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बाश बहन।। कृष्णा ने जल्दी से चाय चढ़ा दिया और फ्रिज से मटर निकाला जो कि सुबह कृष्णा ने छिल कर रखें थे। और फिर जल्दी से चुरा मटर तैयार करने लगी। उधर आनंदी बड़े ही प्यार से पौधों को पानी दे दिया। अनु नीचे आ गई और रसोई में आकर बोली कृष्णा अब केक बनाना है सारा सामान निकाल कर अच्छे से बना लें ना, और उसके बाद रात के खाने में क्या बनेगा याद है ? कृष्णा बोली हां मैम सब याद है। अनु ने हंस कर कहा गुड।। फिर अनु अपने सहेलियों से फोन पर बात करने लगी और बोली अमर तो एयरपोर्ट गए हैं अपने बेटी को लेने। तभी राजू आकर बोला अरे मां पापा कब से फोन कर रहे हैं आप को। अनु बोली अच्छा क्या बोले। राजू बोला बस अभी रीतू दीदी को लेकर निकल गए। अनु बोली अच्छा एक घंटे तक पहुंच जाएंगे। राजू बोला हां। अनु बोली अरे आनंदी साफ सफाई कर दे जल्दी ,तू यहां पढ़ने नहीं आती है हां।। आनंदी ने कहा हां मैम कर दिया सब। अनु फिर बोली चल जूते पोलिश कर दे। राजू ये सुनकर बोला क्या मां ये सब आनंदी क्यों करेगी? अनु गुस्से से लाल हो गई और बोली राजू तू अपने कमरे में जा। अब शाम हो चुकी थी और अमर रीतू को लेकर घर पहुंच गए। रीतू बहुत ही खूबसूरत , खुश मिजाज जिन्दा दिल लड़की है लंदन में ही अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद वही नौकरी करती थी। रीतू आकर ही बोली अरे मम्मी क्या बात है क्या खाने की खुशबू आ रही है ये तो कृष्णा वाई के हाथ का बना है। ये सुनकर कृष्णा रसोई घर से बाहर निकल कर बोली हां बेबी कैसी हो।? रीतू बोली अच्छी हुं अरे मेरी होनहार छात्रा कहां है? आनंदी ने कहा नमस्ते दीदी । रीतू बोली अरे आनंदी इस बार तो मैं तुझे ले जाऊंगी।। अनु बोली अच्छा बाकी बातें बाद में करना अब अपने कमरे में जाकर कर तैयार हो जा।सब साथ में नाश्ता करेंगे। कृष्णा वाई ने कहा हम अब चलते हैं। अनु बोली सब कुछ ठीक से कर दिया कोई भी काम छूट तो नहीं गया। कृष्णा बोली हां मैंने केक भी सजा दिया और खाना भी टेबल पर लगा दिया है। अनु बोली रात का खाना लेकर जाना। कृष्णा बोली हां ले लिया है। फिर आनंदी और कृष्णा चली गई। रीतू बोली मम्मी मैं रात को दिखाती हुं लंदन से क्या क्या लाई हुं। अनु बोली अच्छा ठीक है अब नाश्ता कर लो । रीतू बोली नाश्ता में क्या है ? अनु बोली चुरा मटर । रीतू बोली अरे वाह जल्दी दो ना। फिर सब ने मिलकर कर नाश्ता किया और फिर टी वी देखने लगे। उधर कृष्णा घर पहुंच कर थोड़ा बहुत काम समेट कर आनंदी को बोली चल खाना खा ले। आनंदी ने कहा हां मां,चलो पर एक बात बताओ रीतू दीदी क्या सचमुच मुझे ले जाएंगी? । कृष्णा ने समझाया और कहा ना बाबा इतना सपना मत देख जो पुरा ना हो। आनंदी ने कहा मुझे भरोसा है खुद पर और रीतू दीदी पर। अगर मैं गई तो तुम रह लोगी ना। कृष्णा बोली हां बाबा मेरी गुड़िया । उधर राजू के घर में सब एक साथ खाने बैठे हैं। रीतू बोली मम्मी आज तो मेरा मनपसंद डिश बना है जो कि मैंने पहले ही देख लिया। अनु ने कहा हां बेटा । इतने दिनों बाद सुकुन से खा ले। राजू बोला दीदी आप आनंदी के लिए कुछ सोच रही है। रीतू बोली अरे सोचना क्या वो तो जाएगी मेरे साथ। मैंने वहां के सबसे अच्छे स्कूल में बात भी कर लिया और उसे तो सब सोच को स्कलर सिप मिल जाएंगा। अगर एक छोटी सी कोशिश से किसी का भला हो सकता है तो फिर क्या बात। अनु बोली अरे बेटा उसकी जिम्मेदारी तू क्यों लेगी भला कहीं कुछ हो गया तो। रीतू बोली अरे मम्मी आज मैं कुछ बन पाई हुं तो सिर्फ कृष्णा वाई की वजह से आपको तो याद होगा ना किस तरह कृष्णा वाई इस परिवार को सम्हाल कर रखी थी।आप तो उन दिनों कितने टूर में जाती थी और मेरे परिक्षा के वक्त राजू छोटा था आनंदी को साथ लेकर कर कृष्णा वाई ने किसी तरह मुझे पढ़ने के लिए उत्साहित किया करती थी और समय से खिलाना सुलाना सब करती थी । मुझे पढ़ाई के समय कोई भी शोर पसंद नहीं था तो कृष्णा वाई ने राजू को आनंदी को लेकर घर का सारा काम किया करती थी। और आज जब मुझे मौका मिला है गुड़िया के लिए कुछ करने का तो मैं पीछे नहीं हट सकती हुं। अनु बोली अच्छा ठीक है तुझे जो सही लगे वहीं कर। फिर सब खाने के बाद रीतू के लाये हुए तोहफा देखने लगे। अनु बोली थैंक्स बेटा बैग बहुत अच्छा है। राजू ने कहा थैंक यू दी मोबाइल के लिए। फिर सब गुड नाईट बोल कर सोने चले गए। दूसरे दिन रीतू रोज की तरह योगा और सैर से हो कर आई। तभी कृष्णा और आनंदी आ गए। रीतू बोली कृष्णा वाई आपके लिए एक बैग और एक घड़ी लाई हुं। आईये आपको दिखाती हुं। कृष्णा बहुत खुश हुई। रीतू बोली गुड़िया के लिए एक काम की चीज लाई हुं। आनंदी ने कहा क्या दीदी ? तभी रीतू ने अलमारी से एक बैग, घड़ी और लैपटॉप निकाल कर कृष्णा वाई को बैग, घड़ी दिया और लैपटॉप आनंदी को दिया। आनंदी देख कर रोने लगी। कृष्णा वाई ने कहा अरे बेबी ये बहुत महंगा सामान दिया है। रीतू हंस क
र कहा हां पर आनंदी से ज्यादा महंगी नहीं है कृष्णा वाई। कृष्णा ये सुनकर रोने लगी। रीतू तुरन्त बोली अरे आप रोरिये मत। जल्दी से एक चाय पिलाओ। कृष्णा बोली हां अभी बनाती हुं। ये देख राजू खुश हो गया और बोला आनंदी अब खिटपिट करेंगी। आनंदी ने कहा दादा आप भी। अनु ने कहा अब बहुत हुआ बातचीत आनंदी राजू को जूस दे दो । आनंदी ने कहा हां मैम ,बस अभी लाती हूं। और फिर कृष्णा वाई और आनंदी का काम शुरू हो गया। अनु बोली जल्दी जल्दी नाश्ता बना दे हम लोगों को बहार निकलना है। कृष्णा वाई ने कहा हां मैम आलू का पराठा बना दिया और साथ में दाल तरका । अनु बोली आज दोपहर का खाना मत बना। आज सारा साफ सफाई कर दे। कृष्णा वाई ने कहा हां मैम कर देती हुं । फिर सब खाने की टेबल पर गर्म गर्म आलू का पराठा खाने लगे और फिर अमर बोले मेरा हो गया मैं तो निकलता हूं। अनु बोली अच्छा ठीक है पर जल्दी डाईबर को भेज देना। अमर बोले हां। फिर कुछ देर बाद राजू का भी स्कूल बस आ गया और वो भी चला गया। रीतू बोली आनंदी आ तुझे लैपटॉप सिखा दु। आनंदी ने कहा हां दीदी जरूर। इधर कृष्णा ने सारे बंगले की सफाई कर दिया और वो किरन मैम के घर चली गई। किरन के घर पहुंच कर चार बातें सुनकर कृष्णा ने मन बना लिया कि अब ये काम छोड़कर राजू के घर पुरे समय के लिए काम करेगी। फिर सारा काम करने के बाद कृष्णा ने कहा किरन मैम मैं अब काम नहीं कर पाऊंगी।। किरन ने कहा अरे अब क्या हुआ। कृष्णा वाई ने कहा जो एक इन्सान को इन्सान नहीं समझते है वहां काम नहीं करना है।बोल कर कृष्णा निकल गई। फिर वापस राजु के घर पहुंच कर बोली मैम क्या कुछ और काम है।? अनु बोली नहीं और तो कुछ काम नहीं है बस तू शाम को जल्दी से आना । कृष्णा ने तभी आनंदी को आवाज लगाई। और फिर आनंदी आ कर बोली हां मां क्या हुआ? कृष्णा बोली कि चल फिर घर चलते हैं।कह कर दोनों घर के लिए निकल गए। घर पहुंच कर ही कृष्णा वाई रीतू का दिया हुआ तोहफा देखने लगी और बोली रीतू बेबी ने कितना अच्छा तोहफा दिया है। आनंदी ने कहा हां मां दीदी तो दुर्गा है। पता है मां- मुझे तो दीदी ने लैपटॉप से ही लंदन के एक स्कूल में दाखिला लेने के लिए फार्म भरना सिखाया। कृष्णा वाई ने कहा अच्छा -बहुत ही भाग्यशाली हैं तू जो रीतू दीदी इतना कर रही है तेरे लिए, वरना आजकल कहा कोई अपना भी नहीं कर पाता है। भगवान उसका भला करे। कृष्णा बोली अच्छा चल आलू का पराठा खा ले। फिर दोनों रोज की तरह खा कर सो गए। फिर शाम हो चुकी थी और दोनों फिर राजू के घर पहुंच गए।तो देखा कि अनु मैम की सहेलियां आई थी। कृष्णा वाई बोली मैम चाय बना लूं। अनु बोली हां, साथ में पकौड़े कटलेट स्वीट कार्न सब तल लें। कृष्णा वाई बोली हां अभी करती हुं। और फिर जल्दी से नाश्ता तैयार करने लगी कटलेट के लिए आलू को उबालने गैस पर रख दिया और प्याज के पकौड़े तलने लगी और सबको चाय और नाश्ता दे दिया । अनु की सहेलियां सब बड़े चाव से खाने लगे और तारीफ भी कर दिया। रीतू बोली अरे गुड़िया तू चल मेरे रूम में। आनंदी ने कहा हां-हां दीदी। फिर रीतू ने आनंदी का लैपटॉप निकाला और आनंदी को कहा कि तू चालू कर लैपटॉप। आनंदी ने झट से चालू कर दिया और फिर रीतू ने जैसे -जैसे अंग्रेजी में टाइप करने को कहा ,वैसे ही आनंदी भी टाइप करती जा रही थी और फिर आनंदी का दाखिला फार्म सबमिट हो गया और वो भी लंदन में। आनंदी को खुशी का ठिकाना न रहा।वो रीतू के पैर छूकर आशीर्वाद लिया। रीतू बोली तेरा हर सपना पूरा हो। आनंदी ने कहा हां दीदी। फिर आनंदी ने रीतू का रूम अच्छी तरह से ठीक कर दिया । और फिर आनंदी नीचे आ कर रसोई में चली गई और बोली मां कुछ काम करना है। कृष्णा ने कहा नहीं रे सब हो गया अब हमलोगो को चलना चाहिए। कृष्णा बोली मैम सब टेबल पर रख दिया। अब चलती हुं। अनु बोली अच्छा ठीक है, खाना ले लिया। कृष्णा बोली हां मैम,ले लिया है।ये कह कर कृष्णा और आनंदी बहार निकल गए। घर जाते समय आनंदी ने सारी बात बताई । कृष्णा बोली अच्छा तो सब ठीक हो।आनंदी ने कहा हां मां अब वहां से ज़बाब आ गया तो मैं तो उड़ गई समझो। कृष्णा बोली हां मैम बन जा तू। फिर दोनों हंसने लगे और घर पहुंच गए। कृष्णा बोली आनंदी तू परदेश जाकर मां को भुल गई तो। आनंदी ने कहा अरे मां मैं तुमको भी वहां ले जाऊंगी। कृष्णा बोली अच्छा चल अब जल्दी से खाना खा ले। आनंदी ने कहा हां मां चलो। फिर दोनों खाना खाने बैठे। आनंदी को छोले भटूरे बहुत पसंद थे और जैसे ही थाली में भटूरे देख कर बोली अरे वाह !मां क्या मस्त छोले भटूरे बना है। फिर खाना खाने के बाद कृष्णा घर का सारा काम कर के सोने गई तो देखा आनंदी पढ़ रही है। कुछ देर बाद दोनों सो गए। फिर सुबह हो गई और फिर आनंदी ने कहा मां आज लेट हो गया चलों जल्दी। कृष्णा वाई ने कहा हां चलो । फिर दोनों राजू के घर पहुंच गई और कृष्णा रसोई घर में
जाकर चाय बनाने लगी। अनु बोली आज तो सात बजा दिया।अब जल्दी जल्दी से नाश्ता में कचौड़ी और इमली की चटनी बना दे। कृष्णा वाई ने कहा हां मैम आज आंख नहीं खुली ,तो इसलिए लेट हो गया। आप टेंशन मत किजिए मैं सब जल्दी से कर देती हूं। अनु बोली अच्छा आनंदी तू छत से कपड़े लेकर इस्त्री कर और सबके अलमारी में लगा दे। रीतू बोली अरे !मम्मी क्या तुम आनंदी से सब मत करवाओ ।वो इस्त्री वाला तो है चौराहे पर। अनु बोली अरे बाबा वो दुकान नहीं लगाया है। रीतू बोली जो आज जरूरत के कपड़े है मैं इस्री कर दुंगी। कृष्णा वाई जल्दी जल्दी नाश्ता बना रही थी। फिर सबको चाय भी पिलाई। रीतू बोली वाह क्या चाय बना है। और फिर आनंदी ने कहा कि दीदी वहां से कुछ ज़बाब आया क्या ? रीतू ने कहा नहीं अभी तक नहीं पर तुमको सिलेब्स बता देंती हुं।रूक अभी कचौड़ी खाकर चलते हैं। आनंदी ने कहा हां दीदी ठीक है। रीतू बड़े मन से कचौड़ी खा कर ऊपर अपने कमरे में आनंदी को लेकर आ गई और रीतू ने लैपटॉप निकाल कर आनंदी को सारा विवरण नोट करवाया और फिर समझाया कि कैसे ज़बाब देना होगा। इधर कृष्णा वाई ने सब खाना बना कर टेबल में लगा दिया और आनंदी को आवाज लगाई घर चलने के लिए कहा ,क्योंकि तीन बज रहे थे। आनंदी भी मां की आवाज़ से नीचे आ गई और बोली हां मां चलो। कृष्णा ने मन में बोला अनु मैम फोन पर ही बात कर रही है इसलिेए कृष्णा ने रीतू ने कहा बेबी हम जा रहे हैं। रीतू बोली कृष्णा वाई खाना लिया न?कृष्णा वाई बोली हां ले लिया है और आप लोगों का भी टेबल पर लगा दिया। फिर दोनों अपने घर पहुंच गए। कृष्णा ने कहा आज बहुत थकावट हो गई। आनंदी ने कहा हां, मां तुम आराम करो मैं खाना परोसती हुं। और फिर आनंदी ने खाना परोसा और दोनों खाकर कर सो गए। फिर शाम को कृष्णा वाई और आनंदी समय से पहले राजू के घर पहुंच गए। देखा तो घर में राजू के दादाजी , चाचा-चाची सब आए है। आनंदी ने कहा कि सब लोग आए हैं क्योंकि कहा कल दादा का जन्मदिन है। कृष्णा वाई ने कहा अरे हां,याद नहीं रहा। अनु बोली अच्छा हुआ जल्दी आ गई । पहले सबके लिए चाय बना और फिर रात के खाने में पुरी , आलू मटर की रससेदार सब्जी बना दे। कृष्णा वाई ने कहा हां मैम अभी सब करती हुं । आनंदी बोली अरे दादा कल तो आप का विशेष दिन है। राजू बोला हां मेरी गुड़िया। रीतू बोली अरे आनंदी तू मेरे कमरे में चल तो कुछ काम है। आनंदी रीतू के साथ उसके कमरे में गई। अनु फोन पर ही सबको कल रात की पार्टी में आने के लिए कहा रही थी। क्योंकि आज कल सबकुछ फोन पर ही हो जाता है। दादाजी और चाचा-चाची सब बैठ कर बातचीत कर रहे थे। कृष्णा ने सबको चाय, नाश्ता कराया। फिर कृष्णा का सब काम हो गया और वह आनंदी को लेकर चली गई। घर पहुंच कर आनंदी ने कहा मां आज दीदी ने मुझे अंग्रेजी में बात करना सिखाया। कृष्णा बोली अच्छा ठीक है चल जल्दी खा कर सो जाते हैं कल जल्दी जाना होगा। आनंदी ने कहा हां मां चलो । फिर दोनों का खाना खा कर सो जाते हैं। फिर सुबह उठकर कर तैयार हो कर दोनों राजू के घर पहुंच जाते हैं। गेट से ही सजावट गाना बजाना सब शुरू हो गया था। आनंदी ये देख खुश हो गई और बोली मां देख कितना अच्छा सज गया दादा का बंगला।। फिर अन्दर पहुंच कर ही कृष्णा राजू को बोली जन्मदिन पर बधाई बाबा। राजू ने कहा कृष्णा वाई धन्यवाद आपका। आनंदी बोली दादा तुम जियो हजारों साल।। राजू बोला हां मेरी गुड़िया । अनु बोली अच्छा चल ,अब जल्दी से नाश्ता तैयार कर दो।महेमान आने वाले हैं। कृष्णा वाई बोली हां मैम बस अभी करती हुं। राजू बोला कृष्णा वाई के हाथ की बनी खीर सबसे पहले खाऊंगा। कृष्णा ने कहा हां राजू बाबा याद है सबसे पहले दूध ही खौलाने जा रही हुं। अनु बोली हां किचन में मैंने दोपहर के लंच का मेनू कार्ड रख दिया ।देख लेना।कृष्णा ने कहा हां मैम, मैं अभी देखती हूं। फिर कृष्णा ने चाय बना कर टेबल पर रख दिया और फिर नाश्ते में मेनू कार्ड देखकर वाटी चोखा की तैयारी करने लगी। और साथ ही खीर भी तैयार करने लगी। फिर कृष्णा ने सबको बड़े मन से गरम - गरम वाटी चोखा खिला दिया। सब वाह! वाह कर रहे थे। राजू बोला हां कृष्णा वाई के हाथ में जादू है। लंच भी तैयार हो गया था फिर कृष्णा ने एक, एक करके सारा खाना बना कर टेबल पर लगा दिया और बोली कि आज राजू बाबा का जन्मदिन है इसलिए मैं सबको खाना परोसा देती हुं। अमर बोले हां कृष्णा तुम तो हमेशा से करती हो। राजू नये पोशाक में आ कर बैठ गए। और कृष्णा ने सबसे पहले राजू के लिए एक चांदी की कटोरी में खीर और फिर पुरा थाली सजाकर गरमा -गरम खाना परोसा और फिर बाकी के महेमानो को भी भोजन परोस दिया। सब बड़े मन से खाना खाने लगे और कृष्णा रसोई का बाकी सारा काम कर दिया। अनु बोली अरे सुन कृष्णा रात को पार्टी है तो तुम लोगों की छुट्टी। ये सुन कर सब अनु को देखने लगे। राजू बोला क्या
मां आज भी ऐसा बोलेगी। कृष्णा वाई और आनंदी को पूरा हक है पार्टी में शामिल होने का। अमर बोले हां ठीक कहा। आज सबके साथ खुशियां मनानी चाहिए। अनु बोली, अच्छा चल ठीक है कुछ ढंग के कपड़े पहन लेना । आनंदी को बहुत बुरा लगा और वो कुछ बोलने जा रही थी । तभी रीतू बोली आनंदी आ मेरे साथ। रीतू आनंदी को ऊपर ले गई और उसने अलमारी से दो पैकेट निकाल कर आनंदी को दिया और कहा ले शाम की पार्टी के लिए गुड़िया तेरा और कृष्णा बाई के कपड़े मैं लाई हुं ।आनंदी ने कहा धन्यवाद आपका। फिर आनंदी वह पैकेट ले कर नीचे रसोई में आकर कर मां को दिया और बोली ये दीदी ने दिया। कृष्णा वाई ने पैकेट ले कर अपने बैग में रख दिया। उधर पुरे घर को रंग-बिरंगी रोशनी वाली लाइट से सजाया जा रहा था। फिर कृष्णा वाई ने कहा मैम हम चलते हैं। अनु बोली अच्छा ठीक है खाना लिया है। कृष्णा बोली हां मैम ले लिया । और फिर कृष्णा और आनंदी चली गई। अनु बोली अरे अमर वो छत पर सब सजावट हो रहा है ना और डी जे भी चेक कर लेना हां। अमर बोले हां मैं सब कुछ देख रहा हु।तुम परेशान मत हो। राजू को उसके दादाजी ने एक किताब दिया राजू ने खोल कर देखा और कहा दादाजी थैंक यू।फिर चाचा चाची ने एक मोबाइल फोन दिया। राजू मोबाइल फोन देख कर बोला अरे वाह! फिर रीतू ने राजू को एक सफारी सूट दिया। राजू सारा तोहफा लेकर अपने कमरे में चला गया। और अलमारी में रख दिया। उधर कृष्णा वाई और आनंदी रास्ते में ये सोच रहे थे कि राजू को क्या उपहार दे।आनंदी बोली मां मुझे दादा के लिए कुछ तोफा लेना है। कृष्णा बोली हां ,मैं घर जाती हुं तू कुछ ले कर आ। आनंदी ने कुछ पैसे लिए और अजय गिफ्ट शाप में गई। आनंदी को एक फोटो फ्रेम पसंद आया और उसने पैक करने को कहा। फिर पैक करवा कर पैसे देकर घर पहुंच गई।घर आकर बोली मां खाना दे दो भुख लगी है फिर कृष्णा और आनंदी खाने लगे। आनंदी बोली मां कितना कुछ बनाई थी बताओ तो। कृष्णा हंस कर बोली हां ज़रूर कह कर बताने लगी। कबाब, पुलाव, आलू दम, कचौड़ी,मटर पकौड़ी,दाल मखानी, कलोंजी, खीर ।बस यही सब बना था। आनंदी बोली मां सुनकर ही पेट भर गया बहुत।कृष्णा बोली हां ठीक है मन से खा ले। फिर दोनों का खाना खा कर सो गए। उधर राजू का बंगला बहुत ही अच्छा सज गया था। फुलों की लड़ियां और रंग-बिरंगी लाइट की मालाओं से सजा था। सब अपने अपने कमरे में तैयार हो रहे थे। अनु तो तैयार होने पार्लर गई थी। रीतू तो तैयार हो गई और उधर राजू भी तैयार था। राजू के दादाजी व चाचा-चाची सब तैयार हो कर नीचे आ गए। फिर एक एक करके राजू के दोस्त आने लगे।सारे तोहफा लाकर राजू को दे रहे थे और जन्मदिन की हार्दिक शुभकामनाएं दे रहे थे। कुछ देर में अनु भी सज संवर कर आ गई और अपने सहेलियों का इन्तजार करने लगी। तभी अनु की सहेलियां भी आने लगी। सब एक -एक करके राजू को तोहफा दे रही थी। कृष्णा और आनंदी भी जल्दी से तैयार हो गई रीतू ने जो साड़ी और सूट दिया था। दोनो वहीं पहने थे। आनंदी खुशी से झूम उठी और फिर बोली मां देख रीतू दीदी ने कितना अच्छा तोहफा दिया है। गुलाबी रंग का सूट, दीदी को सब पता है कि मुझे गुलाबी रंग पसन्द है। कृष्णा बोली हां बचपन से ही बेबी तुझे बहुत प्यार करती थी। तुमको वो कभी भी एक नौकरानी की बेटी नहीं समझा। अच्छा चल राजू के घर चलते हैं।फिर आनंदी ने राजू के लिए जो तोहफा खरीदा था वो लेकर राजू के घर पहुंच गई। आनंदी मन में मुस्कुरा कर बोली राजू दादा का बंगला कितना अच्छा लग रहा है। कृष्णा अन्दर जाकर राजू को बोली जन्मदिन की बधाई बाबा। राजू ने कहा कृष्णा वाई धन्यवाद आपका। आनंदी ने तोहफा देते हुए कहा दादा तुम जियो हजारों साल। राजू बोला धन्यवाद आनंदी। खाने पीने की व्यवस्था पार्क पर किया गया था और सारी सजावट बहुत अच्छा लग रहा था। फिर राजू के लिए बहुत बड़ा सा केक आ गया। और राजू ने केक काट और सबको खिलाया। राजू ने आनंदी को भी केक खिलाया । आनंदी ने कहा दादा धन्यवाद। फिर अनु ने कृष्णा से कहा कि केक सबको दे दो। फिर कृष्णा ने एक बड़े ट्रे में केक लेकर सब के पास जाकर केक दे दिया। राजू के दोस्त लोग नाचने लगे सब बहुत मज़े कर रहे थे। फिर अनु ने सबको डिनर के लिए कहा। राजू के दोस्तों ने जाकर खाना शुरू किया। अमर ने और मेहमानों को भी खाना के लिए कहा फिर धीरे धीरे सब खा कर जाने लगे। राजू के दोस्त खाना खा कर सब चले गए। रीतू की कुछ सहेलियां आई थी वो सब खाना खा कर जाने लगी। क्योंकि रात भी काफी हो गया था। सबके खाने के बाद कृष्णा और आनंदी खाने के लिए गए। रीतू बोली अरे आनंदी इतने देर बाद खाने जा रही हो कहा थी तुम? आनंदी ने कहा यही तो थी। अनु बोली अरे मैंने ही कहा था तुम लोगों बाद में खाना खाने जाना जब सारे मेहमान खा कर चले जाएं। रीतू बोली अरे मम्मी आज तो ये नियम नहीं लागू कर सकती थी आज तो राजू का जन्मदिन था। औ
र आज सब मेहमान ही है। अनु बोली हां ठीक है कृष्णा अब जाकर आराम से खाना खा ले।कृष्णा बोली हां मैम। आनंदी और कृष्णा जाकर खाना खाने लगे। वहां पर सिर्फ वो लोग थे जिन्होंने ये सजावट करवाया था।वो लोग भी खाना खा रहे थे। राजू ये सब देख कर बहुत ही मायूस हुआ और अपने कमरे में चला गया। फिर अनु ने आनंदी को कहा सुन ये सारे तोहफा राजू के कमरे में रख दें। आनंदी ने कहा हां मैम मैं सब रख देती हूं। फिर आनंदी और रीतू मिल कर सारा तोहफा राजू के कमरे में रख दिया और फिर आनंदी और कृष्णा अपने घर चले गए। रात को राजू ने एक- एक करके सारा तोहफा खोला तो किसी ने गेम दिया तो किसी ने सजावट का सामान दिया तो कोई पेन डायरी दिया। राजू को सारे तोहफ़ों में आनंदी का दिया फोटो फ्रेम बहुत पसन्द आया। और उसने सोचा कि कोई अच्छी फोटो लगा कर अपने कमरे में सजायेगा। दूसरे दिन सुबह कृष्णा वाई जल्दी से तैयार हो कर राजू के घर पहुंच गई। कृष्णा ने आनंदी की तबीयत ठीक ना होने की वजह से उसको घर पर रहने की सलाह दी । कृष्णा वाई राजू के घर पहुंच कर जल्दी से साफ सफाई करने लगी।अनु बोली अरे आनंदी नहीं आई। कृष्णा बोली नहीं मैम उसकी तबियत ठीक नहीं है।अनु हंस कर बोली जरूर कल ज्यादा ही खा लिया था। कृष्णा कुछ नहीं बोली और काम करने लगी। तभी रीतू नीचे आ कर बोली कृष्णा वाई ओह आनंदी नहीं आई? उसको एक अच्छी खबर देनी थी। कृष्णा बोली अच्छा क्या बात है? रीतू बोली अरे कृष्णा वाई आनंदी को लंदन के स्कूल में दाखिला मिल जायेगा। उसका रेजल्ट इतना अच्छा है। उसे अब मेरे साथ लंदन जाना होगा।कृष्णा सुनकर रोने लगी। रीतू बोली अरे आप रो रही है। कृष्णा वाई बोली हां ये खुशी के आंसु है। राजू भी बहुत खुश हो गया। अनु बोली अच्छा अब नाश्ता बना दे। नाश्ता कुछ हल्का सा बना दो।कृष्णा बोली हां मैम जो आप बोले। अनु ने कहा कि सूजी का हलवा और मठरी बना दे। कृष्णा ने कहा हां मैम बना देती हूं। फिर सब काम करने के बाद कृष्णा अपने घर के लिए निकल गई। घर पहुंच कर देखा कि आनंदी पढ़ रही है। आनंदी ने कहा मां आ गई। कृष्णा वाई बोली हां आनंदी तेरे लिए एक खुशखबरी लाई हुं। आनंदी बोली अरे मां क्या हुआ? कृष्णा बोली तेरा लंदन जाने का सपना पूरा होने वाला है। आनंदी ने कहा अच्छा। कृष्णा ने कहा हां रीतू बेबी ने कहा। आनंदी ने कहा हां दीदी ने सब कर दिया मां। कृष्णा ने कहा हां बेटा वो तो जब पिछले साल आई थी तभी तो तुम्हारा आधार कार्ड ले गई थी और देखो इस साल तुमको ले जाएंगी। दोस्तों इस कहानी को आगे पढ़ने के लिए इसका दूसरा भाग पढ़ना होगा। आज बस यही तक।।
अनासक्ति हो पूर्ण आत्मत्याग है साथ वे तदाकार होकर स्पंदित हो सकें, कभी कभी सैकड़ों वर्ष तक लग सकते हैं । अतएव यह नितान्त सम्भव है कि हमारा यह वायुमण्डल अच्छी और वुरी, दोनों प्रकार की विचार-तरंगों से व्याप्त हो । प्रत्येक मस्तिष्क से निकला हुआ प्रत्येक विचार योग्य आधार प्राप्त हो जाने तक मानो इसी प्रकार भ्रमण करता रहता है । और जो मन इस प्रकार के आवेगों को ग्रहण करने के लिए अपने को उन्मुक्त किये हुए है, वह तुरन्त ही उन्हें अपना लेगा । अतएव जब कोई मनुष्य कोई दुष्कर्म करता है, तो वह अपने मन को किसी एक विशिष्ट सुर में ले आता है; और उसी सुर की जितनी भी तरंगें पहले से ही आकाश में अवस्थित हैं, वे सब उसके मन में घुस जाने की चेष्टा करती हैं। यही कारण है कि एक दुष्कर्मी साधारणतः अधिकाधिक दुष्कर्म करता जाता है। उसके कर्म क्रमशः प्रवलतर होते जाते हैं। यही वात सत्कर्म करनेवाले के लिए भी घटती है; वह अपने को वातावरण की समस्त शुभतरंगों को ग्रहण करने के लिए मानो खोल देता है और इस प्रकार उसके सत्कर्म अधिकाधिक शक्तिसम्पन्न होते जाते हैं। अतएव हम देखते हैं कि दुष्कर्म करने में हमें दो प्रकार का भय है। पहला तो यह कि हम अपने को चारों ओर की अशुभतरंगों के लिए खोल देते हैं; और दूसरा यह कि हम स्वयं ऐसी अशुभ-तरंग का निर्माण कर देते हैं, जिसका प्रभाव दूसरों पर पड़ता है, फिर चाहे वह सैकड़ों वर्ष वाद ही क्यों न हो। दुष्कर्म द्वारा हम केवल अपना ही नहीं, वरन दूसरों का भी अहित करते हैं, और सत्कर्म द्वारा हम अपना तथा दूसरों का भी भला करते हैं। मनुष्य की अन्य शक्तियों के समान ये शुभ और अशुभ शक्तियाँ भी वाहर से वल संचित करती हैं । कर्मयोग के अनुसार, विना फल उत्पन्न किये कोई भी कर्म नष्ट नहीं हो सकता । प्रकृति की कोई भी शक्ति उसे फल उत्पन्न करने से रोक नहीं सकती। यदि में कोई चुरा कर्म करूँ, तो उसका फल मुझे भोगना ही पड़ेगा; विश्व में ऐसी कोई शक्ति नहीं, जो इसे रोक सके । इसी प्रकार, यदि मैं कोई सत्कार्य करूँ, तो विश्व में ऐसी कोई शक्ति नहीं, जो उसके शुभ फल को रोक सके । कारण से कार्य होता ही है; इसे कोई भी रोक नहीं सकता। अब हमारे सामने कर्मयोग के सम्बन्ध में एक सूक्ष्म एवं गम्भीर प्रश्न उपस्थित होता है। हमारे सत् और असत् कर्म आपस में घनिष्ठ रूप से सम्बद्ध हैं; इन दोनों के बीच हम निश्चित रूप से एक रेखा खींचकर यह नहीं बता सकते कि अमुक कार्य नितान्त शुभ है और अमुक अशुभ । ऐसा कोई भी कर्म नहीं है, जो एक ही समय शुभ और अशुभ, दोनों फल न उत्पन्न करे । यही देखो, में तुम लोगों से बात कर रहा हूँ; सम्भवतः तुममें से कुछ लोग सोचते होंगे कि मैं एक भला कार्य कर रहा हूँ । परन्तु साथ ही साथ गायद में हवा में रहनेवाले असंख्य छोटे छोटे कीटाणुओं को भी नष्ट करता जा रहा हूँ । और इस प्रकार एक दृष्टि से मैं बुरा भी कर रहा हूँ । हमारे निकट के लोगों पर, जिन्हें हम जानते हैं, यदि किसी कार्य का प्रभाव शुभ पड़ता है, तो हम उसे शुभ कार्य कहते हैं। उदाहरणार्य, तुम लोग मेरे इस व्याख्यान को अच्छा कहोगे, परन्तु वे कीटाणु ऐसा कभी न कहेंगे। कीटाणुओं को तुम नहीं देख रहे हो, पर अपने आपको देख रहे हो । मेरी वक्तृता का जो प्रभाव तुम पर पड़ता है, वह तुम स्पष्ट देख सकते हो, किन्तु उसका प्रभाव उन कीटाणुओं पर कैसा पड़ता है, यह तुम नहीं जानते। इसी प्रकार यदि हम अपने असत् कर्मों का भी विश्लेषण करें, तो हमें ज्ञात होगा कि सम्भवतः उनसे भी कहीं न कहीं किसी न किसी प्रकार का शुभ फल हुआ है। जो शुभ कर्मों में भी कुछ न कुछ अशुभ तथा अशुभ कर्मों में भी कुछ न कुछ शुभ देखता है, वास्तव में उसीने कर्म का रहस्य समझा है । इससे क्या निष्कर्ष निकलता है ? - यही कि हम चाहे जितना भी प्रयत्न क्यों न करें, ऐसा कोई कर्म नहीं हो सकता, जो सम्पूर्णतः पवित्र हो अथवा सम्पूर्णतः अपवित्र, यदि 'पवित्रता' या 'अपवित्रता' से हमारा तात्पर्य है, अहिंसा या हिंसा विना दूसरों को हानि पहुँचाये हम साँस तक नहीं ले सकते। अपने भोजन का प्रत्येक ग्रास हम किसी दूसरे के मुँह से छीनकर खाते हैं। यहाँ तक कि हमारा अस्तित्व भी दूसरे प्राणियों के जीवन को विनष्ट करके संभव होता है। चाहे मनुष्य हो, पशु हो अथवा कीटाणु, किसी न किसीको हटाकर ही हम अपना अस्तित्व स्थिर रखते हैं । ऐसी दशा में यह स्वाभाविक ही है कि कर्म द्वारा पूर्णता कभी नहीं प्राप्त हो सकती। हम भले ही अनन्त काल तक कर्म करते रहें, परन्तु इस जटिल संसार-व्यूह से कभी छुटकारा नहीं पा सकते। हम चाहे निरन्तर कार्य करते रहें, परन्तु कर्मफलों में इस शुभ और अशुभ के अपरिहार्य साहचर्य का अंत नहीं होगा। दूसरी विचारणीय बात है --- कर्म का क्या उद्देश्य है ? हम देखते हैं कि प्रत्येक देश के अधिकांश व्यक्तियों की यह धारणा है कि एक
समय ऐसा आयेगा, जब यह संसार पूर्णता को प्राप्त हो जायगा; तब यहाँ न तो किसी प्रकार का रंग रहेगा, न शोक, न दुष्टता, न मृत्यु । वैसे तो यह एक बड़ा सुन्दर विचार है और एक अज्ञानी को उदात्त बनाने और प्रोत्साहन देने के लिए बहुत ही अच्छी प्रेरक शक्ति है; परन्तु यदि हम क्षण भर भी ध्यानपूर्वक सोचें, तो हमें सहज ही ज्ञात हो जायगा कि ऐसा कभी नहीं हो सकता। और यह हो भी कैसे सकता है, जब हम जानते हैं कि शुभ और अशुभ एक ही सिक्के के चित और पढ़ हैं ? ऐसा भी कहीं हो सकता है कि शुभ हो और उसके साथ अशुभ न हो ? तब फिर पूर्णता का अर्थ क्या है ? सच पूछा जाय, तो 'पूर्ण जीवन' शब्द ही स्वविरोधात्मक है। जीवन तो हमारे एवं प्रत्येक बाह्य वस्तु के बीच एक प्रकार का निरन्तर संघर्ष है। प्रतिक्षण हम बाह्य प्रकृति से संघर्ष करते रहते हैं, और यदि उसमें हमारी हार हो जाय, तो हमारा जीवन-दीप ही बुझ जाता है। आहार और हवा के लिए निरन्तर चेष्टा का नाम ही है जीवन । यदि हमें भोजन या हवा न मिले, तो हमारी मृत्यु हो जाती है। जीवन कोई आसानी से चलनेवाली सरल चीज़ नहीं है - यह तो एक प्रकार का सम्मिश्रित व्यापार है । वहिर्जगत् और अन्तर्जगत् का घोर संघर्ष ही जीवन कहलाता है। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि जब यह संघर्ष समाप्त हो जायगा, तो जीवन का भी अन्त हो जायगा । आदर्श सुख का अर्थ है - इस संघर्ष का अन्त हो जाना । परन्तु तब तो जीवन का भी अन्त हो जायगा; क्योंकि संघर्ष का अन्त तभी हो सकता है, जब स्वयं जीवन का ही अंत हो जाय । हम यह देख ही चुके हैं कि संसार का उपकार करना अपना. ही उपकार करना है। दूसरों के लिए किये गये कार्य का मुख्य फल है - आत्मशुद्धि। दूसरों के प्रति निरन्तर शुभ करते रहने से हम स्वयं को भूलने का प्रयत्न करते रहते हैं। और यह आत्मविस्मृति ही एक बहुत बड़ी शिक्षा है, जो हमें जीवन में सीखनी है। मनुष्य मूर्खतावश सोचता है कि वह अपने को सुखी बना सकता है, परन्तु वर्षों के घोर संघर्ष के बाद उसकी आँखें खुलती हैं और वह यह अनुभव करता " है कि वास्तविक सुख तो स्वार्थपरता को नष्ट कर देने में है, और सिवा अपने उसे और कोई सुखी नहीं बना सकता । परोपकार का प्रत्येक कार्य, सहानुभूति का प्रत्येक विचार, दूसरों की सहायतार्थ किया गया प्रत्येक कर्म, प्रत्येक शुभ कार्य हमारे क्षुद्र अहंभाव को प्रतिक्षण घटाता रहता है और हममें यह भावना उत्पन्न करता है कि हम न्यूनतम और तुच्छतम हैं; और इसीलिए ये सब कार्य श्रेष्ठ हैं । ज्ञान, भक्ति और कर्म, तीनों इस बिंदु पर मिलते हैं। सर्वोच्च आदर्श है - चिरंतन और सम्पूर्ण आत्मत्याग, जिसमें किसी प्रकार का 'मैं' नहीं, केवल 'तू' ही 'तू' है । हमारे जाने या बिना जाने, कर्मयोग हमें इसी लक्ष्य की ओर ले जाता है। सम्भव है, एक धर्मप्रचारक निर्गुण ईश्वर की बात सुनकर दहल उठे। उसका शायद यही दृढ़ मत हो कि ईश्वर सगुण है, और वह अपने निजत्व, अपने स्वतंत्र व्यक्तित्व कोइस व्यक्तित्व के बारे में उसकी धारणा चाहे जैसी भी हो - क़ायम रखने का इच्छुक हो; परन्तु यदि उसके नीतिविषयक विचार वास्तव में शुद्ध हैं, तो उनका आधार सर्वोच्च आत्मत्याग के अतिरिक्त और कुछ हो ही नहीं सकता। यह सम्पूर्ण आत्मत्याग ही सारी नैतिकता की नींव है। मनुष्य, पशु, देवता सबके लिए यही एक मूल भाव है, जो समस्त नैतिक विधानों में व्याप्त है । इस संसार में हमें कई प्रकार के मनुष्य मिलेंगे। प्रथम तो देव-मानव, जो पूर्ण आत्मत्यागी होते हैं, अपने जीवन की भी वाज़ी लगाकर दूसरों का भला करते हैं । ये सर्वश्रेष्ठ पुरुष हैं। यदि किसी देश में ऐसे सौ मनुष्य भी हों, तो उस देश को फिर किसी बात की चिन्ता नहीं । परन्तु खेद है, ऐसे लोग बहुत-बहुत कम हैं ! दूसरे वे सावु- प्रकृति मनुष्य हैं, जो दूसरों की भलाई तब तक करते हैं, जब तक उनकी स्वयं की कोई हानि न हो; और तीसरे वे आसुरी प्रकृति के लोग हैं, जो अपनी भलाई के लिए दूसरों की हानि तक करने में नहीं हिचकते। एक संस्कृत कवि ने चौथी श्रेणी भी वतायी है, जिसको हम कोई नाम नहीं दे सकते । ये लोग ऐसे होते हैं कि अकारण ही दूसरों का अनिष्ट केवल अनिष्ट करने के लिए ही करते रहते हैं। जिस प्रकार सर्वोच्च स्तर पर साधु-महात्मागण भला करने के लिए ही दूसरों का भला करते रहते हैं, उसी प्रकार सबसे निम्न स्तर पर ऐसे लोग भी हैं, जो केवल बुरा करने के लिए ही दूसरों का बुरा करते रहते हैं। ऐसा करने से उन्हें कोई लाभ नहीं होता - यह तो उनकी प्रकृति ही है। संस्कृत में दो शब्द हैं - प्रवृत्ति और निवृत्ति । प्रवृत्ति का अर्थ है - किसी वस्तु की ओर प्रवर्तन या गमन, और निवृत्ति का अर्थ है - किसी वस्तु से निवर्तन हैया प्रत्यागमन । 'किसी वस्तु की ओर प्रवर्तन का ही अर्थ है, हमारा यह संसारयह 'मैं' और 'मेरा' । इस 'मैं' को धन-सम्पत्ति, प्रभुत्व,
नाम-यश द्वारा सर्वदा बढ़ाने का यत्न करना, जो कुछ मिले, उसीको पकड़ रखना, सारे समय सभी वस्तुओं को इस "मैं'-रूपी केन्द्र में ही संगृहीत करना - इसीका नाम है 'प्रवृत्ति' । यह प्रवृत्ति ही मनुष्य मात्र का स्वाभाविक भाव है, - चहुँ ओर से जो कुछ मिले, उसे लेना और सबको एक केन्द्र में एकत्र करते जाना। और वह केन्द्र है, उसका अपना मवुर 'अहं' । जव यह वृत्ति घटने लगती है, जब निवृत्ति का उदय होता है, तभी नैतिकता और धर्म का आरम्भ होता है । 'प्रवृत्ति' और 'निवृत्ति', दोनों ही कर्मस्वरूप हैं । एक असत् कर्म है और दूसरा सत् । निवृत्ति ही सारी नैतिकता एवं सारे धर्म की -नींव है; और इसकी पूर्णता ही सम्पूर्ण 'आत्मत्याग' है, जिसके प्राप्त हो जाने पर मनुष्य दूसरों के लिए अपना शरीर, मन, यहाँ तक कि अपना सर्वस्व निछावर कर देता है। तभी मनुष्य को कर्मयोग में सिद्धि प्राप्त होती है । सत्कार्यों का यही सर्वोच्च फल है। किसी मनुष्य ने चाहे एक भी दर्शनशास्त्र न पढ़ा हो, किसी प्रकार के ईश्वर में विश्वास न किया हो और न करता हो, चाहे उसने अपने जीवन भर में एक बार भी प्रार्थना न की हो, परन्तु केवल सत्कार्यो की शक्ति द्वारा उस अवस्था में पहुँच गया है, जहाँ वह दूसरों के लिए अपना जीवन और सब कुछ उत्सर्ग करने को तैयार रहता है, तो हमें समझना चाहिए कि वह उसी लक्ष्य को पहुँच गया है, जहां भक्त अपनी उपासना द्वारा तथा दार्शनिक अपने ज्ञान द्वारा पहुँचता है। इस प्रकार तुम देखते हो कि ज्ञानी, कर्मी और भक्त, तीनों एक ही स्थान पर पहुँचते हैं; और वह स्थान है - आत्मत्याग । लोगों के दर्शन और धर्म में कितना ही भेद क्यों न हो, जो व्यक्ति अपना जीवन दूसरों के लिए अर्पित करने को उद्यत रहता है, उसके प्रति समग्र मानवता श्रद्धा और भक्ति से नत हो जाती है। यहाँ किसी प्रकार के मत या संप्रदाय का प्रश्न नहीं, यहाँ तक कि वे लोग भी, जो धर्म सम्बन्धी समस्त विचारों के विरुद्ध हैं, जब इस प्रकार का सम्पूर्ण आत्मत्यागपूर्ण कोई कार्य देखते हैं, तो उसके प्रति श्रद्धानत हुए बिना नहीं रह सकते । क्या तुमने यह नहीं देखा, एक कट्टर मतान्ध ईसाई भी जब एडविन आर्नल्ड के 'एशिया की ज्योति' (Light of Asia) नामक ग्रंथ को पढ़ता है, तो वह भी उस बुद्ध के प्रति किस प्रकार श्रद्धानत हो जाता है, जिन्होंने किसी ईश्वर का उपदेश नहीं किया, आत्मत्याग के अतिरिक्त जिन्होंने अन्य किसी भी बात का प्रचार नहीं किया ? इसका कारण केवल यह है कि मतान्ध व्यक्ति यह नहीं जानता कि उसका स्वयं का जीवन-लक्ष्य और उन लोगों का जीवन-लक्ष्य, जिन्हें वह अपना विरोधी समझता है, विल्कुल एक ही है। एक उपासक अपने हृदय में निरन्तर ईश्वरी भाव एवं साधु भाव रखते हुए अन्त में उसी एक स्थान पर पहुँचता है और कहता है, "प्रभो, तेरी इच्छा पूर्ण हो ।" वह अपने निमित्त कुछ भी बचा नहीं रखता । यही आत्मत्याग है । एक ज्ञानी भी अपने ज्ञान द्वारा देखता है कि उसका यह तथाकथित भासमान 'अहं' केवल एक भ्रम है; और इस तरह वह उसे बिना किसी हिचकिचाहट के त्याग देता है। यह भी आत्मत्याग के अतिरिक्त और कुछ नहीं है । अतएव हम देखते हैं कि कर्म, भक्ति और ज्ञान, तीनों यहाँ पर आकर मिल जाते हैं। प्राचीन काल के बड़े बड़े धर्मप्रचारकों ने जब हमें यह सिखाया था कि 'ईश्वर जगत् से भिन्न है, जगत् से परे है, तो असल में उसका मर्म यही था । जगत् एक चीज़ है और ईश्वर दूसरी; और यह भेद बिल्कुल सत्य है । जगत् से उनका तात्पर्य है स्वार्थपरता । स्वार्थशून्यता ही ईश्वर है । एक मनुष्य चाहे रत्नखचित सिंहासन पर आसीन हो, सोने के महल में रहता हो, परन्तु यदि वह पूर्ण रूप से स्वार्थरहित है, तो वह ब्रह्म में ही स्थित है। परन्तु एक दूसरा मनुष्य चाहे झोपड़ी में ही क्यों न रहता हो चिथड़े क्यों न पहनता हो, सर्वथा दीन-हीन ही क्यों न हो, पर यदि वह स्वार्थी है, तो हम कहेंगे कि वह संसार में घोर रूप से डूवा हुआ है। हाँ, तो हम यह कह रहे थे कि बिना कुछ बुरा किये हम न तो भला कर सकते हैं और न बिना कुछ भला किये बुरा ही । तो अब प्रश्न यह है कि यह जानते हुए हम किस प्रकार कर्म करें ? अतः इस संसार में अनेक ऐसे भी सम्प्रदाय हुए हैं, जिन्होंने अद्भुत अनर्गलतापूर्वक यह शिक्षा दी कि धीरे धीरे आत्महत्या कर लेना ही इस संसार से निस्तार पाने का एकमात्र उपाय है, क्योंकि, मनुष्य यदि जीवित रहता है, तो अनेक छोटे छोटे जन्तुओं और पौधों का नाश करके, अथवा अन्य किसी न किसीका कुछ न कुछ अनिष्ट करके ही । इसीलिए उनके मतानुसार इस संसार- चक्र से छूटने का एकमात्र उपाय है मृत्यु ! जैनियों ने अपने सर्वोच्च आदर्श के रूप में इसीका प्रचार किया है। यह शिक्षा बड़ी तर्कसंगत प्रतीत होती है। परन्तु इसका यथार्थ समाधान गीता में मिलता है। और वह है अनासक्ति-अपने जीवन के समस्त कार्य कर
ते हुए भी किसीमें आसक्त न होना । यह जान लो कि संसार में होते हुए भी तुम संसार से नितान्त पृथक् हो और यहाँ तुम जो भी कर रहे हो, वह अपने लिए नहीं है। यदि कोई कार्य तुम अपने लिए करोगे, तो उसका फल तुम्हें ही भोगना पड़ेगा। यदि वह सत्कार्य है, तो तुम्हें उसका अच्छा फल मिलेगा और यदि बुरा है, तो बुरा । परन्तु कोई भी कार्य हो, यदि तुम वह अपने लिए नहीं करते, तो उसका प्रभाव तुम पर नहीं पड़ेगा। इस भाव को स्पष्ट करने के लिए हमारे शास्त्रों में बड़े सुन्दर ढंग से कहा है, 'यदि किसीमें यह बोध रहे कि मैं इसे अपने लिए विल्कुल नहीं कर रहा हूँ, तो फिर वह चाहे समस्त संसार की हत्या ही क्यों न कर डाले (अथवा स्वयं ही क्यों न ह्त हो जाय), वास्तव में वह न तो हत्या करता है और न हत ही होता है। इसीलिए कर्मयोग हमें शिक्षा देता है, 'संसार को मत छोड़ो, संसार में ही रहो; जितना चाहो, सांसारिक भाव ग्रहण करो। परन्तु यदि यह अपने ही भोग के निमित्त हो, तो फिर तुम्हारा कर्म करना व्यर्थ है।' तुम्हारा लक्ष्य भोग नहीं होना चाहिए। पहले अहंभाव को नष्ट कर डालो, और फिर समस्त संसार को आत्मस्वरूप देखो, जैसा प्राचीन ईसाई कहा करते थे उस बूढ़े आदमी को मरना ही चाहिए।' इस वूढ़े आदमी का अर्थ है, यह स्वार्थपर भाव कि यह संसार हमारे ही भोग के लिए बना है। अज्ञ माता-पिता अपने बच्चे को यह प्रार्थना करने की शिक्षा देते हैं, "हे प्रभो, तूने यह सूर्य और चन्द्रमा मेरे लिए हो बनाये हैं," मानो उस ईश्वर को सिवाय इसके कि वह इन बच्चों के लिए यह सव पैदा करता रहे और कोई काम ही न था ! अपने बच्चों को ऐसी मूर्खतापूर्ण शिक्षा मत दो। फिर एक दूसरे प्रकार के भी मूर्ख लोग हैं, जो हमें सिखाते हैं कि ये सब जानवर हमारे मारने खाने के लिए ही बनाये गये हैं और यह सारा संसार मनुष्य के भोग के लिए है। यह सब निरो मूर्खता है । एक शेर भी कह सकता है कि मनुष्य की उत्पत्ति मेरे हो लिए हुई है और ईश्वर से प्रार्थना कर सकता है, "है प्रभो, मनुष्य कितना दुष्ट है कि वह अपने को मेरे सामने उपस्थित नहीं कर देता, जिससे में उसे खा जाऊँ । देखिए, मनुष्य आपका नियम भंग कर रहा है।" यदि संसार की उत्पत्ति हमारे लिए हुई है, तो हम भी संसार के लिए ही पैदा किये गये हैं । यह वड़ी कुत्सित धारणा है कि यह संसार हमारे भोग के लिए ही बनाया गया है और इसी भयानक धारणा से हम वद्ध रहते हैं। वास्तव में यह संसार हमारे लिए नहीं है। प्रतिवर्ष लाखों लोग इसमें से बाहर चले जाते हैं, परन्तु उधर संसार की कोई नज़र तक नहीं। लाखों फिर आ जाते हैं। संसार जैसे हमारे लिए है, वैसे ही हम भी संसार के लिए हैं । अतएव ठीक ढंग से कर्म करने के लिए यह आवश्यक है कि पहले हम आसक्ति का भाव त्याग दें। दूसरी बात यह है कि हमें स्वयं झंझट में उलझ नहीं जाना चाहिए । अपने को एक साक्षी के समान रखो और अपना काम करते रहो । मेरे गुरुदेव कहा करते थे, "अपने बच्चों के प्रति वही भावना रखो, जो एक धाय की होती है।' वह तुम्हारे बच्चे को गोद में लेती है, उसे खिलाती है और उसको इस प्रकार प्यार करती है, मानो वह उसीका बच्चा हो । पर ज्यों ही तुम उसे काम से अलग कर देते हो, त्यों ही वह अपना बोरा - विस्तर समेट तुरन्त घर छोड़ने को तैयार हो जाती है । उन बच्चों के प्रति उसका जो इतना प्रेम था, उसे वह बिल्कुल भूल जाती है। एक साधारण घाय को तुम्हारे बच्चों को छोड़कर दूसरे के बच्चों को लेने में तनिक भी दुःख न होगा । तुम भी अपने बच्चों के प्रति यही भाव धारण करो । तुम्हीं उनकी धाय हो, - और यदि तुम्हारा ईश्वर में विश्वास है, तो विश्वास करो कि ये सब चीजें, जिन्हें तुम अपनी समझते हो, वास्तव में ईश्वर की हैं । अत्यन्त दुर्बलता कभी कभी बड़ी साधुता और सवलता का रूप धारण कर लेती है। यह सोचना कि मेरे ऊपर कोई निर्भर है तथा मैं किसीका भला कर सकता हूँ, अत्यन्त दुर्बलता का चिह्न है । यह अहंकार ही समस्त आसक्ति की जड़ है, और इस आसक्ति से ही समस्त दुःखों की उत्पत्ति होती है। हमें अपने मन को यह भली भाँति समझा देना चाहिए कि इस संसार में हमारे ऊपर कोई भी निर्भर नहीं है । एक भिखारी भी हमारे दान पर निर्भर नहीं । किसी भी जीव को हमारी दया की आवश्यकता नहीं, संसार का कोई भी प्राणी हमारी सहायता का भूखा नहीं। सबकी सहायता प्रकृति से होती है। यदि हममें से लाखों लोग न भी रहें, तो भी उन्हें सहायता मिलती रहेगी। तुम्हारे-हमारे न रहने से प्रकृति के द्वार वन्द न हो जायेंगे। दूसरों की सहायता करके हम जो स्वयं शिक्षा लाभ कर सक रहे हैं, यही तो हमारे तुम्हारे लिए परम सौभाग्य की बात है । 'जीवन में सीखने योग्य यही सबसे बड़ी बात है । जब हम पूर्ण रूप से इसे सीख लेंगे, तो हम फिर कभी दुःखी न होंगे; तव हम समाज में कहीं भी जाकर उठ बैठ सकते हैं, इससे हमारी कोई हानि न
होगी । तुम्हारे चाहे पति हों, चाहे पत्नियाँ हों, तुम्हारे दल के दल नौकर हों, बड़ा भारी राज्य हो, न गिरे।" बालक शुक ने दूध का प्याला ले लिया और संगीत की ध्वनि एवं अनेक सुन्दरियों के बीच प्रदक्षिणा करने को उठे । राजा की आज्ञानुसार वे सात बार चक्कर लगा आये, परन्तु दूध की एक बूंद भी न गिरी । बालक शुक का अपने मन पर ऐसा संयम था कि बिना उनकी इच्छा के संसार की कोई भी वस्तु उन्हें आकृष्ट नहीं कर सकती थी । प्रदक्षिणा कर चुकने के बाद जब वे दूध का प्याला लेकर राजा के सम्मुख उपस्थित हुए, तो उन्होंने कहा, "वत्स, जो कुछ तुम्हारे पिता ने तुम्हें सिखाया है तथा जो कुछ तुमने स्वयं सीखा है, उसकी पुनरावृत्ति मात्र मैं कर सकता हूँ। तुमने 'सत्य' को जान लिया है, अपने घर वापस जाओ ।' अतएव हमने देखा कि जिस मनुष्य ने स्वयं पर अधिकार प्राप्त कर लिया है, उसके ऊपर बाहर की कोई भी चीज़ अपना प्रभाव नहीं डाल सकती, उसके लिए किसी प्रकार की दासता शेष नहीं रह जाती । उसका मन स्वतंत्र हो जाता है । और केवल ऐसा ही पुरुष संसार में रहने योग्य है । वहुधा हम देखते हैं कि लोगों की संसार के सम्बन्ध में दो प्रकार की धारणाएँ होती हैं। कुछ लोग निराशावादी होते हैं। वे कहते हैं, "संसार कैसा भयानक है, कैसा दुष्ट है !" दूसरे लोग आशावादी होते हैं और कहते हैं, "अहा ! संसार कितना सुन्दर है, कितना अद्भुत है ! जिन लोगों ने अपने मन पर विजय नहीं प्राप्त की है, उनके लिए यह संसार या तो बुराइयों से भरा है, या अधिक से अधिक, अच्छाइयों और बुराइयों का एक मिश्रण है। परन्तु यदि हम अपने मन पर विजय प्राप्त कर लें, तो यही संसार सुखमय हो जाता है। फिर हमारे ऊपर किसी भी वात के अच्छे या बुरे भाव का असर न होगाहमें सब कुछ यथास्थान और सामंजस्यपूर्ण दिखलायी पड़ेगा। देखा जाता है, जो लोग आरम्भ में संसार को नरककुण्ड समझते हैं, वे ही यदि आत्मसंयम की साधना में सफल हो जाते हैं, तो इस संसार को ही स्वर्ग समझने लगते हैं। यदि हम सच्चे कर्मयोगी हैं और इस अवस्था को प्राप्त करने के लिए अपने को प्रशिक्षित करना चाहते हैं, तो हम चाहे जिस अवस्था से आरम्भ करें, यह निश्चित है कि हमें अन्त में पूर्ण आत्मत्याग का लाभ होगा ही। और ज्यों ही इस कल्पित 'अहं' का नाश हो जायगा, त्यों ही वही संसार, जो हमें पहले अमंगल से भरा प्रतीत होता था, अव स्वर्गस्वरूप और परमानन्द से पूर्ण प्रतीत होने लगेगा । यहाँ की हवा तक बदलकर मधुमय हो जायगी और प्रत्येक व्यक्ति भला प्रतीत होने लगेगा । यही है कर्मयोग की चरम गति, और यही है उसकी पूर्णता या सिद्धि । हमारे भिन्न भिन्न योग आपस में विरोधी नहीं हैं। प्रत्येक अन्त में हमें एक ही स्थान में ले जाता है और पूर्णत्व की प्राप्ति करा देता है। पर प्रत्येक का दृढ़ अभ्यास आवश्यक है। सारा रहत्य अभ्यास में ही है। पहले श्रवण करो, फिर मनन करो और फिर अभ्यास करो। यह वात प्रत्येक योग के सम्बन्ध में सत्य है । पहले तुम इसके बारे में सुनो और समझो कि इसका मर्म क्या है । यदि कुछ बातें आरम्भ में स्पष्ट न हों, तो निरन्तर श्रवण एवं मनन से वे स्पष्ट हो जाती है । सब बातों को एकदम समझ लेना बड़ा कठिन है। फिर भी, उनकी व्याख्या आखिर तुम्हीं में तो है। वास्तव में कभी कोई व्यक्ति किसी दूसरे को नहीं सिखाता, हममें से प्रत्येक को अपने आपको सिखाना होगा। बाहर के गुरु तो केवल उद्दीपक मात्र हैं, जो हमारे अन्तःस्थ गुरु को सब विषयों का मर्म समझने के लिए उद्बोधित कर देते हैं । तब बहुत सी बातें हमारी स्वयं की विचार शक्ति से स्पष्ट हो जाती हैं और उनका अनुभव हम अपनी ही आत्मा में करने लगते हैं; और यह अनुभूति ही हमारी प्रबल इच्छा शक्ति में परिणत हो जाती है। पहले वह भावना होती है, फिर इच्छा, और इस इच्छा-शक्ति से कर्म करने की वह प्रचंड शक्ति पैदा होती है, जो तुम्हारी प्रत्येक नस, प्रत्येक शिरा और प्रत्येक पेशी में प्रवाहित होकर तुम्हारे संपूर्ण शरीर को इस निष्काम कर्मयोग का एक यंत्र बना देती है और इसके फलस्वरूप हमें अपना वांछित पूर्ण आत्मत्याग एवं परम निःस्वार्थता प्राप्त हो जाती है। यह उपलब्धि किसी प्रकार के मत, सिद्धान्त या विश्वास पर निर्भर नहीं है । चाहे ईसाई हो, यहूदी अथवा जेन्टाइल - इससे कोई अन्तर नहीं पड़ता । प्रश्न तो यह है कि क्या तुम निःस्वार्थ हो ? यदि तुम हो, तो चाहे तुमने एक भी धार्मिक ग्रन्थ का अध्ययन न किया हो, चाहे तुम किसी भी गिरजा या मन्दिर में न गये हो, फिर भी तुम पूर्णता को प्राप्त कर लोगे । हमारा प्रत्येक योग बिना किसी दूसरे योग की सहायता के भी मनुष्य को पूर्ण बना देने में समर्थ है, क्योंकि उन सबका लक्ष्य एक ही है। कर्मयोग, ज्ञानयोग तथा भक्तियोग - सभी मोक्ष-लाभ के लिए सीधे और स्वतंत्र उपाय हो सकते हैं। सांख्ययोगौ पृथक् बालाः प्रवदन्ति
न पण्डिताः । - 'केवल अज्ञ ही कहते है कि कर्म और ज्ञान भिन्न भिन्न हैं, ज्ञानी नहीं।" ज्ञानी यह जानता है कि यद्यपि ऊपर से योग एक दूसरे से विभिन्न प्रतीत होते हैं, अन्त में वे मानवीय पूर्णता के एक ही लक्ष्य की ओर ले जाते हैं । हम पहले कह चुके हैं कि 'कर्म' शब्द 'कार्य' के अतिरिक्त कार्य-कारणवाद को भी सूचित करता है। कोई कार्य, कोई विचार, जो फल उत्पन्न करता है, 'कर्म' कहलाता है । इसलिए कर्म के नियम का अर्थ है, कार्य-कारण- सम्बन्ध का नियम, कारण और कार्य का ध्रुव अनुक्रम । यदि कारण रहे, तो उसका फल भी अवश्य होगा, इसका व्यतिक्रम कभी हो नहीं सकता। भारतीय दर्शन के अनुसार यह 'कर्म-विधान' समस्त जगत् पर लागू है। हम जो कुछ देखते हैं, अनुभव करते हैं अथवा जो कुछ कर्म करते हैं, वह एक ओर तो पूर्व कर्म का फल है और दूसरी ओर वही कारण होकर अपना फल उत्पन्न करता है। इसके साथ ही साथ हमें यह भी समझ लेना आवश्यक है कि 'नियम' शब्द का अर्थ क्या है । इसका अर्थ है - घटनाशृंखलाओं की पुनरावर्तन की प्रवृत्ति । जब हम देखते हैं कि एक घटना के बाद कोई दूसरी घटना होती है अथवा दो घटनाएँ साथ ही साथ होती हैं, तब हम इस अनुक्रम या सह-अस्तित्व के पुनः घटित होने की अपेक्षा करते हैं। हमारे देश के प्राचीन नैयायिक इसे 'व्याप्ति' कहते हैं। उनके मतानुसार नियम सम्वन्धी हमारी समस्त धारणाएँ साहचर्य के आधार पर होती हैं। एक घटना शृंखला अपरिवर्तनीय क्रम से हमारे मन में कुछ वस्तुएं गूंथ जाती है, जिससे हम जब कभी किसी विषय का प्रत्यक्ष करते हैं, तो वह तुरन्त मन के अन्तर्गत कुछ अन्य तथ्यों से सम्बद्ध हो जाता है। कोई एक भाव अयवा, हमारे मनोविज्ञान के अनुसार, चित्त में उत्पन्न कोई एक तरंग सदैव उसी प्रकार की अनेक तरंगों को उत्पन्न कर देती है। यही मनोविज्ञान की साहचर्य की धारणा है और कारणता इसी 'व्याप्ति' नामक योगविधान का एक पहलू मात्र है । अन्तर्जगत् तथा बाह्य जगत् दोनों में 'नियम-तत्त्व ' अथवा नियम की कल्पना एक ही है, और वह है - यह अपेक्षा करना कि एक घटना के बाद एक दूसरी विशिष्ट घटना होगी और इस अनुक्रम की पुनरावृत्ति होती रहेगी। यदि ऐसा हो, तो फिर वास्तव में प्रकृति में नियम का अस्तित्व ही नहीं है । वस्तुतः यह कहना भूल होगी कि पृथ्वी में गुरुत्वाकर्षण है अथवा पृथ्वी के किसी स्यान में कोई वस्तुगत नियम विद्यमान है। हमारा मन जिस प्रणाली अथवा विधि से कुछ घटना-श्रृंखला की धारणा करता है, उसीको हम नियम कहते हैं, और यह हमारे मन में ही स्थित है। एक दूसरे के बाद जयवा एक ही साथ घटित होने
अगर तुम ईमानदारी से जीवन का रूपांतरण चाहते हो तो उनके पास जाना जो तसल्ली बंधाते न हों; जो तुम्हारे जीवन का निदान सीधा कर के रख देते हों सामने--चाहे चोट भी लगती हो; चाहे तुम्हारा घाव भी छू जाता हो और तुम्हारी मलहम-पट्टी उखड़ जाती हो; चाहे तुम्हारे नासूर से मवाद निकल आती हो। लेकिन उनके पास जाना जो तसल्ली बंधाने के आदी नहीं हैं; जो तुम्हारे जीवन के सत्य को वैसा का वैसा रख देते हैं जैसा है। पीड़ा होती है। लेकिन जीवन-रूपांतरण में पीड़ा छुपी है। और अगर तुमने उनकी बात सुनी और समझने की कोशिश की और जीवन में वैसा आचरण और व्यवहार किया तो तुम बदल जाओगे। तसल्ली उन्होंने नहीं बंधाई, लेकिन तुम्हारे जीवन को क्रांति दे देंगे वे। लेकिन तुम मुफ्त तसल्ली में घूमते हो। फिर एक साधु चुक जाता है, क्योंकि कई दफे तसल्ली बंधा चुका, अब तुम्हें उसमें भरोसा नहीं रहा, फिर तुम दूसरा साधु खोज लेते हो। साधुओं की कोई कमी नहीं है। जिंदगी बड़ी छोटी है, साधु बहुत हैं । तसल्ली, तसल्ली, तसल्ली । तुम घूमते फिरते हो। बंद करो! जीवन के सत्य को पकड़ो! जीवन का सत्य सुगम नहीं है, सांत्वना नहीं है। जीवन का सत्य कठोर है। कांटा चुभा है तुम्हारी छाती में, उसे निकालने में पीड़ा होगी। तुम चीखोगे, चिल्लाओगे। लेकिन वह चीख-चिल्लाहट जरूरी है। और तुम्हें जो उस पीड़ा से गुजारने में साथी हो सके, उसे मित्र मानना। सदगुरु तसल्ली नहीं देता। सदगुरु सत्य देता है, फिर चाहे कितना ही कड़वा हो । आखिर वैद्य अगर यह सोचने लगे कि मीठी ही दवा देनी है, तो चिकित्सा न होगी, मरीज चाहे प्रसन्न हो जाये क्षणभर को। शरबत पिला दे मरीज को, लेकिन इससे बीमारी ठीक न होगी; मरीज प्रसन्न होकर घर लौट जायेगा, लेकिन बीमारी और बढ़ जायेगी। नहीं, कड़वी दवा भी देनी पड़ती है, जहर जैसी दवा भी देनी पड़ती है। मरीज नाराज भी होता है, तो भी देनी पड़ती है। आशा ने सारे संसार को भटकाया हुआ है । और आशाएं मत खोजो। जहां आशा टूटती हो, जहां तसल्ली उखड़ती हो, जहां तुम्हारे सांत्वना के सब जाल बिखरते हों, जहां तुम्हारा सारा व्यक्तित्व जो अब तक झूठ पर खड़ा था तहस-नहस होकर खंडहर हो जाता हो--वहां जाना। दुर्धर्ष है मार्ग। लोग कहते हैं मौत से बदतर है इंतजार मेरी तमाम उम्र कटी इंतजार में सभी की कटती है। तुम कर क्या रहे हो सिवाय इंतजार के? सैमुअल बैकेट का एक छोटा नाटक है-- वेटिंग फार गोडोड, गोडोड की प्रतीक्षा । यह गोडोड कौन है? किसी ने सैमुअल बैकेट को पूछा कि आखिर यह गोडोड कौन है! क्योंकि पूरा नाटक पढ़ जाओ, पता ही नहीं चलता कि गोडोड कौन है। सैमुअल बैकेट ने कहा कि अगर मुझे ही पता होता तो मैंने नाटक लिख दिया होता। मुझे भी पता नहीं, गोडोड कौन है। लोग प्रतीक्षा कर रहे हैं। ठीक से पूछो, किसकी प्रतीक्षा कर रहे हो? उनको भी पता नहीं है। गोडोड यानी वह, जिसका पता नहीं, लेकिन प्रतीक्षा कर रहे हैं। सभी लोग उत्सुकता से बैठे हैं दरवाजे खोले हुए- कोई आनेवाला है। यह गोडोड की कहानी बड़ी प्यारी है। दो आदमी बैठे हैं। ऐसे नाटक शुरू होता है। और वे एक-दूसरे से पूछते हैं कि क्यों भई, क्या हाल है? वह कहता है, "सब ठीक है। आज आयेगा, ऐसा मालूम पड़ता है।" कौन आयेगा, इसकी तो कोई बात ही नहीं- "आज आयेगा, ऐसा मालूम पड़ता है।" दूसरा कहता है, "सोचता तो मैं भी हूं। आना चाहिए। कब से हम राह देख रहे हैं! और भरोसा बंधवाया था। और आदमी ऐसा गैर-भरोसे का नहीं है। देखें शायद आज आए । " ऐसी बात चलती है। वे दोनों देखते रहते हैं रास्ते की तरफ, रास्ते के किनारे बैठे। कोई आता नहीं। दोपहर हो जाती है। सांझ हो जाती है। वे कहते हैं, "फिर नहीं आया। हद्द हो गयी बेईमानी की! आदमी ऐसा तो न था, कुछ अड़चन आ गई होगी, कोई बीमार हो गया!" बाकी कौन है इसकी कोई बात नहीं चलती । कई दफे वे परेशान हो जाते हैं। वे कहते हैं, "अब बहुत हो गया, बंद करो जी इंतजार!" मगर दोनों बैठे हैं। कभी-कभी कहते हैं "अब मैं चला। तुम ही करो।" एक कहता है कि बहुत हो गया, एक सीमा होती है। मगर जाता-करता कोई नहीं, क्योंकि जाएं भी कहां! कहीं और जाओगे, वहां भी इंतजार करना पड़ेगा। रहते वहीं हैं। बैठे वहीं हैं। बात भी करते रहते हैं, कभी यह भी नहीं एक-दूसरे से पूछते कि किसका इंतजार कर रहे हो? मान लिया है कि किसी का इंतजार कर रहे हैं। यह जो गोडोड है, यह सब को पकड़े हुए है। तुमने कभी पूछा है, किसकी राह देख रहे हो? कौन आनेवाला है? किसके लिए द्वार खोले हैं? और किसके लिए घर सजाए बैठे हो ? नहीं, तुम कहोगे यह तो हमें पक्का पता नहीं है, कौन आनेवाला है; लेकिन कोई आनेवाला है, ऐसा लगता है। मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं कि हम क्या खोज रहे हैं, हमें पता ही नहीं; मगर खोज रहे हैं। अब खोजोगे कैसे अगर यह ही पता नहीं कि क्या खोज रहे हो? लोग मेरे पास आते हैं, वे क
