ghazals," सहमा सहमा डरा सा रहता है जाने क्यूँ जी भरा सा रहता है काई सी जम गई है आँखों पर सारा मंज़र हरा सा रहता है एक पल देख लूँ तो उठता हूँ जल गया घर ज़रा सा रहता है सर में जुम्बिश ख़याल की भी नहीं ज़ानुओं पर धरा सा रहता है " din-kuchh-aise-guzaartaa-hai-koii-gulzar-ghazals," दिन कुछ ऐसे गुज़ारता है कोई जैसे एहसाँ उतारता है कोई दिल में कुछ यूँ सँभालता हूँ ग़म जैसे ज़ेवर सँभालता है कोई आइना देख कर तसल्ली हुई हम को इस घर में जानता है कोई पेड़ पर पक गया है फल शायद फिर से पत्थर उछालता है कोई देर से गूँजते हैं सन्नाटे जैसे हम को पुकारता है कोई " os-padii-thii-raat-bahut-aur-kohra-thaa-garmaaish-par-gulzar-ghazals," ओस पड़ी थी रात बहुत और कोहरा था गर्माइश पर सैली सी ख़ामोशी में आवाज़ सुनी फ़रमाइश पर फ़ासले हैं भी और नहीं भी नापा तौला कुछ भी नहीं लोग ब-ज़िद रहते हैं फिर भी रिश्तों की पैमाइश पर मुँह मोड़ा और देखा कितनी दूर खड़े थे हम दोनों आप लड़े थे हम से बस इक करवट की गुंजाइश पर काग़ज़ का इक चाँद लगा कर रात अँधेरी खिड़की पर दिल में कितने ख़ुश थे अपनी फ़ुर्क़त की आराइश पर दिल का हुज्रा कितनी बार उजड़ा भी और बसाया भी सारी उम्र कहाँ ठहरा है कोई एक रिहाइश पर धूप और छाँव बाँट के तुम ने आँगन में दीवार चुनी क्या इतना आसान है ज़िंदा रहना इस आसाइश पर शायद तीन नुजूमी मेरी मौत पे आ कर पहुँचेंगे ऐसा ही इक बार हुआ था ईसा की पैदाइश पर " gulon-ko-sunnaa-zaraa-tum-sadaaen-bhejii-hain-gulzar-ghazals," गुलों को सुनना ज़रा तुम सदाएँ भेजी हैं गुलों के हाथ बहुत सी दुआएँ भेजी हैं जो आफ़्ताब कभी भी ग़ुरूब होता नहीं हमारा दिल है उसी की शुआएँ भेजी हैं अगर जलाए तुम्हें भी शिफ़ा मिले शायद इक ऐसे दर्द की तुम को शुआएँ भेजी हैं तुम्हारी ख़ुश्क सी आँखें भली नहीं लगतीं वो सारी चीज़ें जो तुम को रुलाएँ, भेजी हैं सियाह रंग चमकती हुई कनारी है पहन लो अच्छी लगेंगी घटाएँ भेजी हैं तुम्हारे ख़्वाब से हर शब लिपट के सोते हैं सज़ाएँ भेज दो हम ने ख़ताएँ भेजी हैं अकेला पत्ता हवा में बहुत बुलंद उड़ा ज़मीं से पाँव उठाओ हवाएँ भेजी हैं " phuul-ne-tahnii-se-udne-kii-koshish-kii-gulzar-ghazals," फूल ने टहनी से उड़ने की कोशिश की इक ताइर का दिल रखने की कोशिश की कल फिर चाँद का ख़ंजर घोंप के सीने में रात ने मेरी जाँ लेने की कोशिश की कोई न कोई रहबर रस्ता काट गया जब भी अपनी रह चलने की कोशिश की कितनी लम्बी ख़ामोशी से गुज़रा हूँ उन से कितना कुछ कहने की कोशिश की एक ही ख़्वाब ने सारी रात जगाया है मैं ने हर करवट सोने की कोशिश की एक सितारा जल्दी जल्दी डूब गया मैं ने जब तारे गिनने की कोशिश की नाम मिरा था और पता अपने घर का उस ने मुझ को ख़त लिखने की कोशिश की एक धुएँ का मर्ग़ोला सा निकला है मिट्टी में जब दिल बोने की कोशिश की " phuulon-kii-tarah-lab-khol-kabhii-gulzar-ghazals," फूलों की तरह लब खोल कभी ख़ुशबू की ज़बाँ में बोल कभी अल्फ़ाज़ परखता रहता है आवाज़ हमारी तोल कभी अनमोल नहीं लेकिन फिर भी पूछ तो मुफ़्त का मोल कभी खिड़की में कटी हैं सब रातें कुछ चौरस थीं कुछ गोल कभी ये दिल भी दोस्त ज़मीं की तरह हो जाता है डाँवा-डोल कभी " havaa-ke-siing-na-pakdo-khaded-detii-hai-gulzar-ghazals," हवा के सींग न पकड़ो खदेड़ देती है ज़मीं से पेड़ों के टाँके उधेड़ देती है मैं चुप कराता हूँ हर शब उमडती बारिश को मगर ये रोज़ गई बात छेड़ देती है ज़मीं सा दूसरा कोई सख़ी कहाँ होगा ज़रा सा बीज उठा ले तो पेड़ देती है रुँधे गले की दुआओं से भी नहीं खुलता दर-ए-हयात जिसे मौत भेड़ देती है " tujh-ko-dekhaa-hai-jo-dariyaa-ne-idhar-aate-hue-gulzar-ghazals," तुझ को देखा है जो दरिया ने इधर आते हुए कुछ भँवर डूब गए पानी में चकराते हुए हम ने तो रात को दाँतों से पकड़ कर रक्खा छीना-झपटी में उफ़ुक़ खुलता गया जाते हुए मैं न हूँगा तो ख़िज़ाँ कैसे कटेगी तेरी शोख़ पत्ते ने कहा शाख़ से मुरझाते हुए हसरतें अपनी बिलक्तीं न यतीमों की तरह हम को आवाज़ ही दे लेते ज़रा जाते हुए सी लिए होंट वो पाकीज़ा निगाहें सुन कर मैली हो जाती है आवाज़ भी दोहराते हुए " haath-chhuuten-bhii-to-rishte-nahiin-chhodaa-karte-gulzar-ghazals," हाथ छूटें भी तो रिश्ते नहीं छोड़ा करते वक़्त की शाख़ से लम्हे नहीं तोड़ा करते जिस की आवाज़ में सिलवट हो निगाहों में शिकन ऐसी तस्वीर के टुकड़े नहीं जोड़ा करते लग के साहिल से जो बहता है उसे बहने दो ऐसे दरिया का कभी रुख़ नहीं मोड़ा करते जागने पर भी नहीं आँख से गिरतीं किर्चें इस तरह ख़्वाबों से आँखें नहीं फोड़ा करते शहद जीने का मिला करता है थोड़ा थोड़ा जाने वालों के लिए दिल नहीं थोड़ा करते जा के कोहसार से सर मारो कि आवाज़ तो हो ख़स्ता दीवारों से माथा नहीं फोड़ा करते " dikhaaii-dete-hain-dhund-men-jaise-saae-koii-gulzar-ghazals," दिखाई देते हैं धुँद में जैसे साए कोई मगर बुलाने से वक़्त लौटे न आए कोई मिरे मोहल्ले का आसमाँ सूना हो गया है बुलंदियों पे अब आ के पेचे लड़ाए कोई वो ज़र्द पत्ते जो पेड़ से टूट कर गिरे थे कहाँ गए बहते पानियों में बुलाए कोई ज़ईफ़ बरगद के हाथ में रा'शा आ गया है जटाएँ आँखों पे गिर रही हैं उठाए कोई मज़ार पे खोल कर गरेबाँ दुआएँ माँगें जो आए अब के तो लौट कर फिर न जाए कोई " zindagii-yuun-huii-basar-tanhaa-gulzar-ghazals," ज़िंदगी यूँ हुई बसर तन्हा क़ाफ़िला साथ और सफ़र तन्हा अपने साए से चौंक जाते हैं उम्र गुज़री है इस क़दर तन्हा रात भर बातें करते हैं तारे रात काटे कोई किधर तन्हा डूबने वाले पार जा उतरे नक़्श-ए-पा अपने छोड़ कर तन्हा दिन गुज़रता नहीं है लोगों में रात होती नहीं बसर तन्हा हम ने दरवाज़े तक तो देखा था फिर न जाने गए किधर तन्हा " ped-ke-patton-men-halchal-hai-khabar-daar-se-hain-gulzar-ghazals," पेड़ के पत्तों में हलचल है ख़बर-दार से हैं शाम से तेज़ हवा चलने के आसार से हैं नाख़ुदा देख रहा है कि मैं गिर्दाब में हूँ और जो पुल पे खड़े लोग हैं अख़बार से हैं चढ़ते सैलाब में साहिल ने तो मुँह ढाँप लिया लोग पानी का कफ़न लेने को तय्यार से हैं कल तवारीख़ में दफ़नाए गए थे जो लोग उन के साए अभी दरवाज़ों पे बेदार से हैं वक़्त के तीर तो सीने पे सँभाले हम ने और जो नील पड़े हैं तिरी गुफ़्तार से हैं रूह से छीले हुए जिस्म जहाँ बिकते हैं हम को भी बेच दे हम भी उसी बाज़ार से हैं जब से वो अहल-ए-सियासत में हुए हैं शामिल कुछ अदू के हैं तो कुछ मेरे तरफ़-दार से हैं " koii-khaamosh-zakhm-lagtii-hai-gulzar-ghazals," कोई ख़ामोश ज़ख़्म लगती है ज़िंदगी एक नज़्म लगती है बज़्म-ए-याराँ में रहता हूँ तन्हा और तंहाई बज़्म लगती है अपने साए पे पाँव रखता हूँ छाँव छालों को नर्म लगती है चाँद की नब्ज़ देखना उठ कर रात की साँस गर्म लगती है ये रिवायत कि दर्द महके रहें दिल की देरीना रस्म लगती है " khulii-kitaab-ke-safhe-ulatte-rahte-hain-gulzar-ghazals," खुली किताब के सफ़्हे उलटते रहते हैं हवा चले न चले दिन पलटते रहते हैं बस एक वहशत-ए-मंज़िल है और कुछ भी नहीं कि चंद सीढ़ियाँ चढ़ते उतरते रहते हैं मुझे तो रोज़ कसौटी पे दर्द कसता है कि जाँ से जिस्म के बख़िये उधड़ते रहते हैं कभी रुका नहीं कोई मक़ाम-ए-सहरा में कि टीले पाँव-तले से सरकते रहते हैं ये रोटियाँ हैं ये सिक्के हैं और दाएरे हैं ये एक दूजे को दिन भर पकड़ते रहते हैं भरे हैं रात के रेज़े कुछ ऐसे आँखों में उजाला हो तो हम आँखें झपकते रहते हैं " zikr-hotaa-hai-jahaan-bhii-mire-afsaane-kaa-gulzar-ghazals," ज़िक्र होता है जहाँ भी मिरे अफ़्साने का एक दरवाज़ा सा खुलता है कुतुब-ख़ाने का एक सन्नाटा दबे-पाँव गया हो जैसे दिल से इक ख़ौफ़ सा गुज़रा है बिछड़ जाने का बुलबुला फिर से चला पानी में ग़ोते खाने न समझने का उसे वक़्त न समझाने का मैं ने अल्फ़ाज़ तो बीजों की तरह छाँट दिए ऐसा मीठा तिरा अंदाज़ था फ़रमाने का किस को रोके कोई रस्ते में कहाँ बात करे न तो आने की ख़बर है न पता जाने का " ham-to-kitnon-ko-mah-jabiin-kahte-gulzar-ghazals," हम तो कितनों को मह-जबीं कहते आप हैं इस लिए नहीं कहते चाँद होता न आसमाँ पे अगर हम किसे आप सा हसीं कहते आप के पाँव फिर कहाँ पड़ते हम ज़मीं को अगर ज़मीं कहते आप ने औरों से कहा सब कुछ हम से भी कुछ कभी कहीं कहते आप के बा'द आप ही कहिए वक़्त को कैसे हम-नशीं कहते वो भी वाहिद है मैं भी वाहिद हूँ किस सबब से हम आफ़रीं कहते " dard-halkaa-hai-saans-bhaarii-hai-gulzar-ghazals," दर्द हल्का है साँस भारी है जिए जाने की रस्म जारी है आप के ब'अद हर घड़ी हम ने आप के साथ ही गुज़ारी है रात को चाँदनी तो ओढ़ा दो दिन की चादर अभी उतारी है शाख़ पर कोई क़हक़हा तो खिले कैसी चुप सी चमन पे तारी है कल का हर वाक़िआ तुम्हारा था आज की दास्ताँ हमारी है " ruke-ruke-se-qadam-ruk-ke-baar-baar-chale-gulzar-ghazals," रुके रुके से क़दम रुक के बार बार चले क़रार दे के तिरे दर से बे-क़रार चले उठाए फिरते थे एहसान जिस्म का जाँ पर चले जहाँ से तो ये पैरहन उतार चले न जाने कौन सी मिट्टी वतन की मिट्टी थी नज़र में धूल जिगर में लिए ग़ुबार चले सहर न आई कई बार नींद से जागे थी रात रात की ये ज़िंदगी गुज़ार चले मिली है शम्अ' से ये रस्म-ए-आशिक़ी हम को गुनाह हाथ पे ले कर गुनाहगार चले " be-sabab-muskuraa-rahaa-hai-chaand-gulzar-ghazals," बे-सबब मुस्कुरा रहा है चाँद कोई साज़िश छुपा रहा है चाँद जाने किस की गली से निकला है झेंपा झेंपा सा आ रहा है चाँद कितना ग़ाज़ा लगाया है मुँह पर धूल ही धूल उड़ा रहा है चाँद कैसा बैठा है छुप के पत्तों में बाग़बाँ को सता रहा है चाँद सीधा-सादा उफ़ुक़ से निकला था सर पे अब चढ़ता जा रहा है चाँद छू के देखा तो गर्म था माथा धूप में खेलता रहा है चाँद " biite-rishte-talaash-kartii-hai-gulzar-ghazals," बीते रिश्ते तलाश करती है ख़ुशबू ग़ुंचे तलाश करती है जब गुज़रती है उस गली से सबा ख़त के पुर्ज़े तलाश करती है अपने माज़ी की जुस्तुजू में बहार पीले पत्ते तलाश करती है एक उम्मीद बार बार आ कर अपने टुकड़े तलाश करती है बूढ़ी पगडंडी शहर तक आ कर अपने बेटे तलाश करती है " koii-atkaa-huaa-hai-pal-shaayad-gulzar-ghazals," कोई अटका हुआ है पल शायद वक़्त में पड़ गया है बल शायद लब पे आई मिरी ग़ज़ल शायद वो अकेले हैं आज-कल शायद दिल अगर है तो दर्द भी होगा इस का कोई नहीं है हल शायद जानते हैं सवाब-ए-रहम-ओ-करम उन से होता नहीं अमल शायद आ रही है जो चाप क़दमों की खिल रहे हैं कहीं कँवल शायद राख को भी कुरेद कर देखो अभी जलता हो कोई पल शायद चाँद डूबे तो चाँद ही निकले आप के पास होगा हल शायद " tinkaa-tinkaa-kaante-tode-saarii-raat-kataaii-kii-gulzar-ghazals," तिनका तिनका काँटे तोड़े सारी रात कटाई की क्यूँ इतनी लम्बी होती है चाँदनी रात जुदाई की नींद में कोई अपने-आप से बातें करता रहता है काल-कुएँ में गूँजती है आवाज़ किसी सौदाई की सीने में दिल की आहट जैसे कोई जासूस चले हर साए का पीछा करना आदत है हरजाई की आँखों और कानों में कुछ सन्नाटे से भर जाते हैं क्या तुम ने उड़ती देखी है रेत कभी तन्हाई की तारों की रौशन फ़सलें और चाँद की एक दरांती थी साहू ने गिरवी रख ली थी मेरी रात कटाई की " har-ek-gam-nichod-ke-har-ik-baras-jiye-gulzar-ghazals," हर एक ग़म निचोड़ के हर इक बरस जिए दो दिन की ज़िंदगी में हज़ारों बरस जिए सदियों पे इख़्तियार नहीं था हमारा दोस्त दो चार लम्हे बस में थे दो चार बस जिए सहरा के उस तरफ़ से गए सारे कारवाँ सुन सुन के हम तो सिर्फ़ सदा-ए-जरस जिए होंटों में ले के रात के आँचल का इक सिरा आँखों पे रख के चाँद के होंटों का मस जिए महदूद हैं दुआएँ मिरे इख़्तियार में हर साँस पुर-सुकून हो तू सौ बरस जिए " shaam-se-aankh-men-namii-sii-hai-gulzar-ghazals," शाम से आँख में नमी सी है आज फिर आप की कमी सी है दफ़्न कर दो हमें कि साँस आए नब्ज़ कुछ देर से थमी सी है कौन पथरा गया है आँखों में बर्फ़ पलकों पे क्यूँ जमी सी है वक़्त रहता नहीं कहीं टिक कर आदत इस की भी आदमी सी है आइए रास्ते अलग कर लें ये ज़रूरत भी बाहमी सी है " jab-bhii-aankhon-men-ashk-bhar-aae-gulzar-ghazals," जब भी आँखों में अश्क भर आए लोग कुछ डूबते नज़र आए अपना मेहवर बदल चुकी थी ज़मीं हम ख़ला से जो लौट कर आए चाँद जितने भी गुम हुए शब के सब के इल्ज़ाम मेरे सर आए चंद लम्हे जो लौट कर आए रात के आख़िरी पहर आए एक गोली गई थी सू-ए-फ़लक इक परिंदे के बाल-ओ-पर आए कुछ चराग़ों की साँस टूट गई कुछ ब-मुश्किल दम-ए-सहर आए मुझ को अपना पता-ठिकाना मिले वो भी इक बार मेरे घर आए " shaam-se-aaj-saans-bhaarii-hai-gulzar-ghazals," शाम से आज साँस भारी है बे-क़रारी सी बे-क़रारी है आप के बा'द हर घड़ी हम ने आप के साथ ही गुज़ारी है रात को दे दो चाँदनी की रिदा दिन की चादर अभी उतारी है शाख़ पर कोई क़हक़हा तो खिले कैसी चुप सी चमन में तारी है कल का हर वाक़िआ' तुम्हारा था आज की दास्ताँ हमारी है " khushbuu-jaise-log-mile-afsaane-men-gulzar-ghazals," ख़ुशबू जैसे लोग मिले अफ़्साने में एक पुराना ख़त खोला अनजाने में शाम के साए बालिश्तों से नापे हैं चाँद ने कितनी देर लगा दी आने में रात गुज़रते शायद थोड़ा वक़्त लगे धूप उन्डेलो थोड़ी सी पैमाने में जाने किस का ज़िक्र है इस अफ़्साने में दर्द मज़े लेता है जो दोहराने में दिल पर दस्तक देने कौन आ निकला है किस की आहट सुनता हूँ वीराने में हम इस मोड़ से उठ कर अगले मोड़ चले उन को शायद उम्र लगेगी आने में " kahiin-to-gard-ude-yaa-kahiin-gubaar-dikhe-gulzar-ghazals," कहीं तो गर्द उड़े या कहीं ग़ुबार दिखे कहीं से आता हुआ कोई शहसवार दिखे ख़फ़ा थी शाख़ से शायद कि जब हवा गुज़री ज़मीं पे गिरते हुए फूल बे-शुमार दिखे रवाँ हैं फिर भी रुके हैं वहीं पे सदियों से बड़े उदास लगे जब भी आबशार दिखे कभी तो चौंक के देखे कोई हमारी तरफ़ किसी की आँख में हम को भी इंतिज़ार दिखे कोई तिलिस्मी सिफ़त थी जो इस हुजूम में वो हुए जो आँख से ओझल तो बार बार दिखे " jab-bhii-ye-dil-udaas-hotaa-hai-gulzar-ghazals," जब भी ये दिल उदास होता है जाने कौन आस-पास होता है आँखें पहचानती हैं आँखों को दर्द चेहरा-शनास होता है गो बरसती नहीं सदा आँखें अब्र तो बारह-मास होता है छाल पेड़ों की सख़्त है लेकिन नीचे नाख़ुन के मास होता है ज़ख़्म कहते हैं दिल का गहना है दर्द दिल का लिबास होता है डस ही लेता है सब को इश्क़ कभी साँप मौक़ा-शनास होता है सिर्फ़ इतना करम किया कीजे आप को जितना रास होता है " kaanch-ke-piichhe-chaand-bhii-thaa-aur-kaanch-ke-uupar-kaaii-bhii-gulzar-ghazals," काँच के पीछे चाँद भी था और काँच के ऊपर काई भी तीनों थे हम वो भी थे और मैं भी था तन्हाई भी यादों की बौछारों से जब पलकें भीगने लगती हैं सोंधी सोंधी लगती है तब माज़ी की रुस्वाई भी दो दो शक्लें दिखती हैं इस बहके से आईने में मेरे साथ चला आया है आप का इक सौदाई भी कितनी जल्दी मैली करता है पोशाकें रोज़ फ़लक सुब्ह ही रात उतारी थी और शाम को शब पहनाई भी ख़ामोशी का हासिल भी इक लम्बी सी ख़ामोशी थी उन की बात सुनी भी हम ने अपनी बात सुनाई भी कल साहिल पर लेटे लेटे कितनी सारी बातें कीं आप का हुंकारा न आया चाँद ने बात कराई भी " mujhe-andhere-men-be-shak-bithaa-diyaa-hotaa-gulzar-ghazals-1," मुझे अँधेरे में बे-शक बिठा दिया होता मगर चराग़ की सूरत जला दिया होता न रौशनी कोई आती मिरे तआ'क़ुब में जो अपने-आप को मैं ने बुझा दिया होता ये दर्द जिस्म के या-रब बहुत शदीद लगे मुझे सलीब पे दो पल सुला दिया होता ये शुक्र है कि मिरे पास तेरा ग़म तो रहा वगर्ना ज़िंदगी ने तो रुला दिया होता " kabhii-dhanak-sii-utartii-thii-un-nigaahon-men-fahmida-riaz-ghazals," कभी धनक सी उतरती थी उन निगाहों में वो शोख़ रंग भी धीमे पड़े हवाओं में मैं तेज़-गाम चली जा रही थी उस की सम्त कशिश अजीब थी उस दश्त की सदाओं में वो इक सदा जो फ़रेब-ए-सदा से भी कम है न डूब जाए कहीं तुंद-रौ हवाओं में सुकूत-ए-शाम है और मैं हूँ गोश-बर-आवाज़ कि एक वा'दे का अफ़्सूँ सा है फ़ज़ाओं में मिरी तरह यूँही गुम-कर्दा-राह छोड़ेगी तुम अपनी बाँह न देना हवा की बाँहों में नुक़ूश पाँव के लिखते हैं मंज़िल-ए-ना-याफ़्त मिरा सफ़र तो है तहरीर मेरी राहों में " ye-kis-ke-aansuon-ne-us-naqsh-ko-mitaayaa-fahmida-riaz-ghazals," ये किस के आँसुओं ने उस नक़्श को मिटाया जो मेरे लौह-ए-दिल पर तू ने कभी बनाया था दिल जब उस पे माइल था शौक़ सख़्त मुश्किल तर्ग़ीब ने उसे भी आसान कर दिखाया इक गर्द-बाद में तू ओझल हुआ नज़र से इस दश्त-ए-बे-समर से जुज़ ख़ाक कुछ न पाया ऐ चोब-ए-ख़ुश्क-ए-सहरा वो बाद-ए-शौक़ क्या थी मेरी तरह बरहना जिस ने तुझे बनाया फिर हम हैं नीम-शब है अंदेशा-ए-अबस है वो वाहिमा कि जिस से तेरा यक़ीन आया " ye-pairahan-jo-mirii-ruuh-kaa-utar-na-sakaa-fahmida-riaz-ghazals," ये पैरहन जो मिरी रूह का उतर न सका तो नख़-ब-नख़ कहीं पैवस्त रेशा-ए-दिल था मुझे मआल-ए-सफ़र का मलाल क्यूँ-कर हो कि जब सफ़र ही मिरा फ़ासलों का धोका था मैं जब फ़िराक़ की रातों में उस के साथ रही वो फिर विसाल के लम्हों में क्यूँ अकेला था वो वास्ते की तिरा दरमियाँ भी क्यूँ आए ख़ुदा के साथ मिरा जिस्म क्यूँ न हो तन्हा सराब हूँ मैं तिरी प्यास क्या बुझाऊँगी इस इश्तियाक़ से तिश्ना ज़बाँ क़रीब न ला सराब हूँ कि बदन की यही शहादत है हर एक उज़्व में बहता है रेत का दरिया जो मेरे लब पे है शायद वही सदाक़त है जो मेरे दिल में है उस हर्फ़-ए-राएगाँ पे न जा जिसे मैं तोड़ चुकी हूँ वो रौशनी का तिलिस्म शुआ-ए-नूर-ए-अज़ल के सिवा कुछ और न था " patthar-se-visaal-maangtii-huun-fahmida-riaz-ghazals," पत्थर से विसाल माँगती हूँ मैं आदमियों से कट गई हूँ शायद पाऊँ सुराग़-ए-उल्फ़त मुट्ठी में ख़ाक-भर रही हूँ हर लम्स है जब तपिश से आरी किस आँच से यूँ पिघल रही हूँ वो ख़्वाहिश-ए-बोसा भी नहीं अब हैरत से होंट काटती हूँ इक तिफ़्लक-ए-जुस्तुजू हूँ शायद मैं अपने बदन से खेलती हूँ अब तब्अ' किसी पे क्यूँ हो राग़िब इंसानों को बरत चुकी हूँ " jo-mujh-men-chhupaa-meraa-galaa-ghont-rahaa-hai-fahmida-riaz-ghazals," जो मुझ में छुपा मेरा गला घोंट रहा है या वो कोई इबलीस है या मेरा ख़ुदा है जब सर में नहीं इश्क़ तो चेहरे पे चमक है ये नख़्ल ख़िज़ाँ आई तो शादाब हुआ है क्या मेरा ज़ियाँ है जो मुक़ाबिल तिरे आ जाऊँ ये अम्र तो मा'लूम कि तू मुझ से बड़ा है मैं बंदा-ओ-नाचार कि सैराब न हो पाऊँ ऐ ज़ाहिर-ओ-मौजूद मिरा जिस्म दुआ है हाँ उस के तआ'क़ुब से मिरे दिल में है इंकार वो शख़्स किसी को न मिलेगा न मिला है क्यूँ नूर-ए-अबद दिल में गुज़र कर नहीं पाता सीने की सियाही से नया हर्फ़ लिखा