हते हैं, कुछ पूछना है; लेकिन हमें मालूम नहीं कि क्या पूछना है। और वे गलत नहीं कहते, बड़े ईमानदार लोग हैं। यही स्थिति है। लोग पूछना चाहते हैं, कुछ पूछना जरूर है। ऐसा आभास मालूम होता है। कहीं प्राणों में ऐसी घुमड़ मालूम होती है, कुछ पूछना है-- लेकिन क्या? कुछ पकड़ में नहीं आता। कुछ रूप नहीं बनता। कुछ आकार नहीं बैठता । खोजना है-- लेकिन क्या? यह गोडोड कौन है? किसी को मालूम नहीं । इस इंतजार से जागो! यह प्रतीक्षा बहुत हो चुकी। न कभी कोई आया है, न कभी कोई आयेगा। बंद करो दरवाजे। अब तो उसको खोजो जो तुम हो । कभी धन में प्रतीक्षा की, कभी पद में प्रतीक्षा की; कभी लोगों की आंखों में सम्मान चाहा, कभी प्रार्थना की, आकाश की तरफ देखा, किसी परमात्मा को खोजा--लेकिन सब गोडोड! तुम्हें साफ नहीं, तुम क्या खोज रहे हो, तुम क्या मांग रहे हो! अब तो उचित है कि अपने में डूबो। उसे देखें जो हम हैं। किसी और की प्रतीक्षा करनी उचित नहीं है। अगर तुमने हिंसा का बोधपूर्वक त्याग नहीं किया है तो हिंसा जारी रहेगी। महावीर और सूक्ष्म तल पर ले जाते हैं। वे कहते हैं, दूसरे को मारने का, दूसरे को दुख देने का भाव तो हिंसा है ही; लेकिन अगर तुमने बोधपूर्वक दूसरे को दुख देने की समस्त संभावना का त्याग नहीं किया है, अगर तुमने अहिंसा को बोधपूर्वक अपनी जीवनचर्या नहीं बनाया है, तो भी हिंसा है। हिंसा में विरत न होना, जागकर होशपूर्वक, निर्णयपूर्वक अपने सामने यह साफ न कर लेना कि मैं हिंसा से विरत हुआ, तो खतरा है। जिससे तुम विरत नहीं हुए हो, वह पैदा हो सकता है। किसी घड़ी, किसी असमय में, किसी परिस्थिति में, जिससे तुम विरत नहीं हुए हो, उसके पैदा होने की संभावना है। माना कि तुमने सोचा भी नहीं कि किसी को मारना है; लेकिन कोई छुरी लेकर सामने आ गया तो तुम भूल जाओगे। तुम्हारे पास अहिंसा की कोई शैली नहीं है। तुम हिंसा की शैली को पकड़ लोगे, क्योंकि वह पुरानी आदत है। तो महावीर यह कह रहे हैं कि हिंसा की शैली तो जन्मों-जन्मों की आदत है। अहिंसा की शैली को बोधपूर्वक स्वीकार करना पड़ेगा। उसे जीवन की साधना बनाना होगा। नहीं तो जब कोई हिंसा करने को तैयार हो जाएगा, तुम अचानक भूल जाओगे। तुमने सोचा भी न था हिंसा करने के लिए, लेकिन हिंसा होगी। पुरानी आदत है, पुराने संस्कार हैं। पुराने संस्करों को गिराने के लिए बोधपूर्वक निर्णय चाहिए। हिंसा से विरत होने का निर्णय चाहिए। संभावना भी बचा लेना हिंसा है। "इसलिए जहां प्रमाद है, वहां नित्य हिंसा है...।" यह गहरी से गहरी पकड़ है, जो हो सकती है। "जहां प्रमाद है वहां नित्य हिंसा है... । " प्रमाद यानी मूर्च्छा। जहां सोया-सोयापन है; जहां चले जा रहे हैं नींद में, आंखें खुली हैं, लेकिन मन सोया, बेहोश है; जहां हम मूर्च्छा में चल रहे हैं वहां हिंसा है। क्योंकि मूर्च्छित व्यक्ति क्या करेगा? हजार परिस्थितियां रोज आती हैं हिंसा की, मूर्च्छित व्यक्ति क्या करेगा? होश तो है नहीं कि कुछ नया जीवनउदबोध, कुछ नयी जीवन-उमंग, कोई नई किरण फूट सके। बेहोश है तो पुरानी आदत से चलेगा, बेहोश आदमी आदत से चलता है। होशवाला आदमी प्रतिपल होश से चलता है, आदत से नहीं। किसी ने गाली दी, तुम्हें याद भी न रहेगा कि तुम्हारा चेहरा तमतमा गया। यह तमतमा जाएगा, तब पता चलेगा कि अरे, फिर हो गया! यह एक क्षण में हो जाता है, क्षण के खंड में हो जाता है। एक सुंदर स्त्री पास से गुजरी, कोई चीज हिल गई भीतर। अभी खाली बैठे थे तो कुछ बात न थी। स्त्री का ख्याल ही न था। अभी बैठे वृक्षों की हरियाली देखते थे; खिले फूलों को, आकाश के तारों को देखते थे--कुछ पता भी न था, लेकिन परिणाम तो भीतर पड़ा है। आदत तो पुरानी भीतर पड़ी है। एक स्त्री पास से गुजर गई, क्षणभर में बिजली कौंध गई। भीतर कुछ हिल गया। भीतर कोई तूफान उठ आया । भीतर कोई वासना सजग हो गई। बीज तो पड़े ही हैं, जब भी वर्षा हो जायेगी, अंकुर हो जायेंगे। तो महावीर कहते हैं, "वस्तुतः मूर्च्छा ही हिंसा है और अमूर्च्छा अहिंसा है। आत्मा ही अहिंसा है और आत्मा ही हिंसा है। जब आत्मा मूर्च्छित है तो हिंसा; जब आत्मा जाग्रत है तो अहिंसा। यह सिद्धांत का निश्चय अत्ता चेव अहिंसा--आत्मा ही अहिंसा, आत्मा ही हिंसा । यह सिद्धांत का निश्चय है। "जो अप्रमत्त है वह अहिंसक है । " जो जागा हुआ है, जो होशपूर्वक जीता है, अवेयरनेस, सम्यक बोध, एक-एक कदम बोधपूर्वक रखता है, विवेकपूर्वक रखता है - वह अहिंसक है। "जो प्रमत्त है, वह हिंसक है।" जो नशे में जी रहा है, जिसे ठीक पता भी नहीं है --कहां जा रहे हैं, क्यों जा रहे हैं--चला जा रहा है! तुम अपने को पकड़ो। अपने को हिलाओ, डुलाओ, जगाओ! झटका दो! सूफियों में एक प्रक्रिया है-झटका देने की । सूफियों का एक वर्ग साधकों को कहता है कि जब भी तुम्हें लगे कि तंद्रा आ रही है, ज
ोर से एक झटका शरीर को दो। जैसे कोई वृक्ष तूफान में हिल जाता है, आंधी में कंप जाता है, धूल-धंवास गिर जाती है, ऐसा कभी अपने को झटका दो। तुम कभी कोशिश करके देखना। क्षणभर को तुम पाओगे एक ताजगी, एक होश, अपनी याद, मैं कौन हूं! चैतन्य थोड़ी देर को प्रखर होगा, झलकेगा; फिर खो जायेगा। ऐसे झटके अपने को देते रहना। कभी-कभी छोटी चीजें काम की हो जाती हैं। बहुत छोटी चीजें काम की हो जाती हैं। तो जब भी कोई गाली दे, एक झटका अपने को देना। इसको धीरे-धीरे अपने जीवन की व्यवस्था बना लेना। कोई गाली देगा, तुम अपने को झटका दोगे। झटका देकर तुम पाओगे कि आदत से संबंध छूट गया। यही तो "इलेक्ट्रो शाक... मनोविज्ञान इसी को कहता है। आदमी पागल हो जाता है, कोई उपाय नहीं सूझता, कैसे ठीक करें, तो उसके मस्तिष्क में बिजली दौड़ा देते हैं । होता क्या है? जब बिजली तेजी से दौड़ती है तो उसके मस्तिष्क में एक झंझावात आता है। एक झटका लगता है। उस झटके के कारण, वह जो पागलपन उस पर सवार था, उससे उसका संबंध क्षणभर को टूट जाता है। क्षणभर को वह भूल जाता है कि मैं पागल हूं। सातत्य टूट जाता है, कंटीन्यूटी टूट जाती है। फिर उसे याद नहीं रहती। फिर जब वापिस लौटता है झटके के बाद, तो उसे याद नहीं रहती कि वह अभी थोड़ी देर पहले पागल था, अब उसको पागल रहना है। आदत से संबंध छूट गया। तो अकसर लाभ हो जाता है। अकसर पागल ठीक हो जाता है। लेकिन यह तुम खुद अपने लिए कर सकते हो। और हम सब पागल हैं। और हमारा सारा व्यवहार सोया हुआ है। जिस भांति बन सके, जगाने की चेष्टा अपने को करनी है। कई तरह से झटके दिये जा सकते हैं। कोई भी छोटा स्मरण भी सहयोगी हो सकता है। तुम्हें मैंने माला दी है। इसको ही एक नयी स्मरण की आदत बना लो कि जब कोई कामवासना उठने लगे, तत्क्षण माला को हाथ में पकड़ लेना। किसी को पता भी न चलेगा। लेकिन उस माला को पकड़ना तुम्हें याद दिला देगा कि अरे! फिर गिरे, फिर गिरने को तैयार हुए ! तुम्हें मैंने गैरिक वस्त्र दिये हैं, वे याददाश्त के लिए हैं; अन्यथा गैरिक वस्त्रों से क्या होता जाता है ! एक आदमी शराबी है, वह संन्यास लेने आ गया था। वह कहने लगा कि मैं शराबी हूं, अब आपसे कैसे छिपाऊं! संन्यास भी लेना है। घबड़ाहट यही है कि गैरिक वस्त्रों में फिर शराब-घर कैसे जाऊंगा! "वह तेरी फिक्र है। वह हमारी क्या फिक्र है? तू चिंता करना। हमने अपना काम कर दिया, तुझे संन्यास दे दिया। अब इसमें हम क्या फिक्र करें, कहां तू जायेगा कहां नहीं । तेरे पीछे हम कोई चौबीस घंटे घूमेंगे नहीं। अब तू ही निपट लेना।" उसने कहा कि झंझट में डाल रहे हो आप। झंझट तो है। क्योंकि सोए-सोए जीते थे, जागना एक झंझट है। पर वह हिम्मतवर आदमी है। साफ-सुथरा आदमी है। अन्यथा कहने की कोई जरूरत ही नहीं थी, छिपा जाता । शराब पीते हैं, कौन कहता है! लेकिन कुछ दिन बाद आया और उसने कहा कि मुश्किल हो गई। अब पैर रुकते हैं। ऐसा नहीं कि शराब पीने का मन अब नहीं होता; होता है, लेकिन अब ये गैरिक वस्त्र झंझट का कारण हैं। वहां पहुंच जाता हूं तो लोग चौंककर देखते हैं जैसे कि कोई अजूबा जानवर हूं । सिनेमा घर में खड़ा था कतार में, तो चारों तरफ लोग देखने लगे। दो आदमियों ने आकर पैर लिये तो मैं भागा कि अब यहां... जहां लोग पैर छू रहे हैं, अब यहां सिनेमा में जाना योग्य नहीं है। तुमने कहानी सुनी है पुरानी? एक चोर भागा। उसके पीछे लोग लगे थे। उसे कोई भागने का, बचने का उपाय नहीं दिखाई पड़ा। वह एक नदी के किनारे पहुंचा। वहां कुछ राख का ढेर पड़ा था। उसने जल्दी से कपड़े उतारकर तो फेंके नदी में, नग्न हो गया, डुबकी मारी, राख ऊपर से डाल ली और झाड़ के नीचे आंख बंदकर के बैठ गया। पद्मासन लगा लिया। पकड़नेवाले आ गये, कोई वहां दिखाई नहीं पड़ता-- एक साधु महाराज। उन्होंने सबने पैर छुए। चोर ने कहा, "अरे हद्द हो गई! मैं झूठा साधु हूं और मेरे लोग पैर छू रहे हैं!" लेकिन एक झटका लगा कि काश! मैं सच्चा होता तो क्या न हो जाता ! लेकिन उस झटके में क्रांति हो गई। लोग तो चले गए पैर छूकर, लेकिन वह सदा के लिए साधु हो गया। उसने कहा, जब झूठे तक को, जब झूठी साधुता तक को ऐसा सम्मान मिल गया, जब झूठे में ऐसा रस, तो सच्चे की तो कहना क्या! स्मरण के साधन हैं। गैरिक वस्त्र है तुम्हारा, किसी को मारने के लिए हाथ उठने लगेगा तो अपना गैरिक वस्त्र भी दिखाई पड़ जायेगा। बस उतना ही काफी होगा। हाथ को नीचे छोड़ देना। शराब का प्याला हाथ में उठा लो, पास लाने लगो, तो गैरिक वस्त्र दिखाई पड़ जायेगा। फिर हाथ को वहीं वापिस लौटा देना। धीरे-धीरे तुम पाओगे, एक नए बोध की दशा तुम्हारे भीतर सघन होने लगी, जो पुरानी आदतों को काट देगी। "जैसे जगत में मेरू पर्वत से ऊंचा और आकाश से विशाल कुछ भी नहीं है, वैसे ही अहिंसा के समान कोई धर्म नहीं है।" इसलिए महावीर न
े अहिंसा को परम धर्म कहा है। आकाश से विशाल, मेरुओं से भी ऊंचा! "अहिंसा" शब्द सोचने जैसा है। महावीर ने प्रेम शब्द का उपयोग नहीं किया, यद्यपि ज्यादा उचित होता कि वे प्रेम शब्द का उपयोग करते। लेकिन उन्होंने किया नहीं। उनके न करने के पीछे कारण हैं। क्योंकि प्रेम शब्द से तुम कुछ समझे बैठे हो जो कि बिल्कुल गलत है। उसी शब्द का उपयोग करने से कहीं ऐसा न हो, महावीर को डर रहा, कि तुम अपना ही प्रेम समझ लो कि तुम्हारे ही प्रेम की बात हो रही है। तो महावीर को एक नकारात्मक शब्द उपयोग करना पड़ाः अहिंसा; हिंसा नहीं। लेकिन महावीर का मतलब प्रेम से है। सूफी जिसको "इश्क" कहते हैं, जीसस ने जिसको प्रेम कहा है वही महावीर की अहिंसा है। लेकिन महावीर एक-एक शब्द को बहुत सोचकर बोले हैं, तुम्हारी तरफ देखकर बोले हैं। क्योंकि प्रेम के साथ तुम्हारा पुराना एसोसिएशन है, पुराना संबंध है। तुमने प्रेम से अब तक जो मतलब समझे हैं वे राग के हैं, काम के हैं। तुम्हारे लिए प्रेम का एक ही मतलब होता हैः वासना । तुमने प्रेम का दूसरा गहनतम अर्थ नहीं जाना। प्रेम का वास्तविक अर्थ होता हैः इतने स्वस्थ हो जाना कि तुम न किसी को दुख पहुंचाना चाहते हो, न स्वयं को दुख पहुंचाना चाहते हो। तुम अपने को भी प्रेम करते हो, दूसरे को भी प्रेम करते हो। और यह प्रेम अब कोई संबंध नहीं है, तुम्हारी दशा है। कोई न भी हो तो भी तुम्हारे चारों तरफ प्रेम फैलता रहता है। जैसे अकेले में खिले विजन में फूल, तो भी तो सुगंध बिखरती रहती है। दीया जले अकेले अंधकार में, अमावस की रात में, तो भी तो प्रकाश फैलता रहता है। दीया यह थोड़े ही सोचता है कि कोई यहां है ही नहीं, तो फायदा क्या! फूल यह थोड़े ही सोचता है, इस रास्ते से कोई गुजरता ही नहीं, कोई नासापुट आएंगे ही नहीं यहां, तो किसके लिए गंध बिखेरूं! छोड़ो, क्या सार है! ऐसे ही प्रेम को जो उपलब्ध है, वह यह थोड़े ही सोचता है कि कोई लेगा तब दूं, या किसी खास को दूं। प्रेम उसका स्वभाव है। लेकिन महावीर ने अहिंसा शब्द का उपयोग किया। उस शब्द के कारण उन्होंने पुरानी एक भ्रांति से बचाना चाहा आदमी को, ताकि लोग उनके ही प्रेम को न समझ लें कि महावीर उन्हीं के प्रेम का समर्थन कर रहे हैं। लेकिन एक दूसरी भ्रांति शुरू हो गयी। आदमी इतना उलझा हुआ है कि तुम उसे बचा नहीं सकते। तब अहिंसा शब्द के साथ एक नयी भ्रांति शुरू हो गयी। अब जैन मुनि हैं, उनके जीवन में प्रेम दिखाई ही नहीं पड़ेगा। उनने अहिंसा का ठीक-ठीक मतलब ले लिया, हिंसा नहीं करनी; तो नकारात्मक, विधायक कुछ भी नहीं, पाजिटिव कुछ भी नहीं। चींटी नहीं मारनी, मगर चींटी के प्रति कोई प्रेम नहीं है। चींटी नहीं मारनी, क्योंकि मारने से नर्क जाना पड़ता है। यह तो लोभ ही हुआ। किसी को नहीं मारना, किसी को गाली नहीं देना, क्योंकि गाली देने से मोक्ष खोता है। यह तो लोभ ही हुआ, प्रेम नहीं। इस फर्क को समझना। तो मैं तुमसे यह कहना चाहता हूं कि अहिंसा का महावीर का अर्थ हैः प्रेम । तुम्हारा प्रेम नहीं; क्योंकि एक और प्रेम है। लेकिन जैन मुनियों की अहिंसा भी नहीं, क्योंकि वह बिल्कुल मुर्दा है। वह मर गयी। नकार में कहीं कोई जी सकता है? सिर्फ नकार-नकार में कोई जी सकता है? नकार में कोई घर बना सकता है? कुछ विधायक चाहिए। विधायक का अर्थ हैः कुछ ऊर्जा तुम्हारे भीतर जगनी चाहिए। सिकुड़ने से ही थोड़े ही काम चलेगा! किसी को मारो मत, बिल्कुल ठीक; लेकिन क्यों न मारो किसी को? क्योंकि तुम्हें प्रेम है, इसलिए। इसलिए नहीं कि मारोगे तो नर्क जाना पड़ेगा। यह कोई प्रेम हुआ? यह तो अपना ही लोभ हुआ। लोगों को मत मारो, क्योंकि तुम्हारा प्रेम तुम्हें बताएगा कि दूसरे को मारना, दूसरे को दुख देना... तो तुम कैसे आशा बांधते हो कि तुम्हारे जीवन में प्रेम का फैलाव हो सकेगा? प्रेम फैलता है, बढ़ता है। महावीर कहते हैं, "आकाश जैसा! सुमेरू पर्वत से भी ऊंचा, आकाश से भी विशाल!" तो यह कुछ विधायक घड़ी हो तो ही बढ़ सकती है। कुछ हो तो बढ़ सकता है। अहिंसा का तो अर्थ हैः हिंसा का न होना। यह तो ऐसे ही हुआ जैसे कि चिकित्सा शास्त्र में अगर पूछा जाये कि स्वास्थ्य क्या है, तो वे कहते हैं बीमारी का न होना। लेकिन मुर्दा भी बीमार नहीं होता, लेकिन उसको तुम स्वस्थ न कह सकोगे। वह स्वास्थ्य की परिभाषा पूरी करता है, क्योंकि बीमार नहीं है। जिंदा ही बीमार होता है, मुर्दा कैसे बीमार होगा? बीमार होने के लिए जिंदा होना जरूरी है। तो यह स्वास्थ्य की परिभाषा पर्याप्त नहीं है कि बीमार न होना। यह तो नकारात्मक हुई। हां, स्वस्थ आदमी बीमार नहीं होता, यह बात जरूर सच है। लेकिन स्वास्थ्य कुछ और भी है। बीमारी न होने से ज्यादा कुछ है, कुछ विधायक है। जब तुम स्वस्थ रहे हो, क्या तुमने अनुभव नहीं किया, क्या तुम इतना ही जानते हो कि न टी. बी., न
कैंसर, न और रोग? क्या जब तुम स्वस्थ होते हो, तब तुमको इनकी याद आती है कि देखो, कितना मजा आ रहा है, न टी. बी. है, न कैंसर है? ऐसा होता है? जब तुम स्वस्थ होते हो, न तो टी. बी. की याद आती है, न कैंसर की, न नकार की। स्वास्थ्य का अपना ही रस है। स्वास्थ्य का अपना ही अहोभाव है। स्वास्थ्य की अपनी ही प्रफुल्लता है। स्वास्थ्य का झरना फूटता है। यह कोई बीमारी की बात नहीं है। ऐसा समझो कि एक झरना है, उसके मार्ग पर पत्थर रखे हैं। तो हम कहते हैं, पत्थर हटा लो, तो झरना फूट जाये। लेकिन पत्थर का हटा लेना ही झरना नहीं है। क्योंकि कई जगह और जगह भी पत्थर पड़े हैं, वहां हटा लेना, तो झरना नहीं फूटेगा; तुम बैठे रहना कि पत्थर तो हटा लिये, बस झरना हो गया। पत्थर का हटाना झरने के लिए जरूरी हो सकता है, लेकिन पत्थर के हटने में ही झरना नहीं है। झरना तो कुछ विधायक बात है। हो तो पत्थर के हटने पर प्रगट हो जायेगा; न हो तो तुम पत्थर हटाए बैठे रहना जैसे जैन मुनि बैठे हुए हैं। यह नहीं करते, वह नहीं करते सब नहीं करने पर है। चोरी नहीं करते, लेकिन अचोर नहीं हैं। लोभ नहीं करते, लेकिन अलोभी नहीं हैं। हिंसा नहीं करते, लेकिन अहिंसक नहीं हैं। क्योंकि विधायक चूक रहा है। जिंदगी जिंगारे-आईना है, आईना है इश्क संग है मामूरए-कौनेन और शोला है इश्क । इल्म बरबत है, अमल मिजराब है, नग्मा है इश्क । जर्रा-जर्रा कारवां है, इश्क खिज्रे-कारवां । प्रेम स्वच्छ दर्पण है। और प्रेम के सिवाय जीवन में जो कुछ है, वह दर्पण पर मैल है, धूल है। सांसारिक वस्तुएं तो पत्थर हैं। प्रेम प्रकाश है। ज्ञान वाद्य है। आचरण मिजराब है। प्रेम संगीत है। जीवन का कण-कण यात्री है। प्रेम यात्री-दल का पथ-प्रदर्शक है। महावीर ने जिसे अहिंसा कहा है, वह सूफियों का इश्क है। इस बात को अब दोहरा देने की जरूरत पड़ी है। क्योंकि जैसी मुश्किल महावीर को मालूम पड़ी थी प्रेम के साथ, वैसी ही मुश्किल मुझे मालूम पड़ती है अहिंसा के साथ। महावीर प्रेम शब्द का उपयोग न कर सके, क्योंकि गलत धारणा लोगों के मन में प्रेम की थी। आज मुझे अहिंसा शब्द का उपयोग करने में अड़चन होती है, क्योंकि बड़ी गलत धारणा लोगों के मन में है। हमारे सभी शब्द हमारे कारण खराब हो जाते हैं, गंदे हो जाते हैं; क्योंकि हमारे शब्दों में भी हमारी प्रतिध्वनि होती है। जब कामी प्रेम की बात करता है तो उसका प्रेम भी काम से भर जाता है। जब निषेधात्मक वृत्तियों का व्यक्ति अहिंसा की बात करता है तो उसकी अहिंसा निषेधात्मक हो जाती है। अहिंसा यानी प्रेम, परम प्रेम। .जरा मौत दामन बचा कर चले -- जिंदगी अब प्रेम के साथ है, प्रेम की छाया में है। . जरा मौत दामन बचा कर चले। --अब जरा मौत होशियारी से चले, क्योंकि जो प्रेम के साये में आ गया उसकी कोई मौत नहीं। वह अमृत को उपलब्ध हो जाता है। और प्रेम फूल जैसा है। मौत अंगार जैसी है। लेकिन इस जीवन की, अस्तित्व की यही महत्वपूर्ण राजभरी बात है कि अंततः फूल जीतते हैं, अंगार हार जाते हैं। अंततः कोमल जीतता है, कठोर हार जाता है। गिरता है पहाड़ से जल, कोमल जल, क्षीणदेह जलधार, बड़ी-बड़ी चट्टानें मार्ग में पड़ी होती हैं--कौन सोचेगा कि ये चट्टानें कभी कट जायेंगी! लेकिन एक दिन धीरे-धीरे धीरे-धीरे चट्टानें कटती जाती हैं और रेत होती जाती हैं। धार बड़ी कोमल है। चट्टानें बड़ी कठोर हैं। लेकिन कोमल सदा जीत जाता है। अंतिम विजय कोमल की है। और जिन्होंने अपने को फूलों से बचाया, कोमलता से बचाया, उनकी जिंदगी में अंगारे ही अंगारे रहे, जलन ही जलन रही। तुम फूल को कमजोर मत समझना। तुम फूल को महाशक्तिशाली समझना। पत्थर कमजोर हैं; यद्यपि दिखाई यही पड़ता है कि पत्थर बड़े मजबूत, बड़े शक्तिशाली हैं। लेकिन पत्थर मुर्दा हैं, शक्तिशाली हो कैसे सकते हैं? फूल जीवंत है। उसके खिलने में जीवन है। उसकी सुगंध में जीवन है। उसकी कोमलता में जीवन है। अकसर हम हिंसा के लिए राजी हो जाते हैं, क्योंकि हिंसा लगती है ज्यादा मजबूत, शक्तिशाली! अहिंसा, प्रेम लगता है कमजोर। हम जल्दी भरोसा कर लेते हैं हिंसा पर; अहिंसा पर भरोसा नहीं कर पाते, क्योंकि फूलों पर हमारा भरोसा उठ गया है। कोमल की शक्ति को हम भूल ही गये हैं। विनम्र की शक्ति को हम भूल गए हैं। प्रेम बलवान है, यह हमें याद भी न रहा है। हम तो सोचते हैं, क्रोध बलवान है। बस यही धार्मिक और अधार्मिक आदमी का अंतर है। अगर तुम मुझ से पूछो तो धार्मिक आदमी वह है जो यह जान गया कि कोमल अंततः जीतता है; जिसका भरोसा फूल पर आ गया और पत्थर से जिसकी श्रद्धा उठ गई। और अधार्मिक आदमी वह है, जो भला फूल की प्रशंसा करता हो, लेकिन जब समय आता है तो पत्थर पर भरोसा करता है। महावीर की अहिंसा अनुयायियों के हाथ में पड़कर विकृत हो गयी, निषेध हो गयी है। वह बड़ा विधायक जीवन-स्रोत था। लेकिन हमार
ी अड़चन है। जो भी हम सुनते हैं, उसका हम अर्थ अपने हिसाब से लगाते हैं। अगर कोई मर गया--किसी का प्रेमी मर गया, किसी की प्रेयसी मर गई--तो हम अपने हिसाब से अर्थ लगाते हैं। जिसकी प्रेयसी मर गई है या प्रेमी मर गया है, उसे अगर हम रोता नहीं देखते, आंख में आंसू नहीं देखते, तो हम सोचते हैं, "अरे! तो कुछ दर्द नहीं हुआ, दुख नहीं हुआ ? रोई भी नहीं? तो कोई लगाव न रहा होगा। तो कोई चाहत न रही होगी। तो कोई प्रेम न रहा होगा।" लेकिन तुम्हें पता है, अगर सच में ही गहरी पीड़ा हो तो आंसू आते नहीं! आंसू भी रुक जाते हैं। और आंसू बहुत गहरी पीड़ा के सबूत नहीं हैं--पीड़ा के सबूत हैं - - बहुत गहरी पीड़ा के सबूत नहीं हैं। अब बड़ी कठिनाई है। आंसू तब भी नहीं आते, जब पीड़ा नहीं होती; और आंसू तब भी नहीं आते जब महान पीड़ा होती है। तो भूलचूक की संभावना है। कभी यह भी हो सकता है कि रूखी आंखों को देखकर तुम सोचो कि कोई पीड़ा नहीं हुई; और कभी यह भी हो सकता है, क्योंकि मैं कहता हूं रूखी आंखों में बड़ी गहरी पीड़ा है कि आंसू भी नहीं बह रहे, तो फिर उसको भी तुम समझ लो कि बड़ी गहरी पीड़ा हो रही है जिसको कोई पीड़ा नहीं हुई। जिंदगी में शब्द सीमित हो जाते हैं। अस्तित्व में शब्दों की कोई सीमा नहीं है। वहां तो हमें प्रत्येक घटना को उसके निजी व्यक्तित्व में देखना चाहिए। कोई पुरानी परिभाषा से नहीं चलना चाहिए। शक न कर मेरी खुश्क आंखों पर यूं भी आंसू बहाए जाते हैं। --यह भी एक ढंग है। तुम जल्दी से निर्णय मत लेना। महावीर ने प्रेम की ही बात कही, लेकिन प्रेम शब्द का उपयोग नहीं किया। प्रेम शब्द का उपयोग न करने के कारण अतीत की भूल तो बचा ली, लेकिन भविष्य की भूल हो गयी। तो पीछे जो आये, उन्होंने अहिंसा को सिर्फ निषेध बना लिया। शब्द में निषेध है। सारे शब्द निषेधात्मक हैं। अचौर्य, अपरिग्रह, अहिंसा, अकाम, अप्रमाद -- सारे शब्द निषेधात्मक हैं। तो ऐसा लगा उनको कि महावीर कहते हैं : नहीं, नहीं, नहीं। हां की कोई जगह नहीं है। इसी कारण हिंदुओं ने तो महावीर को नास्तिक ही कह दिया; क्योंकि परमात्मा नहीं और फिर सारा शास्त्र "नहीं" से भरा है। नहीं, लेकिन उस "नहीं" के भीतर बड़ी गहरी "हां" छिपी है। "नहीं" का उपयोग करना पड़ा, क्योंकि लोगों ने "हां" वाले शब्दों का दुरुपयोग कर लिया था। लेकिन भूल फिर हो गयी। महावीर का कोई कसूर नहीं है। शब्द का उपयोग करना ही पड़ेगा। और आदमी कुछ ऐसा है, तुम जो भी शब्द उसे दो वह उसका ही दुरुपयोग कर लेगा। क्योंकि सुनते तुम वही हो जो तुम सुन सकते हो। तो महावीर के पीछे निषेधात्मक लोगों की कतार लग गई। इसलिए तो महावीर का धर्म फैल नहीं सका। कहीं निषेध के आधार पर कोई चीज फैलती है? महावीर का धर्म सिकुड़कर रह गया। "नहींनहीं" पर कोई जिंदगी बनती है ? "नहीं-नहीं" से कोई जिंदगी के गीत बनते हैं? तो सिकुड़ गया। लेकिन कुछ रुग्ण लोग, जो नकारात्मक थे, उनके पीछे इकट्ठे हो गये। उनकी कतार लगी है। उनका सारा हिसाब इतना है कि बस "नहीं" कहते जाओ। जो भी चीज हो उसे इनकार करते जाओ। इनकार कर-कर के वे कटते जाते हैं, मरते जाते हैं। तो उनकी प्रक्रिया करीब-करीब आत्मघात जैसी हो गयी। इसलिए जैन मुनियों के पास जीवन का उत्सव न मिलेगा, जीवन का अहोभाव न मिलेगा। इसलिए जैन मुनियों के पास तुम्हें जीवन की सुरभि न मिलेगी। तुम्हें जैन मुनियों के पास कोई गीत और नृत्य न मिलेगा। यह भी क्या धर्म हुआ, जिससे नृत्य पैदा न हो सके! यह भी क्या धर्म हुआ जिससे गीत का जन्म न हो सके, जिसमें फूल न खिलें! यह सिकुड़ा हुआ धर्म हुआ। यह बीमारों को उत्सुक करेगा। निषेधात्मक और नकारात्मक लोगों को बुला लेगा। यह एक तरह का अस्पताल होगा, मंदिर नहीं। इसलिए मैं तुमसे कह देना चाहता हूं कि महावीर की अहिंसा का ठीक-ठीक अर्थ प्रेम है। सूफी जिसे इश्क कहते हैं, उसी को महावीर अहिंसा कहते हैं। जीसस ने कहा है, प्रेम परमात्मा है। उसी को महावीर ने कहा हैः तुगं न मंदराओ, आगासाओ विसालयं नत्थि। जह तह जयंमि जाणसु, धम्महिंसासमं नत्थि।। "जैसे जगत में मेरू पर्वत से ऊंचा कोई और पर्वत नहीं, और आकाश से विशाल कोई और आकाश नहीं, वैसे ही अहिंसा के समान कोई धर्म नहीं है।" चौदहवां प्रवचन प्रेम से मुझे प्रेम है पहला प्रश्नः परंपरा-भंजक महावीर ने स्वयं को प्राचीनतम जिन-परंपरा का चौबीसवां तीर्थंकर क्योंकर स्वीकार किया होगा? कृपया समझाएं! परंपरा की तो परंपरा है ही, परंपरा-भंजन की भी परंपरा है। परंपरा तो प्राचीन है ही, क्रांति भी कुछ नवीन नहीं। क्रांति उतनी ही प्राचीन है जितनी परंपरा । इस पृथ्वी पर सब कुछ इतनी बार हो चुका है कि नया हो कैसे सकेगा? जिसको तुम नया कहते हो, वह भी बड़ा पुराना है; जिसे पुराना कहते हो, वह तो है ही। जब से परंपरावादी रहा है, तभी से क्रांतिवादी भी रहा है। जब से रू
ढ़िवादी रहा है, तभी से रूढ़ि को तोड़नेवाला भी रहा है। जब प्रतिमाएं बनानेवाले लोग पैदा हुए, तभी से प्रतिमाओं को तोड़नेवाले लोग भी पैदा हो गये। वे साथ-साथ हैं। वे अलग-अलग हो भी न सकेंगे। वे दिन और रात की तरह साथ-साथ हैं। क्रांति और परंपरा एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। न परंपरा जी सकती है बिना क्रांति के, न क्रांति जी सकती है बिना परंपरा के। जिस दिन परंपरा मर जायेगी, उसी दिन क्रांति भी मर जायेगी। इसे थोड़ा समझना; क्योंकि साधारणतः हम जीवन में जहां भी विरोध देखते हैं--सोचते हैं, दोनों दुश्मन हैं। ऐसा देखना अधूरा है। जहां-जहां विरोध है, वहां गौर से खोजोगे तो गहराई में पाओगे, दोनों परिपूरक हैं। विरोध भी एक भांति कि मैत्री है और शत्रुता भी एक ढंग का प्रेम है। पुरुष हैं, स्त्रियां हैं उनमें प्रेम भी है, विरोध भी है। विरोध के कारण ही प्रेम है। क्योंकि विरोध से भिन्नता पैदा होती है। विरोध से दूसरे को खोजने की आकांक्षा पैदा होती है। स्त्री-पुरुष लड़ते रहते हैं और प्रेम करते रहते हैं। लड़ाई और प्रेम कुछ इतने विपरीत नहीं हैं। जिस पति-पत्नी में लड़ाई बंद हो चुकी हो, समझना कि प्रेम भी मर चुका। जब तक प्रेम की चिंगार रहेगी, तब तक थोड़ा-बहुत झगड़ा, थोड़ी-बहुत कलह भी रहेगी। लड़ने से प्रेम नहीं मरता है। लड़ना प्रेम का ही अनिवार्य हिस्सा है। जैनों की परंपरा उतनी ही प्राचीन है जितनी हिंदुओं की। जैनों के पहले तीर्थंकर ऋषभ का नाम वेदों में उपलब्ध है--बड़े सम्मान से उपलब्ध है। उस जमाने के लोग बड़े हिम्मतवर रहे होंगे। अपने विरोधी को भी सम्मान से याद किया है। जिस दिन दुनिया समझदार होती है, उस दिन ऐसा ही होगा। तुम अपने विरोधी को भी सम्मान से याद करोगे, क्योंकि विरोधी के बिना तुम भी नहीं हो सकते हो। विरोधी तुम्हें परिभाषित करता है। उसकी मौजूदगी तुम्हें त्वरा देती है, तीव्रता देती है, गति देती है। उसका विरोध तुम्हें चुनौती देता है। उसके विरोध के ही आधार पर तुम अपने को निखारते हो, सम्हालते हो, मजबूत करते हो। अडोल्फ हिटलर ने अपनी आत्मकथा में लिखा हैः जिस राष्ट्र को शक्तिशाली रहना हो, उसे शक्तिशाली दुश्मन खोज लेने चाहिए। अगर दुश्मन कमजोर होगा, तुम कमजोर हो जाओगे। जिससे लड़ोगे, वैसे ही हो जाओगे। अगर दुश्मन शक्तिशाली होगा तो उससे लड़ने में तुम शक्तिशाली होने लगोगे। मित्र तो कैसे भी चुन लेना, लेकिन शत्रु जरा सोच-समझकर चुनना। क्योंकि मित्र अंततः उतने निर्णायक नहीं हैं, जितना शत्रु निर्णायक है। वह तुम्हें परिभाषा देता है। वह तुम्हें जीवन की व्याख्या देता है। वह तुम्हें चुनौती देता है। वह तुम्हें बुलावा देता है, प्रतिस्पर्धा का अवसर देता है। तो ऋग्वेद ने ऋषभ को बड़े सम्मान से याद किया है। ऋषभ जैनों के पहले तीर्थंकर हैं। जैनों का विरोध, जैनों की क्रांति उतनी ही पुरानी है, जितनी हिंदुओं की परंपरा । जैन वेद-विरोधी हैं। लेकिन वेद ने बड़ा सम्मान दिया है। जैन मूर्ति-विरोधी हैं, यज्ञ-विरोधी हैं, परमात्मा को भी स्वीकार नहीं करते, भक्ति का कोई उपाय नहीं मानते--मूलतः व्यक्तिवादी हैं, अराजक हैं। समूह में उनका भरोसा नहीं है, व्यक्ति में भरोसा है। और एक-एक व्यक्ति अलग और अनूठा है। और एक-एक व्यक्ति को अपना ही मार्ग खोजना है। कृष्णमूर्ति जो कह रहे हैं, वह जैनों की प्राचीनतम परंपरा है, वह कुछ नई बात नहीं है। यद्यपि जैन भी उनसे राजी न होंगे, क्योंकि अब तो जैन भी भूल गए हैं कि उनके प्राणों में कभी क्रांति का तत्व था; वह आग बुझ गई है, राख रह गई है। अब तो वे भी परंपरावादी हैं। लेकिन जैनों को समझना हो तो उनकी क्रांति के रुख को समझना जरूरी होगा। इससे बड़ी क्या क्रांति हो सकती है कि परमात्मा नहीं है, प्रार्थना नहीं है, पूजा-पूजागृह, सब व्यर्थ हैं! तुम किसी की अनुकंपा के आसरे मत बैठे रहना; तुम्हें स्वयं ही उठना है। तुम्हें कोई ले जा न सकेगा! महावीर यह भी नहीं कहते कि मैं तुम्हें कहीं ले जा सकता हूं; ज्यादा से ज्यादा इशारा करता हूं, जाना तुम्हीं को पड़ेगा--अपने ही पैरों से। महावीर तो आदेश भी नहीं देते कि जाओ। वे कहते हैं, आदेश में भी हिंसा हो जायेगी। मैं कौन हूं जो तुमसे कहूं कि उठो और जाओ? मैं उपदेश दे सकता हूं, आदेश नहीं। इसलिए तीर्थंकर उपदेश देते हैं, आदेश नहीं। उपदेश का मतलब हैः मात्र सलाह। मानो न मानो, तुम्हारी मर्जी। न मानो तो तुम कोई पाप कर रहे हो, ऐसी घोषणा न की जायेगी। मान लो, तो तुमने कोई महापुण्य किया, ऐसा भी कुछ सवाल नहीं है। मान लिया तो समझदारी, न मानी तो तुम्हारी नासमझी। लेकिन इसमें कुछ पाप-पुण्य नहीं है । तीर्थंकर आदेश भी नहीं देते। वे कहते हैं कि आदेश देने का अर्थ हुआ कि तुम दूसरे के मालिक हो गए। तुमने कहा, ऐसा करो; अब अगर न करेगा दूसरा व्यक्ति तो उसके मन में अपराध का भाव पैद
ा होगा, उसकी जिम्मेवारी तुम्हारी हो गई। अगर करेगा तो गुलामी अनुभव करेगा; तुम्हारी आज्ञा से चला। जैन कहते हैं, अगर आज्ञा मानकर किसी की तुम स्वर्ग भी पहुंच गए तो वह स्वर्ग भी नर्क ही सिद्ध होगा; क्योंकि दूसरे के द्वारा जबर्दस्ती पहुंचाए गए। सुख में कभी कोई जबर्दस्ती पहुंचाया जा सकता है? सुख तो स्वेच्छा से निर्मित होता है। अगर नर्क भी तुम स्वयं चुनोगे तो सुख मिलेगा; और स्वर्ग भी अगर धक्का देकर पहुंचा दिया, पीछे कोई बंदूक लेकर पड़ गया और दौड़ाकर तुम्हें स्वर्ग में पहुंचा दिया, तो वहां भी तुम्हें सुख न मिलेगा। निज की स्वतंत्रता में स्वर्ग है। परतंत्रता में नर्क है। इसलिए महावीर तो आदेश भी नहीं देते। क्रांति उनकी बड़ी प्रगाढ़ है। और वे कहते हैं, तुम स्वयं जिम्मेवार हो, कोई और नहीं। बड़ा बोझ रख देते हैं व्यक्ति के ऊपर। बड़ा भारी बोझ है! राहत का कोई उपाय नहीं। महावीर के पास कोई सांत्वना नहीं है। वे सीधा-सीधा तुम्हारा निदान कर देते हैं कि यह तुम्हारी बीमारी है; अब तुम्हें सांत्वना खोजनी हो तो कहीं और जाओ। तो महावीर उस मूर्ति-भंजक परंपरा के अंग हैं, जो उतनी ही प्राचीन है जितनी परंपरा। इसलिए स्वभावतः उस परंपरा-विरोधी परंपरा ने उन्हें अपना चौबीसवां तीर्थंकर घोषित किया । वस्तुतः उनके पहले के तेईस तीर्थंकरों में कोई भी उनकी महिमा का व्यक्ति नहीं था। वे बड़े महिमाशाली व्यक्ति थे, लेकिन महावीर की प्रगाढ़ता बड़ी गहरी है। इसलिए धीरे-धीरे ऐसी हालत हो गई कि तेईस तीर्थंकरों को तो लोग भूल ही गए। पश्चिम से जब पहली दफे लोग जैन धर्म का अध्ययन करने पूरब आये तो उन्होंने यही समझा कि ये महावीर ही इस धर्म के जन्मदाता हैं। तो पुरानी सभी अंग्रेजी, जर्मन, फ्रेंच की किताबों में महावीर को जैन-धर्म का स्थापक कहा गया है। वे स्थापक नहीं हैं। वे तो अंतिम हैं, प्रथम तो हैं ही नहीं। लेकिन बाकी तेईस खो गए। महावीर की प्रतिभा ऐसी थी, ऐसी जाज्वल्यमान थी कि ऐसा लगने लगा, उन्हीं से जन्म हुआ है इस धर्म का । तेईस तो करीब-करीब पुराण-कथा हो गए; उनका कोई उल्लेख भी नहीं रहा। वे तो धूमिल कथा-कहानी के हिस्से हो गए, पुराण हो गए, इतिहास न रहे। ऐसा कभी-कभी होता है, जब बहुत प्रतिभाशाली व्यक्ति पैदा होता है तो वह चाहे बीच में पैदा हो, चाहे पहले हो, चाहे अंत में, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता--सभी चीजें उसके आसपास वर्तुलाकार चक्कर काटने लगती हैं। आज तुम जिस जैन-धर्म को जानते हो, पक्का नहीं है कि ऋषभ का वही रहा हो, पार्श्वनाथ का वही रहा हो, नेमीनाथ का वही रहा हो, जरूरी नहीं है । आज तो तुम जिस जैन धर्म को जानते हो, उसकी सारी रूप-रेखा महावीर ने दी है। वह रूप-रेखा इतनी गहन हो गई कि अब तुम उसी बात को ऋषभ में भी पढ़ लोगे, क्योंकि महावीर को तुमने समझ लिया है। समझो कि जो मैं तुमसे कह रहा हूं महावीर के संबंध में जरूरी नहीं कि महावीर उससे राजी हों। लेकिन अगर तुमने मुझे ठीक से समझा, तो फिर मैं तुम्हारा पीछा न छोड़ सकूंगा; फिर तुम जब भी महावीर को पढ़ोगे, तुम मुझे ही पढ़ोगे। जो मैं कह रहा हूं, वह तुम्हें सुनाई पड़ने लगेगा। अर्थ तुम्हारे भीतर प्रविष्ट हो जाये, तो बाहर के शब्दों में वही अर्थ दिखाई पड़ने लगता है। महावीर इस क्रांतिकारी परंपरा में सबसे ज्यादा महिमावान, सबसे बड़े मेधावी व्यक्ति हुए। इसलिए उनके शब्द समझने जैसे हैं, विचार करने जैसे हैं, क्रांतिकारी तो अनूठे रहे होंगे; क्योंकि जैनों के दो संप्रदाय हैं-दिगंबर और श्वेतांबर। दिगंबर तो मानते हैं, महावीर का कोई भी वचन बचा नहीं, कोई शास्त्र बचा नहीं। यह भी क्रांति का हिस्सा है। वे कहते हैं, कोई शास्त्र महावीर का वचन नहीं। ये जो वचन हैं, यह श्वेतांबरों के संग्रह से लिये गये हैं। दिगंबरों के पास कोई संग्रह नहीं है। यह बड़े आश्चर्य की बात है कि दिगंबरों ने बचाया क्यों नहीं! यह भी उसी गहरी क्रांति का हिस्सा है। क्योंकि अगर बचाओ शब्दों को, तो आज नहीं कल वे शास्त्र बन जाएंगे। बचाओ तो शास्त्र आज नहीं कल वेद बन जाएंगे। इसलिए दिगंबरों ने तो महावीर के वचन बचाए ही नहीं। यह शास्त्र के प्रति बगावत की बड़ी अनूठी कहानी है। मानते हैं महवीर को, लेकिन कुछ शास्त्र नहीं बचाया है। व्यक्तिगत, गुरु से शिष्य को कहकर जो बातें आयी हैं, बस वही; उनको लिखा नहीं है । और इसलिए कोई भी शास्त्र महावीर के संबंध में दिगंबरों के हिसाब से प्रामाणिक नहीं है। न शास्त्र बचाया कि कहीं उसके साथ परिग्रह न हो जाए, न इस तरह के कोई आश्वासन दिये कि महावीर को पूजोगे तो मोक्ष मिल जायेगा। स्वयं को जानोगे तो मोक्ष मिलेगा, महावीर की पूजा से नहीं। स्वयं को जगाओगे तो मोक्ष मिलेगा, महावीर की अनुकंपा से नहीं। कोई गुरुप्रसाद की जगह जैनों के पास नहीं है। क्योंकि वे कहते हैं, सत्य अगर किसी के प्रसाद से मिल जाये
तो सस्ता हो गया। फिर तो सत्य भी वस्तु की तरह हो गया; किसी ने दे दिया; उधार हो गया। अपने जीवन को गलाओ। अपने जीवन को गला-गलाकर ही सत्य ढाला जायेगा। यह सत्य कहीं बाहर नहीं है कि कोई दे दे। इसलिए यह समझ लेना जरूरी है कि महावीर को जब स्वीकार किया गया चौबीसवें तीर्थंकर की तरह, तो इसीलिए स्वीकार किया गया कि उनसे ज्यादा बगावती आदमी उस समय में कोई भी न था। और भी लोग थे। और भी दावेदार थे। क्योंकि क्रांति किसी की बपौती थोड़े ही है। जब महावीर जिंदा थे तो बड़े तूफान के दिन थे भारत में; बड़ी बौद्धिक जागृति का काल था; बड़े शिखर पर लोग, आकाश में परिभ्रमण कर रहे थे। जैसे आज अगर विज्ञान समझना हो तो कहीं पश्चिम में शरण लेनी पड़ेगी; उस दिन अगर धर्म का कोई भी रूप समझना था, तो भारत में शरण लेनी पड़ती। भारत के पास सभी धर्म की परंपराओं के बड़े जाग्रत पुरुष थे। और उन सभी के शिष्यों की आकांक्षा थी कि वे चौबीसवें तीर्थंकर की तरह घोषित हो जायें। प्रबुद्ध कात्यायन था, मक्खली गोशाल था, संजय विलेट्ठीपुत्त था, और भी लोग थे। अजित केशकंबली था। ये सभी बड़े महिमाशाली पुरुष थे। लेकिन इन सबके बीच से वह जो सर्वाधिक क्रांतिकारी था, महावीर, वह श्रमणों की परंपरा में चौबीसवां तीर्थंकर बना। बुद्ध भी थे। बुद्ध की तो अलग ही परंपरा बन गई; अलग ही धर्म का जन्म हुआ। लेकिन यह सोचने जैसा है कि बुद्ध की मौजूदगी में भी क्रांतिकारियों की धारा ने महावीर को चुना था। महावीर की क्रांति बुद्ध से ज्यादा गहरी है। बहुत जगह बुद्ध थोड़ा समझौता करते मालूम पड़ते हैं; ज्यादा व्यवहारिक हैं। महावीर बिल्कुल अव्यवहारिक हैं। क्रांतिकारी सदा अव्यवहारिक रहा है। उसके पैर जमीन पर नहीं होते, आकाश में होते हैं। वह आकाश में उड़ता कुछ उदाहरण के लिए समझना जरूरी है। बुद्ध के पास स्त्रियां आयीं, दीक्षा के लिए, तो बुद्ध ने इनकार कर दिया। यह समझौता था। यह थोड़ा भय था। यह इस बात का भय था कि ऐसा तो कभी नहीं हुआ कि स्त्री और पुरुष साथ-साथ संन्यासी हों और साथ-साथ रहें। बुद्ध को भय लगा, इससे तो कहीं ऐसा न हो जाये कि धर्म नष्ट हो जाये! कहीं स्त्री-पुरुषों का साथ रहना कामवासना के ज्वार के पैदा होने का कारण न बन जाये! कहीं स्त्रियां पुरुषों को भ्रष्ट न कर दें। तो वह जो स्त्रियों के प्रति पुरुषों का पुराना भय है, कहीं न कहीं बुद्ध के मन में उसकी छाया थी। उन्होंने इनकार किया। वे वर्षों तक इनकार करते रहे कि स्त्री को मैं संन्यास न दूंगा; क्योंकि स्त्री को संन्यास देने से खतरा है। महावीर के सामने भी सवाल उठा। वे तत्क्षण संन्यास दे दिये। उन्होंने एक बार भी यह सवाल न उठाया कि स्त्री को संन्यास देने से कोई खतरा तो न होगा! क्रांतिकारी खतरे को मानता ही नहीं, बल्कि जहां खतरा हो वहां जानकर जाता है। उन्होंने यह खतरा स्वीकार कर लिया। उन्होंने कहा, जो होगा ठीक है। फिर बुद्ध ने मजबूरी में, बहुत दवाब डाले जाने पर, वर्षों के बाद जब स्त्रियों को दीक्षा भी दी तो उन्होंने तत्क्षण कहा कि अब मेरा धर्म पांच सौ वर्ष से ज्यादा न जीयेगा; यह मैंने अपने हाथ से ही बीज बो दिया अपने धर्म के नष्ट होने का । और बुद्ध का धर्म पांच सौ वर्ष के बीच नष्ट भी हो गया भारत से। और कारण वही सिद्ध हुआ जो बुद्ध ने माना था; जो भय था वह सही साबित हुआ। क्योंकि जब स्त्री-पुरुष पास-पास रहे तो विराग तो दूर हो गया, वैराग्य तो दूर हो गया, राग-रंग शुरू हुआ। राग-रंग ने नये रास्ते खोज लिये, नयी तर्क की व्यवस्थाएं खोज लीं। तंत्र का जन्म हुआ। बुद्ध धर्म समाप्त हो गया। लेकिन महावीर का धर्म अब भी जीता है, अब भी जीता-जागता है। स्त्रियों को समाविष्ट कर लिया, धर्म नष्ट न हुआ। बड़ा क्रांतिकारी भाव रहा होगा । महावीर नग्न खड़े हो गए। कोई जैनों में भी परंपरा न थी नग्न होने की। आज तो तुम जाकर देखोगे दिगंबर जैन मंदिरों में तो चौबीस ही जैनों की प्रतिमाएं नग्न हैं। वह महावीर ने परिभाषा दे दी। वे तेईस नग्न थे नहीं, महावीर ही नग्न हुए थे। बाकी तेईस तो वस्त्रधारी ही थे। इसलिए अगर श्वेतांबरों और दिगंबरों के विवाद में निर्णय करना हो तो बहुमत श्वेतांबरों के पक्ष में होगा, क्योंकि चौबीस तीर्थंकरों में तेईस वस्त्रधारी थे, और एक ही निर्वस्त्र था। तो अगर निर्णय ही करना हो तो तेईस की तरफ ध्यान करके करना चाहिए, सीधा लोकतांत्रिक हिसाब है। लेकिन महावीर का प्रभाव इतना महिमाशाली हुआ कि जिनके वस्त्र थे उनकी प्रतिमाओं से भी वस्त्र उतर गए। क्योंकि फिर ऐसा लगने लगा, अगर महावीर नग्न हैं और पार्श्वनाथ वस्त्र पहने हुए हैं तो पार्श्वनाथ ओछे मालूम पड़ेंगे, छोटे मालूम पड़ेंगेः इतना भी त्याग न कर पाये! नग्नता कसौटी हो गई। ऐसा सदा हुआ है। जो सर्वाधिक महिमाशाली है वह कसौटी बन जाता है। फिर उसके पीछे इतिहास भी बदल जाता
है। अतीत भी बदल जाता है; क्योंकि अतीत के संबंध में हमारे दृष्टिकोण बदल जाते हैं। नग्न खड़े हो जाना बड़ा क्रांतिकारी मामला था, क्योंकि नग्नता सिर्फ नग्नता नहीं है। इसका तुम अर्थ समझो। नग्न होने का अर्थ हैः समाज का परिपूर्ण अस्वीकार; समाज की धारणाओं की परिपूर्ण उपेक्षा । तुम अगर चौरस्ते पर नग्न खड़े हो जाओ तो उसका अर्थ यह होता है कि तुम दो कौड़ी कीमत नहीं देते कि लोग क्या सोचते हैं, कि लोग अच्छा सोचते हैं कि बुरा सोचते हैं, कि लोग तुम्हारे संबंध में क्या कहेंगे! हमारे पास शब्द है भाषा में--किसी को गाली देनी हो तो हम कहते हैं "नंगा-लुच्चा"--वह महावीर से पैदा हुआ। नग्न वे थे और बाल लोंचते थे, इसलिए लुच्चा। पहली दफा महावीर को ही लोगों ने नंगा-लुच्चा कहा; क्योंकि वे नग्न खड़े होते थे और बाल भी काटते न थे। जब बाल बढ़ जाते थे तो हाथ से उनका लोंच करते थे। तुमने कभी सोचा न होगा कि आखिर नंगे को लुच्चा क्यों कहते हैं! लुच्चे का क्या संबंध है? फिर तो धीरेधीरे लुच्चा शब्द अलग भी उपयोग होता है। अब तुम कहते हो, फलां आदमी बड़ा लुच्चा है। लेकिन तुम यह नहीं पूछते कि उसने लोंचा क्या है! महावीर के साथ पैदा हुआ शब्द है-गाली की तरह पैदा हुआ, निश्चित ही समाज बहुत नाराज हुआ होगा, बहुत क्रुद्ध हुआ होगा। इस आदमी ने सारे हिसाब तोड़ दिये। वस्त्र सिर्फ वस्त्र थोड़े ही हैं, समाज की सारी धारणा है। वस्त्रों में छिपे हुए समाज का सारा संस्कार, उपचार, शिष्टाचार, सभ्यता, सब है। नग्न को हम असभ्य कहते हैं। आदिवासी हैं, नग्न रहते हैं, उनको हम असभ्य कहते हैं, आदिम कहते हैं। क्यों? क्यों असभ्य? क्योंकि अभी उन्हें इतनी भी समझ नहीं कि अपने शरीर को ढांकें, छिपाएं; जानवरों की तरह हैं; पशुओं की तरह हैं। आदमी और जानवर में जो बड़े-बड़े फर्क हैं, उनमें एक फर्क यह भी है कि आदमी कपड़े पहनता है। आदमी अकेला पशु है जो कपड़े पहनता है। बाकी सभी पशु नग्न हैं। तो महावीर जब नग्न हुए उन्होंने कहा कि संस्कृति नहीं, प्रकृति को चुनता हूं; सभ्यता को नहीं, आदिमस्वभाव को चुनता हूं। और जो भी दांव पर लगती हो इज्जत, पद-प्रतिष्ठा, वह सब दांव पर लगा देता हूं। आज से पच्चीस सौ साल पहले वैसी हिम्मत बड़ी कठिन थी; आज भी कठिन है। आज भी नग्न खड़े होने पर अड़चनें खड़ी हो जायेंगी, तत्क्षण पुलिस ले जायेगी, अदालत में मुकदमा चलेगा। दिगंबर जैन मुनि को किसी गांव से गुजरना हो तो पुलिस को खबर करनी पड़ती है। और जब दिगंबर जैन मुनि, नग्न मुनि गुजरता है, तो उसके शिष्यों को उसके चारों तरफ घेरा बनाकर चलना पड़ता है ताकि उसकी नग्नता कुछ तो ढंकी रहे।
लड़की गहरी साँवली थी। एक दिन अपने साँवलेपन से आजिज आकर वह तीन हफ्ते में गोरेपन का दावा करने वाली एक फेयरनेस क्रीम बाजार से ले आयी। हालाँकि वह तीस हफ्ते तक इंतजार कर सकने के धैर्य से उसे लेकर आयी थी, पर हुआ ये कि पहले हफ्ते के आखिर में ही उसकी त्वचा कुछ निखर गयी। बात यहीं से शुरू होती है। उसे लगने लगा कि जिंदगी को अब वह उसके पूरे चटक के साथ जी सकती है। उसकी झूठ की रफ्तार में दुगुनी उछाल आ गयी। पहले जहाँ उसकी दस में से चार बातें झूठ हुआ करती थीं, अब मात्र एक या दो सही हुआ करतीं। मसलन अगले दिन फिजिक्स का एक्जाम होता तो वह इजा को और अपने ऊँचे कंधे वाले ट्यूटर को बताती कि परीक्षा अंग्रेजी की है। वह पढ़ कर भी अंग्रेजी ही जाती अपने ट्यूटर से और हिसाब चुकता करने के लिए अंग्रेजी वाले दिन फिजिक्स पढ़ लेती। नंबर जाहिर है राम भरोसे आते और वह ट्यूटर और इजा के सामने अगली दफे खूब मेहनत करने के अनकहे वादे वाला गंभीर चेहरा बनाती, जिसका कि असर एक उसके सिवा बाकी सब पर होता। इवा कार्णिक की त्वचा तैलीय थी। सब जगह। खाली होंठों के ऊपर और नीचे के हिस्से को छोड़ कर। गैर तैलीय हिस्सा हवा के जरा सा ससरने भर से अकड़ जाता था। तो ऐसे में इवा कार्णिक को दौड़ दौड़ कर आईना देखना पड़ता इस शुबहा से भर कर कि मूँछें तो नहीं उग आयीं। एक बार फिर। मूँछें अलग से उगती तो नहीं थीं पर होंठ के ऊपर के नीले नीले बाल, जो अमूमन अपनी महीनता में अदृश्य रहते, उन दिनों अपने को अकड़ा कर और एक दूसरे से चिपक कर एक पतली नीली लकीर खींच देते होंठों के ठीक ऊपर। और आगे ये कि होंठ हिलाना, बोलना, मुस्कुराना, ठहाके मारना सब छनछनाहट भरा। चिपचिपा घरेलू लेप प्रलेप ताबड़तोड़ लगा कर उस जगह को वापस से मुलायम बनाने में दो तीन दिन का वक्त लग जाता और इवा कार्णिक फिर से लड़की बन जाती। इसी लड़की छाप दिनों की खाली शाम कही जा सकने वाली शाम। इवा कार्णिक, कक्षा दस, जिसकी कि दायीं चोटी थोड़ी ज्यादा नीचे तक झूलती रहती थी, जल्दी जल्दी पेन्सिल की नोंक को महीन करने में जुटी थी, जबकि ऊँचे कंधे वाला आदमी कमरे में घुसा। इवा कार्णिक को रटे रटाये स्वर में उठ कर खड़े हो जाना था और फिर दूसरे पल बिना किसी की इजाजत लिए वापस बैठ भी जाना था। वह उसका ट्यूटर था। मास्टर वगैरह शब्द प्रचलन में नहीं तो सीधे सर, जो प्रतिमाह दो हजार रुपये, लिफाफे में डाले हुए, पाया करता था, बतौर पारिश्रमिक। और इवा कार्णिक इस लिफाफा सुपुर्दगी के संभावित वक्त अपने को कमरे से अनुपस्थित कर लिया करती थी। वह एक सख्त ट्यूटर था। कुछ चीजें उसे हद तक नापसंद थीं, जो इवा कार्णिक को मुँहजबानी याद थीं। उन दो घंटों में उसे अकड़ी हुई गरदन को उठा कर अकड़ भगाने तक की सहूलियत नहीं मिलती। जिन सवालों के जवाब उसे पक्का मालूम होते, उन्हें वह फुसफुसा कर बोलती। जिन जगहों का ठिकाना पक्का पता होता उन पर बस पेन्सिल टिका कर काम चला लेती। यानी कि गैर तैलीय त्वचा पर अगर हल्की मूँछों का मौसम हो तो, एक बार भी छनछनाहट नहीं होती। क्योंकि न हिलाना न बोलना न मुस्कुराना ठहाके मारने का तो सवाल ही क्या! आखिर के पंद्रह मिनट संरक्षित थे उसके हिस्से के। उसके सवाल पूछने का वक्त। उस दिन के पढ़ाये पाठ से। इवा कार्णिक के लिए यह दिन के सबसे मुश्किल पंद्रह मिनट होते। उसकी हालत एक ऐसे आदमी की हो जाती, जिसके कि हाथों में स्टेज की कठपुतलियों की सारी डोरियाँ थमा दी गयी हों अचानक से कुछ देर के लिए और उतनी ही देर में उसे अपनी योग्यता साबित भी करनी हो, जबकि अंदर की बात कि कौन सी डोर के खिंच जाने से कौन सी चीज कितनी लचक जायेगी, उसे ये तक न पता हो। दिमाग का पिछला हिस्सा इसी समय चमत्कार कर जाता और उसे तीन चार दिन पहले का पढ़ाया कुछ याद आ जाता। यही वजह कि भूगोल पढ़ा चुकने के बाद के मुकर्रर वक्त में वह अक्सर रसायन का कोई उलझा सा सवाल पूछती। यह उलझी चीज एक बात तो एकदम साफ कर देती कि पढ़ाये जाने वक्त भले उसे ऐसा लगता हो कि वह कुछ भी नहीं सुन पा रही, पर वह सुन सब लेती थी। वरना क्या संभव कि तीन चार दिन देर से ही सही बिना सुन रखा कुछ इतनी शिद्दत के साथ उपस्थित हो जाये प्रश्नवाचक चिह्न को अपने पीछे टाँगे टाँगे! सब कुछ ऐसा रटा रटाया सा कि बिना हैरत भाव, भूगोल की कक्षा के बाद उसे रसायन का खोया हुआ जवाब बदले में मिल भी जाता था बगल वाले से। जवाब को सुनते हुए वह अपने पूछे गये सवाल को समझने की कोशिश करती होती कि एक सुखद समाचार की तरह घड़ी की सबसे पतली सूई हाँफती हुई उसे अपने पंद्रह चक्कर लगा चुकने की सूचना दे देती और वह उठ खड़ी होती। यह वक्त होता जब उसके बगल का सख्त आदमी ड्राइंगरूम में ही पार्टिशन के उस पार सोफे वाले इलाके की ओर चला जाता और वह पलट कर भीतर सुरंग की तरफ चली आती। इजा कहलाने वाली स्त्री सफेद रंग के शिकं
जे में पूरी तरह से कैद कही जा सकती थी। उसकी उम्र, उसके बाल, उसके कपड़े, उसकी हरकतें। वह बगैर इस्तरी और कलफ की साड़ियों को हाथ तक नहीं लगाती थी। उसका ज्यादा वक्त सोफा कवर को पीछे की तरफ खींचने, टीवी कवर की चेन बंद करने, फूलदान की पीली पत्तियों को कतरने और किसी हड़बड़िया पाँव के धक्के से मुड़ गयी कालीन को वापस फैलाने में बीतता था। उसके घर की बाइयों में टिकाऊपने का अभाव रहता। हफ्ता दो दिन के आगे कोई भी चल नहीं पाती। फर्श के कोने कोने से धब्बों को बीन बीन कर रगड़वाना, लोहे के बरतनों को अपनी निगरानी में चमकवाना, इसके मूल में था। खैर फिक्र क्या! एक बाई के विदा लेने और दूसरे के आने के बीच के दिनों में भी घर को कमी महसूस नहीं होने पाती कुछ भी, क्योंकि हर प्रकार के काम की मुस्तैद कमान वह अपने हाथ में सँभाल लेती। हालाँकि उसने दुनिया देखने की शुरुआत अपने पति की देखरेख में एक ग्लोब पर भारत के नक्शे के ऊपर उँगली टिका देने से की थी, पर अब वह इस दुनियादेखी में इतना आगे निकल चुकी थी कि सामने वाले, बगल वाले और पीछे वाले शामिलद्ध को चुटकी भर में परख कर दूध से पानी को अलगा देती। पाँच रुपये के पत्तर वाली काली हेयर पिन और चार रुपये के गुच्छे वाला सेफ्टीपिन उसके सबसे खास औजार थे। नहाने धुलने के बाद से साड़ी का पल्लू तहा कर जो सेफ्टीपिन के तार खाँचे में फिट होते, फिर अगले दिन नहाने के पहले ही अलग हो पाते। यही स्वामिभक्ति हेयरपिन की भी। यहाँ तक कि रात को उसके सो चुकने पर भी वे दोनों अपनी ड्यूटी निभाते जाते। उसकी आँखों का रंग भूरा था और उसी से मेल खाता गार्नियर के चार नंबर का ब्राउन शेड अपने बालों पर लगा कर वह सफेदी के ऊपर सुनहरे भूरे रंग का जिल्द चढ़ाये रखती थी। उसकी चौकसी को देख कर कहा जा सकता था कि उसे किसी महत्वपूर्ण चीज के होने का इंतजार था और उसे अहसास था कि किसी भी पल उसके अपने दरवाजे पर दस्तक हो सकती थी। पर चूँकि उसने नियति की दस्तक सुनी नहीं थी, वह केवल कल्पना कर सकती थी उसके वैसा होने की, जैसी कि वह सच में होती। आँखें मूँद कर आरामकुर्सी पर बैठे रहने पर भी बाकी की दस्तक को सुन कर वह पहचान कर सकती थी कि किस बार दरवाजा खोलने पर सामने कौन दिखेगा! कौन सी थाप दूधवाले की, कौन अखबारवाले की, कौन नाई की, कौन इवा कार्णिक की, कौन ऊँचे कंधे वाले आदमी की। और यह, सच कहें तो उसका दिलचस्प मनबहलाब भी था। हर बार हाथ की थाप पर पहचान करना और दरवाजा खोल कर अपने को सही साबित होते देखना और फिर से दूसरी थाप का इंतजार करना। वजह यही कि आज तक उसके घर के दरवाजे के बायें या दायें कहीं भी कॉलबेल को जगह नहीं मिल पायी थी। ऊँचे कंधे वाले आदमी का दुनियावी नाम विक्रम आहूजा था। उस घर में आते जाते उसका माथा घर के दरवाजे के ऊपरी हिस्से से छू जाता था। एक, दरवाजों की ऊँचाई कम थी और दूसरे हर दरवाजे के नीचे टखनों की ऊँचाई के चौखट बने थे। और इन सबसे ऊपर उसका आसमानी कद। वह हमेशा दौड़ने के वक्त पहने जाने वाले सफेद जूते पहनता। उसके चलने, बोलने ओर साँस लेने में एक खास किस्म की जिद थी। उसके अतीत पर दो प्रेमिकाओं की छाप थी। पहला प्रेम शुरुआती गुनगुनाहट जितना था। गौरी करमाकर। एक कॉलेज, एक क्लास, एक विषय, एक रास्ता घर का - वाले किस्म का। उसमें एक दूसरे प्रायद्वीप पर उतरने का रोमांच था। वह मटर की फलियों को विलगाने जैसा था - बहुत मीठे श्रम की अपेक्षा वाला। वाक्या पंखुड़ी के खिलने जैसा था, जिसका खिलना कोई देख न पाये। ठीक वैसे ही उसका मुरझाना भी फूल के मुरझाने जैसा, जिसके मुरझाने का कोई हवाला नहीं दिया जा सके, बस एकबारगी दुनिया को खबर मिले कि फूल मुरझा चुका, या कि खबर न भी मिले। दूसरा कुछ बरस की करवटों के बाद। एक दिन गहरे शाम के वक्त, जब दफ्तर लगभग खाली हो चुका था, एक बेतरह उजली चमड़ी की लड़की लाल लाल सी हुई उसके पास आयी। उसके कंप्यूटर की सारी सूचनाएँ करप्ट हो चुकी थीं और बैकअप भी मौजूद नहीं था। दफ्तर में किसी प्रोजेक्ट के सिलसिले में दो लड़कियाँ आयी थीं। एक की चमड़ी देशी थी, दूसरी ये - विदेशी मूल वाली। विक्रम आहूजा के साथ किस्मत थी उस शाम। पच्चीस मिनट तक की अंधाधुंध माथापच्ची के बाद उसने वह कर दिखाया जिसकी उम्मीद उसे भी नहीं थी। लड़की की चमड़ी वापस खूब उजली हो चुकी और लाल रंग छँट गया था। उस शाम के बाद से उनकी पहली दो मुलाकातें विशुद्धतः लड़की की पहल पर हुईं। एक उसके ठीक अगले दिन जब वह इत्मीनान से उसका शुक्रिया अदा करने आयी और दूसरी काम पूरा करके लौटने की पूर्व संध्या पर जब वह अपना काम दिखाने और औपचारिक इजाजत लेने आयी। उसके बाद की मुलाकातों में कुछ राज खुले। लड़की आयरिश थी और होंठों को घुमा घुमा कर हिंदी बोलती थी। जब वह बेलौस बोलती तो शब्द छितरा कर निकलते और जब सचेत होकर बोलती तो शब्द एक दूसरे के
ऊपर चढ़ने लगते। उसे अपने समाज की जर्जर रहस्यमयी लोककथाएँ याद थीं। हालाँकि उसके वाक्दोष पर ध्यान दिया जाये तो कथाओं में रहस्य की जगह हास्य झाँकता मिलता पर उसकी हल्के रंग की पलकों वाली आँखों की गोलाई को ही दुनिया का आखिरी सच मान कर चले कोई तो रहस्य और रोमांस बस। बाकी सब झूठ। चर्च में जलती कैंडिल को आधार पर टिकाते हुए वह अपनी भाषा में सरपट बुदबुदाती कुछ, बाद में जिसका मतलब पूछे जाने पर वह गालों में गड्ढ़े धँसा कर मुस्कुरा देती बस। जिंदगी को बिना छुए हुए ही वह हलचल मचाने का ढब जानती थी। उछल कर मंदिर की घंटिया बजाते हुए, पानीपूरी के तीखेपन के बीच लाल गाल से सिसकारियाँ लेते हुए, बरसात में सड़क किनारे जमा हुए पानी में जान बूझ कर सैंडिल छपकाते हुए तरंग पैदा करने की उसकी क्षमता को महसूसा जा सकता था। वह सुनते हुए कभी ऊबती नहीं थी। उसे दूसरों को माफ करने का भयानक चस्का था। वह हर काम मुस्कुरा कर करती थी चाहे वह पहली शाम मदद माँगने की बात हो या कि आखिरी शाम अपना प्रोजेक्ट पूरी तरह खत्म हो चुकने पर अपने देश वापस लौटने की बात हो। जवाब में विक्रम आहूजा भी मुस्कुराया। उसे लगा कि बादल के एक गुच्छे को कुछ समय के लिए ही सही, उसने छू लिया था। इवा कार्णिक को अपने बालों से बड़ी शिकायत थी। कंधे तक सीधे चल कर वे नीचे छल्लों में उलझ गये थे। शायद इसकी वजह ये कि स्कूल में उसे गूँथ गूँथ कर दो चोटियाँ बनानी होतीं जो स्कूल जाने की हड़बड़ी में अक्सर टेढ़ी मेढ़ी बनतीं। घर लौटते ही सबसे पहले वह उन्हें खोल देती और आजाद बालों के साथ शाम के वक्त पढ़ने जाती। पर होता यह कि जैसे ही वह किताब पर आगे की तरफ झुक कर समझने का खेल शुरू करती, बाल धड़धड़ा कर आगे झूल जाते। वह उन्हें समेट समेट कर कान पर टिकाती पर उसके हाथ अभी वापसी के रास्ते में ही होते कि बाल ढुलक जाते दुबारा से। बालों की सबसे लंबी लट लड़खड़ाते हुए किताब के उस छोर दूर वाले दूसरे पन्ने पर लहराने लगती। ऊँचे कंधे वाला आदमी अपनी गरदन उठाता उसकी तरफ और इवा कार्णिक का इधर उधर डोलता दिल उछल कर अपनी जगह पर आ जाता, एक पुरजोर डाँट की आशंका में। विक्रम आहूजा होंठ अलगाने के तुरंत बाद अपना निर्णय बदल लेता और लड़की को बिना डाँट खाये रह जाना पड़ता। ट्यूटर समझता था कि उसके बगल की लड़की खाली ढोंग करती है समझने का और जबकि उसे उसके इस ढोंग से भयानक विरक्ति होती थी, वह समझ नहीं पाता कि वह क्यों नहीं डाँट पाता उसे। वह अगर बीच से कोई सवाल कर देता तो लडकी भौंहें तिरछी करके अं अं करके कुछ याद करने की कोशिश करने लगती। वह पढ़ाते वक्त रोज तय करता कि आज पार्टिशन के उस तरफ जाने के बाद वह वसुंधरा कार्णिक से लड़की की शिकायत कर देगा और अगले दिन से न आ पाने की माफी माँग लेगा। वह भूमिका भी डालता इस बात की पर चुस्त दुरुस्त वसुंधरा कार्णिक बतौर दादी इतनी असुरक्षित थी कि शिकायत तो वह शायद कर भी देता पर आगे न आने की बात नहीं कह पाता। और जब न आने की बात ही नहीं हो पाती तो शिकायत का फायदा क्या! उसे शक था कि लड़की उसके इस द्वंद्व को समझती थी। इसी वजह उसने अपने आप को भरपूर इतराने की छूट दे रखी थी। पढ़ाते पढ़ाते अचानक से ऊँचे कंधे वाले आदमी का ध्यान बगल वाली की तरफ जाता तो वह उस वक्त उसे ध्यान से सुन रही दिखती पर लड़की के हाथों पर नजर जाते ही भ्रम की झिल्ली गिर जाती और उसका एक छोटे कागज को चिंदी चिंदी फाड़ने में ध्यानरत होना प्रकाश में आ जाता। ट्यूटर की नजर पड़ते ही वह फाड़ रहे अपने हाथों को जहाँ का तहाँ रोक देती। आधे फटे हुए पूरे फटे हुए कागज के छोटे छोटे टुकड़े सोफे पर अपनी बगल में रखे जाते समान भाव से। उसका मन तेज तेज दौड़ रहा होता पर बाकी के अपने पूरे शरीर पर उसका कड़ा नियंत्रण था और वे मन के विपरीत अपने को स्थिर रख पाते थे। चूँकि दाहिना तलवा इस 'पूरे शरीर' की सीमा में नहीं आता था, इसीलिए पूरा शरीर अपने को किताब के पन्ने पर केंद्रित कर देता और दाहिना तलवा मन की गति से हिलता जाता था थरथराने की लय में। बीच बीच में अर्धविराम की हैसियत से सोफे पर इवा कार्णिक के बगल की एक चिंदी उड़ने लगती हवा के झोंके में और तब अपने पूरे शरीर से लड़की का नियंत्रण हट जाता और वह चिंदी के उड़ियाने से लेकर एक कोने में जा दुबकने का पूरा खेल पलकें फड़फड़ा कर देख लेती। विक्रम आहूजा सोचता था कि अगर वह लड़की दो तीन साल और छोटी होती तो वह उसे पाँच भरपूर उँगलियों वाला एक तमाचा मार सकता था, इस फ्रस्टेशन के बाद। स्कूल में प्रीबोर्ड के नतीजों के बाद की गार्जियन मीट। लड़की का अभिभावक बन कर उसे उपस्थित होना था, ये बात एक शाम पहले उद्घाटित की गयी थी। वसुंधरा कार्णिक ने एक प्रस्ताव रखा था, जो उत्तरार्ध में याचना की तरलता से फैल गया। वह हाँ या ना कुछ भी करने में अपने को असमर्थ पा रहा था
। उसके पास एक ही घिसी पिटी दलील थी - अभिभावकों के समूह में उसकी क्या जगह! वसुंधरा कार्णिक जैसी कि एक चुस्त दुरुस्त महिला थी, विद्यालय से पहले ही अपनी अस्वस्थता के कारण अपनी जगह उसे भेजने की इजाजत ले चुकी थी। उससे अब और बैठा नहीं गया। वह अनुमति लेकर घर के दरवाजे पर झुका जूते पहन रहा था कि धरती पर गिरे बूँद की तेजी से इवा कार्णिक हाजिर हो गयी। हाँफने के अंदाज में। अगले दिन उसे पहुँचने के समय की सूचना देती हुई। उसने जूते के फीते बाँधते हुए सिर झुकाये सुना। उठते ही उसकी आँखों के ठीक सामने उसकी आँखों के आकार की एक जोड़ी आँखें आ गयीं। इवा कार्णिक ने फुसफुसा कर कहा - 'ब्लू शर्ट और ब्लैक जींस पहन कर आइयेगा' - बगैर पलक झपकाये। ऊँचे कंधे वाले आदमी की पलकें झपकी थीं। लड़की जा चुकी थी। स्कूल के फाटक के भीतर घुसना पहली नजर में अपने अतीत में दाखिल होने सरीखा था। कतार में लगी साइकिलें, एक कंधे पर बेपरवाही से टंगे बैग्स, चेक के ग्रे स्कर्ट्स और ग्रे फुलपैंटों में बँटी दुनिया। हर हरकत का घंटियों का मुहताज होकर रह जाना, वही परीक्षाओं की तलवार, वही पनिश्मेंट्स की बहार। एक पीढ़ी बदल गयी और स्कूल के फाटक के भीतर कलकल बहते जीवन के बीच भी वक्त वहीं रुका रह गया कहीं। उसका मन हुआ कि वह एक हाथ बढ़ा कर छू ले किसी बस्ते का कोर ही या किसी ग्रे फुलपैंट की दाहिनी जेब में उँगलियाँ ही सरका दे। पर एक गुनगुनाहट भर दूरी थी। उनकी हँसी की खनखनाहट में एक कोड वर्ड छिपा था। उनकी बोली के हिज्जे में किसी को अपने घेरे के भीतर न घुसने देने की जिद छिपी थी। उनकी उँगली नचा नचा कर बोलने की अदा दरअसल एक निशान खींच दे रही थी, अपने को दूसरों से अलगाने के लिए। विक्रम आहूजा को बहुत तेज अहसास हुआ कि वक्त रुका भले रह गया हो पर उसकी शक्ल बदल चुकी थी। अंदर तीन टुकड़ों में बँटी कुर्सियाँ थीं। सामने की सबसे विरल, अध्यापकों के लिए थीं। सामने का दो घेरा। एक में बच्चे। एक पेरेंट्स का कुनबा, जो सबसे घना था। कमरे में उजाले का बँटवारा ऐसा था कि एक खास जगह के हिस्से में तेज रोशनी का घेरा आया था, जिसके कि दायरे में एक एक कर हर बच्चे को अपनी बारी आने पर खड़ा होना था। सामने का विरल घेरा उसके हासिल किये गये अंकों और पढ़ायी लिखायी के उसके प्रदर्शन पर टिप्पणी आरंभ कर देता और घने कुनबे के तीन चार सदस्यों से, जो बच्चे के माता पिता या भाई बहन कुछ भी हो सकते थे, मुखातिब हो जाता। इवा कार्णिक अपनी बारी आने पर कुर्सी से उठी और अलसाये चूहे की रफ्तार से घेरे तक पहुँची। घेरे के बीचोंबीच पहुँच कर पहली हरकत जो उसके मन में हुई, वह दरअसल शुबहा थी। अंदेशा। बल्कि उसे ऐसा पक्का लगा कि उसका दाहिना मोजा सरक चुका था नीचे की तरफ। जूते के बिल्कुल पास सिमटा हुआ। यह एक निहायत ही ट्रैजिक कल्पना थी। रोशनी से चुंधियाने वाले की न सिर्फ दोनों चोटियाँ टेढ़ी मेढ़ी थीं, बल्कि एक मोजा भी एकदम नीचे तक सरका हुआ था। उसकी पनियाई सी मुट्ठी खुली। कमरा बहुत ठंडा था। इतना कि जिस घुटने का मोजा नीचे सरक चुका था, उसके मोजे के भीतर से तुरंत तुरंत उघड़े दायें पैर के रोयें खड़े हो गये। उसकी आँखों के आगे से उजाला धुल गया। उसकी पुतलियों ने एक बार सारी ताकत बटोर कर नीले रंग को तलाशने की चेष्टा की पर उजाले की अनुपस्थिति में नीला रंग काले रंग में घुल कर दम तोड़ चुका था। गोरेपन की क्रीम लगाते हुए ये तीसरा हफ्ता चढ़ा था। या कि उसका या घेरे का कमाल लड़की बहुत सफेद दिख रही थी। हालाँकि उसमें भय की मात्रा नहीं थी। उसने जो हासिल किया था, उसका अंकों में अनुवाद किया जाय तो अर्जित बहुत कम बचता था। अलग अलग विषयों के अंक उछल कर एक दूसरे के खाने में चले गये थे। गणित का अंक समाजशास्त्र में, केमेस्ट्री के नंबर इकॉनामिक्स में। पर सबका जमा ये कि एक दूसरे के खाने में पड़े भले, पर अंक सारे कमजोर थे। टीचरों की सुनें तो उन्हें पूरा यकीन था कि थोड़ी सी तत्परता अगर वह दिखाये तो वह अच्छा कर सकती है। यह एक ऐसा अटूट विश्वास था जोकि पिछले कई वर्षों से टीचर्स उस पर दिखाती आयी थीं एकतरफा और जिसमें कि खुद लड़की की कोई भागीदारी नहीं थी। उसके शरीर में कोई हरकत नहीं हुई सिवाय साँसों की दो एक लंबी आवाजों के, जो चार उँगली की दूरी पर फिट किये हुए माइक से, जिससे कि बच्चों को मैं पूरी कोशिश करूँगी/करूँगा कि अपने टीचरों की उम्मीद पर खड़ा उतर सकूँ या कि मैं अपनी कमियों को दूर करने का प्रयास करूँगा/करूँगी बोलना था, रिस कर आयी थीं। उसने बेआवाज गरदन में हल्की सी तरंग पैदा कर अपनी पारी के बोले जाने की रस्म निभा दी। अब बोलने की बारी ऊँचे कंधे वाले आदमी की थी, जिसे रीति के मुताबिक बोलने की आड़ में सिर्फ देना था - सफाई विश्वास आदि। पर उसने रीति को तोड़ कर बात को एक विराम दिया। उसके पास बोलने के
लिए था ही क्या! क्योंकि चोटियों में कस कर जकड़ी इस लड़की से उसकी पहचान ही क्या! वह उस जंगली उड़ान भरते बालों वाली लड़की की अंटशंट आदतों के खिलाफ या कि उसकी बड़ी बड़ी कमियों के पक्ष में बोल सकता था, पर सामने जो लड़की खड़ी थी, उसकी सफेदी के बारे में कोई बयान कैसे दिया जा सकता था! उसने दो घड़ी पहले अपनी पूरी क्षमता से नाच कर शांत पड़ चुकी पुतलियों के सम्मान में बात को विराम दिया। उस विराम का इवा कार्णिक पर ऐसा असर हुआ कि अपनी बारी के इस तरह खत्म हो चुकने के बाद भी वह उस जगह से हिली नहीं। जब दूसरे का नाम पुकारा गया और जब नाम पुकारा जाने वाला आ चुका तब भी वह सूत बराबर तक नहीं टसकी। उस दूसरे बच्चे को उसे छूकर संज्ञान की अवस्था तक पहुँचाना पड़ा, जहाँ से उसके वापस जाने का रास्ता शुरू होता था। लौटने के लिए मुड़ते वक्त ही उसे मैरून शर्ट दिख गयी, जिसकी शक्ल कुछ कुछ नीले रंग से मिलती जुलती थी। और शाम उसके घर के कमरे की रोशनी में वह यकीनन नीला ही दिखता। इवा कार्णिक ने स्कूल से लौटने के बाद की दुपहरिया में आईने में अपना चेहरा देखा और उसे लगा कि उसे जितने गोरेपन की जरूरत थी, उसे वह पा चुकी है और अब क्रीम की जरूरत उसके चेहरे को नहीं रह गयी थी। उसने अपने हाथ और गरदन पर क्रीम को लपेस लिया और जाकर इजा के बगल में लेट गयी। उसने इजा को बतलाया कि उसे इस बार बहुत कम नंबर मिले। वसुंधरा कार्णिक, जोकि पालने से उसके झूठ बोलने के अंदाज से वाकिफ थी, हर वक्त खाली मजाक करती है लड़की वाली अदा से हंस दी। ऐसे वक्त ही इवा कार्णिक की आस्था झूठ बोलने में और पुख्ता हो जाती और उसकी यह मान्यता एक बार फिर सही साबित होती कि झूठ और सच केवल बातें होती हैं और ये कि बोलने वाले की काबिलियत और सुनने वाले की परख किसी बात को सच या झूठ का जामा पहनाते हैं। उसने, उफ ऐसा सच जैसा दिखने वाला झूठ बोला फिर भी इजा ने पकड़ लिया - वाली लज्जा से कहा - 'इतिहास की टीचर बड़ी तारीफ कर रही थीं।' वसुंधरा कार्णिक गदगद हो गयी। उसने अपने तलवे से उसके पाँव को सहलाते हुए पूछा - 'अरे तेरे अपने ट्यूटर ने क्या कहा!' 'ओ ये! अब कहते क्या विनम्रता से पलकें झुकाये रहे।' दोनों अपने अपने कौशल से सच और झूठ को उनका जामा पहना कर खामोश पड़ गयीं। शाम के एक खास वक्त, जबकि वसुंधरा कार्णिक को एक अलग थाप पर यह पहचानते हुए उठ कर दरवाजा खोल देना था कि ऊँचे कंधे वाला आदमी आ चुका है, दरवाजे पर दस्तक पड़ी। वह अपने बँधे बँधाये विश्वास के साथ दरवाजा खोल कर वापस मुड़ गयी, पर उसे हलका सा आभास हुआ कि दरवाजे पर कोई नहीं था। उसने पलट कर परखा। वाकई कोई नहीं। उसे वापस आकर बैठे दो मिनट भी नहीं गुजरा था कि फिर से वही दस्तक। बैठ चुकने के बाद तुरंत उठने में उसे तकलीफ होती थी। घुटने। दरवाजा फिर खाली था एक बार। इस बार अपनी कुर्सी तक वापस लौट कर वह तत्काल नहीं बैठी। खड़ी रह गयी। तिबारे की थाप की आस में। बाद में हालाँकि उसे बैठना पड़ा इस सोच के साथ कि कहीं ऐसा तो नहीं कि उसके कान निश्चित समय पर एक खास दस्तक सुन लेते हों रोज जबकि दस्तक कोई दरअसल होती नहीं हो और जब वह दरवाजा खोलती हो तो ऊँचे कंधे वाले आदमी की वहाँ उपस्थिति एक संयोग हो और आज ऐसा होने पर दरवाजे पर उसकी अनुपस्थिति ही सचाई की सबसे करीबी चीज हो! शाम तेजी से गहरा रही थी और इवा कार्णिक बालों को खोल कर लगातार दरवाजा तकते तकते ऊब चुकी थी। किसी का न आना तय था ये जानते हुए भी। वह दरवाजे के बीचोंबीच कुर्सी लगा कर आगे पीछे हिलते हुए इंतजार कर सकती थी। यह तीसरा दिन था। और लगभग उसी वक्त जब शाम की पाली की दस्तक हुआ करती थी, फोन पुरानी धुन में खड़खड़ाया। इस तरफ से वसुंधरा कार्णिक थी, उस पार ऊँचे कंधे वाला आदमी। इस पार से उसके दो दिन से न आने और कोई खबर तक न देने और आगे कब आने की बातें थीं, उस पार से पहले एक चुप्पी, फिर दूसरी चुप्पी, फिर तीसरी चुप्पी के पहले - आगे से न आ पाने की सूचना थी। आगे इस तरफ से तीसरी खामोशी को चीरती बदहवासी थी। क्यों, क्या मतलब क्यों नहीं आ पाआगे जैसी। उस तरफ से 'बस मैं' ये दो शब्द थे अलग अलग हटे हुए। फिर इस तरफ से 'ऐसे कैसे'। बदले में उधर से 'मैं अच्छा पढ़ा नहीं सका!' इस तरफ से फिर 'ऐसा कैसे'। उस तरफ से पहले मौन फिर रिसीवर के रखे जाने की शांति। उस घर तक पहुँचने के लिए पैंसठ मुड़ी मुड़ी सीढ़ियाँ चढ़नी होती थीं। फिर दो पल सुस्ताने के बाद कॉलबेल बजाना होता था। कुछ पल दरवाजे के और बंद रहने पर दुबारे से बेल बजाना होता था। फिर भी न खुलने पर झुँझला कर एक बार दस्तक देनी होती थी। फिर झाँकताँक कर दरवाजे पर किसी सुराख की तलाश करनी होती थी, जिससे कि उस पार से देर होने की वजह की शिनाख्त की जा सके। फिर एक बार दरवाजा पीट कर हाथ को वापस अपनी जगह आने के क्रम में ही एक ताले से टकराना
होता था, जोकि उस दरवाजे पर लगा हो। फिर चौंक कर ये समझना होता था कि घर अभी बंद था बाहर से, भले वह खुला हुआ हो भीतर से। फिर ताले को छूकर वापस पैंसठ सीढ़ियाँ उतरनी होती थीं। वह तीसरे दिन के बाद का दूसरा दिन था। अभी साढ़े पाँच बजे थे। जिसका मतलब कि उसे अगले दिन इजा से एक और एक्स्ट्रा क्लास का बहाना बना कर वापस से पैंसठ सीढ़ियाँ चढ़नी थीं ये मनाते हुए कि छह बजे के पहले तक घर के ताले में चाभी घुसा कर उसे उल्टी दिशा में उमेठ कर साँकल खोल दी गयी हो! एक ही बार में झटके से सब हो गया होता तो बात आयी गयी हो चुकी होती पर एक असफल साढ़े पाँच बजने के बाद से दूसरे छह बजने तक की प्रतीक्षा भारी थी। इस प्रतीक्षा में असमंजस का भी घालमेल था। कहीं उसके जाने से किसी के लौट कर आने की रही सही संभावना भी चली गयी तो! आज के साढ़े पाँच बजे के असफल होने के पीछे कहीं ऊपर वाले का यही इशारा तो नहीं! पर जैसा कि जीभ के एक बार जल चुकने के बाद भी गरम चीजों को मुँह लगाना छोड़ देने की बात लड़की बचपन से सीख नहीं पायी थी, वह अगली शाम भी टपाटप सीढ़ियाँ चढ़ गयी। दरवाजा दो फाँक खुला हुआ था। कॉलबेल बजा कर दरवाजे के खुलने का इंतजार करने के बीच के वक्त में अपने आप को संतुलित कर लेने की जो सहूलियत होती है, उसका यहाँ अभाव था। उजास हल्की जो बाहर से जा रही थी, उतनी भर। घर के पास अपनी कोई रोशनी नहीं थी। किसी खुले हुए दरवाजे को फिर से खुलवाने के लिए क्या करना चाहिए, लड़की में उस शऊर की कमी थी। वह ठिठक ठिठक कर भीतर उस रेखा तक पहुँच गयी जहाँ बाहर के उजाले की आखिरी सरहद खिंची थी। वहाँ तक पहुँच कर उसे कुछ पुकारना था, जिसके लिए कंठ तैयार नहीं था क्योंकि उसे पता था कि 'सर' जैसी कोई आवाज वहाँ से बहुत भद्दी और बेसुरी निकलती। उसे यह भी लगा कि पता नहीं जिस घर में वह घुस चुकी है, वह सही घर है भी या नहीं! हालाँकि ये उसे बहुत थोड़ा थोड़ा लगा था। ज्यादा ज्यादा क्या कह कर पुकारा जाये यह असमंजस ही था, जो उसे वापस घर के दरवाजे तक लौटा लाया। वहाँ पहुँच कर उसने कॉलबेल टीप दिया। घुटने तक लंबे शॉट्स और टी शर्ट पहने अंदर से जो आदमी तौलिये में हाथ पोंछता बाहर तक आ गया, वह दरवाजे के मेहमान को देख कर उसे वहीं से फुटा देने को कृतसंकल्प हो गया। मेहमान ने जवाब में भौंहे उचका कर वही सवाल दोहरा दिया। 'यहाँ कहाँ?' 'आपके यहाँ।' मेजबान की एक धारणा फिर से पुख्ता हो गयी कि लड़की गजब की मूर्ख थी। वह उसके पीछे कौन है कोई है यह झाँकने लगा। वह भी गरदन मोड़ कर अपने पीछे क्या कोई है! ऐसा झाँकने लगी। फिर वह मुड़ी और उसने कहा - 'इजा नहीं है।' 'इतनी देर तक स्कूल में क्या कर रही थी?' उसने ऊपर से नीचे लड़की के स्कूलिया मेकअप को परखा। 'इधर उधर थी। कल साढ़े पाँच बजे आप नहीं मिले तो छह बजा रही थी।' 'भीतर आओ।' 'एक बार आयी थी।' 'ओफ! क्या था?' 'अँधेरा था।' 'काम क्या था?' 'घर के अंदर रोशनी नहीं किया!' 'नहीं। काम क्या था?' 'इजा ने कहा है आने को। उनका मन नहीं लगता।' 'मन लगाने जाना है?' 'पढ़ाने के लिए।' 'किसे!' वह चौंका, ऐसा लड़की को लगा। 'ओ! तुम्हें! पर तुम्हें तो सब आता है।' 'मैं बहुत मन लगा कर पढ़ूँगी।' 'अभी तक क्यों नहीं पढ़ रही थी मन लगा कर?' 'आप रोज आ रहे थे इसीलिए।' 'अच्छा! तो मेरा रोज रोज आना छुड़वाने के लिए तुमने मन लगा कर पढ़ना छोड़ दिया!' 'छोड़ा कहाँ?' 'ओ हाँ हाँ छोड़ा कहाँ! मतलब शुरू से ही नहीं पढ़ा न!' 'इजा से कहना दूसरा ट्यूटर खोजें।' वह अभी अभी तो अच्छा भला था, अचानक से कठोर हो गया, ऐसा लड़की को लगा। 'मैं दूसरे ट्यूटर से कैसे पढ़ पाऊँगी!' 'इजा ने नहीं मैंने कहा है आने को। मतलब इजा ने भी कहा है। कहा नहीं है पर कहती। मैं बहुत मन लगा कर...' आगे आवाज दरक गयी। 'घर में भी झूठ बोल कर आयी होगी। घर जाओ।' 'आप कल आयेंगे न!' 'तुम जाओ।' 'आप झूठ नहीं बोलते। आइयेगा न। अभी ही चलिए न। मुझे बहुत सारा होमवर्क भी मिला है।' ऊँचे कंधे वाले आदमी के सारे शब्द पुराने पड़ गये। 'आप अपने घर में रोशनी जला कर और अच्छे कपड़े पहन कर आइये थोड़ी देर में।' उसने जाने के लिए सामान उठाना शुरू किया तब ऊँचे कंधे वाला आदमी देख सका कि स्कूल बैग, लंच, पानी की बॉटल सब फर्श पर टिका कर वह खड़ी थी तभी से। विक्रम आहूजा ने उसे आवाज देकर पीछे पलटा दिया। 'इजा से कहना तुम्हारे लिए नये मोजे खरीदे।' इवा कार्णिक ने बस्ता, पानी, लंच सबको वापस जमीन पर रख कर बायें मोजे को दायें मोजे जितना खींचा, ऊपर और फिर पलट कर चली गयीं। किताब भौतिकी की थी। उसकी बाइंडिग ढीली हो गयी थी और हवा की हल्की ससर पन्ने पलट दे रही थी। कमरे में एकदम शांति थी। इवा कार्णिक को एक न्यूमेरिकल हल करने को मिला था। दोनों जानते थे कि उससे नहीं हो पायेगा पर दिखावे में कोई इसे मानने के लिए तैयार नहीं था। दरअसल इ
वा कार्णिक जिंदगी में पहली बार इतनी गंभीरता से प्रयासरत थी। सच की गंभीरता से। ऊँचे कंधे वाले आदमी के दिमाग में उसकी इस गंभीरता के बरअक्स एक हल्का खयाल जागा। तय रहा कि वह आम इमली, जो भी बना कर दिखलायेगी, विक्रम आहूजा उसके सही होने की घोषणा कर देगा। इवा कार्णिक ने जो आगे बढ़ाया, वह तीन लाइन के बाद फार्मूले से विचलित हो गया था। उस तीसरे लाइन के आगे ही विक्रम आहूजा ने पेंसिल से निशान लगा दिया, सही का। लड़की के चेहरे से सिकुड़न चली गयी और उसका हर एक अंग अपने अधिकतम फैलाव में खुल गया। उसने उसके हाथों से कॉपी छीन ली और जल्दी जल्दी पन्ना देख कर कहा - 'सही है!' 'बनाया गलत था क्या!' उसने सिर को तेज दायें बायें डुला कर कॉपी को वापस अपने ट्यूटर की ओर बढ़ा दिया। 'दुबारे से देखूँगा तो हो सके ये गलत निकल जाय!' लड़की ने बहुत गति से अपने हाथ वापस खींचे और कॉपी को कलेजे में घुसेड़ लिया। उसकी हँसी की तुतलाहट में ऊँचे कंधे वाले आदमी के आलिंद और निलय में खून ले जाने ले आने वाली शिराएँ और धमनियाँ अचानक से अपना काम भूल गयीं। उसका चेहरा जर्द हो गया और उसे अपने धोखे से डर लगा। इवा कार्णिक को ऐसा लगा कि उसकी कॉपी को छुपा लेने की हरकत ने सामने वाले के चेहरे पर ठीक उस काम के विपरीत कोई असर किया है, जो उसके खुद के चेहरे पर फेयरनेस क्रीम ने किया था। उसने अपने हाथ बढ़ा दिये। कॉपी सहित। विक्रम आहूजा को इतना लग गया कि अब आगे वह उससे आँखें नहीं मिला सकेगा। इस खयाल ने उसके भीतर इतनी बेचैनी ठूँस दी आधे पल में कि उसने आखिरी झलक कैद कर लेने के होश में पलकें उठायीं, वहाँ, जहाँ अपने सही साबित हो चुकने की पुलक में तैरती पुतलियाँ थीं। विक्रम आहूजा वहाँ से अपने लिए नमक भर सुकून चुरा कर भाग सकता था, पर उसके लौटने के सारे रास्ते किसी ने बंद कर दिये थे। लिहाजा उसे वहीं रुक कर लड़की की आँखों में देखना पड़ा, जहाँ कॉपी पर तीसरी पंक्ति के बाद फिसल गया फार्मूला दुबका था, जो पहेली को उसकी मंजिल तक पहुँचाने का दमखम रखता था। लड़की सब कुछ उसी रोज पढ़ लेने के उत्साह में थी। उसने तीन सवाल पूछ डाले, जिन सबका ताल्लुक भौतिकी से ही था, कहीं न कहीं और सबके सब जवाब की पात्रता भी रखते थे। विक्रम आहूजा के माथे पर पसीना छलक आया जवाब की जगह घेर कर। उसने आवाज पर पूरा नियंत्रण साध कर जवाब देना शुरू किया पर आवाज धागा निकल चुकी सूई की तरह टुकुड़ टुकुड़ ताकती रही। उस दिन के कोटे की पढ़ाई के खत्म हो चुकने पर विक्रम आहूजा उठ कर खड़ा हो गया और अगले ही पल वह बैठ भी गया। उसने मेज पर उस दिन के खाते का अपना रोल निभा कर औंधे मुँह पड़ी नोटबुक को उठाया। बिना किसी पूर्व सूचना या पूर्व अभ्यास के हुई इस कार्यवाही के प्रतिउत्तर में नोटबुक हड़बड़ा कर उठी और इस क्रम में उसके पन्ने अपने आप को तेजी से पलटने लगे और वो पन्ना तक खुल गया, जिसे वाकई में ऊँचे कंधे वाला आदमी खोलना चाह रहा था। विक्रम आहूजा ने बगैर लड़की के अचकचायेपन को देखे, उस न्यूमेरिकल के आगे क्रॉस का निशान लगा दिया और तीसरे लाइन के आगे से बहक गये फॉर्मूले को जहाँ का तहाँ पकड़ कर मंजिल तक पहुँचा दिया। इवा कार्णिक के गलत जवाब के समानांतर एक सही हल लिखा जा चुका था। इवा कार्णिक को जिंदगी में पहली बार गंभीर दुख हुआ और उसकी आँखों की कोर में एक बिना दाँत वाला आँसू आकर ठिठक गया था। आईने के आगे बात मलिन थी। क्रीम का इस्तेमाल स्थगित करते ही त्वचा का साँवला स्वभाव उग्र हो गया था। इवा कार्णिक के आँसू अब चूँकि एक दूसरे का हाथ पकड़ कर बहने लगे थे, इसलिए आईने में दिखलाई पड़ती हुई साँवली तस्वीर को देख कर इवा कार्णिक चाहे तो कल्पना कर सकती थी कि वह शाम के धुँधलके में नदी में अपनी हिलती डुलती परछाईं देख रही है। उसके आँसू क्यों थे! उसके जवाब का सही प्रमाणित होकर भी गलत साबित हो जाना इसकी वजह क्या! या कि कारण कोई दूसरा, जो आईने के सामने और गहरा गया था! यह अपने पिछड़ जाने का अहसास था। कितनी मुश्किल बात थी कि एक ऐसी दौड़ जिसमें अकेली वही दौड़ रही थी, और वही पिछड़ भी रही थी। इस आईने वाली अतिरिक्त समस्या के लिए, जो आग में घी की हैसियत से मौजूद हो गयी थी, उसके पास एक बढ़िया विकल्प यह भी था कि वह इजा की रसोई में आलू का छिल्का उतारने वाला औजार ले आये और उसकी सहायता से चेहरे की ऊपरी परत हटा दे। पर चूँकि मारे हताशा के उसका एक कदम भी चलने का मन नहीं हो रहा था, उसने वहीं खड़े खड़े कर सकने वाले काम को चुना और अधपिचकी ट्यूब से तीन दिन के कोटे की क्रीम निकाल कर चेहरे पर लपेस लिया। ऊँचे कंधे वाला आदमी अपने फ्लैट की घुमावदार सीढ़ियाँ न चढ़ कर नीचे के चबूतरे पर बैठ गया, जिस पर गर्मी की शाम और जाड़े की दोपहर में फ्लैट भर की औरतें बैठा करती थीं। उसने अपनी मुट्ठी खोली, जो भीतर से गीली थी और
जिसके भीतरी गीलेपन में वह किसी के आँसू चुरा लाया था। उसने चुराने का मन बना ही लिया था तो वह इवा कार्णिक की उस हँसी को चुरा सकता था, जो उसके खेल के बाद लड़की के चेहरे पर उभरी थी, क्योंकि थी तो वह भी विरल ही। पर उसने अपने साथ लाने के लिए उस आखिरी आँसू को चुना जो अब तक के उसके अनुभव से इवा कार्णिक जैसी लड़की की आँखों के लिए नहीं बना था। उसे लग गया था कि पिछली हँसी को लड़की भले सँभाल ले, पर इस आँसू को सँभालना उसके बूते का नहीं था, इसीलिए उसकी पसीजी हथेली गीली चीज को अपने साथ ले आयी। वह दिन में चार की औसत से उन सीढ़ियों पर से चढ़ता उतरता था, पर पहली बार उसके भीतर उन्हें गिनने की इच्छा जगी। उसे ठीक ठीक मालूम था कि चाभी के गुच्छे में से कौन सी चाभी उसके घर का ताला खोला करती थी, पर उसे बारी बारी से हर चाभी को घुसा कर ताला खोलने की असफल कोशिश करने का मन हुआ। अँधेरे घर के अंदर प्रवेश करने के बाद बत्ती जलायी जाती है, इस विकल्प का आविष्कार हुआ ही न हो जैसे, ऐसा। उसने सोफे पर बैठ कर अपना जूता अलगाया और मोजे को बजाय नीचे की तरफ खींचने के उसके हाथों ने उसे घुटने की ओर कस कर खींचा। उसे लगा जैसे भीतर के कमरे से किसी के लगातार कुछ रटने की आवाजें आ रही हों! उसके हाथों से पैर फिसल गया। दोनों के अपने अपने विस्मय थे। वजह कि किसी ने भी इवा कार्णिक को किसी भी चीज को कभी मुँह से रटते नहीं सुना था। वह आँखों से ही रटती आयी थी आज तक। वह उठ कर खड़ा हो गया। कानों का धोखा या कानों को ही धोखा हुआ था। घर शांत था। पर चीजें घर की लगातार कुछ रटे जा रही थीं। सिंक का नल खोलने पर पानी की रटी रटायी धार। स्विच ऑन करने पर पंखे के डैनों का वही रटा रटाया घेरा। उसने गौर किया कि हर रटने रटाने में शोर था। सिवाय आँखों से रटते जाने के। वसुंधरा कार्णिक दरवाजे के पीछे से अँधेरे में अपने आप को घुलाती हुई घंटों झाँकते रहने का अभ्यास साध रही थी। वह संदेह को फूँक फूँक कर उड़ा रही थी दूर दूर। वह जानती थी कि पंद्रहवाँ सोलहवाँ सत्रहवाँ साल निकल जाय चैन से तो फिर पहरेदारी की जरूरत नहीं होती उम्र भर। उसके अपने माँ बाप ने उसकी उमर के खतरे के निशान को छूने के पहले ही उसे अगले ठौर के हवाले कर दिया था। लक्ष्मणरेखा सिंदूर की थी तो क्या, सातों महासागरों के पानी को मिला कर पीने का नशा इन्हीं तीन सीढ़ियों पर तो चखा था उसने। सत्रहवें साल की आखिरी हिचकी तक वह माँ बन गयी थी। उसके आगे की स्क्रिप्ट में जो कुछ भी लिखा था, जैसा भी लिखा था, उसे बिना सवाल किये वही दृश्य वही संवाद अपनाने पड़े। पहले एक बच्चा बिछड़ा, फिर पति, फिर दूसरा बच्चा। अब जबकि उसके चेहरे से मंच के बीचोंबीच की रोशनी का गोला सरक चुका था, उसने नेपथ्य से डोरियों को खींचने, ढील देने का काम सँभाल लिया था मुस्तैदी से और यह भाँप चुकने पर कि इवा कार्णिक फिसलने के जुनून में है, उसकी डोर को खींचे रखना उसका सबसे खास दायित्व। इस पूरे प्रकरण में ऊँचे कंधे वाले आदमी पर अविश्वास की कोई सूरत नहीं बनती थी। बस संदेह का पत्ता वहीं खड़खड़ाता था, जहाँ एक बार ट्यूशन छोड़ चुकने का फैसला ले लेने के बाद ट्यूटर दुबारा चला आने लगा था पहले की तरह। अगर कि इवा कार्णिक सच में उसे मनाने गयी थी तो भी पढ़ने लिखने में तीन कौड़ी की एक लड़की की बात को मान ही लेने की उसकी क्या मजबूरी थी! इस बेहद अफसोसजनक वाकये की नींव पर ही उसने ताँकझाँक की पूरी बुनियाद खड़ी की थी। ये बात और कि उन दोनों को एकांत में मिला पाने का व्यूह भी अक्सर उसके ही हाथों रचा जाता। कह सकते हैं कि वह जाल बिछा कर और उस तक इवा कार्णिक को ले जाकर यह परखना चाहती थी कि वह फँस पाती है कि नहीं! उसका चश्मा ढीला था और नाक के रास्ते फिसलने लगता था। इस फिसलन के आगे बाधा साबित होते हुए वसुंधरा कार्णिक को लगातार नजर रखनी थी उनके हावभाव पर। और अगर कि वे हावभाव वाकई किसी लफड़े के अंश थे तो वसुंधरा कार्णिक यह स्वीकार करने में मिनट भर भी नहीं खरचती कि उसका जाल पुरानी किस्म का था जरूर पर दम था उसमें। खम भी। यह सब ताकाझाँकी तब तक चलती जब तक घड़ी की सूइयाँ साढ़े आठ की मुद्रा में आकर बैठ न जातीं और ऊँचे कंधे वाला आदमी उठ न खड़ा होता सरपट। और यहीं उस दिन के कोटे के खत्म होने का परदा वसुंधरा कार्णिक को खींचना होता। परदा सटते ही वह डोर को फेंक फाँक कर उसमें उलझते अपने पैरों की परवाह छोड़ गिरते पड़ते ड्राइंग रूम के पार्टिशन के उस तरफ पहुँचना चाहती, जहाँ उसे रास्ता छेंक कर खड़े हो जाना था दरवाजे के बीचोंबीच ताकि विक्रम आहूजा बाहर कदम न धर सके। वह रुक जाता। वसुंधरा कार्णिक बात को जिधर भी मोड़ती, वह बिल्कुल छोटा सा जवाब देता। उसकी उपस्थिति पूरे वार्तालाप में उतनी ही थी, जितनी लंबे लंबे वाक्यों में 'है' या 'था' की हुआ करती है। छह
रोज पहले सुना चुके एक वाकये को दुहराते दुहराते आँख की कोर से उसे पार्टिशन के पास एक जिंदा सी परछाईं डोलती सी दिखती। तो क्या इवा कार्णिक परदे के उस तरफ थी! वह तुरंत तेज लगाम खींच कर कह उठती - 'मैंने तुम्हें आज भी बड़ी देर करा दी न! बातों की सुध में मुझे वक्त का ख्याल ही न रहा। अच्छा?' 'अच्छा' शब्द के खत्म होते होते वह उठ खड़ा होता और हाथ जोड़ कर बाहर निकल जाता। उनकी दुनिया से। वसुंधरा कार्णिक पलट कर घर के भीतर की ओर बढ़ने लगती। वह चौखट दर चौखट फाँदती जाती पर कोई दिखता नहीं। इवा कार्णिक अपने बिस्तर पर इतनी सारी किताबों से दबी मिलती कि कोई नहीं मानेगा कि वह इतनी सारी किताबों के बीच से अपने को निकाल कर परदे की ओट तक गयी और वापस वहाँ से लौट कर अपने को उन्हीं किताबों से दबा लिया ऐसी सफाई और फुर्ती से। तो क्या वाकई पार्टिशन के पीछे वह नहीं थी! वसुंधरा कार्णिक का माथा गरम था। उसकी पलकें झुरमुट झुरमुट खुलती थीं। फिर बंद हो जाती थीं। इवा कार्णिक ने कढ़ाई में तेल के कड़क चुकने पर मुट्ठी मुट्ठी दो मुट्ठी भिंडियाँ कटी कटी डाल दीं उसमें। तेल कुछ तेज ही कड़क गया था। वजह यही कि भिंडी का एक बीज उछल कर उसकी नाक के सबसे नुकीले सिरे से टकराया। भिंडी को ढक कर भूनना था कि खुली कढ़ाही में! तेज आँच पर कि सिम चूल्हे पर! और सबसे बड़ा सवाल था कि थोड़ी भुन चुकी भिंडी में वापस फोरन कैसे डाला जाय! मिर्च का। जम चुकी दही में वापस जोरन कैसे डाला जाय! ओहो हो! ऊँचे कंधे वाले आदमी के आया होने पर दरवाजा खोलने वह छुलनी हाथ में लिए गयी, जिसके सिरे पर हल्दी से गली भिंडी चिपकी थी। 'इजा को बुखार है। कल आइएगा पढ़ाने।' उसने आधा दरवाजा छेंक कर कहा। 'आज देखने तो आ सकता हूँ!' 'ज्यादा बीमार नहीं हैं।' उसने एक पल अपने ट्यूटर की आँखों में देखा और हट कर रास्ता दे दिया। पूरा। वसुंधरा कार्णिक ने चंचल बीमार की भूमिका में आते हुए अपने बीमार धड़ को उठा कर पूछा - 'कैसे हो?' ऊँचे कंधे वाले आदमी ने - 'आप लेटी रहें' की तरह हाथ बढ़ा कर कहा - 'अच्छा हूँ।' वसुंधरा कार्णिक ने अभिनयाधिक्य से कहा - 'चाय पीओगे?' 'कौन बनायेगा?' 'आप पीयेंगी?' 'नहीं तो।' इवा कार्णिक मेजपोश ठीक करने के बहाने उनकी बातचीत में सेंध मारने आयी थी। पर उनके बीच के टॉपिक को आधा अधूरा सूँघ कर वह पिछले पाँव खिसक गयी। वह कुछ भी कर सकती थी पर चाय बनाने का विकल्प उसे खौलाता था आतंक से। उसने सतर्क नजरों से कड़ाही में भिंडियों को फैला दिया और चुटकी से एक एक के ऊपर नमक छींट कर दम साध कर भिंडियों को उलटने पुलटने लगी। उसकी सतर्क नजरों के घेरे में एक ऊँचा आदमी आ गया। वह हड़बड़ा कर पलटी और उसने कहा - 'मुझे चाय बनाना नहीं आता।' 'सामने जो है वह भी जल रहा है।' उसने गैस का नॉब बंद करके पूछा - 'चाय सचमुच बनानी होगी क्या!' 'तुम्हारी इजा बता रही थी तुम्हें रोटियाँ बनानी नहीं आतीं। आज का तुम्हारा ट्यूशन यही।' 'मैं बेल सकती हूँ सेंक भी सकती हूँ।' 'तो फिर क्या नहीं कर सकती?' 'उसे खा नहीं सकती।' विक्रम आहूजा पहली बार सिर्फ उसके लिए मुस्कुराया। हालाँकि वह जान नहीं सकी क्यों मुस्कुराया, पर लड़की को इस बात का अहसास हुआ कि दरवाजे से ही उसे लौटा देकर वह कितनी बड़ी भूल करते करते रह गयी थी। उसने पलट कर आटे के डिब्बे का ढक्कन खोल दिया और दूसरे पल दरवाजे से जरा सी बची रह गयी जगह से अपनी देह को निकालते हुए इजा के कमरे तक भाग आकर उनके पैर दबाने लगी। उसकी तलहथी में तेज पसीना था, ये बात इजा के पैर को छूकर ही पता चली। इजा ने अपने पैर ऊपर सरका लिए - 'किचन में जा!' किचन में जाने का रास्ता बहुत आसान था। नाक की सीध में सोलह सत्रह कदम चल कर दाहिने मुड़ कर सात कदम बस। पर उसने अपने मार्ग में विचलन लाते हुए अपने को विपरीत दिशा में मोड़ लिया। भाग भाग कर वह अपने कमरे तक गयी, आईने में देख देख कर चेहरे पर क्रीम लपेसा और किचन के दरवाजे पर खड़े खड़े भीतर देखने लगी। ऊँचे कंधे वाले आदमी ने आटे के बीच एक गड्ढा बनाया और उसे पानी से भर दिया। फिर उस पानी को अगल बगल के आटे से भर दिया। उसने बायें हाथ से पानी डाल डाल कर आटा गूँथ लिया और लोइयाँ बनानी शुरू कर दीं। उसने बगैर पलटे, पीछे खड़ी परछाईं से पूछा - 'कितनी रोटियाँ खाओगी तुम?' लड़की सकपका गयी। उसने शब्दों को आधे आधे हिस्सों में बाँट कर कहा - 'दो।' 'और इजा?' 'और मैं?' 'आपके हिस्से की भिंडी तो मैंने नहीं बनायी।' वह बेलन समेत पलटा। 'आपको कैसे पता चला कि मैं पीछे खड़ी हूँ?' 'पाउडर या क्रीम की खुशबू कमरे में फैली उससे...' तुमने कैसे जाना कि मुझे भिंडी नहीं पसंद!' इवा कार्णिक के होंठ अलग गये। हलकी सी रोशनी में वह आगे बढ़ा। इवा कार्णिक पीछे बढ़ सकती थी, पर वह हिली नहीं बिंदु भर भी। अधिक से अधिक वह जितने करीब आ सकता था, उतने करीब वह
आ चुका था। सीने पर हाथ रख कर जिस जगह पर वह ठीक ठीक दिल के होने की पड़ताल कर सकती थी, उसके ठीक नीचे से एक बवंडर उठा जो, उसकी मानें तो उसके शरीर को ढक्कन की मानिंद उड़ा सकता था फक्क की आवाज के साथ। उसे लगा कि उसके कानों से कुछ रिसने लगा था एकदम तरल और शर्तिया गीला। नहाते वक्त दाहिने कान में घुस गया पानी शायद, जिसे उसने स्कूल में भी दाहिनी बगल झुकते हुए कूद कूद कर निकालने की कोशिश की थी। पर जो निकला था नहीं खाली ढब ढब बजा भर था भीतर। और जो अब रिस रहा था सुसुम सुसुम। वह स्कूल में नजर मिलाने वाले खेल में हमेशा सबसे जल्दी आउट होने वालों में थी, पर यहाँ सामने वाले के आगे अकड़ेपन की स्थिति में भी उसकी एक पलक तक विद्रोह नहीं कर रही थी पल भर झपकने के लिए। ऊँचे कंधे वाले आदमी का चेहरा उसके ठीक ऊपर झुक गया था और इवा कार्णिक को भान हो चुका था कि अगली साँस जो वह छोड़ेगी, वह सामने वाले से टकरा कर ही आगे बढ़ेगी। इस आशंका से कि साँसों का टकराना कमरे की खामोशी को चिनगा न जाये उसने अपनी साँसें अंदर ही रोक लीं। ऊँचे कंधे वाले आदमी की आँखें जरा सिकुड़ीं और उसने कहा - 'तुमने जो लगाया है सफेद सफेद, वह माथे पर ठीक से पसरा नहीं है।' वह बेलन समेत पलटा। इवा कार्णिक भी बिना वक्त गवाँये पलटी। उसने अपने ललाट पर तीन बार रगड़ रगड़ कर हाथ ससराया और किवाड़ की आड़ में छिप कर खड़ी हो गयी। आईना रोशनी समेत उसकी तलाश में घर भर में पैदल पैदल घूम रहा था और उसे किसी भी कीमत पर अपने आप को उसकी नजरों से बचा ही लेना था। गरम माथे वाली स्त्री के पलंग से अब तक के शुबहा के यकीन में बदल जाने के बाद की भारी साँसों वाली हुंकारी निकली। पलंग जोर मोर से चड़मड़ाया और उसने लेटे लेटे ही अपने जाल को खींच कर समेट लेने की कोशिश की क्योंकि शिकार बगैर जाल की मदद के भी, फँस जाने को अपने आप उत्सुक दिखता था या ऐसा ही कुछ भी। लंच ब्रेक में अब इवा कार्णिक अपने दोस्तों के साथ नहीं दिखती थी। वह प्ले ग्राउंड को घुटने तक घेरने वाली बाउंडरी वॉल पर एक किसी पेड़ के नीचे उसकी गिरती पत्तियों को गिनती हुई बैठी रहती। वह सन्नाटे को छूने के लिए शरारत से दूर भागने लगी। वह टीचर के लेक्चर को घूँट घूँट सुन लेने के इरादे से हर क्लास की शुरुआत करती ताकि शाम में किसी को अपने किताबी ज्ञान से चौंकाया जा सके, पर होता ये कि बात जैसे ही तीन चौथाई आगे बढ़ती उसका शरीर झपकने लगता। वह जाँघ की चमड़ी को स्कर्ट समेत चुटकियों में दबा कर अपने शरीर को जगाने का जुगाड़ करने लगती और इसी खींचातानी में 'सुन लेने का इरादा' पीछे ढकेला जाता। उसे तीखी धूप से अब डर नहीं लगता न सामने वाले के उजले रंग से, जिनकी उपस्थिति उसके रंग को और गहराने का खतरा उत्पन्न करती थी। वह खिड़कियों से देख कर शाम के होने का और दरवाजे की झिर्रियों से देख कर गहरे शाम के होने का, जबकि ट्यूटर के आने का वक्त होता, इंतजार कर सकती थी, पर जैसे ही वसुंधरा कार्णिक ऊँचे कंधे वाले आदमी के नाम का दरवाजा खोल देती और वह घर के भीतर दाखिल हो जाता, उसका दिल उलट जाता और वह अँधेरे कमरे में अकेले अकेले सुलगने लगती - उन्हें कोई काम धाम नहीं है क्या रोज रोज चले आते हैं बिला नागा किस्म का। वह दो तीन बार औरताना घिसी आवाज में इजा के ड्रांइग रूम से अपना नाम पुकारे जाने के बाद कुछ रटती हुई सी कमरे में दाखिल होती और ट्यूशन का पूरा वक्त कुछ बिदबिदाते हुए ही गुजार देती। इवा कार्णिक अँधेरे कमरे में सूखे पत्ते सी खड़खड़ाती थी। वह मनाती थी कि सूरज रात भर भटक भटक कर ऐसा लटपटाये कि सुबह दुबारा निकलने का रास्ता ही न खोज पाये वह। उसका शरीर अपने उठान की पर्याप्त संभावना तक विकसित हो चुका था। पलकों के लिए भी जितना बढ़ना मुकर्रर था, उस सीमा को छू चुकी थीं वे। वह अगर हथेली में अपना चेहरा ढाँपती तो पलकें उँगलियों के बिचले पोर पर सहरती थीं। वह क्या चाहती थी, यह सवाल अस्तित्व में आया नहीं था। वह क्या नहीं चाहती थी - यह जवाब जगमगा रहा था उजाले में। जो भी सामने हो रहा था उसके, वह चाहती थी कि वही न हो। हर होती हुई चीज को नकार कर मुँह फेर लेने जैसा चित्त। जब उसके साथ के पढ़ने वाले लड़के अपने सिर को टोपियों से ढके, दरके बाँस जैसी आवाज में प्रचलित अनुनासिक ध्वनि वाले आलाप आजमा रहे होते, लड़कियाँ स्कर्ट की हद के पार, घुटने से नीचे के उघड़े पैर के रोओं को सफाई से उड़ाने की तरकीबों में मशगूल होतीं, इवा कार्णिक दिन भर शाम के होने का इंतजार करती और शाम भर हर घटना के आगे न न लिख देने के मौके का इंतजार। जिंदगी को खोल दे तो वह कोरे कागज जैसी। वह मोड़ कर उसका जहाज बना सकती थी और एक सुर में पानी का इंतजार कर सकती थी, उसे तैराने के लिए। अगर कि पानी बाल्टी भर कर सामने आ जाता तो वह तुनक कर खयाल बदल लेती और जहाज को वापस खोल
कर कागज और कागज को एक बार फिर वापस मोड़ कर पंखा बना लेती और ताबड़तोड़ उसे झेलने लगती पसीने के इंतजार में। अगर पसीना बूँद भर उग भी जाता होंठों के ऊपर तो वह धिक्कार भाव से पंखे की लहरों को भहरा कर तुड़मुड़े कागज का नकमदान बनाने लग जाती। जब नमकदान में भरे जाने के लिए बारीक नमक खुद हाजिर हो जाता तो वह झुँझला कर कागज को मोड़ तरोड़ कर कूड़ेदान तलाशने लगती। पर ऐन वक्त पर कूड़ेदान अपने को छिपा कर जिंदगी को गर्क होने से साफ साफ बचा लेता। खाने की मेज पर इवा कार्णिक बिल्कुल सामान्य। लाल नाक को छुड़ा कर सब कुछ बिल्कुल सामान्य। इजा की रसोई में लेमन राइस था, जो बहुत लाड़ से इवा कार्णिक की ओर बढ़ कर आया। 'कैसा बना?' इवा कार्णिक ने उसमें से सरसों के दो काले दाने चुने और उनके कड़वापन को दाँतों की धार पर मसल कर कहा - 'अच्छा। दिखता अच्छा है।' इजा ने सिर से पाँव तक लड़की को देखा। उसकी परछाईं को भी। दोनों में से किसी के भी ऊपर अपराधबोध का एक कतरा तक नहीं था। 'आपको बाबा की आवाज याद है?' 'पहचान लूँगी लगता है।' 'अगली बार भी क्या आप वैसा ही साथी चाहेंगी अपने लिए?' 'कौन जाने।' ऐसा जवाब इवा कार्णिक ने सुना। जबकि इजा चुप बैठी थी। अपने मुँह का कौर निगल चुकने के बाद उसने कहा - 'इन सवालों पर अपना कोई अख्तियार नहीं होता। सब तय होता है ऊपर से।' इवा कार्णिक की नजरें तीखी थीं, जबकि सरसों का दाना इस बार वसुंधरा कार्णिक के दाँतों तले दबा था। वसुंधरा कार्णिक का चेहरा पानी बन गया। कंकड़ मारने से थरथराता हुआ पानी। 'आप मेरे जितनी थीं तो कितनी चोटियाँ बनाती थीं?' 'शायद दो।' 'आप उस वक्त भी ऐसी ही गोरी थीं?' 'रही होऊँगी।' 'वो आपकी जिंदगी के सबसे अच्छे पल थे न?' 'अगर हम अपने अतीत के अनिश्चय के साथ इतनी सहजता से रह सकते हैं तो भविष्य का अनिश्चय हमें इतना परेशान क्यों करता है!' इजा के संबोधन से पुकारी जाने वाली स्त्री चिहुँक गयी। अरे यह झूठ है तो सच क्या था! और अगर यह सच था तो झूठ क्या था! क्या वाकई वसुंधरा कार्णिक जिस मूर्ख लड़की के साथ अब तक रह रही थी, वह एक पहुँची हुई खिलाड़ी थी! ऐसी ऐसी दाँवपेंच की बातें बनाने वाली! रात के रंग में मिलावट थी। हल्का साँवला रंग। वसुंधरा कार्णिक ने अपनी साँसें ऊपर की ओर खींच लीं और कदम बढ़ाना शुरू किया। लड़की के कमरे तक पहुँच कर उसने परदे की ओट में एक आँख को छिपा लिया। एक उघड़ी आँख, जो अँधेरे में बेहतर देखने में महारत रखती थी, ने हल्की साँवली रात के बीच से गहरी साँवली लड़की को साफ साफ अलगा कर देख लिया। इवा कार्णिक तभी खिड़की से लग कर खड़ी थी और बहुत संभव है उसकी भी एक आँख परदे की ओट में छिपी हो और दूसरी से वह बाहर की दुनिया को देख रही हो। लड़की का इतनी रात तक जगे होना और वह भी चलते देखते जगे होना एक घटना थी। पर वसुंधरा कार्णिक ने उसे बगैर चौंके हुए ऐसे स्वीकार किया मानों गयी रात बरसों से वह लड़की को बिस्तर से दूर खड़ी देखती आयी हो। ठीक इसी वक्त एक अफसोस उसे अपने आप पर हुआ कि उसे पता तक नहीं चला कब लड़की ने पालने से उठ कर खिड़की से लग कर खड़ी होने तक का सफर पार कर लिया। उसके मन में उसे खिड़की के पास से अपनी गोद में उठा कर वापस बिस्तर पर सुला कर थपकाने की चाह जागी ताकि लड़की एक ढाँढ़स भरी नींद सो सके। उसकी चाह जागने के साथ ही अपने तीखेपन में उजागर हो गयी और बिना पल गँवाये वसुंधरा कार्णिक ने अपनी दूसरी आँख को भी परदे की ओट से बाहर निकाला और उसके कदम लगभग कमरे में प्रवेश करने के लिए उठे कि उन्हें रुकना पड़ा। उस कमरे में कैशोर्य और जवानी की चौखट पर ठिठकी एक लड़की की अंतरंग दुनिया थी, जिसमें बिना दरवाजे पर दस्तक दिये प्रवेश करने में वसुंधरा कार्णिक के कदम काँप गये। बल्कि उस कमरे का वैभव ऐसा प्रचंड था कि अपने तुड़ेमुड़े गेटअप में उसमें दाखिल होने का साहस ही नहीं हुआ उसे। उसकी आँखें, होंठ, आत्मा तमाम चीजें खुली की खुली रह गयीं क्योंकि चौसठ साल गुजर जाने के बाद भी कभी ऐसा कोई वैभवशाली कमरा आया ही नहीं उसके अपने जीवन में। एक मोटरी की तरह उसे उठा कर किसी की बगल में रख कर अग्नि के इर्दगिर्द सारा मामला तमाम कर दिया गया और घूँघट पलटने के बाद वह उसी पलटने वाले से रटा रटाया प्यार करती चली गयी। एक आदमी ने दुनिया के गोल नक्शे पर जिस जगह के जो नाम उसे बताये, वसुंधरा कार्णिक ने उस जगह को उसी नाम से अपना लिया बिना किसी देख परख के। किसी ने कहा कि वह लाल चीज आग है उसे मत छुओ! जल जाओगी! और वह यह मान कर दूर बैठ गयी कि लाल रंग में बहुत लहक होती है। ऐसा तो कभी नहीं हुआ कि वह सुने, पास जाय, छुए, जले, हाथ वापस खींचे, दर्द से बिलबिलाये और दर्द के थोड़ा शांत पड़ने पर 'फिर से एक बार और छू लूँ क्या' की उत्कंठा से एक बार फिर से छू ले उसे और फिर से जल जाय एक बार! उसने जलने
की पीड़ा से बचे रह गये अपने शरीर को पीछे खींच लिया। उसी समय उस अप्राप्य जलन के समानांतर एक डाह उसके सीने में उठी - क्यों जो उस लड़की को मिल रहा है उसे नहीं मिला कभी! क्यों नियति ने उसे कभी चुनने की स्वतंत्रता नहीं दी। गलत सही जो भी। क्यों जिंदगी ने उसे उस चुने हुए को दुनिया की नजरों से छिपा कर रखने का ढब नहीं दिया! क्यों कोई छीन लेगा उससे उसके चुने हुए को ऐसे फिक्रमंद लम्हे नहीं दिये! क्यों कैसे बचा कर रखा जाय उस चुने हुए को अपने पास साबुत, ऐसी उधेड़बुन में डूबी बेनींदी रातें नहीं दीं! वह पीछे नहीं मुड़ी बल्कि उसने कदम बढ़ाने शुरू कर दिये पीछे की तरफ। बिस्तर तक पहुँच कर उसने अपनी आँखें बंद कर लीं। क्या उसके कुँवारे अतीत में कोई था, पति के सिवाय! वह उस आदमी की शक्ल अपने सामने उकेरे जाने के बिंदु तक अपने अतीत में वापस गयी। पर किसी की तलाश पूरी होनी तो दूर, शुरू तक नहीं हो पा रही थी। कारण कि अतीत का वह हिस्सा एक काले डॉट में सिमट कर बैठा था, जिसमें से किसी भी कम साँवले, साँवले या गोरे को बीनना मुश्किल था। असंभव की हद तक। उसके अतीत के सबसे पिछले पन्ने पर उसे विदा करते माता पिता और फिर पति नया घर आदि आदि ही अंकित था। उसके पीछे का पन्ना था ही नहीं कुछ भी। अगर जिंदगी ने उसे भी चयन का मौका थमाया होता तो क्या वह अपने पति को ही चुनती! उसकी साँसें तेज तेज आने जाने लगीं। एक साधारण साँस की जगह में ठुँसी हुई पाँच छह साँसें। आतीं। जातीं। एक दूसरे पर चढ़ी चढ़ी। बझी बझी। इस आवाज को सुनते हुए वसुंधरा कार्णिक के बालों की जड़ों का पसीना पिघलने लगा और वह झटके में चालीस पचास न जाने कितने साल पीछे चली गयी। कमरा यही रहा होगा या जो भी रहा हो फर्क क्या! वह बैठी थी तब भी ऐसे ही आँखें मूँदे या पता नहीं कैसे भी। घूँघट माथे तक था या ठुड्ढी के अंगुल भर नीचे जैसा भी। बल्कि सब कुछ था - नहीं था के बीच का, पर आवाज यही थी। चढ़ी चढ़ी। बझी बझी। जबकि किसी ताजा दुल्हन की साँसों की आवाज ऐसी निर्ल्लज नहीं होनी चाहिए, बल्कि उसकी साँसों की तो आवाज ही नहीं होनी चाहिए। एक पति जैसे किसी ने दुल्हन की चौकी को पकड़ा। लाल रंग के घूँघट वाली औरत के हाथ साड़ी के भीतरी रास्तों से अपनी जाँघ पर या कि पैरों पर कहीं भी गये और उसने उस जगह को दाब कर अपनी साँसों के बहाने कुँवारपन के विराटतम भय पर काबू पाने की कोशिश की। वह सफल या असफल होती इस प्रयास में कि इससे पहले उसका घूँघट उलट दिया गया। अच्छा हुआ। उसके भय की उम्र बिना किसी भूमिका के घट गयी। जो भी होना था, जल्दी हो जाय जैसा कुछ। दुल्हन की आँखें, जो घूँघट के उठ जाने के पहले खुली थीं, बंद हो गयीं। फिर खुलीं। मायके की सुहागिनें हड़बड़ी में बताना भूल गयी थीं कि आँखों का क्या करना था उस वक्त। बहरहाल बता भी देतीं तो क्या! उसके धौंकते सीने के आगे आँखों की भूमिका गौण थी। जो पति था, उसने संयमी पति की परम्परा पर चलते हुए दुल्हन के हाथों को अपने हाथों में उठा लिया। वहाँ, उस कमरे में तभी जो कुछ भी हो रहा था, उसकी टेक दुल्हन की साँसें ही थीं। चाहे वह पति का पास खिसकना हो, हाथ उठाना हो या कि उसके पास खिसकने में चौकी का चरमराना हो! या कमरे के एक कोने में धान के ऊपर धरे कलश के अगल बगल चूहों का दौड़ना हो! कुछ भी सब कुछ। पति ने दूसरे डेग में उसके हाथों को अपने होंठों से दबाया। तीसरे डेग में दुल्हन की ठोढ़ी को पकड़ कर उठा दिया और उसके गालों को हल्के से छुआ। फिर चौथे डेग में वह अभी बुदबुदा कर कुछ बोलना ही चाहता था कि दुल्हन ने जोर से आँखें खोल दीं और भय की लाल मुंडेर से पीछे की तरफ छलाँग लगाते हुए साँसों की आखिरी टेक पर घिघियायी - जल्दी जल्दी कीजिये! वसुंधरा कार्णिक धड़ाम से बिस्तर पर गिरी। उसकी जिंदगी में वाकई सब जल्दी जल्दी ही तो हो गया। उसने तकिये को इतनी जोर से दबाया कि दाँतों के कोर में कपास का स्वाद तिर गया। इतनी जल्दी जल्दी कि अब वक्त बीते रुक कर किसी को खोजना असंभव। उसने तकिये पर घिस घिस कर सेंध मार चुके कपास को मुँह से बाहर निकाला। सुबह की रोशनी तिनके की तरह आकर उसकी आँखों में पड़ी। वह आँखें मलते हुए सरपट बैठ गयी। तो पिछली रात आखिरकार सो पायी वह! वसुंधरा कार्णिक की पूरी दिनचर्या दिन का पूरा गणित आरंभ से ही गड़बड़ा गया था। वह हड़बड़ी में एक ही चप्पल पहन कर पूरे घर भर में बदहवास घूम आयी। घर एकदम स्थिर था। इवा कार्णिक के कमरे में आने पर एक उप दरवाजे के पीछे से पानी के गिरने की आवाज आती थी। वसुंधरा कार्णिक बाथरूम के दरवाजे के बाहर से अहकान कर पीछे लौटने को मुड़ी कि उसके रास्ते में उसका अक्स पड़ गया। ड्रेसिंग टेबुल के दराज खुले थे। उसकी नजर आईने में अपने चेहरे पर पहले, ड्रॉवर से झाँकते फेयरनेस क्रीम की ट्यूब पर बाद में पड़ी। उसकी आईने वाली तस्वीर तो
पर्याप्त गोरी थी, उसे क्रीम की कोई जरूरत नहीं थी। फिर भी। उसने क्रीम को ड्रॉवर से उठा लिया और अपनी साड़ी के पल्लू में दुबका कर कमरे तक ले आयी। ट्यूब को छिपाने की एक महफूज जगह उसे पलंग के मैट्रेस के नीचे पायताने हासिल हुई, जहाँ से कितनी भी उकट पुकट विकट तलाश के बाद भी इवा कार्णिक उसे बरामद न कर सके। दिन। बारह बजे की तरफ से ढलकती घड़ी की छोटी सूई। पिउन की मार्फत विक्रम आहूजा तक सूचना आयी कि कोई उससे मिलने आया है। स्टाफ रूम की ओर संदेशवाहक की उँगली। वह दरवाजे की ओर वाली दीवार से पीठ सटाये बैठी थी। 'यहाँ?' ऊँचे कंधे वाले आदमी के चेहरे पर खीझ उग आयी और उसने दबे स्वर में बात को रफा दफा करने के इरादे से एक बार फिर फुसफुसा कर कहा - 'यहाँ कहाँ?' 'जहाँ भी आप चाहें।' 'क्या मतलब है? यहाँ कहाँ?' उसने कोई सुने तो सुने वाली बेपरवाह चीख में कहा। वह सकपका गयी भीतर से। 'आपको बना रही थी। डिज्नीलैंड घुमा देंगे?' 'स्कूल?' उसने शक्की पुतलियों से पूछा। 'मैनेज कर लिया है।' 'सोयी होंगी।' 'ये सब इतना क्राइम तुम्हारे दिमाग में आता कहाँ से है?' 'कल रात में ही सोच लिया था।' 'बस्ता उठाओ और लौटो स्कूल।' उसके एक किसी आज्ञाकारी हाथ ने सकपका कर अगले ही पल बस्ता उठा लिया। 'टिफिन यहीं छोड़ जाना।' उसके उसी हाथ ने बस्ते को वापस सोफे पर छोड़ दिया, सामने वाला मुलायम पड़ चुका था ये सूँघ कर। 'एह! गो!' वह फिर सख्त हो गया। वह बैठ गयी। उसने गोद में बैग रख कर लंचबॉक्स निकाला और उसे बगल की कुर्सी पर रख कर वह उठ गयी। जाने के लिए। वह मुड़ गयी। वाकई जाने के लिए। उसने कदम बढ़ा लिए। जा चुकने के लिए। 'तुम्हें बना रहा था। लेती जाओ लंचबॉक्स!' वह मुड़ी। उसने टिफिन को उठा कर बस्ते में ठूँस लिया। 'बैठो यहीं। चलता हूँ।' डिज्नीलैंड में हर चीज के दाम उसने पूछे। बताये गये दाम की तिहाई भर कीमत में उस चीज को खरीद लेने को वह अकड़ गयी। खींचतान में दाम तिहाई के आसपास ही कहीं तुड़वा कर उसने अचानक मन पलट लिया और अगली दुकान की ओर बढ़ गयी। स्कर्ट, कान के बुंदे, कोल्हापुरी चप्पलें, कपड़े की बैग्ज, अचार, पाचक, कील ठोकने का स्टैंड तक। सारे झूलों पर भी चढ़ी वह। अकेले अकेले। तमाम तरह के ओल झोल स्टॉल पर के मौज, पाचक के स्टॉल पर हर तरह के पाचक को चुटकी चुटकी चख कर एक को भी न खरीदने की बेपरवाही - सब में वह अकेली थी। पर हर मोलभाव में अपनी जीत हो चुकने के बाद बगल वाले की आँखों में देखने के उल्लास में, किसी भीड़ भरे स्टॉल में धक्के के आवेग में अपने पैर को उठा कर बगल वाले के पैर को कुचल देने की धींगामुश्ती में, झूले से उतरती भीड़ के बीच वह ऊँचे कंधे को खोज सके उस सहूलियत के लिए ऊँचे कंधे वाले आदमी के खुद ही उसके सामने खड़े हो जाने की तत्परता में वह अकेली नहीं थी। 'मैं आइसक्रीम ले आऊँ एक अपने लिए एक आपके लिए?' - सवाल के समानांतर ही उसका एक हाथ आगे बढ़ गया। इस हाथ पर विक्रम आहूजा को पैसे रख देने थे आइसक्रीम के। यह तय नहीं था पहले से, पर हाथ उसके, जेब में घुस गये। वह पैसे बटोर कर चली गयी। वह अकेला था अब। क्यों था वह! इस मेले में! टिकट की लाइन में, धक्का खाते स्टॉलों पर, झुमके बालियों के काउंटरों पर भले ही पीछे की तरफ खड़ा, और अभी आइसक्रीम के इंतजार में पिघलता हुआ सा। उसकी धड़कनें एकाएक नुकीली होकर सन्नाटे को चुभने लगीं। घास पर कानी उँगली भर का हरा कीड़ा रेंग रहा था। ऐसा कीड़ा किस सब्जी से निकलता था अमूमन उसने याद करने की कोशिश की, पर धुँधलाया सा भी कुछ स्पष्ट नहीं हुआ। कोई जानी पहचानी हवा पसीने के ठीक ऊपर से होकर गुजरी, पर वैसे झोंके किस मौसम की निशानी सहेजे चलते हैं अपने साथ, वह ठीक पहचान नहीं कर पाया। उसके कंठ के आसपास हर तरफ खूब सूखा पड़ा था। पर उस प्यास की प्रजाति कौन सी है, वह समझ नहीं पाया। वह उठ कर खड़ा हो गया। उसने आसपास देखा। एक दौड़ता चक्कर नजरों का। लड़की नहीं थी कहीं। वह भाग सकता था वहाँ से खूब तेज तेज। आइसक्रीम एकदम सख्त थी। कहीं उमस का एक रत्ती तक नहीं पड़ा हो जिस पर। उसकी ठीक बगल वाली आइसक्रीम पर लड़की के निचले दाँतों के दो निशान पड़ चुके थे, पर वह हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था उस सख्ती पर जीभ तक फिराने की। आइसक्रीम से भाप उठ रही थी और लड़की उसे फूँक फूँक कर खा रही थी दत्तचित्त। भागने को वह अभी भी भाग सकता था आइसक्रीम फेंक फाँक कर। लड़की लकड़ी के दुबले पतले स्टिक को उलट पुलट कर चाट रही थी। दूध चीनी और चॉकलेट का फ्लेवर पुँछ गया था उसके ऊपर से और लकड़ी का अपना फीका स्वाद भीतरी खोलों से उभर कर बाहर झाँकने लगा था। लड़की ने ऊब कर कहा - 'वहाँ कॉरनेटो भी मिलता था पर मेरे हाथ में उतने पैसे नहीं थे, इसलिए इसे लेना पड़ा।' ऊँचे कंधे वाला आदमी, जिसकी स्टिक पर अभी आइसक्रीम की एक मोटी दरकती परत चढ़ी हुई थी, हिला