है " chaar-suu-hai-badii-vahshat-kaa-samaan-fahmida-riaz-ghazals," चार-सू है बड़ी वहशत का समाँ किसी आसेब का साया है यहाँ कोई आवाज़ सी है मर्सियाँ-ख़्वाँ शहर का शहर बना गोरिस्ताँ एक मख़्लूक़ जो बस्ती है यहाँ जिस पे इंसाँ का गुज़रता है गुमाँ ख़ुद तो साकित है मिसाल-ए-तस्वीर जुम्बिश-ए-ग़ैर से है रक़्स-कुनाँ कोई चेहरा नहीं जुज़ ज़ेर-ए-नक़ाब न कोई जिस्म है जुज़ बे-दिल-ओ-जाँ उलमा हैं दुश्मन-ए-फ़हम-ओ-तहक़ीक़ कोदनी शेवा-ए-दानिश-मंदाँ शाइ'र-ए-क़ौम पे बन आई है किज़्ब कैसे हो तसव्वुफ़ में निहाँ लब हैं मसरूफ़-ए-क़सीदा-गोई और आँखों में है ज़िल्लत उर्यां सब्ज़ ख़त आक़िबत-ओ-दीं के असीर पारसा ख़ुश-तन-ओ-नौ-ख़ेज़ जवाँ ये ज़न-ए-नग़्मा-गर-ओ-इश्क़-शिआ'र यास-ओ-हसरत से हुई है हैराँ किस से अब आरज़ू-ए-वस्ल करें इस ख़राबे में कोई मर्द कहाँ " zakhm-jhele-daag-bhii-khaae-bahut-meer-taqi-meer-ghazals," ज़ख़्म झेले दाग़ भी खाए बहुत दिल लगा कर हम तो पछताए बहुत जब न तब जागह से तुम जाया किए हम तो अपनी ओर से आए बहुत दैर से सू-ए-हरम आया न टुक हम मिज़ाज अपना इधर लाए बहुत फूल गुल शम्स ओ क़मर सारे ही थे पर हमें इन में तुम्हीं भाए बहुत गर बुका इस शोर से शब को है तो रोवेंगे सोने को हम-साए बहुत वो जो निकला सुब्ह जैसे आफ़्ताब रश्क से गुल फूल मुरझाए बहुत 'मीर' से पूछा जो मैं आशिक़ हो तुम हो के कुछ चुपके से शरमाए बहुत " kyaa-kahuun-tum-se-main-ki-kyaa-hai-ishq-meer-taqi-meer-ghazals," क्या कहूँ तुम से मैं कि क्या है इश्क़ जान का रोग है बला है इश्क़ इश्क़ ही इश्क़ है जहाँ देखो सारे आलम में भर रहा है इश्क़ इश्क़ है तर्ज़ ओ तौर इश्क़ के तईं कहीं बंदा कहीं ख़ुदा है इश्क़ इश्क़ मा'शूक़ इश्क़ आशिक़ है या'नी अपना ही मुब्तला है इश्क़ गर परस्तिश ख़ुदा की साबित की किसू सूरत में हो भला है इश्क़ दिलकश ऐसा कहाँ है दुश्मन-ए-जाँ मुद्दई है प मुद्दआ है इश्क़ है हमारे भी तौर का आशिक़ जिस किसी को कहीं हुआ है इश्क़ कोई ख़्वाहाँ नहीं मोहब्बत का तू कहे जिंस-ए-ना-रवा है इश्क़ 'मीर'-जी ज़र्द होते जाते हो क्या कहीं तुम ने भी किया है इश्क़ " mir-taqi-mir-ghazals-5," आगे जमाल-ए-यार के मा'ज़ूर हो गया गुल इक चमन में दीदा-ए-बेनूर हो गया इक चश्म-ए-मुंतज़र है कि देखे है कब से राह जों ज़ख़्म तेरी दूरी में नासूर हो गया क़िस्मत तो देख शैख़ को जब लहर आई तब दरवाज़ा शीरा ख़ाने का मा'मूर हो गया पहुँचा क़रीब मर्ग के वो सैद-ए-ना-क़ुबूल जो तेरी सैद-ए-गाह से टक दूर हो गया देखा ये नाव-नोश कि नीश-ए-फ़िराक़ से सीना तमाम ख़ाना-ए-ज़ंबूर हो गया इस माह-ए-चारदह का छपे इश्क़ क्यूँके आह अब तो तमाम शहर में मशहूर हो गया शायद कसो के दिल को लगी उस गली में चोट मेरी बग़ल में शीशा-ए-दिल चूर हो गया लाशा मिरा तसल्ली न ज़ेर-ए-ज़मीं हुआ जब तक न आन कर वो सर-ए-गोर हो गया देखा जो मैं ने यार तो वो 'मीर' ही नहीं तेरे ग़म-ए-फ़िराक़ में रंजूर हो गया " hamaare-aage-tiraa-jab-kisuu-ne-naam-liyaa-meer-taqi-meer-ghazals," हमारे आगे तिरा जब किसू ने नाम लिया दिल-ए-सितम-ज़दा को हम ने थाम थाम लिया क़सम जो खाइए तो ताला-ए-ज़ुलेख़ा की अज़ीज़-ए-मिस्र का भी साहब इक ग़ुलाम लिया ख़राब रहते थे मस्जिद के आगे मय-ख़ाने निगाह-ए-मस्त ने साक़ी की इंतिक़ाम लिया वो कज-रविश न मिला रास्ते में मुझ से कभी न सीधी तरह से उन ने मिरा सलाम लिया मज़ा दिखावेंगे बे-रहमी का तिरी सय्याद गर इज़्तिराब-ए-असीरी ने ज़ेर-ए-दाम लिया मिरे सलीक़े से मेरी निभी मोहब्बत में तमाम उम्र मैं नाकामियों से काम लिया अगरचे गोशा-गुज़ीं हूँ मैं शाइरों में 'मीर' प मेरे शोर ने रू-ए-ज़मीं तमाम लिया " jab-naam-tiraa-liijiye-tab-chashm-bhar-aave-mir-taqi-mir-ghazals," जब नाम तिरा लीजिए तब चश्म भर आवे इस ज़िंदगी करने को कहाँ से जिगर आवे तलवार का भी मारा ख़ुदा रक्खे है ज़ालिम ये तो हो कोई गोर-ए-ग़रीबाँ में दर आवे मय-ख़ाना वो मंज़र है कि हर सुब्ह जहाँ शैख़ दीवार पे ख़ुर्शीद का मस्ती से सर आवे क्या जानें वे मुर्ग़ान-ए-गिरफ़्तार-ए-चमन को जिन तक कि ब-सद-नाज़ नसीम-ए-सहर आवे तू सुब्ह क़दम-रंजा करे टुक तो है वर्ना किस वास्ते आशिक़ की शब-ए-ग़म बसर आवे हर सू सर-ए-तस्लीम रखे सैद-ए-हरम हैं वो सैद-फ़गन तेग़-ब-कफ़ ता किधर आवे दीवारों से सर मारते फिरने का गया वक़्त अब तू ही मगर आप कभू दर से दर आवे वाइ'ज़ नहीं कैफ़िय्यत-ए-मय-ख़ाना से आगाह यक जुरआ बदल वर्ना ये मिंदील धर आवे सन्नाअ हैं सब ख़्वार अज़ाँ जुमला हूँ मैं भी है ऐब बड़ा उस में जिसे कुछ हुनर आवे ऐ वो कि तू बैठा है सर-ए-राह पे ज़िन्हार कहियो जो कभू 'मीर' बला-कश इधर आवे मत दश्त-ए-मोहब्बत में क़दम रख कि ख़िज़र को हर गाम पे इस रह में सफ़र से हज़र आवे " banii-thii-kuchh-ik-us-se-muddat-ke-baad-mir-taqi-mir-ghazals," बनी थी कुछ इक उस से मुद्दत के बाद सो फिर बिगड़ी पहली ही सोहबत के बाद जुदाई के हालात मैं क्या कहूँ क़यामत थी एक एक साअत के बाद मुआ कोहकन बे-सुतूँ खोद कर ये राहत हुई ऐसी मेहनत के बाद लगा आग पानी को दौड़े है तू ये गर्मी तिरी इस शरारत के बाद कहे को हमारे कब उन ने सुना कोई बात मानी सो मिन्नत के बाद सुख़न की न तकलीफ़ हम से करो लहू टपके है अब शिकायत के बाद नज़र 'मीर' ने कैसी हसरत से की बहुत रोए हम उस की रुख़्सत के बाद " jiite-jii-kuucha-e-dildaar-se-jaayaa-na-gayaa-mir-taqi-mir-ghazals," जीते-जी कूचा-ए-दिलदार से जाया न गया उस की दीवार का सर से मिरे साया न गया काव-कावे मिज़ा-ए-यार ओ दिल-ए-ज़ार-ओ-नज़ार गुथ गए ऐसे शिताबी कि छुड़ाया न गया वो तो कल देर तलक देखता ईधर को रहा हम से ही हाल-ए-तबाह अपना दिखाया न गया गर्म-रौ राह-ए-फ़ना का नहीं हो सकता पतंग उस से तो शम्अ-नमत सर भी कटाया न गया पास-ए-नामूस-ए-मोहब्बत था कि फ़रहाद के पास बे-सुतूँ सामने से अपने उठाया न गया ख़ाक तक कूचा-ए-दिलदार की छानी हम ने जुस्तुजू की पे दिल-ए-गुम-शुदा पाया न गया आतिश-ए-तेज़ जुदाई में यकायक उस बिन दिल जला यूँ कि तनिक जी भी जलाया न गया मह ने आ सामने शब याद दिलाया था उसे फिर वो ता सुब्ह मिरे जी से भुलाया न गया ज़ेर-ए-शमशीर-ए-सितम 'मीर' तड़पना कैसा सर भी तस्लीम-ए-मोहब्बत में हिलाया न गया जी में आता है कि कुछ और भी मौज़ूँ कीजे दर्द-ए-दिल एक ग़ज़ल में तो सुनाया न गया " aarzuuen-hazaar-rakhte-hain-mir-taqi-mir-ghazals," आरज़ूएँ हज़ार रखते हैं तो भी हम दिल को मार रखते हैं बर्क़ कम-हौसला है हम भी तो दिल को बे-क़रार रखते हैं ग़ैर ही मूरिद-ए-इनायत है हम भी तो तुम से प्यार रखते हैं न निगह ने पयाम ने वादा नाम को हम भी यार रखते हैं हम से ख़ुश-ज़मज़मा कहाँ यूँ तो लब ओ लहजा हज़ार रखते हैं चोट्टे दिल के हैं बुताँ मशहूर बस यही ए'तिबार रखते हैं फिर भी करते हैं 'मीर' साहब इश्क़ हैं जवाँ इख़्तियार रखते हैं " ishq-hamaare-khayaal-padaa-hai-khvaab-gaii-aaraam-gayaa-mir-taqi-mir-ghazals," इश्क़ हमारे ख़याल पड़ा है ख़्वाब गई आराम गया जी का जाना ठहर रहा है सुब्ह गया या शाम गया इश्क़ किया सो दीन गया ईमान गया इस्लाम गया दिल ने ऐसा काम किया कुछ जिस से मैं नाकाम गया किस किस अपनी कल को रोवे हिज्राँ में बेकल उस का ख़्वाब गई है ताब गई है चैन गया आराम गया आया याँ से जाना ही तो जी का छुपाना क्या हासिल आज गया या कल जावेगा सुब्ह गया या शाम गया हाए जवानी क्या क्या कहिए शोर सरों में रखते थे अब क्या है वो अहद गया वो मौसम वो हंगाम गया गाली झिड़की ख़श्म-ओ-ख़ुशूनत ये तो सर-ए-दस्त अक्सर हैं लुत्फ़ गया एहसान गया इनआ'म गया इकराम गया लिखना कहना तर्क हुआ था आपस में तो मुद्दत से अब जो क़रार किया है दिल से ख़त भी गया पैग़ाम गया नाला-ए-मीर सवाद में हम तक दोशीं शब से नहीं आया शायद शहर से उस ज़ालिम के आशिक़ वो बदनाम गया " thaa-mustaaar-husn-se-us-ke-jo-nuur-thaa-meer-taqi-meer-ghazals," था मुस्तआर हुस्न से उस के जो नूर था ख़ुर्शीद में भी उस ही का ज़र्रा ज़ुहूर था हंगामा गर्म-कुन जो दिल-ए-ना-सुबूर था पैदा हर एक नाले से शोर-ए-नुशूर था पहुँचा जो आप को तो मैं पहुँचा ख़ुदा के तईं मालूम अब हुआ कि बहुत मैं भी दूर था आतिश बुलंद दिल की न थी वर्ना ऐ कलीम यक शो'ला बर्क़-ए-ख़िर्मन-ए-सद-कोह-ए-तूर था मज्लिस में रात एक तिरे परतवे बग़ैर क्या शम्अ क्या पतंग हर इक बे-हुज़ूर था उस फ़स्ल में कि गुल का गरेबाँ भी है हवा दीवाना हो गया सो बहुत ज़ी-शुऊर था मुनइ'म के पास क़ाक़ुम ओ संजाब था तो क्या उस रिंद की भी रात गुज़र गई जो ऊर था हम ख़ाक में मिले तो मिले लेकिन ऐ सिपहर उस शोख़ को भी राह पे लाना ज़रूर था कल पाँव एक कासा-ए-सर पर जो आ गया यकसर वो उस्तुख़्वान शिकस्तों से चूर था कहने लगा कि देख के चल राह बे-ख़बर मैं भी कभू किसू का सर-ए-पुर-ग़ुरूर था था वो तो रश्क-ए-हूर-ए-बहिश्ती हमीं में 'मीर' समझे न हम तो फ़हम का अपनी क़ुसूर था " ashk-aankhon-men-kab-nahiin-aataa-mir-taqi-mir-ghazals," अश्क आँखों में कब नहीं आता लोहू आता है जब नहीं आता होश जाता नहीं रहा लेकिन जब वो आता है तब नहीं आता सब्र था एक मोनिस-ए-हिज्राँ सो वो मुद्दत से अब नहीं आता दिल से रुख़्सत हुई कोई ख़्वाहिश गिर्या कुछ बे-सबब नहीं आता इश्क़ को हौसला है शर्त अर्ना बात का किस को ढब नहीं आता जी में क्या क्या है अपने ऐ हमदम पर सुख़न ता-ब-लब नहीं आता दूर बैठा ग़ुबार-ए-'मीर' उस से इश्क़ बिन ये अदब नहीं आता " us-kaa-khayaal-chashm-se-shab-khvaab-le-gayaa-mir-taqi-mir-ghazals," उस का ख़याल चश्म से शब ख़्वाब ले गया क़स्मे कि इश्क़ जी से मिरे ताब ले गया किन नींदों अब तू सोती है ऐ चश्म-ए-गिर्या-नाक मिज़्गाँ तो खोल शहर को सैलाब ले गया आवे जो मस्तबा में तो सुन लो कि राह से वाइज़ को एक जाम-ए-मय-ए-नाब ले गया ने दिल रहा बजा है न सब्र ओ हवास ओ होश आया जो सैल-ए-इश्क़ सब अस्बाब ले गया मेरे हुज़ूर शम्अ ने गिर्या जो सर किया रोया मैं इस क़दर कि मुझे आब ले गया अहवाल उस शिकार ज़ुबूँ का है जाए रहम जिस ना-तवाँ को मुफ़्त न क़स्साब ले गया मुँह की झलक से यार के बेहोश हो गए शब हम को 'मीर' परतव-ए-महताब ले गया " kuchh-mauj-e-havaa-pechaan-ai-miir-nazar-aaii-mir-taqi-mir-ghazals," कुछ मौज-ए-हवा पेचाँ ऐ 'मीर' नज़र आई शायद कि बहार आई ज़ंजीर नज़र आई दिल्ली के न थे कूचे औराक़-ए-मुसव्वर थे जो शक्ल नज़र आई तस्वीर नज़र आई मग़रूर बहुत थे हम आँसू की सरायत पर सो सुब्ह के होने को तासीर नज़र आई गुल-बार करे हैगा असबाब-ए-सफ़र शायद ग़ुंचे की तरह बुलबुल दिल-गीर नज़र आई उस की तो दिल-आज़ारी बे-हेच ही थी यारो कुछ तुम को हमारी भी तक़्सीर नज़र आई " hastii-apnii-habaab-kii-sii-hai-meer-taqi-meer-ghazals," हस्ती अपनी हबाब की सी है ये नुमाइश सराब की सी है नाज़ुकी उस के लब की क्या कहिए पंखुड़ी इक गुलाब की सी है चश्म-ए-दिल खोल इस भी आलम पर याँ की औक़ात ख़्वाब की सी है बार बार उस के दर पे जाता हूँ हालत अब इज़्तिराब की सी है नुक़्ता-ए-ख़ाल से तिरा अबरू बैत इक इंतिख़ाब की सी है मैं जो बोला कहा कि ये आवाज़ उसी ख़ाना-ख़राब की सी है आतिश-ए-ग़म में दिल भुना शायद देर से बू कबाब की सी है देखिए अब्र की तरह अब के मेरी चश्म-ए-पुर-आब की सी है 'मीर' उन नीम-बाज़ आँखों में सारी मस्ती शराब की सी है " aah-jis-vaqt-sar-uthaatii-hai-mir-taqi-mir-ghazals," आह जिस वक़्त सर उठाती है अर्श पर बर्छियाँ चलाती है नाज़-बरदार-ए-लब है जाँ जब से तेरे ख़त की ख़बर को पाती है ऐ शब-ए-हिज्र रास्त कह तुझ को बात कुछ सुब्ह की भी आती है चश्म-ए-बद्दूर-चश्म-ए-तर ऐ 'मीर' आँखें तूफ़ान को दिखाती है " umr-bhar-ham-rahe-sharaabii-se-mir-taqi-mir-ghazals," उम्र भर हम रहे शराबी से दिल-ए-पुर-ख़ूँ की इक गुलाबी से जी ढहा जाए है सहर से आह रात गुज़रेगी किस ख़राबी से खिलना कम कम कली ने सीखा है उस की आँखों की नीम-ख़्वाबी से बुर्क़ा उठते ही चाँद सा निकला दाग़ हूँ उस की बे-हिजाबी से काम थे इश्क़ में बहुत पर 'मीर' हम ही फ़ारिग़ हुए शिताबी से " chalte-ho-to-chaman-ko-chaliye-kahte-hain-ki-bahaaraan-hai-meer-taqi-meer-ghazals," चलते हो तो चमन को चलिए कहते हैं कि बहाराँ है पात हरे हैं फूल खिले हैं कम-कम बाद-ओ-बाराँ है रंग हवा से यूँ टपके है जैसे शराब चुवाते हैं आगे हो मय-ख़ाने के निकलो अहद-ए-बादा-गुसाराँ है इश्क़ के मैदाँ-दारों में भी मरने का है वस्फ़ बहुत या'नी मुसीबत ऐसी उठाना कार-ए-कार-गुज़ाराँ है दिल है दाग़ जिगर है टुकड़े आँसू सारे ख़ून हुए लोहू पानी एक करे ये इश्क़-ए-लाला-अज़ाराँ है कोहकन ओ मजनूँ की ख़ातिर दश्त-ओ-कोह में हम न गए इश्क़ में हम को 'मीर' निहायत पास-ए-इज़्ज़त-दाराँ है " mir-taqi-mir-ghazals-76," आह-ए-सहर ने सोज़िश-ए-दिल को मिटा दिया उस बाव ने हमें तो दिया सा बुझा दिया समझी न बाद सुब्ह कि आ कर उठा दिया इस फ़ित्ना-ए-ज़माना को नाहक़ जगा दिया पोशीदा राज़-ए-इश्क़ चला जाए था सौ आज बे-ताक़ती ने दिल की वो पर्दा उठा दिया उस मौज-ख़ेज़ दहर में हम को क़ज़ा ने आह पानी के बुलबुले की तरह से मिटा दिया थी लाग उस की तेग़ को हम से सौ इश्क़ ने दोनों को मा'रके में गले से मिला दिया सब शोर-ए-मा-ओ-मन को लिए सर में मर गए यारों को इस फ़साने ने आख़िर सुला दिया आवारगान-ए-इश्क़ का पूछा जो मैं निशाँ मुश्त-ए-ग़ुबार ले के सबा ने उड़ा दिया अज्ज़ा बदन के जितने थे पानी हो बह गए आख़िर गुदाज़ इश्क़ ने हम को बहा दिया क्या कुछ न था अज़ल में न ताला जो थे दुरुस्त हम को दिल-शिकस्ता क़ज़ा ने दिला दिया गोया मुहासबा मुझे देना था इश्क़ का उस तौर दिल सी चीज़ को मैं ने लगा दिया मुद्दत रहेगी याद तिरे चेहरे की झलक जल्वे को जिस ने माह के जी से भुला दिया हम ने तो सादगी से क्या जी का भी ज़ियाँ दिल जो दिया था सो तो दिया सर जुदा दिया बोई कबाब सोख़्ता आई दिमाग़ में शायद जिगर भी आतिश-ए-ग़म ने जिला दिया तकलीफ़ दर्द-ए-दिल की अबस हम-नशीं ने की दर्द-ए-सुख़न ने मेरे सभों को रुला दिया उन ने तो तेग़ खींची थी पर जी चला के 'मीर' हम ने भी एक दम में तमाशा दिखा दिया " ultii-ho-gaiin-sab-tadbiiren-kuchh-na-davaa-ne-kaam-kiyaa-meer-taqi-meer-ghazals," उल्टी हो गईं सब तदबीरें कुछ न दवा ने काम किया देखा इस बीमारी-ए-दिल ने आख़िर काम तमाम किया अहद-ए-जवानी रो रो काटा पीरी में लीं आँखें मूँद या'नी रात बहुत थे जागे सुब्ह हुई आराम किया हर्फ़ नहीं जाँ-बख़्शी में उस की ख़ूबी अपनी क़िस्मत की हम से जो पहले कह भेजा सो मरने का पैग़ाम किया नाहक़ हम मजबूरों पर ये तोहमत है मुख़्तारी की चाहते हैं सो आप करें हैं हम को अबस बदनाम किया सारे रिंद औबाश जहाँ के तुझ से सुजूद में रहते हैं बाँके टेढ़े तिरछे तीखे सब का तुझ को इमाम किया सरज़द हम से बे-अदबी तो वहशत में भी कम ही हुई कोसों उस की ओर गए पर सज्दा हर हर गाम किया किस का काबा कैसा क़िबला कौन हरम है क्या एहराम कूचे के उस के बाशिंदों ने सब को यहीं से सलाम किया शैख़ जो है मस्जिद में नंगा रात को था मय-ख़ाने में जुब्बा ख़िर्क़ा कुर्ता टोपी मस्ती में इनआ'म किया काश अब बुर्क़ा मुँह से उठा दे वर्ना फिर क्या हासिल है आँख मुँदे पर उन ने गो दीदार को अपने आम किया याँ के सपीद ओ सियह में हम को दख़्ल जो है सो इतना है रात को रो रो सुब्ह किया या दिन को जूँ तूँ शाम किया सुब्ह चमन में उस को कहीं तकलीफ़-ए-हवा ले आई थी रुख़ से गुल को मोल लिया क़ामत से सर्व ग़ुलाम किया साअद-ए-सीमीं दोनों उस के हाथ में ला कर छोड़ दिए भूले उस के क़ौल-ओ-क़सम पर हाए ख़याल-ए-ख़ाम किया काम हुए हैं सारे ज़ाएअ' हर साअ'त की समाजत से इस्तिग़्ना की चौगुनी उन ने जूँ जूँ मैं इबराम किया ऐसे आहु-ए-रम-ख़ुर्दा की वहशत खोनी मुश्किल थी सेहर किया ए'जाज़ किया जिन लोगों ने तुझ को राम किया 'मीर' के दीन-ओ-मज़हब को अब पूछते क्या हो उन ने तो क़श्क़ा खींचा दैर में बैठा कब का तर्क इस्लाम किया " ham-aap-hii-ko-apnaa-maqsuud-jaante-hain-mir-taqi-mir-ghazals," हम आप ही को अपना मक़्सूद जानते हैं अपने सिवाए किस को मौजूद जानते हैं इज्ज़-ओ-नियाज़ अपना अपनी तरफ़ है सारा इस मुश्त-ए-ख़ाक को हम मस्जूद जानते हैं सूरत-पज़ीर हम बिन हरगिज़ नहीं वे माने अहल-ए-नज़र हमीं को मा'बूद जानते हैं इश्क़ उन की अक़्ल को है जो मा-सिवा हमारे नाचीज़ जानते हैं ना-बूद जानते हैं अपनी ही सैर करने हम जल्वा-गर हुए थे इस रम्ज़ को व-लेकिन मादूद जानते हैं यारब कसे है नाक़ा हर ग़ुंचा इस चमन का राह-ए-वफ़ा को हम तो मसदूद जानते हैं ये ज़ुल्म-ए-बे-निहायत दुश्वार-तर कि ख़ूबाँ बद-वज़इयों को अपनी महमूद जानते हैं क्या जाने दाब सोहबत अज़ ख़्वेश रफ़्तगाँ का मज्लिस में शैख़-साहिब कुछ कूद जानते हैं मर कर भी हाथ आवे तो 'मीर' मुफ़्त है वो जी के ज़ियान को भी हम सूद जानते हैं " lazzat-se-nahiin-khaalii-jaanon-kaa-khapaa-jaanaa-mir-taqi-mir-ghazals," लज़्ज़त से नहीं ख़ाली जानों का खपा जाना कब ख़िज़्र ओ मसीहा ने मरने का मज़ा जाना हम जाह-ओ-हशम याँ का क्या कहिए कि क्या जाना ख़ातिम को सुलैमाँ की अंगुश्तर-ए-पा जाना ये भी है अदा कोई ख़ुर्शीद नमत प्यारे मुँह सुब्ह दिखा जाना फिर शाम छुपा जाना कब बंदगी मेरी सी बंदा करेगा कोई जाने है ख़ुदा उस को मैं तुझ को ख़ुदा जाना था नाज़ बहुत हम को दानिस्त पर अपनी भी आख़िर वो बुरा निकला हम जिस को भला जाना गर्दन-कशी क्या हासिल मानिंद बगूले की इस दश्त में सर गाड़े जूँ सैल चला जाना इस गिर्या-ए-ख़ूनीं का हो ज़ब्त तो बेहतर है अच्छा नहीं चेहरे पर लोहू का बहा जाना ये नक़्श दिलों पर से जाने का नहीं उस को आशिक़ के हुक़ूक़ आ कर नाहक़ भी मिटा जाना ढब देखने का ईधर ऐसा ही तुम्हारा था जाते तो हो पर हम से टुक आँख मिला जाना उस शम्अ की मज्लिस में जाना हमें फिर वाँ से इक ज़ख़्म-ए-ज़बाँ ताज़ा हर रोज़ उठा जाना ऐ शोर-ए-क़यामत हम सोते ही न रह जावें इस राह से निकले तो हम को भी जगा जाना क्या पानी के मोल आ कर मालिक ने गुहर बेचा है सख़्त गिराँ सस्ता यूसुफ़ का बिका जाना है मेरी तिरी निस्बत रूह और जसद की सी कब आप से मैं तुझ को ऐ जान जुदा जाना जाती है गुज़र जी पर उस वक़्त क़यामत सी याद आवे है जब तेरा यक-बारगी आ जाना बरसों से मिरे उस की रहती है यही सोहबत तेग़ उस को उठाना तो सर मुझ को झुका जाना कब 'मीर' बसर आए तुम वैसे फ़रेबी से दिल को तो लगा बैठे लेकिन न लगा जाना " baaten-hamaarii-yaad-rahen-phir-baaten-aisii-na-suniyegaa-meer-taqi-meer-ghazals," बातें हमारी याद रहें फिर बातें ऐसी न सुनिएगा पढ़ते किसू को सुनिएगा तो देर तलक सर धुनिएगा सई ओ तलाश बहुत सी रहेगी इस अंदाज़ के कहने की सोहबत में उलमा फ़ुज़ला की जा कर पढ़िए गिनयेगा दिल की तसल्ली जब कि होगी गुफ़्त ओ शुनूद से लोगों की आग फुंकेगी ग़म की बदन में उस में जलिए भुनिएगा गर्म अशआर 