नहीं उसकी बात से रत्ती भर भी। 'अगर मेरे पास ज्यादा पैसे होते तो मैं उसे ही लेती।' ऊँचे कंधे वाले आदमी ने तत्परता से टूट कर गिरते हुए आइसक्रीम के एक मोटे टुकड़े को बीच राह ही मुँह में लपक कर गिरने से बचा लिया। 'ज्यादातर मैं कॉरनेटो ही खाती हूँ।' ऊँचे कंधे वाला आदमी जेब से रुमाल निकाल रहा था। उसे शक था कि उसकी नाक के उभरे सिरे पर कोई हिस्सा दूध की सफेदी का या चॉकलेट के भूरेपन का लगा जरूर था। 'वहाँ बहुत भीड़ है। मैं जब तक लाऊँगी आपकी ये आइसक्रीम खत्म हो जायेगी तब तक। लाइये न फिर से पैसे।' दुबारे से - वह अकेला था अब। उसने अपने स्टिक से उस कीड़े को उठाया घास के बीच से बीन कर। कीड़ा पहले अगला हिस्सा आगे बढ़ाता था, फिर देखा देखी पीछे पीछे और पीछे का हिस्सा भी दुलक दुलक कर बढ़ता था और वह एक कदम आगे रेंग जाता था। अभी भी कुछ बिगड़ा नहीं था। वह दौड़ कर भागना न चाहे न सही, रेंग रेंग कर भी भागता तो तय था कि लड़की के लौटने तक उसका नाम निशान कुछ भी नहीं होता उस जगह। उसके हाथ काँप गये और कीड़ा स्टिक से फिसल कर नीचे गिर गया। वह झुक कर उसे खोजने लगा। वहाँ से न भाग पाने का बहाना उसे मिल चुका था! इवा कार्णिक इस हुनर को साध चुकी थी जिसमें कि कलियों की लंबी कतार के ऊपर से दौड़ कर गुजरना था इस करतब से कि एक कली तक मसलने न पाय। बिना चखे, सही चीनी की चाय वह बना सकती थी। बिना कहे वह प्यास लगने के पहले इजा को ग्लास भर पानी दे सकती थी। बिना नागा वह मुहल्ले के सारे कुत्तों को रोटी खिला सकती थी। बिना वजह वह अपनी सारी कॉपियों पर सुंदर सुंदर जिल्द चढ़ा सकती थी। उसका मन हर दो दो दिन पर एकदम विपरीत दिशा में पलट जा रहा था। उसके लिए कभी घर की पूरी दीवार ही दरअसल झिर्री थी, जिससे कि झाँक कर गहरे शाम के होने का इंतजार किया जा सके या कभी उसका मन एक हाथ में ब्रश और दूसरे हाथ में पेंट लेकर पूरी दुनिया पर न न न न लिखता चला जा रहा होता। कभी ऐसा अहसास कि क्रीम वक्त के पहले ही उसे तेज तेज गोरा बनाती जा रही है, कभी ऐसा कि दिन दिन बढ़ते साँवलेपन को आलू छीलने वाले औजार से त्वचा की परत छील कर ही विलगाया जा सकता है अपने आप से आदि। इस तमाम उलटन पुलटन के बाद मन इस बिंदु पर आकर स्थिर हो गया था कि अब अपनी चीजों पर उसका अख्तियार नहीं रहा कोई। वह एक ऊँचे कंधे वाले आदमी के पास अपने बाकी के सपने गिरवी रख कर आयी थी। विक्रम आहूजा बहुत धीमे धीमे खरचना चाहता था रात को। उसके शरीर पर पसीना था और कंठ के निचले हिस्से में बहुत सी प्यास जमा थी। वह आँखें मूँदता था तो पुतलियाँ चुभती थीं। वह आँखें खोलता था तो पलकें अपने को एक दूसरे के पीछे छिपाने लगती थीं। वह जब साँसें लेता था तो फेफड़े की माँसपेशियाँ विद्रोह कर देती थीं और जब वह साँसें छोड़ता था तो उसके आसपास की हवा उस छोड़ी हुई साँस को अपने में शामिल करने से इनकार कर दे रही थी। वह करवट बदलता था तो नीचे की जमीन अपने पैर तेजी से पीछे की ओर खींचने लगती थी और जब चित्त लेटता था तो असामान उसके सीने पर अपने दोनों पंजे धँसा कर झुक जाता था पूरी ताकत से। फिर भी वह रात को सँभाल सँभाल कर खरचना चाहता था। अँधेरे में जिस चीज को उसकी उँगलियाँ छू आयी थीं, क्या वह वही थी जिसे पहले भी कभी छू चुका था वह! दुनियादारी के उजाले में बात को सामने से बुहार बुहार कर हटाया जा सकता था पर अँधेरे की चकाचौंध में उमरदराज से उमरदराज सच अपने को नंगा कर देने को बेताब हो जाता है। फिर उसके सच की तो उमर हिचकी जितनी थी या एक बार की साँस को छोड़ चुकने के बाद अगले दान में ली जाने वाली साँसों की तलाश जितनी। उन्हें अपने ऊपर का चोंगा फेंकने में वक्त ही कितना लगता! हैरानी की बात थी कि कपड़े पहने हुए सच से भागता हुआ एक इंसान नंगे सच के सामने होने पर भी अँधेरा ही चाह रहा था। वजह यही कि इस सच की बेपरदगी में एक कोमलता थी और सुबह बिस्तर पर पहली रोशनी पड़ने के साथ जैसे ही वह सच कपड़े पहन लेता, उसमें दुनियादारी भर मिलावट घुस जाती और वह दुनिया, दुनिया जैसी लगने लगती। वसुंधरा कार्णिक के लिए यह एक दुर्लभ मौका था। दस्तक की आवाज पर दरवाजे के उस पार वाले को पहचान लेने की अपनी क्षमता को परखने का, क्योंकि दिन के कुबेरे में विक्रम आहूजा की आमद अप्रत्याशित थी। पर बदकिस्मती कि दरवाजा खुला हुआ था। दृश्य यह था कि दरवाजे के उस पार सब्जीवाली अपना बाजार समेट रही थी और वसुंधरा कार्णिक घर के भीतर चेंज टटोल रही थी। लिहाजा ऊँचे कंधे वाले आदमी का स्वागत दस्तक पहचान कार्यक्रम की जगह सब्जी वाली द्वारा अपनी दौरी दरवाजे के एक तरफ समेट कर उसके प्रवेश के लिए रास्ता बनाने के उद्यम से हुआ। वसुंधरा कार्णिक ने उसे ड्राइंग रूम के बीचोंबीच देखा तो उसका अंकगणित बिसुर गया और वह दो रुपये के चार और एक रुपये के दो सिक्के मिल जाने के ब
ाद भी साबुत सात रुपये खोज लेने में असफल रही और उसने सब्जी वाली को दस रुपये थमा कर घटी बढ़ी अगले दिन पर छोड़ दिया। सब्जी की टोकरी उठ गयी। सब्जीवाली के पीछे पलटते ही वसुंधरा कार्णिक का कंठ सूख गया। उसने एक कोई हाथ तो बढ़ाया पर आवाज ही नहीं निकली जो लौटा सके सब्जीवाली को। 'कल की दोपहर मैं इवा के साथ था। हम डिज्नीलैंड गये थे।' 'हाँ मैंने अखबार में विज्ञापन देखा था। हफ्ते भर और चले शायद।' 'जाने के पहले आप से पूछ लेना चाहिए था।' 'मैं कहाँ जा पाती अब मेले में।' 'उसे ले जाने के पहले।' 'तुमने कुछ सोच कर ही नहीं पूछा होगा।' वसुंधरा कार्णिक के चेहरे पर अजीब सी धूप निकली उसकी नाक और दाहिने गाल के ठीक बीच में से। 'मैंने सोचा ही तो नहीं।' विक्रम आहूजा की आँखें चुंधिया गयीं। 'तुम तो जाना भी नहीं चाह रहे होगे। ये लड़की ही बड़ी जिद्दी है।' 'मैं चाहता तो जाने को आसानी से रोका जा सकता था।' 'अगर इसके माँ बाप होते तो मैं इतना नहीं सोचती इसके बारे में।' 'आप कहें तो मैं आज से ना।' 'नहीं।' वसुंधरा कार्णिक का 'नहीं' सामने वाले के ना पर चढ़ गया। 'तुम्हें क्या लगता है पढ़ने में कैसा करेगी ये?' 'पढ़ ही जायेगी।' 'तुम कभी कभी बगैर इत्तला किये उसका इम्तिहान ले लिया करो। किसी भी विषय का।' 'कभी क्या बल्कि आज शाम से ही शुरुआत कर दो।' 'शुरुआत न हो सोशल सांइस से कर दो। पिछली दफा सबसे कम अंक उसी में मिले थे। तो तय रहा आज सोशल साइंस की परीक्षा।' 'क्या वो तुम्हें पसंद करने लगी है?' 'मैं उसे रोक दूँगा।' 'और वो रुक जायेगी!' 'मान जायेगी।' 'तब तो और भी खतरनाक।' बहुत तेजी से वसुंधरा कार्णिक की कनपटी से उठी बादल की किसी लपट ने धूप को डुबो दिया। 'देखिए।' विक्रम आहूजा ने गला खखार कर फुसफुसाहट को स्पष्ट किया - 'अगर वह कुछ ऐसा सोचती भी होगी तो वह मिनट भर का खिंचाव होगा, जिसे तोड़ना आसान है।' 'क्या तुमने पहले कभी उसे रोकने के बारे में सोचा था?' 'उसने मेरी आँखों के आगे कभी कदम नहीं बढ़ाया कि रोका जा सके उन्हें।' 'देखना उसका मन बहुत कोमल है।' 'मैं देखूँगा।' विक्रम आहूजा का मन उलट गया। वह बार बार भूल जा रहा था कि वह अपनी पहल पर आया था। वह यह इंतजार करने लग जा रहा था कि कब वसुंधरा कार्णिक की बात खत्म हो और कब वह उसे जाने को कहे पर इसके पहले कि एक बार फिर वह भूल जाय, मन उलट जाने के बिंदु पर ही उसने अपने को उठा लिया उस घर से। वसुंधरा कार्णिक का मन हल्का था कि उसका संशय बँट गया किसी के साथ। साथ ही मन के भीतर एक गोल सी जगह घेर कर बैठी ग्लानि भी थी। वह जानती थी कि इवा कार्णिक के पाँव उठाते ही उसके कदमों को रोक देने की बात तय हो चुकी थी। और इस तयशुदगी में उसकी आधेआध की हिस्सेदारी थी। एक बड़ी चोट खाने के पहले इवा कार्णिक के इर्दगिर्द वह इतनी सारी छोटी छोटी खुशियाँ ला धरना चाहती थी कि लड़की को ठेस का अहसास हुए बगैर जख्म मिल जाय। मतलब! जख्म का मिलना तय था! वसुंधरा कार्णिक वहाँ से सीधे उठ कर लड़की के कमरे में गयी। पहला संयोग कि लड़की सोशल सांइस की किताब को अपने साथ स्कूल न ले गयी हो और दूसरा कि बेतरतीब बुक रैक में कम से कम श्रम से उसे ढूँढ़ लिया जा सके! पर किस्मत! उसने पहली किताब जो उठायी वह समाजशास्त्र की ही थी! वसुंधरा कार्णिक का काम ठीक तरह बुक रैक के आगे बैठने के पहले ही खत्म हो गया। वह बिना ठीक तरह से बैठे ही उठ सकती थी वापस। किताब उठा कर वह लपट की तरह उठी और मुड़ी ही थी कि उसकी चोरी पकड़ी गयी। लड़की खुली आँखों से उसे देख रही थी। उसके दोनों होंठों के बीच थोड़ा सा फाँक था, जिससे हँसी, अपनी देह समेट कर आसानी से आ जा सकती थी। उसकी बायीं बगल की लट ठुड्डी की लंबाई तक लटक गयी थी। लड़की पलकें झपकाये बगैर ताक रही थी और ऐसे ही ताकती रहने वाली थी बरसों तक। वसुंधरा कार्णिक का कंठ सूख गया और उसने किताब को आँचल में छिपा लिया। उसने साफ साफ देखा कि बुकशेल्फ के ऊपर रखे फोटो फ्रेम के पीछे से लड़की की मुस्कान सूत भर और फैली। इजा कहलाने वाली स्त्री आँचल में हाथ छिपाये छिपाये अपने कमरे में भाग गयी कपड़े की आलमारी तक। यह जख्म देने के लिए औजार को पैना करने की शुरुआत थी। बहरहाल लड़की के लिए खुशी जुगाड़ना किचन से कोई ललचाऊ खुशबू उठाने जितना आसान था या कि चौक के डिपार्टमेंटल स्टोर से कुरकुरे लाने जितना या कि उसकी नयी ड्रेस से मेल खाता क्लिप या हेयरबैंड लाने जितना। दूसरे मोर्चे पर इवा कार्णिक भी एक दिन पहले की दोपहर में तपे हुए एक धारदार छल की भरपाई में अपने आप को विनम्र और विनम्र बना कर पेश कर रही थी। उसके फैले होंठों की हँसी मन की उदारता को सँभाल नहीं पा रही थी और जहाँ कहीं उदारता छलक जा रही थी। खाना खा चुकने के बाद जब वसुंधरा कार्णिक उसके रूखे बालों पर हाथ फिरा कर जड़ों में तेल लगा देने को उद्यत हुई तो उसने
अपने रोम रोम को सतर्क कर दिया। वह तत्क्षण इस प्रस्ताव के आगे न बोलना चाहती थी। पर उसके चाहने के पहले ही जुबान ने अपने अभ्यास के मुताबिक 'ठीक' कह दिया। इवा कार्णिक की मुड़ी मुड़ी लटों की जड़ में इजा की उँगलियाँ सहरने लगीं। इवा कार्णिक ने इजा के घुटनों में अपना चित्त माथा फँसा दिया। खून बेतहाशा माथे में इधर उधर दौड़ने लगा और उसकी आँखें मुँदने लगीं। वसुंधरा कार्णिक ने मुँदती मुँदती पलकों को कोई बाधा न पहुँचे इस आस में उँगलियों की छुअन को और धीमा कर दिया। उसे लग गया था कि जख्म दिये जाने के पहले सुख के सामान लड़की के लिए अपने हाथों से जुटा चुकी थी वह। उसकी आत्मा से बोझ छँट चुका था। उसकी खुद की भी पलकें मुँदने लगीं लड़की की पलकों की जुगलबंदी में। लड़की ने धीमे से कहा - 'मैं कल दोपहर सर के साथ घूमने गयी थी डिज्नीलैंड।' वसुंधरा कार्णिक के दो हाथ लड़की के बालों में सहर रहे थे, अलावा इसके दो हाथ और भी, जो आकस्मिक पलों के लिए छिपे थे, जिन्हें कि बढ़ा कर वसुंधरा कार्णिक ने लड़की के उघड़े हुए को ढक लेना चाहा। इवा कार्णिक ने दोहराया - 'सर के साथ।' इजा के संबोधन से पुकारी जाने वाली स्त्री ने कहा - 'चल हो गयी मालिश सिर की। बगैर झूठ बोले तेरा एक भी दिन चैन से गुजरता नहीं?' 'सोलह आने इजा।' 'हाँ सोलह आने! चल मैंने यकीन कर लिया।' 'सच में इजा।' 'मुझे उठने तो दे! सुन लिया।' इवा कार्णिक ने अपने होठों से उसके हाथों को छुआया एक पल के लिए और कहा - 'एह! शाम का पहला झूठ! मालिश करके मुझे नींद में ऐसा ठेल दिया था कि ठीक से निभा नहीं पायी।' बहुत महीन सा आँसू उसकी आँखों में सूख गया। पर उसकी परछाईं तेजी से नजरें बचाते बचाते भी इजा की आँखों में दिख गयी उसे। वसुंधरा कार्णिक ने अपने को दूसरी तरफ पलट कर लड़खड़ाते हुए जोड़ा - 'नींद! भूल जा नींद को! सुबह तेरे सर घर आये थे। पढ़ाई में तेरी लापरवाही से बहुत परेशान दिखते थे। और आज वे तेरी सरप्राइज टेस्ट लेने वाले हैं।' लड़की की तरफ मुड़ चुकी वसुंधरा कार्णिक की संयत गोल गोल पुतलियों में अब आँसू की छाया की जगह भेद भरी खुसफुसाहट दिखायी पड़ रही थी - 'उसके आने में अभी घंटे दो घंटे बचे हैं। जा तैयारी कर ले!' 'किस चीज की?' जवाब में आयी लड़की की फुसफसाहट जगह जगह से उघड़ी हुई थी। 'सोशल साइंस की।' वसुंधरा कार्णिक ने होंठों की बिदबिदाहट को देख कर पढ़ी जा सकने वाली फुसफुसाहट में सस्पेंस से परदा उठा दिया। लड़की दौड़ कर अपने कमरे में भागी। वसुंधरा कार्णिक ने गौर किया कि उसके हाथ खुद ब खुद जाकर आँचल के पीछे छिप गये थे। वह चौंकी किताब को क्या अभी तक आँचल के पीछे ही छिपाये बैठी थी वह! जवाब की तसल्ली में हाथ खाली खाली आँचल से बाहर आये सही, पर उनके पसीने पर किताब के निशान अभी भी मौजूद थे। दूसरे कमरे में तेज उकट पुकट मची थी। वसुंधरा कार्णिक चुप रह सकती थी। दबा सकती थी सरप्राइज टेस्ट की बात अपने तक। फिर भी उससे ऐसा हो गया। लड़की अपने कमरे में तबाही मचा कर उस तक आयी - 'आप झूठ तो नहीं बोल रहीं! मजाक?' 'नहीं! क्या हुआ?' 'बुक मिल नहीं रही सोशल साइंस की।' 'खोजो! वरना तुम पढ़ कैसे पाओगी!' उसने कहा था। कहा था या कहना चाहा था! शायद उसने कहा था, तभी लड़की ने कहा - 'क्या खोजूँ?' लड़की वापस अपने कमरे में भाग गयी। वसुंधरा कार्णिक आकर ड्राइंग रूम में बैठ गयी। उसकी एड़ियाँ काँप रही थीं। उसने एड़ियों को उठा कर गोद में डाल लिया। वह अपने धड़ को सोफे पर पूरी तरह उठंगा कर बैठी थी। उसके भीतर लड़की से रत्ती भर भी कम उथल पुथल नहीं मची थी। दूर दूर तक कोई खुशी नहीं थी न कोई रोमांच ही। वह अपने आप को पूरी सज धज से नीचे गिरता हुआ देख रही थी। बावजूद इसके उसने अपने को बचाने का कोई प्रयास नहीं किया। वह अपने पैरों के कंपन को गिनती हुई बैठी रही। कुछ घड़ी बाद उसे ऐसा लगा मानों अलावा पैरों के कोई और आवाज आ नहीं रही। बगल के कमरे से आती आवाज थम चुकी थी! वह सरपट उठी और बगल के कमरे तक पहुँची। झाँक कर देखा उसने। लड़की सो रही थी या ऐसा मान सकते हैं कि अपने बिस्तर पर लेटी थी। बहुत शांत सी। चित्त। साँवली। आँखों को साँवले हाथों से ही ढाँप कर। लड़की का जन्म सातवें महीने में हो गया था। वह एकदम लिकलिक कमजोर सी थी। उसे रूई के फाहे में सहेज कर पाला गया इस तल्लीनता से कि वह गोरी है कि साँवली किसी के ध्यान में आया ही नहीं। इस सवाल से सामना सबसे पहले लड़की का हुआ और उसकी पहल पर वसुंधरा कार्णिक को इस सच का भान हुआ। वसुंधरा कार्णिक पस्त चाल लौट आयी। उसने अपनी आलमारी से किताब निकाला और उसे ले जाकर लड़की के बुकशेल्फ में रख आयी। वह सुनियोजित ढंग से जमीन को देखते हुए गयी थी और जमीन को देखते हुए ही लौटने की बात भी तय थी इसीलिए ऐन उसके मुड़ते वक्त बुकशेल्फ पर रखी तस्वीर ने ही अपने आप को गिरा लिया
जमीन पर। इजा कहलाने वाली स्त्री की आँखें छन्न से उस पर पड़ीं। लड़की टूट कर भी मुस्कुरा रही थी। वसुंधरा कार्णिक यह भूल गयी कि उसे काँच चुनने की बजाये आवाज को चिनगा कर चिल्लाना था - यहीं बुकशेल्फ में तो रखी है किताब ठीक से ढूँढ़ तक नहीं सकती! उफ! या ऐसा ही कुछ भी! इवा कार्णिक को सत्रह सवाल मिले थे, जिनके जवाब छोटे छोटे होने थे। एक से दो डेग वाले। जवाब की कंजूसी ही वजह कि वह लंबे जवाब लिखने के बहाने देर तक कलम चलाते रहने का भ्रम भी नहीं रच पा रही थी। ऐसे में ज्यादा से ज्यादा वह कलम की नोंक को कागज पर टिका कर सोचने का दिखावा भर कर सकती थी, जो उसने किया। ऊँचे कंधे वाला आदमी अखबार पर झुका था। इजा सोफे पर बैठी थी चुपचाप से छत को ताकती - इवा कार्णिक ने पुतली और पलकों के बीच वाली जगह से महसूस कर लगा लिया यह हिसाब। कलम की बजाये उसके हाथों में अगर पेन्सिल होती तो उसकी नोंक को सुरीली करने के बहाने से वह वक्त को कुछ आगे खींच कर ले जा सकती थी। लेकिन किसके लिए? वक्त को काट लेना उसकी जरूरत थी कि जवाब को कटने से बचा लेना! ऐसे वक्त में उसकी आँखों में आँसू आने चाहिए थे बेबसी के स्वाद वाले, पर आँसू आये नहीं। उसने आँखें बंद करके दोहराना शुरू किया एक किसी सवाल को मन ही मन इस उम्मीद से कि जवाब न सूझने की बेबसी में आँसुओं को आँखों तक का रास्ता दिखाया जा सके। पर हुआ क्या! अभी सवाल अपने को तीन चार बार ही दोहरा पाया था और आँसू ने आँखों तक की अपनी यात्रा शुरू भी नहीं की थी कि चार अक्षर का जवाब भयानक आभा के साथ कौंध गया। इवा कार्णिक ने आँखें खोलीं और कॉपी पर पहला जवाब लिखा और आँखें वापस मूँद कर दूसरे सवाल को मन मन दोहराना शुरू किया लेकिन इस बार सवाल को तीन चार बार दोहराने की नौबत नहीं आयी। उसके काफी पहले ही सही जवाब की जगह एक आँसू पलकों के पीछे जाकर चिपक गया। इवा कार्णिक को इतनी जल्दी प्रतिक्रिया की उम्मीद न थी। पलकें हड़बड़ा कर खुल गयीं और उसने उस बूँद भर आँसू को अपने हिस्से के जवाब की राह देख रहे सवाल के बगल में लाकर धर दिया। इवा कार्णिक को ऐसा लगा मानों उसकी साँसें सीने में समा कर रह नहीं पायेंगी अब आगे। उसने अकबका कर बिना वक्त गँवाये बाकी के बचे रह गये पंद्रह सवालों के बगल में भी आँसुओं को धर दिया और कॉपी परीक्षक की ओर बढ़ा दी। परीक्षक ने चार अक्षर के एक जवाब के आगे सही का निशान लगाया और बाकी की खाली जगहों को एक सरसरी निगाह से खँगाल कर कॉपी बंद कर दी। उसे तेज आवाज में लड़की की ओर देख कर चिल्लाना था, पर वह कंठ से भीतर की ओर जाने वाली आवाज में वसुंधरा कार्णिक की ओर देख कर घिसघिसाया - 'पुअर स्कोर!' वसुंधरा कार्णिक जो छत की ओर देख रही थी, छत की ओर देखते देखते ही समझ गयी कि बात उससे कही गयी थी और जवाब में विक्रम आहूजा से बोल पड़ी - 'तुमने सुना! सुबह सब्जी वाली बता रही थी कि ट्रक मालिकों की हड़ताल के कारण अगले छह सात दिन भी सब्जियों के भाव चढ़े रहेंगे!' ऊँचे कंधे वाले आदमी ने कॉपी खोल कर उसके आगे बढ़ा दी - 'शी हैज स्कोर्ड ओनली।' वसुंधरा कार्णिक बिच्छू का डंक खाकर उसकी बात को अधूरेपन में काटती हुई उठी - 'तुम पढ़ायी जारी रखो। मैं देखती हूँ कि खाने में क्या बनाना है।' वसुंधरा कार्णिक किचन का रास्ता भटक कर लड़की के कमरे में जा पहुँची। वहाँ थरथर काँपने के अलावा एक दूसरा काम जो उसने किया वह था बुकरैक से सोशल सांइस की किताब को निकाल कर तसदीक कर लेना कि वाकई उसने जीते जागते ऐसा छल किया या सोते सपने में ऐसा कुछ देखा भर उसने! किताब के कवर ने उँगलियों की कोर को छूकर बता दिया कि छल वाकई उससे ही हुआ था। उसने अपने होठों को बायीं हथेली से ढक लिया इस मुस्तैदी से मानों उसके जबड़े अचानक दाँतों पर से अपनी गिरफ्त ढीली करने पर आमादा हो गये हों और वह उन्हें हर हाल में गिरने से बचा लेना चाह रही हो। उसके इस प्रयास से बिखरते दाँतों को तो फिर भी सँभाला जा सकता था पर एक तेज हूक को सँभालना उस जतन के बूते का भी न था। उँगलियों के पोरों से रिस कर आवाज कहीं कहीं बेपर्दा हो गयी थी, जिसे दूसरी हथेली से दबा कर कमरे की जद तक ही रोक लेने में कामयाब हो गयी थी वह। दूसरे कमरे में सोफे पर बैठी इवा कार्णिक इस तरह बेपर्दा होती चीजों को दमसा कर रखने का ढब नहीं जानती थी। वह ढुलढ़ुल आँसुओं के झोंके में सुबकने लगी। ऊँचे कंधे वाला आदमी सिर झुकाये लगातार उसी कॉपी के खुले पन्ने को देखता था। लड़की की हिचकी की ताल पर उसकी पलकें फड़फड़ाती थीं। वह परख रहा था कि कहीं उसने जरूरत से ज्यादा कठिन सवाल तो नहीं रख दिये लड़की के सामने! कहीं मन ही मन वह चाह तो नहीं रहा था कि लड़की के अंक कम आयें और उसे शर्मिंदा होना पड़े। उसने दुबारा से पढ़ा तो सवाल सारे उसे आसान ही लगे। अगर वह वाकई वैसा नहीं चाहता था तो चुप तो करा ही
सकता था लड़की को। इवा कार्णिक ने अपने आप चुप हो जाने के प्रयास में जोरदार सुबकी ली। ऊँचे कंधे वाले आदमी ने अपनी तरफ से कोई प्रतिक्रिया न दिखाने के प्रयास में उस इकलौते सवाल को पढ़ा, जिसका जवाब लड़की ने सही लिखा था। सवाल को पढ़ने पर और उससे सटे जवाब को भी पढ़ने पर उसे लगा कि सवाल कठिन था, जवाब भी। वाकई! लड़की उधर उपसंहारसूचक दबी छिपी सिसकियाँ ले रही थी, इधर परीक्षक उसी सवाल के ऊपर नीचे वाले तमाम सवालों को एक एक कर कठिन सवालों के खाने में फेंकता जा रहा था। जैसे ही लड़की आखिरी हिचकी लेकर सामान्य हुई, वह इस निष्कर्ष पर पहुँच चुका कि उससे चूक हो गयी थी और सवाल दरअसल कठिन थे। उसने कहा -'फिर से सवाल लिखो दूसरे! ये तो बहुत कठिन थे!' लड़की के होंठों ने एक शानदार झूठ का मौका नहीं गँवाया। वह मुस्कुरायी। उसकी आँखों में देख कर विक्रम आहूजा के लिए यह यकीन करना कठिन हो गया कि लम्हे भर पहले आती सिसकियों से इस लड़की का कभी कोई संबंध रहा होगा! उसके भीतर कहीं कुछ चिनगा - कहीं उसे खबर तो नहीं थी अपनी इजा और ट्यूटर के बीच सुबह हुई मंत्रणा की! और शाम भर वह जो सब कुछ कर रही थी वह झूठ तो नहीं! ढोंग! वसुंधरा कार्णिक को ऐसा लगा मानों उसके जीवन से सारे स्वर निकल चुके हों और केवल ठस्स व्यंजन वर्ण बचे रह गये हों जिनके बगैर जीवन का कोई सार्थक मतलब न निकले, केवल ठूँठ संकेत खड़े हों जहाँ तहाँ। और उसका एक हाथ जिस संकेत को उघाड़ रहा होता है, दूसरा उसे ही ढक रहा होता है। अकेले लेटे रहने पर भी वह फैसला नहीं कर पा रही थी कि आखिर वह है किस तरफ! अपने पक्ष में? या अपना ही प्रतिपक्ष? और उसका अपना पक्ष ही कौन सा? लड़की की खुशी का पाला या उसके जख्म का पाला! या कि एक अलग ही खेमा, जिसमें सिर्फ कुंठाएँ थीं ईर्ष्या थी तिकड़म थे। रात घुटनों तक नींद में धँस चुकी थी कि एक चूड़ी भर टूटन ने वसुंधरा कार्णिक को उठा कर बैठा दिया। उसने अपनी दाहिनी कलाई को उठा कर देखने की कोशिश की। अँधेरे में बगैर चश्मे के भी साफ साफ दिखा कि चूड़ियाँ थीं नहीं वहाँ। पर चूड़ियों के पहनाये जाने के निशान फिर भी रह गये थे उधर। और वह दर्द भी, जो कलाई में पहनायी जाती एक चूड़ी के टूटने से जन्मा था, उस आवाज के साथ जिसने उसे जगा दिया था। और सबसे बढ़ कर चूड़ियाँ पहनाने वाले हाथों का खुरदुरा स्पर्श जो सबसे साफ दिखायी दे रहा था। किसके हाथ! उसके पति के नहीं! वह उछल कर बिस्तर से कूद गयी। अगले ही पल कमरे में रोशनी थी। उसने अपनी कलाई को गौर से देखा, जो ऊपर से नीचे तक खाली थी। बेदाग भी। बायाँ हाथ उस पर फिराया उसने। टूटी चूड़ी का दर्द अब भी महसूस हुआ कहीं। तो क्या कोई पिछला अध्याय था उसके अतीत के तहखाने में जिसने दिन रात दिमाग पर जोर डालने के बाद उसके सपने में ही सही, अपनी उपस्थिति दर्ज करानी शुरू कर दी थी! उसके जीवन में भी कभी कोई था जिसकी शक्ल नहीं कोई, पर जो था! वह नंगे पाँव लड़की के कमरे तक भाग कर गयी। उसे लगा कि उसके आस पास बल्कि उसके जीवन में ही कहीं बस लड़की ही बची रह गयी थी जिसके साथ वह अपने सुदूर अतीत से उड़ कर आया खुशी का एक पन्ना बाँट सके, जिस पर लिखा तो कुछ भी नहीं था, फिर भी जिसे पढ़ा जा सकता था। लेकिन एक कमरे के उजाले को लाँघ कर दूसरे कमरे के अँधेरे में दाखिल होने के रास्ते के बीचोंबीच ही उसे अहसास हो गया कि वह जो करने जा रही थी, उस काम को दरअसल बिना किये ही लौट आना था उसे बीच राह में। इवा कार्णिक के कमरे के मुहार से वापस लौटते समय उसकी चाल में एक इतराहट थी, जो अकसर चलते हुए पेटीकोट के तेज तेज फड़कने से सूँघी जा सकती है। वसुंधरा कार्णिक गमले की मिट्टी को खुरपी से उलट पुलट रही थी। उसके किसी एक हाथ में सोने की एक पतली चूड़ी थी, जिस पर गीली मिट्टी के दाग उछल उछल कर लग गये थे जहाँ कहीं। लड़की उसकी बगल में जाकर बैठ गयी। उसने किसी बहाने से अपने हाथ गमले की कोर पर रखे। आईने में जो दिखता था उस पर एक तुलनात्मक अध्ययन की मुहर भर लगा लेना चाहती थी वह चोरी वाली सरसरी निगाह से। दोनों हाथों में दूरी थी फिर भी चमड़े के अंतर की पहचान करना वाकई नजर भर का काम ही साबित हुआ। हताशा ने पलक भर के वक्त में इतनी सधी तेजी से उसे अपनी गिरफ्त में लिया कि चोरी की बात को भूल कर वह बेलाग पूछ बैठी - 'मेरा रंग ऐसा कब तक रहेगा?' वसुंधरा कार्णिक ने चौंक कर पहले उसे देखा, पीछे दोनों हाथों को। तीन अलग अलग भाव क्रम से उसके मन में आये। सबसे पहले ममता, उसके पीछे अपराधबोध और उसके भी पीछे कुटिल सी खुशी। उस तीसरे भाव के चंगुल में फँस कर उसने साँस छोड़ी - 'जन्म का रंग साथ कैसे छोड़ सकता है!' लड़की ने अपने हाथ खींच लिए। वह बगैर वक्त गँवाये अपने कमरे की ओर भाग गयी। वसुंधरा कार्णिक ने बहुत लंबी सी गंभीर साँस ली। उसका मन हलका हो गया और वह मिट्टी को द
ुगुने उत्साह से उकटने लगी। ऐसे छलके उत्साह से कि पौधों की नाजुक जड़ों को खुरपी की धार से बचने के लिए अपने आप में अपने आपको छिपाना पड़ा। फिर भी गमले कम पड़ गये। और उत्साह बचा ही रह गया। पड़ोसियों के गमले का भी विकल्प था पर विवेक ने उत्साह की कलाई दबा दी। वसुंधरा कार्णिक सजग हुई अवश्य पर उत्साह में फीकापन नहीं झलका। उसने साड़ी का पल्लू कमर से निकाला और गमले पर पोतने के लिए गेरुआ रंग खरीदने वह चौक तक चल दी। दुकान से दो कदम पीछे रह जाने पर उसे खयाल आया कि पैसे लेना वह भूल गयी। फिर भी उसका उत्साह नहीं कुम्हलाया। वह घर तक लौटी वापस। दुबारे के रास्ते में उसकी मुट्ठी में गेरू के लायक पैसे थे। गेरु के खरीदे जाने तक, घर वापस आने तक, उसके पानी में घुलाये जाने तक, गमलों की रँगाई शुरू किये जाने तक उत्साह की मात्रा टस से मस नहीं हुई। पर अभी एक तिहाई ही गमले रंगे गये कि अचानक उसका उत्साह खत्म हो गया। ब्रश चलते चलते अचानक थम गया। रंगे जाते हुए गमले में तीन चार अंगुल भर ही जगह बची रह गयी थी बेरंगी। पर ब्रश जहाँ रुक गया था उसके आगे एक कदम भी चलने से उसने इनकार कर दिया। वसुंधरा कार्णिक ने बहुत प्रयास किया - अपने मन को ठुकठुकाया। हार कर उसे उलट भी दिया कहीं किसी कोने में दुबके रह गये तीन चार अंगुल भर उत्साह की तलाश में, पर मन एकदम खाली था। बूँद भर की भी गुंजाइश नहीं थी। वसुंधरा कार्णिक ने हार कर अधरंगे गमले के आगे से अपने को उठा लिया। ब्रश पीछे जमीन पर ही पड़ा रह गया। वसुंधरा कार्णिक अपने कमरे में आकर उकड़ू बैठ गयी कि लेट गयी। कुछ घड़ी ठहर कर किचन से बरतन के निकाले जाने की, खाना परोसे जाने की, परसन लिए जाने की, थाली वापस धोये जाने की, बरतन रखे जाने की छिटपुट आवाजें आती रहीं। वसुंधरा कार्णिक हिली नहीं। लड़की के कमरे से कपड़े बदलने की, दो दो चोटियाँ गूँथने की, ट्यूब को खोज कर ट्यूब तो खो चुकी है यह याद करने की आवाजें आती रहीं। वसुंधरा कार्णिक हिली नहीं। ड्राइंग रूम से गहरे गहरे कदमों से किसी के चलने की, घर का दरवाजा खोलने की, बाहर निकल कर फिर से उसे सटा देने की आवाजें आती रहीं। वसुंधरा कार्णिक बस हिली नहीं। वह उछल कर बिस्तर से उतर गयी। बिना क्रीम वाले साँवले चेहरे में लड़की के विदा ले चुकने के बाद वसुंधरा कार्णिक ने लपक कर दरवाजा बंद कर दिया। उसके पास एक खतरनाक इरादा था। उसने आईने को अपने आगे खड़ा कर दिया। उसने अपने बालों से जिम्मेदारी के भार से अर्धवृत्ताकार हो चुके क्लिप को निकाल फेंका। बालों में बेमौसम एक तिरछी क्यारी निकल गयी और वसुंधरा कार्णिक अपनी आँखों में आँखें डाल कर सरपट दो चोटियाँ गूँथती चली गयी। अगली छापामारी में साड़ी के पिन को निशाना बनाया गया। साड़ी को नाभि के पास से एक बार पकड़ कर बेदखल कर दिया जाय तो साड़ी लगभग खुली चुकी मान ली जा सकती है। वसुंधरा कार्णिक ने अपने चालीस साल के अनुभव की बिना पर साड़ी को सबसे कम समय में पूरी तरह खोल देने का शार्टकट अपनाया। वह साड़ी के फंदों को तड़पा कर इवा कार्णिक की आलमारी तक दौड़ गयी। लड़की के तूफानी स्कर्ट्स, जींस और नाइटसूट के बीच से कुर्ता सलवार का जोड़ा बीनना था कठिन पर उसकी पकड़ में एक सलवार की मोहरी आ ही गयी। सलवार में साढ़े तीन मीटर कपड़े दुबके पड़े थे। पर उसकी जोड़ का पटियाला कुर्ता वसुंधरा कार्णिक को अपने में कभी भी समा नहीं पाता। एक दूसरे, जिप से खुल सकने वाले कुर्ते की जिप खोले खोले वह गले के रास्ते प्रवेश तो कर सकती थी पर कमर के ऊपर आकर यहाँ भी बात अटक जाती थी। वह वापस उसी रास्ते कुर्ते से बाहर आ गयी और उसने अपने शरीर के अगले हिस्से के आगे कुर्ते को बस खड़ा कर दिया और उसके पीछे से झाँक कर आईने को इस भ्रम में डालने के इरादे से देखने लगी मानों उसने कुरता सच का पहन ही रखा हो! इस भ्रम के सीने पर दो चोटियाँ डुलाते हुए अपने आप को अतीत के तहखाने तक खींच ले जाकर अपनी खोज को जारी रखने का जुनून, अपनी दयनीय पहचान को टुकुर टुकुर तकने के अभियान में बदल गया। शाम गहरा गयी थी और लड़की अभी तक लौटी नहीं थी। वसुंधरा कार्णिक को ऐसे वक्त में घर के दरवाजे पर होना चाहिए था चहलकदमी करते हुए और उसकी धड़कन को सीने से बाहर आकर धड़कना चाहिए था अपनी गति की सीमा लाँघ कर। पर वर्तमान में वसुंधरा कार्णिक अँधेरे कमरे में लेटी थी और उसका दिल भी टिम टिम किस्म का धड़क रहा था। अचानक कमरे की बत्ती जली और वसुंधरा कार्णिक की पुतलियाँ बहुत धीमे धीमे मुड़ीं उस तरफ, जहाँ से आवाज आयी - 'आप ऐसे लेटी हैं! मेरे कमरे में!' एक सवाल यहाँ किया जा सकता था - 'तुम भीतर कैसे आयी!' 'दरवाजा खुला था। मैं अंदर आ गयी।' एक सवाल यहाँ किया जा सकता था - 'कहाँ थी इतनी देर तक?' 'स्कूल के बाद सर के साथ चली गयी थी।' एक सवाल यहाँ किया जा सकता था - 'किससे प
ूछ कर?' 'आप इतनी चुप क्यों हैं? तबीयत।' एक सवाल जो यहाँ नहीं किया जा सकता था - 'शाम हो गयी क्या?' 'रात होने वाली है।' वसुंधरा कार्णिक बहुत आहिस्ता से उठ कर बैठ गयी। लड़की उसके पास आकर बैठ गयी - 'दरवाजा खुला कैसे रह गया।' 'भूल हो गयी होगी! तेरी ट्यूशन का वक्त।' लड़की ने चहक कर कहा - 'वे अब नहीं आयेंगे। कल सुबह वे शहर छोड़ कर जा रहे हैं।' एक सवाल जो यहाँ कतई नहीं किया जा सकता था - 'नहीं आयेंगे! मतलब?' लड़की ने पलकें झपकायीं - 'यहाँ नहीं आयेंगे!' एक सवाल जो यहाँ नहीं किया जा सकता था - 'कैसे नहीं आयेंगे!' 'जैसे नहीं आया जाता है वैसे ही।' एक सवाल जो यहाँ कभी नहीं किया जा सकता था - 'मेरा क्या होगा।' लड़की ने मुस्कुरा कर कहा - 'आप दो चोटियों में अच्छी लगती हैं।' वसुंधरा कार्णिक के होंठों के बीच फाँक बन गयी और उसके हाथ चोटियों की जड़ तक जाकर बंधन को खोलने लग गये। होंठों की फाँक में तसल्ली थी कि पंद्रहवें सोलहवें सत्रहवें साल से खौफ का काँटा निकल गया था। चोटी की जड़ में हूक थी कि काँटे की वजह से उसकी सफेद जिंदगी में ईर्ष्या, तलाश, बेचैनी, दर्द के जो रंग आये थे, वे सब अब नेपथ्य में चले जायेंगे फिर से और हलचल की अगली तलाश तक वापस जिंदगी सफेद होगी। कोरी। लड़की मुस्कुरायी हालाँकि गैर तैलीय त्वचा पर हल्की मूँछों का मौसम था और छनछनाहट होती थी होंठों के ऊपर, मुस्कुराने में। फिर भी। उसके होंठ कहते थे कि अब तक जो कुछ भी उसने कहा वह सिरे से सच था। लड़की की आँखों में पारदर्शी कुछ चमक रहा था। उसकी आँखें सुनती थीं कि होंठ जो कह रहे थे वह पाँव तक झूठ था। रात अभी भी हल्की साँवली थी। वसुंधरा कार्णिक अभी भी खड़ी थी, पर अपने कमरे की खिड़की से लग कर। और बहुत घड़ी बाद उसे होश आया कि वह हाथ खिड़की से बाहर फैलाये खड़ी थी। यह उसके जीवन की सबसे भयानक नाटकीय मुद्रा थी, पर इसकी सुध आने पर भी वह अपने हाथों को वापस नहीं खींच सकी। हाथ अकड़ गये थे कि मच्छरों ने आगे बढ़े हाथ पर धावा बोल दिया था। कुछ भी। फिर भी। बल्कि वह रात को जागी ही थी, यह तक यकीन से नहीं कहा जा सकता। उस रात का यकीन बगल के कमरे से आते महीन पंद्रहसाला खर्राटे पर टिका था। जमाने बाद लड़की सो रही थी, जबकि वसुंधरा कार्णिक जाग रही थी या शायद सो नहीं रही थी। जो भी था, सुबह हो चुकी है यह सूचना रात को पहले पहल उसने ही दी। और सूचना देने के फौरन बाद वह घर से बाहर निकल गयी। गंतव्य तक पहुँचने के पहले की उसकी उधेड़बुन एक असरकारी वाक्य तलाशने की थी, जिससे कि शहर छोड़ कर जाते हुए किसी व्यक्ति को रोक कर रख लिया जाय, पर वहाँ पहुँचने के बाद की उसकी उधेड़बुन उससे भी ज्यादा असरकारी वाक्य तलाशने की थी, जिससे कि कुछ भी छोड़ कर कहीं भी जाने का कोई ख्याल न रखने वाले आदमी के आगे अपनी इस कुसमय उपस्थिति को जायज साबित किया जा सके। इतवार के दिन वह चाहती थी कि लड़की को दिन में भी पढ़ाया जाय जैसा कुछ। वसुंधरा कार्णिक ने गौर किया था कि लड़की के नाम से जरा सा भी संबंध होने पर झूठ अपने को खुद ब खुद गढ़ लेता था। लड़की के नाम का जिक्र आते ही उसकी मुट्ठी बँध गयी। मुट्ठी के साथ धोखा हुआ था! विक्रम आहूजा जाग कर उठा था। वसुंधरा कार्णिक ने घर पर नजर दौड़ायी। घर को 'कहीं जाना है' की खबर तक नहीं थी। हालाँकि वह ड्रांइग रूम में थी और उस कमरे में ऐसा कोई सामान अमूमन हुआ नहीं करता था, जिसकी सज धज को घर के मालिक के पलायन का प्रतीक करार दिया जा सके। फिर भी उसने सूँघ लिया दीवारों से कि जाना वाना किसी को नहीं था। इतने के बावजूद भी उसने पूछ लिया - 'कहीं निकलना तो नहीं तुम्हें?' विक्रम आहूसजा को भी कैसे तो लग गया कि उस सवाल का जवाब नहीं देने से भी काम चल जायगा उतने ही कदम, जितने कि जवाब देने से चलता। विक्रम आहूजा को तुरत फिर से एक बार कैसे तो लग गया कि वह इतनी सुबह सुबह उसे अपने साथ ले जाने ही आयी है। वह चार उँगलियों की लचक से आगंतुक को बैठा कर अपने को तैयार करने भीतर की तरफ भागा। वापसी के रास्ते में वह विक्रम आहूजा के आगे आगे खरहे की तरह फुदक रही थी। वह खूब गहरी गहरी साँसें ले रही थी और उसे लग रहा था कि रोज सुबह ताजा हवा में सैर न करके उसने कितने तो स्वास्थवर्धक पल गँवा दिये। अपार्टमेंट में नीचे बित्ते बित्ते भर की गुलदावदी पसरी थी। उन्हें भर आँख देख कर उसे अहसास हो रहा था कि उसने अपनी बागवानी में कोताही कर कितने तो बित्ते बित्ते भर के अचम्भे गँवा दिये। एक साँस में और एक नजर भर में इतनी चीजें गँवा देने के बाद भी वह खुश थी। वह साड़ी के फंदों के नीचे दोनों एड़ियाँ जोड़ कर और अँगूठे छितरा कर चल सकती थी या कि अँगूठे ही जोड़ कर और एड़ियाँ छितरा कर। उसने पीछे घूम कर कहा फिर से या पहली बार पता नहीं। कुछ भी। फिर भी उसने कहा - 'तुम्हें कहीं जाना तो नहीं था!'
जवाब जानने के लिए उसे कानों की नहीं आँखों की जरूरत पड़ेगी। वह जानती थी। उसने विक्रम आहूजा को न में गरदन डुलाते हुए देख लिया, तब आँखों को वापस मुड़ने की राह पर डाला उसने लगभग अपने आप को गिरा हुआ ही महसूस किया। विक्रम आहूजा ने कूद कर उसे सँभालना चाहा पर तब तक एड़ी मुड़ चुकी थी! 'क्या हुआ?' 'छल! क्या तुम भी इसमें शामिल थे!' वसुंधरा कार्णिक ने सिर झुका लिया - 'कुछ नहीं। गड्ढा था।' विक्रम आहूजा ने उसके चेहरे को पहली बार देखा खुलेपन में। उसे लगा वह किसी अजनबी भाषा में सरपट बुदबुदायी कुछ। विक्रम आहूजा ने आँखों को बंद कर फिर से खोला। उसे लगा कि हालाँकि सामने वाली स्त्री से पूछा नहीं गया उसके पहले के कहे का मतलब फिर भी वह गालों में गड्ढे धँसा कर मुस्कुरायी बस। उसने याद करने की कोशिश की कि उस स्त्री के गालों पर गड्ढे पहले कभी पड़ते भी थे क्या! पर जवाब में उसे आयरिश गड्ढों की गहरायी ही याद आयी केवल। उसने देखा वसुंधरा कार्णिक उससे फर्लांग भर आगे निकल चुकी थी। उसे लगा कि बादलों का एक गुच्छा बिना उसको छुए ऊपर से निकल गया। अपने घर के भीतर घुसने के लिए वसुंधरा कार्णिक को दरवाजे पर दस्तक भी नहीं देनी पड़ी। परदा दरवाजे का, घुटने उठा कर लहरा रहा था। लड़की ड्रांइग रूम में पार्टिशन के उस तरफ किताबें बिखरा कर अध्ययन कक्ष की परिकल्पना साकार किये तैयार बैठी थी। ऊँचे कंधे वाले आदमी को मालूम था कि उसे कहाँ बैठना है मंच पर। उसने बैठते ही सामने की किताब उठा ली। रोशनी का घेरा उन दोनों के ऊपर से उठ चुका था। वसुंधरा कार्णिक पार्टिशन के उस पार भीतर की तरफ बढ़ गयी। उस पार कदम धरते ही दीवार मिल गयी, जिससे टिक कर नीचे नीचे और नीचे ढहना संभव हुआ। बैठते ही वसुंधरा कार्णिक का जूड़ा ढलक कर खुल गया पूरी तरह बाल की लंबाई में। परदों की ढँकास से आती अलसायी रोशनी में अंधकार का एक सुडौल वृत्त, उसके चेहरे की नाप जोख का, सामने खड़ा हो गया। वसुंधरा कार्णिक ने अपने डिम्हे के बंजर भूरेपन में उस वृत्त को देखा। आईने के सुकून से। धोखा था यह! पर उस प्रजाति का जो खाये जाने के लिए ही बना था। अँधेरे के वृत्त में जो चेहरा दिखता था वह जवान था। वसुंधरा कार्णिक हड़बड़ा गयी। उसने दोनों हाथों से आईने को पकड़ लिया और उसे हिला डुला कर हर ऐंगल से सच को परखने लगी। पर सच वही था। जवान जवान और जवान होता जाता चेहरा, वसुंधरा कार्णिक के हाथों से हड़बड़ी में आईना छूट गया और उसने दोनों हाथों से अपने चेहरे को थाम लिया। पर आश्चर्य कि आईना टूटा नहीं! टूटा नहीं क्या वह गिरा तक नहीं! गिरा नहीं भी नहीं, बल्कि वह डिगा तक नहीं अपनी जगह से। वह टँगा रहा उसके चेहरे के सामने, जवान चेहरे के सामने। वसुंधरा कार्णिक घसीट कर उसके और करीब सिमट आयी। इतनी कि उसकी नाक की नोक से आईने के उस पार वाले जवान चेहरे के गालों में गड्ढे पड़ जायें। पर हुआ उल्टा। आईने के भीतर की पलकें वसुंधरा कार्णिक के चेहरे पर लकीरें खींचनें लग गयीं। वसुंधरा कार्णिक ने उँगली के पोर से उन्हें मिटाने की कोशिश की पहले। फिर उन निशानों को जिन्हें उम्र की पलकों ने उगा रखा था उसके अपने चेहरे पर। पर मिटने की बजाय वे लेपाने लग गयीं चेहरे पर। वसुंधरा कार्णिक को बल्कि ऐसा दिखा आईने में कि लड़की आ गयी वहाँ - अपनी उँगलियों से फेयरनेस क्रीम को चेहरे पर लपेसती लड़की। वसुंधरा कार्णिक के सीने को बाँस की खपच्ची के तीखेपन से छीला किसी ने। उसे दुनिया अच्छी नहीं लगी। उसने दाहिनी हथेली को बढ़ा कर आईने के वृत्त को ढाँक दिया। उसका माथा नीचे झुका। नीचे उस रोज के टूटे फोटोफ्रेम के काँच का एक कोई टुकड़ा रह गया था, उसके चुनने से बचा हुआ, कोई दूसरा वक्त होता तो वसुंधरा कार्णिक चौंक सकती थी। घर की सफाई में हुई अपनी इस चूक से। पर इस वक्त उस टुकड़े ने उसे समेट लिया। टुकड़े के तीखे कोरों से कटी तस्वीर में आड़ी तिरछी झुर्रियाँ और एक मोटी सफेद लट थी। वसुंधरा कार्णिक ने आँखें बंद कर लीं। उसे चुनना था किसी एक को। गरदन उठा कर अँधेरे के वृत्त को या गरदन झुका कर काँच के टुकड़े को। उसे आगे जाना था कि लौट जाना था पीछे। वसुंधरा कार्णिक ने गरदन ऊपर उठा कर आँखें खोल दीं। पिछला अगले पर भारी पड़ा था। फैसला हो चुका था। पर अँधेरे का वृत्त नहीं था वहाँ कहीं भी! आईना नहीं था न शक्ल कोई! उसने भयानक चेहरे से दोनों हाथों को खोल कर घुमाया हवा में। तलाश। कहीं कुछ नहीं था। उसकी साँसों से एक तेज चिघ्घार की परछाईं निकली। वह खड़ी हो गयी। उसने डग बढ़ाये दोनों हाथों से। फिर भी कुछ नहीं था। कुछ था! उसके पैरों में कोई टुकड़ा चुभा। या ऐसा ही कुछ भी। वह बिलबिला कर नीचे बैठ गयी। उसका माथा घुटने पर ढुलक गया था। उसने एक उँगली को जमीन पर डग भर आगे बढ़ा दिया किसी तीखे कोर वाले टुकड़े की तलाश में।
यूँ तो सरसरी तौर पर यह एक सनसनीखेज फिल्मी पटकथा है जिसे पढ़ते हुए डर है कि कहीं लोग किसी ब्लू फिल्म का आनंद न लेने लगें। हालाँकि ब्लू फिल्म में भी कहीं कोई आनंद होता है, यह एक अलग विवाद का विषय है। फिलहाल इस कहानी में कहीं-न-कहीं, कुछ-न-कुछ तो ऐसा है जो इस अनजान अबोध लेखक को बाध्य कर रहा है लिखने को, और लिखना भी ऐसा कि रातों की नींद हराम हो जाए। तो लिखना पड़ रहा है, इस डर के साथ कि लोग पढेंगे और हँसेंगे। हालाँकि हँसना अच्छा है, स्वास्थ्यप्रद है, फिर भी कभी कोई कहानी पढ़कर हँसना त्रासद भी हो जाता है। ठीक उसी तरह जैसे किसी ब्लू फिल्म का आनंद त्रासद होता है। तो मित्रो, यह कहानी की भूमिका थी और मुझे लगता है कि जरूरी थी। क्यों जरूरी थी, इसका कोई जवाब नहीं है मेरे पास। सिर्फ कुछ संभावनाएँ हैं और उन संभावनाओं से ही इस कहानी का विकास होना है। पहली संभावना यह कि कथाकार को डर है एक ऐसी फिल्मी पटकथा से जिसमें एक होता है नायक और एक होती है नायिका। दोनों पूरे नौ दिन संभोगरत रहते हैं। सो भी खजुराहो के किसी बियाबान होटल में। जंगल में नहीं रहते, यही गनीमत है। खजुराहो में नायक और नायिका का नौ दिनों का संभोग यहाँ कोई रूपक नहीं है। यह दरअसल कई रूपकों का एक रूपक है। दिक्कत यह है कि मिथकों के इस देश में इस कार्यक्रम के लिए फिलहाल हमारे पास ऐसा कोई शब्द नहीं है जो इसकी संपूर्ण व्याख्या कर सके। इसलिए हम इसे संभोग ही कहेंगे। हालाँकि मनोरंजन की तर्ज पर कुछ लोग इसे तनोरंजन भी कहते हैं। लेकिन उससे अर्थ की जटिलता कहीं और ज्यादा जटिल न हो जाए, इसलिए फिलहाल उसे छोड़िए और आइए अपने उस मूल कथानक की तरफ जहाँ वस्तुतः कथाकार की इन ऊलजलूल बातों और शुरुआतों का सार छिपा है। इस कथानक का नायक है एक कलाकार जो वस्तुतः आवारा है और बेवजह चित्र बनाता है। इस कथानक की नायिका है भारतीय मूल की एक धनाढ्य फ्रांसीसी युवती जो वस्तुतः एक टूरिस्ट है और भटकते-भटकते यहाँ आ पहुँची है खजुराहो में। खजुराहो का इतिहास एकाएक जाग उठा है इन दोनों के यहाँ आने से, और कहानी है कि बार-बार भागना चाहती है इतिहास की उन्हीं मध्ययुगीन कंदराओं में जहाँ चंदेल वंश के परम प्रतापी राजा धंगदेव ने कभी एक सपना देखा था। सपने में उन्होंने जो देखा वह इतिहास की नहीं, बल्कि इतिहास के बाहर की कथा है। कहते हैं कि राजा धंगदेव काफी उदार, स्नेहिल और प्रजावत्सल राजा थे। जैजाकभुक्ति का उनका सिंहासन इंद्र के सिंहासन से कहीं जाता अटल माना जाता था। इतिहास का यह वही दौर था जब पूरे हिंदुस्तान में कहीं कोई केंद्रीय शक्ति नहीं बची थी। दक्षिण में राष्ट्रकूटों का पराभव हो चुका था और कन्नौज पर एक कमजोर और नपुंसक राजा राज्य कर रहा था। उत्तर में गहड़वाल थे, दक्षिण में पांड्य, होयसल, चालुक्य और यादव। दिल्ली में जरूर चौहानों के सशक्त दावेदार काबिज हो चुके थे। पश्चिम में मुल्तान की सीमा उस समय भी सबसे कमजोर सीमा मानी जाती थी और हर समय मुस्लिम आक्रांताओं का खतरा वहाँ मंडराया करता था। पूरे हिंदुस्तान का कहीं कोई नक्शा नहीं था और सीमाओं में अक्सर उलटफेर हो जाया करते थे। जिस समय राजा धंगदेव ने वह सपना देखा उस समय भी जैजाकभुक्ति के चंदेल कन्नौज के प्रतिहार नरेश से युद्ध में व्यस्त थे। चूँकि राजा धंगदेव का सपना इतिहास के बाहर की कथा है इसलिए इतिहास में उसका कहीं कोई उल्लेख नहीं मिलता। लेकिन राजा धंगदेव ने सपना देखा था और सपने में उन्होंने देखा कि तंत्र की अधिष्ठात्री देवी तारा अपने प्रचंड आवेग में प्रकृतिस्थ हो, उनके निकट और निकट चली आ रही हैं। उनकी देह का अपना एक व्याकरण, अपनी एक भाषा थी। देवी तारा हँसीं और भयानक अट्टहास पूरे ब्रह्मांड में गूँजने लगा। "मुझे भक्त नहीं, प्रेमी चाहिए राजन!" देवी तारा एक कुटिल मुस्कान से मुस्कराईं। राजा धंगदेव काँपने लगे। एकाएक देवी तारा की वीभत्स नग्न मुद्रा एक लावण्यमयी चंचल सुकुमारी में तब्दील होने लगी। राजा ने देखा की वह चंचल सुकुमारी और कोई नहीं, उन्हीं की पुत्री राजकुमारी अलका थी। उधर प्रतिहार नरेश से युद्ध चल रहा था और इधर राजा धंगदेव अपने उस सपने का गूढ़ार्थ खोजने में अपनी तमाम राजनीतिक प्रतिभा को दाँव पर लगा रहे थे। कवि, ज्योतिषी, तांत्रिक, साधु, संन्यासी सब के सब राजा का सपना विचार रहे थे और इधर देवी तारा थीं कि हर रात पंचमकार में लिप्त अपने भक्तों पर जादू कर रही थीं। राजा का सुख, चैन सब छिन गया, भूख मर गई, नींद हराम! अराजकता के उसी दौर में राज्य में एक भयानक महामारी आई। जैजाकभुक्ति के चंदेलों का सिंहासन डोलने लगा। यह वही सिंहासन था जो कभी इंद्र के सिंहासन से कहीं ज्यादा अटल माना जाता था। राजा मौन थे और सिंहासन डोल रहा था। उस भूखे कलाकार की खोज में राज्य की पूरी सैन्यशक्ति लगा दी गई और अंततः कलाकार ढ
ूँढ़ लिया गया। भूख से बेहाल, फटेहाल कलाकार ने बताया कि देवी तारा निरंतर उसके स्वप्नों में भी आती रही हैं और प्रेम की भीख माँगती हैं। राजा स्तब्ध। चिंतातुर। उसने अपने मंत्रियों व पुरोहितों से परामर्श किया। मगर राजा धंगदेव के स्वप्निल नेत्र इस महादेश की उस मिथकीय दुनिया में चले गए थे जहाँ कैलाश पर्वत पर विराजमान भगवान महादेव को एकाएक ज्ञात हुआ कि इस महादेश का काम कुंठित हो गया है। उस समय देवासुर संग्राम चल रहा था और बैकुंठ स्वामी भगवान जगन्नाथ चिंतातुर क्षीरसागर पर टहल रहे थे। युद्ध और युद्धातुर शक्तियों को रोकने का अब कोई विकल्प नहीं बचा था और उधर असुरों की प्रचंड शक्ति देवताओं को छिन्न-भिन्न कर रही थी। युद्धलिप्सा से त्रस्त भगवान महादेव ने एकाएक एक निर्णय लिया और देवी पार्वती के साथ नौ दिनों के महाअनुष्ठान पर चले गए। युद्ध चल रहा था और भगवान महादेव अज्ञातवास पर थे। अज्ञातवास का एक-एक दिन जब बरसों लंबा खिंचने लगा तब बैकुंठ स्वामी भगवान जगन्नाथ की व्याकुलता बढ़ी। वे दौड़ पड़े उस एकांत स्थल की तरफ जहाँ भगवान महादेव उस महाअनुष्ठान में रत थे। उस महाअनुष्ठान में रत भगवान महादेव की ललाटाग्नि धक्-धक् जल रही थी और मस्तक पर किशोर चंद्रमा अपनी शीतल रश्मियाँ बिखेरते हुए विराजमान था। द्वारपाल ने भगवान जगन्नाथ को उस महाअनुष्ठान कक्ष में जाने से रोक दिया। शिष्टाचारवष भगवान जगन्नाथ रुक गए। लेकिन कब तक? दो दिन, चार दिन पूरे नौ दिन तक भगवान महादेव अनुष्ठान कक्ष से बाहर नहीं निकले। सहस्रबाहु भगवान जगन्नाथ को क्रोध आ गया। दनदनाते हुए पहुँचे गर्भगृह में और जो देखा वह सृष्टि का वही रहस्य था जो कभी कहा नहीं गया और जिसे कहने के प्रयास में इस धरा-धाम के तमाम कवि-द्रष्टा पागल हो गए। युद्ध लिप्सा से त्रस्त और क्रोध के वशीभूत सहस्त्रबाहु भगवान जगन्नाथ ने भगवान महादेव को जो शाप दिया उसके अनुसार उन्हें इस मर्त्यलोक में युग-युगांतर तक लिंग-योनि के रूप में ही पूजा जाना था। भगवान महादेव के लिए यह शाप एक वरदान भी था। राजा धंगदेव तत्पर थे इस अधिकार को देने के लिए मगर इधर राजकुमारी अलका थीं कि राजा का प्रतिपक्ष बनी हुई थीं। पूर्व के तांत्रिकों का समूह नित नई दार्शनिक व्याख्याएँ दे रहा था और भूख से पीड़ित कलाकार शिल्पी तटस्थ द्रष्टा की मुद्रा में आ गया था। राज्य के सभी स्त्री-पुरुषों को देह का अधिकार मिल चुका था। दुंदुभि बज रही थी। समाज के तमाम नीतिज्ञ पुरुषों का विवेक देवी तारा ने एक ही झटके में हर लिया था। भगवान महादेव का आशीर्वाद, देवी तारा की इच्छा कि खजुराहो की इस पुण्यभूमि में एक मोक्षमार्ग बने, लिंग-योनि की पुनः प्राणप्रतिष्ठा की जाए, अन्यथा अनर्थ हो जाएगा। कलाकार को बुलावा आया। वह भूखा-नंगा कलाकार ही अब जैजाकभुक्ति के चंदेलों की कीर्ति बचा सकता है। काम के इस उद्दाम वेग को रोकना अब बस इस भूखे-नंगे कलाकार के हाथों में ही शेष है। देवी तारा फिर एक बार लावण्यमयी, चंचल, सुकुमारी राजकुमारी अलका में तब्दील होने लगी और कलाकार... वह राजकुमारी अलका की तटस्थ भाव से नग्न मूर्तियाँ बना रहा था। इतिहास का वही एक छोटा लम्हा ठीक एक हजार साल बाद आज फिर खजुराहो की उसी पुण्यभूमि में खुद को दोहरा था। वह फ्रांसीसी युवती जो इस पटकथा की नायिका है, नग्न देह धारण कर निद्रामग्न है होटल के एक कमरे में और ब्राह्मण पुत्र हमारा कलाकार नायक कागज-पेंसिल लिए उसके चित्र खींच रहा है। वस्तुतः इस कहानी का प्रारंभ यहीं से है। ऊपर जो कुछ कहा गया, वह तो इतिहास की एक गप्प मात्र थी जिस पर ध्यान न देना ही श्रेयस्कर होगा। तो, हमारा कलाकार नायक अपनी कलात्मक दृष्टि से उस फ्रांसीसी नायिका को देख रहा है। देख रहा है और काँप रहा है। उसकी दृष्टि केंद्रित है और होंठों से अस्फुट से कुछ शब्द फूट रहे हैं जो देखते-देखते खजुराहो के पूरे इतिहास में गूँजने लगते हैं। कुछ ऐसा ही कहती है वह फ्रांसीसी नायिका भी हमारे कलाकार नायक से। और हमारा कलाकार नायक उसके न्यूड स्केच का अंतिम स्ट्रोक मारता है। 'अहम् विभूत्या बहुभिरिह रूपैर्यदास्थिता। मैं अपनी ऐश्वर्यशक्ति से अनेक रूपों में यहाँ उपस्थित हुई थी। उन सब रूपों को मैंने अपने समेट लिया है। अब अकेली ही युद्ध में खड़ी हूँ। तुम स्थिर हो जाओ। कलाकार नायक स्थिर खड़ा है और सिगरेट का धुआँ निगल रहा है। फ्रांसीसी नायिका बिस्तर पर अलमस्त बिखरी हुई है। उसकी नीली, गहरी आँखें कलाकार नायक के पूरे अस्तित्व को छेद रही हैं... गहरे... बहुत गहरे तक! "इट मींस?" फ्रांसीसी नायिका ने पूछा। "ईश्वरीय मैथुन!" एक निःश्वास छोड़ते हुए कलाकार नायक ने कहा। और फिर पल भर का सन्नाटा। दो जोड़ी आँखें जैसे एक साथ ओम् मणि पद्मे हुम् का जाप करने लगीं। "देखो, कमल में रत्न छिपा है!" देवी तारा का आश्वासन। यहाँ हम
एक छोटा-सा ब्रेक लेकर कहानी को थोड़ा-सा 'फ्लैशबैक' में ले जाएँगे ताकि बात कुछ और साफ हो सके। दरअसल, जिस समय हमारा कलाकार नायक और वह फ्रांसीसी खजुराहो के होटल के उस कमरे में संभोगरत थे ठीक उसी समय भारत के धुर पश्चिमोत्तर प्रांत में अपने समय के महानायक भगवान बुद्ध पाँच-पाँच परमाणु विस्फोटों की उपस्थिति में एक कुटिलता से मुस्कुराए थे। यह तो आप सब जानते ही हैं कि दुनिया की हर चीज इस कदर जुड़ गई है कि अलग से किसी चीज की कोई कल्पना भी नहीं की जा सकती। सो, भगवान बुद्ध की वह कुटिल मुस्कान भी अलग से कल्पनातीत थी। दूसरी तरफ 'ओम् मणि पद्मे हुम्' का वह शाश्वत नाद था जो सूचना क्रांति के इस युग में भगवान बुद्ध की उस कुटिल मुस्कान के साथ इस कदर जुड़ गया था कि आश्चर्य होता था। और सचमुच वह भी एक आश्चर्यलोक था जहाँ हमारा कलाकार नायक और फ्रांसीसी नायिका एकाएक पहुँच गए थे। हालाँकि एकाएक भी एकदम से एकाएक नहीं होता। उसके पीछे भी कई एक और अनेक होते हैं। सो, 'ब्रेक' के बाद की यह कहानी उन्हीं एक और अनेक की कहानी है। तो मित्रो, हमारा कलाकार नायक शुरू से ही एक आम घर का बेरोजगार लड़का था और फ्रांसीसी नायिका शुरू से ही एक बड़े घर की बिगड़ैल लड़की थी। बहुत पहले की बात है। कलाकार नायक के पिता अपने गाँव से चलकर एक छोटे से कस्बे में आए थे और फ्रांसीसी नायिका के पिता उसी छोटे कस्बे से चलकर फ्रांस की राजधानी पेरिस पहुँचे थे। विस्थापन दोनों का हुआ था। लेकिन... लेकिन कलाकार नायक के धर्मभीरु पिता ने उस छोटे कस्बे में लोगों को सत्यनारायण की कथा सुनाई और फ्रांसीसी नायिका के पिता पेरिस जाकर कलात्मक भारतीय वस्तुओं का व्यापार करने लगे। यह उतना ही बड़ा अंतर था जितना कि जमीन और आसमान के बीच होता है। सो, जमीन और आसमान का यह अंतर कलाकार नायक और उस फ्रांसीसी नायिका के जीवन पर भी पड़ा और... और फिर वही दोयम दर्जे की फिल्मी प्रेम कहानी चली जो अक्सर गरीब और अमीर के बीच चलती है। तमाम मिथकीय कथाओें के बीच गुजरा कलाकार नायक का बचपन जहाँ छोटी-से-छोटी चीजों के लिए तरसता था, वहीं पेरिस में गुजरा फ्रांसीसी नायिका का बचपन खुद अपने आपमें एक मिथक था। सूचनार्थ बता दें कि फ्रांसीसी नायिका के पिता ने फ्रांस में कलात्मक भारतीय वस्तुओं के व्यापार से धन ही नहीं जोड़ा, बल्कि अपनी पुत्री यानी हमारी फ्रांसीसी नायिका की कलात्मक सनकों में भी काफी इजाफा किया था। यह उस समय की बात है जब विश्व बाजार में भारतीय चीजों की कीमत एकाएक बढ़ गई थी और सारा विश्व भारतीय सौंदर्यबोध पर अभिभूत था। शासक-प्रशासक कवि हो गए थे और कविता का बाजार भाव सातवें आसमान पर था। उस छोटे-से कस्बे में भी जहाँ हमारे कलाकार नायक के धर्मभीरु पिता लोगों को सत्यनारायण की कथा सुनाया करते थे और खुद जहाँ हमारा कलाकार नायक बेरोजगारी के दिनों में फांके किया करता था, टीवी और अन्य इतर माध्यमों के जरिए बंबई स्टॉक एक्सचेंज की खबरें आने लगी थीं। बावजूद इसके कि हमारे कलाकार नायक को टीवी के पर्दे पर बंबई स्टॉक एक्सचेंज की भव्य इमारत काफी खूबसूरत लगती थी, वह समझ नहीं पाता था कि शेयर सूचकांक का उठना-गिरना किस तरह उस देश के शासक-प्रशासक की कविता से जुड़ा है। लेकिन... यह सब था और इसके साथ ही और तमाम बातें थीं जो कथा से संबंध न रखते हुए भी संबंध रखती हैं। अब जैसे यही कि अपनी तमाम सुख-सुविधाओं के बावजूद पेरिस में ऐंटीक के सबसे बड़े व्यापारी की पुत्री एकाएक भारत आने की जिद कर बैठी, वो भी तब जब भारत में एक तरह की अघोषित इमरजेंसी लगी हुई थी। बुद्ध मुस्कुरा रहे थे और बेरोजगारी में फांके करता हमारा कलाकार नायक भागकर खजुराहो आ गया। खजुराहो में उसने गाइड का धंधा किया और महाराज धंगदेव के कल्पित सपने का गूढ़ार्थ लोगों को समझाने लगा। यूँ भी उसका पूरा जीवन इन्हीं मिथकीय आख्यानों में रचा-बसा था। फ्रांसीसी नायिका चूँकि 'अपने' इतिहास की खोज में आई थी इसलिए कलाकार नायक से उसका संबंध महज एक संयोग भी हो सकता है। और सच पूछिए तो यह पूरा आख्यान ही उन सहज संयोगों का एक विराट प्रतिबिंब है जो देवासुर संग्राम के दौरान भगवान महादेव के अनुष्ठान से चलकर महाराज धंगदेव के सपनों में आया था और फिर बीसवीं सदी के अंत में खजुराहो के किसी बियावान होटल में उस फ्रांसीसी नायिका और हमारे कलाकार नायक के बीच एक असहज संभोग का कारण बन गया था। ...लेकिन कलाकार नायक के सिगरेट से उठते धुएँ ने हमें एक बार फिर उन्हीं मध्ययुगीन कंदराओं में धकेल दिया है जहाँ महाराज धंगदेव अपने मंत्रणा कक्ष में बैठे इतिहास के उस प्रवाह को देख रहे थे जब कन्नौज पर चंदेलों का आक्रमण निर्णायक क्षण की प्रतीक्षा में था। पश्चिमोत्तर से मुस्लिम आक्रांताओं की एक टोली महमूद गजनवी के साथ आगे बढ़ रही थी। खंड-खंड भारत की विखंडित आत्मा
जैसे किसी विप्लव की प्रतीक्षा में थी, और उनके अपने ही राज्य में 'ओम् मणि पद्मे हुम्' का वह निरंतर जाप... भयाक्रांत राजा को लगता जैसे उनकी साँस ही घुट जाएगी। शिल्पी और राजकुमारी का यह मौन संवाद निरंतर गूँज रहा है उन प्रस्तर प्रतिमाओं में जिन्हें योजनानुसार प्रस्तावित मंदिर की बाह्य परिधि में ही रहना है। 'ओम् मणि पद्मे हुम्'! संस्कृति के कामुक क्षण जैसे एक साथ राजकुमारी अलका के दैहिक धरातल पर बहकने लगे। इधर राजपुरुषों और सामंतों में चिंता व्याप गई है कि एक शूद्र कोटि शिल्पी आखिर कैसे एक राजकन्या से प्रेम कर सकता है? यह अनैतिक है... घोर अनैतिक! वर्जित फल का स्वाद आदम और हौव्वा ने चखा था तो उन्हें दंडस्वरूप इस मर्त्यलोक में धकेला गया। मगर यहाँ तो वर्जित फल का स्वाद चखने वाला एक शूद्रकोटि शिल्पी था। इसे पाताल भेजना होगा... वरना...। इस तरह दो संस्कृतियों के मुखर संघर्ष जारी थे और उधर महमूद गजनवी अपने दल-बल के समेत बढ़ता चला आ रहा था। राजा धंगदेव ने जान लिया था कि महाविप्लव सन्निकट है। उनके बूढ़े शरीर में अब उतना तेज भी बाकी नहीं था... फिर स्वप्न में निरंतर देवी तारा का आना... राजा भयभीत हो गए। समाज में नैतिकता के तमाम मानदंड टूट कर बिखर रहे थे। ब्राह्मणों का अपमान... शूद्रकोटि जातियाँ गुस्से से खौलने लगी थीं। जैसे देवी तारा ने उन सबको आशीर्वाद दे रखा हो। शिल्पी और राजकुमारी अलका के प्रेम की अनुगूँजें भी राजा के कानों में पड़ीं... राजा असहाय हो गए। उधर राजकीय कार्यशाला में शिल्पी की बनाई प्रस्तर प्रतिमाएँ निरंतर मुखर हो रही थीं। मुक्ति के सौंदर्य प्रतिमान गढ़े जा रहे थे। "मैं क्या कहूँ राजकुमारी? मैं एक शूद्रकोटि शिल्पी जो कुछ दिन पूर्व भूख से बेहाल था... कह भी क्या सकता है? मुझे तो इस मंदिर के निर्माण के उपरांत उसके सांधार प्रासाद में भी घुसने की अनुमति नहीं होगी।" शिल्पी ने एक दीर्घ निःश्वास लेते हुए कहा। और शिल्पी उठा... निःशेष! तमाम कामुक, मांसल प्रतिमाओं के बीच वह धँसकर हल चलाते एक श्रमिक की मूर्ति गढ़ रहा था, साथ ही रक्तपिपासु शस्त्र सुसज्जित एक सैनिक...! शिल्पी ने एक पूरा-का-पूरा दृश्य खींचा जहाँ मुस्लिम आक्रांताओं का पूरा समूह नतमस्तक जमीन पर बैठा हुआ था... पराजित। भारत खंड की सुसज्जित सेनाएँ बढ़ी जा रही थीं और उनके बीच एक स्वर गूँज रहा था - 'ओम् मणि पद्मे हुम्'! "यदगुह्यं परमं लोके सर्वरक्षात्करं नृणाम्। जो इस संसार में परम गोपनीय है और मनुष्यों की हर तरह से रक्षा करने वाला है, वह रहस्य जो आपने किसी से नहीं कहा, प्रभो! मुझसे कहिए। "व्हाट नानसेंस!" फ्रांसीसी नायिका के शब्द। "सांस्कृतिक विप्लव का महाआख्यान..." कलाकार नायक के मौन से गूँजती एक ध्वनि! कुछ ऐसी ही ऊलजुलूल बातें और हरकतें कलाकार नायक नायक पिछले नौ दिनों से करता रहा है। कभी वह दुर्गा सप्तशती का पाठ करता है तो कभी तांत्रिक सूत्रों का वाचन। उसकी हर हरकत पर फ्रांसीसी नायिका उसे आश्चर्यमिश्रित श्रद्धा से देखती है। कभी झिड़कती है तो कभी जिज्ञासा करती है। उसके अनुसार इन नौ दिनों में उसे अपूर्व आध्यात्मिक आनंद मिला है। कलाकार नायक के इस विरल संयोग ने जैसे उसे धन्य-धन्य कर दिया। इधर उसके बनाए चित्र भी अपूर्व बन पड़े हैं। फ्रांसीसी नायिका इसे जानती है। उसकी व्यवसाय बुद्धि उसे फ्रांसीसी कला जगत के शीर्ष पर देख रही है। मगर हमारे कलाकार नायक की जिद है कि वह फ्रांस नहीं जाएगा। उसे अपनी धरती प्यारी है... अपने लोग। यह अलग बात है कि उसका अपना यहाँ कोई भी नहीं। कलाकार नायक चाहता है कि काश! वह इसमें एक चित्र और खींच सकता जिसमें पश्चिमी आक्रांताओं का नत शिर समूह होता और वह कहता, 'ओम् मणि पद्मे हुम्'। मगर वह कह नहीं पाता। उसके शब्द एकाएक खजुराहो के मध्ययुगीन इतिहास में कहीं खो गए हैं और वह बावला-सा उन्हें खोज रहा है। खजुराहो में मोक्ष मार्ग के निर्माण का स्वप्न पूरा हुआ। अब मूर्तियों की प्राण प्रतिष्ठा की जाएगी। देश-विदेश के तमाम कवि-ज्योतिषी, तांत्रिक और विद्वान इतिहास के इस अपूर्व आयोजन के साक्षी होने जा रहे हैं। महाराज धंगदेव की बेचैनी थमी नहीं थी। उनकी आत्मा पर जैसे कोई बोझ था। इधर राजपुरुषों और सामंतों ने एक अलग ही मुहिम छेड़ रखी थी। राजकुमारी अलका और शिल्पी का उन्मुक्त प्रेम अब नैतिकता का नहीं - उनके अस्तित्व का प्रश्न बन चुका था। राजा धंगदेव दोराहे पर खड़े बार-बार देवी तारा का स्मरण कर रहे थे मगर देवी तारा हँसे जा रही थीं। उनका भयानक अट्टहास पूरे ब्रह्मांड में गूँज रहा था। मंदिर के सांधार प्रासाद में प्रवेश करते हुए राजकुमारी अलका ने अपने तमाम सामंतों व राजपुरुषों पर एक दृष्टि डाली। शिल्पी उसमें कहीं नहीं था। राजकुमारी की नजरें पूरे परिदृश्य में सिर्फ और सिर्फ शिल्पी को खोज रही
थीं, मगर वह उन्हें कहीं नजर नहीं आ रहा था। शिल्पी मंदिर से दूर खड़ा था... एकाकी। अपनी इस अनुपम कृति को देखते हुए कभी उसे गर्व होता था... कभी क्षोभ। अब वह इन मूर्तियों की प्रदक्षिणा भी नहीं कर सकता। हालाँकि वह चाहता था कि इन उदग्र मूर्तियों पर वह कभी शांति से केसर का भरपूर लेप करे...। अपवित्र मूर्तियाँ भागीरथी के जल से पवित्र कर दी गई थीं। शिल्पी के भीतर जैसे कोई ज्वालामुखी धधकने लगा... उसकी आँखें गुस्से और अपमान से लाल हो गईं। इतिहास में यह दृश्य फिर कभी दोहराया नहीं गया। शिल्पी के तेज बढ़ते कदमों में एक अद्भुत दैवीय चमक थी और वह निरंतर दृढ़तापूर्वक मंदिर के सांधार प्रासाद की ओर बढ़ रहा था। देवी तारा साँस रोककर इस पूरे आयोजन को हतप्रभ देख रही थीं। जैसे ही शिल्पी प्रदक्षिणा पथ के निकट पहुँचा, एक साथ कई-कई प्रहरियों ने उसे पकड़ लिया और उसे दूर ले गए... बहुत दूर...! राजकुमारी अलका अपने विवश नेत्रों से उसे जाते हुए देख रही थीं और सुन रही थीं - 'ओम् मणि पद्मे हुम्'! सुनने में आया कि मूर्तिभंजक महमूद गजनवी पंजाब के सीमांत प्रदेशों तक चढ़ आया था। वहाँ का शासक जयपाल पराजय व अपमान से क्षुब्ध अग्निचिता पर जलकर मर गया। महाविप्लव से आक्रांत राजा धंगदेव ने भी उस रात दो विकट फैसले लिए। एकाएक उन्होंने संन्यास की घोषणा कर दी और प्रयाग की ओर प्रस्थान कर गए। प्रयाग में उन्होंने जल-समाधि ले ली। जब वे संगम में जल-समाधि ले रहे थे ठीक उसी समय खजुराहो में वर्जित फल का स्वाद चखने वाला एक शिल्पी पाताल लोक भेज दिया गया था। इस समय तक महमूद गजनवी ने भी पेशावर जीत लिया था। कहते हैं कि इतिहास खुद को दोहराता है। महाराजा धंगदेव की जल-समाधि और खजुराहो में मूर्ति शिल्पी की निर्मम हत्या के वर्षों बाद जब राजा धंगदेव के प्रपौत्र परम प्रतापी राजा विद्याधर देव ने महमूद गजनवी के खिलाफ कायर राज्यपाल का वध कर एक अभियान छेड़ा और भारत खंड के छह राजपूत राज्यों की सशस्त्र संघीय सेना लेकर महमूद गजनवी को खदेड़ना शुरू किया तब अचानक एक घटना घट गई। भारत खंड की विजयिनी सेनाओं ने महमूद गजनवी को पराजय के कगार पर खड़ा कर दिया था और हताश महमूद अल्लाह से मदद की दुआ कर रहा था। इधर दिन भर युद्ध से थके राजा विद्याधर निद्रामग्न थे और देवी तारा उन्हें स्वप्न में कह रही थीं, "भागो राजन, भागो! महाविप्लव सन्निकट है। संपूर्ण भारत देश की खंडित आत्मा एक शूद्रकोटि शिल्पी के शाप से अभिशप्त हो चुकी है। अब मूर्तिभंजक महमूद को इस महादेश में आने से कोई नहीं रोक सकता। तुम्हारी अपनी ही सेनाओं की तमाम अंत्यज जातियाँ विद्रोह पर उतारू हैं। महाविप्लव आ चुका है।" पसीना-पसीना हुए राजा की नींद टूट गई। गुप्तचरों के अनुसार विद्रोह की सूचना सही थी। भयभीत राजा विद्याधर देव अचानक युद्धस्थल से भाग खड़े हुए। कोई भी इतिहास लेखक कभी यह नहीं जान पाया कि आखिर क्यों परम प्रतापी विद्याधर देव इस तरह अचानक कायरतापूर्वक युद्धस्थल से भाग खड़े हुए? राजनीतिक प्रपंच ने एक जीती हुई बाजी पलट दी थी। थानेश्वर, कन्नौज, कालिंजर को लूटता हुआ मूर्तिभंजक महमूद सोमनाथ तक पहुँचा और फिर इस खंडित देश की आत्मा एक साथ त्राहि-त्राहि कर उठी। पाताल लोक में बैठा शूद्रकोटि शिल्पी भी भारतखंड की इस नियति पर हँस रहा था। उसकी उस हँसी में प्रतिशोध और हताशा का एक मिला-जुला भाव था। खजुराहो की तमाम तांबई, उदग्र प्रतिमाएँ उसकी इस हँसी से मुक्तिरास कर रही थीं। भगवान महादेव शांत थे और देवी तारा...! 'ओम् मणि पद्मे हुम्' इस कथानक का सूत्रवाक्य जैसे अब भी खजुराहो के मध्यकालीन इतिहास में कहीं खोया हुआ है और हमारा कलाकार नायक अपने लाख प्रयत्न के बावजूद उसे खोज नहीं पा रहा था। उसकी नौ दिनों की सतत साधना का प्रतिफल उसकी वे अनुपम कलाकृतियाँ फ्रांसीसी नायिका अपने साथ ले गई है और हमारा कलाकार नायक पागलों की तरह अकेले होटल के इस कमरे में भटक रहा है। उसकी तेज चलती साँसों के आरोह-अवरोह एक बार फिर आध्यात्मिक स्थिरता की माँग कर रहे हैं, मगर हमारा कलाकार नायक है कि इस तरह की किसी भी स्थिरता के खिलाफ अब तनकर खड़ा हो गया है। बावजूद इसके कि पश्चिमोत्तर में भगवान बुद्ध की कुटिल मुस्कान अब तक शांत हो गई थी, कलाकार नायक की क्रुद्ध जलती हुई आँखें और तनी हुई मुट्ठियाँ 'युद्धं देहि' का आह्वान कर रही थीं। मगर पता नहीं क्यों, 'ओम् मणि पद्मे हुम्' का वह शाश्वत नाद अब भी हमारे कलाकार नायक की पकड़ में नहीं आ रहा था। शायद इसके कारण राजनीतिक थे। शायद सांस्कृतिक। या शायद कुछ भी नहीं... कलाकार नायक यूँ ही हवा में अपनी मुट्ठियाँ तान रहा था। 'अब तक फ्रांसीसी नायिका पेरिस पहुँच चुकी होगी। कुछ ही दिनों में उसके चित्र देश-विदेश में विख्यात हो जाएँगे और...' कलाकार नायक इसके आगे कुछ नहीं सोच पाता।
अचानक वह दौड़ पड़ता है कंदरिया महादेव के उस विख्यात मंदिर की तरफ जहाँ भगवान महादेव के आशीर्वाद से कभी एक मोक्ष मार्ग का निर्माण हुआ था। कलाकार नायक उसके गर्भगृह में प्रवेश से पहले, क्षण भर को ठिठकता है और दौड़कर उन तमाम मूर्तियों की प्रदक्षिणा करता है जो रात के उस सुरमई प्रकाश में मुक्तिनाद कर रही थीं। कलाकार नायक उन सभी मूर्तियों को अपने आलिंगन में कस लेना चाहता है और चाहता है उनके ठोस वर्तुल स्तनों पर एक सुदीर्घ चुंबन...। इस तरह की तमाम इच्छाएँ ढोता हुआ हमारा कलाकार नायक मंदिर में प्रवेश कर रहा है। ज्योर्तिलिंग के ठीक सामने एक शिला पर बैठा हमारा कलाकार नायक न जाने क्यों अचानक रो पड़ता है। उसका यह रुदन अनेकार्थी है और अपने अलग-अलग अर्थों में सारे ब्रह्मांड का रुला रहा है। भगवान महादेव का आशीर्वाद... देवी तारा की इच्छा...। मित्रो, यह कथा का प्रस्थान बिंदु है। इस बिंदु पर आकर खुद कथाकार भी असमंजस में है। वह ठीक-ठीक नहीं जानता कि इस तरह कलाकार नायक के रोने के असली कारण क्या थे? जब तक उन असली कारणों की खोज नहीं हो जाती तब तक कथाकार सांस्कृतिक विप्लव के इस महाआख्यान से मुक्ति चाहता है। फ्रांस लौटने के बाद उस फ्रांसीसी नायिका ने पेरिस में एक भव्य प्रदर्शनी का आयोजन किया था जिसमें हमारे कलाकार नायक के चित्र काफी ऊँचे दामों पर बिके थे। और कला-समीक्षकों ने उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की थी। उस समय भारत में करगिल युद्ध हो रहा था और कलाकार नायक का कहीं अता-पता नहीं था।
नरेंद्र ने तो मोबाइल नंबर देने के लिए ही हिमानी को फोन किया था। यही सोच कर कि कभी इमरजेंसी में मौसी कहां - कहां लैंडलाइन पर फोन पर फोन करके उसे खोजेगी, वह एक जगह तो बैठता नहीं, सौ जगहें, और सौ काम हैं उसके पास। यह ठीक है कि घर जाने को उसका मन नहीं होता, बचपन से ही घर में कोई आकर्षण नहीं रहा। मां नहीं थी, मौसी थी, मां जैसी ही। बाप की जगह एक शराबी, अड्डेबाज आदमी था, जो सुबह - शाम दिखता था, हमेशा तंगी से जूझता, लड़ने को आमादा। ताऊ - ताई शुरू से अजनबी थे। उनके लड़के कभी भाई जैसे नहीं लगे। वैसे यह सब न भी होता, तो भी आमतौर पर 'टीन एजर' लड़के घर के कम बाहर के ज्यादा होकर रहते हैं। हिमानी ने नंबर लिख कर बातों का सिलसिला जोड़ लिया। यही कि तेरे ताऊजी ने छोटे बेटे का भी रिश्ता तय कर दिया है। कहते हैं सोचा तो यही था कि यहां से कहीं दूर जाकर शादी करें, किंतु क्या करें मकान बिका ही नहीं तो... अब कहते हैं, हम लोगों को शादी में बुलाएंगे नहीं, बदनामी होगी...। बात करते - करते हिमानी भावुक हो गई। कहने लगी, "एक ही जिम्मेदारी रह गई...रितु यहां होती तो उसकी डोली कब की उठ गई होती, एक - दो बच्चे गोद में खेल रहे होते...। अब तू भी पच्चीस - छब्बीस का हो गया है, तू भी मेरी बात नहीं सुनता। अपने बाप को तो तू जानता ही है, उसे किसी की फिकर नहीं। मैं ही कोशिश कर रही हूं, हां! अपनी गली के आखिर में जो चौहान जी हैं, उनकी पहचान वालों की लड़की है। मिसेज चौहान दो बार पूछ चुकी हैं, क्या कहूं? तू बता, अगर तेरी अपनी कोई पसंद है तो बता दे...कुछ बोल न...मैं कब से बकर - बकर कर रही हूं...बिलकुल गूंगा हो गया है...हलो! नन्नू!' नरेंद्र ने मुख्तसर - सा जवाब दिया, "मौसी! उस बेशर्म रितु की बात मुझसे आगे कभी मत करना। दूसरी बात यह कि मेरी शादी की चिंता छोड़ दो, सोचो भी मत, मुझे शादी - वादी के झंझट में नहीं पड़ना। हां, ध्यान रखना, मकान की डील जब भी फाइनल हो, मुझे जरूर खबर करना।" प्रापर्टी 'महादेव भवन' में से अपना हिस्सा लेना था। इसके लिए वह पूरी तरह सचेत था। नंबर भी इसीलिए दिया था कि भावकुता की मारी मौसी उससे संपर्क करती रहेगी। वर्तमान सरकार का कार्यकाल पूरा हो रहा था। देखते - देखते आर एन सेठ ने राजनीति के पांच वर्ष पूरे कर लिए। अब वह उसके अनुभवी खिलाड़ी बन गए थे। नये जनादेश के लिए कभी भी घोषणा हो सकती थी। चूंकि इस सरकार के कार्यकाल में बड़े - बड़े घोटाले हुए, स्वयं प्रधानमंत्री पर कई आरोप थे, इसलिए पार्टी की हालत नाजुक लग रही थी। स्वयं आर एन सेठ भी बातचीत में ऐसी संभावना जता चुके थे। परदे के पीछे यह तय भी था कि हालत देखकर वे अपने समर्थकों के साथ विपक्षी पार्टी का दामन थाम लेंगे। तब उनके मंत्री बनने का सपना जल्दी पूरा हो जाएगा। जब आर एन सेठ को कद बढ़ेगा तो उनके करीबी लोगों का भी फायदा होगा। सचमुच किसी मंत्री जी का खास होना किस्मत की बात है। नरेंद्र अभी से ख्वाब बुनने लगा। सफेद सफारी में तो वह अब भी जमता था, किंतु नेताओं वाला अंदर का रुआब, जिससे चेहरा दिप - दिप करता है और पुलिस के बड़े - बड़े अधिकारी सलाम ठोककर आगे - पीछे घिघियाते फिरते हैं'उस रुतबे की बात ही और है।' एम.पी. साहब आराम फरमा रहे होते थे, वही समय उसकी फुरसत का होता था। पूरी तरह वह भी नहीं, क्योंकि फोन की घंटी हर समय घनघनाती रहती थी। उसके जूनियर फोन उठाकर उससे जवाब पूछते थे। खास लोगों को वह स्वयं जवाब देता था। उनसे खास लोगों की कॉल उसके मोबाइल पर आती थी। उस दिन वह निश्चिंत, अपने कमरे में व्हिस्की के साथ बैठा था। सेठ विदेश दौरे पर थे। ऐसे वक्त उनके साथ उनका दूसरा पी.ए. राघवन ही साथ जाता था। वह निश्चिंत, अवकाश की मनःस्थिति में, बोतल खोलकर अपने कमरे में बैठा था। तीन लोग और थे, दो उसके जूनियर और एक सेठ के क्षेत्र से उनका परिचित युवक राकेश, जिसे यहां रहकर भविष्य की संभावनाएं तलाशनी थीं। उसके साथ कुछ ही दिनों में नरेंद्र का दोस्ताना हो गया था। एकांत था, उम्र का उठान था और शराब का साथ। माहौल में सुरूर घुल रहा था। राकेश ने उठकर टीवी चालू कर दिया। यह मात्र संयोग था कि चैनल पर जो गाना बज रहा था, वह रितु के एलबम का था। अपने समय का 'लोकप्रिय' भड़काऊ गाना। नरेंद्र पेग सिप करते हुए भविष्य के सपनों में सफेद पोशाक में सजा - संवरा अपने को सफेद अम्बेसडर में देख रहा था, जिसके आगे - पीछे हॉर्न बजाती अन्य अम्बेसडर चल रही थीं। उसे लगा जैसे गाड़ी को इमरजेंसी ब्रेक लग गए हों। आगे रेड लाइट है या एक्सीडेंट हुआ है या कि गाड़ी ही खराब हो गई है। टीवी स्क्रीन पर उसकी बहन, रितु कम से कम कपड़ों में दर्शकों को उत्तेजना का आमंत्रण देती हुई तेज़ 'बीट' पर थिरक रही थी। उसने आंखें बंद कर लीं। यही है शायद, जिससे उसकी गाड़ी को ब्रेक लग सकते हैं। आदमी जब मशहू
र होता है, उसका परिवार भी मशहूर होता है। आजकल चैनल वाले तो पुरखों का बायोडाटा तक निकाल लाते हैं। यह तो मेरी बहन है, जीती - जागती। 'अपोजीशन' वाले खूब नमक - मिर्च लगाएंगे, संस्कृति की दुहाई देंगे। हो सकता उसके पोस्टर तक छपवाकर दीवारों पर चिपकवा दें। लोगों के जुनून का कुछ पता नहीं, पासा पलट गया तो? उसने टीवी देखना ही छोड़ रखा था, इसलिए कि उसकी सूरत दिखेगी तो मन खराब होगा, गुस्सा आएगा। वह सिर्फ न्यूज चैनल देखने लगा, पर वहां भी ब्रेक में विज्ञापनों के दरमियान उसके दिख जाने का अंदेशा बना रहता था। एक बार तो उसने अपने कमरे से टीवी हटवाकर रिसेप्शन में रखवा दिया था। सेठ साहब को पता चला तो उन्होंने वजह पूछी तो यही कह सका कि देखने लायक कुछ होता नहीं है। उसमें सब ऊलजलूल दिखाते हैं। "न्यूज देखो, सिर्फ न्यूज! समझे, अपडेट रहना जरूरी है। न्यूज देखो, हमें भी बताओ, कहां क्या हुआ? किसने क्या कहा और क्या किया? हमारा तो सारा कैरियर न्यूज पर ही टिका है ...ऊलजलूल! ...अरे तू कब से साधु - संन्यासी हो गया। हमारे छोड़े हुए 'लेग - पीस' चांपता है कि नहीं, बोल!" अंतिम वाक्य उन्होंने खास अंदाज में आंख दबाकर कहा था, जिसका मतलब नरेंद्र जानता था, इसलिए वह मुस्कराया भी था। ऐसी अंतरंग बातें सेठ खाना खाते समय करते थे। इस तरह टीवी फिर उसके कमरे में आ गया था। वह सोच से उबरा तो देखा अभी भी रितु कमर लचकाते हुए सीने को खास अंदाज में हिला रही थी। अन्य तीनों लोग सुरूर में गाने के साथ झूमते हुए सिसकारियां ले रहे थे। वह गुस्से से भन्ना गया। उसने जोर से गिलास को टेबल पर ठोक कर रखा, गिलास छन्न से टूटकर बिखर गया। छन्नाहट के साथ - साथ उसकी आवाज गूंजी, "बंद करो, यह सब...!" बाकी लोगों की समझ में नहीं आया कि क्या हुआ? या कि उन्होंने क्या गलत किया। उन्होंने अपने - अपने गिलास तुरंत खाली किए और बेआवाज वहां से खिसक गए। नरेंद्र अभी भी बुदबुदा रहा था, "जाओ!...सब जाओ!...मुझे अकेला छोड़ दो..." आदित्य ने लगभग सात वर्ष 'महादेव भवन' के ऑफिस में गुजारने के बाद आखिरकार कब्जा छोड़ दिया। उसने कोई मांग नहीं रखी थी। यदि रखता भी तो गरज़ के हिसाब से पूरी हो सकती थी, लेकिन नहीं, उसका मानना था कि किसी के मकान को हथिया लेना या उसके एवज़ में रुपया मांगना सरासर गलत है।' इसीलिए वह स्वयं किरायेदार होते हुए भी 'किराया - कानून' के शोर - शराबे के बीच मालिक - मकानों का समर्थन कर रहा था। उस दिन सुखदेव जितना खुश था, उतना ही हिमानी दुःखी थी। अजीब बेचैनी से भरी थी वह, जैसे कुछ छूटा जा रहा है उससे। लेकिन क्या? कुछ अबूझ है, जिसे व्यक्त नहीं किया जा सकता। दिल में हौल - सा पड़ रहा है। खाली - खाली - सा सब निरर्थक। अब क्या होगा, यहां से आगे अब किधर जाएगा जीवन, किसके सहारे जाएगा। आज भी वह क्यों खाली हाथ खड़ी है, इतने बरस बाद भी। सोच - सोच कर जिया फटने को हो रहा था। कब तक, कितने दिन, कितनी रातें, कितना जीवन, कैसे कटेगा, निपट अकेले, सन्नाटे में। अब क्या शेष है, बच्चों का बहाना भी नहीं, तब? सुन, अपने लिए जी, नई राह बना, जो साथ हो लें, उनके लिए जी। जीवन को बड़ा और बड़ा बना...' जिस दिन उसका सामान 'पैक' हुआ, आदित्य पहले ही कुछ दिन से गायब था। विनोद ने दोनों टेबल, अलमारी कुछ फाइलों के बण्डल छोटे ट्रक में रखवाए और चाबी हिमानी को दे आया था। हिमानी ने पूछा था, "कहां हैं वकील बाबू, कुछ दिनों से दिखे नहीं।" "हां! वे बिजी हैं, शहर से बाहर गए हैं।" "नया दफ्तर कहां खोला है, मतलब कहां शिफ्ट किया है?" "साब जिस एनजीओ के लिए काम करते हैं, उसका बड़ा दफ्तर है, उसी कैम्पस में मिल गया है, सभी सुविधाएं हैं वहां!" हिमानी को अपने हर प्रश्न के बाद सोचना पड़ रहा था कि अब क्या पूछे। लगा, प्रश्न खत्म हो गए हैं या जो प्रश्न पूछना है, वह जुबान पर नहीं आ रहा। हलक तक आकर फिर नीचे लौट जाता है। "बैठो भैया! चाय पिओगे।" यूं ही पूछा उसने और उत्तर की प्रतीक्षा किए बिना रसोई की ओर जाने को मुड़ी। विनोद ने विनम्रता से अनुरोध ठुकराया, बोला "नहीं मैडम! चाय रहने दीजिए, थोड़ा पानी पिऊंगा, ट्रकवाला इंतजार कर रहा है।" विनोद पानी पी रहा था, तब हिमानी ने पूछा, "वकील बाबू अकेले रहते हैं?" "जी!" विनोद के मुंह से निकला, जैसे कह रहा हो कि यह क्या प्रश्न है? उधर हिमानी का दिल जोर - जोर से धड़क रहा था। किया न बच्चों का..." हिमानी ने बात को इधर - उधर घुमाकर स्वयं को सहज बनाने की कोशिश की। विनोद ने पानी पीकर गिलास पकड़ाते हुए बताया कि वह कभी उनके घर नहीं गया और साब कभी घर की बात नहीं करते। हारकर हिमानी ने उनके नये ऑफिस का नंबर नोट कर लिया था। कई दिन से वह आदित्य को फोन पर संपर्क करना चाह रही थी, किंतु आदित्य फोन पर उपलब्ध नहीं हो रहा था। विनोद हर बार उसकी व्यस्तता की बात कहता थ
ा, 'उनकी कुछ पर्सनल प्रॉबलम्स है, बताते नहीं हैं मैडम...मैं उन्हें कहूंगा आपका फोन था। ...मैंने आपका मैसेज दे दिया था... जैसे ही थोड़ा फ्री होंगे, बात करेंगे... जी मैं याद दिला दूंगा। ओ.के. मैडम!' लगभग दो महीने बाद अचानक आदित्य का फोन आया और उसने देर से फोन करने के लिए खेद प्रगट किया। उसने यह भी कहा कि वह बेहद निजी समस्या से जूझ रहा था। वह मसला हल हो गया है, वह अब फ्री है। जिस दिन से विनोद ने कहा था कि साहब कभी घर की बात नहीं करते, हिमानी को वह आदमी अचानक रहस्यमय लगने लगा था, जो वर्षों से उसके पड़ोस में ऑफिस चलाता रहा। उसे याद आया, आदित्य ने एक बार वादा किया था, एक दिन अपने बारे में बताएगा। एकाएक यही सूत्र हिमानी को बहुत महत्त्वपूर्ण लगने लगा या कहें कि फेसीनेट करने लगा। अब जबकि आदित्य ने स्वयं अपनी निजी समस्या का हल्का - सा ज़िक्र किया था तो हिमानी ने उस अवसर को हाथ से जाने नहीं दिया और बच्चे की भांति आग्रह किया, "मुझे आपसे मिलना है। अभी के अभी!" "जैसे भी हो, मुझे नहीं मालूम, इट्स अरजेंट!" "क्या हुआ, सब कुशल तो है, नन्नू, सुखदेव सिंह या रितु की कोई खबर है।" चिंतित होकर पूछा उसने। हिमानी कुछ क्षण के लिए खामोश हो गई। "हलो! क्या हुआ...कुछ बोलिए तो।" "क्या बोलूं, उन तीनों के अलावा किसी और की चिंता नहीं है आपको।" कुछ पल रुका आदित्य, फिर संजीदा स्वर में कहा, "सच तो यह है कि उस एक ही की चिंता अधिक है। उसकी खुशी के लिए उसके अपनों की चिंता करनी पड़ती है।" "खुशनसीबी है उसकी, वकील बाबू।" "पर मेरी नहीं।" "क्यों भला।" आश्चर्य व्यक्त किया हिमानी ने। "इसलिए कि आप मुझे हमेशा वकील बाबू बुलाती हैं और आप - आप कहकर बात करती हैं...आप मुझे नाम से बुला सकती हैं, छोटा हूं आपसे।" छोटा होने की बात पर हिमानी पल भर के लिए बुझ गई। 'यह क्या नया बैरियर है हमारे बीच।' सोचा उसने, पर तुरंत संभल कर कहा, "मैं तो आपका आदर करती हूं..." "यदि आदर के साथ प्यार भी है, तब मुझे कोई एतराज नहीं। केवल सम्मान का सूखापन...नो वे।" आदित्य के यह शब्द सुनकर हिमानी लरज गई। उसके कपोल रक्ताभ से खिल उठे थे। कानों के पास चींटियां - सी रेंगने लगी थीं। एक मीठी लहर उसके भीतर उतर गई। संभवत उसके कान ऐसा ही कुछ सुनने को तरस रहे थे। तो...माफ कर दीजिए..." हंस पड़ी हिमानी, "नहीं, नहीं! ऐसी कोई बात नहीं, पर मैं हैरान हूं कि आज अचानक... ऐसी बातें...आप...आपकी तबीयत तो ठीक है न!" उसने चुहल करते हुए पूछा। "तबियत ठीक वैसी ही है, जैसी आपकी।" हिमानी उसकी हाजिर जवाबी पर मोहित हुई, किंतु तुरंत ही नहले पर दहला मारते हुए कहा, "मगर आप तो मुझसे छोटे हैं न।" इस वाक्य में जो गुदगुदाहट थी, उसे महसूस कर दोनों देर तक हंसते रहे। अवरोध जैसे हट गया था। इसके बाद वे कई बार एक - दूसरे से मिले भी। आदित्य के दफ्तर में, सीपी के युनाइटेड कॉफी हाउस में, पंडारा रोड के रेस्तरां में। खुली जगहों पर मिलना दोनों को ही नापसंद था। शायद नापसंद वाली बात उतनी सही नहीं थी, हां! एक हिचक ज़रूर थी कि इस उम्र में, टीन एजर्स की भांति पेड़ों के पीछे चिपककर बैठना, गोद में सिर रखकर लेटना, हाथों में हाथ लेकर टहलना शोभा नहीं देता। प्यार किसी उम्र में हो, हर उम्र की अपनी गरिमा होनी चाहिए, ऐसा उनका मत था। वे बैठकर बातें करते हों या रेस्तरां में खाना खा रहे हों, हमेशा आमने - सामने बैठते थे। हर मुलाकात के बाद ज्यादा नज़दीक महसूस करते थे। एक - दूसरे को अधिक से अधिक समझ लेने की आतुरता थी। दोनों को एक - सा आश्चर्य था, क्या यह बहुत पहले से हमारे भीतर था या अचानक अब ऐसा क्या हुआ कि सारी सीमाओं को नजरअंदाज कर वे इतना पास आ गए? उत्तर भी उनके ही भीतर था। आदित्य ने बताया था कि वह हिमानी को ऐसी बदहाली और वीतरागी छवि में भी पसंद करता था। उसमें एक चार्म है। वह उसे बहुत पहले से अच्छी लगती थीं। उसका ओवर - आल लुक, बात करने का सलीका और सबसे बड़ी बातजिंदगी से जूझने की हिम्मत...मरते हुए भी शेष रहने का जज्बा मुझे फेसीनेट करता था। इसलिए आपसे बात करना चाहता था। वह मौका आपके परिवार की मुश्किलें मुहैया करा देती थीं। इस बात पर हिमानी ने चुटकी ली थी, 'अच्छा!' ओह ओ! कितनी भोली थी मैं, यह भी नहीं जान पार्इं कि कोई मदद के बहाने मेरी कलाई पकड़ना चाह रहा है।" दोनों खूब हंसे थे। आदित्य ने कहा था, 'यह सच है कि आपकी मुश्किलें हल होने पर मुझे राहत मिलती थी। हां! एक और बातकभी - कभी आप मुझे परीकथाओं वाली राजकुमारी लगती थीं, जिसे सुखदेव - रूपी राक्षस ने अपने महादेव भवन में कैद कर रखा है। मैं उस राजकुमारी को राक्षस के चंगुल से मुक्त देखना चाहता था। यह मात्र मनोभाव थे। प्यार के बारे में तो सोचा ही नहीं जाता था।' "आप मुझसे छोटे थे, शायद इसीलिए।" हिमानी को मजाक सूझा और उसने फिर वही जुमल
ा जड़ दिया। दोनों देर तक हंसे थे। आदित्य ने उत्तर में इतना ही कहा था, "मैं इस रूढ़ि का पक्षधर तो नहीं हूं, पर अंतर बहुत अधिक नहीं होना चाहिए, पर मेरा यकीन मानिए, तब मैं वैसा सोचता ही नहीं था।" "और अब सोचते हो?" चट से पूछ लिया हिमानी ने। वह गंभीर हो गया था, "इस पर हम दोनों को सीरियसली विचार करना चाहिए। जहां तक मेरा सवाल है, मेरे लिए अब कोई अड़चन नहीं है। अकेला हूं...मेरा फैसला, मां की खुशी होगी। पर आपके लिए बहुत मुश्किलें हैं। आपका परिवार, सुखदेव सिंह, नाते - रिश्तेदार सबसे कैसे छूटेंगी आप?" "जुड़ने जैसा वहां कुछ है कहां! दोनों बच्चों के जाने के बाद तो बिलकुल नहीं। मैं नहीं चाहती कि अब शेष जिंदगी उस शराबी के साथ लड़ते - झगड़ते पूरी करूं। इससे पहले कि मैं अकेली बंद कमरों में पागल हो जाऊं वहां से भाग जाना चाहती हूं। दूर, बहुत - दूर।" "और अगर रितु लौट आई किसी दिन...नन्नू जवान हो गया है, उसकी शादी, उसके बच्चे! क्या नहीं देखना चाहोगी।" कातर निगाहों से कुछ पल वह आदित्य को देखती रही, सोचती रही। फिर बोली, 'शायद यह उत्तरदायित्व भी मुझे निभाना है ...पर क्यों? हरदम फर्ज की सलीब पर मैं ही क्यों? मेरे लिए किसी का दायित्व नहीं... अब मैं अपने लिए कुछ चाह रही हूं तो इसलिए उसे गवां दूं कि रितु के आने का इंतजार करूं, नरेंद्र की गृहस्थी बनाऊं। फिर उसके बच्चे पालूं...सुखदेव जैसे नाकारा की सुहागिन बनी अंतिम सांसें गिनूं? ...नहीं! अब और नहीं!' प्रत्यक्ष में उसने आदित्य से कहा था, "यह सब क्या अब भी जरूरी है?" यह सब बातें बाद की हैं। पहली मुलाकात में तो हिमानी ने वही पूछा था, जो वह अरसे से जानने को व्याकुल थी, जिसके लिए आदित्य ने वादा किया था कि समय आने पर अपने बारे में सब बताएगा। "क्या अभी भी समय नहीं आया है, जब आप मुझे अपने बारे में बता सकें।" हिमानी ने पूछा था। "बिलकुल आ गया है, तभी आपसे बात करने की हिम्मत कर सका। आज मैं खुश हूं और स्वतंत्र भी।" बात को आगे बढ़ाते हुए आदित्य ने अपनी कथा को कुछ इस तरह बयान किया था, "आदित्य अपने माता - पिता की दूसरी संतान था, छोटा बेटा। बड़े बेटे सोमेंद्र ने एम.सी.ए. के बाद एम.बी.ए. करके एक आईटी कंपनी ज्वाइन कर ली थी। चूंकि पिता सूचना - प्रसारण मंत्रालय के अधिकारी थे, उन्हें भविष्य में आईटी क्रांति का पूरा अंदाजा था। सोमेंद्र ने उनकी बात मानी और उसी लाइन पर बढ़ गया, परंतु आदित्य कुछ अपने मन की करना चाहता था। विरोध के बावजूद उसने सोशलवर्क से ग्रेजुएशन किया, उसके बाद उसने एल - एल.बी. कर ली। इससे पिता खुश नहीं हुए, किंतु थोड़ा संतोष हुआ कि आज के जमाने में वकालत थोड़ी भी चल गई तो अच्छा पैसा कमाया जा सकता है। मां हाउस - वाइफ थी और वह बच्चों के कैरियर को लेकर इतनी चिंतित नहीं थी। उनका मानना था कि बच्चे अपनी खुशी से जो करेंगे, अच्छा ही करेंगे। इज्जत से जीवनयापन हो जाए, बाकी क्या धरा है मारामारी में।' आदित्य ने एन.जी.ओ. के लिए काम करना शुरू कर दिया। आदित्य मां की सोच के ज्यादा करीब था। उसने तो वकालत भी यह सोचकर की थी कि वह असहाय लोगों के लिए कानून का पैरोकार बनेगा। उन दिनों उसे जनहित याचिकाएं भी बहुत प्रभावित करती थीं और सोशल कॉज के लिए काम करने वाली संस्थाओं से जुड़े वकील उसके प्रेरक थे। इस दौरान बड़े भाई सोमेंद्र की शादी हो गई और जल्दी ही वह बंगलौर शिफ्ट कर गया। कंपनी ने उसे बंगला, गाड़ी और मोटी तनख्वाह ऑफर की थी। पिता उसकी तरक्की से जितना खुश थे, उतना ही आदित्य की ओर से दुःखी। सिर्फ दुःखी नहीं, उसमें उनकी नाराज़गी और क्रोध भी झलकता था। वह अपने बड़े बेटे के साथ ही रहना चाहते थे। उनकी पत्नी, उन्हें टोक देती थीं, 'पहले इसकी भी शादी कर दें और फारिग होकर जहां दिल चाहे, वहां रहें। अभी आपके रिटायरमेंट में भी दो - तीन वर्ष हैं। पद पर रहते ही यह काम भी निबट जाए तो अच्छा है। 'आदि' भी पच्चीस - छब्बीस का हो गया है, अब देर करना उचित नहीं।' पिता ने भी आदित्य से यथाशीघ्र मुक्ति पाना ही श्रेयस्कर समझा। कई रिश्ते आए। आदित्य की मां कहती थी, 'तय तो वहीं होगा, जहां ऊपर वाले ने लिखा होगा। जहां रिश्ता तय हुआ, वह रिश्ता दूर के संबंधी के अपने परिचित की लड़की का था। पिता कारोबारी था, लड़की के दो बड़े भाई थे और दोनों शादीशुदा थे। लड़की पढ़ी - लिखी थी, पर नौकरी करने में कोई दिलचस्पी नहीं थी गोया पढ़ाई टाइम - पास के लिए ही की गई थी। स्वाभाविक था। जिसका उत्तर आदित्य को कई वर्ष बाद मिला। लड़की सुंदर थी, कॉलेज के समय ही किसी लड़के से आंखें चार कर बैठी थी। जब घर वालों को मालूम हुआ तो पांव तले जमीन खिसक गई। जितने भी दबाव हो सकते थे, सब लड़की पर डाले गए। ऊंच - नीच भी समझाया गया। लड़की उतनी बागी नहीं हुई थी और वह शादी करने को राजी हो गई, इसलिए बिना किसी हंग
ामे के शादी हो गई थी। एक और कारण था, एक कारोबारी द्वारा आदित्य को पसंद कर लेने का, वह यह कि उन दिनों एक जनहित याचिका में आदित्य का नाम अखबार की सुर्खियों में उछला था। कोर्ट का फैसला याचिका के पक्ष में आया था। धन - कुबेरों में प्रसिद्धि का आकर्षण बेहद होता है, लोकप्रियता का दर्जा उन्हें धन से ऊपर लगता है। पहले सेठ - साहूकार परोपकार के कार्य करके नाम कमाने का प्रयास करते थे। कुएं - बावड़ी, धर्मशालाएं, अस्पताल और मंदिर आदि इसी भावना के तहत बनवाए जाते थे, जिनमें बनवाने वाले दो - तीन पीढ़ियों के नाम के पत्थर स्थापित कर दिए जाते थे ताकि सनद रहे। अब तो उनका नजरिया भी बदल गया है। वे सोचते हैंजिस तरह धन से प्रसिद्धि हासिल की जा सकती उसी तरह प्रसिद्धि को भुनाकर धन भी कमाया जा सकता है। थी, घूमना - फिरना, शॉपिंग करना, डिस्कोथिक जाना, डिनर होटल में करना, उसके खास शगल थे। शुरुआत में कुछ समय तक तो चला। फिर कलह होनी शुरू हो गई। आदित्य के पिता रिटायर होने वाले थे। उन्हें अपने भविष्य के लिए पैसा सुरक्षित रखना था, करते भी तो कितना? खर्च की कोई सीमा भी तो हो। उधर आदित्य की आय सीमित थी। कुछ समय लड़की के मां - बाप ने स्थिति को संभाला। लड़की के पास अपनी गाड़ी नहीं थी, उन्होंने बड़ी गाड़ी दे दी, महंगा मोबाइल दे दिया, कैश भी हर महीने भिजवा देते थे, पर कब तक? अंततः दबाव आदित्य पर बढ़ रहा था कि वह अपनी आमदनी बढ़ाए। यह कि गरीब - गुरबा लोगों और अनाथ बच्चों की पैरवी छोड़कर कायदे से वकालत करे, धोखाधड़ी, मारकाट, लूटपाट, जालसाजी के हजारों मुकदमें रोज आते हैं, क्यों नहीं लड़ता ऐसे मुकदमे। बड़ी - बड़ी कंपनियों में अपने 'लीगल - सेल' होते हैं, क्यों नहीं ज्वाइन करता। बड़े - नामी वकीलों से जुड़कर काम क्यों नहीं करता...वगैरह - वगैरह! किंतु आदित्य ऐसा नहीं कर सकता था। वह जानता था कि ईमानदारी से यदि उन केसों को लड़ेगा तो भी उसकी स्थिति में विशेष सुधार नहीं होने वाला, तो क्या अपने मन के संतोष को भी नष्ट करे। उसकी पत्नी ने घर छोड़ दिया, यह कहकर कि ऐसे 'होपलेस' आदमी के साथ वह नहीं रह सकती। उसके मां - बाप ने थोड़ी कोशिश की, उसे वापस भेजा, किंतु कुछ महीने बाद वह फिर चली गई। आदित्य के लिए संतोष की बात यह रही कि इस दौरान पत्नी ने 'कंसीव' नहीं किया था, वरना बच्चे की जिंदगी तो तबाह होती ही उसके अधिकार को लेकर भी महाभारत होना था। रिटायर होने के बाद आदित्य के माता - पिता उसके बड़े भाई सोमेंद्र के पास चले गए, वह रह गया और उसका काम। तलाक को लेकर आदित्य ने अपनी ओर से कोई पहल नहीं की। काफी समय गुजर गया। जब उधर से तलाक का केस फाइल किया गया तो उसमें स्त्रीधन को वापस करने की मांग से कई पेचीदगियां आ गर्इं। फिर गुजारा भत्ते का मसला उसमें जुड़ गया, केस लटकता चला गया, कभी तारीख, कभी जज महोदय का ट्रांसफर, कभी उनका रिटायरमेंट, इन सबके चलते कानूनी तौर पर संबंध - विच्छेद होने में छह वर्ष लग गए। आधा - अधूरा ही तो रहा। "सचमुच! यू आर ग्रेट! आदित्य बाबू!" उसने कहा था। 'मेरी मुश्किलें आसान बनार्इं, किंतु अपना दुःख कभी शेयर नहीं किया, ऐसा क्यों? ...वो कहते हैं न कि दुःख बांटने से कम होता है। संबंधों के दुःख दूर तक फैल जाते हैं। उनको फैलाने में लोगों को मज़ा आता है। उदाहरण के तौर पर आपने कभी नहीं बताया कि सुखदेव आपका जीजा था, दोनों बच्चे आपकी बहन के थे, लेकिन मुझे शुरू में ही इधर - उधर से यह जानकारी मिल गई थी। और भी न जाने कितने लोगों को मालूम होगा। वे सभी आपको हमेशा सहानुभूति की नजर से या खोट - परखने वाले शीशे से ही देखेंगे ताकि आप अपने को तुच्छ - निरीह समझती रहें। ऐसे दुःखों को जितना कम लोग जानें, उतना अच्छा है। पर क्या करें, अड़ोस - पड़ोस और संबंधियों की हिस्सेदारी, अपने आप हो जाती है।' आदित्य के बारे में सब जान लेना, हिमानी के लिए अंततः सुखद रहा। यह विचित्र बात है कि एक दुःख, कैसे दूसरे को सुकून दे सकता है! पर कहते हैं न कि दिल को दिल से राहत होती है। या दो अंधे मिलकर ज्यादा हौसले के साथ सड़क पार करते हैं। दरअसल हिमानी आत्मग्लानि से भी मुक्त हो रही थी। आदित्य को चाह लेने में अब उसे किसी अपराध - बोध का अहसास नहीं हो रहा था। यदि आदित्य सुखी गृहस्थ होता तो उसके सूखे रूख पर, जो नन्हीं कोमल कोपलें फूटी थीं, कुम्हला जातीं। सपनों के ताने - बाने टूट जाते। परिजनों और समाज से आंखें मिलाकर अपने लिए जीने की जो चाहत पैदा की थी, वह मर जाती। 'थैंक गॉड! ऐसा नहीं हुआ, सब बच गया। उसकी चाह बरकरार है, अब नई ऊर्जा के साथ। और जहां चाह होती है, राह निकल ही आती है।' यही उसने आदित्य से कहा था, जब उसने पूछा था कि 'अब आप क्या करेंगी? आपकी राह अभी मुश्किल है। तलाक लेना भी किसी यातना शिविर से गुजरने जैसा होता है।' हिमानी न
े बात के वजन को एकदम हल्का कर दिया था, यह कहकर, 'मैं जो करूंगी, बाद में सोचूंगी। पहले आप मुझे 'आप - आप' कहना बंद करिए...।' आदित्य ने भी मुस्कराकर कहा, "अब आप भी मुझे आप नहीं कहेंगी...पहले वादा कीजिए।" "फिर आप!" हिमानी ने फिर टोका और दोनों खिलखिलाकर हंस पड़े थे। "संबंधों से टूटकर, अकेले जीना कैसा लगता है।" हिमानी तुरंत संजीदा हो गई थी। "संबंध, अहसास भर होता है, आदमी जीता तो अकेले ही है।" "मुझे भयावह लगता है, अकेले जीना। फिर भी मन के बोझ, तन के कष्ट नितांत निजी अनुभव होकर भी तसल्ली दिया करते हैं, सिक्योर करते हैं।" "शायद तुम ठीक हो, पर कभी - कभी भयानक दंश देते हैं।" कहने के साथ आदित्य के चेहरे पर दर्द था, जिसे देखकर हिमानी के अपने दर्द हरे हो गए। फिर भी उसने पूछा, "क्या परिवार के लोग अब मिलते नहीं।" आदित्य ने गहरी सांस ली, "जब दिल करता है, मां आ जाती है।" कुछ देर दोनों के बीच खामोशी छाई रही। आदित्य, दीवार पर लगी एक पेंटिंग देख रहा था और हिमानी, नजरें नीची किए टेबल के 'सनमाइका' डिजाइन के फेड - आउट हो गए डिजाइन को उंगली से बना रही थी। थोड़ा और रुक कर वे उठे, तब हिमानी ने पूछ लिया, "मुझे मां से मिलाओगे?" कुछ क्षणों के लिए हिमानी को देखता रह गया था आदित्य, फिर कहा था, "आखिर तुम्हारा इरादा क्या है?" "वही, जो तुम्हारा नहीं है शायद!" फिर दोनों हंसे थे, हंसते - हंसते ही रेस्तरां से बाहर आ गए थे, जहां कुछ भीख मांगने वाले बच्चों और औरतों ने उन्हें घेर लिया था।
की सहायता से पहुॅचा । साहित्यालोचन का विज्ञान अब भी अपने सञ्चित ज्ञान को क्रमबद्ध कर रहा है और अभी दूसरी अवस्था से आगे नहीं बढा । वह अपनी तीसरी अवस्था को तभी प्राप्त होगा जब वह उन नियमो का अन्वेषरण कर लेगा जो इस बात को स्पष्ट करेगे कि तरह-तरह की साहित्यिक कृतियाँ किस प्रकार अपने प्रभावो को पैदा करती है । इस बीच मे साहित्यालोचन को वैज्ञानिक कठोरता से अन्वेषण और वर्गीकरण के काम को अग्रसर करना चाहिए । लोकको साहित्य का निरीक्षण वैज्ञानिक वृत्ति से करना चाहिये । वह अपने तथ्य कृति के ब्यौरो मे ढूंढे । परन्तु कुछ शास्त्रशो का कहना है कि साहित्य की विषय-वस्तु मे कोई निश्चितता नही है । साहित्य का एक तथ्य उतने तथ्य हो जाते है जितने पाठक होते हे । इसके उत्तर मे मोल्टन की दलील है कि यह कठिनाई और विज्ञानो मे भी मिलती है । भय की एक वस्तु दर्शको को तरह-तरह से प्रभावित करती है, कोई दिखाता है तो कोई मूर्छा से विवश हो जाता है । फिर भी मनोविज्ञान सम्भव हुआ है । प्रश्न केवल यह उठता है कि तथ्य से प्रभावित होने की विभिन्नता कैसे दूर की जाय । साहित्य मे यह विभिन्नता किताब की ओर बार-बार ध्यान देने से निकाली जा सकती है क्योकि तथ्य उसी मे निश्चित है । जब तथ्य ऐसे शुद्ध रूप मे एकत्रित किये जाते है तो उनके आधार पर साधारणीकरण सम्भव हो सकता है । मान लो, हमे मैक्वैथ के चरित्र की व्याख्या करनी है । हम नाटक को अनात्मिकता से पढ़े, उसमे मैक्वैथ जो कुछ कहता है या करता है और उसके विषय मे जो कुछ दूसरे कहते महसूस करते है, इन बातो पर और दूसरी ऐसी बातो पर ध्यान देकर मैक्वैथ के विषय मेहमी मति निर्धारित करे । बस, यही मैक्वैथ के चरित्र की आगमनात्मक व्याख्या होगी। इस व्याख्या की सत्यता से हम तभी प्रभावित होगे जब वह उन सब व्यौरोको स्पष्ट कर देगी जो मैक्वैथ के चरित्र के सम्बन्ध मे नाटक मे मिलते है । यह व्याख्या चरित्र के निहित उद्देश्य को विदित करेगी, चरित्र के शरीर अथवा अन्तर्जात उद्देश्य को ऐसे किसी उद्देश्य को नही जो स्वय नाटककार का अभिप्रेत हो । वैज्ञानिक आलोचक इस बात को मानता है कि कला प्रकृति का अश है । जैसे प्रकृति के नियम प्रकृति ही देती है, उनका आरोप बाहर से किसी शक्ति द्वारा प्रकृति पर नहीं होता, वैसे ही साहित्य के नियम साहित्य देता है, बाहर से कोई व्यक्ति उन्हे निश्चित नही करता । यह नियम धार्मिक अथवा राजनीतिक नियमो से भिन्न होते है। केवुए का उद्देश्य धरती फाडकर उसे उपजाऊ बनाना है। क्या कोई बाहर से केचुए को इस उद्देश्य की पूर्ति की शिक्षा देता है ? इसी तरह फूलो के रङ्ग-बिर होने का उद्देश्य कीडों को आकृष्ट करना है। कौन फूलों की पूर्वप्रबोध के लिये प्रशसा करता है? ऐसे ही उद्देश्य साहित्य के होते है और ऐसे ही उद्देश्य और नियमो की खोज वैज्ञानिक आलोचक साहित्य मे करता है । जिस नियम की उसे उपलब्धि होती है वह रचना विस्तार विषयक व्यापार का वर्णन होता है । यदि वैज्ञानिक आलोचक को निश्चित नियम से हटा हुआ कोई दृष्टान्त मिलता है तो वह उसे किसी नये वंश का सूचक मानता है । साहित्यिक वशो का अन्तर तिरूपण ही मोल्टन के मतानुसार वैज्ञानिक आलोचना का मुख्य कर्त्तव्य है । वह इस बात को मानती है कि साहित्य मे असीम परिवर्तन और नानाविधित्व की पूरी क्षमता है और इसी क्षमता के फल - स्वरूप उसकी वृद्धि होती है । और क्योकि साहित्योत्पादन आलोचना के आगे आगे चलता है, आलोचना का फर्ज यही है कि वह उसके पीछे-पीछे चले और उसकी उत्पादित नई वस्तु की व्यवस्था करे । आगमनात्मक आलोचना पुराने समय से चली आ रही है । अरिस्टॉटल आगमनात्मक आलोक था । उसने उस यूनानी साहित्य का जो उसके समय से पहले लिखा जा चुका था, पूरा अध्ययन किया था । कविता, करुरण, और महाकाव्य के सम्वन्ध मे उसके साधारणीकरण हमे उसकी 'पोइटिक्स' मे मिलते है, और गद्य प्रौर सुभाषरणकला के सम्बन्ध मे उसके साधारणीकररण हमे उसकी 'रैटॉरिक' मे मिलते है । उसके प्रदत्त मे आख्यायिको की कमी थी । इसी से उसने कविता को आत्मिक रूप की जगह अनुकरणात्मक तत्त्व कहा । फिर भी करुरण और महाकाव्य के क्षेत्रो मे उसके साधारणीकरण अब तक बडे उपयोगी साबित हुए है । करुण की कई बातो पर तो उसका कथन अन्तिम हे । बेकन ने कविता के रूपों की परीक्षा करके उनको तीन वर्गों में विभक्त किया कथात्मक, प्रतिके • निध्यात्मक, और लाक्षरिएक। अठारहवी शताब्दी के अँग्रेजी साहित्य की विवेचना मे पैरी का यह दृढ विश्वास है कि साहित्य का विकास उतना ही नियमबद्ध हे जितना कि समाज का विकास । पोसनैट ने साहित्य की प्रगति चिह्नित करने के लिये स्पैसर के वैज्ञानिक अनुसन्धानो की सहायता ली है । उसका यह निष्कर्ष है कि साहित्य पहले कुल सम्बन्धी था, फिर नगर प्रजातन्त्र सम्बन्धी हुआ, फिर ससार सम्बन्धी हुआ और अन्त में राष्ट्रीय हुआ ।
ब्र नैटियर ने साहित्यिक प्रकारों के विविधत्व की परीक्षा स्पैन्सर के विकासवादी सिद्धान्त के अनुसार की है, उनके रूपान्तर की परीक्षा टेन के ऐतिहासिक सिद्धान्त के अनुसार की है, और उनके परिवर्तन की परीक्षा डार्विन के जीवनहेतु सघर्ष और प्राकृतिक चुनाव के सिद्धान्तो के अनुसार की है। मोल्टन को आगमनात्मक आलोचना मे पथप्रदर्शक नही कह सकते । अपनी 'शेक्सपिअर एज ए ड्रैमैटिक आर्टिस्ट' नाम की पुस्तक मे जिसमे उसने शेक्सपिअर के नौ नाटकों के आधार पर उसकी आगमनात्मक व्याख्या की है, वह साफ कहता है कि साहित्यिक आलोचना मे आगमनात्मक काम काफी हुआ है, खेद इसी बात का रहा है कि प्रलोचको ने अपने काम को आगमनात्मक कह कर घोषित नहीं किया है । आगमनात्मक आलोचना मे मनोवृत्ति पूर्ण सहानुभूति की रहती है । और सहानुभूति ही वास्तविक व्याख्याता है। निर्णयात्मक क्रिया मे सहानुभूति सीमित हो जाती है । निरर्णय की भावना ही चाहे जितनी ग्रहणशील क्यो न हो, पक्षपातपूर्ण होती है। इसीसे मोल्टन आगमनात्मक आलोचना को निर्णयात्मक आलोचना से उच्चतर कहता है। परन्तु साहित्यिक अध्ययन की आगमनात्मक पद्धति के आवेश मे आकर वह अपने सिद्धान्त की उपेक्षा करता है। आलोचना उसी साहित्य का एक प्रश है जो सदा वृद्धि की ओर अग्रसर होता है । निर्णयात्मक आलोचना साहित्य मे अपना अस्तित्व रखती है और वैज्ञानिक गवेषरणा का विषय उसी तरह बन सकती है जिस तरह शेक्सपिअर का नाटक मोल्टन बडी दृढता से इस बात की पुष्टि करता है कि साहित्यिक व्यापारी का विज्ञान उतना ही न्याय्य है जितना कि बनस्पति व्यापारी का अथवा बारिणज्य व्यापारी का । यदि बनस्पतिशास्त्र और अर्थशास्त्र सम्भव है तो आलोचना - शास्त्र भी सम्भव है । गुरण और दोष के सवाल आलोचना के बाहर है । कोई भूगर्भविज्ञानवेत्ता इस चट्टान को बुरा और उस चट्टान को भला कहते हुए नही सुना गया। उसे सब चट्टाने एक समान ग्रहणीय है और सब का वह आगमनात्मक रीति से अध्ययन करता है । उसी वृति से आलोचना साहित्यिक तथ्यो का अध्ययन करती है । परन्तु भूगर्भविज्ञान अथवा बनस्पति विज्ञान मे वैयक्तिक तत्त्व का लोप हो जाता है । साहित्य में व्यक्तित्व प्रधान होता है। दूसरी बात यह है कि साहित्य कला की हेसियत से जीवन का चित्ररण करता है । जब तक साहित्यिक तथ्यो की मानुषिक और रचनाप्रक्रिया विषयक सङ्गतता का मूल्य न निर्धारित किया जाय तब तक ठीक आलोचना सम्भव नही और ऐसी सङ्गतता के मूल्य निर्धारण से आगमनात्मक आलोचक विमुख रहता :है । फिर भी आगमनात्मक आलोचना की उपयोगिता है । किसी कृति अथवा कृतिकार को आलोचना उसके सम्यक् बोध के बाद ही आ सकती है। आगमनात्मक आलोचना हमारा ध्यान उन सिद्धान्तो पर एकाग्र करती है जो साहित्यिक कृतियो के ब्योरो को सम्बद्ध करते और उनका एकीकरण करते है । ऐसे सिद्धान्तो की पकड के अतिरिक्त क्या कोई और तरीका ऐसा है जिससे कृति का ज्ञान अधिक पूर्णता से हो जाय ? चौथा प्रकरण निर्णयात्मक आलोचना ( जुडीशल क्रिटीसिज़्म) आलोचना के लिये अंग्रेजी का शब्द क्रिटीसिज्म है । यह शब्द जिस ग्रीक धातु से आया है उसका अर्थ निरर्णय करना है । पश्चिम मे आलोचना की प्रारम्भिक रीति निर्णयात्मक ही थी, और निर्णय करने के मानदण्ड नैतिक होते थे। धीरे-धीरे आलोचना ने प्रेक्षावत् विश्लेषण द्वारा साहित्याध्ययन की प्रक्रिया का निष्पादन किया । आलोचना की आधुनिक चाल साहित्यिक कृतियों से प्राप्त मनाको को लिख डाल कर सन्तुष्ट होने की है । इस क्रम से आलोचना का विकास समय में हुआ। आदर्श रूप मे यह क्रम उलट जाना चाहिये । पहली अवस्था मे प्रलोचक पूर्ण ग्रहरणशीलता से कृति को पढे और उसके सम्पर्क में अपनी स्वतन्त्र प्रतिक्रिया का अनुभव करे । दूसरी अवस्था में कृति का सम्पर्क ज्ञान प्राप्त करे, जो तभी सम्भव हो सकता है जब आलोचक उत्तरप्रद और उत्तरदायी दोनो हो । और अन्त मे कृति के मूल के विषय में अपना निर्णय निश्चय करे । जो कि रचनात्मक और व्याख्यात्मक आलोचक इस बात को मानने के लिये तैयार नहीं है, फिर भी यह बात निर्विवाद सिद्ध है कि आलोचना का मुख्य कार्य निर्णय रहा है और रहेगा । कृति का मूल्य उसी में पहले से ही निहित है अभिव्यक्त अनुभव मे ही नहीं, वरन् अनुभव की अभिव्यजन्ना मे भी । यदि कलाकार का अनुभव उसके लिये मूल्यवान् नही है और अनुभव की अभिव्यञ्जना उसे सन्तुष्ट नहीं करती, तो वह कलाकृति की रचना में असफल रहेगा, आलोचक का यही कर्तव्य है कि वह उन मूल्यों की खोज करे जिनके प्रभाव से कलाकार की रचनात्मक क्रियाशीलता सञ्चालित हुई थी और उन मूल्यों के जीवन और कलासम्बन्धी औचित्य की परीक्षा करे। इस प्रकार आलोचक मूल्यों का निर्णायक है । कलाकार जीवन के जङ्गल और अभिव्यञ्जना की परिक्रिया के परिष्कारकों का साहसी नेता है । आलोचक देखता है कि भटकी हुई मानवजाति के लिये उसने रास्ता साफ क
िया है या नहीं। और जिसे मानव जाति सत्य समझती थी, उसे उसने व्यक्त किया है या नही । आदर्श आलोचक तो असम्भव सी चीज़ है । वह सर्वज्ञ हो तथा जीवन और अस्तित्व की योजना में प्रत्येक वस्तु का आवश्यक स्थान समझता हो । उसकी बुद्धि दैविक होनी चाहिये। जिस प्रालोचक को हम आदर से सुन सकते है, वह मानव जाति की सञ्चित ज्ञानराशि का पूर्णतया जानता हो और उसमे यह निर्णय करने का सामर्थ्य हो कि कहाँ मनुष्य जाति सत्य के मार्ग पर थी और कहाँ वह भ्रान्तिमय भटकती थी । आलोचक कलाकार से उसके स्थल पर ही भेट नहीं करता वरन् उससे प्रागे जाता है। उसकी यह क्षमता जीवन व्याख्या तक ही सीमित नही है । उसे रूप के मूल्याङ्कन और शब्दो की व्यञ्जनाशक्ति की परीक्षा मे प्रवीण होना चाहिये, क्योंकि कलाकार अपने जीवनदर्शन को क्रमिक प्रतिमाओ और प्रत्ययो द्वारा रूप देता है । जिस प्रकार आलोचक जीवन के मूल्याङ्कन मे कलाकार से आगे होता है उसी प्रकार वह उससे रूप और रचनाप्रक्रिया के मूल्याङ्कन मे आगे होता है । उसमे यह देखने की योग्यता होती है कि वारणा और अभिव्यञ्जना दोनो मे रूप प्राप्त करने के लिये कलाकार ने जीवनवस्तु का निष्कपटता से प्रयोग किया है और उपकरण रूप के पूर्णतया उपयुक्त है। ऐसे प्रलोकको सास्कृतिक अनुशासन अविरत और सोत्माह स्वीकार करना चाहिये । ग्रीस के एक प्राचीन आलोचक लॉञ्जायनस का कहना है कि साहित्य की योग्यता पर निर्णय देना अतिशय प्रयास का मिष्ठ फल है। लोकको कला का विस्तृत अनुभव और दर्शन, सौन्दर्यशास्त्र तथा मालोचना का सर्वाङ्ग अध्ययन होना चाहिये । ऐसे अनुभव और अध्ययन से उसे मूल्याङ्कन के उन मानदण्डो की सूझ होगी जिन्हे वह साहित्य की परीक्षा में सविश्वास इस्तेमाल कर सकता है । साहित्य और कला के मूल्याङ्कन को समस्या को भलीभाँति समझने के पहले यह जानना लाभदायक होगा कि भिन्न-भिन्न काल के कवियो, दार्शनिको और आलोचको ने हमारे पथप्रदर्शन के लिए कौन-कौन सङ्केन, सिद्धान्त, और विशदीकरण दिये है । यूनानियो मे आलोचनात्मक शक्ति होमर से ही क्रियाशील हो जाती है। उसकी 'इलियड' के अठारहवें सर्ग मे कलात्मक रचना के विषय में एक प्रसिद्ध स्थल है । हिस्टस ने एकोलीज की माँ थैटिस की प्रार्थना पर उसके लिए एक ढाल बनायी थी । वह युद्ध और शान्ति के दृश्यो से प्राभूषित थी । इनमे से एक दृश्य बसन्त ऋतु मे किसी कृषक को खेत मे हल चलाता हुआ उपस्थित करता है। खेत को कन्दाकारी का वर्णन करते हुए होमर, हिफ स्टस की प्रशसा मे लिखता है, "और हल के पीछे धरती काली पड़ गई और जुती हुई धरती की तरह दिखाई पडने लगी, यद्यपि वह सोने की बनी हुई थी, और यही उसकी कला का अद्भुत चमत्कार था ।" कवि का कहना है कि यद्यपि कलाकार सोने पर काम कर रहा था फिर भी वह सोने के पीलेपन को काला कर दिखाने मे सफल हुआ । स्पष्ट है कि कलाकार माध्यम को अपनी इच्छानुसार परिवर्तित कर उसके द्वारा अपने विचार प्रकट कर सकता है। यहाँ हिर्फ स्टस ने सोने मे वह बात पैदा कर दी जो सोने का गुण नहीं था। गोकि होमर साफ-साफ नहीं कहता, इस स्थल का मालोचनात्मक महत्व कलाकार की सफलता का मानदण्ड निर्दिष्ट करना है। जहाँ तक कलाकार अपने माध्यम के अन्तर पर विजय प्राप्त करता है, वहाँ तक ही उसे सफल कहा जा सकता है । होमर के बाद यूनानी आलोचना मे कूटतार्किकों (सोफिस्ट्स ) का स्थान है । वे व्याकरण मे और वाग्मिता में निपुण होते थे। इसी से उन पर यह आक्रमरण होता था कि वे नवयुवको को वाक्चपल बनाकर उन्हे भ्रष्ट करते थे। परन्तु उनके छोटे नगरराज्य मे जनसत्तावादी वक्ता की आवाज कान मे गूंजती थी और सुभाषणकला मे चातुर्य दिखाने की प्रवृत्ति प्रत्येक नागरिक मे देखी जाती थी। इस कारण से आलोचना का एक ओर तो सुभाषणकलाकौशल मे अनुराग बढ़ा और दूसरी ओर उसी कला की विषय-वस्तुओ मे। बस, पालोचनात्मक मूल्याङ्कन के दो मानदण्ड भली-भाँति परिभाषित हो गये । जो लेख अथवा वक्तव्य जितना अलङ्कारयुक्त, व्यग्यार्थपूर्ण, प्रभावशाली हो वह उतना ही सुन्दर है और उसकी विषयवस्तु जितनी शिक्षाप्रद हो वह उतना ही महान् । यूनानी मस्तिष्क पर धर्म पौर जनतन्त्रीय राजनीति का ढाग्रह था और इन्ही दोनो गुरणको ने यूनान के साहित्य का विकास निश्चित किया। यूनानी मत के अनुसार साहित्य का उद्देश्य मनुष्यो को सत्य, धर्म्यता, और नागरिकता का उपदेश देना है। सभी यूनानी आलोचक इस बात पर सहमत है कि साहित्य का कर्तव्य पढाना है, परन्तु क्या पढाया जाय और कैसे पढ़ाया जाय, इन बातो पर मतभेद है । साहित्य उपदेशात्मक हो, इस मत का सबसे बली प्रकाशक प्लैटो था । प्लेटो आदर्शवादी सुधारक था और वह प्रत्येक एथेन्स निवासी को आदर्श नागरिक बनाना चाहता था । मनुष्य के दो धर्म हैं । बतौर विशिष्ट व्यक्ति के उसे सत्य की प्राप्ति में संलग्न रहना चाहिये और बनौर समाज के सदस्य के उसे सदाचारी होना चाह