'मीर' दरूना दाग़ों से ये भर देंगे ज़र्द-रू शहर में फिरिएगा गलियों में ने गुल चुनिएगा " yaaro-mujhe-muaaf-rakho-main-nashe-men-huun-mir-taqi-mir-ghazals," यारो मुझे मुआ'फ़ रखो मैं नशे में हूँ अब दो तो जाम ख़ाली ही दो मैं नशे में हूँ एक एक क़ुर्त दौर में यूँ ही मुझे भी दो जाम-ए-शराब पुर न करो मैं नशे में हूँ मस्ती से दरहमी है मिरी गुफ़्तुगू के बीच जो चाहो तुम भी मुझ को कहो मैं नशे में हूँ या हाथों हाथ लो मुझे मानिंद-ए-जाम-ए-मय या थोड़ी दूर साथ चलो मैं नशे में हूँ मा'ज़ूर हूँ जो पाँव मिरा बे-तरह पड़े तुम सरगिराँ तो मुझ से न हो मैं नशे में हूँ भागी नमाज़-ए-जुमा तो जाती नहीं है कुछ चलता हूँ मैं भी टुक तो रहो मैं नशे में हूँ नाज़ुक-मिज़ाज आप क़यामत हैं 'मीर' जी जूँ शीशा मेरे मुँह न लगो मैं नशे में हूँ " aae-hain-miir-kaafir-ho-kar-khudaa-ke-ghar-men-mir-taqi-mir-ghazals," आए हैं 'मीर' काफ़िर हो कर ख़ुदा के घर में पेशानी पर है क़श्क़ा ज़ुन्नार है कमर में नाज़ुक बदन है कितना वो शोख़-चश्म दिलबर जान उस के तन के आगे आती नहीं नज़र में सीने में तीर उस के टूटे हैं बे-निहायत सुराख़ पड़ गए हैं सारे मिरे जिगर में आइंदा शाम को हम रोया कुढ़ा करेंगे मुतलक़ असर न देखा नालीदन-ए-सहर में बे-सुध पड़ा रहूँ हूँ उस मस्त-ए-नाज़ बिन मैं आता है होश मुझ को अब तो पहर पहर में सीरत से गुफ़्तुगू है क्या मो'तबर है सूरत है एक सूखी लकड़ी जो बू न हो अगर में हम-साया-ए-मुग़ाँ में मुद्दत से हूँ चुनाँचे इक शीरा-ख़ाने की है दीवार मेरे घर में अब सुब्ह ओ शाम शायद गिर्ये पे रंग आवे रहता है कुछ झमकता ख़ूनाब चश्म-ए-तर में आलम में आब-ओ-गिल के क्यूँकर निबाह होगा अस्बाब गिर पड़ा है सारा मिरा सफ़र में " sher-ke-parde-men-main-ne-gam-sunaayaa-hai-bahut-mir-taqi-mir-ghazals," शेर के पर्दे में मैं ने ग़म सुनाया है बहुत मरसिए ने दिल के मेरे भी रुलाया है बहुत बे-सबब आता नहीं अब दम-ब-दम आशिक़ को ग़श दर्द खींचा है निहायत रंज उठाया है बहुत वादी ओ कोहसार में रोता हूँ ड़ाढें मार मार दिलबरान-ए-शहर ने मुझ को सताया है बहुत वा नहीं होता किसू से दिल गिरफ़्ता इश्क़ का ज़ाहिरन ग़मगीं उसे रहना ख़ुश आया है बहुत 'मीर' गुम-गश्ता का मिलना इत्तिफ़ाक़ी अम्र है जब कभू पाया है ख़्वाहिश-मंद पाया है बहुत " faqiiraana-aae-sadaa-kar-chale-meer-taqi-meer-ghazals," फ़क़ीराना आए सदा कर चले कि म्याँ ख़ुश रहो हम दुआ कर चले जो तुझ बिन न जीने को कहते थे हम सो इस अहद को अब वफ़ा कर चले शिफ़ा अपनी तक़दीर ही में न थी कि मक़्दूर तक तो दवा कर चले पड़े ऐसे अस्बाब पायान-ए-कार कि नाचार यूँ जी जला कर चले वो क्या चीज़ है आह जिस के लिए हर इक चीज़ से दिल उठा कर चले कोई ना-उमीदाना करते निगाह सो तुम हम से मुँह भी छुपा कर चले बहुत आरज़ू थी गली की तिरी सो याँ से लहू में नहा कर चले दिखाई दिए यूँ कि बे-ख़ुद किया हमें आप से भी जुदा कर चले जबीं सज्दा करते ही करते गई हक़-ए-बंदगी हम अदा कर चले परस्तिश की याँ तक कि ऐ बुत तुझे नज़र में सभों की ख़ुदा कर चले झड़े फूल जिस रंग गुलबुन से यूँ चमन में जहाँ के हम आ कर चले न देखा ग़म-ए-दोस्ताँ शुक्र है हमीं दाग़ अपना दिखा कर चले गई उम्र दर-बंद-ए-फ़िक्र-ए-ग़ज़ल सो इस फ़न को ऐसा बड़ा कर चले कहें क्या जो पूछे कोई हम से 'मीर' जहाँ में तुम आए थे क्या कर चले " chaman-men-gul-ne-jo-kal-daava-e-jamaal-kiyaa-meer-taqi-meer-ghazals," चमन में गुल ने जो कल दावा-ए-जमाल किया जमाल-ए-यार ने मुँह उस का ख़ूब लाल किया फ़लक ने आह तिरी रह में हम को पैदा कर ब-रंग-ए-सब्ज़-ए-नूरस्ता पाएमाल किया रही थी दम की कशाकश गले में कुछ बाक़ी सो उस की तेग़ ने झगड़ा ही इंफ़िसाल किया मिरी अब आँखें नहीं खुलतीं ज़ोफ़ से हमदम न कह कि नींद में है तू ये क्या ख़याल किया बहार-ए-रफ़्ता फिर आई तिरे तमाशे को चमन को युम्न-ए-क़दम ने तिरे निहाल किया जवाब-नामा सियाही का अपनी है वो ज़ुल्फ़ किसू ने हश्र को हम से अगर सवाल किया लगा न दिल को कहीं क्या सुना नहीं तू ने जो कुछ कि 'मीर' का इस आशिक़ी ने हाल किया " mir-taqi-mir-ghazals-80," आए हैं 'मीर' मुँह को बनाए ख़फ़ा से आज शायद बिगड़ गई है कुछ उस बेवफ़ा से आज वाशुद हुई न दिल को फ़क़ीरों के भी मिले खुलती नहीं गिरह ये कसू की दुआ से आज जीने में इख़्तियार नहीं वर्ना हम-नशीं हम चाहते हैं मौत तो अपनी ख़ुदा से आज साक़ी टुक एक मौसम-ए-गुल की तरफ़ भी देख टपका पड़े है रंग चमन में हवा से आज था जी में उस से मिलिए तो क्या क्या न कहिए 'मीर' पर कुछ कहा गया न ग़म-ए-दिल हया से आज " jis-sar-ko-guruur-aaj-hai-yaan-taaj-varii-kaa-meer-taqi-meer-ghazals," जिस सर को ग़ुरूर आज है याँ ताज-वरी का कल उस पे यहीं शोर है फिर नौहागरी का शर्मिंदा तिरे रुख़ से है रुख़्सार परी का चलता नहीं कुछ आगे तिरे कब्क-ए-दरी का आफ़ाक़ की मंज़िल से गया कौन सलामत अस्बाब लुटा राह में याँ हर सफ़री का ज़िंदाँ में भी शोरिश न गई अपने जुनूँ की अब संग मुदावा है इस आशुफ़्ता-सरी का हर ज़ख़्म-ए-जिगर दावर-ए-महशर से हमारा इंसाफ़-तलब है तिरी बेदाद-गरी का अपनी तो जहाँ आँख लड़ी फिर वहीं देखो आईने को लपका है परेशाँ-नज़री का सद मौसम-ए-गुल हम को तह-ए-बाल ही गुज़रे मक़्दूर न देखा कभू बे-बाल-ओ-परी का इस रंग से झमके है पलक पर कि कहे तू टुकड़ा है मिरा अश्क अक़ीक़-ए-जिगरी का कल सैर किया हम ने समुंदर को भी जा कर था दस्त-ए-निगर पंजा-ए-मिज़्गाँ की तरी का ले साँस भी आहिस्ता कि नाज़ुक है बहुत काम आफ़ाक़ की इस कारगह-ए-शीशागरी का टुक 'मीर'-ए-जिगर-सोख़्ता की जल्द ख़बर ले क्या यार भरोसा है चराग़-ए-सहरी का " kyaa-haqiiqat-kahuun-ki-kyaa-hai-ishq-meer-taqi-meer-ghazals," क्या हक़ीक़त कहूँ कि क्या है इश्क़ हक़-शनासों के हाँ ख़ुदा है इश्क़ दिल लगा हो तो जी जहाँ से उठा मौत का नाम प्यार का है इश्क़ और तदबीर को नहीं कुछ दख़्ल इश्क़ के दर्द की दवा है इश्क़ क्या डुबाया मुहीत में ग़म के हम ने जाना था आश्ना है इश्क़ इश्क़ से जा नहीं कोई ख़ाली दिल से ले अर्श तक भरा है इश्क़ कोहकन क्या पहाड़ काटेगा पर्दे में ज़ोर-आज़मा है इश्क़ इश्क़ है इश्क़ करने वालों को कैसा कैसा बहम किया है इश्क़ कौन मक़्सद को इश्क़ बिन पहुँचा आरज़ू इश्क़ मुद्दआ है इश्क़ 'मीर' मरना पड़े है ख़ूबाँ पर इश्क़ मत कर कि बद बला है इश्क़ " ishq-men-zillat-huii-khiffat-huii-tohmat-huii-mir-taqi-mir-ghazals," इश्क़ में ज़िल्लत हुई ख़िफ़्फ़त हुई तोहमत हुई आख़िर आख़िर जान दी यारों ने ये सोहबत हुई अक्स उस बे-दीद का तो मुत्तसिल पड़ता था सुब्ह दिन चढ़े क्या जानूँ आईने की क्या सूरत हुई लौह-ए-सीना पर मिरी सौ नेज़ा-ए-ख़त्ती लगे ख़स्तगी इस दिल-शिकस्ता की इसी बाबत हुई खोलते ही आँखें फिर याँ मूँदनी हम को पड़ीं दीद क्या कोई करे वो किस क़दर मोहलत हुई पाँव मेरा कल्बा-ए-अहज़ाँ में अब रहता नहीं रफ़्ता रफ़्ता उस तरफ़ जाने की मुझ को लत हुई मर गया आवारा हो कर मैं तो जैसे गर्द-बाद पर जिसे ये वाक़िआ पहुँचा उसे वहशत हुई शाद ओ ख़ुश-ताले कोई होगा किसू को चाह कर मैं तो कुल्फ़त में रहा जब से मुझे उल्फ़त हुई दिल का जाना आज कल ताज़ा हुआ हो तो कहूँ गुज़रे उस भी सानेहे को हम-नशीं मुद्दत हुई शौक़-ए-दिल हम ना-तवानों का लिखा जाता है कब अब तलक आप ही पहुँचने की अगर ताक़त हुई क्या कफ़-ए-दस्त एक मैदाँ था बयाबाँ इश्क़ का जान से जब उस में गुज़रे तब हमें राहत हुई यूँ तो हम आजिज़-तरीन-ए-ख़ल्क़-ए-आलम हैं वले देखियो क़ुदरत ख़ुदा की गर हमें क़ुदरत हुई गोश ज़द चट-पट ही मरना इश्क़ में अपने हुआ किस को इस बीमारी-ए-जाँ-काह से फ़ुर्सत हुई बे-ज़बाँ जो कहते हैं मुझ को सो चुप रह जाएँगे मारके में हश्र के गर बात की रुख़्सत हुई हम न कहते थे कि नक़्श उस का नहीं नक़्क़ाश सहल चाँद सारा लग गया तब नीम-रुख़ सूरत हुई इस ग़ज़ल पर शाम से तो सूफ़ियों को वज्द था फिर नहीं मालूम कुछ मज्लिस की क्या हालत हुई कम किसू को 'मीर' की मय्यत की हाथ आई नमाज़ ना'श पर उस बे-सर-ओ-पा की बला कसरत हुई " ba-rang-e-buu-e-gul-us-baag-ke-ham-aashnaa-hote-mir-taqi-mir-ghazals," ब-रंग-ए-बू-ए-गुल उस बाग़ के हम आश्ना होते कि हमराह-ए-सबा टुक सैर करते फिर हवा होते सरापा आरज़ू होने ने बंदा कर दिया हम को वगर्ना हम ख़ुदा थे गर दिल-ए-बे-मुद्दआ होते फ़लक ऐ काश हम को ख़ाक ही रखता कि इस में हम ग़ुबार-ए-राह होते या कसू की ख़ाक-ए-पा होते इलाही कैसे होते हैं जिन्हें है बंदगी ख़्वाहिश हमें तो शर्म दामन-गीर होती है ख़ुदा होते तू है किस नाहिए से ऐ दयार-ए-इश्क़ क्या जानूँ तिरे बाशिंदगाँ हम काश सारे बेवफ़ा होते अब ऐसे हैं कि साने' के मिज़ाज ऊपर बहम पहुँचे जो ख़ातिर-ख़्वाह अपने हम हुए होते तो क्या होते कहीं जो कुछ मलामत गर बजा है 'मीर' क्या जानें उन्हें मा'लूम तब होता कि वैसे से जुदा होते " mir-taqi-mir-ghazals-82," आवेगी मेरी क़ब्र से आवाज़ मेरे बा'द उभरेंगे इश्क़-ए-दिल से तिरे राज़ मेरे बा'द जीना मिरा तो तुझ को ग़नीमत है ना-समझ खींचेगा कौन फिर ये तिरे नाज़ मेरे बा'द शम-ए-मज़ार और ये सोज़-ए-जिगर मिरा हर शब करेंगे ज़िंदगी ना-साज़ मेरे बा'द हसरत है इस के देखने की दिल में बे-क़यास अग़्लब कि मेरी आँखें रहें बाज़ मेरे बा'द करता हूँ मैं जो नाले सर-अंजाम बाग़ में मुँह देखो फिर करेंगे हम आवाज़ मेरे बा'द बिन गुल मुआ ही मैं तो प तू जा के लौटियो सेहन-ए-चमन में ऐ पर-ए-पर्वाज़ मेरे बा'द बैठा हूँ 'मीर' मरने को अपने में मुस्तइद पैदा न होंगे मुझ से भी जाँबाज़ मेरे बा'द " jab-rone-baithtaa-huun-tab-kyaa-kasar-rahe-hai-mir-taqi-mir-ghazals," जब रोने बैठता हूँ तब क्या कसर रहे है रूमाल दो दो दिन तक जूँ अब्र तर रहे है आह-ए-सहर की मेरी बर्छी के वसवसे से ख़ुर्शीद के मुँह ऊपर अक्सर सिपर रहे है आगह तो रहिए उस की तर्ज़-ए-रह-ओ-रविश से आने में उस के लेकिन किस को ख़बर रहे है उन रोज़ों इतनी ग़फ़लत अच्छी नहीं इधर से अब इज़्तिराब हम को दो दो पहर रहे है आब-ए-हयात की सी सारी रविश है उस की पर जब वो उठ चले है एक आध मर रहे है तलवार अब लगा है बे-डोल पास रखने ख़ून आज कल किसू का वो शोख़ कर रहे है दर से कभू जो आते देखा है मैं ने उस को तब से उधर ही अक्सर मेरी नज़र रहे है आख़िर कहाँ तलक हम इक रोज़ हो चुकेंगे बरसों से वादा-ए-शब हर सुब्ह पर रहे है 'मीर' अब बहार आई सहरा में चल जुनूँ कर कोई भी फ़स्ल-ए-गुल में नादान घर रहे है " aa-jaaen-ham-nazar-jo-koii-dam-bahut-hai-yaan-mir-taqi-mir-ghazals," आ जाएँ हम नज़र जो कोई दम बहुत है याँ मोहलत हमें बिसान-ए-शरर कम बहुत है याँ यक लहज़ा सीना-कोबी से फ़ुर्सत हमें नहीं यानी कि दिल के जाने का मातम बहुत है याँ हासिल है क्या सिवाए तराई के दहर में उठ आसमाँ तले से कि शबनम बहुत है याँ माइल-ब-ग़ैर होना तुझ अबरू का ऐब है थी ज़ोर ये कमाँ वले ख़म-चम बहुत है याँ हम रह-रवान-ए-राह-ए-फ़ना देर रह चुके वक़्फ़ा बिसान-ए-सुब्ह कोई दम बहुत है याँ इस बुत-कदे में मअ'नी का किस से करें सवाल आदम नहीं है सूरत-ए-आदम बहुत है याँ आलम में लोग मिलने की गों अब नहीं रहे हर-चंद ऐसा वैसा तो आलम बहुत है याँ वैसा चमन से सादा निकलता नहीं कोई रंगीनी एक और ख़म-ओ-चम बहुत है याँ एजाज़-ए-ईसवी से नहीं बहस इश्क़ में तेरी ही बात जान मुजस्सम बहुत है याँ मेरे हलाक करने का ग़म है अबस तुम्हें तुम शाद ज़िंदगानी करो ग़म बहुत है याँ दिल मत लगा रुख़-ए-अरक़-आलूद यार से आईने को उठा कि ज़मीं नम बहुत है याँ शायद कि काम सुब्ह तक अपना खिंचे न 'मीर' अहवाल आज शाम से दरहम बहुत है याँ " aao-kabhuu-to-paas-hamaare-bhii-naaz-se-mir-taqi-mir-ghazals," आओ कभू तो पास हमारे भी नाज़ से करना सुलूक ख़ूब है अहल-ए-नियाज़ से फिरते हो क्या दरख़्तों के साए में दूर दूर कर लो मुवाफ़क़त किसू बेबर्ग-ओ-साज़ से हिज्राँ में उस के ज़िंदगी करना भला न था कोताही जो न होवे ये उम्र-ए-दराज़ से मानिंद-ए-सुब्हा उक़दे न दिल के कभू खुले जी अपना क्यूँ कि उचटे न रोज़े नमाज़ से करता है छेद छेद हमारा जिगर तमाम वो देखना तिरा मिज़ा-ए-नीम-बाज़ से दिल पर हो इख़्तियार तो हरगिज़ न करिए इश्क़ परहेज़ करिए इस मरज़-ए-जाँ-गुदाज़ से आगे बिछा के नता को लाते थे तेग़ ओ तश्त करते थे यानी ख़ून तो इक इम्तियाज़ से माने हों क्यूँ कि गिर्या-ए-ख़ूनीं के इश्क़ में है रब्त-ए-ख़ास चश्म को इफ़शा-ए-राज़ से शायद शराब-ख़ाने में शब को रहे थे 'मीर' खेले था एक मुग़बचा मोहर-ए-नमाज़ से " jo-is-shor-se-miir-rotaa-rahegaa-mir-taqi-mir-ghazals," जो इस शोर से 'मीर' रोता रहेगा तो हम-साया काहे को सोता रहेगा मैं वो रोने वाला जहाँ से चला हूँ जिसे अब्र हर साल रोता रहेगा मुझे काम रोने से अक्सर है नासेह तू कब तक मिरे मुँह को धोता रहेगा बस ऐ गिर्या आँखें तिरी क्या नहीं हैं कहाँ तक जहाँ को डुबोता रहेगा मिरे दिल ने वो नाला पैदा किया है जरस के भी जो होश खोता रहेगा तू यूँ गालियाँ ग़ैर को शौक़ से दे हमें कुछ कहेगा तो होता रहेगा बस ऐ 'मीर' मिज़्गाँ से पोंछ आँसुओं को तू कब तक ये मोती पिरोता रहेगा " jin-ke-liye-apne-to-yuun-jaan-nikalte-hain-mir-taqi-mir-ghazals," जिन के लिए अपने तो यूँ जान निकलते हैं इस राह में वे जैसे अंजान निकलते हैं क्या तीर-ए-सितम उस के सीने में भी टूटे थे जिस ज़ख़्म को चीरूँ हूँ पैकान निकलते हैं मत सहल हमें जानो फिरता है फ़लक बरसों तब ख़ाक के पर्दे से इंसान निकलते हैं किस का है क़िमाश ऐसा गूदड़ भरे हैं सारे देखो न जो लोगों के दीवान निकलते हैं गह लोहू टपकता है गह लख़्त-ए-दिल आँखों से या टुकड़े जिगर ही के हर आन निकलते हैं करिए तो गिला किस से जैसी थी हमें ख़्वाहिश अब वैसे ही ये अपने अरमान निकलते हैं जागह से भी जाते हो मुँह से भी ख़शिन हो कर वे हर्फ़ नहीं हैं जो शायान निकलते हैं सो काहे को अपनी तू जोगी की सी फेरी है बरसों में कभू ईधर हम आन निकलते हैं उन आईना-रूयों के क्या 'मीर' भी आशिक़ हैं जब घर से निकलते हैं हैरान निकलते हैं " dekh-to-dil-ki-jaan-se-uthtaa-hai-mir-taqi-mir-ghazals," देख तो दिल कि जाँ से उठता है ये धुआँ सा कहाँ से उठता है गोर किस दिलजले की है ये फ़लक शोला इक सुब्ह याँ से उठता है ख़ाना-ए-दिल से ज़ीनहार न जा कोई ऐसे मकाँ से उठता है नाला सर खींचता है जब मेरा शोर इक आसमाँ से उठता है लड़ती है उस की चश्म-ए-शोख़ जहाँ एक आशोब वाँ से उठता है सुध ले घर की भी शोला-ए-आवाज़ दूद कुछ आशियाँ से उठता है बैठने कौन दे है फिर उस को जो तिरे आस्ताँ से उठता है यूँ उठे आह उस गली से हम जैसे कोई जहाँ से उठता है इश्क़ इक 'मीर' भारी पत्थर है कब ये तुझ ना-तवाँ से उठता है " pattaa-pattaa-buutaa-buutaa-haal-hamaaraa-jaane-hai-meer-taqi-meer-ghazals," पत्ता पत्ता बूटा बूटा हाल हमारा जाने है जाने न जाने गुल ही न जाने बाग़ तो सारा जाने है लगने न दे बस हो तो उस के गौहर-ए-गोश को बाले तक उस को फ़लक चश्म-मह-ओ-ख़ुर की पुतली का तारा जाने है आगे उस मुतकब्बिर के हम ख़ुदा ख़ुदा किया करते हैं कब मौजूद ख़ुदा को वो मग़रूर-ए-ख़ुद-आरा जाने है आशिक़ सा तो सादा कोई और न होगा दुनिया में जी के ज़ियाँ को इश्क़ में उस के अपना वारा जाने है चारागरी बीमारी-ए-दिल की रस्म-ए-शहर-ए-हुस्न नहीं वर्ना दिलबर-ए-नादाँ भी इस दर्द का चारा जाने है क्या ही शिकार-फ़रेबी पर मग़रूर है वो सय्याद बचा ताइर उड़ते हवा में सारे अपने असारा जाने है मेहर ओ वफ़ा ओ लुत्फ़-ओ-इनायत एक से वाक़िफ़ इन में नहीं और तो सब कुछ तंज़ ओ किनाया रम्ज़ ओ इशारा जाने है क्या क्या फ़ित्ने सर पर उस के लाता है माशूक़ अपना जिस बे-दिल बे-ताब-ओ-तवाँ को इश्क़ का मारा जाने है रख़नों से दीवार-ए-चमन के मुँह को ले है छुपा यानी इन सुराख़ों के टुक रहने को सौ का नज़ारा जाने है तिश्ना-ए-ख़ूँ है अपना कितना 'मीर' भी नादाँ तल्ख़ी-कश दुम-दार आब-ए-तेग़ को उस के आब-ए-गवारा जाने है " is-ahd-men-ilaahii-mohabbat-ko-kyaa-huaa-mir-taqi-mir-ghazals," इस अहद में इलाही मोहब्बत को क्या हुआ छोड़ा वफ़ा को उन ने मुरव्वत को क्या हुआ उम्मीद-वार-ए-वादा-ए-दीदार मर चले आते ही आते यारो क़यामत को क्या हुआ कब तक तज़ल्लुम आह भला मर्ग के तईं कुछ पेश आया वाक़िआ रहमत को क्या हुआ उस के गए पर ऐसे गए दिल से हम-नशीं मालूम भी हुआ न कि ताक़त को क्या हुआ बख़्शिश ने मुझ को अब्र-ए-करम की किया ख़जिल ऐ चश्म जोश-ए-अश्क-ए-नदामत को क्या हुआ जाता है यार तेग़-ब-कफ़ ग़ैर की तरफ़ ऐ कुश्ता-ए-सितम तिरी ग़ैरत को क्या हुआ थी साब-ए-आशिक़ी की बदायत ही 'मीर' पर क्या जानिए कि हाल-ए-निहायत को क्या हुआ " ab-jo-ik-hasrat-e-javaanii-hai-mir-taqi-mir-ghazals," अब जो इक हसरत-ए-जवानी है उम्र-ए-रफ़्ता की ये निशानी है रश्क-ए-यूसुफ़ है आह वक़्त-ए-अज़ीज़ उम्र इक बार-ए-कारवानी है गिर्या हर वक़्त का नहीं बे-हेच दिल में कोई ग़म-ए-निहानी है हम क़फ़स-ज़ाद क़ैदी हैं वर्ना ता चमन एक पर-फ़िशानी है उस की शमशीर तेज़ है हमदम मर रहेंगे जो ज़िंदगानी है ग़म-ओ-रंज-ओ-अलम निको याँ से सब तुम्हारी ही मेहरबानी है ख़ाक थी मौजज़न जहाँ में और हम को धोका ये था कि पानी है याँ हुए 'मीर' तुम बराबर ख़ाक वाँ वही नाज़ ओ सरगिरानी है " jin-jin-ko-thaa-ye-ishq-kaa-aazaar-mar-gae-mir-taqi-mir-ghazals," जिन जिन को था ये इश्क़ का आज़ार मर गए अक्सर हमारे साथ के बीमार मर गए होता नहीं है उस लब-ए-नौ-ख़त पे कोई सब्ज़ ईसा ओ ख़िज़्र क्या सभी यक-बार मर गए यूँ कानों-कान गुल ने न जाना चमन में आह सर को पटक के हम पस-ए-दीवार मर गए सद कारवाँ वफ़ा है कोई पूछता नहीं गोया मता-ए-दिल के ख़रीदार मर गए मजनूँ न दश्त में है न फ़रहाद कोह में था जिन से लुत्फ़-ए-ज़िंदगी वे यार मर गए गर ज़िंदगी यही है जो करते हैं हम असीर तो वे ही जी गए जो गिरफ़्तार मर गए अफ़्सोस वे शहीद कि जो क़त्ल-गाह में लगते ही उस के हाथ की तलवार मर गए तुझ से दो-चार होने की हसरत के मुब्तिला जब जी हुए वबाल तो नाचार मर गए घबरा न 'मीर' इश्क़ में उस सहल-ए-ज़ीस्त पर जब बस चला न कुछ तो मिरे यार मर गए " mir-taqi-mir-ghazals-36," राह-ए-दूर-ए-इश्क़ में रोता है क्या आगे आगे देखिए होता है क्या क़ाफ़िले में सुब्ह के इक शोर है या'नी ग़ाफ़िल हम चले सोता है क्या सब्ज़ होती ही नहीं ये सरज़मीं तुख़्म-ए-ख़्वाहिश दिल में तू बोता है क्या ये निशान-ए-इश्क़ हैं जाते नहीं दाग़ छाती के अबस धोता है क्या ग़ैरत-ए-यूसुफ़ है ये वक़्त-ए-अज़ीज़ 'मीर' उस को राएगाँ खोता है क्या " gam-rahaa-jab-tak-ki-dam-men-dam-rahaa-mir-taqi-mir-ghazals," ग़म रहा जब तक कि दम में दम रहा दिल के जाने का निहायत ग़म रहा हुस्न था तेरा बहुत आलम-फ़रेब ख़त के आने पर भी इक आलम रहा दिल न पहुँचा गोशा-ए-दामाँ तलक क़तरा-ए-ख़ूँ था मिज़ा पर जम रहा