िये । सत्य और सदाचार की प्राप्ति ज्ञान द्वारा सम्भव है, ज्ञान जीवन के अनुभव के अतिरिक्त साहित्य द्वारा भी आता है। यह जानने के लिए कि साहित्य द्वारा प्राप्त ज्ञान एथेन्स के नवयुवक को लाभदायक या अथवा हानिकारक, उसने यूनानी साहित्य की कड़ी परीक्षा की। उसने होमर के महाकाव्य के बहुत से शो को दूक और झूठा साबित किया । पावित्र्यदूषकता का तो साहित्य मे व्यापक दोष है। इसका कारण यह है कि साहित्यकार अपने काव्यों मे भले आदमियों को दुखी और बुरे भादमियों को सुखी करके चित्रित करता है। नाटक मे तो बहुधा यही मिलता है। कविता भी मनोवेगो को दबाने के बजाय उन्हें उत्तेजित करती है और पाठक की बुद्धि पर अन्धकार का आवरण माच्छादित करती है। क्रूडेपन का दोष भी साहित्य में व्यापक है। प्लेटो का विश्वास था कि लौकिक सत्य अलौकिक सत्य की छाया है। कलाकार लौकिक सत्य का अनुकररण करता है और जिस सत्य को वह अपनी कला मे चित्रित करता है वह लौकिक सत्य की छाया है। इस प्रकार कला का सत्य दैविक अथवा सारभूत अथवा शुद्ध सत्य की छाया है । बस, यह बात सिद्ध हो जाती है कि साहित्य, नागरिक को न तो सत्य की शिक्षा देता है और न नीति की । इसी विचार से प्लैटो ने अपने जनसत्तात्मक राज्य मे कवि को कोई स्थान नहीं दिया। परन्तु इस विचार को प्लैटो का अन्तिम विचार नहीं समझना चाहिये। यदि कोई कवि दार्शनिक मनन मे व्यस्त रहता हुआ आध्यात्मिक अनुशासन का जीवन व्यतीत करे और ब्रह्मनिष्ठ गति को प्राप्त करके दैविक सत्य का अनुभव करने में समर्थ हो और ऐसे अनुभवो को अपती कविता में चित्रित करे, तो ऐसा कवि मानव जाति का सच्चा पथप्रदर्शक होगा और उसकी कविता मानव जाति की वाञ्छित विपुल धनराशि होगी। दोनो पक्षो मे जब वह कवि का बहिष्कार करता है और जब कवि को सच्चा पथप्रदर्शक कहता है, प्लैटो का निष्कर्ष यही है कि कविता अथवा कला वही उत्कृष्ट मानी जायगी जो नैतिक और दार्शनिक सत्य पर आधारित होगी। प्लेटो की कलात्मक उत्कृष्टता के मूल्याङ्कन का मानदण्ड सत्य की अनुकूलता है। प्लेटो कला को उपदेश के अधीनस्थ करके उसकी उपेक्षा करता है। अरिस्टॉटल उसे कल्पनात्मक आदर्शीकरण से सम्बन्धित करके उसका स्वतन्त्र अस्तित्व स्थापित करता है। प्लेटो ने सुन्दर और शिव का समीकरण किया। अरिस्टॉटल ने सुन्दर को शिव से अधिक विस्तृत माना । उसने कहा कि कल्पनात्मक अनुकरण तो चाहे बुराई का हो चाहे कुरूपता का सदा सुखदायक होता है और उपलब्ध सुख सदा मानसिक शोध का होता है। इस बात को उसने करुरण की परिभाषा के अन्तिम भागो मे स्पष्ट किया है कि वह करुणा, दया और भय के भावो को उत्तेजित करके उनका शोध करता है। इस विचार से कला पर पावित्र्यदूषकता का दोषारोपण करना वृथा है। झूठेपन का दोषारोपण भी सर्वथा निरर्थक है। कला का सत्य, भाव का सत्य होता है, तथ्य अथवा इतिहास का सत्य नही । अमुक पुरुष अमुक परिस्थिति में प्रमुक चारित्रिक विशेषताओं के कारण ऐसा करेगा, यह कलात्मक सत्य है। एलकोवियेडीज ने यह किया, यह ऐतिहासिक सत्य है। इस विचार से यह निश्चित हुआ कि अरिस्टॉटल का कला के मूल्याङ्कन का पहला मानदण्ड कलात्मक आदर्शीकरण है । कला के मूल्याङ्कन का अरिस्टॉटल का दूसरा मानदण्ड रूपसौष्ठव है। इसका स्पष्टीकरण उसने करुरण के विवेचन मे किया है। करुण के छ घटकावयव होते हैं - वस्तु अथवा घटनाओं का विन्यास; चरित्र अथवा सकल्पमक वृत्ति का बाह्य प्रदर्शन, वाक्सरणि जिसके द्वारा पात्रों के विचार व्यक्त होते है, भाव जिनसे वे उत्तेजित होते है, रङ्गमञ्च पर अभिनेताओं का खेल, और सङ्गीत । इन छहों मे वस्तु करुण की जान है और कवि को उसके निर्माण मे बडी नावधानी दिखानी चाहिये । वस्तु का श्रादि, मध्य, और अन्त हो और समस्त वस्तु मे ऐक्य हो । उसका घटना- विन्यास सम्भाव्य और अनिवार्यता के सिद्धान्तो पर हो । नायक के भाग्य में एक परिवर्तन हो सकता है, सुख से ही दुख की ओर; और दो परिवर्तन भी हो सकते हैं, सुख से दुःख की ओर और फिर दुख से सुख की ओर, परन्तु नाटककारो को एक परिवर्तन वाली वस्तु को अधिक पसन्द करना चाहिये । वस्तु का विकास अनुवृत्ताधार पर हो । नायक की परिस्थिति, उसके मित्रो और शत्रुओं के वर्गों के विवरण के पश्चात् धीरे-धीरे नायक का भाग्य उच्चतम स्थान तक उत्कृष्ट हो और फिर वहाँ से शावशक्तियों के बल पकड जाने के कारण धीरे-धीरे उसके भाग्य का पतन हो यहाँ तक कि उसका दु खमय परिणाम मे अन्त हो । पात्रो मे चार विशेषताएँ होनी चाहिये- वे पुण्यात्मा और उत्कृष्ट वृत्ति के हो, उनमे विप्रतिपत्ति न हो, उनमे यथार्थता हो, और अन्त तक उनके विकास मे सङ्गीत हो । करुण और भयानक रसों की उत्पत्ति के लिये नाटककार अभिनय और सङ्गीत का सहारा न ले वरन् चरित्र और सङ्घर्ष की विशेषताओं का । पात्र बडे घराने का हो और जाने किसी घातक भूल के कारण विपत्ति मे फँसे । सङ्घर
्ष निकट सम्बन्धियो मे हो । शैली विशद और उत्कृष्ट हो । शब्द साधारण बोलचाल के हो, वैदेशिक शब्दो का प्रयोग किया जा सकता है, उपयुक्त अलङ्कार भाषा को रोचक और बनाएँ । रुरण का यह विवेचन जिसे वह महाकाव्य के विषय मे भी ठीक समझता है, इस बात का पूरा साक्ष्य है कि अरिस्टॉटल रूपमौष्ठव को कविता की परीक्षा मे कितने महत्त्व का समझता था। अरिस्टॉटल ने करुरण के विषय में विशिष्ट सुख का उल्लेख किया था, जो हमे रङ्गमञ्च पर उसके अभिनय अथवा घर मे उसके पढ़ने से मिलता है, परन्तु उसने इसे इतने महत्व का नही समझा था कि उसे कविता की परीक्षा का महत्त्वपूर्ण मानदण्ड माने । यूनान के अन्तिम महान् प्रलोचक लॉञ्जायनस का ध्यान इसी ओर गया । वह अपनी 'एट्रीटिज कन्सनिङ्ग सब्लीमिटी' नामक पुस्तक मे लिखता हे कि साहित्य मे अत्युदात्तत्व सदा भाषा की उच्चता और वैशिष्ट्य है । इसी गुरण के कारण कवि और गद्य-लेखक यशस्वी और अमर हुए है। असाधारण प्रतिभा के गद्याश और पद्याश हमे बोध ही प्रदान नही करते, वरन् हमे अलौकिक चमत्कारक आनन्द का स्वादन कराते हैं । रचना - कौशल और अनुक्रममूलक व्यवस्थापन तो समस्त रचना मे रचयिता परिश्रम से ले आता है, परन्तु अत्युदात्तत्व उचित समय पर आकर विषय-वस्तु को इधर-उधर अलग कर देता है और रचयिता की समस्त शक्ति को बिजली की जैसी एक चमक मे प्रकाशित करता है । साहित्य मे अत्युदात्तत्व पाँच तत्त्वों से आता है। पहला तत्व है महान और ऊँचे विचारों को सोचने और ग्रहण करने की शक्ति जो नैसर्गिक प्रतिभा का फल होती है । अत्युदात्तत्व का स्वर महानात्मा से ही निकलता है । महान् शब्द अनिवार्यत महान् प्रतिभा से ही उत्पन्न होते है । दूसरा तत्त्व है प्रबल और द्रुतम मनोवेग जिसकी क्षमता भी प्रकृति देती है। तीसरा तत्त्व है शब्दालङ्कार और अर्थालङ्कार का उपयुक्त प्रयोग । चौथा तत्त्व है पदरचना अथवा वाक्शैली । पाचवाँ तत्त्व है चमत्कारक प्रणयन । इन सब गुरगो से सम्पन्न प्रत्युदात्तत्व की पहचान यह है कि इससे सहृदय की आत्मा सत्व के उद्रेक से आनन्दमय हो उत्कृष्ट होती है। वही महान् साहित्य है जो नये मनन के लिये उत्तेजना देता है, जिसके प्रभाव को रोकना असम्भव हो जाता है, जिसकी स्मृति शक्तिवान् और अमिट होती है । यह सर्वथा सत्य है कि अत्युदात्तत्व के वही सुन्दर और सच्चे प्रभाव हैं जो सब कालो मे और सब देशो मे सहृदयो को आनन्द देते हैं। अत्यानन्दमय प्रभावोत्पादकता ही लॉञ्जायनस का साहित्यिक गुरण जाँचने का मानदण्ड है । सेण्ट्सबैरी के कथनानुसार तुलना ही उच्चतर और श्रेष्ठतर मालोचना का जीवन और प्राण है। रोम के आलोचको को तुलना का लाभ था, क्योंकि उनके सामने यूनानी साहित्य उपस्थित था । इस लाभ के परिणामस्वरूप वे यूनान की Raieना से अधिक सयुक्तिक आलोचना छोड सकते थे। परन्तु रोम की प्रतिभा व्यवहार कौशल मे चाहे जितनी उत्कृष्ट हो, तत्त्वत शौर्यहीन थी और यूनानी प्रतिभा की अपेक्षा अपने को तुच्छ समझती थी। रोम, ग्रीस को साहित्यिक बातो मे अपना शिक्षक और पदप्रदर्शक समझता । निरर्णयात्मक आलोचना रहा । और जिस उपयोगिता के दृढाग्रह ने यूनानी आलोचना को पथभ्रष्ट किया उसी दृढाग्रह ने रोम के आलोचको को और भी पथभ्रष्ट किया । सिसरो और क्विण्टीलियन दोनो वाग्मित्ता पर जोर देते है । वे किसी साहित्य को वही तक ऊँचा समझते है जहाँ तक वह सुभाषणकला के लिये लाभकारी हो । सुभाषणकला ही उनका प्रधान हित है और साहित्य गौरण । रोम के श्रालोचको मे एक हौरेस अवश्य ऐसा आलोचक है जो साहित्य को ही प्रधान हित मानता है । हौरेस कवि आलोचक था और कवि आलोचक कोरे आलोचक से सदा अधिक विश्वसनीय होता है, क्योकि वह कविता का अभ्यास करने के कारण कविता के सब नियमो को अपने भीतर देखने की क्षमता रखता है । परन्तु होरेस भी हमे निराश करता है । साहित्य के किसी रूप का उसे गहरा ज्ञान नही है । उसके सारे नियम ऐच्छिक है और वे पूर्वगामी आलोचको से लिये गये है । जिस बात पर उसका ज़ोर है, वह रचनाकौशल मे व्यवहारिक बुद्धि का प्रदर्शन है । उसके नियम उसके 'दि एपीसल टू द पीसोज अथवा आर्ट ऑफ पो मे है । श्रौचित्य का ध्यान रखो । ऐसा न करो कि स्त्री का सर घोडे की गदन और किसी पक्षी के शरीर पर रख दो । हाँ, कविश्नो को सब प्रकार के साहस का अधिकार प्राप्त है। फिर भी प्रकृति और व्यावहारिक बुद्धि असगत बातो को मिलाने से रोकती है। अलङ्कररण विषयोनुकूल होना चाहिये । इन बातो का ध्यान रखो कि कहीं सक्षेप होने में अस्पष्ट न हो जाओ, स्पष्टता के प्रयास मे बलहीन न हो जाम्रो, उडान के पीछे वृहच्छब्दस्फीत न हो जाओ, सादगी का गौरव प्राप्त करने मे नीरस न हो जाओ, और विभिन्नता के उद्देश्य की पूर्ति मे अमर्यादित न हो जाओ । विषय अपनी शक्ति को ध्यान में रख कर बॉटो । शब्दो की छाँट मे रिवाज का ख्याल रखो । जिस प्रकार की कविता मे जैसा छ
न्द का प्रयोग चला आ रहा है, उससे न हटो । काव्यो के पात्र अब तक जैसे चित्रित होते आये है वैसे ही चित्रित होते रहने चाहिये, एकीलीज़ को सदा असहिष्णु, कठोर और घमण्डी चित्रित करना चाहिये और मैडी को रुधिरप्रिय और प्रतिशोधनोत्सुक चित्रित करना चाहिए । नये विषयो की अपेक्षा पुराने विषय अधिक अच्छे है। पुराने विषयो पर नया प्रकाश डाल कर मौलिकता दिखाना ज्यादा ठीक है। किसी प्रबन्ध का आदि शब्दाडम्बर पूर्ण शैली मे नही होना चाहिये। आग जलाकर धुँए मे अन्त करने से धुंए से आग जलाना अधिक चित्तवशकर होता है। अपने पाठक को धीरेधीरे ऊपर उठाना चाहिये । जीवन-चित्ररण मे साधारणीकरण सविवेक हो, बच्चे को बुड्ढे के गुण देना और बुड्ढे को जवानो के गुरण देना अनुचित है। प्रत्येक नाटक मे पाँच प्रक होने चाहिये और एक दृश्य मे तीन पात्रो से अधिक न बोले । कार्य की कमी को गायकगरण पूरी करे, उनके भाव नैतिक और धार्मिक हो । हास्य और करुण का सम्मिश्रण अनुचित है। हर प्रकार के लेख को जितना माँजा जाय उतना अच्छा । अचिन्तित और प्रेरित रचना की चर्चा सारहीन है। जीवन और दर्शन के कवि को जितना ज्ञान हो उतना ही थोडा । ( राजशेखर भी अपनी 'काव्यमीमासा' मे कहता है कि बिना सर्वज्ञ कवि होना असम्भव है) कवि शिक्षा दे, अथवा दुख दे, अथवा शिक्षा और सुख दोनी दे । दोषो से बिल्कुल बनने की कोशिश ज्यादा आवश्यक नहीं, पर दोषो से जितना बचा जाय उतना अच्छा । ( इस विषय में लॉञ्जायनस की यह उक्ति व्यान में रखने योग्य है कि मनुष्य की श्रेष्ठता उस ऊँचाई से जानी जाती है जिस तक वह चढ जाता है । उस नीचाई से नही जिस तक गिर जाता है ।) मध्य श्रेणी की कविता असह्य है । कविता या तो उदात्त ही होती है नही तो दूषित और घृणित ही। अपनी रचना को प्रकाशित करने की जल्दी न करो परन्तु अपनी और दूसरो की आलोचना से उसे ठीक करते रहो । इन नियमो मे बडी ऊँची बाते नहीं है और इन नियमो का पालन करके कोई मध्यम श्रेणी का कवि ही बन सकता है, फिर भी पुनरुत्थान और नवशास्त्रीय कालो मे हौरेस का बडा आदर था, नवशास्त्रीयकाल मे तो उसका अरिस्टॉटल से भी अधिक आधिपत्य था । इन नियमो से हौरेस ने शास्त्रीय मत की स्थापना की । मध्यकालीन विचार सामूहिक था, स्वतन्त्र और वैयक्तिक था । स्वभावत आलोचना के अनुकूलन था । बीथियस का मानदण्ड प्लैटो का है । काव्य देवियाँ मनुष्यो को मधुर विष पिलाती है, बुद्धि के प्रचुर फल का विनाश करती है, और दर्शन देवी को आते देखकर खिसक जाती है । सेट ऑगस्टिन भी साहित्य के सुख को राक्षसी सुख बताता है । डाएटे अकेला ही आलोचना का ऐसा महान् उदाहरण है जिसने बिना धार्मिक पक्षपातो के साहित्य की परीक्षा की। वह हौरेस से काव्यशक्ति और आलोचनात्मक प्रेरणा मे कही बढा चढा था । उसके निर्णयात्मक मानदण्ड उसकी 'डे वलौराई दूसरी पुस्तक से निकाले जा सकते है । इस पुस्तक मे वह कविता के लिये सास्कृतिक भाषा की उपयुक्तना की जाँच करता है। उसके विचार ये है । उत्कृष्ट कविता सास्कृतिक भाषा ही मे हो सकती है । उत्कृष्ट कविता के विषय युद्ध, प्रेम और धर्म होते है । कवियो के अभ्यास से भी यही स्पष्ट है और दार्शनिक विचार से भी । मनुष्य - पौधा-जातीयपाशविक - बौद्धिक प्राणी है । पौधाजतीय होते हुए बढवार के लिये रक्षा चाहता है जिसके लिये उसे शत्रुप्रो से लडना पड़ता है, पाशविक होते हुए भिन्न लिङ्ग पर आसक्ति की उसमे प्रवृत्ति है; और बौद्धिक होते हुए धर्म और नीति के पालन करने मे तत्पर होता है । उत्कृष्ट कविता का पद ग्यारह मात्रा का होता है । डाराटे कविता की परिभाषा ऐसे करता है, "कविता वग्मितापूर्ण पद्यकृत कल्पित कथा के अतिरिक्त और कोई चीज़ नही है।" इस परिभाषा मे कल्पित कथा जातिसूचक है और वाग्मिता और पद्यात्मकता पार्थक्य सूचक है, कल्पना और पद्यात्मकता इस प्रकार कविता के दो मुख्य लक्षण हो जाते हैं । महान् शैली के लक्षण डाएटे के अनुसार चार है- अर्थगुरुता जो युद्ध, प्रेम, और धर्म उपर्युक्त विषयो का प्रयोग से है; पद्य-चमत्कार जो ग्यारह मात्राओ के पद के प्रयोग से आता है; शैली की उत्कृष्टता जो सालङ्कार भाषा के प्रयोग से आती हैं, और शब्दसग्रह की श्रेष्ठता जो मध्य आकार के शब्दों के प्रयोग से आती है। डाराडे मुख्यत, रूप का आलोचक है 'गोकि जैसा स्पष्ट है विषयवस्तु की ओोर भी वह ध्यान देता है। यदि कविता रूपसौष्ठव मे उच्चश्रेणी की है तो वह ही सराहनीय है । इस विषय मे उसकी दो उक्तियाँ स्मरणीय है - पहली यह कि जो कुछ सङ्गीत के नियमों के अनुसार पदो मे व्यक्त हो चुका है, एक भाषा से दूसरी भाषा में अनुवादित नही हो सकता । इससे स्पष्ट है कि डाएटे को रूपसौष्ठव का ज्यादा ख्याल है क्योकि अनुवाद मे विषय तो ज्यो का त्यो रहता है परन्तु रूपसौष्ठव की हानि होती है। दूसरी उक्ति है कि किसी भाषा की आन्तरिक शक्ति उसकी गद्य मे जानी
जाती है न कि उसकी पद्य मे । भारतीय विचार के अनुसार भी गद्य को कवि को कसौटी कहते है - "गद्य कवीना निकष वदन्ति" । यहाँ भी डाएटे का व्यान अर्थ की अपेक्षा शब्द और शब्दयोजना की ओर है। काव्यगुण निर्णय करने का डाराटे का मानदण्ड रूप का सौन्दर्य है । पुनरुत्थान के समय कई प्रभाव ऐसे क्रियाशील थे जिन्होने योरोपीय मस्तिष्क को स्पष्टतया आलोचनात्मक मनोवृति प्रदान की। जागीरदारी की प्रथा का केन्द्रित राज्य मे परिवर्तन, प्राचीन शास्त्रो का अध्ययन भ्रष्ट पादरी जीवन का स्पष्ट विरोध - ये ऐसी - बाते थी जिनसे राजनीतिक, सास्कृतिक और धार्मिक क्षेत्रो मे क्रान्ति पैदा हो गई । क्रान्तिकारी वृत्ति जो आलोचना से उत्तेजित होती है, स्वय आलोचना को वृद्धि भी देती है । शैतान ही तो पहला आलोचक था जिसने भगवान के विरुद्ध स्वर्ग मे क्रान्ति फैलाई और फिर नरक मे पहुँच कर अपने अनुयायियों को आलोचनात्मक व्याख्यान दिये । पुनरुत्थान मे मुद्रणकला द्वारा विचारों के प्रसार ने आलोचनात्मक प्रक्रिया को और प्रवर्तकशक्ति दो । साहित्य मे आलोचनात्मक प्रवृत्ति को नई भाषाओ की कमजोरी, ग्रीक और लैटिन आलोचना की पुनर्प्राप्ति और प्योरीटन आक्रमण के विरुद्ध प्रतिवाद ने और मदद दी । पुनरुत्थान की पहली अवस्थाओ मे इटली आलोचनात्मक संस्कृति का घर था और इटली के आवक योरोप भर मे तब तक सम्मानित रहे जब तक कि फ्रान्स के आलोचक सत्तरहवी शताब्दी मे उच्चतर पद को न प्राप्त हुए । विडा का मत है कि कवियो को शास्त्रीय लेखको का अनुकरण करना चाहिये, विशेषतया वर्जिल का जो कि होमर से बढ़ा चढा था । वह वर्जिल को सब गुरगो का प्रतिमान और सब श्रेष्ठता का आदर्श मानता है । डैनीलो सुख और शिक्षा देने के अतिरिक्त कविता का उद्देश्य आवेग और सानन्दाश्चर्य का उत्तेजित करना भी मानता है। फार्केस्टोरो अरिस्टॉटल के अनुकरणात्मक सिद्धान्त के प्रत्ययात्मक तत्त्व को स्पष्ट करता है, कवि वस्तु के सादे और तात्विक सत्य का वर्णन करता है, वह नग्न वस्तु का वर्णन नहीं करता वरन् सब प्रकार के आभूषण से सजा कर उसके प्रत्यय का वर्णन करता है। फार्केस्टोरी के समय तक सौन्दर्य के तीन विचार प्रचलित थे। पहला शुद्ध अनात्मिक विचार था जिसके अनुसार सौन्दर्य स्थिर और रूपात्मक माना जाता है, वही वस्तु सुन्दर कही जा सकती है जो किसी यान्त्रिक अथवा रेखागणित विषयक रूप के समान हो जैसे गोलाकार, सम-चतुर्भुजाकार और सारल्य। दूसरा प्लैटो सम्बन्धी विचार था जिसके अनुसार शिव, सत्य और सुन्दर को समान माना जाता है; तीनो दैविक शक्ति के प्रकटन हैं। तीसरा सौन्दर्य शास्त्रसम्बन्धी विचार था जिसके अनुसार सौन्दर्य को उन सब उपयुक्तता के अनुरूप माना जाता है जो किसी वस्तु से सम्बन्धित की जा सकती है । यह विचार आधुनिक विचार के निकट आ जाता है जिसके अनुसार सौन्दर्य किसी पदार्थ के वास्तविक लक्षरण का प्रत्यक्षीकरण है अथवा उसके अस्तित्व के नियम की सिद्धि है। इतिहासकार अपने लेख को इतिहास सम्बन्धी सौन्दर्य ही दे सकता है, दार्शनिक दर्शन सम्बन्धी सौन्दर्य दे सकता है, परन्तु कवि अपने लेख को सब प्रकार के सौन्दर्य से सजा सकता है । वह किसी एक क्षेत्र के सौन्दर्य ही की धारणा नहीं करता, वरन् उन सब सौन्दर्यो की जो किसी वस्तु के शुद्ध प्रत्यय से सम्बन्ध रखती है। इस प्रकार कवि और सव लेखको से श्रेष्ठ है क्योकि वह अपनी वरिंगत वस्तु को सम्पूर्ण सौन्दर्य मे प्रदर्शित करता है। मिण्टरनो के मतानुसार कवि को सदाचारी और विद्वान् पण्डित होना चाहिये । यदि वह प्रतिभाशाली हो तो नियमो का उल्लङ्घन कर सकता है । स्कैलीगर कवि के पाण्डित्य पर ज़ोर देता है । जिराल्डी सिन्थियो करुण और हास्य पर अपने विचार व्यक्त करता है । करुण के पात्र ऊँची पदवी के होते हे और हास्य के साधारण और नीची पदवी के । करुरण महान् और भयानक घटना का वर्णन करता है और हास्य सुज्ञान और घरेलू बातो का । करुरण सुख से दुख की ओर परिवर्तित होता है और हास्य बहुधा दुख से सुख की ओर । करुण की शैली और वाक्सररिग उत्कृष्ट मौर उदात्त होती है और हास्य की अपकृष्ट और सालापिक । करुण के विषय अधिकाश ऐतिहासिक होते है और हास्य के कवि के आविष्कृत । करुण का वातावरण अधिकतया निर्वासन और रक्तपात का होता है और हास्य का प्रधानत प्रेम और सग्रहण का । कैस्टेलवैट्रो का ध्यान भी नाटक की आलोचना की ओर जाता है । वह उसी नाटककार को सफल मानता है जो अपने नाटक मे वस्तुसङ्कलन, कालसङ्कलन, और देशसङ्कलन तीनो मे से किसी को भङ्ग नही करता और जो रङ्गमञ्चीय सत्याभास देता है । टासो ने रोमानिक महाकाव्य का आदर्श निश्चित किया है । उसमे विषय की आनन्दप्रद विभिन्नता के साथ-साथ महाकाव्य का तात्विक वस्तुसङ्कलन भी होता है। रोमासिक वीरकाव्य की यह विशेषताएँ बताता है । विषय ऐतिहासिक होना चाहिये । ऐतिहासिकता से काव्य मे सत्
य का प्राभास होने लगता है और पाठक को भान होता है कि लिखित बाते सब सप्रमाण है। वीरकाव्य मे सच्चे धर्म का अर्थात् ईसाई मत का वृतान्त होना चाहिये, झूठे मत का नहीं, यूनानी धर्म की बाते वीरकाव्य के लिये ठीक नही क्योकि उसमे अद्भुत तत्त्व तो है परन्तु सम्भाव्य नही और वीरकाव्य के लिये दोनो आवश्यक है । काव्य मे धर्म की ऐसी कट्टर बातो का समावेश न होना चाहिये ज़िनका थोडा बहुत परिवर्तन कर देना अधर्म का दोष ले आये और कवि की कल्पना बाधित हो जाय । विषय-वस्तु न तो अधिक प्राचीन हो, न अधिक आधुनिक हो, क्योकि यदि बहुत प्राचीन हुई तो उसमे ऐसे अनोखे रीतिरिवाजो का वर्णन आयेगा जिसमे पाठक का अनुराग कठिनाई से हो सकता है और यदि विषयवस्तु बहुत आधुनिक हुई तो उसमे सम्भाव सहित अद्भुत बातो का लाना कठिन हो जायगा । शार्लमेन और आर्थर के काल उचित माने जा सकते है। घटनाएँ महत्त्वपूर्ण होनी चाहिये । नायक भद्र और जातिनिर्णयात्मक आलोचना ] पालक होना चाहिये । पैट्रिजी का कहना है कि कविता किन्ही विशिष्ट विपयो से सीमित नही है, उसमे कला, विज्ञान इतिहास सब विषयों का निरूपण हो सकता है, बस बात यह है कि शैली काव्यमय हो । पुनरुत्थान काल की अँग्रेजी आलोचना न इतनी प्रचुर है, न इतनी प्रभावशाली और विभिन्नतापूर्ण है जितनी कि इटली की । परन्तु उसका अध्ययन इस बात को स्पष्ट कर देता है कि पुनरुत्थान काल मे आलोचनात्मक सिद्धान्त उपलब्ध थे और इस उपलब्धि मे इङ्गलैड का भी पूरा भाग था। दूसरी बात जो यह अध्ययन स्पष्ट करता है वह यह है कि किस प्रकार अंग्रेजी आलोचना मे शास्त्रीयता का प्रचार बढा । अंग्रेजी आलोचना के विकास की पहली अवस्था मे मालोचको ने आलङ्कारिता, रूप, और शैली की ओर व्यान दिया । दूसरी अवस्था में भाषा और पदयोजना के प्रश्नो को हल किया। तीसरी अवस्था मे कविता का दार्शनिक विचार से अध्ययन, विशेषतया इस हेतु से कि किस प्रकार उसे प्योरीटनो के आक्रमण से बचाया जाय जो कविना को झूठी और कलुषीकारक कह कर दूषित करते थे। चौथी अवस्था मे कविता का अध्ययन काव्यरचना और आलोचनात्मक सिद्धान्तों के समर्थन के उद्देश्यो से हुप्रा । उस काल के सिडनी, बैनजॉन्सन, और बेकन, तीन ऐसे आलोचक हैं जिनसे साहित्य परीक्षा के मानदण्ड मिलते है । सिडनी, कविता को अरिस्टॉटल की तरह अनुकरण मानता है । सालङ्कार भाषा मे उसे बोलती हुई तस्वीर कहता है जिसका उद्देश्य सुख और शिक्षा देना है । छन्द कविता के लिये तात्त्विक नही है, वह उसका आवश्यक प्राभूषण है । कविता नीति की शिक्षा देती है और मनुष्य के जीवन को उच्चतम स्तर तक ले जाने में समर्थ होती है । कविता नैतिक ज्ञान ही नही देती, नैतिक जीवन व्यतीत करने की उत्तेजना भी देती है । कवि तत्त्ववेत्ता और इतिहास - वरन् कार दोनो से उच्चतर है । तत्त्ववेत्ता तो नीति और अनीति का स्पष्टीकरण करता है और अपने अनुयायियों को आदेश देता है, परन्तु कवि नैतिक प्रदेश को एक कल्पित व्यक्ति के जीवन मे अनुप्राणित कर एक प्रभावोत्पादक उदाहरण पेश करता है । इतिहासकार किसी सासारिक महान व्यक्ति के जीवन का वृतान्त देता है जिसको पढकर पाठक को यह विश्वास नही हो पाता कि जिन नियमों का पालन करके उस महान् व्यक्ति ने यश और गौरव पाया वे व्यापक महत्त्व के हैं, परन्तु कवि साधारणीकरण शक्ति के द्वारा पाठक को नियमो का प्रभाव कारणकार्य रूप में दिखाता है। इतिहास मे कभी-कभी बुरे आदमी सफल हो जाते हैं और कभी-कभी भले मादमी विफल हो जाते है और साहित्यकार उनके जीवन को वैसे ही वरिंगत करता है, परन्तु कवि भले प्रादमी को सदा सफल कर दिखा सकता है और बुरे आदमी को सदा विफल कर दिखा सकता हैं। इसी विशेषता से कविता को अज्ञानी पुरुष झूठा कह देते हैं। वे ऐतिहासिक सत्य और काव्यमय सत्य मे भेद नही कर सकते । बैनजॉन्सन की रुचि व्यवस्था, एकरूपता, और शास्त्रीयता की ओर थी । उसने बडे पाण्डित्य से उन सब बातो को कह डाला है जिन्हें अग्रेजी आलोचक ऐस्कन से लेकर पदनहम तक कहने का प्रयास कर रहे थे और वह ड्राइडन, पोप, और जॉन्सन के मत की रूपरेखा निश्चित करता है । नाटक प्ररणयन मे वह शास्त्रीय मत का प्रकाशक है और नियमो का बडा निर्भीक प्रतिपादक है, गो कि अभ्यास में वह काल और देशसङ्कलन और गायकगरण सम्बन्धी नियमों का उल्लङ्घन करता है। करुण के लेखक को नियमो के पालन के साथसाथ वस्तु की सत्यता, पात्रो की गम्भीरवृत्ति, वक्तृत्व की उत्कृष्टता और सारपूर्ण वाक्यो की बहुतायत पर ध्यान देना चाहिये । बैनजॉन्सन ने करुरण की अपेक्षा हास्य का अधिक विस्तृत विवरण दिया है । हास्य के श्रङ्ग वे ही है जो करुरण के है और करुणा की तरह हास्य का उद्देश्य भी सुख और शिक्षा देना है । हास्य मनुष्य के छोटे-छोटे दोषो को रङ्गमञ्च पर खोल दिखाकर उन्हें उपहास्य बताता है ताकि दर्शक लोग अपने ऐसे दोषो पर स्वय दृष्टि डाले और उन्
हे छोडे । जैसे करुरण, शोक और भय द्वारा नैतिकता का उद्देश्य पूरा करता है वैसे ही हास्य छोटे परिमाण के कमीनेपन और बेवकूफी की हँसी उडाकर नैतिकता का उद्देश्य पूरा करता है। दोनो मे क्रिया सुधारक है, बस उपकरण का अन्तर है । करुरण ऊँची और असाधारण बातो से मतलब रखता है और हास्य छोटी बातो से, जो साधारण अनुभव की होती है, हास्य मे अन्तर्वेगो का द्वन्द्व और घटनाओ का भाग्य से और उनका परस्पर सङ्घर्ष दिखाया जाता है, करुण मे चरित्रो का भेद और कूटयुक्तियों की सफलता अथवा विफलता दिखाई जाती है, हास्य मे कृत्य की विशेषता यह है कि उसका कोई वाह्य आधार नहीं होता, बल्कि चरित्र - विभेद का प्रान्तरिक प्रभाव ही कृत्य का रूप दृढ करता है । ऐसे सादृश्य के आधार पर ही बैनजॉन्सन ने हास्य का विवेचन किया। हास्य का मुख्य उद्देश्य हँसी और विनोद नहीं, वे उसके साधक है । हास्य के लेखक को उन्हें मुख्य उद्देश्य बनाने के विलोभन से बचते रहना चाहिये । यदि वह इस विलोभन मे पड गया तो सम्भव है कि वह घोर पापो का प्रदर्शन कर उनकी ओर हँसी दिलाने की चेष्टा करने लगे । इससे हास्य का उद्देश्य मारा जायगा क्योकि घोर पापो की ओर घृणा उत्पन्न करना चाहिये न कि हँसी । हँसी उत्पन्न करने के विलोभन में यह भी खतरा है कि हास्य का लेखक प्रतिवाद मे पड जाय और अतिवाद प्रहसन ( फार्स ) मे ठीक है, हास्य मे गलत । प्रचचित सुखान्त हास्य को बैनजॉन्सन निन्दनीय मानता है । ठीक हास्य समाज का सुधारक होता है, इस धारणा से उसने स्वभाव ( ह्यूमर ) का सिद्धान्त प्रतिपादित किया । पृथ्वी, जल, वायु, औौर अग्नि इन चार तत्वों के अनुरूप मनुष्य के शरीर मे कृष्ण पित्त, कफ़, रक्त, और पित्त इन चार द्रव्यो का सञ्चार है । जब ये चारों द्रव्य ठीक-ठीक अनुपात में किसी मनुष्य में विद्यमान होते हैं तो मनुष्य का मानसिक और नैतिक स्वास्थ्य अच्छा रहता है। यदि इनमे से किसी एक द्रव्य का अनुपात अधिक हो जाय तो मनुष्य का स्वभाव अधिक मात्रा वाले द्रव्य की विशेषता दिखायेगा। यदि मनुष्य में कृष्ण पित्त अधिक हुआ तो उसका स्वभाव निरुत्साह होगा, यदि उसमे कफ का अनुपात ज्यादा हुआ तो उसका स्वभाव मन्द होगा, यदि उसमें रक्त का अनुपात ज्यादा हुआ तो उसका स्वभाव उल्लसित होगा, यदि उसमे पित्त का अनुपात ज्यादा हुआ तो उसका स्वभाव निर्णयात्मक प्रालोचना] क्रोधी होगा । हास्य का उद्देश्य मनुष्य के व्यवहार मे उन तत्त्वों का निरीक्षण करना है जो या तो उसमे नैसर्गिक रूप से प्रधान होते है या जो जीवन व्यापार मे उत्तेजना पाने पर दूसरे तत्त्वो को दबाकर अपनी सीमा से बढ जाते है । ऐसा निरीक्षरण भिन्न-भिन्न स्वभाव वाले बहुत से मनुष्यों में किया जाय और जब बिगडे हुए स्वभावो का एक दूसरे से सङ्घर्ष हो तो इन व्यतिक्रमो का अनैतिक प्रभाव प्रदर्शित किया जाय । मान लो कि हम किसी आदमी को लोभी कहते है क्योकि लोभ उसकी विशेषता है और उसके लिए लोभ स्वाभाविक है, यह श्रादमी जीवन व्यापार में इस प्रकार काम कर सकता है कि लोभ की प्रवृत्ति उभरने न पाये, और मूर्खो प्रथवा शैतानों के बीच मे पड जाने से ऐसा भी व्यवहार कर सकता है जिससे उसकी लोभ की प्रवृत्ति दूसरी प्रवृत्तियो पर आधिपा जाये । पहली दशा मे मनुष्य अपने स्वभाव के अन्तर्गत कहा जायगा और दूसरी दशा मे अपने स्वभाव के वहिर्गत कहा जायगा । दोनो दशाओ मे हास्य को अवकाश है और प्रश्न केवल परिमारण का है। पिछली दशा नाटककार को अधिक प्रिय है क्योकि आधिक्य रङ्गमञ्च पर अधिक प्रभावोत्पादक होता है और आधिक्य के सङ्घर्षो का प्रदर्शन प्रधिक शिक्षाप्रद होता है । इस सिद्धान्त पर हास्य लिखने मे पात्र कठपुतली की तरह रुक्ष और एकरूप हो सकते है और वे सरल तो हो ही जाते हैं, तथा वे आन्तरिक शक्ति की न्यूनता के कारण जीवित से भी प्रतीत नही होते । परन्तु बैनजॉन्सन का हास्य विषयक मानदण्ड यहाँ स्पष्ट है । कविता के विषय में पहली बात जो बैनजॉन्सन की आलोचना मे एकदम द्रष्टव्य है वह कवि की नैतिकता है। बिना सदाचारी हुए कवि अच्छी कविता नही कर सकता । अपनी 'डिसकवरीज' मे कवि की आवश्यकताओ का वर्णन देते हुए बैनजॉन्सन कहता है कि "कवि मे उपयुक्त स्वाभाविक बुद्धि हो, क्योकि बहुत सी दूसरी कलाएँ नियमो और प्रदेश के परिपालन से भी आ सकती है, परन्तु कवि जन्मना ही होता है। दूसरी आवश्यकता कवि मे जन्मप्राप्त बुद्धि का अभ्यास है। बहुत से पद जल्दी लिख डालने से ऊँची श्रेणी की कविता नही आ सकती । काट-छाँट और पदो को धीरे-धीरे माँजना आवश्यक है। अच्छा लिखने से जल्दी लिखना आता है न कि जल्दी लिखने से अच्छा लिखना । वर्जिल कहा करता था कि वह अपनी कविता को पीछे से ऐसे रूप देता था जैसे रीछनी अपने बच्चो को डालकर फिर चाट चाट कर उन्हें रूप देती है। तीसरी आवश्यकता अनुकरण की है। किसी महान् कवि को छाँट कर उसका ऐसे अनुकरण करना कि ध
ीरे-धीरे स्वय उसी कवि के समान हो जाना, जैसे वर्जिल और स्टेटस ने होमर का अनुकरण किया था। अनुकरण दास तुल्य न हो। चौथी आवश्यकता अध्ययन की सूक्ष्मता और विस्तार, ऐसा अध्ययन जो जीवन का अश हो जाय और उचित समय पर काम आ जाय। पाँचवी आवश्यकता नियमो का ज्ञान है, क्योकि बिना नियमो के ज्ञान के प्रतिभा का नियन्त्रण और उससे पैदा हुए भावो का व्यवस्थापन सम्भव नहीं। इस प्रकार लिखी हुई कविता को कवि ही जाँच सकता है, कविता की समीक्षा की शक्ति कवियो मे ही होती है। बेकन ने इतिहास का निर्देश मेधा से, दर्शन का ज्ञानशक्ति से, और कविता का कल्पना से मान लेने मे परम्परा का अनुसरण किया । नाटक को उसने सारङ्गी बजाने वाले का गज कहा जिससे निकली हुई तान द्वारा बडे-बडे मस्तिष्क प्राभवित हो सकते है। रङ्गशाला मे नाटक के अद्भुत प्रभाव का कारण सामूहिक मनोवृत्ति बताई गयी है । जब बहुत से दर्शक एक जगह एकत्रित होते हैं तो उनमे रस का सवार आधिक्य पा जाता है । कविता कल्पनामय ज्ञान है । उसका स्रोत मनुष्य की इस संसार से असन्तुष्टि है । सासारिक गौरव, सासारिक व्यवस्था, सासारिक विभिन्नता मनुष्य को सन्तुष्ट नही करती और वह अपनी कल्पना से वास्तविक गौरव से अधिक श्रेष्ठ गौरव, वास्तविक व्यवस्था से अधिक पूर्ण व्यवस्था और वास्तविक विभिन्नता से अधिक सुन्दर विभिन्नता सोच सकता है । कविता वस्तुओं के रूप को मानसिक इच्छा के अनुरूप परिवर्तित कर देती है । बेकन का मानदण्ड कल्पनात्मक सुख है । सत्तरहवी शताब्दी के फ्रान्सीसी आलोचको के नियम फ्रान्स ही मे नही वरन् समस्त यूरोप में सम्मानित थे जिनमे से तीन अधिक माननीय हैं - बोयलो, रैपिन और लै बौस्यू । वोयलो की 'एल आर्ट पोयटीक' से यह मत यहाँ उल्लेखनीय है । कविता के प्रत्येक विषय मे चाहे वह मोदजनक हो चाहे उदात्त, विवेक अवश्य होना चाहिये । पद्यरचना से अधिक मूल्यवान् विवेक ही है और इसी से काव्य मे गुरण और चमक पैदा होती है। बहुत से कवियो को इस बात का मान होता है कि उनकी कविता मे ऐसी अद्भुत बाते है जो आज तक किसी दूसरे ने नही लिखी । यह सब प्रयुक्त है । कविता विवेकपूर्ण होनी चाहिये । कविता मे कोईं अविश्वसनीय बात नही होनी चाहिये, जिस बात मे विश्वास नही उससे मन कैसे प्रभावित हो सकता है । यदि तुम अपनी कविता को प्रिय बनाना चाहते हो तो तुम्हारी काव्यदेवी ज्ञानपरिपूर्ण होनी चाहिये । सौरस्य के साथ-साथ सार और उपयोगिता भी होनी चाहिये । प्रकृति ही हमारा अध्ययन होनी चाहिये । हम प्रकृति से कभी विमुख न हो । बोयलो का मत इस बात पर आधारित है कि प्रत्येक साहित्यिक रूप की सम्पूर्णता की चरम सीमा अथवा मर्यादा है। रचनात्मक कलाकार इस मर्यादा को पूरी तरह समझे और आलोचक इसी के मानदण्ड से साहित्य समीक्षा करे । इस मत मे वस्तु के विषय में प्रार्थना की कचहरी विवेक अथवा प्रकृति है और प्रणयन के विषय में प्रार्थना की कचहरी रुचि है। रैपिन अपनी 'रिफलेक्शन्स सर लापोयटीक' मे कविता पर अपने विचार प्रकट करता है । वह प्लैटो और अरिस्टॉटल के इस मत का प्रतिवाद करता है कि कविता में विक्षिप्ति का प्रवेश होना चाहिये । चित्तविक्षेप का कविता से कोई सम्बन्ध नही । कविता सुख का प्रयोग उपदेश के लिये करती है। अरिस्टॉटल के नियम प्रकृति के व्यवस्थापन है। यदि किसी नाटक मे सङ्कलन-त्रय न हो तो उसमे सत्याभास भी नहीं आ सकता । ले बोस्यू महाकाव्य मे अरिस्टॉटल और हौरेस को नियमो के सम्बन्ध मे और होमर और बजिल को आधार के सम्बन्ध मे सब अधिकार देता है । नवशास्त्रीय काल की रूपरेख बैनजॉन्सन और बोयलो मे निश्चित हो जाती हे । आलोचनात्मक एकरूपता इस काल की मुख्य विशेषता है । मिल्टन कहता है कि शिक्षणपूर्णता मे कविता तक प्रौर वाग्मिता से दूसरी श्रेणी की हे ओर शिक्षणपूर्ण होने के लिये कविता सरल, इन्द्रियमूलक ओर आवेगमय होनी चाहिये । ड्राइडन आलोचना को शिक्षरण के उद्देश्य से बचाकर उसे सद्धान्तिक, तुलनात्मक ओर ऐतिहासिक बनाता है । वह कवि मालोचक था, साहित्य मे उसका सच्चा अनुराग था, उसने प्राचीन ग्रीक और रोमी साहित्य खूब पढ रखा था और तत्कालीन यूरोप के साहित्य का भी उसे अच्छा ज्ञान था । ड्राइडन नाटक को जीवन का जीवित चित्र मानता है । इसी कारण वह ऐसे नाटको से जो नियमो का पालन करते हो पर जीवन- चित्रण में कृत्रिम हो जाते हो, उन नाटको को ज्यादा अच्छा समझता है, जिनमे नियमो का चाह उल्लङ्घन हो, परन्तु उनमे अकृत्रिमता हो । वह करुण-हास्य के पक्ष मे है । करुण-हास्य अधिक सुखमय होता हे । यह बात नही मानी जा सकती कि करुण श्रोर प्रमोद एक-दूसरे को निष्फल बना देते हे, सच यह हे कि सम्मिश्रण मे वे एक-दूसरे को और फलीभूत कर देते हैं। यदि के साथ किसी नाटक में उपवस्तु भी हो और उपवस्तु के होने से अस्तव्यस्तता न तो उपवस्तु का प्रयोग दोप की जगह गुरण माना जायगा । नाटक क च
ित्रित कृत्य और वरिणत कृत्य मे ठीक सामञ्जस्य हो, एलीजेत्रेय के काल का नाटक कृत्य को अधिक दिखाता है और फान्स का नाटक कम दिखाता है, नाटककार को दोनों के बीच का रास्ता पकडना चाहिये । करुण की भाषा के विषय मे ड्राइडन का मत है कि वह पद्यात्मक होनी चाहिये, पहले तो तुकान्त पद्य के पक्ष मे था पर पीछे से अतुकान्त के पक्ष मे हुआ । वह पद्यात्मक भाषा के प्रयोग का समर्थन इस विचार से करता है कि उसके द्वारा एक ऐस। वातावरण तैयार हो जाता है जिसमे काव्य की आदर्शवादिता अच्छी तरह ग्रहणीय होती है। इसमे शक नही कि पद्यात्मक भाषा से अकृत्रिम, क्योकि जीवन मे पद्यात्मक भाषा नहीं बोली जाती और नाटक जीवन का अनुकरण होता है । नाटक के विषय में ड्राइडन का मत नियमो के कठार बन्धन से मुक्त होने का है । वह 'डिफेन्स ऑफ दी एसे' में बिना हिचक के स्वीकार करता है कि कविता का प्रधान उद्देश्य सुख देना है, शिक्षा गौण । 'प्रफेस टू एन ईवनि प्रहसन (फार्स) मे यह भद लक्षित करता है । हास्य मे पात्र निम्न श्रेणी के उनके चरित्र और कृत्य निसर्गज होते है, उसमे ऐसी वृत्तियाँ, योजनाएँ और ऐसे साहसी कार्यं प्रदर्शित होते है जो दिन-प्रतिदिन जीवन मे मिलते है; प्रहसन मे बनावटी वृत्तियां और अप्राकृतिक घटनाएँ होती हैं। हास्य, मनुष्य स्वभाव की त्रुटियाँ हमारे सामने लाता है; प्रहसन ऐसी वस्तुओ से हमारा मनोरञ्जजन करता है जो अमूलक और अपरूप होती हैं । हास्य एसे लोगो को हँसी दिलाता है जो मनुष्यों की मूर्खताओ और उनके भ्रष्टाचारो पर अपना निर्णय दे सकते हैं, प्रहसन ऐसे लोगो को हँसी दिलाता है जिनमे निर्णयात्मक शक्ति नहीं होती और जो असम्भवकल्पक प्रदर्शन से खुश होते है । हास्य अवधारणा और उच्छृङ्खल कल्पना पर क्रियाशील होता है, प्रहसन उच्छृङ्खल कल्पना पर ही । हास्य की हसी में अधिक सन्तुष्टि होती है, प्रहसन की हँसी मे अधिक घृणा । इसी लेख मे ड्राइडन करुण और हास्य का मुकाबिला करते हुए कहता है कि करुरण के लिये काव्यात्मक न्याय ( पोइटिक जस्टिस ) आवश्यक है क्योकि उसका उद्देश्य उदाहरण द्वारा शिक्षा देना है और हास्य मे उसकी आवश्यकता नही क्योकि उसका उद्देश्य सुख और आनन्द है । वह 'ऑफ हीरोइक प्लेज' मे वीर नाटक के लिये प्रतिमानुष श्रेष्ठता और उत्कृष्ट शैली का पक्षपाती है । वीर नाटक महाकाव्य का सक्षिप्त रूप है । महाकाव्य मे अतिमानुष पात्रो और उदात्त शैली के अतिरिक्त अलौकिक पात्रो और घटनाओ का समावेश भी होता है । करुण भी भाव मे वीर होता है । उसकी रूपरेखा पहले से ही निर्दिष्ट है । नायक वृहद् आकार का होता है, नायिका सौन्दर्य और सातत्व मे अद्वितीय होती है, बहुत से पात्रों के हृदय मान और प्रेम के बीच मे विभक्त होते है, कहानी युद्ध और सामरिक उत्साह से परिपूरण होती है । समग्र वातावरण उत्कृष्ट प्रदर्शवादिता का होता है । वीर नाटक, महाकाव्य, और करुण मे ड्राइडन के वीरकाव्य विषयक विचार स्पष्ट है । वह 'प्रेफेस टू द ट्रान्सलेशन ऑफ प्रोविड्स एपीसल्स' मे अनुवाद का आदर्श पेश करता है । अनुवाद तीन प्रकार का होता है - Jथाशब्दानुवाद जिसमे लेखक का एक भाषा से दूसरी भाषा मे शब्दश और पदश अनुवाद होता है, शब्दान्तरकरण जिसमे लेखक का ध्यान प्रतिक्षरण रहता है परन्तु उसके शब्दो का इतना ध्यान नहीं किया जाता जितना उसके आशय का अनुकरण जिसमे अनुवादक लेखक के शब्दो और आशय से भी ध्यानमुक्त हो जाता है और उससे केवल इशारा लेकर अपना स्वतन्त्र लेख लिख डालता है। अनुवाद का काम इतन। मुश्किल है जितना बँधे पैरो से रस्सी पर नाचना । पहले और तीसरे प्रकार के अनुवाद बहुवा असन्तोषजनक ही होते है । दूसरे प्रकार का अनुवाद ही ठीक अनुवाद माना गया है और इसके अनुवादक का दोनों भाषाम्रो पर पूरा प्रभुत्व होना चाहिये और अपनी प्रतिभा को मौलिक लेखक की प्रतिभा के अनुरूप करने की क्षमता होनी चाहिये । 'ए पैरेलल ऑफ पोइट्री एण्ड पेण्टिड' मे ड्राइडन चित्रकला के लिये आदर्शवाद का पक्ष लेता है । कला में प्रकृति के अनुकरण करने का अर्थ प्रत्यय को पा लेना है और अनुभव की नानाव्यक्तिभूत बातो को छोड देना है। जब चित्रकार के हृदय में सम्पूर्ण सौन्दर्य की मूर्ति समा जाती है तभी वह कला के पवित्र मन्दिर मे प्रवेश करने का अधिकारी होता है । साहित्यिक रूपो का ड्राइडन-कृत जैसा विश्लेषण अग्रेजी मालोचना मे नही हुआ था । ड्राइडन के बाद एडीसन ने आलोचनात्मक बल दिखाया, परन्तु उसमे कोई बडी मौलिकता न थी । महाकाव्य के उसके मानदण्ड अरिस्टॉटल के हैं। मिल्टन के 'पैरेडाइज लॉस्ट' की परीक्षा उसने वस्तु, पात्र, भाव और भाषा, इन चार धारो पर की और उनके गुण-दोष बडी सूक्ष्मता से दिखाये । वस्तु की परीक्षा करते हुए उसने अरिस्टॉटल के मत से अपनी असहमति व्यक्त की। महाकाव्य का अन्त सदा सुखमय होना चाहिये । वह महाकाव्य, महाकाव्य, नही जिसम
े उच्च उपदेश नही । इसलिये महाकाव्य मे काव्यात्मक न्याय अवश्य होना चाहिये । काव्यात्मक न्याय के माने बुराई को दण्ड देना और भलाई को प्रतिफल देना है । कल्पना पर एडीसन के विचार हम पहले ही व्यक्त कर चुके है । वोर्सफोल्ड उन विचारों को इतना महत्त्वपूर्ण समझता है कि एडीसन को वह कल्पना को प्रेरणा देने के मानदण्ड से साहित्य की जाँच करने वाला पहला ही आलोचक बताता है । परन्तु जैसा हम पहले दिखा चुके हे, कल्पना को प्रेरणा देने का मानदण्ड अरिस्टॉटल और बेकन में भी निहित है । स्विफ्ट अपनी 'बैट्ल ऑफ बुक्स मे प्राचीन लेखको की मधुमक्खियो से तुलना देता हुआ उनकी कलात्मक निता को 'माधुर्य और प्रकाश से प्रतिक्षित करता है । यहाँ काव्य के प्रभाव से एक बडा सन्तोषजनक मानदण्ड निश्चित होता है । पोप के आलोचनात्मक विचार होरेस, बैनजॉन्सन, और बोयलो से मिलते-जुलते है । वह शास्त्रीयता का पूरा पक्षपाती है । जब प्रकृति को प्रेरणा देने के मानदण्ड का प्रतिपादित करता है तो वह प्रकृति स एक ऐसी कृत्रिम प्रकृति समझता है जो नागरिक समाज की रीतियों के अनुसार व्यवस्थित हो और जिसमे रूढ़ियो और साधारणीकरण का पूरा प्रवकाश मिला हो । यदि किसी काव्य मे ऐसी प्रकृति को प्रेरणा हो तो वह श्रेष्ठ काव्य है । इस काल का हमारा अन्तिम आलोचक डाक्टर जॉन्सन हे । उसने यूनान के साहित्य को पूरी तरह पढा था, परन्तु लेटिन और मध्यकालीन साहित्य को उसने इतना नही पढा या । उसकी साहित्यिक संस्कृति के प्रदर्श ड्राइडन और पोप थे, इसीसे उसकी नवशास्त्रीय प्रवृत्ति बडी बलवान हो गई थी। उसने आलोचनात्मक सिद्धान्तो पर अपने विचार मुख्यत 'रैम्बलर' मे व्यक्त किये हे । मिल्टन की पद्य की आलोचना कही कही बडी शिक्षाप्रद है, विशेषत यति के स्थान के विषय मे । यति जितनी मव्यस्थित हो उतनी अच्छी । पश्चगणात्मक पद मे यति दूसरे या तीसरे गण के बाद होना चाहिये । सिद्धान्त यह है कि यति से विभक्त दोनो भाग सङ्गीतमय होने चाहिये । यदि तीसरे अक्षर (सिविल) और सातवे अक्षर के बाद यति हो तो भी भाग सङ्गीतमय हो सकते है। लय, गरण की श्रावृत्ति से पैदा होती है। पहले गण के बाद तीसरे अक्षर के आते ही उसमे चौथे अक्षर की प्राकाक्षा होती है और लय की व्यञ्जना हो जाती है । इसी प्रकार सातवे अक्षर के बाद यति आने पर भी दोनो विभक्त भाग सङ्गीतमय हो जाते है । पहले और दूसरे अक्षरो तथा आठवे और न अक्षरो के बाद की यति दूषित होती है। मिल्टन इन स्थानों पर भी यति लाता है और इस कारण उसकी पदयोजना दोषरहित नही कही जा सकती। 'रैम्बलर' के अगले एक नम्बर मे आलोचक के दायित्व का वर्णन है। चक पक्षपात से अलग हो, वह इस बात का घमण्ड न करे कि वह बडेबड़े कवियो और लेखको का न्यायाधीश है, वह पुस्तक अथवा लेखक के समझने मे मे जल्दबाजी न करे, वह यह न सोचे कि उससे तो गलती हो ही नहीं सकती । आलोचक स्वानुराग से पथभ्रष्ट हो सकता है, देशप्रेम उसके निर्णय को दूषित कर सकता है; जीवित लेखकों के प्रति वह अधिक कोमल हृदय हो सकता है। आलोचना का कर्त्तव्य शुद्ध बुद्धि के प्रकाश में सत्य दिखाना है। और अगले एक नम्बर मे जॉन्सन नाटक के नियमो की परीक्षा करता है । अक्सर, नियम कल्पना की उडान को रोकते है । यह पुराना नियम कि रङ्गमञ्च पर तीन अभिनेता से अधिक न आये, कोई अर्थ नहीं रखता, और जैसे-जैसे नाटक मे विभिन्नता और गहनत्व आये यह नियम भङ्ग होने लगा। नाटक पाँच श्री मे विभक्त हो, इस नियम की आवश्यकता न तो कृत्य के गुरण से और न उसके प्रदर्शन के औचित्य से दीख पडती है और आज कल तीन अङ्क के और एक अ के बहुत से नाटक लिखे जा रहे है । काल सङ्कलन का नियम यह चाहता है कि नाटक में जितनी घटनाओ का समावेश हो वे सब उतने समय मे हो जितने समय मे नाटक रगमच पर खेला जाता है । यदि दो अड्को के बीच मे काफी समय दे दिया जाय तो कोई बुराई नही, क्योकि वह भ्रम जिस पर खेल की सफलता निर्भर है अड्को के बीच के आये हुए समय से नष्ट नही हो सकता । करुण-हास्य को इस कारण बुरा कहा जाता है कि उसमे तुच्छ और महत्त्वपूर्ण बाते साथ-साथ आती है और करुरण का प्रभाव नष्ट हो जाता है यदि उसमे गम्भीरता की क्रमश बाढ न हो । जॉन्सन का कहना है कि शेक्सपिअर इस बात का उदाहरण हे कि उसने अपने करुण और हास्य रसो को बारी-बारी से एक ही नाटक मे बडी सफलता से दिखाया है । एक नाटक में एक ही प्रधान कृत्य हो और उसमे एक ही नायक हो, ये नियम ठीक है । नियमो का बन्धन कडा नही होना चाहिये । यदि कोई लेखक उन्हें तोडकर उच्चतर सौन्दर्य प्राप्त कर लेता है तो वह इस बात का साक्षी है कि प्रकृति रूढि के ऊपर सदा विजय पाती है । 'प्रफेस टू शेक्सपियर' मे शेक्सपियर के पात्रों के विषय मे जॉन्सन की यह उक्ति बडी सूक्ष्म है कि उनमे व्यापकता भी है और वैशिष्ट्य भी । उत्कृष्ट कविता का यह पक्का चिह्न है, क्योकि कवि किसी व्या
पक आदर्श को लेकर किसी व्यक्ति में समाविष्ट करता है। आदर्शीकरण की इस वृत्ति का यह उत्लेख वह स्वय 'रैसीलाज' मे करता है । कवि का कर्तव्य व्यक्तियों की परीक्षा करना नही वरन् व्यापक गुणो और रूपो का निरीक्षण करना है। जॉन्सन के मानदण्डो मे पूरी शास्त्रीयता नही है । वह प्रकृति के अधिकार को रूढ़ि के ऊपर सदा उच्चता देता है। अठारहवी शताब्दी मे जर्मनी का भी प्रालोचनात्मक उत्थान हुआ और नियमो के प्रति वही भावनाएँ प्रदर्शित हुईं जो इङ्गलैण्ड मे । गौटशेड, अरिस्टॉटल के अनुसार वस्तु को ही काव्य की आत्मा मानता है और उन सब पात्रो और घटना का निषेध करता है जिनमे सत्याभास न हो, जैसे मिल्टन का पैण्डिमोनियम और उसके सिन और डैथ दो पात्र । वह नियमो का पूरा अनुयायी था। गैलर्ट की प्रवृत्ति मध्यस्थावलम्बन की है। उसका कहना है कि नियम व्यापक रूप से उपयोगी हैं परन्तु प्रतिभा के लिये उनका उल्लङ्घन करने का अधिकार होना उचित है । लैसिङ्ग साफ कहता है कि नियम प्रतिभा को कष्ट पहुंचाते हैं । अरिस्टॉटल के प्रति तो उसकी श्रद्धा है परन्तु फ्रान्सीसी आलोचको के प्रति उसकी कोई श्रद्धा नही, क्योकि उन्होंने उसके मतानुसार, नियमो की ऐसी उल्टी-सीधी व्याख्या की जिससे अरिस्टॉटल का आशय कुछ का कुछ हो गया । काण्ट और गढ़ साहित्य की परीक्षा सौन्दर्य को किसी ऐसे उद्देश्य की उपयुक्तता का विशेष गुण बताता है जिसका किसी उपयोगी उद्देश्य से सम्बन्ध नही । गटे का कहना है कि कला और कविता में व्यक्तित्व सब कुछ है । वह बफो का शब्दान्त रकरण करता हुआ कहता है कि शैली लेखक की अन्तरात्मा की सच्ची व्यञ्जना है । यह अचेतन शैली के विषय मे निश्चित रूप से ठीक है, परन्तु इससे विषय निरूपण पर कोई प्रभाव नहीं पडना चाहिये । उत्कृष्ट कविता मे पूर्ण रूप से वास्तविकता होती है । जब वह वाह्य ससार से असम्बद्ध हो कर प्रात्मक हो जाता है तभी वह पदच्युत हो जाती है । काव्यात्मक रचना सारपूर्ण होती है । प्रकृति जीवित और निरर्थक प्रारी को व्यवस्थित करती है और कला मृत और सार्थक प्रारणी को व्यवस्थित करती है । नवशास्त्रीय काल की यह विशेषता थी कि उसमे कुछ ऐसे आलोचनात्मक नियम प्रचलित थे जिन्हे अधिकाश में आलोचक मानते थे । रोमान्सिक काल मे साहित्यालोचन के नियमों के प्रतिपादन मे कोई एकरूपता नही । वर्ड्सवर्थ कविता को वेगपूर्ण अन्तर्वेगो का स्वयप्रवर्तित सप्लव कहता है । यह सप्लव याद की हुई अनुभूतियो पर मनोवृत्ति के सन्द्ररण से उठता है। उसका विचार है कि अच्छी कविता कभी तत्कालविहित नहीं होती । उसकी अभिव्यञ्जना के लिये किसी विशेष वाक्मरणि की आवश्यकता नहीं होती । उसकी भाषा मे और गद्य की भाषा मे कोई तात्विक अन्तर नही । साधारण बोलचाल की चुनी हुई भाषा कविता के लिये उपयुक्त है। यह भाषा छन्दोबद्ध अवश्य हो क्योकि कवि का उद्देश्य सुख देना है। पोप्यूलर जजमेण्ट' नामक लेख मे व सवर्थ का मत है कि साहित्य का आनन्द सहृदय रुचि से लेता है । रुचि के तीन अर्थ माने जाते है --अध्ययनशील आलोचको के मत की प्रमुरूपता, सवेदनशीलता और अपने को लेखक के स्तर तक उठा लेने की शक्ति । जिस रुचि से सहृदय लेखक का आनन्द लेता है वह तीसरे अर्थ की रुचि है । बिना ऐसी रुचि की क्षमता के करुणात्मक और उदात्त साहित्य की उचित सराहना असम्भव है । कोलरिज मालोचक होते हुए बडा सूक्ष्मदर्शी तत्त्ववेत्ता था। उसने व सवर्थ के कई सिद्धान्तो की विश्लेषणात्मक बुद्धि से काट की। कविता की परिभाषा करता हुआ वह 'बायोग्रॅफिया लिटरैरिया' मे लिखता है, पद्य मे सत्य की सुखमय अभिव्यञ्जना को कविता कह सकते है, गो कि दृढतापूर्वक नही । ऐसी आख्यायिका और उपन्यासो को जो तत्क्षणिक सुख देती है, कविता कह सकते है यदि उन्हे पद्य में परिवर्तित कर दिया जाय, गो कि दृढतापूर्वक नही । केवल ऐसे प्ररणयन को जो तत्क्षणिक सुख देता है और जो प्रत्येक भाग में उतना ही सुखमय है जितना कि पूर्ण मे-दृढतापूर्वक कविता कह सकते हैं । कविता की इसी विशेषता के कारण कि उसका प्रत्येक भाग मनोरञ्जक होता है, यह आवश्यक है कि उसकी वाक्सर रिण ध्यानपूर्वक चुनी हुई हो और शब्दो का व्यवस्थापन कौशलपूर्ण हो । ग्रामीण और निम्नश्रेणी का जीवन कविता के लिये अनुपयुक्त है क्योकि कविता आदर्श जीवन को व्यक्त करती है न कि वास्तविक जीवन को । व सवर्थ कुछ कविताएँ जैसे 'हैरीगिल' श्रीर 'इडियट बौय' वास्तविक जीवन को ज्यो का त्यो नरित करने के कारण काव्यात्मक नही हो पाती । दूसरी कविताएँ जैसे 'माइकेल ' और 'रूथ' इसी से काव्यात्मक हो जाती है क्योकि उनमे जीवन का धर्म द्वारा आदर्शीकरण हो गया है । यह कहना कि कविता साधारण जीवन की भाषा मे होनी चाहिये ठीक नही, क्योकि यह भाषा संस्कृत होती है और ऐसे गूढ और सूक्ष्म अर्थों के व्यक्त करने में असमर्थ होती है, जिनमे कविता अपनी प्रतिभा का वैभव दिखात
ी है। स्वय व सवर्थ जहाँ उत्कृष्ट शैली की कविता करता है, ऐसी भाषा का परित्याग कर देता है । कविता श्रेष्ठतम शब्दो का श्रेष्ठतम क्रम मे प्रयोग करती है । छन्द के विचार से भी कविता की वाक्सरणि श्रेष्ठतम होनी चाहिये । कविता का उद्गम शरीर और मन की आवेशपूर्ण दशा है । ऐसी दशा मे यदि आवेश बढ़ता ही जाय तो मनुष्य पर इतना जोर पड सकता है कि उसके कारण विह्वल होकर मर जाय । इसी से ऐसी दशा मे ही आप विचार शक्ति उद्धव होती है जो मनोवेग के कार्य को नियन्त्रित करती है । प्रवेशपूर्ण काव्यात्मक प्रणयन के कार्य में विचार शक्ति शब्दरचना को छन्दोबद्ध कर देती है और वाक्सररिग को उत्कृष्ट कर देती है। छन्द के प्रभाव की जाच से भी कविता के लिए उत्कृष्ट वाक्सरणि आवश्यक है। छन्द ध्यान ओर साधारण भावो को प्रफुल्लता और सुविकारता को वर्द्धित करता है। यह प्रभाव अचम्भे के उत्ताप से और उत्सुकता के जागृत और सन्तुष्ट होने से पैदा होता है। यदि वर्द्धित ध्यान और वर्द्धित भावो को उत्कृष्ट भाषा के रूप में उचित भोजन न मिला तो पाठक की अशा अवश्य भङ्ग होगी और उसे कविता मे कोई आनन्द न आयगा । छन्द और कविता के अवियोज्य होने के कारण जिन-जिन वस्तुप्रो का समावेश छन्द मे होगा उनका समावेश कविता में भी होगा । छन्द मे उत्कृष्ट वाक्सररिण होते हुए उत्कृष्ट वाक्सर रिण काव्यात्मक हुई । उत्कृष्ट वासरणि कविता और छन्द के बीच मे फिटकरी का काम देती है। फिर यह भी विचार है कि कविता बहुत से तत्त्वो का समस्वरत्व है। जब विचार उत्कृष्ट है, छन्द उत्कृष्ट है, व्यक्तित्व उत्कृष्ट है, तो भाषा अपने आप उत्कृष्ट होगी। अन्त मे, कवियो का अभ्यास भी इसी बात का द्योतक है कि कविता में उत्कृष्ट वाक्सरणि होती है । आलोचना के विषय मे एक लेख मे कोलरिज यह विचार व्यक्त करता है। आलोचना का काम काव्यरचनात्मक सिद्धान्तो की स्थापना करना है और 'एडिनबरा रिव्यू' के एडीटरो की तरह लेखो और लेखको पर फैसले देना नही । यदि फैसला देना आलोचना का काम माना जाय तो पहले एक एकेडेमी बनाई जाय जो ऐसे नियमो की सहिता तैयार करे जिनके आधार पर व्यापक नैतिकता और दार्शनिक बुद्धि हो । व सवर्थ की कविता के गुरण बताते हुए कोलरिज 'बायोग्रॅफिया लिट्रेरिया' मे उदात्त शैली की पक्की पहचान बताता है। वह यह है कि उदात्त शैली मे लिखा हुआ लेख उसी भाषा के शब्दों में भी बिना अर्थ को हानि पहुंचाये अनूदित नही हो सकता। इसी आशय का फ्रेन्च आलोचक फ्लोबर्ट का केवल शब्द का सिद्धान्त ( द डॉक्ट्रिन ऑफ द सिङ्गिल वर्ड ) है । प्रवीण लेखक के लेख मे जो शब्द जहाँ