सुनते हैं लैला के ख़ेमे को सियाह उस में मजनूँ का मगर मातम रहा जामा-ए-एहराम-ए-ज़ाहिद पर न जा था हरम में लेक ना-महरम रहा ज़ुल्फ़ें खोलीं तो तू टुक आया नज़र उम्र भर याँ काम-ए-दिल बरहम रहा उस के लब से तल्ख़ हम सुनते रहे अपने हक़ में आब-ए-हैवाँ सम रहा मेरे रोने की हक़ीक़त जिस में थी एक मुद्दत तक वो काग़ज़ नम रहा सुब्ह-ए-पीरी शाम होने आई 'मीर' तू न चेता याँ बहुत दिन कम रहा " baare-duniyaa-men-raho-gam-zada-yaa-shaad-raho-mir-taqi-mir-ghazals," बारे दुनिया में रहो ग़म-ज़दा या शाद रहो ऐसा कुछ कर के चलो याँ कि बहुत याद रहो इश्क़-पेचे की तरह हुस्न-ए-गिरफ़्तारी है लुत्फ़ क्या सर्व की मानिंद गर आज़ाद रहो हम को दीवानगी शहरों ही में ख़ुश आती है दश्त में क़ैस रहो कोह में फ़रहाद रहो वो गराँ ख़्वाब जो है नाज़ का अपने सो है दाद बे-दाद रहो शब को कि फ़रियाद रहो 'मीर' हम मिल के बहुत ख़ुश हुए तुम से प्यारे इस ख़राबे में मिरी जान तुम आबाद रहो " munh-takaa-hii-kare-hai-jis-tis-kaa-mir-taqi-mir-ghazals," मुँह तका ही करे है जिस तिस का हैरती है ये आईना किस का शाम से कुछ बुझा सा रहता हूँ दिल हुआ है चराग़ मुफ़्लिस का थे बुरे मुग़्बचों के तेवर लेक शैख़ मय-ख़ाने से भला खिसका दाग़ आँखों से खिल रहे हैं सब हाथ दस्ता हुआ है नर्गिस का बहर कम-ज़र्फ़ है बसान-ए-हबाब कासा-लैस अब हुआ है तू जिस का फ़ैज़ ऐ अब्र चश्म-ए-तर से उठा आज दामन वसीअ है इस का ताब किस को जो हाल-ए-मीर सुने हाल ही और कुछ है मज्लिस का " aam-hukm-e-sharaab-kartaa-huun-mir-taqi-mir-ghazals," आम हुक्म-ए-शराब करता हूँ मोहतसिब को कबाब करता हूँ टुक तो रह ऐ बिना-ए-हस्ती तू तुझ को कैसा ख़राब करता हूँ बहस करता हूँ हो के अबजद-ख़्वाँ किस क़दर बे-हिसाब करता हूँ कोई बुझती है ये भड़क में अबस तिश्नगी पर इ'ताब करता हूँ सर तलक आब-ए-तेग़ में हूँ ग़र्क़ अब तईं आब आब करता हूँ जी में फिरता है 'मीर' वो मेरे जागता हूँ कि ख़्वाब करता हूँ " mir-taqi-mir-ghazals-190," हम हुए तुम हुए कि 'मीर' हुए उस की ज़ुल्फ़ों के सब असीर हुए जिन की ख़ातिर की उस्तुख़्वाँ-शिकनी सो हम उन के निशान-ए-तीर हुए नहीं आते कसो की आँखों में हो के आशिक़ बहुत हक़ीर हुए आगे ये बे-अदाइयाँ कब थीं इन दिनों तुम बहुत शरीर हुए अपने रोते ही रोते सहरा के गोशे गोशे में आब-गीर हुए ऐसी हस्ती अदम में दाख़िल है नय जवाँ हम न तिफ़्ल-ए-शीर हुए एक दम थी नुमूद बूद अपनी या सफ़ेदी की या अख़ीर हुए या'नी मानिंद-ए-सुब्ह दुनिया में हम जो पैदा हुए सौ पीर हुए मत मिल अहल-ए-दुवल के लड़कों से 'मीर'-जी उन से मिल फ़क़ीर हुए " baar-haa-gor-e-dil-jhankaa-laayaa-mir-taqi-mir-ghazals," बार-हा गोर-ए-दिल झंका लाया अब के शर्त-ए-वफ़ा बजा लाया क़द्र रखती न थी मता-ए-दिल सारे आलम में मैं दिखा लाया दिल कि यक क़तरा ख़ूँ नहीं है बेश एक आलम के सर बला लाया सब पे जिस बार ने गिरानी की उस को ये ना-तवाँ उठा लाया दिल मुझे उस गली में ले जा कर और भी ख़ाक में मिला लाया इब्तिदा ही में मर गए सब यार इश्क़ की कौन इंतिहा लाया अब तो जाते हैं बुत-कदे से 'मीर' फिर मिलेंगे अगर ख़ुदा लाया " tuu-aashnaa-e-jazba-e-ulfat-nahiin-rahaa-noon-meem-rashid-ghazals," तू आश्ना-ए-जज़्बा-ए-उल्फ़त नहीं रहा दिल में तिरे वो ज़ौक़-ए-मोहब्बत नहीं रहा फिर नग़्मा-हा-ए-क़ुम तो फ़ज़ा में हैं गूँजते तू ही हरीफ़-ए-ज़ौक़-ए-समाअत नहीं रहा आईं कहाँ से आँख में आतिश-चिकानियाँ दिल आश्ना-ए-सोज़-ए-मोहब्बत नहीं रहा गुल-हा-ए-हुस्न-ए-यार में दामन-कश-ए-नज़र मैं अब हरीस-ए-गुलशन-ए-जन्नत नहीं रहा शायद जुनूँ है माइल-ए-फ़र्ज़ानगी मिरा मैं वो नहीं वो आलम-ए-वहशत नहीं रहा मम्नून हूँ मैं तेरा बहुत मर्ग-ए-ना-गहाँ मैं अब असीर-ए-गर्दिश-ए-क़िस्मत नहीं रहा जल्वागह-ए-ख़याल में वो आ गए हैं आज लो मैं रहीन-ए-ज़हमत-ए-ख़ल्वत नहीं रहा क्या फ़ाएदा है दावा-ए-इश्क़-ए-हुसैन से सर में अगर वो शौक़-ए-शहादत नहीं रहा " jo-be-sabaat-ho-us-sarkhushii-ko-kyaa-kiije-noon-meem-rashid-ghazals," जो बे-सबात हो उस सरख़ुशी को क्या कीजे ये ज़िंदगी है तो फिर ज़िंदगी को क्या कीजे रुका जो काम तो दीवानगी ही काम आई न काम आए तो फ़र्ज़ानगी को क्या कीजे ये क्यूँ कहें कि हमें कोई रहनुमा न मिला मगर सरिश्त की आवारगी को क्या कीजे किसी को देख के इक मौज लब पे आ तो गई उठे न दिल से तो ऐसी हँसी को क्या कीजे हमें तो आप ने सोज़-ए-अलम ही बख़्शा था जो नूर बन गई उस तीरगी को क्या कीजे हमारे हिस्से का इक जुरआ भी नहीं बाक़ी निगाह-ए-दोस्त की मय-ख़ानगी को क्या कीजे जहाँ ग़रीब को नान-ए-जवीं नहीं मिलती वहाँ हकीम के दर्स-ए-ख़ुदी को क्या कीजे विसाल-ए-दोस्त से भी कम न हो सकी 'राशिद' अज़ल से पाई हुई तिश्नगी को क्या कीजे " tire-karam-se-khudaaii-men-yuun-to-kyaa-na-milaa-noon-meem-rashid-ghazals," तिरे करम से ख़ुदाई में यूँ तो क्या न मिला मगर जो तू न मिला ज़ीस्त का मज़ा न मिला हयात-ए-शौक़ की ये गर्मियाँ कहाँ होतीं ख़ुदा का शुक्र हमें नाला-ए-रसा न मिला अज़ल से फ़ितरत-ए-आज़ाद ही थी आवारा ये क्यूँ कहें कि हमें कोई रहनुमा न मिला ये काएनात किसी का ग़ुबार-ए-राह सही दलील-ए-राह जो बनता वो नक़्श-ए-पा न मिला ये दिल शहीद-ए-फ़रेब-निगाह हो न सका वो लाख हम से ब-अंदाज़-ए-महरमाना मिला कनार-ए-मौज में मरना तो हम को आता है निशान-ए-साहिल-ए-उल्फ़त मिला मिला न मिला तिरी तलाश ही थी माया-ए-बक़ा-ए-वजूद बला से हम को सर-ए-मंज़िल-ए-बक़ा न मिला " hasrat-e-intizaar-e-yaar-na-puuchh-noon-meem-rashid-ghazals," हसरत-ए-इंतिज़ार-ए-यार न पूछ हाए वो शिद्दत-ए-इंतिज़ार न पूछ रंग-ए-गुलशन दम-ए-बहार न पूछ वहशत-ए-क़ल्ब-ए-बे-क़रार न पूछ सदमा-ए-अंदलीब-ए-ज़ार न पूछ तल्ख़ अंजामी-ए-बहार न पूछ ग़ैर पर लुत्फ़ मैं रहीन-ए-सितम मुझ से आईना-ए-बज़्म-ए-यार न पूछ दे दिया दर्द मुझ को दिल के एवज़ हाए लुत्फ़-ए-सितम-शिआर न पूछ फिर हुई याद-ए-मय-कशी ताज़ा मस्ती-ए-अब्र-ए-नौ-बहार न पूछ मुझ को धोका है तार-ए-बिस्तर का ना-तवानी-ए-जिस्म-ए-यार न पूछ मैं हूँ ना-आश्ना-ए-वस्ल हुनूज़ मुझ से कैफ़-ए-विसाल-ए-यार न पूछ " ze-haal-e-miskiin-makun-tagaaful-duraae-nainaan-banaae-batiyaan-ameer-khusrau-ghazals," ज़े-हाल-ए-मिस्कीं मकुन तग़ाफ़ुल दुराय नैनाँ बनाए बतियाँ कि ताब-ए-हिज्राँ नदारम ऐ जाँ न लेहू काहे लगाए छतियाँ शबान-ए-हिज्राँ दराज़ चूँ ज़ुल्फ़ ओ रोज़-ए-वसलत चूँ उम्र-ए-कोताह सखी पिया को जो मैं न देखूँ तो कैसे काटूँ अँधेरी रतियाँ यकायक अज़ दिल दो चश्म जादू ब-सद-फ़रेबम ब-बुर्द तस्कीं किसे पड़ी है जो जा सुनावे पियारे पी को हमारी बतियाँ चूँ शम-ए-सोज़ाँ चूँ ज़र्रा हैराँ ज़ मेहर-ए-आँ-मह बगश्तम आख़िर न नींद नैनाँ न अंग चैनाँ न आप आवे न भेजे पतियाँ ब-हक़्क़-ए-आँ मह कि रोज़-ए-महशर ब-दाद मारा फ़रेब 'ख़ुसरव' सपीत मन के दुराय राखूँ जो जाए पाऊँ पिया की खतियाँ " vo-sanam-jab-suun-basaa-diida-e-hairaan-men-aa-wali-mohammad-wali-ghazals," वो सनम जब सूँ बसा दीदा-ए-हैरान में आ आतिश-ए-इश्क़ पड़ी अक़्ल के सामान में आ नाज़ देता नहीं गर रुख़्सत-ए-गुल-गश्त-ए-चमन ऐ चमन-ज़ार-ए-हया दिल के गुलिस्तान में आ ऐश है ऐश कि उस मह का ख़याल-ए-रौशन शम्अ' रौशन किया मुझ दिल के शबिस्ताँ में आ याद आता है मुझे वो दो गुल-ए-बाग़-ए-वफ़ा अश्क करते हैं मकाँ गोशा-ए-दामान में आ मौज-ए-बे-ताबी-ए-दिल अश्क में हुई जल्वा-नुमा जब बसी ज़ुल्फ़-ए-सनम तब-ए-परेशान में आ नाला-ओ-आह की तफ़्सील न पूछो मुझ सूँ दफ़्तर-ए-दर्द बसा इश्क़ के दीवान में आ पंजा-ए-इश्क़ ने बेताब किया जब सूँ मुझे चाक-ए-दिल तब सूँ बसा चाक-ए-गरेबान में आ देख ऐ अहल-ए-नज़र सब्ज़ा-ए-ख़त में लब-ए-लाल रंग-ए-याक़ूत छुपा है ख़त-ए-रैहान में आ हुस्न था पर्दा-ए-तजरीद में सब सूँ आज़ाद तालिब-ए-इश्क़ हुआ सूरत-ए-इंसान में आ शैख़ यहाँ बात तिरी पेश न जावे हरगिज़ अक़्ल कूँ छोड़ के मत मज्लिस-ए-रिंदान में आ दर्द-मंदाँ को ब-जुज़ दर्द नहीं सैद मुराद ऐ शह-ए-मुल्क-ए-जुनूँ ग़म के बयाबान में आ हाकिम-ए-वक़्त है तुझ घर में रक़ीब-ए-बद-ख़ू देव मुख़्तार हुआ मुल्क-ए-सुलैमान में आ चश्मा-ए-आब-ए-बक़ा जग में किया है हासिल यूसुफ़-ए-हुस्न तिरे चाह-ए-ज़नख़दान में आ जग के ख़ूबाँ का नमक हो के नमक-पर्वर्दा छुप रहा आ के तिरे लब के नमक-दान में आ बस कि मुझ हाल सूँ हम-सर है परेशानी में दर्द कहती है मिरा ज़ुल्फ़ तिरे कान में आ ग़म सूँ तेरे है तरह्हुम का महल हाल-ए-'वली' ज़ुल्म को छोड़ सजन शेवा-ए-एहसान में आ " huaa-zaahir-khat-e-ruu-e-nigaar-aahista-aahista-wali-mohammad-wali-ghazals," हुआ ज़ाहिर ख़त-ए-रू-ए-निगार आहिस्ता-आहिस्ता कि ज्यूँ गुलशन में आती है बहार आहिस्ता-आहिस्ता किया हूँ रफ़्ता रफ़्ता राम उस की चश्म-ए-वहशी कूँ कि ज्यूँ आहू कूँ करते हैं शिकार आहिस्ता-आहिस्ता जो अपने तन कूँ मिस्ल-ए-जूएबार अव्वल किया पानी हुआ उस सर्व-क़द सूँ हम-कनार आहिस्ता-आहिस्ता बरंग-ए-क़तरा-ए-सीमाब मेरे दिल की जुम्बिश सूँ हुआ है दिल सनम का बे-क़रार आहिस्ता-आहिस्ता उसे कहना बजा है इश्क़ के गुलज़ार का बुलबुल जो गुल-रूयाँ में पाया ए'तिबार आहिस्ता-आहिस्ता मिरा दिल अश्क हो पहुँचा है कूचे में सिरीजन के गया काबे में ये कश्ती-सवार आहिस्ता-आहिस्ता 'वली' मत हासिदाँ की बात सूँ दिल कूँ मुकद्दर कर कि आख़िर दिल सूँ जावेगा ग़ुबार आहिस्ता-आहिस्ता " sohbat-e-gair-muun-jaayaa-na-karo-wali-mohammad-wali-ghazals," सोहबत-ए-ग़ैर मूं जाया न करो दर्द-मंदाँ कूँ कुढ़ाया न करो हक़-परस्ती का अगर दावा है बे-गुनाहाँ कूँ सताया न करो अपनी ख़ूबी के अगर तालिब हो अपने तालिब कूँ जलाया न करो है अगर ख़ातिर-ए-उश्शाक़ अज़ीज़ ग़ैर कूँ दर्स दिखाया न करो मुझ को तुरशी का है परहेज़ सनम चीन-ए-अबरू कूँ दिखाया न करो दिल कूँ होती है सजन बेताबी ज़ुल्फ़ कूँ हाथ लगाया न करो निगह-ए-तल्ख़ सूँ अपनी ज़ालिम ज़हर का जाम पिलाया न करो हम कूँ बर्दाश्त नहीं ग़ुस्से की बे-सबब ग़ुस्से में आया न करो पाक-बाज़ाँ में है मशहूर 'वली' उस सूँ चेहरे कूँ छुपाया न करो " dekhnaa-har-subh-tujh-rukhsaar-kaa-wali-mohammad-wali-ghazals," देखना हर सुब्ह तुझ रुख़्सार का है मुताला मतला-ए-अनवार का बुलबुल ओ परवाना करना दिल के तईं काम है तुझ चेहरा-ए-गुल-नार का सुब्ह तेरा दर्स पाया था सनम शौक़-ए-दिल मोहताज है तकरार का माह के सीने उपर ऐ शम्अ-रू दाग़ है तुझ हुस्न की झलकार का दिल कूँ देता है हमारे पेच-ओ-ताब पेच तेरे तुर्रा-ए-तर्रार का जो सुन्या तेरे दहन सूँ यक बचन भेद पाया नुस्ख़ा-ए-असरार का चाहता है इस जहाँ में गर बहिश्त जा तमाशा देख उस रुख़्सार का आरसी के हाथ सूँ डरता है ख़त चोर कूँ है ख़ौफ़ चौकीदार का सर-कशी आतिश-मिज़ाजी है सबब नासेहों को गर्मी-ए-बाज़ार का ऐ 'वली' क्यूँ सुन सके नासेह की बात जो दिवाना है परी-रुख़्सार का " ishq-men-sabr-o-razaa-darkaar-hai-wali-mohammad-wali-ghazals," इश्क़ में सब्र-ओ-रज़ा दरकार है फ़िक्र-ए-असबाब-ए-वफ़ा दरकार है चाक करने जामा-ए-सब्र-ओ-क़रार दिलबर-ए-रंगीं क़बा दरकार है हर सनम तस्ख़ीर-ए-दिल क्यूँकर सके दिलरुबाई कूँ अदा दरकार है ज़ुल्फ़ कूँ वा कर कि शाह-ए-इश्क़ कूँ साया-ए-बाल-ए-हुमा दरकार है रख क़दम मुझ दीदा-ए-ख़ूँ-बार पर गर तुझे रंग-ए-हिना दरकार है देख उस की चश्म-ए-शहला कूँ अगर नर्गिस-ए-बाग़-ए-हया दरकार है अज़्म उस के वस्ल का है ऐ 'वली' लेकिन इमदाद-ए-ख़ुदा दरकार है " ruuh-bakhshii-hai-kaam-tujh-lab-kaa-wali-mohammad-wali-ghazals," रूह बख़्शी है काम तुझ लब का दम-ए-ईसा है नाम तुझ लब का हुस्न के ख़िज़्र ने किया लबरेज़ आब-ए-हैवाँ सूँ जाम तुझ लब का मंतिक़-ओ-हिक्मत-ओ-मआ'नी पर मुश्तमिल है कलाम तुझ लब का जन्नत-ए-हुस्न में किया हक़ ने हौज़-ए-कौसर मक़ाम तुझ लब का रग-ए-याक़ूत के क़लम सूँ लिखें ख़त परिस्ताँ पयाम तुझ लब का सब्ज़ा-ओ-बर्ग-ओ-लाला रखते हैं शौक़ दिल में दवाम तुझ लब का ग़र्क़-ए-शक्कर हुए हैं काम-ओ-ज़बाँ जब लिया हूँ मैं नाम तुझ लब का मिस्ल-ए-याक़ूत ख़त में है शागिर्द साग़र-ए-मय मुदाम तुझ लब का है 'वली' की ज़बाँ को लज़्ज़त-बख़्श ज़िक्र हर सुब्ह-ओ-शाम तुझ लब का " kuucha-e-yaar-ain-kaasii-hai-wali-mohammad-wali-ghazals," कूचा-ए-यार ऐन कासी है जोगी-ए-दिल वहाँ का बासी है पी के बैराग की उदासी सूँ दिल पे मेरे सदा उदासी है ऐ सनम तुझ जबीं उपर ये ख़ाल हिंदवी हर-द्वार बासी है ज़ुल्फ़ तेरी है मौज जमुना की तिल नज़िक उस के जियूँ सनासी है घर तिरा है ये रश्क-ए-देवल-ए-चीं उस में मुद्दत सूँ दिल उपासी है ये सियह-ज़ुल्फ़ तुझ ज़नख़दाँ पर नागनी ज्यूँ कुँवे पे प्यासी है तास-ए-ख़ुर्शीद ग़र्क़ है जब सूँ बर में तेरे लिबास-ए-तासी है जिस की गुफ़्तार में नहीं है मज़ा सुख़न उस का तआ'म बासी है ऐ 'वली' जो लिबास तन पे रखा आशिक़ाँ के नज़िक लिबासी है " mat-gusse-ke-shoale-suun-jalte-kuun-jalaatii-jaa-wali-mohammad-wali-ghazals," मत ग़ुस्से के शो'ले सूँ जलते कूँ जलाती जा टुक मेहर के पानी सूँ तू आग बुझाती जा तुझ चाल की क़ीमत सूँ दिल नीं है मिरा वाक़िफ़ ऐ मान भरी चंचल टुक भाव बताती जा इस रात अँधारी में मत भूल पड़ूँ तुझ सूँ टुक पाँव के झाँझर की झंकार सुनाती जा मुझ दिल के कबूतर कूँ बाँधा है तिरी लट ने ये काम धरम का है टुक उस को छुड़ाती जा तुझ मुख की परस्तिश में गई उम्र मिरी सारी ऐ बुत की पुजनहारी टुक उस को पुजाती जा तुझ इश्क़ में जल जल कर सब तन कूँ किया काजल ये रौशनी अफ़ज़ा है अँखिया को लगाती जा तुझ नेह में दिल जल जल जोगी की लिया सूरत यक बार उसे मोहन छाती सूँ लगाती जा तुझ घर की तरफ़ सुंदर आता है 'वली' दाएम मुश्ताक़ दरस का है टुक दर्स दिखाती जा " aashiq-ke-mukh-pe-nain-ke-paanii-ko-dekh-tuun-wali-mohammad-wali-ghazals," आशिक़ के मुख पे नैन के पानी को देख तूँ इस आरसी में राज़-ए-निहानी कूँ देख तूँ सुन बे-क़रार दिल की अवल आह-ए-शोला-ख़ेज़ तब इस हरफ़ में दिल के मआनी कूँ देख तूँ ख़ूबी सूँ तुझ हुज़ूर ओ शमा दम-ज़नी में है उस बे-हया की चर्ब-ज़बानी कूँ देख तूँ दरिया पे जा के मौज-ए-रवाँ पर नज़र न कर अंझुवाँ की मेरे आ के रवानी कूँ देख तूँ तुझ शौक़ का जो दाग़ 'वली' के जिगर में है बे-ताक़ती में उस की निशानी कूँ देख तूँ " bhadke-hai-dil-kii-aatish-tujh-neh-kii-havaa-suun-wali-mohammad-wali-ghazals," भड़के है दिल की आतिश तुझ नेह की हवा सूँ शोला नमत जला दिल तुझ हुस्न-ए-शोला-ज़ा सूँ गुल के चराग़ गुल हो यक बार झड़ पड़ें सब मुझ आह की हिकायत बोलें अगर सबा सूँ निकली है जस्त कर कर हर संग-दिल सूँ आतिश चक़माक़ जब पलक की झाड़ा है तूँ अदा सूँ सज्दा बदल रखे सर सर-ता-क़दम अरक़ हो तुझ बा-हया के पग पर आ कर हिना हया सूँ याँ दर्द है परम का बेहूदा सर कहे मत ये बात सुन 'वली' की जा कर कहो दवा सूँ " yaad-karnaa-har-ghadii-us-yaar-kaa-wali-mohammad-wali-ghazals," याद करना हर घड़ी उस यार का है वज़ीफ़ा मुझ दिल-ए-बीमार का आरज़ू-ए-चश्मा-ए-कौसर नईं तिश्ना-लब हूँ शर्बत-ए-दीदार का आक़िबत क्या होवेगा मालूम नईं दिल हुआ है मुब्तिला दिलदार का क्या कहे तारीफ़ दिल है बे-नज़ीर हर्फ़ हर्फ़ उस मख़्ज़न-ए-असरार का गर हुआ है तालिब-ए-आज़ादगी बंद मत हो सुब्हा ओ ज़ुन्नार का मसनद-ए-गुल मंज़िल-ए-शबनम हुई देख रुत्बा दीदा-ए-बेदार का ऐ 'वली' होना सिरीजन पर निसार मुद्दआ है चश्म-ए-गौहर-बार का " main-tujhe-aayaa-huun-iimaan-buujh-kar-wali-mohammad-wali-ghazals," मैं तुझे आया हूँ ईमाँ बूझ कर बाइ'स-ए-जमइय्यत-ए-जाँ बूझ कर बुलबुल-ए-शीराज़ कूँ करता हूँ याद हुस्न कूँ तेरे गुलिस्ताँ बूझ कर दिल चला है इश्क़ का हो जौहरी लब तिरे ला'ल-ए-बदख़्शाँ बूझ कर हर न करती है नज़ारे की मशक़ ख़त कूँ तेरे ख़त्त-ए-रैहाँ बूझ कर ऐ सजन आया हूँ हो बे-इख़्तियार तुझ कूँ अपना राहत-ए-जाँ बूझ कर ज़ुल्फ़ तेरी क्यूँ न खाए पेच-ओ-ताब हाल मुझ दिल का परेशाँ बूझ कर रहम कर उस पर कि आया है 'वली' दर्द-ए-दिल का तुझ कूँ दरमाँ बूझ कर " jab-tujh-araq-ke-vasf-men-jaarii-qalam-huaa-wali-mohammad-wali-ghazals," जब तुझ अरक़ के वस्फ़ में जारी क़लम हुआ आलम में उस का नाँव जवाहर-रक़म हुआ नुक़्ते पे तेरे ख़ाल के बाँधा है जिन ने दिल वो दाएरे में इश्क़ के साबित-क़दम हुआ तुझ फ़ितरत-ए-बुलंद की ख़ूबी कूँ लिख क़लम मशहूर जग के बीच अतारद-रक़म हुआ ताक़त नहीं कि हश्र में होवे वो दाद-ख़्वाह जिस बे-गुनह पे तेरी निगह सूँ सितम हुआ बे-मिन्नत-ए-शराब हूँ सरशार-ए-इम्बिसात तुझ नैन का ख़याल मुझे जाम-ए-जम हुआ जिन ने बयाँ लिखा है मिरे रंग-ए-ज़र्द का उस कूँ ख़िताब ग़ैब सूँ ज़र्रीं-रक़म हुआ शोहरत हुई है जब से तिरे शेर की 'वली' मुश्ताक़ तुझ सुख़न का अरब ता अजम हुआ " jab-sanam-kuun-khayaal-e-baag-huaa-wali-mohammad-wali-ghazals," जब सनम कूँ ख़याल-ए-बाग़ हुआ तालिब-ए-नश्शा-ए-फ़राग़ हुआ फ़ौज-ए-उश्शाक़ देख हर जानिब नाज़नीं साहिब-ए-दिमाग़ हुआ रश्क सूँ तुझ लबाँ की सुर्ख़ी पर जिगर-ए-लाला दाग़-दाग़ हुआ दिल-ए-उश्शाक़ क्यूँ न हो रौशन जब ख़याल-ए-सनम चराग़ हुआ ऐ 'वली' गुल-बदन कूँ बाग़ में देख दिल-ए-सद-चाक बाग़-बाग़ हुआ " aaj-distaa-hai-haal-kuchh-kaa-kuchh-wali-mohammad-wali-ghazals," आज दिस्ता है हाल कुछ का कुछ क्यूँ न गुज़रे ख़याल कुछ का कुछ दिल-ए-बे-दिल कूँ आज करती है शोख़ चंचल की चाल कुछ का कुछ मुजको लगता है ऐ परी-पैकर आज तेरा जमाल कुछ का कुछ असर-ए-बादा-ए-जवानी है कर गया हूँ सवाल कुछ का कुछ ऐ 'वली' दिल कूँ आज करती है बू-ए-बाग़-ए-विसाल कुछ का कुछ " mushtaaq-hain-ushshaaq-tirii-baankii-adaa-ke-wali-mohammad-wali-ghazals," मुश्ताक़ हैं उश्शाक़ तिरी बाँकी अदा के ज़ख़्मी हैं मोहिब्बाँ तिरी शमशीर-ए-जफ़ा के हर पेच में चीरे के तिरे लिपटे हैं आशिक़ आलम के दिलाँ बंद हैं तुझ बंद-ए-क़बा के लर्ज़ां है तिरे दस्त अगे पंजा-ए-ख़ुर्शीद तुझ हुस्न अगे मात मलाएक हैं समा के तुझ ज़ुल्फ़ के हल्क़े में है दिल बे-सर ओ बे-पा टुक मेहर करो हाल उपर बे-सर-ओ-पा के तन्हा न 'वली' जग मुनीं लिखता है तिरे वस्फ़ दफ़्तर लिखे आलम ने तिरी मद्ह-ओ-सना के " agar-gulshan-taraf-vo-nau-khat-e-rangiin-adaa-nikle-wali-mohammad-wali-ghazals," अगर गुलशन तरफ़ वो नौ-ख़त-ए-रंगीं-अदा निकले गुल ओ रैहाँ सूँ रंग-ओ-बू शिताबी पेशवा निकले खिले हर ग़ुंचा-ए-दिल ज्यूँ गुल-ए-शादाब शादी सूँ अगर टुक घर सूँ बाहर वो बहार-दिल-कुशा निकले ग़नीम-ए-ग़म किया है फ़ौज-बंदी इश्क़-बाज़ां पर बजा है आज वो राजा अगर नौबत बजा निकले निसार उस के क़दम ऊपर करूँ अंझुवाँ के गौहर सब अगर करने कूँ दिल-जूई वो सर्व-ए-ख़ुश-अदा निकले सनम आए करूँगा नाला-ए-जाँ-सोज़ कूँ ज़ाहिर मगर उस संग-दिल सूँ मेहरबानी की सदा निकले रहे मानिंद-ए-लाल-ए-बे-बहा शाहाँ के ताज ऊपर मोहब्बत में जो कुइ अस्बाब ज़ाहिर कूँ बहा निकले बख़ीली दर्स की हरगिज़ न कीजो ऐ परी-पैकर 'वली' तेरी गली में जब कि मानिंद-ए-गदा निकले " fidaa-e-dilbar-e-rangiin-adaa-huun-wali-mohammad-wali-ghazals," फ़िदा-ए-दिलबर-ए-रंगीं-अदा हूँ शहीद-ए-शाहिद-ए-गुल-गूँ-क़बा हूँ हर इक मह-रू के मिलने का नहीं ज़ौक़ सुख़न के आश्ना का आश्ना हूँ किया हूँ तर्क नर्गिस का तमाशा तलबगार-ए-निगाह-ए-बा-हया हूँ न कर शमशाद की तारीफ़ मुझ पास कि मैं उस सर्व-क़द का मुब्तला हूँ किया मैं अर्ज़ उस ख़ुर्शीद-रू सूँ तू शाह-ए-हुस्न मैं तेरा गदा हूँ सदा रखता हूँ शौक़ उस के सुख़न का हमेशा तिश्ना-ए-आब-ए-बक़ा हूँ क़दम पर उस के रखता हूँ सदा सर 'वली' हम-मशरब-ए-रंग-ए-हिना हूँ " tiraa-majnuun-huun-sahraa-kii-qasam-hai-wali-mohammad-wali-ghazals," तिरा मजनूँ हूँ सहरा की क़सम है तलब में हूँ तमन्ना की क़सम है सरापा नाज़ है तू ऐ परी-रू मुझे तेरे सरापा की क़सम है दिया हक़ हुस्न-ए-बाला-दस्त तुजकूं मुझे तुझ सर्व-ए-बाला की क़सम है किया तुझ ज़ुल्फ़ ने जग कूँ दिवाना तिरी ज़ुल्फ़ाँ के सौदा की क़सम है दो-रंगी तर्क कर हर इक से मत मिल तुझे तुझ क़द्द-ए-राना की क़सम है किया तुझ इश्क़ ने आलम कूँ मजनूँ मुझे तुझ रश्क-ए-लैला की क़सम है 'वली' मुश्ताक़ है तेरी निगह का मुझे तुझ चश्म-ए-शहला की क़सम है " dil-talabgaar-e-naaz-e-mah-vash-hai-wali-mohammad-wali-ghazals," दिल तलबगार-ए-नाज़-ए-मह-वश है लुत्फ़ उस का अगरचे दिलकश है मुझ सूँ क्यूँ कर मिलेगा हैराँ हूँ शोख़ है बेवफ़ा है सरकश है क्या तिरी ज़ुल्फ़ क्या तिरे अबरू हर तरफ़ सूँ मुझे कशाकश है तुझ बिन ऐ दाग़-बख़्श-ए-सीना ओ दिल चमन-ए-लाला दश्त-ए-आतश है ऐ 'वली' तजरबे सूँ पाया हूँ शोला-ए-आह-ए-शौक़ बे-ग़श है " sajan-tuk-naaz-suun-mujh-paas-aa-aahista-aahista-wali-mohammad-wali-ghazals," सजन टुक नाज़ सूँ मुझ पास आ आहिस्ता आहिस्ता छुपी बातें अपस दिल की सुना आहिस्ता आहिस्ता ग़रज़ गोयाँ की बाताँ कूँ न ला ख़ातिर मनीं हरगिज़ सजन इस बात कूँ ख़ातिर में ला आहिस्ता आहिस्ता हर इक की बात सुनने पर तवज्जोह मत कर ऐ ज़ालिम रक़ीबाँ उस सीं होवेंगे जुदा आहिस्ता आहिस्ता मबादा मोहतसिब बदमस्त सुन कर तान में आवे तम्बूरा आह का ऐ दिल बजा आहिस्ता आहिस्ता 'वली' हरगिज़ अपस के दिल कूँ सीने में न रख ग़म-गीं कि बर लावेगा मतलब कूँ ख़ुदा आहिस्ता आहिस्ता " jis-dilrubaa-suun-dil-kuun-mire-ittihaad-hai-wali-mohammad-wali-ghazals," जिस दिलरुबा सूँ दिल कूँ मिरे इत्तिहाद है दीदार उस का मेरी अँखाँ की मुराद है रखता है बर में दिलबर-ए-रंगीं ख़याल कूँ मानिंद आरसी के जो साफ़ ए'तिक़ाद है शायद कि दाम-ए-इश्क़ में ताज़ा हुआ है बंद वादे पे गुल-रुख़ाँ के जिसे ए'तिमाद है बाक़ी रहेगा जौर-ओ-सितम रोज़-ए-हश्र लग तुझ ज़ुल्फ़ की जफ़ा में निपट इम्तिदाद है मक़्सूद-ए-दिल है उस का ख़याल ऐ 'वली' मुझे ज्यूँ मुझ ज़बाँ पे नाम-ए-मोहम्मद मुराद है " khuub-ruu-khuub-kaam-karte-hain-wali-mohammad-wali-ghazals," ख़ूब-रू ख़ूब काम करते हैं यक निगह में ग़ुलाम करते हैं देख ख़ूबाँ कूँ वक़्त मिलने के किस अदा सूँ सलाम करते हैं क्या वफ़ादार हैं कि मिलने में दिल सूँ सब राम-राम करते हैं कम-निगाही सों देखते हैं वले काम अपना तमाम करते हैं खोलते हैं जब अपनी ज़ुल्फ़ाँ कूँ सुब्ह-ए-आशिक़ कूँ शाम करते हैं साहिब-ए-लफ़्ज़ उस कूँ कह सकिए जिस सूँ ख़ूबाँ कलाम करते हैं दिल लजाते हैं ऐ 'वली' मेरा सर्व-क़द जब ख़िराम करते हैं " jise-ishq-kaa-tiir-kaarii-lage-wali-mohammad-wali-ghazals," जिसे इश्क़ का तीर कारी लगे उसे ज़िंदगी क्यूँ न भारी लगे न छोड़े मोहब्बत दम-ए-मर्ग तक जिसे यार-ए-जानी सूँ यारी लगे न होवे उसे जग में हरगिज़ क़रार जिसे इश्क़ की बे-क़रारी लगे हर इक वक़्त मुझ आशिक़-ए-पाक कूँ प्यारे तिरी बात प्यारी लगे 'वली' कूँ कहे तू अगर यक बचन रक़ीबाँ के दिल में कटारी लगे " muflisii-sab-bahaar-khotii-hai-wali-mohammad-wali-ghazals," मुफ़्लिसी सब बहार खोती है मर्द का ए'तिबार खोती है क्यूँके हासिल हो मुज को जमइय्यत ज़ुल्फ़ तेरी क़रार खोती है हर सहर शोख़ की निगह की शराब मुझ अँखाँ का ख़ुमार खोती है क्यूँके मिलना सनम का तर्क करूँ दिलबरी इख़्तियार खोती है ऐ 'वली' आब उस परी-रू की मुझ सिने का ग़ुबार खोती है " dil-kuun-tujh-baaj-be-qaraarii-hai-wali-mohammad-wali-ghazals," दिल कूँ तुझ बाज बे-क़रारी है चश्म का काम अश्क-बारी है शब-ए-फ़ुर्क़त में मोनिस ओ हमदम बे-क़रारों कूँ आह-ओ-ज़ारी है ऐ अज़ीज़ाँ मुझे नहीं बर्दाश्त संग-दिल का फ़िराक़ भारी है फ़ैज़ सूँ तुझ फ़िराक़ के साजन चश्म-ए-गिर्यां का काम जारी है फ़ौक़ियत ले गया हूँ बुलबुल सूँ गरचे मंसब में दो-हज़ारी है इश्क़-बाज़ों के हक़ में क़ातिल की हर निगह ख़ंजर ओ कटारी है आतिश-ए-हिज्र-ए-लाला-रू सूँ 'वली' दाग़ सीने में यादगारी है " tujh-lab-kii-sifat-laal-e-badakhshaan-suun-kahuungaa-wali-mohammad-wali-ghazals," तुझ लब की सिफ़त लाल-ए-बदख़्शाँ सूँ कहूँगा जादू हैं तिरे नैन ग़ज़ालाँ सूँ कहूँगा दी बादशही हक़ ने तुझे हुस्न-नगर की यू किश्वर-ए-ईराँ में सुलैमाँ सूँ कहूँगा तारीफ़ तिरे क़द की अलिफ़-वार सिरीजन जा सर्व-ए-गुलिस्ताँ कूँ ख़ुश-अल्हाँ सूँ कहूँगा मुझ पर न करो ज़ुल्म तुम ऐ लैली-ए-ख़ूबाँ मजनूँ हूँ तिरे ग़म कूँ बयाबाँ सूँ कहूँगा देखा हूँ तुझे ख़्वाब में ऐ माया-ए-ख़ूबी इस ख़्वाब को जा यूसुफ़-ए-कनआँ सूँ कहूँगा जलता हूँ शब-ओ-रोज़ तिरे ग़म में ऐ साजन ये सोज़ तिरा मशअल-ए-सोज़ाँ सूँ कहूँगा यक नुक़्ता तिरे सफ़्हा-ए-रुख़ पर नईं बेजा इस मुख को तिरे सफ़्हा-ए-क़ुरआँ सूँ कहूँगा क़ुर्बान परी मुख पे हुई चोब सी जल कर ये बात अजाइब मह-ए-ताबाँ सूँ कहूँगा बे-सब्र न हो ऐ 'वली' इस दर्द सूँ हरगिज़ जलता हूँ तिरे दर्द में दरमाँ सूँ कहूँगा " shagl-behtar-hai-ishq-baazii-kaa-wali-mohammad-wali-ghazals," शग़्ल बेहतर है इश्क़-बाज़ी का क्या हक़ीक़ी ओ क्या मजाज़ी का हर ज़बाँ पर है मिस्ल-ए-शाना मुदाम ज़िक्र तुझ ज़ुल्फ़ की दराज़ी का आज तेरी भवाँ ने मस्जिद में होश खोया है हर नमाज़ी का गर नईं राज़-ए-इश्क़ सूँ आगाह फ़ख़्र बेजा है फ़ख़्र-ए-राज़ी का ऐ 'वली' सर्व-क़द को देखूँगा वक़्त आया है सरफ़राज़ी का " main-aashiqii-men-tab-suun-afsaana-ho-rahaa-huun-wali-mohammad-wali-ghazals," मैं आशिक़ी में तब सूँ अफ़्साना हो रहा हूँ तेरी निगह का जब सूँ दीवाना हो रहा हूँ ऐ आश्ना करम सूँ यक बार आ दरस दे तुझ बाज सब जहाँ सूँ बेगाना हो रहा हूँ बाताँ लगन की मत पूछ ऐ शम-ए-बज़्म-ए-ख़ूबी मुद्दत से तुझ झलक का परवाना हो रहा हूँ शायद वो गंज-ए-ख़ूबी आवे किसी तरफ़ सूँ इस वास्ते सरापा वीराना हो रहा हूँ सौदा-ए-ज़ुल्फ़-ए-ख़ूबाँ रखता हूँ दिल में दाइम ज़ंजीर-ए-आशिक़ी का दीवाना हो रहा हूँ बरजा है गर सुनूँ नईं नासेह तिरी नसीहत मैं जाम-ए-इश्क़ पी कर मस्ताना हो रहा हूँ किस सूँ 'वली' अपस का अहवाल जा कहूँ मैं सर-ता-क़दम मैं ग़म सूँ ग़म-ख़ाना हो रहा हूँ " aaj-sarsabz-koh-o-sahraa-hai-wali-mohammad-wali-ghazals," आज सरसब्ज़ कोह ओ सहरा है हर तरफ़ सैर है तमाशा है चेहरा-ए-यार ओ क़ामत-ए-ज़ेबा गुल-ए-रंगीन ओ सर्व-ए-रअना है मअ'नी-ए-हुस्न ओ मअ'नी-ए-ख़ूबी सूरत-ए-यार सूँ हुवैदा है दम-ए-जाँ-बख़्श नौ-ख़ताँ मुज कूँ चश्मा-ए-ख़िज़्र है मसीहा है कमर-ए-नाज़ुक ओ दहान-ए-सनम फ़िक्र बारीक है मुअम्मा है मू-ब-मू उस कूँ है परेशानी ज़ुल्फ़-ए-मुश्कीं का जिस कूँ सौदा है क्या हक़ीक़त है तुझ तवाज़ो की यू तलत्तुफ़ है या मुदावा है सबब-ए-दिलरुबाई-ए-आशिक़ मेहर है लुत्फ़ है दिलासा है जूँ 'वली' रात दिन है मह्व-ए-ख़याल जिस कूँ तुझ वस्ल की तमन्ना है " takht-jis-be-khaanamaan-kaa-dast-e-viiraanii-huaa-wali-mohammad-wali-ghazals," तख़्त जिस बे-ख़ानमाँ का दस्त-ए-वीरानी हुआ सर उपर उस के बगूला ताज-ए-सुल्तानी हुआ क्यूँ न साफ़ी उस कूँ हासिल हो जो मिस्ल-ए-आरसी अपने जौहर की हया सूँ सर-ब-सर पानी हुआ ज़िंदगी है जिस कूँ दाइम आलम-ए-बाक़ी मुनीं जल्वा-गर कब उस अंगे यू आलम-ए-फ़ानी हुआ बेकसी के हाल में यक आन मैं तन्हा नहीं ग़म तिरा सीने में मेरे हमदम-ए-जानी हुआ ऐ 'वली' ग़ैरत सूँ सूरज क्यूँ जले नईं रात-दिन जग मुनीं वो माह रश्क-ए-माह-ए-कनआनी हुआ " chhupaa-huun-main-sadaa-e-baansulii-men-wali-mohammad-wali-ghazals," छुपा हूँ मैं सदा-ए-बाँसुली में कि ता जाऊँ परी-रू की गली में न थी ताक़त मुझे आने की लेकिन ब-ज़ोर-ए-आह पहुँचा तुझ गली में अयाँ है रंग की शोख़ी सूँ ऐ शोख़ बदन तेरा क़बा-ए-संदली में जो है तेरे दहन में रंग ओ ख़ूबी कहाँ ये रंग ये ख़ूबी कली में किया जियूँ लफ़्ज़ में मअ'नी सिरीजन मक़ाम अपना दिल-ओ-जान-ए-'वली' में " kamar-us-dilrubaa-kii-dilrubaa-hai-wali-mohammad-wali-ghazals," कमर उस दिलरुबा की दिलरुबा है निगह उस ख़ुश-अदा की ख़ुश-अदा है सजन के हुस्न कूँ टुक फ़िक्र सूँ देख कि ये आईना-ए-मअ'नी-नुमा है ये ख़त है जौहर-ए-आईना-राज़ इसे मुश्क-ए-ख़ुतन कहना बजा है हुआ मालूम तुझ ज़ुल्फ़ाँ सूँ ऐ शोख़ कि शाह-ए-हुस्न पर ज़िल्ल-ए-हुमा है न होवे कोहकन क्यूँ आ के आशिक़ जो वो शीरीं-अदा गुलगूँ-क़बा है न पूछो आह-ओ-ज़ारी की हक़ीक़त अज़ीज़ाँ आशिक़ी का मुक़तज़ा है 'वली' कूँ मत मलामत कर ऐ वाइज़ मलामत आशिक़ों पर कब रवा है " ishq-betaab-e-jaan-gudaazii-hai-wali-mohammad-wali-ghazals," इश्क़ बेताब-ए-जाँ-गुदाज़ी है हुस्न मुश्ताक़-ए-दिल-नवाज़ी है अश्क ख़ूनीं सूँ जो किया है वज़ू मज़हब-ए-इश्क़ में नमाज़ी है जो हुआ राज़-ए-इश्क़ सूँ आगाह वो ज़माने का फ़ख़्र-ए-राज़ी है पाक-बाज़ाँ सूँ यूँ हुआ मफ़्हूम इश्क़ मज़मून-ए-पाक-बाज़ी है जा के पहुँची है हद्द-ए-ज़ुल्मत कूँ बस-कि तुझ ज़ुल्फ़ में दराज़ी है तजरबे सूँ हुआ मुझे ज़ाहिर नाज़ मफ़्हूम बे-नियाज़ी है ऐ 'वली' ऐश-ए-ज़ाहिरी का सबब जल्वा-ए-शाहिद-ए-मजाज़ी है " tiraa-lab-dekh-haivaan-yaad-aave-wali-mohammad-wali-ghazals," तिरा लब देख हैवाँ याद आवे तिरा मुख देख कनआँ याद आवे तिरे दो नैन जब देखूँ नज़र भर मुझे तब नर्गिसिस्ताँ याद आवे तिरी ज़ुल्फ़ाँ की तूलानी कूँ देखे मुझे लैल-ए-ज़मिस्ताँ याद आवे तिरे ख़त का ज़मुर्रद-रंग देखे बहार-ए-सुंबुलिस्ताँ याद आवे तिरे मुख के चमन के देखने सूँ मुझे फ़िरदौस-ए-रिज़वाँ याद आवे तिरी ज़ुल्फ़ाँ में यू मुख जो कि देखे उसे शम-ए-शबिस्ताँ याद आवे जो कुइ देखे मिरी अँखियाँ को रोते उसे अब्र-ए-बहाराँ याद आवे जो मेरे हाल की गर्दिश कूँ देखे उसे गिर्दाब-ए-गर्दां याद आवे 'वली' मेरा जुनूँ जो कुइ कि देखे उसे कोह ओ बयाबाँ याद आवे " hue-hain-raam-piitam-ke-nayan-aahista-aahista-wali-mohammad-wali-ghazals," हुए हैं राम पीतम के नयन आहिस्ता-आहिस्ता कि ज्यूँ फाँदे में आते हैं हिरन आहिस्ता-आहिस्ता मिरा दिल मिस्ल परवाने के था मुश्ताक़ जलने का लगी उस शम्अ सूँ आख़िर लगन आहिस्ता-आहिस्ता गिरेबाँ सब्र का मत चाक कर ऐ ख़ातिर-ए-मिस्कीं सुनेगा बात वो शीरीं-बचन आहिस्ता-आहिस्ता गुल ओ बुलबुल का गुलशन में ख़लल होवे तो बरजा है चमन में जब चले वो गुल-बदन आहिस्ता-आहिस्ता 'वली' सीने में मेरे पंजा-ए-इश्क़-ए-सितमगर ने किया है चाक दिल का पैरहन आहिस्ता-आहिस्ता " dil-huaa-hai-miraa-kharaab-e-sukhan-wali-mohammad-wali-ghazals," दिल हुआ है मिरा ख़राब-ए-सुख़न देख कर हुस्न-ए-बे-हिजाब-ए-सुख़न बज़्म-ए-मा'नी में सरख़ुशी है उसे जिस कूँ है नश्शा-ए-शराब-ए-सुख़न राह-ए-मज़मून-ए-ताज़ा बंद नहीं ता-क़यामत खुला है बाब-ए-सुख़न जल्वा-पैरा हो शाहिद-ए-मा'नी जब ज़बाँ सूँ उठे नक़ाब-ए-सुख़न गौहर उस की नज़र में जा न करे जिन ने देखा है आब-ओ-ताब-ए-सुख़न हर्जा़-गोयाँ की बात क्यूँकि सुने जो सुना नग़्मा-ए-रबाब-ए-सुख़न है तिरी बात ऐ नज़ाकत-ए-फ़हम लौह-ए-दीबाचा-ए-किताब-ए-सुख़न है सुख़न जग मनीं अदीम-उल-मिसाल जुज़ सुख़न नीं दुजा जवाब-ए-सुख़न ऐ 'वली' दर्द-ए-सर कभू न रहे जब मिले सन्दल-ओ-गुलाब-ए-सुख़न " kiyaa-mujh-ishq-ne-zaalim-kuun-aab-aahista-aahista-wali-mohammad-wali-ghazals," किया मुझ इश्क़ ने ज़ालिम कूँ आब आहिस्ता आहिस्ता कि आतिश गुल कूँ करती है गुलाब आहिस्ता आहिस्ता वफ़ादारी ने दिलबर की बुझाया आतिश-ए-ग़म कूँ कि गर्मी दफ़ा करता है गुलाब आहिस्ता आहिस्ता अजब कुछ लुत्फ़ रखता है शब-ए-ख़ल्वत में गुल-रू सूँ ख़िताब आहिस्ता आहिस्ता जवाब आहिस्ता आहिस्ता मिरे दिल कूँ किया बे-ख़ुद तिरी अँखियाँ ने आख़िर कूँ कि ज्यूँ बेहोश करती है शराब आहिस्ता आहिस्ता हुआ तुझ इश्क़ सूँ ऐ आतिशीं-रू दिल मिरा पानी कि ज्यूँ गलता है आतिश सूँ गुलाब आहिस्ता आहिस्ता अदा ओ नाज़ सूँ आता है वो रौशन-जबीं घर सूँ कि ज्यूँ मशरिक़ सूँ निकले आफ़्ताब आहिस्ता आहिस्ता 'वली' मुझ दिल में आता है ख़याल-ए-यार-ए-बे-परवा कि ज्यूँ अँखियाँ मनीं आता है ख़्वाब आहिस्ता आहिस्ता " sharaab-e-shauq-sen-sarshaar-hain-ham-wali-mohammad-wali-ghazals," शराब-ए-शौक़ सें सरशार हैं हम कभू बे-ख़ुद कभू हुशियार हैं हम दो-रंगी सूँ तिरी ऐ सर्व-ए-रा'ना कभू राज़ी कभू बेज़ार हैं हम तिरे तस्ख़ीर करने में सिरीजन कभी नादाँ कभी अय्यार हैं हम सनम तेरे नयन की आरज़ू में कभू सालिम कभी बीमार हैं हम 'वली' वस्ल-ओ-जुदाई सूँ सजन की कभू सहरा कभू गुलज़ार हैं हम " vo-naazniin-adaa-men-ejaaz-hai-saraapaa-wali-mohammad-wali-ghazals," वो नाज़नीं अदा में एजाज़ है सरापा ख़ूबी में गुल-रुख़ाँ सूँ मुम्ताज़ है सरापा ऐ शोख़ तुझ नयन में देखा निगाह कर कर आशिक़ के मारने का अंदाज़ है सरापा जग के अदा-शनासाँ है जिन की फ़िक्र आली तुझ क़द कूँ देख बोले यू नाज़ है सरापा क्यूँ हो सकें जगत के दिलबर तिरे बराबर तू हुस्न हौर अदा में एजाज़ है सरापा गाहे ऐ ईसवी-दम यक बात लुत्फ़ सूँ कर जाँ-बख़्श मुझ को तेरा आवाज़ है सरापा मुझ पर 'वली' हमेशा दिलदार मेहरबाँ है हर-चंद हस्ब-ए-ज़ाहिर तन्नाज़ है सरापा " haadson-kii-zad-pe-hain-to-muskuraanaa-chhod-den-waseem-barelvi-ghazals," हादसों की ज़द पे हैं तो मुस्कुराना छोड़ दें ज़लज़लों के ख़ौफ़ से क्या घर बनाना छोड़ दें तुम ने मेरे घर न आने की क़सम खाई तो है आँसुओं से भी कहो आँखों में आना छोड़ दें प्यार के दुश्मन कभी तो प्यार से कह के तो देख एक तेरा दर ही क्या हम तो ज़माना छोड़ दें घोंसले वीरान हैं अब वो परिंदे ही कहाँ इक बसेरे के लिए जो आब-ओ-दाना छोड़ दें " duaa-karo-ki-koii-pyaas-nazr-e-jaam-na-ho-waseem-barelvi-ghazals," दुआ करो कि कोई प्यास नज़्र-ए-जाम न हो वो ज़िंदगी ही नहीं है जो ना-तमाम न हो जो मुझ में तुझ में चला आ रहा है सदियों से कहीं हयात उसी फ़ासले का नाम न हो कोई चराग़ न आँसू न आरज़ू-ए-सहर ख़ुदा करे कि किसी घर में ऐसी शाम न हो अजीब शर्त लगाई है एहतियातों ने कि तेरा ज़िक्र करूँ और तेरा नाम न हो सबा-मिज़ाज की तेज़ी भी एक ने'मत है अगर चराग़ बुझाना ही एक काम न हो 'वसीम' कितनी ही सुब्हें लहू लहू गुज़रीं इक ऐसी सुब्ह भी आए कि जिस की शाम न हो " mujhe-to-qatra-hii-honaa-bahut-sataataa-hai-waseem-barelvi-ghazals," मुझे तो क़तरा ही होना बहुत सताता है इसी लिए तो समुंदर पे रहम आता है वो इस तरह भी मिरी अहमियत घटाता है कि मुझ से मिलने में शर्तें बहुत लगाता है बिछड़ते वक़्त किसी आँख में जो आता है तमाम उम्र वो आँसू बहुत रुलाता है कहाँ पहुँच गई दुनिया उसे पता ही नहीं जो अब भी माज़ी के क़िस्से सुनाए जाता है उठाए जाएँ जहाँ हाथ ऐसे जलसे में वही बुरा जो कोई मसअला उठाता है न कोई ओहदा न डिग्री न नाम की तख़्ती मैं रह रहा हूँ यहाँ मेरा घर बताता है समझ रहा हो कहीं ख़ुद को मेरी कमज़ोरी तो उस से कह दो मुझे भूलना भी आता है " mere-gam-ko-jo-apnaa-bataate-rahe-waseem-barelvi-ghazals," मेरे ग़म को जो अपना बताते रहे वक़्त पड़ने पे हाथों से जाते रहे बारिशें आईं और फ़ैसला कर गईं लोग टूटी छतें आज़माते रहे आँखें मंज़र हुईं कान नग़्मा हुए घर के अंदाज़ ही घर से जाते रहे शाम आई तो बिछड़े हुए हम-सफ़र आँसुओं से इन आँखों में आते रहे नन्हे बच्चों ने छू भी लिया चाँद को बूढ़े बाबा कहानी सुनाते रहे दूर तक हाथ में कोई पत्थर न था फिर भी हम जाने क्यूँ सर बचाते रहे शाइरी ज़हर थी क्या करें ऐ 'वसीम' लोग पीते रहे हम पिलाते रहे " shaam-tak-subh-kii-nazron-se-utar-jaate-hain-waseem-barelvi-ghazals-3," शाम तक सुब्ह की नज़रों से उतर जाते हैं इतने समझौतों पे जीते हैं कि मर जाते हैं फिर वही तल्ख़ी-ए-हालात मुक़द्दर ठहरी नश्शे कैसे भी हों कुछ दिन में उतर जाते हैं इक जुदाई का वो लम्हा कि जो मरता ही नहीं लोग कहते थे कि सब वक़्त गुज़र जाते हैं घर की गिरती हुई दीवारें ही मुझ से अच्छी रास्ता चलते हुए लोग ठहर जाते हैं हम तो बे-नाम इरादों के मुसाफ़िर हैं 'वसीम' कुछ पता हो तो बताएँ कि किधर जाते हैं " kyaa-bataauun-kaisaa-khud-ko-dar-ba-dar-main-ne-kiyaa-waseem-barelvi-ghazals," क्या बताऊँ कैसा ख़ुद को दर-ब-दर मैं ने किया उम्र-भर किस किस के हिस्से का सफ़र मैं ने किया तू तो नफ़रत भी न कर पाएगा इस शिद्दत के साथ जिस बला का प्यार तुझ से बे-ख़बर मैं ने किया कैसे बच्चों को बताऊँ रास्तों के पेच-ओ-ख़म ज़िंदगी-भर तो किताबों का सफ़र मैं ने किया किस को फ़ुर्सत थी कि बतलाता तुझे इतनी सी बात ख़ुद से क्या बरताव तुझ से छूट कर मैं ने किया चंद जज़्बाती से रिश्तों के बचाने को 'वसीम' कैसा कैसा जब्र अपने आप पर मैं ने किया " kyaa-dukh-hai-samundar-ko-bataa-bhii-nahiin-saktaa-waseem-barelvi-ghazals," क्या दुख है समुंदर को बता भी नहीं सकता आँसू की तरह आँख तक आ भी नहीं सकता तू छोड़ रहा है तो ख़ता इस में तिरी क्या हर शख़्स मिरा साथ निभा भी नहीं सकता प्यासे रहे जाते हैं ज़माने के सवालात किस के लिए ज़िंदा हूँ बता भी नहीं सकता घर ढूँड रहे हैं मिरा रातों के पुजारी मैं हूँ कि चराग़ों को बुझा भी नहीं सकता वैसे तो इक आँसू ही बहा कर मुझे ले जाए ऐसे कोई तूफ़ान हिला भी नहीं सकता " zindagii-tujh-pe-ab-ilzaam-koii-kyaa-rakkhe-waseem-barelvi-ghazals," ज़िंदगी तुझ पे अब इल्ज़ाम कोई क्या रक्खे अपना एहसास ही ऐसा है जो तन्हा रक्खे किन शिकस्तों के शब-ओ-रोज़ से गुज़रा होगा वो मुसव्विर जो हर इक नक़्श अधूरा रक्खे ख़ुश्क मिट्टी ही ने जब पाँव जमाने न दिए बहते दरिया से फिर उम्मीद कोई क्या रक्खे आ ग़म-ए-दोस्त उसी मोड़ पे हो जाऊँ जुदा जो मुझे मेरा ही रहने दे न तेरा रक्खे आरज़ूओं के बहुत ख़्वाब तो देखो हो 'वसीम' जाने किस हाल में बे-दर्द ज़माना रक्खे " biite-hue-din-khud-ko-jab-dohraate-hain-waseem-barelvi-ghazals," बीते हुए दिन ख़ुद को जब दोहराते हैं एक से जाने हम कितने हो जाते हैं हम भी दिल की बात कहाँ कह पाते हैं आप भी कुछ कहते कहते