मेरी एक संन्यासिनी है -- माधुरी । उसकी मां भी संन्यासिनी है। उसकी मां ने मुझे कहा कि उसके तो आपरेशन में दोनों स्तन उसे गंवाने पड़े। लेकिन डाक्टरों ने कहा, चिंता न करो, अब तुम्हें कोई नया विवाह तो करना भी नहीं है, उम्र भी तुम्हारी ज्यादा हो गई। और झूठे रबर के स्तन मिलते हैं, वे तुम अंदर पहन लो, बाहर से तो वैसे ही दिखाई पड़ेंगे। रबर के हों कि चमड़ी के हों, क्या फर्क पड़ता है? बाहर से तो वैसे ही दिखाई पड़ेंगे। सच तो यह है कि रबर के ज्यादा सुडौल होंगे। तो वह रबर के स्तन पहनने लगी। मेक्सिको में रहती थी। कार से कहीं यात्रा पर जा रही थी। रास्ते में ट्रैफिक जाम हो गया तो रुकी। पुलिस का इंसपेक्टर पास आया। खुद ही कार ड्राइव कर रही थी। वह एकटक उसके स्तन की तरफ देखता रह गया। उसे मजाक सूझा । बड़ी हिम्मतवर औरत है। उसने कहा, पसंद हैं? एक क्षण को तो वह इंसपेक्टर डरा कि कोई झंझट खड़ी न हो। मगर उसने कहा, नहीं, चिंता न करो, पसंद हैं? उसने कहा कि सुंदर हैं। क्यों न पसंद होंगे? सुडौल हैं। तो उसने कहा, यह लो, तुम्हीं ले लो। उसने दोनों स्तन निकाल कर दे दिए। अब जो उस पर गुजरी होगी बेचारे पर, जिंदगी भर न भूलेगा। अब असली स्तन वाली स्त्री को भी देख कर एकटक अब नहीं देखेगा। अब कौन जाने असलियत क्या हो? रखे होगा वह रबर के स्तन अब, अपनी खोपड़ी से मारता होगा कि अच्छे बुद्धू बने। मुझे उसकी घटना पसंद आई। मैंने कहा, तूने ठीक किया । तू तो और खरीद ले और बांटती चल। जो मिले उसको बांट दिए। जितनों का छुटकारा हो जाए उतना अच्छा । मूढ़ हैं, बचकाने हैं-- छुटकारा करो। जगह-जगह मिलेंगे इस तरह के लोग। अपनी पत्नी से तो तुम स्वभावतः ऊब जाओगे। पत्नियां भी ऊब जाती हैं। लेकिन पत्नियों को हमने इतना दबाया है सदियों में कि वे यह कह भी नहीं सकतीं कि ऊब गई हैं। हमने उन्हें कहा है, पति परमात्मा है। हमने उन्हें कहा है कि एक पति को ही सब कुछ मानना है। पति व्रत की हमने उन्हें खूब शिक्षा दी है। सदियों की धारणाओं ने उनको एक तरह से कुंठित कर दिया है। उनका रस ही खो गया है। उनका सच में पूछो तो किसी पुरुष में कोई रस नहीं रहा है। मुझसे हजारों स्त्रियों ने कहा है कि उनका किसी पुरुष में कोई रस नहीं रहा है। पुरुषों ने ही रस मार डाला है। यह बात तुम ख्याल रखना कि अगर एक पुरुष में रस है, स्त्री का, तो और पुरुषों में भी रस होगा। क्योंकि पुरुष में रस होने का अर्थ पुरुष में रस होना होता है, इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता कि किस में! अगर एक पुरुष में रस है, तो और पुरुषों में भी रस होगा। अगर एक पुरुष आकर्षित करता है, तो उससे सुंदर व्यक्ति को देख कर वह क्यों आकर्षित न होगी? हमने सदियों से उसे समझाया है कि किसी दूसरे पुरुष में आकर्षण मत रखना, यह महापाप है। और स्त्रियां निश्चित ही ज्यादा भावुक हैं, हार्दिक हैं, उन्होंने इसको हृदय में ले लिया है। पुरुषों के संस्कार तो खोपड़ी में हैं, लेकिन स्त्रियों के संस्कार हृदय तक पहुंच गए हैं, ज्यादा गहरे पहुंच गए हैं। चूंकि उन्हें किसी पुरुष में कोई रस नहीं लेना है, इसका अंतिम परिणाम यह हुआ कि उन्हें अपने पुरुष में भी कोई रस नहीं है। इस गणित को तुम ठीक से समझ लो। अगर सारे पुरुषों से रस हटा दोगे तो स्वयं के पुरुष से भी रस नहीं रह जाएगा। और तब वह स्त्री बोझ की तरह पुरुष के साथ संभोग करेगी। पुरुष को तृप्ति नहीं मिलेगी, यह अड़चन है। उसको तृप्ति कैसे मिले? वह स्त्री कोई रस ही नहीं ले रही है। वह यूं टाल रही है कि ठीक है--यंत्रवत। क्योंकि मैं पत्नी हूं, तुम्हारी दासी हूं, तुम्हारी सेवा के लिए ही मेरा जीवन है, जो करना हो करो, यह देह तुम्हारी है--लाश की तरह। जैसे लाश से तुम प्रेम करोगे, तो क्या रस मिलेगा? उसकी तरफ से कोई प्रत्युत्तर नहीं है--न वह नाचती, न वह गाती, न वह गुनगुनाती, न वह मस्त होकर डोलती, न वह तुम्हें धन्यवाद देती। हालत तो उलटी है, हालत तो यह है कि जब भी तुम उससे कहते हो कि क्या विचार है आज? तो वह कहती है, सिर में दर्द है। कभी कमर में दर्द है। कि आज मैं थक गई हूं, आज क्षमा करो। कि आज मुन्ना के दांत निकल आए हैं, और वह दिन भर से रो रहा है । और बड़ा बेटा अभी तक नहीं लौटा है, पता नहीं कहां गया, आधी रात हो रही है। और तुम्हें यह सूझी है! कि रसोइया घर छोड़ कर चला गया है; कि नौकर ने चोरी कर ली है; कि दिन भर से मैं मरी जा रही हूं काम कर-करके, घर में मेहमान ठहरे हुए हैं-- और तुम्हें यह सूझी है ! मैंने सुना, एक बूढ़े ने जिसकी उम्र अस्सी साल थी, एक बुढ़िया से जिसकी उम्र पचहत्तर साल थी, शादी कर ली। अमरीका में घटना घटी, यहां तो कैसे घटेगी! यह समय तो संन्यास का है-- पचहत्तर साल। पचहत्तर साल में कोई विवाह करे, तो उस पर तो जूतियों की वर्षा हो जाए। उस पर तो लानत-मलानत इतनी हो उसकी, इतना कुटे
-पिटे जहां जाए वहीं, ऐसा स्वागत-सत्कार हो उसका कि वह भी जिंदगी भर याद रखे। अमरीका में संभव है। दोनों की शादी हो गई। शादी में बहुत लोग सम्मिलित हुए, क्योंकि सब लोगों को आनंद आया कि यह बढ़िया बात है--पचहत्तर साल की बहू, अस्सी साल का दूल्हा । जो नहीं भी संबंधित थे, वे भी देखने आए थे शादी। चर्च खचाखच भरा था। और सबने फूल भी भेंट किए, सबने उपहार भी भेंट किए--अपरिचितों ने भी-कि आपका दांपत्य जीवन सुखमय हो । हिम्मतवर लोग हो, गजब की हिम्मत है! अरे आदमी तीस-पैंतीसचालीस साल तक पहुंचते-पहुंचते टूटने लगता है, घबड़ाने लगता है; मगर गजब के जुझारू हो, रिटायर होने का के नाम ही नहीं ले रहे। मगर अब करते क्या दोनों बेचारे। शादी तो हो गई, सुहागरात मनाने भी गए मियामी बीच, जहां जाना चाहिए। जो भी औपचारिक था, सब पूरा किया। शानदार से शानदार होटल में ठहरे, जहां सुहागरात मनाने वाले जोड़े ठहरते हैं। सुंदर से सुंदर कमरा लिया। बहू पचहत्तर साल की तैयार होकर बिस्तर पर लेटी। दूल्हा राजा तैयार होकर... दांत वगैरह निकाल कर उन्होंने सब साफ किए; सिर पर जो बालों का विग वगैरह पहन रखा था, उसको ठीक से जमाया; मूंछें, जिनको काला रंग लिया था, उन पर ताव दिया। वे भी आकर बिस्तर पर लेटे। बुढ़िया का हाथ हाथ में लिया, बड़े प्रेम से दबाया, थोड़ी देर दबाए रहे दो-तीन मिनट, फिर कहा कि अब सो जाएं। तो दोनों सो गए। ऐसी सुहागरात की पहली रात बीती। दूसरी रात भी हाथ दबाया, उतनी देर नहीं। जब तीसरी रात बूढ़ा हाथ दबाने लगा, तो बुढ़िया ने करवट ली और कहा, आज मेरे सिर में दर्द है। स्त्रियां, इस देश में तो कम से कम, कह भी नहीं सकतीं यह बात; कहना भी हमने उनसे छीन लिया, उनकी जबान भी छीन ली है। इसलिए तो पुरुषों ने वेश्याएं ईजाद कर लीं, लेकिन स्त्रियों ने वेश्य ईजाद नहीं किए। हालांकि लंदन में, न्यूयार्क में अब पुरुष वेश्याएं उपलब्ध हैं। उनको वेश्या नहीं कहना चाहिए, वेश्य कहना चाहिए। यह स्त्री आजादी के आंदोलन का परिणाम है वहां, कि जब पुरुष वेश्याओं के पास जा सकते हैं, तो स्त्रियां क्यों न वेश्यों के पास जाएं! मेरा मतलब वेश्यों से वह नहीं है जो कि हमारे यहां ब्राह्मण, वैश्य, क्षत्रिय, शूद्र से होता है। जो अपने शरीर को बेचते हैं, वे वेश्य; जैसे वेश्या, जो अपने शरीर को बेचती है। पुरुष वेश्य उपलब्ध हैं लंदन में। जैसे स्त्रियां खड़ी होती हैं सज-धज कर खास रास्तों पर--उनके रास्ते हैं, उनके मोहल्ले हैं, रेड-लाइट इलाके-वैसे ही पुरुष भी खड़े होते हैं सज-धज कर । स्त्रियां अपनी कारें रोक कर उनको देखती हैं, पसंद करती हैं, दाम तय करती हैं, हिसाब-किताब होता है। मगर भारत में तो यह कल्पना के बाहर है बात। स्त्रियां तो सोच ही नहीं सकती हैं। हमने उनका सोचना भी मार डाला है। लेकिन पुरुष का सोचना नहीं मरा है! और स्त्रियों का सोचना पुरुषों ने ही मारा है, इसलिए वे अपना सोचना तो क्यों मारेंगे? वे मालिक हैं। उन्होंने अपने को तो मुक्त रखा है। इससे एक दुविधा और एक अड़चन पैदा हुई है। इसलिए मैंने कहा कि श्री मोदी का प्रश्न थोड़ा जटिल है। दुविधा यह है कि सब पुरुष अपनी पत्नियों से ऊब जाते हैं। कोई कहता है, कोई नहीं कहता। कोई झेल लेता है, कोई नहीं झेल पाता। कोई इधर-उधर से रास्ते निकाल लेता है पीछे के दरवाजे से, कोई नहीं निकाल पाता। लेकिन जब तुम पीछे का रास्ता निकालोगे तो अपराध-भाव पैदा होगा, गिल्ट पैदा होगा, क्योंकि वह पंडित-पुरोहितों की आवाज तुम्हारे भीतर भरी हुई है। वे कहेंगे कि तुम पाप कर रहे हो । तब घबराहट पैदा होगी, बेचैनी पैदा होगी। पत्नियां तो सोच ही नहीं सकतीं। अगर सोचेंगी भी, तो भी अपराध-भाव पैदा हो जाएगा। करना तो दूर, अगर दूसरा पुरुष उन्हें सुंदर भी मालूम पड़ेगा, तो भी उनके भीतर बेचैनी पैदा हो जाएगी कि यह कैसे हुआ! इसलिए उन्होंने तो अपने को बिल्कुल जड़ कर लिया है, संवेदना को ही मार डाला है। इसलिए भारत की स्त्रियां एक अर्थ में आत्महीन हो गई हैं। आत्महीन उन्हें होना पड़ा है, नहीं तो अपराधी होना पड़े। अपराधी होने से आत्महीन होना अच्छा है; बिल्कुल जड़ हो जाना अच्छा है। और पुरुष आत्महीन तो नहीं हुए, लेकिन तब अपराध की भावना पकड़ती है। दोष व्यवस्था का है, व्यक्ति का नहीं है। हमें व्यवस्था बदलनी होगी। हमें एक व्यवस्था देनी चाहिए जिसमें पुरुष और स्त्रियां साथ रहें, लेकिन इतने बंधन में नहीं जितने बंधन में हम उन्हें रख रहे हैं। और मनोवैज्ञानिकों का यह अनुभव है पिछले पचास वर्षों का, मेरा यह अनुभव है मेरे अपने आश्रम का, जहां सैकड़ों जोड़े रह रहे हैं, कि अगर कभी-कभी कोई पुरुष किसी स्त्री के साथ दिन, दो दिन के लिए बिता दे, या कोई स्त्री किसी पुरुष के साथ दिन, दो दिन के लिए बिता दे, तो इससे उनके आपसी संबंध खराब नहीं होते-गहरे होते हैं। यह बा
त उलटी लगेगी और रूढ़िग्रस्त लोगों के लिए तो महापाप की लगेगी; मगर मैं तो सत्य ही कहने को मजबूर हूं। लगे जिसको जैसा लगना हो। मैंने तो कसम खाई है कि जो सत्य है, उसे वैसा ही कहूंगा जैसा है; नग्न ही कहूंगा, उस पर वस्त्र भी नहीं डालूंगा। सत्य यह है कि अगर पति-पत्नी का संबंध गहरा करना हो, अगर सिर्फ औपचारिक न रखना हो, तो हमें इतनी स्वतंत्रता देनी चाहिए कि पुरुष कभी किसी और स्त्री के साथ जाए, तो इससे पत्नी बेचैन न हो, परेशान न हो। और अगर पत्नी कभी किसी पुरुष के साथ चली जाए, तो पति बेचैन न हो, परेशान न हो। इससे उनका दांपत्य नष्ट नहीं होगा, इससे उनके दांपत्य में पुनर्जीवन आ जाएगा। अगर उस नवाब को दो-चार दिन दूसरी सब्जी खाने को मिली होती, और फिर भिंडी मिलती, तो फिर भिंडी में रस आता, फिर भिंडी अच्छी लगती। इससे कुछ गहराई में बाधा नहीं आएगी, इससे गहराई बढ़ेगी। इसमें अपराध-भाव की कोई भी आवश्यकता नहीं है। श्री मोदी, मैं यह कहना चाहूंगा कि छोड़ो अपराध-भाव। अगर तुम्हें लगता है कि तुम्हारी पत्नी तुम्हारी कामवासना को तृप्त नहीं कर पाती, तो किसकी पत्नी कर पाती है? किसका पति कर पाता है? और अगर तुम्हें कभी किसी दूसरी स्त्री में रस मालूम होता है, तो अपराध-भाव से मत भरो, अन्यथा दोहरी मुश्किलें होंगी। अगर अपराध-भाव से भरे तुमने किसी स्त्री से कोई संबंध भी बनाया, तो उससे भी तुम्हें तृप्ति नहीं मिलेगी, क्योंकि वह अपराध-भाव बीच में खड़ा रहेगा, वह दीवाल बनी रहेगी। तुम उसको प्रेम करते समय भी जानोगे कि सिर्फ पाप कर रहे हो, गुनाह कर रहे हो, नरक में जा रहे हो; तुम अपनी पत्नी के साथ धोखा कर रहे हो। कोई अपराध-भाव की जरूरत नहीं है। लेकिन यह अपराध-भाव तब तक तुम्हारा पीछा करेगा, जब तक तुम पत्नी को भी इतनी ही स्वतंत्रता न दोगे। इतनी ही स्वतंत्रता पत्नी को भी देनी चाहिए। वह भी मनुष्य है, जैसे तुम मनुष्य हो। न तुम समाधिस्थ हो, न वह समाधिस्थ है। न तुम बुद्ध हो, न वह बुद्ध है। न तुमने ध्यान जाना, न उसने ध्यान जाना। हां, ध्यान जान लो तो कामवासना से मुक्ति हो जाती है। जब तक ध्यान नहीं जाना है, तब तक तुम भी स्वतंत्रता से अपनी इंद्रियों को तृप्ति दो और अपनी पत्नी को भी तृप्ति देने दो। लेकिन पुरुष को यह बात अखरती है। वह सोचता है कि मैं तो स्वतंत्रता अनुभव करूं, लेकिन पत्नी! यह बरदाश्त के बाहर है कि कोई मुझसे कह दे कि तुम्हारी पत्नी किसी और पुरुष के साथ देखी गई। तो उसके अहंकार को चोट लगती है। अगर अहंकार को चोट लगेगी, तो फिर अपराध-भाव भी रहेगा, क्योंकि फिर तुम धोखा दे रहे हो। फिर तुम अपनी पत्नी के साथ बेईमानी कर रहे हो। फिर तुम्हें दिखावा करना होगा। फिर तुम्हें एक चेहरा पत्नी के सामने ओढ़ कर रखना पड़ेगा कि प्रेम मैं तुझे करता हूं, सिर्फ तुझे करता हूं, और किसी को नहीं। और पीछे तुम्हें दूसरा चेहरा! तुम दो चेहरे वाले आदमी हो जाओगे। दो चेहरों के बीच में तुम कशमकश में रहोगे, दुविधा में रहोगे। तुम्हारे जीवन में द्वंद्व हो जाएगा। और दो ही चेहरे होते तो ठीक थे, बड़ी मुश्किलें हैं, कई चेहरे हो जाएंगे। मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी उससे कह रही थी कि देखो, जब तक मैं बरदाश्त कर सकती हूं करती हूं, लेकिन अगर किसी दिन बात पकड़ में आ गई तो ठीक नहीं होगा। यह औरत कौन थी जो अभी रास्ते पर हमको मिली और एकदम मुस्कुरा कर तुम्हारी तरफ देखा, और तुम एकदम डर गए और तुम नीचे देखने लगे--यह औरत कौन थी? नसरुद्दीन ने कहा कि बाई, तू मुझसे कह रही है कि वह औरत कौन थी! मैं उससे डरा हुआ हूं कि वह मुझे मिलेगी तो पूछेगी कि वह औरत कौन थी जो तुम्हारे साथ थी ? झंझट तो होने वाली है। मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी एक दिन अपनी नौकरानी से बोली कि सुनती हो, मुझे इस बात के पक्के प्रमाण मिलने शुरू हो रहे हैं कि नसरुद्दीन अपनी टाइपिस्ट के साथ गलत संबंध बनाए हुए है। वह नौकरानी बोली, रहने दो, रहने दो! मत कहो ये बकवास की बातें! यह सिर्फ तुम मुझसे इसलिए कह रही हो ताकि मेरे मन में ईर्ष्या पैदा हो, जलन पैदा हो। मैं ऐसी जलने-भुनने वाली नहीं हूं। मैं ऐसी बातों में पड़ने वाली नहीं हूं। नसरुद्दीन का प्रेम मुझसे बिल्कुल शाश्वत है। उसने खुद ही मुझसे कहा है कि मेरा प्रेम अमर है। यह पत्नी को पता ही नहीं था। दो ही चेहरे से काम नहीं चलेगा, बहुत चेहरे लगाने पड़ेंगे। और तब झंझटें होने वाली हैं। जितने झूठ बोलोगे, उतने उपद्रव में पड़ जाओगे। मेरी सलाह हैः जीवन को सहजता से जीओ, प्राकृतिक ढंग से जीओ। व्यवस्था भला अप्राकृतिक हो, तुम्हें कुछ अप्राकृतिक होने की जरूरत नहीं है। लेकिन अपनी पत्नी के साथ भी ईमानदारी बरतो। उसको भी कहो कि तू भी स्वतंत्र है। और इससे यह अर्थ नहीं होता कि तुम अपनी पत्नी को प्रेम नहीं करते। यह भी भ्रांति पैदा की गई है कि अगर प्रेम है, तो एक
से ही होगा। यह बात बिल्कुल फिजूल है। इस बात का कोई मूल्य नहीं है। अगर प्रेम है, तो निश्चित ही अनेक से होगा- यह मैं तुमसे कहता हूं। क्योंकि प्रेम कोई ऐसी चीज नहीं जो एक पर चुक जाए। जिसको फूलों से प्रेम है वह सिर्फ गुलाब के फूलों से ही प्रेम करेगा? चंपा के फूल उसे प्रीतिकर नहीं लगेंगे? चमेली के फूल उसे प्रीतिकर नहीं लगेंगे? कमल उसे प्रीतिकर नहीं लगेगा? अगर कोई ऐसा कहता हो, तो या तो वह विक्षिप्त है या फिर झूठ बोल रहा है। जिसे फूलों से प्रेम है, उसे बहुत तरह के फूल प्रीतिकर लगेंगे। बेले का भी अपना आनंद है और गुलाब का भी अपना आनंद है। और दोनों की अपनी खूबियां हैं। यह हो सकता है, एक स्त्री की देह तुम्हें पसंद आए और इससे ज्यादा कुछ भी पसंद न आए। और यह भी हो सकता है, एक स्त्री का भाव तुम्हें पसंद आए, लेकिन देह पसंद न आए। और यह भी हो सकता है, एक स्त्री की बुद्धिमत्ता पसंद आए --न भाव पसंद आएं, न देह पसंद आए । किसी स्त्री से तुम्हारा लगाव बौद्धिक हो सकता है, तात्विक हो सकता है। तुम उससे चर्चा कर सकते हो गहराइयों की । तुम उससे कला की, धर्म की, अध्यात्म की चर्चा कर सकते हो। और एक स्त्री के साथ तुम्हारा संबंध केवल दैहिक हो सकता है, क्योंकि उसकी देह सुंदर है, सानुपाती है। और एक स्त्री के साथ तुम्हारा संबंध बड़ा रहस्यपूर्ण हो सकता है कि तुम तय ही न कर पाओ कि किस कारण से है, लेकिन कुछ है, कुछ रहस्यपूर्ण जो तुम्हें जोड़े हुए है। और यही बात पुरुषों के संबंध में सही है। जिस दिन मनुष्य प्राकृतिक होगा, जिस दिन समाज इन अतीत की व्यर्थ वर्जनाओं से मुक्त हो जाएगा, अंधविश्वासों से, जड़शृंखलाओं से-उस दिन हम इन सारे सत्यों को स्वीकार करेंगे। अब यह हो सकता है कि तुम्हारी पत्नी तुम्हारे जीवन में एक अनिवार्यता हो । उसने तुम्हें जैसी सुविधा दी हो, तुम्हारे जीवन को जैसी व्यवस्था दी हो, तुम्हारे जीवन को जैसा स्वास्थ्य दिया हो, तुम्हारी उसने जितनी चिंता की हो, फिक्र की हो-- उतना कोई न करे। लेकिन इससे यह तय नहीं होता कि इससे तुम्हारी कामवासना को वह तृप्त कर पाए। और यह हो सकता है, जो स्त्री तुम्हारी कामवासना को तृप्त करे, उससे तुम्हें यह कुछ भी न मिल सके। हो सकता है, सुबह उठ कर तुमको ही चाय बना कर उसको पिलानी पड़े। ज्यादा संभावना यही है। हो सकता है, बर्तन वह तुमसे धुलवाए, कपड़े तुमसे धुलवाए। व्यक्ति के बहुआयाम हैं, और उसके सब आयाम तृप्ति मांगते हैं। अपराध का भाव जबरदस्ती थोपा गया भाव है। अपराध के भाव से बिल्कुल मुक्त हो जाओ। वह व्यवस्था -जन्य है। लेकिन उससे मुक्त होने में सबसे जरूरी कदम यह है कि अपनी पत्नी को भी मुक्ति दो। तुम्हारा जिसके साथ इतना निकट संबंध है, तुम मुक्त रहो और उसे मुक्त न करो, तो कैसे तुम अपराध से मुक्त हो सकोगे? उसे भी मुक्ति दो। उसे भी कहो कि तू भी मुक्त है। और झूठ न बोलो, चेहरे मत ओढ़ो, मुखौटे मत लगाओ-सचाइयां प्रकट करो। और मैं तुमसे यह कहता हूं कि सचाइयां भला एकदम से तूफान खड़ा कर दें, लेकिन वे तूफान आते हैं और चले जाते हैं। और सचाइयों से आए हुए तूफान नुकसान नहीं करते, जड़ों को और मजबूत कर जाते हैं। यह हो सकता है कि झूठ बड़ा सुविधापूर्ण मालूम पड़े। पत्नी को कभी कहो ही मत कि तुम्हारा किसी और स्त्री से कोई नाता संबंध है। लेकिन कभी न कभी पता चल जाएगा। और जिस दिन पता चलेगा, उस दिन सारी चीजें टूट जाएंगी। बजाय इसके कि पता चले, यह बेहतर है कि तुम कहो। जिसको तुमने प्रेम किया है, यह उचित है कि तुम उसके प्रति कम से कम अपने सत्य को स्वीकार करो। और तुम जितना सत्य अपने लिए चाहते हो, जितनी स्वतंत्रता अपने लिए चाहते हो, उसे भी दो। फिर कोई अपराध-भाव पैदा नहीं होगा। और स्मरण रखो कि अगर तुम दोनों एक-दूसरे को सत्य दे सको, और दोनों एक-दूसरे को स्वतंत्रता दे सको, तो तुम्हारा संबंध निरंतर गहरा होगा, निरंतर उसमें नये-नये फूल खिलेंगे । और तुम चकित होओगे यह जान कर कि सारी अतीत की धारणाएं कितनी भ्रांत हैं, जो यह कहती हैं कि एक के साथ ही संबंध रखना, अगर एक के साथ संबंध नहीं रखा तो संबंध विकृत हो जाएगा, नष्ट हो जाएगा, खराब हो जाएगा; फिर जोड़ा नहीं जा सकता। तुम्हें यही समझाया गया है। यह बात बिल्कुल ही गलत है। मनोवैज्ञानिक सत्य कुछ और है। मनोवैज्ञानिक सत्य यह है कि मनुष्य को विभिन्न स्वादों की रुचि है। इसमें कुछ बुरा भी नहीं है। यह केवल मनुष्य की बुद्धिमत्ता का लक्षण है। लेकिन इस बुद्धिमत्ता को हम मौका नहीं देते। हमारी छाती पर पंडित-पुरोहित बैठे हुए हैं। जमाने भर की मूढ़ताएं हम ढो रहे हैं। लेकिन यह मैं तुम्हें अंततः कह देना चाहूंगा कि दूसरी स्त्री जो तुम्हें आज कामवासना तृप्त करती मालूम हो रही है, कल वह भी नहीं मालूम होगी; परसों तीसरी स्त्री की जरूरत पड़ेगी; फिर चौथी स्त्
री की जरूरत पड़ेगी; फिर पांचवीं स्त्री की जरूरत पड़ेगी-- क्योंकि कामवासना तृप्त होना जानती ही नहीं। कोई वासना तृप्त होना नहीं जानती। वासना दुष्पूर है। बुद्ध का यह वचन सदा स्मरण रखने योग्य हैः वासना दुष्पूर है। वासना भरती ही नहीं कभी। लाख भरो, खाली की खाली रह जाती है । एक सूफी कहानी है। एक फकीर ने एक सम्राट के द्वार पर भिक्षापात्र किया। संयोग की बात थी, सम्राट दरवाजे से निकल रहा था, सुबह अपने बगीचे में घूमने को। उस भिखारी ने कहा, मालिक, क्या मैं कुछ मांग सकता हूं? सम्राट ने कहा, हां, क्या मांगना चाहते हो? उसने कहा, लेकिन मेरी एक शर्त है। जो मेरी शर्त पूरी करे, उससे ही मैं अपनी मांग कर सकता हूं। सम्राट ने कहा, क्या शर्त है? भिखारी मैंने बहुत देखे, लेकिन सशर्त भिखारी तुम पहली बार हो। क्या तुम्हारी शर्त है? सम्राट भी उत्सुक हुआ। उस भिखारी ने कहा, मेरी शर्त यह है कि अगर कुछ भी आप मुझे देना चाहें, तो मैं लेने को राजी हूं, लेकिन मेरा भिक्षापात्र पूरा भरना पड़ेगा। सम्राट भी हंसने लगा। उसने कहा, तूने मुझे भिखारी समझा है क्या? सिर्फ उस भिखारी को दिखाने के लिए कि मैं कौन हूं, उसने अपने वजीर को कहा, जो पीछे आ रहा था, कि इसके भिक्षापात्र को स्वर्ण अशर्फियों से भर दो! उस फकीर ने कहा, एक बार पुनः सोच लें। मेरी शर्त याद रखें। फिर मैं शर्त पूरी हुए बिना हटूंगा नहीं यहां से। मेरा भिक्षापात्र भरना चाहिए। सम्राट ने कहा, पागल, चुप रह! तेरा भिक्षापात्र, जरा सा भिक्षापात्र लिए खड़ा है, इसको हम नहीं भर सकेंगे? स्वर्ण अशर्फियां डाली गईं, और सम्राट हैरान हुआ कि यह तो झंझट हो गई। जैसे ही स्वर्ण अशर्फियां उसमें गिरें, वे न मालूम कहां खो जाएं! भिक्षापात्र खाली का खाली! मगर सम्राट भी जिद्दी था, और एक भिखारी से हारे! सम्राटों से नहीं हारा था। हार उसने जानी नहीं थी जिंदगी में। जीत और जीत ही उसका एकमात्र अनुभव था। उसने कहा, आज मैं हूं और यह भिखारी है। सारा खजाना डाल दो ! खजाने अकूत थे, मगर सांझ होते-होते खाली हो गए। हीरे-जवाहरात डाले गए, मोती डाले गए, स्वर्णमुद्राएं डाली गईं, चांदी की मुद्राएं डाली गईं। सब खत्म होता चला गया, सब खत्म होता चला गया। सांझ होतेहोते सम्राट की हालत भिखारी की हो गई, और सारी राजधानी इकट्ठी हो गई यह देखने को। खबर आग की तरह फैल गई कि एक भिखारी, पता नहीं क्या, कैसा जादू है उसके भिक्षापात्र में... ! आखिर सम्राट सांझ को उसके पैरों पर गिर पड़ा और उसने कहा, मुझे क्षमा करो। मैं तुम्हें पहचान नहीं पाया। मैं तुम्हारे इस जादू से भरे पात्र को भी नहीं पहचान पाया। मेरे अहंकार को माफी दे दो। मुझ पर दया करो। मुझे यह शर्त स्वीकार नहीं करनी थी। शर्त सुन कर ही समझ लेना था कि कुछ गड़बड़ होगी। क्या मैं पूछ सकता हूं... मैं हार गया, मैं शर्मिंदा हूं अपनी अकड़ के लिए, लेकिन क्या मैं इतना जान सकता हूं-- क्योंकि यह जीवन भर मेरे मन में जिज्ञासा रहेगी- इस भिक्षापात्र का जादू क्या है? उस भिखारी ने कहा, इसमें कोई जादू नहीं है। इसे मैंने आदमी की वासनाओं से निर्मित किया है। इसमें ताने-बाने आदमी की वासनाओं के बुने हैं। यह आदमी का हृदय है, यह आदमी का मन है। इसमें भिक्षापात्र में कुछ खूबी नहीं है। यह भिक्षापात्र साधारण है। बस इसके ताने-बाने विशिष्ट हैं। वे ही ताने-बाने जिनसे तुम्हारा हृदय बना है। तुम्हारा भिक्षापात्र भरा? जैसे बिजली कौंध गई! सम्राट को दिखाई पड़ा कि निश्चय ही उसका भिक्षापात्र भी खाली रह गया है। जीवन तो हो गया, अभी भी दौड़ जारी है। मौत करीब आने लगी, दौड़ जारी है। हाथ खाली के खाली हैं। इतना बड़ा साम्राज्य है, मगर तृप्ति कहां! तो श्री मोदी स्मरण रखना, कोई स्त्री तुम्हारी कामवासना को तृप्त नहीं कर पाएगी। वासनाएं तृप्त होतीं ही नहीं। इसलिए इस भ्रांति में मत रहना कि मैं यह कह रहा हूं कि इस तरह तुम्हारी वासना तृप्त हो जाएगी। इतना ही होगा कि इससे तुम्हें एक सजगता मिलेगी कि कोई स्त्री तुम्हारी वासना को तृप्त नहीं कर सकती। इस विवाह ने एक धोखा पैदा कर दिया है। विवाह का सबसे बड़ा धोखा जो है... । मैं दुनिया से विवाह को विदा कर देना चाहता हूं। और उसका कारण तुम जान कर चकित होओगे। उसका कारण यह है कि अगर दुनिया से विवाह विदा हो जाए, तो इस दुनिया को धार्मिक होने के लिए रास्ता खुल जाए। विवाह के कारण यह भ्रांति बनी रहती है कि इस स्त्री में मैं उलझा हूं, इससे फंसा हूं, इसलिए वासना तृप्त नहीं हो रही! काश मुझे मौका होता, इतनी सुंदर स्त्रियां चारों तरफ घूम रही हैं, तो कब की वासना तृप्त हो गई होती। वह भ्रांति है। मगर वह भ्रांति बनी रहती है विवाह के कारण। दूसरे की स्त्री सुंदर मालूम पड़ती है। दूसरे के बगीचे की घास हरी मालूम पड़ती है। और दूसरे की स्त्री जब घर से बाहर निकलती है, त
ो बन ठन कर निकलती है, तुम्हें तो उसका बाहरी आवरण दिखाई पड़ता है। तुम्हारी स्त्री भी दूसरे को सुंदर मालूम पड़ती है। मुल्ला नसरुद्दीन एक दिन घर आया और उसने देखा कि चंदूलाल मारवाड़ी उसकी पत्नी को आलिंगन कर रहा है। वह एकदम ठिठका खड़ा रह गया। चंदूलाल बहुत घबड़ाया। चंदूलाल ने समझा कि मुल्ला एकदम गुस्से में आ जाएगा, बंदूक उठा लेगा! लेकिन न उसने बंदूक उठाई, न गुस्से में आया। चंदूलाल के कंधे पर धीरे से हाथ मारा और कहा, जरा मेरे पास आओ। बगल के कमरे में ले गया और बोला, मेरे भाई, मुझे तो करना पड़ता है, तुम क्यों कर रहे हो? तुम्हें क्या हो गया? तुम्हारी बुद्धि मारी गई है? मेरी तो मजबूरी है, क्योंकि मेरी पत्नी है। सो रोज मुझे आलिंगन भी करना पड़ता है और रोज कहना भी पड़ता है कि मैं तुझे बहुत प्रेम करता हूं। बस तुझे ही चाहता हूं, जी-जान से तुझे चाहता हूं मेरी जान, जनम-जनम तुझे चाहूंगा। मगर तुझे क्या हो गया मूरख? और हमने तो सुना था कि मारवाड़ी बड़े होशियार होते हैं। मगर नहीं, तू निपट गधा है। और तेरी जैसी सुंदर पत्नी को छोड़ कर तू यहां क्या कर रहा है? अरे मूरख, मैं तेरी पत्नी के पास से चला आ रहा हूं। चंदूलाल ने कहा कि भैया, तूने मुझे भी मात कर दिया। उस औरत के डर से मैं कहां-कहां नहीं भागा फिरता हूं! शराब पीता हूं, फालतू दफ्तर में बैठा रहता हूं, फिजूल ताश खेलता हूं, शतरंज बिछाए रखता हूं कि जितनी देर बच जाऊं उस चुड़ैल से उतना अच्छा! तू उसके पास से चला आ रहा है! कहते क्या हो नसरुद्दीन? मैं तो सदा सोचता था कि तुम एक बुद्धिमान आदमी हो । तुमने उसमें क्या देखा? उस मोटी थुलथुल औरत में तुमको क्या दिखाई पड़ता है? एक दिन स्टेशन पर वजन तुलने की मशीन पर चढ़ी थी, तो मशीन में से आवाज आईः : एक बार में एक, दो नहीं । तुम्हें उसमें क्या दिखाई पड़ रहा है? मगर यही होता है। विवाह ने एक भ्रांति पैदा कर दी है। विवाह ने खूब धोखा पैदा कर दिया है। विवाह से ज्यादा अधार्मिक कृत्य दूसरा नहीं है, मगर धर्म के नाम पर चल रहा है! अगर लोग मुक्त हों, तो जल्दी ही यह बात उनकी समझ में आ जाए कि न तो कोई पुरुष किसी स्त्री की वासना तृप्त कर सकता है, न कोई स्त्री किसी पुरुष की वासना तृप्त कर सकती है। लेकिन यह अनुभव से ही समझ में आ सकता है। जब एक से ही बंधे रहोगे तो यह कैसे समझ में आएगा? और जिस दिन यह समझ में आ जाता है, उसी दिन जीवन में ध्यान की शुरुआत है। उसी दिन जीवन में क्रांति है। उसी दिन तुम वासना के पार उठना शुरू होते हो। ध्यान है क्या? ध्यान यही है कि मन सिर्फ दौड़ाता है, भरमाता है, भटकाता है मृग-मरीचिकाओं में-- और आगे, और आगे... । क्षितिज की तरह, ऐसा लगता है-अब तृप्ति, अब तृप्ति, जरा और चलना है; थोड़े और! और क्षितिज कभी आता नहीं, मौत आ जाती है। तृप्ति आती नहीं, कब्र आ जाती है । ध्यान इस बात की सूझ है कि इस दौड़ से कुछ भी नहीं होगा। ठहरना है, मन के पार जाना है, मन के साक्षी बनना है। श्री मोदी, अगर सच में ही चाहते हो कि वासना से तृप्ति, मुक्ति, वासना के जाल से छुटकारा हो जाए, तो न तुम्हारी पत्नी दे सकी है, न किसी और की पत्नी दे सकेगी, न कोई वेश्या दे सकेगी, कोई भी नहीं दे सकता है। यह कृत्य तो तुम्हारे भीतर घटेगा। यह महान अनुभव तो तुम्हारे भीतर शांत, मौन, शून्य होने में ही संभव हो पाता है। मगर जब तक यह न हो, तब तक मैं दमन के पक्ष में नहीं हूं। मैं कहता हूं, तब तक जीवन को जीओ, भोगो। उसके कष्ट भी हैं, उसके क्षणभंगुर सुख भी हैं; कांटे भी हैं, फूल भी हैं वहां; दिन भी हैं और रातें भी हैं वहां - - उन सबको भोगो। उसी भोग से आदमी पकता है। और उसी पकने से, उसी प्रौढ़ता से, एक दिन छलांग लगती है ध्यान में।
तांत्रिक चंद्रा ने अपने अनुष्ठान का समापन किया ही था कि तभी अश्वारोही सैनिकों के दल ने उसे चारों ओर से आकर घेर लिया। 'चंद्रा...!' दल के नायक का अवज्ञापूर्ण स्वर गूंजा-'सेनापति ने तुझे स्मरण किया है...तत्काल हमारे साथ चल!' अपमानबोध से आहत चंद्रा ने संयम खो दिया। क्रोधाग्नि में उसका रोम-रोम जल उठा। स्वयं से उसने कहा-धृष्टता की यह तृतीय पुनरावृत्ति की है इस दुष्ट सेनापति ने...इस बार क्षमा का अधिकार इसने खो दिया है। इसे दण्डित करने के अतिरिक्त और कोई विकल्प नहीं। 'किस चिन्तन में खो गया तू...' उसी सैनिक ने पुनः कहा-'तूने क्या सुना नहीं? ...तुझे अविलम्ब हमारे साथ चलना है। शीघ्रता कर अन्यथा।' 'अन्यथा क्या' ? कुपित चंद्रा ने फुफकारते हुए कहा-'क्या कर लेगा तू...? मुझे बलात् ले जाएगा? क्या सोचता है तू...चंद्रा तांत्रिक को अपने शस्त्रा बल के अधीन कर सकता है तू...क्यों?' तांत्रिक के द्वारा व्यक्त इस अप्रत्याशित प्रतिक्रिया से उस सैनिक का आत्मविश्वास डिग गया। क्या पता...सिद्ध तांत्रिक हुआ तो न जाने क्या कर बैठे...उसने तो सोचा था कोई सामान्य तांत्रिक होगा यह...! परन्तु इसकी निर्भीक वाणी से तो प्रतीत होता है, यह वास्तव में सिद्ध है। अब क्या करे वह? उसने तत्काल निर्णय लिया। शस्त्रा-बल को त्याग वाक्-बल से स्थिति को संभालना होगा। परन्तु अनायास झुकना भी अनुचित है अन्यथा यह चंद्रा और चढ़ जाएगा। इस प्रकार विचार कर उसने कहा-'हम सब तो सेनापित के अधीन उनके आज्ञापालक मात्र हैं चंद्रा...! न हमारी तुमसे कोई व्यक्तिगत शत्रुता है न तुम्हारी हम से...अतएव, हम पर तुम्हारा क्रोधित होना व्यर्थ है। हमने तो अपने सेनापति की आज्ञा से तुम्हें अवगत करा दिया है... अब तुम जो संदेश दोगे, वह हम अपने सेनापति को पहुँचा देंगे। इतनी-सी ही तो बात है...अब कहो तुम्हें क्या कहना है?' 'अत्यंत चतुर है तू,' कुटिलता से मुस्कुराते हुए चंद्रा ने कहा-'भय के कारण प्रीति प्रदर्शित कर रहा है...परन्तु फिर भी जा...चंद्रा ने तुझे क्षमा किया...अब बता क्या कहा है सेनापति ने?' 'अविलम्ब तुमसे मिलने को व्याकुल हैं वे।' उसी सैनिक ने कहा। 'मुझसे मिलना था तो मेरे समक्ष आना था उसे...मुझे क्यों बुलाया है? ... मुझे तो तुम्हारे सेनापति से कोई कार्य नहीं...मैं क्यों जाऊँ उसके पास। जाओ जाकर कह दो अपने सेनापति से...चंद्रा नहीं जाएगा...जाओ जाकर कह दो उससे।' 'इसकी भलमानसाहत ने तुझे सिंह बना दिया है तांत्रिक' , दूसरे अश्वारोही सैनिक ने तीव्र गति से आगे आकर कहा-'अन्यथा भीगी बिल्ली-सा तू मस्तक झुकाए हमारे साथ चलता...तूने क्या समझा था, हम सब तेरे झाँसे में आकर लौट जायेंगे?' कह कर अश्वारोही अश्व की पीठ से उछलकर भूमि पर आ खड़ा हुआ और अद्भुत तत्परता से तत्क्षण म्यान से तलवार निकाल ली। 'सावधान सैनिक!' चंद्रा ने चीखते हुए कहा-'प्राणों का मोह-त्याग चुका है तो आगे आ, परन्तु फिर मुझे दोष न देना।' कहकर चंद्रा ने भूमि पर अपने दाहिने पग के अंगुष्ठ से एक वृत्त खींच दी। 'शौर्य-पुत्र है तो इस अभिमंत्रित वृत्त को पार कर!' कहकर चंद्रा ने भीषण अट्टहास प्रारंभ कर दिया। चंद्रा के अट्टहास ने सैनिकों के हृदय में भय-सा भर दिया। परिणामस्वरूप, भयभीत अश्वारोही सैनिकों का दल तीव्र गति से तत्काल पलायन कर गया। भागते सैनिकों के पीछे खड़ा चंद्रा और भी तीव्र स्वर में अट्टहास करने लगा। सेनापति को पूर्व से ही आशंका थी कि चंद्रा नहीं आएगा, इसी कारण वह क्रोधित न होकर विचारमग्न हो गया। अंततः उसने निश्चय किया कि वह स्वयं जाकर चंद्रा को मनाएगा और उसने ऐसा ही किया। अश्वारोही सेनापति के पीछे-पीछे पाँच भैंसागाड़ियाँ चंद्रा तांत्रिक की कुटिया पर जा पहुँचीं। अश्व से उतरकर सेनापति ने मुस्कराते हुए कहा-'तुम्हारा क्रोध सर्वथा उचित है चंद्रा! स्वीकार करता हूँ मैं कि मुझसे भूल हुई है, परन्तु यह तो कहो...जब मैं अपनी पूर्व में की गयी भूलों को सुधारने की कामना रखता हूँ तो क्या यह अनुचित है?' चंद्रा ने उत्तर नहीं दिया। उसे दृढ़ विश्वास था, इस धूर्त्त की यह नवीन चाल है। अवश्य किसी प्रयोजन विशेष ने इसे पुनः विवश किया है, अन्यथा यह दुष्ट पुनः क्यों आता? 'मौन क्यों हो मित्र!' सेनापति ने अत्यंत मृदुल स्वर में कहा-' विश्वास करो। अपनी अंतरात्मा से प्रेरित होकर तुम्हारे सम्मुख उपस्थित हुआ हूँ... इन गाड़ियों में लदे उपहार मेरी मित्रता के प्रतीक हैं चंद्रा! पूर्व में की गयी मूर्खता ने मुझे अत्यंत लज्जित किया है। मेरा विश्वास करो तथा मेरा उपहार स्वीकार कर मेरी आत्मा का बोझ हलका कर दो मित्र! 'इस बार उलझ गया चंद्रा। उसकी समझ में कुछ नहीं आया। क्या वास्तव में इस धूर्त्त का हृदय परिवर्तित हो गया है अथवा इसमें भी कुछ चाल है? शंकित चंद्रा ने अंततः कहा-' आपकी अभिलाषा को तो ग्रहण
लग गया सेनापति! युवराज आ गये और मैंने सुना है उत्कल नरेश अपने पुत्र एवं सुरक्षा-सेना के साथ राज-भरोड़ा प्रस्थान कर रहे हैं...अब इस परिस्थिति में आपको पुनः मेरी मित्रता का स्मरण होना, वास्तव में अनोखी बात है। क्षमा करें सेनापति! मुझे न तो आपसे मित्रता की इच्छा है और न शत्रुता की अभिलाषा...क्षमा कर दें मुझे। नहीं चंद्रा! 'पुनः स्वर में रस घोलते सेनापति ने कहा-' मेरा हृदय यूँ न तोड़ो। इन उपहारों को स्वीकार करो और मुझे विदा करो। परन्तु यह जान लो, तुम सदा मेरे हृदय में मित्रवत् ही रहोगे चंद्रा...यह निश्चित है। मुझसे मित्रता का प्रयोजन भी स्पष्ट कर दें सेनापति तो मेरा विस्मय समाप्त हो जाए', इस बार चंद्रा ने मुस्कुराते हुए कहा-' क्योंकि निष्प्रयोजन आप न किसी को मित्र बनाते हैं...न शत्रु। ठीक ही कहा तुमने चंद्रा! 'सेनापति ने शांत स्वर में कहा-' इस संसार में कोई कार्य निष्प्रयोजन नहीं होता। अपने राजा जी तथा राज कुँवर के साथ मैं भी राज-भरोड़ा जा रहा हूँ। क्या पता लौटूँ या न लौटूँ... फिर हृदय पर बोझ लिये क्यों जाऊँ? ...मैंने तुम जैसे सिद्ध-साधक को हार्दिक आघात पहुँचाया है...इसका स्पष्ट भान है मुझे। इसीलिए मैं चाहता हूँ तुमसे क्षमा माँग कर तुम्हें पुनः मित्र बना लूँ। भरोड़ा-यात्र में जीवित रहूँगा तो पुनः तुम्हारी सेवा में उपस्थित होऊँगा, मित्र! इस घड़ी तो इन उपहारों को सम्हालो और मुझे विदा करो! क्यों सेनापति जी! 'कृत्रिम आश्चर्य प्रकट करते हुए चंद्रा ने कहा-' भरोड़ा में कौन शत्रु है आपका, जिससे आपको अपने प्राणों का भय है। मैंने तो सुना है महाराज का प्रयोजन कुछ और है...और आप इस प्रकार आशँकित हो रहे हैं जैसे आप युद्ध पर जा रहे हों। वैसे भी युद्ध अभियानों पर तो आपका उत्साह यों भी द्विगुणित हो जाया करता है, फिर इस बार ऐसी क्या बात है? 'प्रसन्न हो गया सेनापति! अब पंछी आया जाल में और उसने बहुरा गोढ़िन की सम्पूर्ण कथा विस्तार में सुना दी। तो यह बात है! चंद्रा तांत्रिक समस्त रहस्य समझ गया। मित्रता स्वीकारते ही फँसेगा वह। यह धूर्त्त अवश्य उसे इस यात्र में अपने साथ चलने का अनुरोध करेगा।' ठीक है सेनापति जी! 'सम्पूर्ण युक्ति पर विचार करने के उपरांत चंद्रा ने कहा-' मैं आपकी भावना समझ गया। मुझे प्रसन्नता है कि आपने अपनी भूल अंततः स्वीकारी। मेरे हृदय में आपके प्रति अब कोई दुर्भाव नहीं रहा, यह निश्चित है परन्तु इन उपहारों को मैं स्वीकार नहीं कर सकता। मैं गृहस्थ नहीं, तांत्रिक हँू...ज्ञात ही है आपको। इन सांसारिक पदार्थों का क्या करूँगा मैं। ये सब निरर्थक हैं मेरे लिए, अतः इन्हें लौटा लें और प्रसन्नतापूर्वक भरोड़ा-यात्र सम्पन्न करें। मेरी समस्त शुभकामनाएँ आपके साथ हैं...आप जाइये सेनापति, सुखपूर्वक अपनी यात्र प्रारंभ कीजिए. 'आश्चर्य है! सेनापित फुसफुसाया। पक्षी तो जाल में उतरकर पुनः उड़ गया। ऐसी कलाकारी कब से सीख ली इस मूर्ख ने?' मुझे तुमसे ऐसी आशा नहीं थी चंद्रा! 'सेनापति ने नैराश्य के स्वर में कहा।' क्यों, क्या किया है मैंने! 'चंद्रा ने चतुराई से कहा-' मैंने तो अपने अंतस् से आपके प्रति अपना समस्त विद्वेष विसर्जित कर दिया सेनापति! और आप कहते हैं। 'चंद्रा ने आपना वाक्य अधूरा छोड़ दिया।' क्या करता मैं चंद्रा...तुम्हीं कहो क्या करता मैं? ...वंश-विहीन हो चुके इस उत्कल प्रदेश पर आतताइयों की प्रभुता स्वीकार लेता? क्या करता मैं, क्षणोपरांत उसने पुनः कहा-'और सबसे बड़ी बात कि मैं भी एक मनुष्य ही हूँ। मेरे भी अंदर अभिलाषाएँ हैं...देवता नहीं मैं। विगत की परिस्थितियों में उलझ गया मैं...तो क्या तुम...तुम चंद्रा तुम...मेरे मित्र, मेरे अपने, इस छोटी-सी बात को भी नहीं समझ सकते! और मान लो उस घड़ी मैंने तुम्हें अपमानित कर ही दिया तो इसका दोष अकेले मुझ पर नहीं, तत्कालीन परिस्थितियों का भी है। आज विश्वास कर सको मित्र तो मुझ पर विश्वास करो। अपने प्रिय युवराज की रक्षा में मैं अपने प्राणों की भी आहुति हँसते...हँसते दे सकता हूँ। परन्तु, मुझे खेद है मित्र, इस स्थिति में भी मुझे तुम्हारा सहयोग, तुम्हारा साहचर्य प्राप्त नहीं हो सका। ऐसी आशा तुमसे नहीं थी चंद्रा!' औपचारिकता का समस्त आवरण तोड़ते हुए इस बार चंद्रा ने कठोर स्वर में कहा-'आप क्या सोचते हैं सेनापति?' विषैली मुस्कान तैर गयी उसके अधरों पर-'चतुराई का समस्त भंडार आपके ही पास है, या विधाता ने कुछ मुझे भी दिया है? ... स्पष्ट क्यों नहीं कहते कि उस विकट बहुरा के भय ने पुनः आपको मेरे पास आने को विवश किया है। यह सारा प्रपंच और आपका अभिनय मुझसे छिपा नहीं है। परन्तु आप इस बार मुझे छल नहीं सकते। दो बार आपने मुझे मूर्ख बनाया, अपमानित किया मुझे, जबकि मैंने आपके लिए।' पुनः उसने अपने वाक्य को अधूरा छोड़ दिया और अवाक् सेनापति विस्फारित नेत्
रों से चंद्रा को अपलक देखने लगा। सारे पासे पलट चुके थे। इस तांत्रिक ने इस बार उसे मात दे दी थी। अब क्या करे वह? क्या मस्तक झुकाये मौन चला जाये वह...अथवा एक प्रयत्न और करके देखे। चंद्रा ने उसके अंतस् की बात जान ली थी। वास्तव में बहुरा की विकट शक्तियों से भयभीत था वह। यह चंद्रा यदि साथ रहता तो उसके स्वयं के प्राणों की रक्षा तो अवश्य हो जाती...रही बात राजा एवं युवराज की, तो उनकी पराजय तो वस्तुतः इसकी विजय ही थी। परन्तु यह धूर्त्त तो सारी चालें भाँप गया...अब क्या करे वह? उसके अंतस् में एक बार क्रोध भी उबला। इच्छा हुई की अपनी प्यासी तलवार की प्यास इसी से बुझा दे, परन्तु तत्क्षण उसने, स्वयं को नियंत्रित किया। ऐसी भूलें पूर्व में भी हो चुकी हैं उससे अन्यथा परिस्थिति ऐसी विषम नहीं होती। यह मूर्ख तो न्यौछावर था मुझ पर, मैंने ही अपनी मूर्खता से अपना अहित किया है। 'अब किस चिंतन में लीन हैं सेनापति!' चंद्रा ने ही पुनः कहा-'मैं भली भाँति जानता हूँ...क्या पक रहा है आपके मस्तिष्क में, परन्तु अब चंद्रा पुनः मूर्ख नहीं बनेगा सेनापति, यह निश्चित है।' 'मैं तुम्हें दोष नहीं देता चंद्रा! भूल मैंने की है तो उसे भोगूंगा भी मैं ही। परन्तु मुझे इस बात की चिन्ता है कि तुमने मेरे अंतस् को नहीं पहचाना। इस राज्य में और भी तांत्रिक सिद्ध हैं चंद्रा! उग्रचण्डा को ही लो...तुमने स्वयं उसकी शक्ति को पहचाना है। वह प्रसन्न भी है मुझ पर, परन्तु इस विकट संकट में मैं उसके समक्ष न जाकर तुम्हारे समक्ष आया... अपने मित्र के समक्ष आया। इस आशा और विश्वास के साथ आया था चंद्रा कि तुम मेरी भावनाओं को समझोगे...मेरी सहायता करोगे, परन्तु तुमने अपने अंदर इतना विष भर लिया है कि मेरी सीधी-सच्ची भावना में भी तुम मेरी चतुराई ही देख रहे हो...मेरी चाल देख रहे हो! धिक्कार है मुझ पर। मैं इतना पतित, इतना लोभी तथा अहंकारी था कि मेरे साथ यही होना था, जो हो रहा है। तुम्हें दोष क्यों दूँ मैं चंद्रा...क्यों दूँ दोष तुम्हंे?' 'आपने स्वयं के स्वरूप को पहचान लिया...यह अच्छी बात है सेनापति! मैंने आपके लिए कभी अशुभ की कामना नहीं की, सदा आपके कल्याण की ही कामना की, परन्तु आपने दूध की मक्खी समझकर सदा मेरा तिरस्कार किया।' कहते-कहते चंद्रा के मस्तिष्क में सहसा एक नवीन विचार उभरा। इस विचार ने उसकी मुखाकृति पर विषाक्त मुस्कान बिखेर दी। कुछ क्षणों के उपरांत मुस्कुराते हुए उसने कहा-'फिर भी इस यात्र में मैं आपके साथ चलूँगा। जाऊँगा मैं।' चंद्रा की इस अप्रत्याशित स्वीकृति ने अनायास परिस्थिति परिवर्तित कर दी। झपटकर सेनापति ने चंद्रा को अपने बाहुपाश में जकड़ लिया। सेनापति के वक्ष से लगा चंद्रा पुनः मुस्कुराया। परन्तु सेनापति को इसका तनिक भी भान न हुआ। चंद्रा की इस मुस्कराहट में विष ही विष भरा था। शंखाग्राम में कामायोगिनी का स्वागत स्वयं भुवनमोहिनी ने किया। 'शंखाग्राम में भुवनमोहिनी आपका स्वागत करती है देवी!' स्निग्ध मुस्कान बिखेरती भुवनमोहिनी ने कहा-'आपके दर्शनों की चिर अभिलाषा आज पूर्ण हुई देवी!' 'अभिलाषा तो मेरी पूर्ण हुई है।' हँसती हुई कामायोगिनी ने कहा-'यही एकमात्र इच्छा थी मेरी कि आपके दर्शन हों। ...वस्तुतः धन्य तो मैं हूँ देवि। मेरे पुण्यों का आज वास्तव में उदय हुआ है तभी तो आप जैसी विदुषी-साधिका के दर्शन संभव हुए हैं। साथ ही आपने मुझे अनुगृहीत भी किया है देवी! आभार व्यक्त करना अभी शेष है।' 'आभार कैसा!' भुवनमोहिनी के मुख पर मंद हास बिखरा-'और मैंने आपको भला अनुगृहीत कैसे कर दिया?' 'मेरे प्रिय कुँवर को शिष्यवत् स्वीकारा है आपने देवी...! मेरे अपूर्ण शिष्य को आपने पूर्ण किया है। कुँवर पर की गयी आपकी कृपा वस्तुतः मुझ पर आपका अनुग्रह ही है देवी! कुँवर को पूर्ण कर वस्तुतः आपने मुझे ही अनुगृहीत किया है। यह आपका उपकार है मुझ पर।' भुवनमोहिनी ने पुनः स्मित-भाव से कामायोगिनी को निहारकर कहा-'आपके शिष्य के साथ मेरी माताश्री भोजन-कक्ष में हमारी प्रतीक्षा कर रही हैं तथा हम दोनों एक दूसरे की प्रशंसा में व्यस्त हैं...आज्ञा हो तो हम भोजन-कक्ष के लिए प्रस्थान करें?' भुवनमोहिनी की बात पर खुलकर हँस पड़ी कामायोगिनी। हँसती-मुस्कुराती दोनों देवियो ने जब भोजन-कक्ष में प्रवेश किया तो वास्तव में, वहाँ राजमाता एवं कुँवरदयाल इनके लिए प्रतीक्षारत थे। राजमाता के साथ औपचारिक वार्तालाप के पश्चात् भरोड़ा-यात्र की चर्चा प्रारंभ हो गयी तथा देवी कामायोगिनी को राजमाता ने विस्तार में समस्त सूचना देकर कहा-'उत्कल नरेश, हमारे जामाता के साथ भरोड़ा के लिए प्रस्थान कर चुके हैं। अतः, हमें अपनी यात्र कल सूर्योदय के साथ ही प्रारंभ कर देनी चाहिए.' 'ऐसा ही होगा राजमाता!' कामायोगिनी ने कहा-'सूर्योदय के साथ ही, कल हमारी यात्र प्रारंभ हो जाएगी।' इस समस्त व
ार्तालाप के मध्य कुँवर दयाल सिंह मौन रहा था। भोजन के समापन के उपरांत भुवनमोहिनी कामायोगिनी के साथ अपने शयन-कक्ष में चली गयीं। रात्रिपर्यन्त दोनों इसीप्रकार वार्तालाप में निमग्न रहीं, मानो वर्षों की बिछुड़ी दो सहेलियाँ आपस में मिली हों। राजामाता को भी नींद नहीं आयी। शय्या पर लेटी राजमाता कुँवर के द्विरागमन-संस्कार की कल्पना में डूबी रहीं। शंखाग्राम के गंगाघाट पर भी रात्रि जागरण था। राजमाता की नौका को अंतिम रूप से सज्जित किया जाता रहा और इन समस्त गतिविधियों से निर्लिप्त कुँवर दयाल सिंह अपने कक्ष में मुस्कुराता विधि का विधान देखता रहा। सूर्योदय के पूर्व ही राजमाता अपनी पुत्री एवं पुत्रवत कुँवर के साथ नौका में उपस्थित हो गयीं। कामायोगिनी अपनी नौका में जा पहुँची। शंखाग्राम की रक्षक नौकाओं ने दोनों नौकाओं को अपनी सुरक्षा-परिधि में ले लिया। सूर्योदय होने को ही था कि राजमाता की आज्ञा से सभी नौकाओं के लंगर उठ गये और यात्र प्रारंभ हो गयी। क्षितिज से उदित होते सूर्यनारायण की स्वर्णिम किरणें गंगा की कल-कल करती धारा पर स्वर्ण छटा बिखेर रही थीं। आकाश में पंख फैलाये उड़ते पंछियों का कलरव व्याप्त था। नौका के ऊपरी तल पर विराजी राजमाता प्रकृति के इस अनुपम सौंदर्य को मुग्ध हो निहार रही थीं। इसी घड़ी कुँवर के साथ भुवनमोहिनी भी नौका के ऊपरी तल पर आ पहुँची। राजमाता को अभिवादन निवेदित कर दोनों वहीं बैठ गये। 'तुम्हारी निरंतर उदासीनता का क्या कारण है पुत्र?' राजमाता ने स्मित हास से कहा-'जब से हमने इस यात्र का निश्चय किया है, तभी से मैंने लक्ष्य किया है...बात क्या है पुत्र?' राजमाता के कथन पर भुवनमोहिनी हँस पड़ी। हँसते हुए ही उन्होंने कहा-'आपने सत्य कहा माताश्री! जीवन से पूर्णरूपेण निर्लिप्त हो चुका है मेरा शिष्य।' 'आपने भी देवी...!' मंद हँसी के साथ कुँवर ने अधूरी पंक्ति कही। 'हाँ मैंने भी' , पुनः हँस पड़ी भुवनमोहिनी। 'मैंने भी माताश्री का अनुमोदन कर दिया तो तुम रुठ गये प्रिय? ...' हँसी रूकी तो उन्होंने कहा। कुँवर के मौन पर भुवनमोहिनी ने पुनः कहा-'चेतना के इस स्तर पर उपस्थिति का अर्थ है-भावनाओं, संवेदनाओं का अभाव हो जाना। परन्तु तुमने तो प्रिय।' मुस्करा कर कुँवर ने देवी की बात में हस्तक्षेप करते हुए कहा-'मैंने क्या देवी? ... क्या किया है मैंने? ...माताश्री की इच्छा को मैंने सादर-स्वीकार कर लिया। इनके निर्देश पर वज्रबाहु ने दिव्य-भव्य व्यवस्था कर दी। उत्कल-नरेश ने भी मेरे अंचल हेतु भव्य यात्र प्रारंभ कर दी तो मैंने विरोध कहाँ किया देवी?' क्षणोपरांत उसने पुनः कहा-'देवी कामायोगिनी ने मुझसे वचन लिया था, अतएव उन्हें साथ लेना आवश्यक था...परन्तु मेरे लिए आप सब इसप्रकार अतितत्पर हो जाएँगे, ऐसी कोई भावना मेरे अंतस् में नहीं थी। अतः मैं निर्लिप्त था।' कुँवर के कथन पर राजमाता मुस्करायीं। स्मित नेत्रों से उन्होंने कुँवर से कहा-'तुमलोगों की बातें तुम्हीं लोग जानो। मैं तो साधारण मनुष्य की स्त्राी-योनि में ही संतुष्ट हूँ। भला यह भी कोई बात हुई कि दुःख हमेंदुःखी न करे और सुख में हम प्रसन्न न हों। साधना की यही परिणति है तो अच्छा है...मैं साधिका नहीं हूँ। मैं तो प्रसन्नतापूर्वक अपनी पुत्रवधू की विदाई कराऊँगी और तत्पश्चात् आनंद पर्व भी मनाऊँगी।' राजमाता ने अपनी बात पूरी ही की थी कि तभी उनकी दृष्टि सुदूर जल-धारा पर पद्मासन में आसीन एक कापालिक पर पड़ी। विस्मित स्वर में उन्होंने कहा-'अरे! तनिक आगे तो देखो...कोई कापालिक ही है वह...देखो तो, जल पर कितनी सहजतापूर्वक आसन जमाये आसीन है वह!' कुँवर के साथ ही भुवनमोहिनी की दृष्टि भी उस पर पड़ी। पद्मासन में आसीन वह कापालिक धारा के विपरीत नौका की ओर ही बहता आ रहा था। 'कौन है वह?' राजमाता ने कहा-'वेषभूषा एवं आकृति से तो वह कोई कापालिक ही प्रतीत हो रहा है...परन्तु जल पर इसप्रकार आसीन! ...आश्चर्य है!' 'कौन है वह प्रिय?' भुवनमोहिनी ने कुँवर से प्रश्न किया। 'टंका!' कुँवर ने अति शांत स्वर में कहा। राजमाता चौंकी तथा भुवनमोहिनी मुस्कुराने लगी। भुवनमोहिनी के आदेश पर सेवकों ने तत्काल रस्सी की सीढ़ी नीचे लटका दी। उत्सुक राजमाता के साथ ही मुस्कराती भुवनमोहिनी एवं शांतचित्त कुँवर ने अपने आसन को त्यागा। ये सभी रस्सी के समीप आकर पास आते कापालिक को देखने लगे। वास्तव में यह टंका ही था। उसकी आकृति अब स्पष्ट होने लगी थी। शंखाग्राम की रक्षक नौकाओं ने उसे अपने मध्य सादर मार्ग प्रदान कर दिया और अब टंका नौका के अत्यंत समीप आ पहुँचा था। टंका ने युगलहस्त तीनों का अभिवादन किया। तदुपरांत पद्मासन त्याग कर उसने सीढ़ियाँ थाम ली। 'आओ मित्र! शंखाग्राम की इस नौका पर तुम्हारा स्वागत है!' नौका पर आते ही कुँवर ने कहा। 'अनामंत्रित व्यक्ति का स्वागत!' हँसते हुए कहा टंका न
े 'इस टंका को तो आपने विस्मृत ही कर दिया था स्वामी!' उसे बाँहों में भरते हुए कुँवर ने कहा-'नहीं मित्र...! तुम विस्मृति के योग्य नहीं...परन्तु मित्र को व्यर्थ कष्ट प्रदान करना क्या उचित था?' तत्पश्चात् अपनी बाँहों से टंका को मुक्त करते हुए कुँवर ने पुनः कहा-'आओ हमारे संग विराजो!' 'हाँ टंका!' भुवनमोहिनी ने कहा-'तुम्हें अनायास अपने मध्य पाकर मैं भी प्रसन्न हूँ। कुँवर पर तुम्हारा आरोप उचित ही है...स्वीकार करती हूँ तथा इसकी ओर से मैं तुमसे खेद भी प्रकट करती हूँ।' कहकर वह हँस पड़ी। राजमाता की मुखाकृति पर भी टंका के इस अप्रत्याशित आगमन पर प्रसन्नता की रेखाएँ उभर आयी थीं। वार्तालाप के क्रम में समस्त कार्यक्रमों से अवगत हो चुके टंका के मस्तक पर चिन्ता की रेखाएँ उभर आयीं। 'स्वामी के प्रति राजमाता के स्नेह से मैं भलीभाँति परिचित हूँ'-भुवनमोहिनी से टंका ने कहा-'परन्तु राजमाता ने भावनाओं के प्रवाह में वज्रबाहु को यों असुरक्षित भेज दिया यह चिन्ता का विषय है देवी! दूसरी ओर उत्कल-नरेश ने भी अपनी राजकीय यात्र प्रारंभ कर दी है।' 'अपने मनोभावों को तनिक और स्पष्ट करो टंका'-भुवनमोहिनी ने कहा-'और तुमने वज्रबाहु को असुरक्षित क्यों कहा...अभिप्राय क्या है तुम्हारा...?' 'अभिप्राय स्पष्ट है देवी!' टंका ने कहा-'जिस भव्यता के साथ वज्रबाहु ने अपना अभियान सम्पन्न किया, तथा जिसप्रकार उत्कल-नरेश ने अपनी राजकीय यात्र प्रारंभ की है; इसकी सूचना समस्त अंचलों के साथ-साथ बखरी-सलोना तक अवश्य पहुँचेगी देवी...! पहुँचेगी क्या, कदाचित् पहुँच भी चुकी होगी। ऐसी स्थिति में स्वाभाविक ही है कि भ्रमित बहुरा।' टंका ने जानकर अपना वाक्य अधूरा छोड़ दिया। मुस्कराती भुवनमोहनी ने कहा-'परन्तु उनसे बहुरा की क्या शत्रुता है? ...भ्रमवश शत्रु तो वह हमारे कुँवर की है टंका...! उसे तंत्र-प्रहार करना ही है तो वह कुँवर पर ही करेगी।' 'नहीं देवी...!' असहमत टंका ने कहा-'मुझे वज्रबाहु के समीप अविलम्ब उपस्थित होना होगा...मुझे आज्ञा दें!' 'तुम्हारी यही इच्छा है तो ऐसा ही हो'-भुवनमोहिनी मुस्करायी। 'आप गंभीर नहीं हैं देवी!' 'तुम्हारी चिन्ता अनावश्यक है टंका!' आश्वस्त भुवनमोहिनी ने कहा-'ऐसी बात नहीं है कि मैंने अपनी सेना की सुरक्षा-व्यवस्था पर विचार नहीं किया था, परन्तु फिर भी तुम्हें मैं रोकूँगी नहीं। तुम्हारी उपस्थिति से वज्रबाहु को प्रसन्नता ही होगी टंका...जाओ...!' न राजमाता ने कुछ कहा न कुँवर ने, परन्तु कुँवर को प्रणाम कर टंका ने तत्काल गंगा में छलांग लगा दी। शंखाग्राम की सेना के पश्चात् भरोड़ा में उत्कलराज की राजकीय सेना की उपस्थिति का समाचार दावानल की भाँति सम्पूर्ण अंग-महाजनपद में तत्काल फैल गया। अंग के प्रत्येक अंचल राजा-रजवाड़ों के मध्य जहाँ उत्सुकता का वातावरण उत्पन्न हो गया, वहीं बखरी-सलोना में आशंकायुक्त उत्सुकता फैल गयी। जेठ की तपती धूप में बखरी-सलोना का कण-कण तप रहा था। मुख्य चौपाल पर विशाल वट वृक्ष की छाया में एकत्र लोग इसी चर्चा में निमग्न थे। घाट पर, मल्लाहों के समूह में, हाट पर, मछली-सब्जी तथा मशालों के व्यापारियों के मध्य तथा तृणयुक्त मैदानों में मवेशी चराते चरवाहे तक आपस में इसी की चर्चा कर रहे थे। अंग की भूमि पर इसप्रकार, बाहरी सेनाओं का जमावड़ा आश्चर्यजनक था। जितनी सूचनाएँ आ रही थीं, सब अभूतपूर्व थीं। भरोड़ा जैसे लधु अंचल में बाहरी सेनाओं का ऐसा जमावड़ा पूर्व में कभी हुआ नहीं। यही कारण था कि चारो ओर अंग के समस्त अंचलों में आकुलता फैल गयी। सैनिकों की यथार्थ संख्या से अनभिज्ञ बखरी के निवासी एक दूसरे से भ्रमित समाचारों एवं सूचनाओं का आदान-प्रदान करने लगे। बखरी सलोना का सम्पूर्ण अंचल जहाँ इसप्रकार आशंकित था, वहीं तिनकौड़ी आम्र वृक्षों से आच्छादित भूमि पर अपनी खाट पर शांतचित्त लेटा था। खाट की रस्सी थी ही इतनी ढीली कि उसका मध्य तन भूमि से मात्र एक मुठ्ठी ऊपर झूल-सा रहा था। उष्ण पवन के तीव्र झोंकों में रगड़ खाती आम्र वृक्षों की डालियों एवं पत्तों के शोर में चिन्तामुक्त लेटा तिनकौड़ी भूमि पर गिर रहे टिकोलों को मौन निहार रहा था। माँ नित्य सिर पीटती और झुंझलाकर कहती-पुत्र अब लड़कपन छोड़ और कुछ काम-धाम शुरु कर। परन्तु वह भला काम क्या करता? प्रातः से सूर्यास्त तक कभी घाट के किनारे और कभी चौपाल पर व्यर्थ समय व्यतीत करते रहना ही उसकी दिनचर्या थी। उसके वयस के सभी संगी-साथियों ने काम-धाम करना शुरू कर दिया था, इसीलिए तिनकौड़ी के साथ व्यर्थ खेलकूद करने वाला कोई रहा नहीं। अकेले ही अपना सारा समय वह यों ही व्यर्थ करता रहता। इधर जबसे जेठ की तपन शुरू हुई, तभी से उसकी दिनचर्या बदल गयी। दोपहर की तपिश में वह आम्र के एक सघन वृक्ष के नीचे भूमि पर खाट बिछा कर अन्यमनस्क-सा यूँ ही पड़ा रहता। आज भी वह अपनी खाट