रह जाते हैं ख़ुश्बू अपने रस्ते ख़ुद तय करती है फूल तो डाली के हो कर रह जाते हैं रोज़ नया इक क़िस्सा कहने वाले लोग कहते कहते ख़ुद क़िस्सा हो जाते हैं कौन बचाएगा फिर तोड़ने वालों से फूल अगर शाख़ों से धोखा खाते हैं " main-aasmaan-pe-bahut-der-rah-nahiin-saktaa-waseem-barelvi-ghazals," मैं आसमाँ पे बहुत देर रह नहीं सकता मगर ये बात ज़मीं से तो कह नहीं सकता किसी के चेहरे को कब तक निगाह में रक्खूँ सफ़र में एक ही मंज़र तो रह नहीं सकता ये आज़माने की फ़ुर्सत तुझे कभी मिल जाए मैं आँखों आँखों में क्या बात कह नहीं सकता सहारा लेना ही पड़ता है मुझ को दरिया का मैं एक क़तरा हूँ तन्हा तो बह नहीं सकता लगा के देख ले जो भी हिसाब आता हो मुझे घटा के वो गिनती में रह नहीं सकता ये चंद लम्हों की बे-इख़्तियारियाँ हैं 'वसीम' गुनह से रिश्ता बहुत देर रह नहीं सकता " jahaan-dariyaa-kahiin-apne-kinaare-chhod-detaa-hai-waseem-barelvi-ghazals," जहाँ दरिया कहीं अपने किनारे छोड़ देता है कोई उठता है और तूफ़ान का रुख़ मोड़ देता है मुझे बे-दस्त-ओ-पा कर के भी ख़ौफ़ उस का नहीं जाता कहीं भी हादिसा गुज़रे वो मुझ से जोड़ देता है बिछड़ के तुझ से कुछ जाना अगर तो इस क़दर जाना वो मिट्टी हूँ जिसे दरिया किनारे छोड़ देता है मोहब्बत में ज़रा सी बेवफ़ाई तो ज़रूरी है वही अच्छा भी लगता है जो वा'दे तोड़ देता है " kitnaa-dushvaar-thaa-duniyaa-ye-hunar-aanaa-bhii-waseem-barelvi-ghazals," कितना दुश्वार था दुनिया ये हुनर आना भी तुझ से ही फ़ासला रखना तुझे अपनाना भी कैसी आदाब-ए-नुमाइश ने लगाईं शर्तें फूल होना ही नहीं फूल नज़र आना भी दिल की बिगड़ी हुई आदत से ये उम्मीद न थी भूल जाएगा ये इक दिन तिरा याद आना भी जाने कब शहर के रिश्तों का बदल जाए मिज़ाज इतना आसाँ तो नहीं लौट के घर आना भी ऐसे रिश्ते का भरम रखना कोई खेल नहीं तेरा होना भी नहीं और तिरा कहलाना भी ख़ुद को पहचान के देखे तो ज़रा ये दरिया भूल जाएगा समुंदर की तरफ़ जाना भी जानने वालों की इस भीड़ से क्या होगा 'वसीम' इस में ये देखिए कोई मुझे पहचाना भी " main-apne-khvaab-se-bichhdaa-nazar-nahiin-aataa-waseem-barelvi-ghazals," मैं अपने ख़्वाब से बिछड़ा नज़र नहीं आता तो इस सदी में अकेला नज़र नहीं आता अजब दबाओ है उन बाहरी हवाओं का घरों का बोझ भी उठता नज़र नहीं आता मैं तेरी राह से हटने को हट गया लेकिन मुझे तो कोई भी रस्ता नज़र नहीं आता मैं इक सदा पे हमेशा को घर तो छोड़ आया मगर पुकारने वाला नज़र नहीं आता धुआँ भरा है यहाँ तो सभी की आँखों में किसी को घर मिरा जलता नज़र नहीं आता ग़ज़ल-सराई का दा'वा तो सब करे हैं 'वसीम' मगर वो 'मीर' सा लहजा नज़र नहीं आता " apne-chehre-se-jo-zaahir-hai-chhupaaen-kaise-waseem-barelvi-ghazals," अपने चेहरे से जो ज़ाहिर है छुपाएँ कैसे तेरी मर्ज़ी के मुताबिक़ नज़र आएँ कैसे घर सजाने का तसव्वुर तो बहुत ब'अद का है पहले ये तय हो कि इस घर को बचाएँ कैसे लाख तलवारें बढ़ी आती हों गर्दन की तरफ़ सर झुकाना नहीं आता तो झुकाएँ कैसे क़हक़हा आँख का बरताव बदल देता है हँसने वाले तुझे आँसू नज़र आएँ कैसे फूल से रंग जुदा होना कोई खेल नहीं अपनी मिट्टी को कहीं छोड़ के जाएँ कैसे कोई अपनी ही नज़र से तो हमें देखेगा एक क़तरे को समुंदर नज़र आएँ कैसे जिस ने दानिस्ता किया हो नज़र-अंदाज़ 'वसीम' उस को कुछ याद दिलाएँ तो दिलाएँ कैसे " bhalaa-gamon-se-kahaan-haar-jaane-vaale-the-waseem-barelvi-ghazals," भला ग़मों से कहाँ हार जाने वाले थे हम आँसुओं की तरह मुस्कुराने वाले थे हमीं ने कर दिया ऐलान-ए-गुमरही वर्ना हमारे पीछे बहुत लोग आने वाले थे उन्हें तो ख़ाक में मिलना ही था कि मेरे थे ये अश्क कौन से ऊँचे घराने वाले थे उन्हें क़रीब न होने दिया कभी मैं ने जो दोस्ती में हदें भूल जाने वाले थे मैं जिन को जान के पहचान भी नहीं सकता कुछ ऐसे लोग मिरा घर जलाने वाले थे हमारा अलमिया ये था कि हम-सफ़र भी हमें वही मिले जो बहुत याद आने वाले थे 'वसीम' कैसी तअल्लुक़ की राह थी जिस में वही मिले जो बहुत दिल दुखाने वाले थे " khul-ke-milne-kaa-saliiqa-aap-ko-aataa-nahiin-waseem-barelvi-ghazals," खुल के मिलने का सलीक़ा आप को आता नहीं और मेरे पास कोई चोर दरवाज़ा नहीं वो समझता था उसे पा कर ही मैं रह जाऊँगा उस को मेरी प्यास की शिद्दत का अंदाज़ा नहीं जा दिखा दुनिया को मुझ को क्या दिखाता है ग़ुरूर तू समुंदर है तो है मैं तो मगर प्यासा नहीं कोई भी दस्तक करे आहट हो या आवाज़ दे मेरे हाथों में मिरा घर तो है दरवाज़ा नहीं अपनों को अपना कहा चाहे किसी दर्जे के हों और जब ऐसा किया मैं ने तो शरमाया नहीं उस की महफ़िल में उन्हीं की रौशनी जिन के चराग़ मैं भी कुछ होता तो मेरा भी दिया होता नहीं तुझ से क्या बिछड़ा मिरी सारी हक़ीक़त खुल गई अब कोई मौसम मिले तो मुझ से शरमाता नहीं " sab-ne-milaae-haath-yahaan-tiirgii-ke-saath-waseem-barelvi-ghazals," सब ने मिलाए हाथ यहाँ तीरगी के साथ कितना बड़ा मज़ाक़ हुआ रौशनी के साथ शर्तें लगाई जाती नहीं दोस्ती के साथ कीजे मुझे क़ुबूल मिरी हर कमी के साथ तेरा ख़याल, तेरी तलब तेरी आरज़ू मैं उम्र भर चला हूँ किसी रौशनी के साथ दुनिया मिरे ख़िलाफ़ खड़ी कैसे हो गई मेरी तो दुश्मनी भी नहीं थी किसी के साथ किस काम की रही ये दिखावे की ज़िंदगी वादे किए किसी से गुज़ारी किसी के साथ दुनिया को बेवफ़ाई का इल्ज़ाम कौन दे अपनी ही निभ सकी न बहुत दिन किसी के साथ क़तरे वो कुछ भी पाएँ ये मुमकिन नहीं 'वसीम' बढ़ना जो चाहते हैं समुंदर-कशी के साथ " dukh-apnaa-agar-ham-ko-bataanaa-nahiin-aataa-waseem-barelvi-ghazals," दुख अपना अगर हम को बताना नहीं आता तुम को भी तो अंदाज़ा लगाना नहीं आता पहुँचा है बुज़ुर्गों के बयानों से जो हम तक क्या बात हुई क्यूँ वो ज़माना नहीं आता मैं भी उसे खोने का हुनर सीख न पाया उस को भी मुझे छोड़ के जाना नहीं आता इस छोटे ज़माने के बड़े कैसे बनोगे लोगों को जब आपस में लड़ाना नहीं आता ढूँढे है तो पलकों पे चमकने के बहाने आँसू को मिरी आँख में आना नहीं आता तारीख़ की आँखों में धुआँ हो गए ख़ुद ही तुम को तो कोई घर भी जलाना नहीं आता " apne-har-har-lafz-kaa-khud-aaiina-ho-jaauungaa-waseem-barelvi-ghazals," अपने हर हर लफ़्ज़ का ख़ुद आईना हो जाऊँगा उस को छोटा कह के मैं कैसे बड़ा हो जाऊँगा तुम गिराने में लगे थे तुम ने सोचा ही नहीं मैं गिरा तो मसअला बन कर खड़ा हो जाऊँगा मुझ को चलने दो अकेला है अभी मेरा सफ़र रास्ता रोका गया तो क़ाफ़िला हो जाऊँगा सारी दुनिया की नज़र में है मिरा अहद-ए-वफ़ा इक तिरे कहने से क्या मैं बेवफ़ा हो जाऊँगा " chalo-ham-hii-pahal-kar-den-ki-ham-se-bad-gumaan-kyuun-ho-waseem-barelvi-ghazals," चलो हम ही पहल कर दें कि हम से बद-गुमाँ क्यूँ हो कोई रिश्ता ज़रा सी ज़िद की ख़ातिर राएगाँ क्यूँ हो मैं ज़िंदा हूँ तो इस ज़िंदा-ज़मीरी की बदौलत ही जो बोले तेरे लहजे में भला मेरी ज़बाँ क्यूँ हो सवाल आख़िर ये इक दिन देखना हम ही उठाएँगे न समझे जो ज़मीं के ग़म वो अपना आसमाँ क्यूँ हो हमारी गुफ़्तुगू की और भी सम्तें बहुत सी हैं किसी का दिल दुखाने ही को फिर अपनी ज़बाँ क्यूँ हो बिखर कर रह गया हमसायगी का ख़्वाब ही वर्ना दिए इस घर में रौशन हों तो उस घर में धुआँ क्यूँ हो मोहब्बत आसमाँ को जब ज़मीं करने की ज़िद ठहरी तो फिर बुज़दिल उसूलों की शराफ़त दरमियाँ क्यूँ हो उम्मीदें सारी दुनिया से 'वसीम' और ख़ुद में ऐसे ग़म किसी पे कुछ न ज़ाहिर हो तो कोई मेहरबाँ क्यूँ हो " tahriir-se-varna-mirii-kyaa-ho-nahiin-saktaa-waseem-barelvi-ghazals," तहरीर से वर्ना मिरी क्या हो नहीं सकता इक तू है जो लफ़्ज़ों में अदा हो नहीं सकता आँखों में ख़यालात में साँसों में बसा है चाहे भी तो मुझ से वो जुदा हो नहीं सकता जीना है तो ये जब्र भी सहना ही पड़ेगा क़तरा हूँ समुंदर से ख़फ़ा हो नहीं सकता गुमराह किए होंगे कई फूल से जज़्बे ऐसे तो कोई राह-नुमा हो नहीं सकता क़द मेरा बढ़ाने का उसे काम मिला है जो अपने ही पैरों पे खड़ा हो नहीं सकता ऐ प्यार तिरे हिस्से में आया तिरी क़िस्मत वो दर्द जो चेहरों से अदा हो नहीं सकता " rang-be-rang-hon-khushbuu-kaa-bharosa-jaae-waseem-barelvi-ghazals," रंग बे-रंग हों ख़ुशबू का भरोसा जाए मेरी आँखों से जो दुनिया तुझे देखा जाए हम ने जिस राह को छोड़ा फिर उसे छोड़ दिया अब न जाएँगे उधर चाहे ज़माना जाए मैं ने मुद्दत से कोई ख़्वाब नहीं देखा है हाथ रख दे मिरी आँखों पे कि नींद आ जाए मैं गुनाहों का तरफ़-दार नहीं हूँ फिर भी रात को दिन की निगाहों से न देखा जाए कुछ बड़ी सोचों में ये सोचें भी शामिल हैं 'वसीम' किस बहाने से कोई शहर जलाया जाए " haveliyon-men-mirii-tarbiyat-nahiin-hotii-waseem-barelvi-ghazals," हवेलियों में मिरी तर्बियत नहीं होती तो आज सर पे टपकने को छत नहीं होती हमारे घर का पता पूछने से क्या हासिल उदासियों की कोई शहरियत नहीं होती चराग़ घर का हो महफ़िल का हो कि मंदिर का हवा के पास कोई मस्लहत नहीं होती हमें जो ख़ुद में सिमटने का फ़न नहीं आता तो आज ऐसी तिरी सल्तनत नहीं होती 'वसीम' शहर में सच्चाइयों के लब होते तो आज ख़बरों में सब ख़ैरियत नहीं होती " sirf-teraa-naam-le-kar-rah-gayaa-waseem-barelvi-ghazals," सिर्फ़ तेरा नाम ले कर रह गया आज दीवाना बहुत कुछ कह गया क्या मिरी तक़दीर में मंज़िल नहीं फ़ासला क्यूँ मुस्कुरा कर रह गया ज़िंदगी दुनिया में ऐसा अश्क थी जो ज़रा पलकों पे ठहरा बह गया और क्या था उस की पुर्सिश का जवाब अपने ही आँसू छुपा कर रह गया उस से पूछ ऐ कामयाब-ए-ज़िंदगी जिस का अफ़्साना अधूरा रह गया हाए क्या दीवानगी थी ऐ 'वसीम' जो न कहना चाहिए था कह गया " kahaan-savaab-kahaan-kyaa-azaab-hotaa-hai-waseem-barelvi-ghazals," कहाँ सवाब कहाँ क्या अज़ाब होता है मोहब्बतों में कब इतना हिसाब होता है बिछड़ के मुझ से तुम अपनी कशिश न खो देना उदास रहने से चेहरा ख़राब होता है उसे पता ही नहीं है कि प्यार की बाज़ी जो हार जाए वही कामयाब होता है जब उस के पास गँवाने को कुछ नहीं होता तो कोई आज का इज़्ज़त-मआब होता है जिसे मैं लिखता हूँ ऐसे कि ख़ुद ही पढ़ पाँव किताब-ए-ज़ीस्त में ऐसा भी बाब होता है बहुत भरोसा न कर लेना अपनी आँखों पर दिखाई देता है जो कुछ वो ख़्वाब होता है " sabhii-kaa-dhuup-se-bachne-ko-sar-nahiin-hotaa-waseem-barelvi-ghazals," सभी का धूप से बचने को सर नहीं होता हर आदमी के मुक़द्दर में घर नहीं होता कभी लहू से भी तारीख़ लिखनी पड़ती है हर एक मा'रका बातों से सर नहीं होता मैं उस की आँख का आँसू न बन सका वर्ना मुझे भी ख़ाक में मिलने का डर नहीं होता मुझे तलाश करोगे तो फिर न पाओगे मैं इक सदा हूँ सदाओं का घर नहीं होता हमारी आँख के आँसू की अपनी दुनिया है किसी फ़क़ीर को शाहों का डर नहीं होता मैं उस मकान में रहता हूँ और ज़िंदा हूँ 'वसीम' जिस में हवा का गुज़र नहीं होता " ye-hai-to-sab-ke-liye-ho-ye-zid-hamaarii-hai-waseem-barelvi-ghazals," ये है तो सब के लिए हो ये ज़िद हमारी है इस एक बात पे दुनिया से जंग जारी है उड़ान वालो उड़ानों पे वक़्त भारी है परों की अब के नहीं हौसलों की बारी है मैं क़तरा हो के भी तूफ़ाँ से जंग लेता हूँ मुझे बचाना समुंदर की ज़िम्मेदारी है इसी से जलते हैं सहरा-ए-आरज़ू में चराग़ ये तिश्नगी तो मुझे ज़िंदगी से प्यारी है कोई बताए ये उस के ग़ुरूर-ए-बेजा को वो जंग मैं ने लड़ी ही नहीं जो हारी है हर एक साँस पे पहरा है बे-यक़ीनी का ये ज़िंदगी तो नहीं मौत की सवारी है दुआ करो कि सलामत रहे मिरी हिम्मत ये इक चराग़ कई आँधियों पे भारी है " andheraa-zehn-kaa-samt-e-safar-jab-khone-lagtaa-hai-waseem-barelvi-ghazals," अंधेरा ज़ेहन का सम्त-ए-सफ़र जब खोने लगता है किसी का ध्यान आता है उजाला होने लगता है वो जितनी दूर हो उतना ही मेरा होने लगता है मगर जब पास आता है तो मुझ से खोने लगता है किसी ने रख दिए ममता-भरे दो हाथ क्या सर पर मिरे अंदर कोई बच्चा बिलक कर रोने लगता है मोहब्बत चार दिन की और उदासी ज़िंदगी भर की यही सब देखता है और 'कबीरा' रोने लगता है समझते ही नहीं नादान कै दिन की है मिल्किय्यत पराए खेतों पे अपनों में झगड़ा होने लगता है ये दिल बच कर ज़माने भर से चलना चाहे है लेकिन जब अपनी राह चलता है अकेला होने लगता है " tumhaarii-raah-men-mittii-ke-ghar-nahiin-aate-waseem-barelvi-ghazals," तुम्हारी राह में मिट्टी के घर नहीं आते इसी लिए तो तुम्हें हम नज़र नहीं आते मोहब्बतों के दिनों की यही ख़राबी है ये रूठ जाएँ तो फिर लौट कर नहीं आते जिन्हें सलीक़ा है तहज़ीब-ए-ग़म समझने का उन्हीं के रोने में आँसू नज़र नहीं आते ख़ुशी की आँख में आँसू की भी जगह रखना बुरे ज़माने कभी पूछ कर नहीं आते बिसात-ए-इश्क़ पे बढ़ना किसे नहीं आता ये और बात कि बचने के घर नहीं आते 'वसीम' ज़ेहन बनाते हैं तो वही अख़बार जो ले के एक भी अच्छी ख़बर नहीं आते " lahuu-na-ho-to-qalam-tarjumaan-nahiin-hotaa-waseem-barelvi-ghazals," लहू न हो तो क़लम तर्जुमाँ नहीं होता हमारे दौर में आँसू ज़बाँ नहीं होता जहाँ रहेगा वहीं रौशनी लुटाएगा किसी चराग़ का अपना मकाँ नहीं होता ये किस मक़ाम पे लाई है मेरी तन्हाई कि मुझ से आज कोई बद-गुमाँ नहीं होता बस इक निगाह मिरी राह देखती होती ये सारा शहर मिरा मेज़बाँ नहीं होता तिरा ख़याल न होता तो कौन समझाता ज़मीं न हो तो कोई आसमाँ नहीं होता मैं उस को भूल गया हूँ ये कौन मानेगा किसी चराग़ के बस में धुआँ नहीं होता 'वसीम' सदियों की आँखों से देखिए मुझ को वो लफ़्ज़ हूँ जो कभी दास्ताँ नहीं होता " chaand-kaa-khvaab-ujaalon-kii-nazar-lagtaa-hai-waseem-barelvi-ghazals," चाँद का ख़्वाब उजालों की नज़र लगता है तू जिधर हो के गुज़र जाए ख़बर लगता है उस की यादों ने उगा रक्खे हैं सूरज इतने शाम का वक़्त भी आए तो सहर लगता है एक मंज़र पे ठहरने नहीं देती फ़ितरत उम्र भर आँख की क़िस्मत में सफ़र लगता है मैं नज़र भर के तिरे जिस्म को जब देखता हूँ पहली बारिश में नहाया सा शजर लगता है बे-सहारा था बहुत प्यार कोई पूछता क्या तू ने काँधे पे जगह दी है तो सर लगता है तेरी क़ुर्बत के ये लम्हे उसे रास आएँ क्या सुब्ह होने का जिसे शाम से डर लगता है " kuchh-itnaa-khauf-kaa-maaraa-huaa-bhii-pyaar-na-ho-waseem-barelvi-ghazals," कुछ इतना ख़ौफ़ का मारा हुआ भी प्यार न हो वो ए'तिबार दिलाए और ए'तिबार न हो हवा ख़िलाफ़ हो मौजों पे इख़्तियार न हो ये कैसी ज़िद है कि दरिया किसी से पार न हो मैं गाँव लौट रहा हूँ बहुत दिनों के बाद ख़ुदा करे कि उसे मेरा इंतिज़ार न हो ज़रा सी बात पे घुट घुट के सुब्ह कर देना मिरी तरह भी कोई मेरा ग़म-गुसार न हो दुखी समाज में आँसू भरे ज़माने में उसे ये कौन बताए कि अश्क-बार न हो गुनाहगारों पे उँगली उठाए देते हो 'वसीम' आज कहीं तुम भी संगसार न हो " main-is-umiid-pe-duubaa-ki-tuu-bachaa-legaa-waseem-barelvi-ghazals," मैं इस उमीद पे डूबा कि तू बचा लेगा अब इस के बा'द मिरा इम्तिहान क्या लेगा ये एक मेला है वा'दा किसी से क्या लेगा ढलेगा दिन तो हर इक अपना रास्ता लेगा मैं बुझ गया तो हमेशा को बुझ ही जाऊँगा कोई चराग़ नहीं हूँ कि फिर जला लेगा कलेजा चाहिए दुश्मन से दुश्मनी के लिए जो बे-अमल है वो बदला किसी से क्या लेगा मैं उस का हो नहीं सकता बता न देना उसे लकीरें हाथ की अपनी वो सब जला लेगा हज़ार तोड़ के आ जाऊँ उस से रिश्ता 'वसीम' मैं जानता हूँ वो जब चाहेगा बुला लेगा " udaasiyon-men-bhii-raste-nikaal-letaa-hai-waseem-barelvi-ghazals," उदासियों में भी रस्ते निकाल लेता है अजीब दिल है गिरूँ तो सँभाल लेता है ये कैसा शख़्स है कितनी ही अच्छी बात कहो कोई बुराई का पहलू निकाल लेता है ढले तो होती है कुछ और एहतियात की उम्र कि बहते बहते ये दरिया उछाल लेता है बड़े-बड़ों की तरह-दारियाँ नहीं चलतीं उरूज तेरी ख़बर जब ज़वाल लेता है जब उस के जाम में इक बूँद तक नहीं होती वो मेरी प्यास को फिर भी सँभाल लेता है " aate-aate-miraa-naam-saa-rah-gayaa-waseem-barelvi-ghazals," आते आते मिरा नाम सा रह गया उस के होंटों पे कुछ काँपता रह गया रात मुजरिम थी दामन बचा ले गई दिन गवाहों की सफ़ में खड़ा रह गया वो मिरे सामने ही गया और मैं रास्ते की तरह देखता रह गया झूट वाले कहीं से कहीं बढ़ गए और मैं था कि सच बोलता रह गया आँधियों के इरादे तो अच्छे न थे ये दिया कैसे जलता हुआ रह गया उस को काँधों पे ले जा रहे हैं 'वसीम' और वो जीने का हक़ माँगता रह गया " use-samajhne-kaa-koii-to-raasta-nikle-waseem-barelvi-ghazals," उसे समझने का कोई तो रास्ता निकले मैं चाहता भी यही था वो बेवफ़ा निकले किताब-ए-माज़ी के औराक़ उलट के देख ज़रा न जाने कौन सा सफ़हा मुड़ा हुआ निकले मैं तुझ से मिलता तो तफ़्सील में नहीं जाता मिरी तरफ़ से तिरे दिल में जाने क्या निकले जो देखने में बहुत ही क़रीब लगता है उसी के बारे में सोचो तो फ़ासला निकले तमाम शहर की आँखों में सुर्ख़ शो'ले हैं 'वसीम' घर से अब ऐसे में कोई क्या निकले " vo-mere-ghar-nahiin-aataa-main-us-ke-ghar-nahiin-jaataa-waseem-barelvi-ghazals," वो मेरे घर नहीं आता मैं उस के घर नहीं जाता मगर इन एहतियातों से तअ'ल्लुक़ मर नहीं जाता बुरे अच्छे हों जैसे भी हों सब रिश्ते यहीं के हैं किसी को साथ दुनिया से कोई ले कर नहीं जाता घरों की तर्बियत क्या आ गई टी-वी के हाथों में कोई बच्चा अब अपने बाप के ऊपर नहीं जाता खुले थे शहर में सौ दर मगर इक हद के अंदर ही कहाँ जाता अगर मैं लौट के फिर घर नहीं जाता मोहब्बत के ये आँसू हैं उन्हें आँखों में रहने दो शरीफ़ों के घरों का मसअला बाहर नहीं जाता 'वसीम' उस से कहो दुनिया बहुत महदूद है मेरी किसी दर का जो हो जाए वो फिर दर दर नहीं जाता " mohabbat-naa-samajh-hotii-hai-samjhaanaa-zaruurii-hai-waseem-barelvi-ghazals," मोहब्बत ना-समझ होती है समझाना ज़रूरी है जो दिल में है उसे आँखों से कहलाना ज़रूरी है उसूलों पर जहाँ आँच आए टकराना ज़रूरी है जो ज़िंदा हो तो फिर ज़िंदा नज़र आना ज़रूरी है नई उम्रों की ख़ुद-मुख़्तारियों को कौन समझाए कहाँ से बच के चलना है कहाँ जाना ज़रूरी है थके-हारे परिंदे जब बसेरे के लिए लौटें सलीक़ा-मंद शाख़ों का लचक जाना ज़रूरी है बहुत बेबाक आँखों में तअ'ल्लुक़ टिक नहीं पाता मोहब्बत में कशिश रखने को शर्माना ज़रूरी है सलीक़ा ही नहीं शायद उसे महसूस करने का जो कहता है ख़ुदा है तो नज़र आना ज़रूरी है मिरे होंटों पे अपनी प्यास रख दो और फिर सोचो कि इस के बा'द भी दुनिया में कुछ पाना ज़रूरी है " apne-andaaz-kaa-akelaa-thaa-waseem-barelvi-ghazals," अपने अंदाज़ का अकेला था इस लिए मैं बड़ा अकेला था प्यार तो जन्म का अकेला था क्या मिरा तजरबा अकेला था साथ तेरा न कुछ बदल पाया मेरा ही रास्ता अकेला था बख़्शिश-ए-बे-हिसाब के आगे मेरा दस्त-ए-दुआ' अकेला था तेरी समझौते-बाज़ दुनिया में कौन मेरे सिवा अकेला था जो भी मिलता गले लगा लेता किस क़दर आइना अकेला था " hamaaraa-azm-e-safar-kab-kidhar-kaa-ho-jaae-waseem-barelvi-ghazals," हमारा अज़्म-ए-सफ़र कब किधर का हो जाए ये वो नहीं जो किसी रहगुज़र का हो जाए उसी को जीने का हक़ है जो इस ज़माने में इधर का लगता रहे और उधर का हो जाए खुली हवाओं में उड़ना तो उस की फ़ितरत है परिंदा क्यूँ किसी शाख़-ए-शजर का हो जाए मैं लाख चाहूँ मगर हो तो ये नहीं सकता कि तेरा चेहरा मिरी ही नज़र का हो जाए मिरा न होने से क्या फ़र्क़ उस को पड़ना है पता चले जो किसी कम-नज़र का हो जाए 'वसीम' सुब्ह की तन्हाई-ए-सफ़र सोचो मुशाएरा तो चलो रात भर का हो जाए " kahaan-qatre-kii-gam-khvaarii-kare-hai-waseem-barelvi-ghazals," कहाँ क़तरे की ग़म-ख़्वारी करे है समुंदर है अदाकारी करे है कोई माने न माने उस की मर्ज़ी मगर वो हुक्म तो जारी करे है नहीं लम्हा भी जिस की दस्तरस में वही सदियों की तय्यारी करे है बड़े आदर्श हैं बातों में लेकिन वो सारे काम बाज़ारी करे है हमारी बात भी आए तो जानें वो बातें तो बहुत सारी करे है यही अख़बार की सुर्ख़ी बनेगा ज़रा सा काम चिंगारी करे है बुलावा आएगा चल देंगे हम भी सफ़र की कौन तय्यारी करे है " vo-mujh-ko-kyaa-bataanaa-chaahtaa-hai-waseem-barelvi-ghazals," वो मुझ को क्या बताना चाहता है जो दुनिया से छुपाना चाहता है मुझे देखो कि मैं उस को ही चाहूँ जिसे सारा ज़माना चाहता है क़लम करना कहाँ है उस का मंशा वो मेरा सर झुकाना चाहता है शिकायत का धुआँ आँखों से दिल तक तअ'ल्लुक़ टूट जाना चाहता है तक़ाज़ा वक़्त का कुछ भी हो ये दिल वही क़िस्सा पुराना चाहता है " apne-saae-ko-itnaa-samjhaane-de-waseem-barelvi-ghazals," अपने साए को इतना समझाने दे मुझ तक मेरे हिस्से की धूप आने दे एक नज़र में कई ज़माने देखे तो बूढ़ी आँखों की तस्वीर बनाने दे बाबा दुनिया जीत के मैं दिखला दूँगा अपनी नज़र से दूर तो मुझ को जाने दे मैं भी तो इस बाग़ का एक परिंदा हूँ मेरी ही आवाज़ में मुझ को गाने दे फिर तो ये ऊँचा ही होता जाएगा बचपन के हाथों में चाँद आ जाने दे फ़स्लें पक जाएँ तो खेत से बिछ्ड़ेंगी रोती आँख को प्यार कहाँ समझाने दे " ham-apne-aap-ko-ik-masala-banaa-na-sake-waseem-barelvi-ghazals," हम अपने आप को इक मसअला बना न सके इसी लिए तो किसी की नज़र में आ न सके हम आँसुओं की तरह वास्ते निभा न सके रहे जिन आँखों में उन में ही घर बना न सके फिर आँधियों ने सिखाया वहाँ सफ़र का हुनर जहाँ चराग़ हमें रास्ता दिखा न सके जो पेश पेश थे बस्ती बचाने वालों में लगी जब आग तो अपना भी घर बचा न सके मिरे ख़ुदा किसी ऐसी जगह उसे रखना जहाँ कोई मिरे बारे में कुछ बता न सके तमाम उम्र की कोशिश का बस यही हासिल किसी को अपने मुताबिक़ कोई बना न सके तसल्लियों पे बहुत दिन जिया नहीं जाता कुछ ऐसा हो के तिरा ए'तिबार आ न सके " main-ye-nahiin-kahtaa-ki-miraa-sar-na-milegaa-waseem-barelvi-ghazals," मैं ये नहीं कहता कि मिरा सर न मिलेगा लेकिन मिरी आँखों में तुझे डर न मिलेगा सर पर तो बिठाने को है तय्यार ज़माना लेकिन तिरे रहने को यहाँ घर न मिलेगा जाती है चली जाए ये मय-ख़ाने की रौनक़ कम-ज़र्फ़ों के हाथों में तो साग़र न मिलेगा दुनिया की तलब है तो क़नाअत ही न करना क़तरे ही से ख़ुश हो तो समुंदर न मिलेगा " mirii-vafaaon-kaa-nashsha-utaarne-vaalaa-waseem-barelvi-ghazals," मिरी वफ़ाओं का नश्शा उतारने वाला कहाँ गया मुझे हँस हँस के हारने वाला हमारी जान गई जाए देखना ये है कहीं नज़र में न आ जाए मारने वाला बस एक प्यार की बाज़ी है बे-ग़रज़ बाज़ी न कोई जीतने वाला न कोई हारने वाला भरे मकाँ का भी अपना नशा है क्या जाने शराब-ख़ाने में रातें गुज़ारने वाला मैं उस का दिन भी ज़माने में बाँट कर रख दूँ वो मेरी रातों को छुप कर गुज़ारने वाला 'वसीम' हम भी बिखरने का हौसला करते हमें भी होता जो कोई सँवारने वाला " tuu-samajhtaa-hai-ki-rishton-kii-duhaaii-denge-waseem-barelvi-ghazals," तू समझता है कि रिश्तों की दुहाई देंगे हम तो वो हैं तिरे चेहरे से दिखाई देंगे हम को महसूस किया जाए है ख़ुश्बू की तरह हम कोई शोर नहीं हैं जो सुनाई देंगे फ़ैसला लिक्खा हुआ रक्खा है पहले से ख़िलाफ़ आप क्या साहब अदालत में सफ़ाई देंगे पिछली सफ़ में ही सही है तो इसी महफ़िल में आप देखेंगे तो हम क्यूँ न दिखाई देंगे " duur-se-hii-bas-dariyaa-dariyaa-lagtaa-hai-waseem-barelvi-ghazals," दूर से ही बस दरिया दरिया लगता है डूब के देखो कितना प्यासा लगता है तन्हा हो तो घबराया सा लगता है भीड़ में उस को देख के अच्छा लगता है आज ये है कल और यहाँ होगा कोई सोचो तो सब खेल-तमाशा लगता है मैं ही न मानूँ मेरे बिखरने में वर्ना दुनिया भर को हाथ तुम्हारा लगता है ज़ेहन से काग़ज़ पर तस्वीर उतरते ही एक मुसव्विर कितना अकेला लगता है प्यार के इस नश्शा को कोई क्या समझे ठोकर में जब सारा ज़माना लगता है भीड़ में रह कर अपना भी कब रह पाता चाँद अकेला है तो सब का लगता है शाख़ पे बैठी भोली-भाली इक चिड़िया क्या जाने उस पर भी निशाना लगता है " zaraa-saa-qatra-kahiin-aaj-agar-ubhartaa-hai-waseem-barelvi-ghazals," ज़रा सा क़तरा कहीं आज अगर उभरता है समुंदरों ही के लहजे में बात करता है खुली छतों के दिए कब के बुझ गए होते कोई तो है जो हवाओं के पर कतरता है शराफ़तों की यहाँ कोई अहमियत ही नहीं किसी का कुछ न बिगाड़ो तो कौन डरता है ये देखना है कि सहरा भी है समुंदर भी वो मेरी तिश्ना-लबी किस के नाम करता है तुम आ गए हो तो कुछ चाँदनी सी बातें हों ज़मीं पे चाँद कहाँ रोज़ रोज़ उतरता है ज़मीं की कैसी वकालत हो फिर नहीं चलती जब आसमाँ से कोई फ़ैसला उतरता है " nahiin-ki-apnaa-zamaana-bhii-to-nahiin-aayaa-waseem-barelvi-ghazals," नहीं कि अपना ज़माना भी तो नहीं आया हमें किसी से निभाना भी तो नहीं आया जला के रख लिया हाथों के साथ दामन तक तुम्हें चराग़ बुझाना भी तो नहीं आया नए मकान बनाए तो फ़ासलों की तरह हमें ये शहर बसाना भी तो नहीं आया वो पूछता था मिरी आँख भीगने का सबब मुझे बहाना बनाना भी तो नहीं आया 'वसीम' देखना मुड़ मुड़ के वो उसी की तरफ़ किसी को छोड़ के जाना भी तो नहीं आया " vo-dhal-rahaa-hai-to-ye-bhii-rangat-badal-rahii-hai-javed-akhtar-ghazals," वो ढल रहा है तो ये भी रंगत बदल रही है ज़मीन सूरज की उँगलियों से फिसल रही है जो मुझ को ज़िंदा जला रहे हैं वो बे-ख़बर हैं कि मेरी ज़ंजीर धीरे धीरे पिघल रही है मैं क़त्ल तो हो गया तुम्हारी गली में लेकिन मिरे लहू से तुम्हारी दीवार गल रही है न जलने पाते थे जिस के चूल्हे भी हर सवेरे सुना है कल रात से वो बस्ती भी जल रही है मैं जानता हूँ कि ख़ामुशी में ही मस्लहत है मगर यही मस्लहत मिरे दिल को खल रही है कभी तो इंसान ज़िंदगी की करेगा इज़्ज़त ये एक उम्मीद आज भी दिल में पल रही है " dast-bardaar-agar-aap-gazab-se-ho-jaaen-javed-akhtar-ghazals," दस्त-बरदार अगर आप ग़ज़ब से हो जाएँ हर सितम भूल के हम आप के अब से हो जाएँ चौदहवीं शब है तो खिड़की के गिरा दो पर्दे कौन जाने कि वो नाराज़ ही शब से हो जाएँ एक ख़ुश्बू की तरह फैलते हैं महफ़िल में ऐसे अल्फ़ाज़ अदा जो तिरे लब से हो जाएँ न कोई इश्क़ है बाक़ी न कोई परचम है लोग दीवाने भला किस के सबब से हो जाएँ बाँध लो हाथ कि फैलें न किसी के आगे सी लो ये लब कि कहीं वो न तलब से हो जाएँ बात तो छेड़ मिरे दिल कोई क़िस्सा तो सुना क्या अजब उन के भी जज़्बात अजब से हो जाएँ " ba-zaahir-kyaa-hai-jo-haasil-nahiin-hai-javed-akhtar-ghazals," ब-ज़ाहिर क्या है जो हासिल नहीं है मगर ये तो मिरी मंज़िल नहीं है ये तूदा रेत का है बीच दरिया ये बह जाएगा ये साहिल नहीं है बहुत आसान है पहचान उस की अगर दुखता नहीं तो दिल नहीं है मुसाफ़िर वो अजब है कारवाँ में कि जो हमराह है शामिल नहीं है बस इक मक़्तूल ही मक़्तूल कब है बस इक क़ातिल ही तो क़ातिल नहीं है कभी तो रात को तुम रात कह दो ये काम इतना भी अब मुश्किल नहीं है " dard-ke-phuul-bhii-khilte-hain-bikhar-jaate-hain-javed-akhtar-ghazals," दर्द के फूल भी खिलते हैं बिखर जाते हैं ज़ख़्म कैसे भी हों कुछ रोज़ में भर जाते हैं रास्ता रोके खड़ी है यही उलझन कब से कोई पूछे तो कहें क्या कि किधर जाते हैं छत की कड़ियों से उतरते हैं मिरे ख़्वाब मगर मेरी दीवारों से टकरा के बिखर जाते हैं नर्म अल्फ़ाज़ भली बातें मोहज़्ज़ब लहजे पहली बारिश ही में ये रंग उतर जाते हैं उस दरीचे में भी अब कोई नहीं और हम भी सर झुकाए हुए चुप-चाप गुज़र जाते हैं " yahii-haalaat-ibtidaa-se-rahe-javed-akhtar-ghazals," यही हालात इब्तिदा से रहे लोग हम से ख़फ़ा ख़फ़ा से रहे इन चराग़ों में तेल ही कम था क्यूँ गिला हम को फिर हवा से रहे बहस शतरंज शे'र मौसीक़ी तुम नहीं थे तो ये दिलासे रहे ज़िंदगी की शराब माँगते हो हम को देखो कि पी के प्यासे रहे उस के बंदों को देख कर कहिए हम को उम्मीद क्या ख़ुदा से रहे " phirte-hain-kab-se-dar-ba-dar-ab-is-nagar-ab-us-nagar-ik-duusre-ke-ham-safar-main-aur-mirii-aavaargii-javed-akhtar-ghazals," फिरते हैं कब से दर-ब-दर अब इस नगर अब उस नगर इक दूसरे के हम-सफ़र मैं और मिरी आवारगी ना-आश्ना हर रह-गुज़र ना-मेहरबाँ हर इक नज़र जाएँ तो अब जाएँ किधर मैं और मिरी आवारगी हम भी कभी आबाद थे ऐसे कहाँ बर्बाद थे बे-फ़िक्र थे आज़ाद थे मसरूर थे दिल-शाद थे वो चाल ऐसी चल गया हम बुझ गए दिल जल गया निकले जला के अपना घर मैं और मिरी आवारगी जीना बहुत आसान था इक शख़्स का एहसान था हम को भी इक अरमान था जो ख़्वाब का सामान था अब ख़्वाब है नय आरज़ू अरमान है नय जुस्तुजू यूँ भी चलो ख़ुश हैं मगर मैं और मिरी आवारगी वो माह-वश वो माह-रू वो माह-काम-ए-हू-ब-हू थीं जिस की बातें कू-ब-कू उस से अजब थी गुफ़्तुगू फिर यूँ हुआ वो खो गई तो मुझ को ज़िद सी हो गई लाएँगे उस को ढूँड कर मैं और मिरी आवारगी ये दिल ही था जो सह गया वो बात ऐसी कह गया कहने को फिर क्या रह गया अश्कों का दरिया बह गया जब कह के वो दिलबर गया तेरे लिए मैं मर गया रोते हैं उस को रात भर मैं और मिरी आवारगी अब ग़म उठाएँ किस लिए आँसू बहाएँ किस लिए ये दिल जलाएँ किस लिए यूँ जाँ गंवाएँ किस लिए पेशा न हो जिस का सितम ढूँडेंगे अब ऐसा सनम होंगे कहीं तो कारगर मैं और मिरी आवारगी आसार हैं सब खोट के इम्कान हैं सब चोट के घर बंद हैं सब गोट के अब ख़त्म हैं सब टोटके क़िस्मत का सब ये फेर है अंधेर है अंधेर है ऐसे हुए हैं बे-असर मैं और मिरी आवारगी जब हमदम-ओ-हमराज़ था तब और ही अंदाज़ था अब सोज़ है तब साज़ था अब शर्म है तब नाज़ था अब मुझ से हो तो हो भी क्या है साथ वो तो वो भी क्या इक बे-हुनर इक बे-समर मैं और मिरी आवारगी " jidhar-jaate-hain-sab-jaanaa-udhar-achchhaa-nahiin-lagtaa-javed-akhtar-ghazals," जिधर जाते हैं सब जाना उधर अच्छा नहीं लगता मुझे पामाल रस्तों का सफ़र अच्छा नहीं लगता ग़लत बातों को ख़ामोशी से सुनना हामी भर लेना बहुत हैं फ़ाएदे इस में मगर अच्छा नहीं लगता मुझे दुश्मन से भी ख़ुद्दारी की उम्मीद रहती है किसी का भी हो सर क़दमों में सर अच्छा नहीं लगता बुलंदी पर उन्हें मिट्टी की ख़ुश्बू तक नहीं आती ये वो शाख़ें हैं जिन को अब शजर अच्छा नहीं लगता ये क्यूँ बाक़ी रहे आतिश-ज़नो ये भी जला डालो कि सब बे-घर हों और मेरा हो घर अच्छा नहीं लगता " dard-apnaataa-hai-paraae-kaun-javed-akhtar-ghazals," दर्द अपनाता है पराए कौन कौन सुनता है और सुनाए कौन कौन दोहराए फिर वही बातें ग़म अभी सोया है जगाए कौन अब सुकूँ है तो भूलने में है लेकिन उस शख़्स को भुलाए कौन वो जो अपने हैं क्या वो अपने हैं कौन दुख झेले आज़माए कौन आज फिर दिल है कुछ उदास उदास देखिए आज याद आए कौन " bahaana-dhuundte-rahte-hain-koii-rone-kaa-javed-akhtar-ghazals," बहाना ढूँडते रहते हैं कोई रोने का हमें ये शौक़ है क्या आस्तीं भिगोने का अगर पलक पे है मोती तो ये नहीं काफ़ी हुनर भी चाहिए अल्फ़ाज़ में पिरोने का जो फ़स्ल ख़्वाब की तय्यार है तो ये जानो कि वक़्त आ गया फिर दर्द कोई बोने का ये ज़िंदगी भी अजब कारोबार है कि मुझे ख़ुशी है पाने की कोई न रंज खोने का है पाश पाश मगर फिर भी मुस्कुराता है वो चेहरा जैसे हो टूटे हुए खिलौने का " aaj-main-ne-apnaa-phir-saudaa-kiyaa-javed-akhtar-ghazals," आज मैं ने अपना फिर सौदा किया और फिर मैं दूर से देखा किया ज़िंदगी-भर मेरे काम आए उसूल एक इक कर के उन्हें बेचा किया बंध गई थी दिल में कुछ उम्मीद सी ख़ैर तुम ने जो किया अच्छा किया कुछ कमी अपनी वफ़ाओं में भी थी तुम से क्या कहते कि तुम ने क्या किया क्या बताऊँ कौन था जिस ने मुझे इस भरी दुनिया में है तन्हा किया " jiinaa-mushkil-hai-ki-aasaan-zaraa-dekh-to-lo-javed-akhtar-ghazals," जीना मुश्किल है कि आसान ज़रा देख तो लो लोग लगते हैं परेशान ज़रा देख तो लो फिर मुक़र्रिर कोई सरगर्म सर-ए-मिंबर है किस के है क़त्ल का सामान ज़रा देख तो लो ये नया शहर तो है ख़ूब बसाया तुम ने क्यूँ पुराना हुआ वीरान ज़रा देख तो लो इन चराग़ों के तले ऐसे अँधेरे क्यूँ है तुम भी रह जाओगे हैरान ज़रा देख तो लो तुम ये कहते हो कि मैं ग़ैर हूँ फिर भी शायद निकल आए कोई पहचान ज़रा देख तो लो ये सताइश की तमन्ना ये सिले की परवाह कहाँ लाए हैं ये अरमान ज़रा देख तो लो " hamaare-shauq-kii-ye-intihaa-thii-javed-akhtar-ghazals," हमारे शौक़ की ये इंतिहा थी क़दम रक्खा कि मंज़िल रास्ता थी बिछड़ के डार से बन बन फिरा वो हिरन को अपनी कस्तूरी सज़ा थी कभी जो ख़्वाब था वो पा लिया है मगर जो खो गई वो चीज़ क्या थी मैं बचपन में खिलौने तोड़ता था मिरे अंजाम की वो इब्तिदा थी मोहब्बत मर गई मुझ को भी ग़म है मिरे अच्छे दिनों की आश्ना थी जिसे छू लूँ मैं वो हो जाए सोना तुझे देखा तो जाना बद-दुआ' थी मरीज़-ए-ख़्वाब को तो अब शिफ़ा है मगर दुनिया बड़ी कड़वी दवा थी " dukh-ke-jangal-men-phirte-hain-kab-se-maare-maare-log-javed-akhtar-ghazals," दुख के जंगल में फिरते हैं कब से मारे मारे लोग जो होता है सह लेते हैं कैसे हैं बेचारे लोग जीवन जीवन हम ने जग में खेल यही होते देखा धीरे धीरे जीती दुनिया धीरे धीरे हारे लोग वक़्त सिंघासन पर बैठा है अपने राग सुनाता है संगत देने को पाते हैं साँसों के उक्तारे लोग नेकी इक दिन काम आती है हम को क्या समझाते हो हम ने बे-बस मरते देखे कैसे प्यारे प्यारे लोग इस नगरी में क्यूँ मिलती है रोटी सपनों के बदले जिन की नगरी है वो जानें हम ठहरे बंजारे लोग " main-paa-sakaa-na-kabhii-is-khalish-se-chhutkaaraa-javed-akhtar-ghazals," मैं पा सका न कभी इस ख़लिश से छुटकारा वो मुझ से जीत भी सकता था जाने क्यूँ हारा बरस के खुल गए आँसू निथर गई है फ़ज़ा चमक रहा है सर-ए-शाम दर्द का तारा किसी की आँख से टपका था इक अमानत है मिरी हथेली पे रक्खा हुआ ये अँगारा जो पर समेटे तो इक शाख़ भी नहीं पाई खुले थे पर तो मिरा आसमान था सारा वो साँप छोड़ दे डसना ये मैं भी कहता हूँ मगर न छोड़ेंगे लोग उस को गर न फुन्कारा " ye-mujh-se-puuchhte-hain-chaaragar-kyuun-javed-akhtar-ghazals," ये मुझ से पूछते हैं चारागर क्यूँ कि तू ज़िंदा तो है अब तक मगर क्यूँ जो रस्ता छोड़ के मैं जा रहा हूँ उसी रस्ते पे जाती है नज़र क्यूँ थकन से चूर पास आया था उस के गिरा सोते में मुझ पर ये शजर क्यूँ सुनाएँगे कभी फ़ुर्सत में तुम को कि हम बरसों रहे हैं दर-ब-दर क्यूँ यहाँ भी सब हैं बेगाना ही मुझ से कहूँ मैं क्या कि याद आया है घर क्यूँ मैं ख़ुश रहता अगर समझा न होता ये दुनिया है तो मैं हूँ दीदा-वर क्यूँ " dard-kuchh-din-to-mehmaan-thahre-javed-akhtar-ghazals," दर्द कुछ दिन तो मेहमाँ ठहरे हम ब-ज़िद हैं कि मेज़बाँ ठहरे सिर्फ़ तन्हाई सिर्फ़ वीरानी ये नज़र जब उठे जहाँ ठहरे कौन से ज़ख़्म पर पड़ाव किया दर्द के क़ाफ़िले कहाँ ठहरे कैसे दिल में ख़ुशी बसा लूँ मैं कैसे मुट्ठी में ये धुआँ ठहरे थी कहीं मस्लहत कहीं जुरअत हम कहीं इन के दरमियाँ ठहरे " main-khud-bhii-sochtaa-huun-ye-kyaa-meraa-haal-hai-javed-akhtar-ghazals," मैं ख़ुद भी सोचता हूँ ये क्या मेरा हाल है जिस का जवाब चाहिए वो क्या सवाल है घर से चला तो दिल के सिवा पास कुछ न था क्या मुझ से खो गया है मुझे क्या मलाल है आसूदगी से दल के सभी दाग़ धुल गए लेकिन वो कैसे जाए जो शीशे में बाल है बे-दस्त-ओ-पा हूँ आज तो इल्ज़ाम किस को दूँ कल मैं ने ही बुना था ये मेरा ही जाल है फिर कोई ख़्वाब देखूँ कोई आरज़ू करूँ अब ऐ दिल-ए-तबाह तिरा क्या ख़याल है " khulaa-hai-dar-pa-tiraa-intizaar-jaataa-rahaa-javed-akhtar-ghazals," खुला है दर प तिरा इंतिज़ार जाता रहा ख़ुलूस तो है मगर ए'तिबार जाता रहा किसी की आँख में मस्ती तो आज भी है वही मगर कभी जो हमें था ख़ुमार जाता रहा कभी जो सीने में इक आग थी वो सर्द हुई कभी निगाह में जो था शरार जाता रहा अजब सा चैन था हम को कि जब थे हम बेचैन क़रार आया तो जैसे क़रार जाता रहा कभी तो मेरी भी सुनवाई होगी महफ़िल में मैं ये उमीद लिए बार बार जाता रहा " ye-tasallii-hai-ki-hain-naashaad-sab-javed-akhtar-ghazals," ये तसल्ली है कि हैं नाशाद सब मैं अकेला ही नहीं बर्बाद सब सब की ख़ातिर हैं यहाँ सब अजनबी और कहने को हैं घर आबाद सब भूल के सब रंजिशें सब एक हैं मैं बताऊँ सब को होगा याद सब सब को दा'वा-ए-वफ़ा सब को यक़ीं इस अदाकारी में हैं उस्ताद सब शहर के हाकिम का ये फ़रमान है क़ैद में कहलाएँगे आज़ाद सब चार लफ़्ज़ों में कहो जो भी कहो उस को कब फ़ुर्सत सुने फ़रियाद सब तल्ख़ियाँ कैसे न हूँ अशआ'र में हम पे जो गुज़री हमें है याद सब " zaraa-mausam-to-badlaa-hai-magar-pedon-kii-shaakhon-par-nae-patton-ke-aane-men-abhii-kuchh-din-lagenge-javed-akhtar-ghazals," ज़रा मौसम तो बदला है मगर पेड़ों की शाख़ों पर नए पत्तों के आने में अभी कुछ दिन लगेंगे बहुत से ज़र्द चेहरों पर ग़ुबार-ए-ग़म है कम बे-शक पर उन को मुस्कुराने में अभी कुछ दिन लगेंगे कभी हम को यक़ीं था ज़ो'म था दुनिया हमारी जो मुख़ालिफ़ है तो हो जाए मगर तुम मेहरबाँ हो हमें ये बात वैसे याद तो अब क्या है लेकिन हाँ इसे यकसर भुलाने में अभी कुछ दिन लगेंगे जहाँ इतने मसाइब हों जहाँ इतनी परेशानी किसी का बेवफ़ा होना है कोई सानेहा क्या बहुत माक़ूल है ये बात लेकिन इस हक़ीक़त तक दिल-ए-नादाँ को लाने में अभी कुछ दिन लगेंगे कोई टूटे हुए शीशे लिए अफ़्सुर्दा-ओ-मग़्मूम कब तक यूँ गुज़ारे बे-तलब बे-आरज़ू दिन तो इन ख़्वाबों की किर्चें हम ने पलकों से झटक दीं पर नए अरमाँ सजाने में अभी कुछ दिन लगेंगे तवहहुम की सियह शब को किरन से चाक कर के आगही हर एक आँगन में नया सूरज उतारे मगर अफ़्सोस ये सच है वो शब थी और ये सुरज है ये सब को मान जाने में अभी कुछ दिन लगेंगे पुरानी मंज़िलों का शौक़ तो किस को है बाक़ी अब नई हैं मंज़िलें हैं सब के दिल में जिन के अरमाँ बना लेना नई मंज़िल न था मुश्किल मगर ऐ दिल नए रस्ते बनाने में अभी कुछ दिन लगेंगे अँधेरे ढल गए रौशन हुए मंज़र ज़मीं जागी फ़लक जागा तो जैसे जाग उट्ठी ज़िंदगानी मगर कुछ याद-ए-माज़ी ओढ़ के सोए हुए लोगों को लगता है जगाने में अभी कुछ दिन लगेंगे " yaad-use-bhii-ek-adhuuraa-afsaana-to-hogaa-javed-akhtar-ghazals," याद उसे भी एक अधूरा अफ़्साना तो होगा कल रस्ते में उस ने हम को पहचाना तो होगा डर हम को भी लगता है रस्ते के सन्नाटे से लेकिन एक सफ़र पर ऐ दिल अब जाना तो होगा कुछ बातों के मतलब हैं और कुछ मतलब की बातें जो ये फ़र्क़ समझ लेगा वो दीवाना तो होगा दिल की बातें नहीं है तो दिलचस्प ही कुछ बातें हों ज़िंदा रहना है तो दिल को बहलाना तो होगा जीत के भी वो शर्मिंदा है हार के भी हम नाज़ाँ कम से कम वो दिल ही दिल में ये माना तो होगा " gam-hote-hain-jahaan-zehaanat-hotii-hai-javed-akhtar-ghazals," ग़म होते हैं जहाँ ज़ेहानत होती है दुनिया में हर शय की क़ीमत होती है अक्सर वो कहते हैं वो बस मेरे हैं अक्सर क्यूँ कहते हैं हैरत होती है तब हम दोनों वक़्त चुरा कर लाते थे अब मिलते हैं जब भी फ़ुर्सत होती है अपनी महबूबा में अपनी माँ देखें बिन माँ के लड़कों की फ़ितरत होती है इक कश्ती में एक क़दम ही रखते हैं कुछ लोगों की ऐसी आदत होती है " jism-damaktaa-zulf-ghanerii-rangiin-lab-aankhen-jaaduu-javed-akhtar-ghazals," जिस्म दमकता, ज़ुल्फ़ घनेरी, रंगीं लब, आँखें जादू संग-ए-मरमर, ऊदा बादल, सुर्ख़ शफ़क़, हैराँ आहू भिक्षु-दानी, प्यासा पानी, दरिया सागर, जल गागर गुलशन ख़ुशबू, कोयल कूकू, मस्ती दारू, मैं और तू ब़ाँबी नागिन, छाया आँगन, घुंघरू छन-छन, आशा मन आँखें काजल, पर्बत बादल, वो ज़ुल्फ़ें और ये बाज़ू रातें महकी, साँसें दहकी, नज़रें बहकी, रुत लहकी सप्न सलोना, प्रेम खिलौना, फूल बिछौना, वो पहलू तुम से दूरी, ये मजबूरी, ज़ख़्म-ए-कारी, बेदारी, तन्हा रातें, सपने क़ातें, ख़ुद से बातें, मेरी ख़ू " kabhii-kabhii-main-ye-sochtaa-huun-ki-mujh-ko-terii-talaash-kyuun-hai-javed-akhtar-ghazals," कभी कभी मैं ये सोचता हूँ कि मुझ को तेरी तलाश क्यूँ है कि जब हैं सारे ही तार टूटे तो साज़ में इर्तिआ'श क्यूँ है कोई अगर पूछता ये हम से बताते हम गर तो क्या बताते भला हो सब का कि ये न पूछा कि दिल पे ऐसी ख़राश क्यूँ है उठा के हाथों से तुम ने छोड़ा चलो न दानिस्ता तुम ने तोड़ा अब उल्टा हम से तो ये न पूछो कि शीशा ये पाश पाश क्यूँ है अजब दो-राहे पे ज़िंदगी है कभी हवस दिल को खींचती है कभी ये शर्मिंदगी है दिल में कि इतनी फ़िक्र-ए-मआ'श क्यूँ है न फ़िक्र कोई न जुस्तुजू है न ख़्वाब कोई न आरज़ू है ये शख़्स तो कब का मर चुका है तो बे-कफ़न फिर ये लाश क्यूँ है " khvaab-ke-gaanv-men-pale-hain-ham-javed-akhtar-ghazals," ख़्वाब के गाँव में पले हैं हम पानी छलनी में ले चले हैं हम छाछ फूंकें कि अपने बचपन में दूध से किस तरह जले हैं हम ख़ुद हैं अपने सफ़र की दुश्वारी अपने पैरों के आबले हैं हम तू तो मत कह हमें बुरा दुनिया तू ने ढाला है और ढले हैं हम क्यूँ हैं कब तक हैं किस की ख़ातिर हैं बड़े संजीदा मसअले हैं हम " pyaas-kii-kaise-laae-taab-koii-javed-akhtar-ghazals," प्यास की कैसे लाए ताब कोई नहीं दरिया तो हो सराब कोई ज़ख़्म-ए-दिल में जहाँ महकता है इसी क्यारी में था गुलाब कोई रात बजती थी दूर शहनाई रोया पी कर बहुत शराब कोई दिल को घेरे हैं रोज़गार के ग़म रद्दी में खो गई किताब कोई कौन सा ज़ख़्म किस ने बख़्शा है इस का रक्खे कहाँ हिसाब कोई फिर मैं सुनने लगा हूँ इस दिल की आने वाला है फिर अज़ाब कोई शब की दहलीज़ पर शफ़क़ है लहू फिर हुआ क़त्ल आफ़्ताब कोई " main-kab-se-kitnaa-huun-tanhaa-tujhe-pataa-bhii-nahiin-javed-akhtar-ghazals," मैं कब से कितना हूँ तन्हा तुझे पता भी नहीं तिरा तो कोई ख़ुदा है मिरा ख़ुदा भी नहीं कभी ये लगता है अब ख़त्म हो गया सब कुछ कभी ये लगता है अब तक तो कुछ हुआ भी नहीं कभी तो बात की उस ने कभी रहा ख़ामोश कभी तो हँस के मिला और कभी मिला भी नहीं कभी जो तल्ख़-कलामी थी वो भी ख़त्म हुई कभी गिला था हमें उन से अब गिला भी नहीं वो चीख़ उभरी बड़ी देर गूँजी डूब गई हर एक सुनता था लेकिन कोई हिला भी नहीं " kal-jahaan-diivaar-thii-hai-aaj-ik-dar-dekhiye-javed-akhtar-ghazals," कल जहाँ दीवार थी है आज इक दर देखिए क्या समाई थी भला दीवाने के सर देखिए पुर-सुकूँ लगती है कितनी झील के पानी पे बत पैरों की बे-ताबियाँ पानी के अंदर देखिए छोड़ कर जिस को गए थे आप कोई और था अब मैं कोई और हूँ वापस तो आ कर देखिए ज़ेहन-ए-इंसानी इधर आफ़ाक़ की वुसअत उधर एक मंज़र है यहाँ अंदर कि बाहर देखिए अक़्ल ये कहती दुनिया मिलती है बाज़ार में दिल मगर ये कहता है कुछ और बेहतर देखिए " sach-ye-hai-be-kaar-hamen-gam-hotaa-hai-javed-akhtar-ghazals," सच ये है बे-कार हमें ग़म होता है जो चाहा था दुनिया में कम होता है ढलता सूरज फैला जंगल रस्ता गुम हम से पूछो कैसा आलम होता है ग़ैरों को कब फ़ुर्सत है दुख देने की जब होता है कोई हमदम होता है ज़ख़्म तो हम ने इन आँखों से देखे हैं लोगों से सुनते हैं मरहम होता है ज़ेहन की शाख़ों पर अशआर आ जाते हैं जब तेरी यादों का मौसम होता है " kin-lafzon-men-itnii-kadvii-itnii-kasiilii-baat-likhuun-javed-akhtar-ghazals," किन लफ़्ज़ों में इतनी कड़वी इतनी कसीली बात लिखूँ शे'र की मैं तहज़ीब बना हूँ या अपने हालात लिखूँ ग़म नहीं लिक्खूँ क्या मैं ग़म को जश्न लिखूँ क्या मातम को जो देखे हैं मैं ने जनाज़े क्या उन को बारात लिखूँ कैसे लिखूँ मैं चाँद के क़िस्से कैसे लिखूँ मैं फूल की बात रेत उड़ाए गर्म हवा तो कैसे मैं बरसात लिखूँ किस किस की आँखों में देखे मैं ने ज़हर बुझे ख़ंजर ख़ुद से भी जो मैं ने छुपाए कैसे वो सदमात लिखूँ तख़्त की ख़्वाहिश लूट की लालच कमज़ोरों पर ज़ुल्म का शौक़ लेकिन उन का फ़रमाना है मैं इन को जज़्बात लिखूँ क़ातिल भी मक़्तूल भी दोनों नाम ख़ुदा का लेते थे कोई ख़ुदा है तो वो कहाँ था मेरी क्या औक़ात लिखूँ अपनी अपनी तारीकी को लोग उजाला कहते हैं तारीकी के नाम लिखूँ तो क़ौमें फ़िरक़े ज़ात लिखूँ जाने ये कैसा दौर है जिस में जुरअत भी तो मुश्किल है दिन हो अगर तो उस को लिखूँ दिन रात अगर हो रात लिखूँ " kis-liye-kiije-bazm-aaraaii-javed-akhtar-ghazals," किस लिए कीजे बज़्म-आराई पुर-सुकूँ हो गई है तंहाई फिर ख़मोशी ने साज़ छेड़ा है फिर ख़यालात ने ली अंगड़ाई यूँ सुकूँ-आश्ना हुए लम्हे बूँद में जैसे आए गहराई इक से इक वाक़िआ' हुआ लेकिन न गई तेरे ग़म की यकताई कोई शिकवा न ग़म न कोई याद बैठे बैठे बस आँख भर आई ढलकी शानों से हर यक़ीं की क़बा ज़िंदगी ले रही है अंगड़ाई " ye-duniyaa-tum-ko-raas-aae-to-kahnaa-javed-akhtar-ghazals," ये दुनिया तुम को रास आए तो कहना न सर पत्थर से टकराए तो कहना ये गुल काग़ज़ हैं ये ज़ेवर हैं पीतल समझ में जब ये आ जाए तो कहना बहुत ख़ुश हो कि उस ने कुछ कहा है न कह कर वो मुकर जाए तो कहना बदल जाओगे तुम ग़म सुन के मेरे कभी दिल ग़म से घबराए तो कहना धुआँ जो कुछ घरों से उठ रहा है न पूरे शहर पर छाए तो कहना " shahr-ke-dukaan-daaro-kaarobaar-e-ulfat-men-suud-kyaa-ziyaan-kyaa-hai-tum-na-jaan-paaoge-javed-akhtar-ghazals," शहर के दुकाँ-दारो कारोबार-ए-उल्फ़त में सूद क्या ज़ियाँ क्या है तुम न जान पाओगे दिल के दाम कितने हैं ख़्वाब कितने महँगे हैं और नक़्द-ए-जाँ क्या है तुम न जान पाओगे कोई कैसे मिलता है फूल कैसे खिलता है आँख कैसे झुकती है साँस कैसे रुकती है कैसे रह निकलती है कैसे बात चलती है शौक़ की ज़बाँ क्या है तुम न जान पाओगे वस्ल का सुकूँ क्या है हिज्र का जुनूँ क्या है हुस्न का फ़ुसूँ क्या है इश्क़ का दरूँ क्या है तुम मरीज़-ए-दानाई मस्लहत के शैदाई राह-ए-गुम-रहाँ क्या है तुम न जान पाओगे ज़ख़्म कैसे फलते हैं दाग़ कैसे जलते हैं दर्द कैसे होता है कोई कैसे रोता है अश्क क्या है नाले क्या दश्त क्या है छाले क्या आह क्या फ़ुग़ाँ क्या है तुम न जान पाओगे ना-मुराद दिल कैसे सुब्ह-ओ-शाम करते हैं कैसे ज़िंदा रहते हैं और कैसे मरते हैं तुम को कब नज़र आई ग़म-ज़दों की तन्हाई ज़ीस्त बे-अमाँ क्या है तुम न जान पाओगे जानता हूँ मैं तुम को ज़ौक़-ए-शाएरी भी है शख़्सियत सजाने में इक ये माहरी भी है फिर भी हर्फ़ चुनते हो सिर्फ़ लफ़्ज़ सुनते हो उन के दरमियाँ क्या है तुम न जान पाओगे " nigal-gae-sab-kii-sab-samundar-zamiin-bachii-ab-kahiin-nahiin-hai-javed-akhtar-ghazals," निगल गए सब की सब समुंदर ज़मीं बची अब कहीं नहीं है बचाते हम अपनी जान जिस में वो कश्ती भी अब कहीं नहीं है बहुत दिनों बा'द पाई फ़ुर्सत तो मैं ने ख़ुद को पलट के देखा मगर मैं पहचानता था जिस को वो आदमी अब कहीं नहीं है गुज़र गया वक़्त दिल पे लिख कर न जाने कैसी अजीब बातें वरक़ पलटता हूँ मैं जो दिल के तो सादगी अब कहीं नहीं है वो आग बरसी है दोपहर में कि सारे मंज़र झुलस गए हैं यहाँ सवेरे जो ताज़गी थी वो ताज़गी अब कहीं नहीं है तुम अपने क़स्बों में जा के देखो वहाँ भी अब शहर ही बसे हैं कि ढूँढते हो जो ज़िंदगी तुम वो ज़िंदगी अब कहीं नहीं है " abhii-zamiir-men-thodii-sii-jaan-baaqii-hai-javed-akhtar-ghazals," अभी ज़मीर में थोड़ी सी जान बाक़ी है अभी हमारा कोई इम्तिहान बाक़ी है हमारे घर को तो उजड़े हुए ज़माना हुआ मगर सुना है अभी वो मकान बाक़ी है हमारी उन से जो थी गुफ़्तुगू वो ख़त्म हुई मगर सुकूत सा कुछ दरमियान बाक़ी है हमारे ज़ेहन की बस्ती में आग ऐसी लगी कि जो था ख़ाक हुआ इक दुकान बाक़ी है वो ज़ख़्म भर गया अर्सा हुआ मगर अब तक ज़रा सा दर्द ज़रा सा निशान बाक़ी है ज़रा सी बात जो फैली तो दास्तान बनी वो बात ख़त्म हुई दास्तान बाक़ी है अब आया तीर चलाने का फ़न तो क्या आया हमारे हाथ में ख़ाली कमान बाक़ी है " mujh-ko-yaqiin-hai-sach-kahtii-thiin-jo-bhii-ammii-kahtii-thiin-javed-akhtar-ghazals," मुझ को यक़ीं है सच कहती थीं जो भी अम्मी कहती थीं जब मेरे बचपन के दिन थे चाँद में परियाँ रहती थीं एक ये दिन जब अपनों ने भी हम से नाता तोड़ लिया एक वो दिन जब पेड़ की शाख़ें बोझ हमारा सहती थीं एक ये दिन जब सारी सड़कें रूठी रूठी लगती हैं एक वो दिन जब आओ खेलें सारी गलियाँ कहती थीं एक ये दिन जब जागी रातें दीवारों को तकती हैं एक वो दिन जब शामों की भी पलकें बोझल रहती थीं एक ये दिन जब ज़ेहन में सारी अय्यारी की बातें हैं एक वो दिन जब दिल में भोली-भाली बातें रहती थीं एक ये दिन जब लाखों ग़म और काल पड़ा है आँसू का एक वो दिन जब एक ज़रा सी बात पे नदियाँ बहती थीं एक ये घर जिस घर में मेरा साज़-ओ-सामाँ रहता है एक वो घर जिस घर में मेरी बूढ़ी नानी रहती थीं " dil-men-mahak-rahe-hain-kisii-aarzuu-ke-phuul-javed-akhtar-ghazals," दिल में महक रहे हैं किसी आरज़ू के फूल पलकों पे खिलने वाले हैं शायद लहू के फूल अब तक है कोई बात मुझे याद हर्फ़ हर्फ़ अब तक मैं चुन रहा हूँ किसी गुफ़्तुगू के फूल कलियाँ चटक रही थीं कि आवाज़ थी कोई अब तक समाअतों में हैं इक ख़ुश-गुलू के फूल मेरे लहू का रंग है हर नोक-ए-ख़ार पर सहरा में हर तरफ़ हैं मिरी जुस्तुजू के फूल दीवाने कल जो लोग थे फूलों के इश्क़ में अब उन के दामनों में भरे हैं रफ़ू के फूल " suukhii-tahnii-tanhaa-chidiyaa-phiikaa-chaand-javed-akhtar-ghazals," सूखी टहनी तन्हा चिड़िया फीका चाँद आँखों के सहरा में एक नमी का चाँद उस माथे को चूमे कितने दिन बीते जिस माथे की ख़ातिर था इक टीका चाँद पहले तू लगती थी कितनी बेगाना कितना मुबहम होता है पहली का चाँद कम हो कैसे इन ख़ुशियों से तेरा ग़म लहरों में कब बहता है नद्दी का चाँद आओ अब हम इस के भी टुकड़े कर लें ढाका रावलपिंडी और दिल्ली का चाँद " ham-ne-dhuunden-bhii-to-dhuunden-hain-sahaare-kaise-javed-akhtar-ghazals," हम ने ढूँडें भी तो ढूँडें हैं सहारे कैसे इन सराबों पे कोई उम्र गुज़ारे कैसे हाथ को हाथ नहीं सूझे वो तारीकी थी आ गए हाथ में क्या जाने सितारे कैसे हर तरफ़ शोर उसी नाम का है दुनिया में कोई उस को जो पुकारे तो पुकारे कैसे दिल बुझा जितने थे अरमान सभी ख़ाक हुए राख में फिर ये चमकते हैं शरारे कैसे न तो दम लेती है तू और न हवा थमती है ज़िंदगी ज़ुल्फ़ तिरी कोई सँवारे कैसे " na-khushii-de-to-kuchh-dilaasa-de-javed-akhtar-ghazals," न ख़ुशी दे तो कुछ दिलासा दे दोस्त जैसे हो मुझ को बहला दे आगही से मिली है तन्हाई आ मिरी जान मुझ को धोका दे अब तो तकमील की भी शर्त नहीं ज़िंदगी अब तो इक तमन्ना दे ऐ सफ़र इतना राएगाँ तो न जा न हो मंज़िल कहीं तो पहुँचा दे तर्क करना है गर तअ'ल्लुक़ तो ख़ुद न जा तू किसी से कहला दे " shukr-hai-khairiyat-se-huun-saahab-javed-akhtar-ghazals," शुक्र है ख़ैरियत से हूँ साहब आप से और क्या कहूँ साहब अब समझने लगा हूँ सूद-ओ-ज़ियाँ अब कहाँ मुझ में वो जुनूँ साहब ज़िल्लत-ए-ज़ीस्त या शिकस्त-ए-ज़मीर ये सहूँ मैं कि वो सहूँ साहब हम तुम्हें याद करते रो लेते दो-घड़ी मिलता जो सुकूँ साहब शाम भी ढल रही है घर भी है दूर कितनी देर और मैं रुकूँ साहब अब झुकूँगा तो टूट जाऊँगा कैसे अब और मैं झुकूं साहब कुछ रिवायात की गवाही पर कितना जुर्माना मैं भरूँ साहब " mere-dil-men-utar-gayaa-suuraj-javed-akhtar-ghazals," मेरे दिल में उतर गया सूरज तीरगी में निखर गया सूरज दर्स दे कर हमें उजाले का ख़ुद अँधेरे के घर गया सूरज हम से वा'दा था इक सवेरे का हाए कैसा मक्र गया सूरज चाँदनी अक्स चाँद आईना आईने में सँवर गया सूरज डूबते वक़्त ज़र्द था उतना लोग समझे कि मर गया सूरज " yaqiin-kaa-agar-koii-bhii-silsila-nahiin-rahaa-javed-akhtar-ghazals," यक़ीन का अगर कोई भी सिलसिला नहीं रहा तो शुक्र कीजिए कि अब कोई गिला नहीं रहा न हिज्र है न वस्ल है अब इस को कोई क्या कहे कि फूल शाख़ पर तो है मगर खिला नहीं रहा ख़ज़ाना तुम न पाए तो ग़रीब जैसे हो गए पलक पे अब कोई भी मोती झिलमिला नहीं रहा बदल गई है ज़िंदगी बदल गए हैं लोग भी ख़ुलूस का जो था कभी वो अब सिला नहीं रहा जो दुश्मनी बख़ील से हुई तो इतनी ख़ैर है कि ज़हर उस के पास है मगर पिला नहीं रहा लहू में जज़्ब हो सका न इल्म तो ये हाल है कोई सवाल ज़ेहन को जो दे जला नहीं रहा " dil-kaa-har-dard-kho-gayaa-jaise-javed-akhtar-ghazals," दिल का हर दर्द खो गया जैसे मैं तो पत्थर का हो गया जैसे दाग़ बाक़ी नहीं कि नक़्श कहूँ कोई दीवार धो गया जैसे जागता ज़ेहन ग़म की धूप में था छाँव पाते ही सो गया जैसे देखने वाला था कल उस का तपाक फिर से वो ग़ैर हो गया जैसे कुछ बिछड़ने के भी तरीक़े हैं ख़ैर जाने दो जो गया जैसे " hamaare-dil-men-ab-talkhii-nahiin-hai-javed-akhtar-ghazals," हमारे दिल में अब तल्ख़ी नहीं है मगर वो बात पहले सी नहीं है मुझे मायूस भी करती नहीं है यही आदत तिरी अच्छी नहीं है बहुत से फ़ाएदे हैं मस्लहत में मगर दिल की तो ये मर्ज़ी नहीं है हर इक की दास्ताँ सुनते हैं जैसे कभी हम ने मोहब्बत की नहीं है है इक दरवाज़े बिन दीवार-ए-दुनिया मफ़र ग़म से यहाँ कोई नहीं है " saarii-hairat-hai-mirii-saarii-adaa-us-kii-hai-javed-akhtar-ghazals," सारी हैरत है मिरी सारी अदा उस की है बे-गुनाही है मिरी और सज़ा उस की है मेरे अल्फ़ाज़ में जो रंग है वो उस का है मेरे एहसास में जो है वो फ़ज़ा उस की है शेर मेरे हैं मगर इन में मोहब्बत उस की फूल मेरे हैं मगर बाद-ए-सबा उस की है इक मोहब्बत की ये तस्वीर है दो रंगों में शौक़ सब मेरा है और सारी हया उस की है हम ने क्या उस से मोहब्बत की इजाज़त ली थी दिल-शिकन ही सही पर बात बजा उस की है एक मेरे ही सिवा सब को पुकारे है कोई मैं ने पहले ही कहा था ये सदा उस की है ख़ून से सींची है मैं ने जो ज़मीं मर मर के वो ज़मीं एक सितम-गर ने कहा उस की है उस ने ही इस को उजाड़ा है इसे लूटा है ये ज़मीं उस की अगर है भी तो क्या उस की है " jab-aaiina-koii-dekho-ik-ajnabii-dekho-javed-akhtar-ghazals," जब आईना कोई देखो इक अजनबी देखो कहाँ पे लाई है तुम को ये ज़िंदगी देखो मोहब्बतों में कहाँ अपने वास्ते फ़ुर्सत जिसे भी चाहे वो चाहे मिरी ख़ुशी देखो जो हो सके तो ज़ियादा ही चाहना मुझ को कभी जो मेरी मोहब्बत में कुछ कमी देखो जो दूर जाए तो ग़म है जो पास आए तो दर्द न जाने क्या है वो कम्बख़्त आदमी देखो उजाला तो नहीं कह सकते इस को हम लेकिन ज़रा सी कम तो हुई है ये तीरगी देखो " vo-zamaana-guzar-gayaa-kab-kaa-javed-akhtar-ghazals," वो ज़माना गुज़र गया कब का था जो दीवाना मर गया कब का ढूँढता था जो इक नई दुनिया लूट के अपने घर गया कब का वो जो लाया था हम को दरिया तक पार अकेले उतर गया कब का उस का जो हाल है वही जाने अपना तो ज़ख़्म भर गया कब का ख़्वाब-दर-ख़्वाब था जो शीराज़ा अब कहाँ है बिखर गया कब का " ham-to-bachpan-men-bhii-akele-the-javed-akhtar-ghazals," हम तो बचपन में भी अकेले थे सिर्फ़ दिल की गली में खेले थे इक तरफ़ मोर्चे थे पलकों के इक तरफ़ आँसुओं के रेले थे थीं सजी हसरतें दुकानों पर ज़िंदगी के अजीब मेले थे ख़ुद-कुशी क्या दुखों का हल बनती मौत के अपने सौ झमेले थे ज़ेहन ओ दिल आज भूके मरते हैं उन दिनों हम ने फ़ाक़े झेले थे " misaal-is-kii-kahaan-hai-koii-zamaane-men-javed-akhtar-ghazals," मिसाल इस की कहाँ है कोई ज़माने में कि सारे खोने के ग़म पाए हम ने पाने में वो शक्ल पिघली तो हर शय में ढल गई जैसे अजीब बात हुई है उसे भुलाने में जो मुंतज़िर न मिला वो तो हम हैं शर्मिंदा कि हम ने देर लगा दी पलट के आने में लतीफ़ था वो तख़य्युल से ख़्वाब से नाज़ुक गँवा दिया उसे हम ने ही आज़माने में समझ लिया था कभी इक सराब को दरिया पर इक सुकून था हम को फ़रेब खाने में झुका दरख़्त हवा से तो आँधियों ने कहा ज़ियादा फ़र्क़ नहीं झुकने टूट जाने में " ._ham-ko-mitaa-sake-ye-zamaane-men-dam-nahiin-jigar-moradabadi-ghazals, ._tum-apne-shikve-kii-baaten-na-khod-khod-ke-puuchho-mirza-ghalib-ghazals, ._har-ek-baat-pe-kahte-ho-tum-ki-tuu-kyaa-hai-mirza-ghalib-ghazals, ._ye-na-thii-hamaarii-qismat-ki-visaal-e-yaar-hotaa-mirza-ghalib-ghazals, ._aaj-yuun-mauj-dar-mauj-gam-tham-gayaa-is-tarah-gam-zadon-ko-qaraar-aa-gayaa-faiz-ahmad-faiz-ghazals-1, ._aflaak-se-aataa-hai-naalon-kaa-javaab-aakhir-allama-iqbal-ghazals, ._tang-aa-chuke-hain-kashmakash-e-zindagii-se-ham-sahir-ludhianvi-ghazals, ._mir-taqi-mir-ghazals-80,