पर लेटा गिरते हुए टिकोलों को देख रहा था कि तभी उसकी दृष्टि उस विकटा पर पड़ी जो भूमि को रौंदती हुई तीव्र गति से उसी की ओर चली आ रही थी। चिकने-काले पत्थर को जैसे किसी कुशल शिल्पी ने सम्पूर्ण मनोयोग से तराश कर बनाया हो, ऐसी सुधड़ काया वाली उस भयंकर आकृति को देखते ही तिनकौड़ी के प्राण सूख गए. नग्न चमकते पृथुल वक्ष पर बंदरों की हड्डियों का मुण्डमाल, कटि-प्रदेश पर रक्तवर्णी लघु-आवरण के ऊपर हड्डियों की जंजीर तथा दोनों कलाइयों में उंगलियों की हड्डियों का आभूषण धारण किये इस अमानवी ने तिनकौड़ी को जड़वत् कर दिया। युवती के उन्नत सुडौल और पाषाण सदृश छातियाँ तिनकौड़ी की दृष्टि को बलात् अपनी ओर खींचने लगीं। परन्तु उसकी बड़ी-बड़ी दहकती आँखों ने उसे अत्यंत भयाक्रांत कर दिया। नितम्बों तक लटक रहे खुले केशों को लहराती इस विकटा की तीक्ष्ण दृष्टि तिनकौड़ी पर ही गड़ी थी। वह पत्ते की भाँति खाट से उठकर अपने दोनांे काँपते कर जोड़े थरथराता खड़ा हो गया। कौन है यह? अपने बाल्य-काल से ही उसने अनेक सिद्ध और कापालिकों को अपने ही आँगन में देखा था। उसकी माता स्वयं तांत्रिक थी। माँ के साथ उसने महाश्मशान में भी अनेक औघड़ों को भयंकर अनुष्ठानों में निमग्न देखा था। अंचल की चौधराइन बहुरा को भी उसने अनेक बार निकट से देखा था, परन्तु ऐसी विकराल स्त्राी-मूर्त्ति की उसने कभी कल्पना भी नहीं की थी। मानवी तो नहीं हो सकती यह, उसने सोचा। यह अवश्य महाश्मशान की जाग्रत शाकिनी या कोई अतिविकट डाकिनी अथवा हाकिनी ही है। अब उसके प्राण नहीं बचेंगे। यह विकटा तो उसे पकड़कर कच्चा ही चबा जाएगी और यह सोचते ही अनायास रोने लगा वह और वह विकटा तिनकौड़ी पर दृष्टि टिकाये पास आती जा रही थी। तभी उसका रौद्र रूप परिवर्तित हुआ और उसके अधरों पर विषाक्त मुस्कान उभर आयी। निकट आकर रुक गयी वह। 'शांत हो जा मूर्ख!' उच्च स्वर में उसने कहा और तत्काल ही तिनकौड़ी का रुदन बलात् रुक गया। उसके दोनों कर अभी भी अभय-याचना में उठे थे और समस्त शरीर पूर्ववत् थर-थर कांप रहा था। 'यूँ काँप क्यों रहा है मूढ़' ! अपेक्षाकृत शांत स्वर में उसने कहा-'मुझसे भयभीत मत हो...शांत हो जा!' कुछ क्षणों तक वह विकटा मौन रही पुनः मुस्कराकर उसने कहा-'यह अंचल, बखरी है न?' 'हाँ माते' ! घिघियाते स्वर में तिनकौड़ी ने कहा, 'आप बखरी-सलोना में ही हैं।' 'तुम्हारी चौधराइन का निवास-स्थल किस दिशा में है पुत्र?' इस बार उसने और भी मृदुल स्वर में प्रश्न किया। कक्ष में इस घड़ी बहुरा के साथ माया तथा पोपली काकी भी उपस्थित थीं। क्रोधाग्नि में बहुरा ने नियंत्रण खो दिया था, परन्तु माया शांत थी। 'स्वयं को नियंत्रित कर पुत्री!' माया ने कहा-'तुम्हारे क्रोधित होने का वास्तव में कोई कारण ही नहीं है...!' पुनः रूककर उसने कहा-'हमारा जामाता हमारे पास लौट रहा है...हमारी प्रिय पुत्री का बिछुड़ा सुहाग पुनः वापस हो रहा है तो तू इस प्रकार रूष्ट क्यों हो रही है?' 'व्यर्थ वाक्य-भ्रम में हमें मत उलझा माया'-बहुरा को रोककर पोपली काकी ने रूष्ट स्वर में कहा। 'मैं स्थिति को उलझा नहीं रही' , पूर्ववत् शांत माया ने कहा-'अपितु सुलझा रही हूँ काकी! क्यों नहीं समझना चाहतीं आप...हमारा प्रिय जमाई राजा और भी समर्थ होकर हमारे पास वापस आ रहा है। ऐसे में हमें उसका स्वागत करना चाहिए अथवा तिरस्कार?' 'वाह री माया!' हाथ चमका कर काकी ने कहा-'कितनी भोली है तू जो इतनी-सी बात भी नहीं समझती कि हमारा भगोड़ा जमाई, जो हमारी फूल-सी बच्ची को ब्याह के तत्काल पश्चात् यूँ ठुकरा कर भाग गया, उसीका पक्ष ले रही है तू? ... अरी माया, वह हमारे अंचल में नहीं, अपने अंचल में पधारेगा, जहाँ उपस्थित होने के पूर्व से ही उसने शक्ति संचित कर रखी है। भला बता तो हमें, भरोड़ा में बाहरी सेनाओं की उपस्थिति का क्या प्रयोजन है?' 'तुम्हारे प्रश्न का उत्तर समय के गर्भ में छिपा है काकी!' माया ने कहा-'इस घड़ी मैं तुम्हारी इस शंका का समाधान नहीं कर सकती, परन्तु मुझ पर विश्वास करो काकी...! मैं जानती हूँ अपने कुँवर को। वह हमारा शत्रु नहीं है।' 'दीदी, तुम मौन ही रहो तो अच्छा है'-बहुरा ने वार्तालाप में हस्तक्षेप करते हुए कहा-'शत्रु की भूमि पर सशस्त्रा सेनाओं ने अपनी सशक्त उपस्थिति प्रदर्शित कर दी है और इसके उपरांत हमारे मुख्य शत्रु ने भी अपनी जलयात्र प्रारंभ की है...तो क्या अर्थ है इसका? ...' कुछ क्षणों तक रुष्ट नेत्रों से माया को देखते रहने के उपरांत उसने पुनः कहा-'तुम चाहती हो हम सब अपने जमाई के लिए, जो वस्तुतः शत्रु है हमारा और हमारे अंचल का... उस के स्वागत-सत्कार की कल्पना में पलकें बिछाकर प्रतीक्षा करती रहें और वह कुटिलता से हमपर प्रतिघात कर दे...क्यों दीदी, यही चाहती हो न...?' 'तुमने अपने अंतर्मन में विष ही विष भर लिया है पुत्री!' माया ने
कहा-' विवाहोत्सव की घड़ी भी जो कुछ अप्रिय घटित हुआ, वह सब भ्रम के माया-जाल के कारण ही हुआ पुत्री, अन्यथा सत्य मान, हमारी प्रिय पुत्री का सुहाग वैसा नहीं, जैसा तुमने और दुर्भाग्यवश काकी ने भी समझ लिया है। तो अब तू क्या चाहती है माया! 'क्रोधित काकी फूट पड़ी-' हम सब अपनी अबोध अमृता को अपने साथ लेकर भरोड़ा चले चलें? ...और अपने प्रिय कुँवर के समक्ष नतमस्तक होकर प्रार्थना करें कि वे हमें क्षमा प्रदान कर हमारी अमृता को अपनी दासी स्वीकार कर लें...! क्यों माया...यही परामर्श है न तुम्हारा! 'क्रोधयुक्त व्यंग्य-वाण के पश्चात् काकी की आकृति और भी कठोर हो गयी।' नहीं दीदी...नहीं...'बहुरा ने निर्णयात्मक स्वर में कहा-' तुम्हारी सहृदयता हमारा समूल नाश कर देगी...मुझे उस दुष्ट को दण्डित करना ही होगा। अपने शत्रु को मार्ग में ही दण्डित कर देगी दीदी! ... जिस गंगा में वह उपस्थित है, उसी की धारा में तुम्हारी बहुरा, अपने शत्रु को जल-समाधि प्रदान कर देगी...जल-समाधि...हा...हा...हा'! वीरा का विकट अट्टहास गूंजा। बहुरा की कटुता के समक्ष माया की ममता हार गयी और उसने संकल्प पूर्वक मंत्रोच्चार करते हुए, अगिनबाण का संधान कर दिया। पोपली काकी की आकृति पर संतुष्टि के भाव उभरे तथा प्रसन्न बहुरा के अधरों पर विजयी मुस्कान छा गयी। विवश माया मौन थी और इसी घड़ी कक्ष में पदार्पण हुआ उस विकटा का, जिसने तीनों को चौंका दिया।' कौन हो तुम? 'बहुरा ने तीव्र स्वर में पूछा। आगंतुका मौन हो मुस्कुरायी।' मैंने तुम्हारा परिचय पूछा था! 'बहुरा ने पुनः कटु स्वर में कहा-' मौन खड़ी यों मुस्कुरा क्यों रही हो...! परिचय दो हमें...कहाँ से आयी हो और कौन हो तुम? आश्चर्य है मुझे'! मुस्कुराते हुए ही कहा उसने-' तुम्हारे द्वार पर अतिथि की ऐसी ही अभ्यर्थना होती है? '...क्षणोपरांत उसने पुनः कहा-' कदाचित् तुम्हीं बहुरा हो...क्यों? अपरिचितों की अभ्यर्थना नहीं की जाती कापालिके', बहुरा ने कहा-' और तुमने मुझे ठीक ही पहचाना, मैं ही बहुरा हूँ। अभ्यर्थी को तुमने जान लिया और अब मुझे अपना परिचय दो...कौन हो तुम? उत्कल में सभी मुझे उग्रचण्डा के नाम से जानते हैं बहुरा! और मैं। 'मध्य में ही तड़प कर हस्तक्षेप किया बहुरा ने-' बस...उग्रचण्डा...बस, मौन हो जा अब तू! उत्कल की है इतना ही ज्ञात होना पर्याप्त है, शेष मैं समझ गयी। क्या समझ गयी बहुरा? ...'पुनः मुस्कराकर कहा उग्रचण्डा ने-' मैंने तो अभी मात्र अपने निवास-स्थल की ही चर्चा की है और तुमने मेरे आगमन का उद्देश्य भी समझ लिया? उत्कल हमारा शत्रु-राष्ट्र है, उग्रचण्डा! '-बहुरा ने तीव्र स्वर में कहा।' शत्रु-राष्ट्र! 'चकित होने का अभिनय किया उग्रचण्डा ने-' वह क्यों वीरा? हमारे राज्य ने भला तुम्हारा क्या अहित किया है? मेरे परम शत्रु का मित्र है तुम्हारा राष्ट्र! '-बहुरा ने रोषपूर्ण स्वर में कहा' शंखाग्राम के साथ-साथ तुम्हारे उत्कल नरेश भी हमारे जामाता के हितैषी बन गये हैं तथा मेरे पराभव की कामना से सेना सहित राज भरोड़ा में...', कहते-कहते अनायास मौन हो गयी बहुरा। क्षणिक अंतराल के बाद पुनः कहने लगी-' परन्तु यह सब तुम्हें क्यों बता रही हूँ मैं ...तू कह, हमारे अंचल में आने का प्रयोजन क्या है तुम्हारा? सर्वप्रथम तो यह जान ले बहुरा'-उग्रचण्डा ने कहा-' तूने सत्य कहा, राजभरोड़ा में शंखाग्राम की सेना के साथ ही उत्कल के रणबाँकुरे वीर भी उपस्थित हैं। उत्कल-नरेश भी अपने समस्त परिजनों एवं सेनापति सहित पधार चुके हैं। उत्कल सेनापति के साथ एक तांत्रिक चंद्रा भी भरोड़ा में उपस्थित है बहुरा...परन्तु इनमें से कोई भी तुम्हारा शत्रु नहीं। 'हँस पड़ी बहुरा। उसका भयंकर अट्टहास कक्ष में गूंजने लगा। हँसी रुकी तो उसने कहा-' मेरे शत्रु अंचल में सेना का जमावड़ा यों ही हो रहा है, क्यों...? मुझे बहलाने आयी है तू ...अथवा मुण्डमाल के अपने इस शृंगार से मुझे भयभीत करना चाहती है? 'पोपली काकी एवं माया अब तक मौन धारण किये शांत खड़ी थी।' मेरा प्रयोजन न तुम्हें बहलाना है और न भयभीत करना। तो और क्या प्रयोजन है तुम्हारा? तुमसे मित्रता! 'मुस्कराती उग्रचण्डा ने कहा।' ठहरो पुत्री! 'प्रथम बार पोपली काकी ने अपना मौन तोड़ते हुए कहा-' उग्रचण्डा से मुझे बात करने दो! 'बहुरा को रोककर काकी ने उग्रचण्डा से कहा-' तू भी मेरी पुत्री के समान ही है उग्रचण्डा! बहुरा सहित समस्त अंचल मुझे पोपली काकी सम्बोधित करता है और यह है माया, बहुरा की नृत्य-प्रशिक्षिका तथा भैरव-चक्रीय नृत्य की विशेषज्ञा। 'उग्रचण्डा ने काकी सहित माया का अभिवादन किया तो काकी ने पुनः कहा-' हम सभी अपने अंचल में तुम्हारा स्वागत करती हैं उग्रचण्डा! मैं नहीं जानती तुम्हारे आगमन का प्रयोजन क्या है? मित्र-भाव से आयी हो तो तुम्हारा पुनः स्वागत है परन्तु शत्रुतावश आयी हो
तो तत्काल इस स्थल से पलायन ही तुम्हारे लिए उचित है। ... वैसे यह स्पष्ट जान लो कि भरोड़ा का राजकुँवर हमारा शत्रु है और शत्रु का मित्र तथा सहायक भी हमारा शत्रु ही है उग्रचण्डा और अब मैं आशा करती हूँ कि शब्दाडम्बर से मुक्त होकर अपने आगमन का स्पष्ट उद्देश्य हमें बताओ! अच्छा लगा मुझे...अच्छा लगा काकी'! उग्रचण्डा ने सहज स्वर में कहा-' आपकी स्पष्टवादिता ने मुझे प्रभावित किया। मैंने आपलोगों की भाँति साधना तो नहीं की है...परन्तु मैंने ब्रह्मपिशाचों को सिद्ध किया है काकी। उत्कल राष्ट्र में मैं जग से निर्लिप्त रहती आयी हूँ। मैंने पूर्व में कभी भी उस राष्ट्र के राजपरिवार में रुचि नहीं ली, परन्तु विगत दिनों घटित घटनाक्रमों से निर्लिप्त भी नहीं रह पायी मैं। आप कदाचित् महान् कापालिक टंका को अवश्य ही जानती होंगी काकी। जानती हूँ...तुम कहती जाओ', शांत स्वर में कहकर काकी मौन हो गयीं।' आपके कुँवरश्री के साथ कापालिक टंका के दर्शनों का प्रथम अवसर मुझे वहीं, अपने उत्कल राज्य में ही प्राप्त हुआ काकी। तो फिर? 'काकी ने पूर्ववत् कहा।' जहाँ तक मेरे स्वयं का प्रश्न है'-उग्रचण्डा ने कहा-' मैं तो टंका के समक्ष अत्यंत तुच्छ साधिका हूँ, परन्तु आपके कुँवरश्री के प्रति जब मैंने टंका का दासत्व भाव देखा तो सत्य मानिये काकी, मैं विस्मित हो गयी। यह कुँवर हैं कौन और इनका विग्रह क्या है? ...और तभी से मैंने अपने ब्रह्मपिशाचों के माध्यम से कुँवरश्री को कुछ-कुछ जाना है। मैं नहीं जानती ऐसे अद्भुत् कुँवरश्री के प्रति आपकी शत्रुता क्यों है...और मेरे आगमन का वास्तव में प्रयोजन भी यही है काकी। 'काकी के अधरों पर विषाक्त मुस्कान उभर आयी। रहस्यमयी मुस्कान के साथ काकी ने कहा-' हमारा शत्रु तुम्हारा आराध्य है उग्रचण्डा...! इतनी श्रद्धा भरी है उसके लिए, फिर तो तुम्हारे लिए अत्यंत दुख भरा समाचार है हमारे पास। 'क्षण भर मौन रह कर काकी ने पुनः कहा-' तुम्हारे आगमन के क्षण भर पूर्व ही मेरी पुत्री ने कुँवर पर, अमोघ अग्निबान का संधान सम्पन्न किया है उग्रचण्डा! कुँवर की नौकाएँ गंगा की धारा में हैं और इसी शीतल जल-धारा में तप्त होकर निश्चित दग्ध हो जाएँगी वह...'कहते ही हँसकर उसने पुनः कहा-' भस्म हो जाएगा तुम्हारा कुँवर और साथ ही भस्म हो जाएंगे उसके साथ उपस्थित, उसके समस्त संगी-साथी! 'कह कर काकी ने पुनः अट्टहास प्रारंभ कर दिया। काकी के अट्टहास के मध्य ही बहुरा ने माया से कहा,' हमारे अतिथि को अपने आतिथ्य में ले जाओ दीदी! 'और कह कर मुदित बहुरा हँस पड़ी। माया ने मुस्करा कर उग्रचण्डा को देखा। आँखों ही आँखों में भावों का आदान-प्रदान हुआ और बहुरा के कक्ष से दोनों बाहर निकल गयीं।' तुम चिन्तित न हो उग्रचण्डा! 'माया ने सहजतापूर्वक कहा,' इसने पूर्व में भी हमारे प्रिय कुँवर पर अपने अमोध मारण मंत्र का संधान किया था, परन्तु पूर्णरूपेण असफल रही थी वह। मैं तनिक भी चिन्तित नहीं हूँ! 'उग्रचण्डा ने कहा-' सर्वशक्तिमान टंका का आराध्य है आपका कुँवर। उनपर तामसी तंत्रों का कोई संधान, कदापि प्रभावी नहीं हो सकता...यह तो मैं सम्यक् प्रकार जानती हूँ। 'कह कर विचारमग्न उग्रचण्डा कुछ क्षण मौन हो गयी तथा पुनः उसने कहा,' परन्तु फिर भी मैं विस्मित हूँ। अपने जिस जामाता पर बहुरा को गर्व करना था, उसी को अपना शत्रु मान बैठी है यह। यही तो दुर्भाग्य है मेरी पुत्री का'माया ने कहा-' भ्रमित हो गयी है वह ...परन्तु उग्रचण्डा! यह तो कहो... हमारे प्रिय कुँवर के साथ टंका भी उसकी नौका में उपस्थित है क्या? तो तुम भी परिचित हो उससे? देखा कभी नहीं', माया ने कहा,' परन्तु मुझे ज्ञात है। अत्यंत दुर्दान्त है वह। इस युग में भी नरबलि देने वाला वह एकमात्र तांत्रिक है। ऐसे तांत्रिक से मेरे कुँवर का भला क्या नाता हो सकता है? तुमने जिस घड़ी से कहा है, मैं तभी से इसी पर विचार कर रही हूँ। वह तो मैं नहीं कह सकती परन्तु, मैंने स्वयं देखा है। टंका ने कुँवरश्री को अपना स्वामी मान लिया है। आश्चर्य है मुझे! आश्चर्य की आवश्यकता नहीं'...उग्रचण्डा ने कहा,' इस घड़ी मैं कुँवरश्री की मंगल सूचना प्राप्त करना चाहती हूँ माया...! मुझे किसी एकांत कक्ष में ले चलो। ' बिछाये आतुरता में प्रतीक्षारत था और इन समस्त हलचलों से परे कापालिक टंका ने जलधारा की दूसरी ओर स्थित हिंसक वन्य-जीवों से भरे धनघोर वन के मध्य अपना आसन जमा लिया था। टंका की उपस्थिति से अनभिज्ञ समस्त जन शिविरों में मगन थे। उत्कल नरेश के शिविर में भरोड़ा के राजाजी के साथ राजरत्न मंगलगुरु विराजे थे। आमोद-प्रमोद के मध्य वार्तालाप का केन्द्र था मंगलगुरु के प्रशिक्षित काग। उत्कल नरेश के समक्ष ही मंगल के काग निरंतर संदेश पहुँचा रहे थे। 'आश्चर्य है मुझे!' उत्कल नरेश ने मंगलगुरु से कहा, 'आपकी इस कला ने मुझे विस्मित कर दिय
ा है, राजरत्न! यह कैसे संभव है कि काग जैसा पक्षी, मनुष्य की भाषा का इतना स्पष्ट उच्चारण करे?' उत्कल नरेश की बात पर राजरत्न को हँसी आ गयी। हँसते हुए ही उन्होंने कहा, 'तोतों को तो आपने अवश्य सुना होगा राजन्...कई तोते हमारी भाषा का स्पष्ट एवं शुद्ध उच्चारण करते हैं।' 'हाँ करते हैं' , उत्कल नरेश ने स्वीकार किया, 'हमारे राजमहल में ही वे हमें नित्य' शुभ प्रभात'कहते हैं।' 'तो हमारे कागों पर विस्मय क्यों है महाराज' ! राजरत्न ने कहा, 'थोड़े प्रशिक्षण की आवश्यकता है बस...और प्रमाण तो आपके समक्ष ही है।' वार्तालाप आगे बढ़ता कि तभी कांव-कांव करता एक काग आकर मंगल के स्कंध पर बैठ गया। मंगल ने मुस्कराते हुये उसे अपने हाथ पर ले कर कहा, 'क्या समाचार है कहो?' 'कांव-कांव...! समाचार अशुभ है!' काग ने अपनी आँखें मटमटाते हुए कहा, 'कुँवर की नौकायें तांत्रिक अग्नि की ज्वाला के मध्य फँसी हैं... कांव...कांव...कांव...! उनकी सहायता करें मंगलगुरु, सहायता करें!' अपनी बात कहकर वह पंख फड़फड़ाता उड़ गया। शिविर में कुछ घड़ी पूर्व तक उपस्थित हास-परिहास का वातावरण अचानक शोकमय हो उठा। 'अब क्या होगा राजरत्न?' आतुर स्वर में भरोड़ा के राजा ने कहा। 'शांत रहें राजाजी!' सहज स्वर में कहा राजरत्न ने, 'बहुरा की तामसी शक्तियाँ हमारे प्रिय कुँवर पर निष्फल हो जायेंगी। लाख जतन करले वह तामसी, परन्तु हमारे कुँवर का बाल भी बाँका न कर पायेगी वह। आप सब निश्चिंत रहें। मुझे विश्वास है, शीघ्र ही शुभ समाचार आ जाएगा।' इसी घड़ी अति प्रसन्न वज्रबाहु एवं चंद्रचूड़ के साथ कापालिक टंका ने शिविर में प्रवेश कर सबको विस्मित कर दिया। शंखाग्राम से कुँवर के प्रस्थान का यह द्वितीय दिवस था। संध्या होने को थी। सूर्य अस्ताचल की ओर अग्रसर था। लहरों पर सूर्य की स्वर्णिम किरणें बिखरी थीं तथा नौकाओं के ऊपर, उड़ते पंछी कलरव कर रहे थे। राजमाता के आमंत्रण पर कामायोगिनी, शंखाग्राम की राजकीय नौका पर विराजमान थीं, तथा रक्षक नौकाएँ त्रिकोण की व्यूह-रचना में दोनों नौकाओं को घेरे, गंगा की धारा में निर्भय चली जा रही थीं। तभी सबकी दृष्टि, सुदूर धारा पर प्रज्वलित, अग्नि की लपलपाती ज्वाला पर पड़ी। धारा के मध्य से दोनों किनारों तक फैली ज्वाला के कारण रक्षक नौकाओं ने तत्काल लंगर डालने की प्रक्रिया प्रारंभ कर दी। 'हमारे स्वागत का यह प्रथम चरण है देवी!' भुवनमोहिनी ने स्मित नेत्रों से कामायोगिनी को देखते हुए कहा। 'उत्तर में कामायोगिनी मुस्कुरायीं जबकि, राजमाता राजराजेश्वरी उद्विग्न हो गयीं।' यह कैसी विपत्ति है? 'राजमाता ने स्फुट स्वर में स्वतः कहा।' यह विपत्ति नहीं'! भुवनमोहिनी ने हँसते हुए कहा,' हमारा स्वागत है माताश्री...! 'कहकर उन्होंने कुँवर पर दृष्टि डालकर उससे कहा,' क्यों प्रिय...! माता के इस आत्मीय स्वागत से तुम प्रसन्न तो हो न? तुम लोग परिहास कर रही हो'! व्यग्र राजमाता ने हस्तक्षेप किया।' सत्य कहा था टंका ने...! इस घड़ी उसकी उपस्थिति आवश्यक थी। इस संकट से वही हमें मुक्त करा सकता था पुत्री, परन्तु तुमने उसकी बात स्वीकार कर व्यर्थ ही उसे विदा कर दिया। यों व्यथित न हों माते! 'शांत स्वर में कुँवर ने कहा,' इस घड़ी हम पर कोई विपत्ति नहीं है। विपत्ति नहीं तो क्या है यह? 'राजमाता ने कहा,' हमारी समस्त रक्षक नौकायें रुक चुकी हैं। इस भीषण अग्नि-शिखाओं से हम भला कैसे निकलेंगे पुत्र? 'इसी घड़ी नाविक प्रमुख हृदयनारायण ने आकर कहा,' हमारे लिए क्या आज्ञा है राजमाता? हमारी रक्षक नौकाएँ लंगर डाल कर रुक चुकी हैं...आदेश हो तो हम। 'परन्तु कामायोगिनी ने मध्य में ही हस्तेक्षप करते हुए कहा,' रक्षक नौकायें रुकी रहेंगी। इस नौका को आगे करके उन्हें निर्देश दो...समस्त नौकाएँ हमारे पीछे-पीछे रहेंगी। चिन्ता की कोई आवश्यकता नहीं...पूर्ववत् चलते रहो। 'उलझनपूर्ण नेत्रों से हृदयनारायण ने राजमाता को देखा। कदाचित् वह उनका अनुमोदन प्राप्त करना चाहता था।' देवी के निर्देश का पालन करो हृदय! 'उसके मनोभाव लक्ष्य कर भुवनमोहिनी ने कहा-' माताश्री का भी यही आदेश है! 'राजमाता राजराजेश्वरी हतप्रभ थीं, कुँवर शांत एवं दोनों देवियों की आकृति पर मुस्कान फैली थी।' जो आज्ञा! 'कह कर हृदयनारायण तत्काल चला गया। निर्देशानुसार राजमाता की नौका आगे बढ़ गयी। शेष नौकाएँ कतारबद्ध होकर कामायोगिनी की नौका के पीछे चलती रहीं।' मुझे आदेश दें देवी! 'कामायोगिनी ने भुवनमोहिनी से कहा,' तो मैं इस अग्नि को पुनः उसी के पास प्रेषित कर दूं, जिसने इसका संधान किया है। यह उचित नहीं है देवी! 'भुवनमोहिनी ने प्रतिवाद किया,' वे हमारी सम्बंधी हैं। उनके प्रति हमारे अंतस् में कोई द्वेष नहीं। परन्तु फिर भी हमें प्रतिकार तो करना ही होगा! 'दृढ़ स्वर में कामायोगिनी ने कहा।' क्या कहते हो प्रिय? 'भुवनमोहिनी ने
कुँवर से कहा,' तुम्हारी क्या इच्छा है? निर्विकार कुँवर ने कहा, 'यह सत्य है कि हम किसी के शत्रु नहीं परन्तु परिस्थितिवश मेरी माता इस घड़ी भ्रमित हैं। हमारी यात्र में उनके द्वारा उत्पन्न यह प्रथम एवं अंतिम प्रतिरोध नहीं। अपनी सम्पूर्ण शक्ति लगाकर वे प्राण-पण से अनवरत अवरोध उत्पन्न करती रहेंगी।' 'तो इस स्थिति में हमें प्रतिकार तो करते ही रहना होगा न प्रिय!' मंद हासयुक्त स्वर में भुवनमोहिनी ने कहा। 'कोई आवश्यकता नहीं'। पूर्ववत् शांत कुँवर ने कहा। 'तो हम स्वयं को दग्ध हो जाने दें' , कामायोगिनी ने कहा, 'क्या अर्थ है तुम्हारा?' 'अग्नि हमारी शत्रु नहीं है देवी!' 'परन्तु दग्ध करना तो उसकी प्रकृति है वत्स!' कामायोगिनी ने पुनः प्रतिवाद किया। 'प्रकृति की ही तो लीला आज देखनी है...!' अधूरी पंक्ति कह कर मौन हो गया कुँवर! कामायोगिनी उलझ गयीं, परन्तु भुवनमोहिनी हँस पड़ी। हँसते हुए भुवनमोहनी ने कामायोगिनी से कहा, 'व्यर्थ विवाद में उलझ गयीं हम, अब तो और कुछ न कहूँगी...और प्रकृति की नहीं, अपने कुँवर की लीला देखूंगी मैं।' कामायोगिनी तो मौन हो गयीं परन्तु राजमाता की व्यग्रता और भी तीव्र हो गयी। अब तक अग्नि की लपटें और भी पास आ गयी थीं। राजमाता के नेत्रों में आतंक की छाया उभरी। वे कुछ कहना ही चाह रही थी कि कुँवर ने अपनी आँखों से ही उन्हें आश्वस्त कर दिया और शंखाग्राम की नौका ज्वाला में प्रविष्ट हो गयीं। आश्चर्य! अग्नि की लपटों में पूर्णतया प्रविष्ट हो चुकी नौका सहजता से आगे बढ़ रही थी। कुछ भी तो न दग्ध हुआ और न तप्त और कुँवर की नौका ने सुरक्षित अग्नि-ज्वाला पार कर ली। कामायोगिनी की नौका भी सुरक्षित रही तथा अन्य रक्षक नौकाएँ भी क्रमशः पार होती चली गयीं। शंखाग्राम की राजकीय नौका में द्वितीय रात्रि सुखपूर्वक व्यतीत हो गयी। बहुरा ने कदाचित् अपने प्रथम अगिनबाण की सफलता को ही अचूक मानकर पुनः प्रहार नहीं किया था। नित्यक्रिया सम्पन्न कर राजमाता, नौका के ऊपर खड़ी होकर उदित होते सूर्य को निहार रही थीं तभी क्रमशः कामायोगिनी, भुवनमोहिनी तथा अंत में कुँवर भी आ पहुँचे। एक साथ सभी ने यहीं प्रातःकालीन जलपान ग्रहण किया। सूर्योदय हो चुका था। कुँवर के आदेश से इसी घड़ी प्रधान नाविक हृदयनारायण आ उपस्थित हुआ। 'हृदय!' कुँवर ने उसे सम्बोधित कर कहा, 'गंगा माता की लहरों पर अब हमारी यात्र समाप्त होने वाली है। दो ही घड़ी में पूर्व की ओर जो दूसरा मार्ग मिलेगा, वहीं से हमारा मार्ग परिवर्तित होगा। उस स्थल पर समस्त नौकाओं को रुक जाना है।' 'जो आज्ञा कुँवर जी!' विनीत स्वर में उसने कहा, 'मैं तत्काल सबको सूचित कर देता हूँ।' सबों का अभिवादन करके हृदयनारायण चला गया तो भुवनमोहिनी ने कुँवर से पूछा, 'तुम्हें तो मार्ग परिवर्तन का आदेश भर देना था...उस स्थल पर रुकने का क्या प्रयोजन है प्रिय?' भुवनमोहिनी के प्रश्न का उत्तर न देकर स्मित-भाव से कुँवर ने आसन त्यागा और मंद गति से चलता हुआ नौका के किनारे जा कर खड़ा हो गया। कुँवर के मौन से उत्सुक भुवनमोहिनी ने कुँवर के समीप जाकर कहा, 'मौन क्यों हो गए प्रिय! इच्छा क्या है तुम्हारी?' 'आपसे तो कुछ भी छिपा नहीं है देवि' , कुँवर ने कहा, 'जिस दिशा में आगे यात्र करनी है, पूर्व में माता कमला की निर्मल धारा वहीं प्रवाहित हुआ करती थी।' 'क्या अर्थ है तुम्हारा!' उत्सुक भुवनमोहनी ने कहा, 'अब क्या कमला मैया की धारा वहाँ प्रवाहित नहीं होती?' 'हाँ देवि! कमला मैया ने अपना मार्ग परिवर्तित कर लिया है।' आश्चर्य है, फिर हमारी सेना किस मार्ग से पहुँची? ' कुँवर ने वज्रबाहु के पहुँचने का मार्ग तथा भरोड़ा में उसके द्वारा सम्पन्न कार्यकलापों से देवी को विस्तार में अवगत कराया तो मुग्ध देवी से उनके अंतस् ने कहा-योग की जिस अवस्था पर उसका शिष्य अवस्थित हो चुका है, वहाँ स्थित योगी तो स्वतः ही सर्वज्ञ हो जाता है। परन्तु उसका प्रिय शिष्य, सूखी नदी के समीप रुकना क्यों चाहता है? इसका कोई उत्तर उनके पास नहीं था। दोनों मौन खड़े गंगा की कलकल करती धारा को निहारते रहे। कापालिक टंका की आशंका सत्य सिद्ध हो चुकी थी। परन्तु उसका तंत्र-प्रहार उसके स्वामी पर होगा, ऐसा तो उसने सोचा ही नहीं था। यद्यपि अपने स्वामी की सुरक्षा के प्रति उसे तनिक भी शंका नहीं थी, तथापि बहुरा के दुःसाहस ने उसे चकित कर दिया था। कदाचित् उसकी शक्ति को उसने कम करके आँका था। इसके पूर्व की क्रुद्ध बहुरा का द्वितीय प्रहार भरोड़ा पर हो, उसे तत्काल ही अंचल को सुरक्षित कर देना होगा। परन्तु तांत्रिक अनुष्ठान प्रारंभ करते ही, वह चौंका। आश्चर्यचकित होकर उसने अपने मानस-पटल पर देखा, भरोड़ा अंचल की प्रत्येक दिशा, उप-दिशा, आकाश एवं भूमि की रक्षा में, एक अज्ञात किन्तु अपूर्व शक्ति उपस्थित है। मुग्ध टंका अपने स्वामी के सौरभ पर नतमस्तक ह
ो गया। बंद पलकों को खोलकर उसने उद्घोषणा की, सम्पूर्ण अंचल अभेद्य कवच मेंसुरक्षित है। उसे अब कोई चिन्ता नहीं। उसके स्वामी आज ही पधारेंगे। स्वामी के स्वागत में मुदित टंका के पग तीव्र गति से जलधारा की ओर बढ़ गए. राज भरोड़ा के वातावरण में उत्साह का अतिरेक छाया था। कुँवरश्री के स्वागत में वज्रबाहु ने पांच कोस लम्बे वन के मध्य निर्मित नवीन मार्ग पर शीतल जल का छिड़काव कराया था। सम्पूर्ण मार्ग में अनेक तोरण द्वार बनवाए गए थे। भरोड़ा के नर-नारी और आबाल-वृद्ध, दो घड़ी पूर्व से ही वन-मार्ग के दोनों किनारों पर स्वागत में पंक्तिबद्ध होने लगे थे। स्वयं भरोड़ा के राजा, पुत्र के स्वागत में अपनी रानी एवं अन्य परिजनों सहित जल धारा की ओर प्रस्थान कर चुके थे। उत्कल-नरेश ने भी अपने पुत्र चंद्रचूड़, सेनापति, अमात्य एवं सशस्त्रा योद्धाओं सहित अपनी भव्य शोभा-यात्र प्रारंभ कर दी थी। जल-धारा के किनारे की विस्तृत भूमि को समतल कर, वज्रबाहु ने भव्य स्वागत-द्वार का निर्माण कराया था तथा स्वागत-द्वार के ऊपर शंखाग्राम, उत्कल एवं कामरूप की भव्य ध्वजायें लहरा रही थीं। भरोड़ा के राजा विश्वम्भरमल्ल जहाँ प्रफुल्लता में छलक रहे थे वहीं रानी गजमोती पूर्वरूपेण शांत और मौन थीं। 'पुत्र के आगमन पर आपने यूँ मौन क्यों धारण कर लिया है?' राजा ने विनोदी स्वर में कहा, 'मार्ग में प्रतीक्षारत अपने अंचल-वासियों को देखिए...! कैसे आनंद-मग्न होकर, सभी आपके पुत्र के स्वागत में खड़े हैं और आप हैं कि इस उत्सव की घड़ी में भी।' वाक्य सम्पूर्ण न कर पाये राजा जी, क्योंकि रानी की आँखें छलकने लग गयी थीं। 'अरे! ... यह क्या!' विस्मय से कहा राजा ने, 'आपने तो रुदन भी प्रारंभ कर दिया...बात क्या है...मुझे नहीं बतायेंगी?' 'इस बार अपने आँचल मेंबांध लूंगी उसे!' रूंधे गले से रानी ने कहा, 'कहीं नहीं जाने दूंगी अब। आप पिता हैं...आप क्या जानें पुत्र जब आँखों से दूर होता है तो माँ पर क्या बीतती है।' कुछ न कह सके राजा जी. अपने पीताम्बर से उन्होंने रानी के अश्रु पोंछने चाहे तो उनका हाथ रोक कर रानी ने कहा, 'चलिए, छोड़िए...अब आप अश्रु पोछना चाहते हैं मेरा...! उस घड़ी क्या किया था आपने? जब मेरा पुत्र हमें छोड़ कर जा रहा था और रो-रो कर मैं निढाल हो गयी थी!' क्या कहते राजा जी? मौन आँखों से रानी को निहारते रह गए. 'बधाई स्वीकार करें राजरत्न!' वैद्यराज रसराज ने कहा, 'आपका प्रिय शिष्य विभूति-सम्पन्न होकर आज वापस आ रहा है।' हँस पड़े मंगलगुरु। 'आपको भी बधाई है वैद्यराज' , हँसते हुए ही मंगलगुरु ने कहा, 'वह क्या आपका शिष्य नहीं?' 'मुझे क्यों छोड़ दिया राजरत्न!' सेनापति भीममल्ल ने प्रतिवाद किया, 'शस्त्रा-संचालन की विद्या में वह मेरा भी शिष्य है।' 'आपको भी बधाई!' वैद्यराज ने मुदित स्वर में कहा फिर तीनों हँस पड़े। 'पिताश्री!' चंद्रचूड़ ने अनुरोध किया, 'इस घड़ी कुँवरश्री गंगा की मुख्य धारा में ही हांेगे। मेरी इच्छा है कि मैं अपनी नौका से आगे जाकर, वहीं उनकी अगवानी करूँ।' अति उत्तम! 'उत्कल नरेश ने उत्साह में कहा,' हम सभी तुम्हारे साथ चलेंगे पुत्र। हमारे पहुँचते ही इसकी व्यवस्था करो। ' तत्काल ही अश्वारोही सेनापति को, तद्नुसार निर्देश प्राप्त हो गये। उसके रण-बाँकुरों के साथ-साथ कापालिक चंद्रा भी मंथर-गति से चला जा रहा था। भरोड़ा आगमन के पश्चात् घटनायें इतनी तीव्र गति से घटित हो रही थीं कि सेनापति भ्रमित हो कर रह गया था। टंका के कारण, बहुरा के कोप से सभी सुरक्षित हो चुके थे और जहाँ तक स्वयं कुँवर का प्रश्न था, उन्हें सुरक्षा की आवश्यकता ही नहीं थी। कैसा अभागा है वह, उसने सोचा, सौभाग्य का अवसर पाकर भी उसका भाग्य चूक गया। यह तो अच्छा हुआ कि उसके विचार, उसके अंदर ही दबे रह गए, अन्यथा उसके प्राण ही संकट में पड़ जाते। अब यह चंद्रा उसे बोझ लगने लगा था। व्यर्थ ही उसने इस दो कौड़ी के तांत्रिक के लिए इतने पापड़ बेले और इतना अनुनय-विनय किया। अश्व पर आसीन सेनापति के मानस में, चंद्रा का एक-एक शब्द हथौड़े की तरह चोट करने लगा। उसे स्वयं पर घृणा होने लगी। उसने चंद्रा जैसे मदारी का तिरस्कार सहन कर लिया था। उसे तो उसी पल इस दुष्ट का वध कर देना था। धिक्कार है मुझे...! धिक्कार है! दूसरे अश्व पर बैठा चंद्रा और ही विचारों में मग्न था। उसने तो निश्चय कर लिया था कि बहुरा की क्रोधाग्नि में वह घृत का कार्य करेगा और इस दुष्ट सेनापति को सहज ही अपने कुकृत्यों का दण्ड प्राप्त हो जायेगा। परन्तु टंका ने समस्त परिस्थिति ही बदल कर रख दी अन्यथा कुँवर से पराजय की स्थिति में बहुरा का क्रोध अवश्य ही इस अंचल को जला देता। ऐसे ही विचारों में उलझा, चंद्रा चला जा रहा था कि वन्य-प्रदेश का मार्ग समाप्त हो गया। जलधारा के किनारे पहुँचते ही उसके विचारों का प्रवाह भी थम गया
। उत्कल नरेश की आज्ञा सुनते ही वज्रबाहु प्रसन्न हो गया। उसकी भी यही इच्छा थी कि वह स्वयं कुँवरश्री का स्वागत गंगा की मुख्य धारा में उपस्थित होकर करे। तत्काल ही तद्नुसार व्यवस्था होने लगी। भरोड़ा के राजा जी को भी उत्कल नरेश का विचार भा गया और उन्होंने भी साथ चलने की इच्छा व्यक्त कर दी और नदी किनारे की इन हलचलों के मध्य, टंका का शरीर कब जलधारा में प्रविष्ट हो गया, किसी ने न जाना। निर्देशानुसार हृदयनारायण ने जिस स्थल पर लंगर डाला वहाँ दूसरी दिशा से आती एक अन्य जलाधारा, गंगा एवं कौशिकी का स्पर्श कर पूर्व की ओर प्रवाहित हो रही थी। इसके जल का वर्ण गंगा की धारा से अलग था। पास ही इसी दिशा की ओर, एक अन्य जल-विहीन सूखी नदी दिखाई दे रही थी। कुँवर ने अपने दोनों कर जोड़ कर इस सूखी नदी को प्रणाम किया। उसकी दोनों पलकें झुक कर बंद हो गयीं। 'हे माता!' उसने निःस्वर प्रार्थना की, 'हमारे अंचल की तुम्हीं प्राणधारा हो! तुम्हारा ही आश्रय लेकर हमारे कृषक अपने खेतों में अन्न उगाते हैं और तुम्हारे ही जल से हमारा जीवन-यापन होता है। हमारे व्यापार और वाणिज्य का आधार भी तुम्हीं हो माता! तुम्हारी ही गोद में असंख्य जलचरों का जन्म एवं पोषण भी होता है। जब से तुम विमुख हुई हो, तब से अंचल की कोख ही उजड़ गयी है। यद्यपि अपने पुरूषार्थ से हमारे कटिबद्ध परिजनों ने, तुम्हारे परिवर्तित मार्ग तक, अपनी पहुँच बना ली है तथापि तुम्हारी अनुपस्थिति ने हमारे अंचल की आकृति मलिन कर दी है माते! हे माता! मैं अंग का पुत्र नटुआ दयाल, अपने दोनों कर जोड़ कर प्रार्थना करता हूँ कि यदि तुम मुझ पर प्रसन्न हो तथा, यदि मैंने अपने जीवन में कुछ भी पुण्य किया हो, तो हे माता! मेरे इस अंचल तथा अंग जनपद में ही नहीं, वरन इस धरा पर कहीं भी तुम, हम से विमुख मत होना माता...विमुख मत होना।' कुँवर के मानस पटल पर इसी क्षण नीलवर्णी प्रभा उदित हुई और कमला माता की स्पष्ट आकृति उभर आयी। उनके नेत्रों में स्नेहयुक्त वात्सल्य भरा था और अधरों पर स्मित मुस्कान। उनके नेत्रों ने हौले से अनुमोदन का भाव प्रकट किया तथा मुस्कुराती हुयी माता अदृश्य हो गयीं। विभोर कुँवर के नेत्र खुले। कामायोगिनी एवं भुवनमोहिनी के साथ-साथ कापालिक टंका उसके समक्ष उपस्थित था। 'मित्र तुम!' स्मित कुँवर ने कहा, 'कहो क्या समाचार लाए हो?' टंका से कह कर कुँवर ने पुनः भुवनमोहिनी से कहा, 'माता ने पुत्र की विनती स्वीकार कर ली है देवी! हृदय नारायण से कहें वह इसी सूखे मार्ग की ओर नौका बढ़ाए.' भुवनमोहिनी मुस्करायी परन्तु कापालिक टंका ने आश्चर्य से कहा, 'इस मार्ग में स्वामी?' 'हाँ मित्र!' कुँवर ने कहा, 'हमारी यात्र इसी मार्ग से होगी!' कुछ न कह सका टंका परन्तु उसके नेत्रों में उलझन का भाव और भी सघन हो गया। भुवनमोहिनी जा चुकी थीं। आश्चर्य से भरा टंका और उत्सुक कामायोगिनी वहीं खड़ी रहीं। कुँवर का आदेश सर्वोपरि था। लंगर उठाये जाने लगे। नौका की दिशा पूर्व की ओर मोड़ दी गयी और शंखाग्राम की राजकीय नौका सूखी नदी की दिशा में बढ़ चली। समस्त चौंसठ विद्याओं का सिद्ध, दुर्दांत कापालिक टंका, युगों-युगों की साधिका कामायोगिनी तथा शतदल-सह कमल नृत्य की ज्ञाता भुवनमोहिनी ने मुग्ध होकर देखा, नौका के आगे-आगे सूख चुकी नदी की भूमि पर, कमला का जल-प्रवाह उत्पन्न होता गया और नौका बढ़ती गयी। कुँवर के चरणों में नतजानु होकर कहा टंका ने, 'स्वामी! आप तो स्वयं सर्वज्ञ हैं। आपको तो भली-भाँति ज्ञात ही है कि आपके परिजन नौकाओं के द्वारा किस मार्ग से आने वाले हैं। गंगा की धारा में आपको न पाकर वे कितने उद्विग्न हो जायेंगे...मुझे आज्ञा दें स्वामी तो, मैं तत्काल उनकी नौका यात्र स्थगित करूँ!' कुँवर ने कुछ न कह कर अपने नेत्रों से मूक स्वीकृति दे दी। कापालिक टंका के आगमन के पूर्व ही चतुर्दिक् शोर मच गया। कमला मैया की धारा पुनः कलकल करती प्रवाहित होने लगी है। दावानल की भाँति प्रसारित इस समाचार ने सबके हर्ष को द्विगुणित कर दिया। सूखी नदी पर बंधी नौकाएँ, कमला की धारा पर, ऊपर उठ आयीं। पंचकोसी वनमार्ग के किनारे खड़े लोग, हर्षोन्माद में दौड़ पड़े! उत्कल नरेश एवं राजा विश्वम्भर मल्ल अपने लोगों के साथ अपनी-अपनी नौकाओं में जाने ही वाले थे कि इस समाचार ने सबको हतप्रभ कर दिया और इसी घड़ी कापालिक टंका ने उपस्थित होकर उन्हें कुँवर की सूचना दे दी। कुँवरश्री की नौकाएँ, अंचल की मूल धारा में ही आ रही हैं यह ज्ञात होते ही हर्षित होकर तत्काल सभी लौट पड़े। काला पहाड़ तथा झिलमा खबास! दोनों ने मिलकर अपनी विशाल नौका को सम्हाल लिया। पारिश्रमिक लिए बिना, उन्होंने अंचल के लोगों को पार पहुँचाना शुरु कर दिया। यह देखते ही अन्य नाविकों ने भी कमला की धारा को पार कर अपनी-अपनी नौकाएँ सम्हाल ली। गड़े हुए लंगर के खूंटों से नौकाओ
ं को मुक्त किया और लोगों को उस पार पहुँचाना प्रारंभ कर दिया। कमला की धारा ने अंचल में पुनः उपस्थित होकर अभूतपूर्व उमंग और उत्साह उत्पन्न कर दिया था। तत्काल उस पार पहुँच जाने की इच्छा सबकी थी, परन्तु किसी ने अनुशासन भंग न किया। नौकाओं की संख्या प्रतिपल बढ़ती जा रही थी तथा किनारे खड़ी भीड़ धैर्यपूर्वक अपनी बारी की प्रतीक्षा में खड़ी थी। भरोड़ा का राजपरिवार तथा उत्कल नरेश के प्रस्थान के पश्चात् वज्रबाहु के आदेश पर, जलधारा में उपस्थित शंखाग्राम एवं उत्कल की नौकाओं ने अपने लंगर उठाने शुरू कर दिए. समस्त नौकाओं को गंगा की मुख्य धारा में पहुँच कर वापस कमला की नवीन धारा से पुनः भरोड़ा पहुँचना था। समस्त जनों के लौटने के उपरांत जो हलचल थमी थी, नौकाओं के कारण वह पुनः प्रारंभ हो गयी। बखरी सलोना के परिवेश से उग्रचण्डा अब अपरिचित नहीं रही। माया तो प्रथम परिचय में ही उससे घनिष्ठ हो गयी थी, काकी के अनुमोदन के उपरांत बहुरा के हृदय में भी उसके प्रति कटुता की भावना समाप्त हो गयी। भरोड़ा में भुवनमोहिनी एवं कामायोगिनी के साथ, कुँवर के आगमन की विस्तृत जानकारी से, बहुरा अवगत थी। अमृता आहलादित थी तथा माया प्रसन्न, परन्तु काकी के साथ-साथ बहुरा अति-विस्मित थी। 'प्रत्येक कार्य का कारण होता है काकी!' बहुरा ने आश्चर्य से कहा, 'परन्तु हमारे समक्ष जो कुछ घटित हो रहा है, इसके नेपथ्य में क्या है...और सबसे अधिक विस्मयकारी है, कमला की धारा का यूँ अनायास पुनरागमन। विस्मित हूँ मैं।वह कौन-सी अदृश्य शक्ति है जो निरंतर हमारे विपक्षी की सहायक बनी हुयी है?' परन्तु काकी के पास बहुरा केे प्रश्न का कोई उत्तर नहीं था। तत्काल कुछ न कह सकी वह। काकी के मौन पर माया ने बहुरा से कहा, 'अपने कुँवर के प्रति तुम्हारे अंदर जो विद्वेष भरा है, उसके ही कारण तुम्हारी चेतना भ्रमित हो गयी है पुत्री! ...अन्यथा मेरी दृष्टि में अब असंगत कुछ नहीं। शंखाग्राम की सेना ने भरोड़ा में उपस्थित होकर हम सब को भ्रमित कर दिया था। मैं भी उलझ गयी थी पुत्री! मुझे भी इसका औचित्य समझ में नहीं आया था, परन्तु अब कोई भ्रांति शेष नहीं।' 'तुम हमेशा उल्टी बात कहती हो माया!' काकी ने तत्क्षण कहा, 'दो भिन्न देशांे की शक्तियों का क्या औचित्य था भरोड़ा में...? अपने कुतर्कों से हम सब को तुम पुनः भ्रमित कर रही हो माया, अन्यथा शत्रु के इस प्रकार शक्ति-प्रदर्शन का क्या कारण है, बताओ तो हमें?' 'घृष्टता न समझें तो मैं कुछ कहूँ काकी?' उग्रचण्डा ने तत्काल कहा। 'कहो, तुम भी कहो उग्रचण्डा' ! काकी ने कहा। 'जिसे आप शक्ति-प्रदर्शन कह रही हैं, वास्तव में वह शक्ति का प्रदर्शन नहीं है, क्योंकि तब स्वयं शंखाग्राम की राजमाता का पदार्पण नहीं होता। जब वे स्वयं आयी हैं तो इसका स्पष्ट अर्थ है कि यह सैनिक अभियान है ही नहीं।' 'ठीक कह रही है उग्रचण्डा!' माया ने कहा, 'हमने व्यर्थ उन्हें अपना शत्रु मान लिया है। हमें शांत-चित्त होकर समस्त स्थिति पर पुर्नविचार करना होगा तथा धैर्य-धारण कर किंचित प्रतीक्षा करनी होगी। फिर यदि, दुर्भाग्यवश परिस्थिति विपरीत हुई, तो तद्नुसार ही हम स्थिति के अनुकूल कार्य करेंगे।' उग्रचण्डा तथा माया के तर्क से पूर्णतया सहमत नहीं होते हुए भी बहुरा ने माया से कहा, 'कदाचित् तुम ठीक कह रही हो दीदी। यूँ भी जिसे हमने अपना शत्रु स्वीकार किया है वह अब स्वयं उपस्थित हो ही गया है। परन्तु फिर भी मैं नहीं चाहती कि हम निष्क्रिय होकर शांत बैठ जायें तथा अनहोनी की प्रतीक्षा करती रहें। हमें पूर्ण सतर्क रह कर प्रतिरोध हेतु हर-पल सावधान रहना होगा।' अपनी बात कह कर बहुरा ने पुनः उग्रचण्डा से कहा, 'और तुम यह मत समझना उग्रचण्डा कि मेरे अगिनबाण का प्रतिकार कर उसने मेरा पराभव कर दिया है अथवा तुम्हारे तथाकथित कापालिक टंका से मैं भयभीत हो गयी हूँ।' हँस पड़ी उग्रचण्डा। हँसते हुए ही उसने विनोद किया, 'स्वीकार करती हूँ बहुरा...तुम्हारी शक्ति को स्वीकार करती हूँ।' कहते ही उसकी आकृति गंभीर हो गयी और उसने पुनः कहा, 'परन्तु मेरा अनुरोध इतना ही है तुमसे कि क्रोधावेश में अपनी शक्ति का अपव्यय न करना!' 'उग्रचण्डा से सहमत हूँ मैं!' काकी ने कहा, 'यद्यपि नीति यही है कि विजयी वही होता है जो सर्वप्रथम प्रहार करता है, परन्तु फिर भी मैं चाहती हूँ कि आक्रमण का पहल शत्रु-पक्ष की ओर से ही हो।' 'क्या कहती है पुत्री!' माया ने बहुरा से कहा, 'काकी ने भी हमारी बात मान ली है। अब क्या निर्णय है तुम्हारा?' 'तत्काल कुछ नहीं कहूँगी मैं' अति-गंभीर स्वर में बहुरा ने कहा और बहुरा के इस वाक्य ने सबको मौन कर दिया। मौन को भंग किया माया ने, 'जब तक दोनों पक्षों में संवाद-हीनता की स्थिति है, तब तक हमारी समस्या यथावत् ही बनी रहेगी पुत्री! अतएव मैं चाहती हूँ इस स्थिति को भंग किया जाये।' 'वह
कैसे?' बहुरा ने कहा। 'मैं स्वयं जाऊँगी भरोड़ा।' माया की बात ने सबको चौंका दिया। सब मौन हो गए. 'नहीं दीदी' ! बहुरा ने कुछ क्षण रुक कर कहा, 'यह उचित नहीं।' 'क्यों पुत्री?' 'तुम्हारे इस सकारात्मक पहल का अर्थ उनकी दृष्टि में नकारात्मक ही होगा। यह तो झुक जाने वाली बात होगी।' 'तो क्या हुआ!' माया ने कहा, 'हम कन्या पक्ष वाले हैं। हमारा झुकना तो यूँ भी स्वभाविक ही है पुत्री!' और माया की इस बात पर बहुरा पुनः मौन हो गयी। आनंद और उत्साह में सारा अंचल छलक रहा था। कुँवर के आगमन ने भरोड़ा का वातावरण पूर्णतः बदल दिया। ऐसे में तांत्रिक चंद्रा अंचल के बच्चों के मध्य सबसे ज़्यादा लोकप्रिय हो गया था। बच्चों का समूह उसे घेरे रहता और तांत्रिक चंद्रा, अपने जादू के खेल दिखाकर उन सबों का मनोरंजन करता। पलक झपकते ही उसके हाथों में विभिन्न मिष्टान्न एवं खिलौने उत्पन्न हो जाते, जिसे पाकर बच्चों की खुशी का ठिकाना न रहता। सारे अंचल के बच्चे, खिलौने तथा मिठाई पाने के लोभ में उससे चिपके रहते। कापालिक टंका, बहुरा के बलाबल से ज्ञात होने हेतु तांत्रिक अनुष्ठान में संलग्न था। राजा विश्वम्भरमल्ल के साथ-साथ रानी गजमोती अपने पुत्र को निहारने-निरखने में व्यस्त हो गए. मंगलगुरु आगामी कार्यक्रम पर विचार कर रहे थे तथा भरोड़ा के सेनापति भीममल्ल, बहुरा को दण्डित करने की योजना बना रहे थे। पूर्णतः परिवर्तित स्थिति ने उनका उत्साह बढ़ा दिया था। शंखाग्राम की राजमाता एवं उत्कल नरेश, भरोड़ा प्रवास का आनंद उठा रहे थे तथा उनका पुत्र अपनी भार्या भुवनमोहिनी एवं कामायोगिनी के साथ कुँवरश्री के द्विरागमन पर विचार-विमर्श कर रहा था। चंद्रचूड़ की इच्छा थी कि वह स्वयं बखरी में उपस्थित होकर बहुरा से मिले, परन्तु उसकी भार्या भुवनमोहिनी की इच्छा थी कि कुल की नीति-रीति के अनुसार ही कार्य करना उचित है, अतः कुँवर के पिताश्री जो निर्णय करेंगे, उसी का अनुपालन करना श्रेयस्कर होगा। दूसरी और भरोड़ा के सेनापति भीममल्ल का कहना था कि बहुरा ने जब कुल की परम्परा का उल्लंघन कर हमारे आत्मसम्मान को धूल-धूसरित कर दिया तो फिर किसी लोकाचार, रीति-रिवाज तथा पारम्परिक औपचारिकता की कोई आवश्यकता नहीं। हमें तो बहुरा का मान-मर्दन कर अपनी पुत्रवधु को बल-पूर्वक भरोड़ा लाना चाहिए. ऐसे विरोधाभासी विचारों के मध्य राजरत्न मंगलगुरु तथा वैद्यराज रसराज के परामर्श को स्वीकार कर राजा विश्वंभर मल्ल ने अतंतः कुँवर के गौना का डाला भेजने का निश्चय कर लिया और इस मध्य सबसे अधिक व्यस्त था वज्रबाहु। समस्त अतिथियों के आतिथ्य का भार उसी पर था। किसी पल वह पाकशाला में उपस्थित होता तो अगले पल सेवकों के पास। सभी व्यस्त थे। कोई आमोद-प्रमोद में, कोई चिन्तन में, कोई मनन में तो कोई चर्चा में। परन्तु एक व्यक्ति ऐसा भी था जो पूर्णरूपेण निष्क्रिय था। क्या करे, क्या न करे वाली स्थिति थी उसकी। वह था उत्कल का अति महत्त्वाकांक्षी सेनापति। दीर्घ विचार-मंथन के उपरांत वह इसी निश्चय पर पहुँचा कि नियति के समक्ष स्वयं को समर्पित कर दे वह। अन्यथा ऐसा न हो कि सेनानायक के पद से भी वह च्युत हो जाये। भँवर के मध्य से निकली अमृता की जीवन-नौका किनारे पहुँचती कि तभी पतवार उसके हाथ से छूट गया। काकी और बहुरा की हठ में, विरहिणी अमृता टूट कर बिखर गयी। उसकी हँसी खो गयी, मुस्कराना भूल गयी। खोयी-खोयी-सी हो गयी वह। निंदिया तो बैरन हो ही चुकी थी, जागी रहती तो भी संज्ञाहीन ही रहती। उसकी पीड़ा माया से सही नहीं जाती। परन्तु इस घड़ी जब उसकी दृष्टि कक्ष में बैठी अमृता पर पड़ी तो, बरबस ही उसके अधरों पर मुस्कान उभर आयी। उसकी अमृता बैठी-बैठी कहीं खो-सी गयी थी। लाज से भरी उसकी आँखों से अपूर्व-सी प्रसन्नता छलक रही थी। हुआ क्या है इसे? यह निगोड़ी आज इतनी प्रसन्न क्यों है? कदाचित् अपनी जागी आँखों से ही स्वप्न देख रही है यह अभागी। निकट पहुँच कर अमृता को घड़ी भर निहारती रही वह, परन्तु माया की उपस्थिति से पूर्णतया अनभिज्ञ अमृता की प्रफुल्लित दृष्टि शून्य में ही अटकी रही। क्या करे वह? अमृता की तंद्रा भंग कर दे अथवा कुछ पल और जी लेने दे इसे, क्योंकि चैतन्य होते ही पुनः रो पड़ेगी यह। ममतामयी उसके हृदय ने कहा-पीर विरह की विरहिनी ही जाने और न जाने कोय नीर बहे अँखियन से, फिर भी मन न शीतल होय और वह सचमुच ही स्वप्न में खोई थी। हँसती-खिलखिलाती सखियाँ उसे घेरे चुहल कर रही हैं। कोई पाँवों में मेंहदी रच रही है तो कोई उसकी वेणी को पुष्पों से श्रृंगारित कर रही है। दूर खड़ी पोपली काकी स्निग्ध नेत्रों से उसे तक रही है और पास बैठी माता बहुरा बारंबार उसकी बलाइयाँ ले रही है। हाथों में महावर लिए उसकी प्यारी दीदी माया आयी और तभी जैसे बादलों की ओट से चंदा झांके-उसके प्राण, उसके कुँवर ने द्वार की ओट से उसे झांका। न
ैना चार होते ही लाज से दुहरी होकर सकुचायी अमृता और भी सिमट गयी। पगली हो जायेगी यह। माया ने सोचा। उसकी चेतना ने उससे कहा-कुँवर के स्वप्न-भंवर मेंपड़ी है यह अभागी। हृदय फट गया माया का, आँखें भर आयीं। रोक न सकी स्वयं को और बढ़ कर अपने अंक में समेट लिया उसने अमृता को। तत्क्षण तंद्रा टूटी तो अमृता ने स्वयं को दीदी के अंक में जकड़े पाया। तो स्वप्न था यह! प्रथम बार...अपने जीवन में संभवतया प्रथम बार रो पड़ी माया। अमृता भी रो पड़ी। फिर तो बांध ही टूट गया दोनों का। राज भरोड़ा से आये मनुआ ठाकुर को बहुरा ने आपादमस्तक निहारा। राजा ने अपने ठाकुर के हाथों, उसकी पुत्री के गौना का डाला भिजवाया था। साँवले वर्ण के इस वृद्ध ठाकुर ने अपने मस्तक पर पीला मुरैठा बाँध रखा था। इसके कंधों पर लालवर्णी गमछा और कमर में पीली धोती बँधी थी। बाँस की किरचियों से बने जिस डाले को यह अपने साथ लेकर आया था, वह वहीं भूमि पर उसके पास उपेक्षित-सा पड़ा था। लाल रंग से चित्रित इस डाले पर अक्षत, चंदन एवं रोली के छींटे अंकित थे। लाल रेशमी पाड़ से बँधा यह डाला यंू तो ठाकुर के आगमन का अभिप्राय स्वयं कह रहा था, फिर भी बहुरा ने तीक्ष्ण स्वर में प्रश्न किया-'यह क्या लेकर आये हो यहाँ? ...और तुम हो कौन?' 'मैं, मनुआ ठाकुर, राज भरोड़ा से आया हूँ चौधराइन!' सादर कहा उसने, 'हमारे राजा जी ने भेजा है मुझे।' 'अच्छा तो राज भरोड़ा से पधारे हैं आप!' व्यंगपूर्ण स्वर में बहुरा ने कहा, 'सौगात लेकर आये हैं हमारे लिए.' 'नहीं चौधराइन' , कमर तक झुक कर कहा उसने, 'बिटिया के गौना का डाला है यह।' बहुरा की मुखाकृति पर क्रोध उभर आया। भूमि पर पड़ा डाला उसे चिढ़ा रहा था। इच्छा हुई कि पग-प्रहार से दूर कर दे इस डाला को। निर्लज्जता की परिणति है यह तो। मुझे पराभूत करने के लिए पहले तो उन्होंने सैन्य बलों का संचय किया और अब डाला भेजकर मेरा उपहास! उसकी उग्रता और भी बढ़ गयी। मेरी अबोध कन्या का परित्याग करने के उपरान्त अब दुष्टों ने लोकाचार की धृष्टता की है। लोकाचार के निर्लज्ज प्रदर्शन के साथ ही उन्होंने मेरी अस्मिता को भी चुनौती दी है। उनका यह दुःसाहस! क्रोध से उफनते बहुरा ने अपने समधी को दण्डित करने का दृढ़ निश्चय कर लिया और ऐसा निश्चय करते ही उसके अंतस् का ज्वालामुखी फट कर, उसके भयंकर अट्टहास में प्रकट हो गया। बहुरा के इस अति-विकट अट्टहास से थर्राया मनुआ ठाकुर की टाँगे काँपने लगीं। प्राणों के भय से काँपते ठाकुर ने अपने दोनों कर जोड़ दिए. उसके नेत्रों में भय उभर आया और कंठ अवरुद्ध हो गया। अपनी मृत्यु को निश्चित जानकर उसने उस पल को धिक्कारा, जब भरोड़ा से गौना का डाला लेकर उसने बखरी के लिए प्रस्थान किया था। कितना समझाया था पत्नी ने और परिजनों ने भी तो रोका था; परन्तु काल ने उसकी बुद्धि ही हर ली थी, तभी तो मैं मूर्ख स्वयं चल कर आ गया, काल का ग्रास बनने। अब क्या करे वह? पता नहीं यह विकटा अब क्या करेगी? मनुआ ठाकुर अपनी मृत्यु को आसन्न जान थरथरा ही रहा था कि इसी मध्य पोपली काकी और माया दीदी ने कक्ष में प्रवेश किया। बहुरा पूर्ववत् अट्टहास कर रही थी। भयाक्रांत ठाकुर कर जोड़े, थरथराता खड़ा था। गौना का उपेक्षित डाला, पास ही भूमि पर पड़ा था। समस्त परिस्थितियाँ स्पष्ट थीं। तो भरोड़ा से डाला लेकर नाई आया है। माया दीदी के अधरों पर सुखद मुस्कान बिखरी। परन्तु पोपली काकी को इस दृश्य ने विक्षिप्त कर दिया। भरोड़ा का ऐसा दुःसाहस! उसने सोचा, सैन्य-बल ने विश्वंभरमल्ल को अति-विश्वासी बना दिया है। भुवनमोहिनी, कामायोगिनी तथा कापालिक टंका की मित्रता के गर्व में चूर होकर उसने इस लोकाचार का दुस्साहस किया है। बहुरा का अट्टहास थमा तो उसने पोपली से व्यंग्य में कहा, 'देखा काकी। तुम्हारे समधी जी ने क्या भेजा है?' 'देख रही हूँ' , क्रोधित काकी ने कहा, 'इस डाले में शत्रु ने शगुन नहीं, अपना गर्व और अभियान भर कर भेजा है।' 'क्या कहती हो काकी!' तड़प कर कहा माया ने, 'बिगड़ी को और न बिगाड़ो। समधी जी ने तो सौहार्द का प्रदर्शन किया है। शगुन के इस डाले में जो संदेश छिपा है, उसे पहचानो काकी और अभागी अमृता के बिखरे भाग्य को सँवरने से मत रोको!' काकी ने तत्काल कुछ नहीं कहा, परन्तु बहुरा ने तीक्ष्ण दृष्टि से देखा माया को। कैसी मूर्ख है यह, सोचा उसने। शत्रु की धृष्टता का इसे तनिक भी भान नहीं। यूँ भी हमारी मान-मर्यादा के विरुद्ध ही विचार व्यक्त करना, इसे प्रिय लगने लगा है। उसकी इच्छा हुई कि वह तत्क्षण माया को कक्ष त्यागने का परामर्श दे-दे परन्तु उसने ऐसा कुछ कहा नहीं। बहुरा ने काकी तथा माया को बैठा कर स्वयं भी बैठते हुए माया से कहा, 'वही करूँगी जिसपर सब सहमति होगी, परन्तु अपने स्वाभिमान से समझौता कदापि नहीं करूँगी।' 'स्वाभिमान और अभिमान में अंतर होता है पुत्री!'
माया ने शांत स्वर में कहा। 'अच्छा, तो अब हमें तुमसे सीखनी होगी' ! क्रोधयुक्त स्वर में काकी ने हस्तक्षेप करते हुए कहा, 'मैं देख रही हूँ माया, आज-कल प्रायः तुम्हारा स्वर, हमारे विरोध में ही व्यक्त होता है।' 'ऐसा मत कहो काकी!' पूर्ववत् शांत स्वर में माया ने कहा, 'विचारों में मतभेद को इस प्रकार व्यक्तिगत मतभेद में परिणत मत करो! हमें अच्छी तरह सोच-विचार कर ही निर्णय लेना चाहिए. हमारे सौभाग्य से ही यह शुभ अवसर उपस्थित हुआ है। तनिक सोचो काकी...भरोड़ा में बाहरी सेना की उपस्थिति से कितने भ्रमित थे हम। क्या-क्या नहीं सोच लिया था हमने। स्थिति से पूर्णतया अनभिज्ञता ने ही हमारी पुत्री को भी इतना उद्वेलित कर दिया था जिस कारण इसने कुँवर पर तंत्र-प्रहार तक किया। परन्तु इतनी कटुतापूर्ण स्थिति में भी हमारे समधी ने जब इस सौजन्य का प्रदर्शन किया है तो हमें भी सब विस्मृत कर अमृता के जीवन को सुखों से भर देना चाहिए काकी।' मूक काकी के अंदर विभिन्न विचारों के प्रवाह चल रहे थे। माया से पूर्णतया असहमत काकी कुछ और ही सोच रही थी। सहसा उसके अधरों पर मुस्कान उभर आयी। समझ गयी माया। काकी अवश्य ही किसी दुश्चक्र में लिप्त है इस घड़ी। बहुरा के मनोभावों को तो वह शत-प्रतिशत जान लेती थी क्योंकि उसके अंतस का भाव, तत्काल उसकी मुखाकृति पर प्रतिबिम्बित होने लगता था। परन्तु काकी के साथ ऐसी बात नहीं थी। वह क्या सोच रही है... उसका मुख देख कर यह जान पाना संभव नहीं था। दूसरी तरफ बहुरा भी वही सोच रही थी जो कदाचित् पोपली काकी सोच रही थी। बहुरा के अंदर एक अंतर्द्वंद्व चल रहा था। क्या इस अवसर को शत्रु-मर्दन के शुभ-अवसर पर परिवर्तित कर दिया जाए? और इस विचार के आते ही उस के अधरों पर पोपली काकी की भांति विषाक्त मुस्कान थिरकने लगी। बहुरा के नेत्र काकी से मिले। मूक नेत्रों का परस्पर सम्भाषण हुआ। 'धबड़ाओ मत ठाकुर!' काकी से दृष्टि हटाकर बहुरा ने मनुआ से कहा, 'तुम तो अतिथि हो! शांत हो जाओ और मेरी बात ध्यान से सुनो!' बहुरा के स्वर परिवर्तन ने माया को आशान्वित कर दिया। कदाचित् इसने मेरा तर्क स्वीकार लिया है। उसकी उत्सुक दृष्टि बहुरा पर केन्द्रित हो गयी। बहुरा कह रही थी, 'यद्यपि तुम्हारे राजा ने हमें हार्दिक क्लेश एवं आघात पहुँचाया है। विवाहोपरांत उन्होंने मेरी निर्दोष पुत्री को कलपते छोड़कर, उसका परित्याग कर दिया। तथापि हम अपने समस्त आत्मसम्मान का विचार छोड़ कर इस शगुन के डाले को स्वीकार करते हैं ठाकुर! हम कन्या-पक्ष वाले हैं। परम्परा ने भी हमें वर-पक्ष के अधीन रखा है। यूँ भी समर्थ को कोई दोष नहीं देता। अपनी पुत्री के मलिन मुख को देख कर, उसके सुख के समक्ष आज वीरा झुक गयी है ठाकुर! इस शगुन को तो मैं स्वीकार कर ही चुकी हूँ साथ ही अपनी पुत्री का गौना भी स्वीकारती हूँ ठाकुर! परन्तु अपनी आहत अंतरात्मा की रक्षा हेतु मेरी एक अरदास है। गौना के लिए मेरे जमाई को अकेले ही आना होगा। अपने समधी-समधिन, उनके परिजन तथा इष्ट-मित्रों का मैं स्वागत नहीं कर सकूंगी। अपने राजा को कहना, वीरा की यह बात यदि उन्हें स्वीकार्य हो, तो वे अपने प्रिय पुत्र को अकेले भेज दें।' बहुरा की वाक्पटुता ने पोपली काकी को पूर्णरूपेण संतुष्ट कर दिया। माया को यद्यपि बहुरा की बात अच्छी नहीं लगी तथापि उसने इस बार कोई विरोध नहीं किया। पति संग अमृता की विदाई हो जाये, इसके अतिरिक्त उसकी कोई अभिलाषा थी भी नहीं। उसे पता था, शेष कटुता शनैः-शनैः स्वयं मिट जायेगी। परन्तु सर्वाधिक प्रसन्न हुआ मनुआ ठाकुर। प्राणभय से मुक्ति मिली थी उसे। त्रण पाते ही उसने मुक्ति की सांस ली। राजा विश्वम्भरमल्ल के शिविर में सभी को मनुआ ठाकुर की प्रतीक्षा थी। सभी उत्सुक थे। राजरत्न मंगलगुरु तथा वैद्यराज रसराज के परामर्श पर ही शंकित राजा ने अंततः मनुआ को भेजा था। परन्तु राजा के इस निर्णय से सेनापति भीममल्ल अत्यंत व्यथित थे। विरोध करते हुए उन्होंने कहा भी था 'जिस अंचल से हम सभी को इस प्रकार अपमानित कर भगा दिया गया, उसी के पास हम अपने नाई के द्वारा गौना का डाला भेजें... धिक्कार है हम पर...और हमारे पुरूषार्थ पर!' क्रोध से उफनते सेनापति को बड़ी कठिनाई से सम्हाला था राजरत्न ने, परन्तु सेनापति ने तभी से आहत हो, मौन धारण कर लिया था। इसी कारण राजा जी के शिविर में इस घड़ी राजरत्न और वैद्यराज के साथ उपस्थित होकर भी वह पूर्ण मौन था और यह स्वभाविक ही था। नृशंस बहुरा ने जिस क्रूरता से उसकी दाहिनी आँख नोच ली थी, उसे भूल जाना किसी के लिए भी संभव नहीं था। फिर भीममल्ल जैसा अति बलशाली सेनापति, इस अपमान को भूल जाये, यह भला कैसे संभव था। उसके अंदर धधकते प्रतिशोध की ज्वाला से राजा, राजरत्न और वैद्यराज अच्छी तरह परिचित थे, परन्तु फिर भी वार्तालाप के मध्य उनका निंरतर मौन रहना किसी को स्वीक
ार्य नहीं था। इसी कारण वैद्यराज ने सेनापति से कहा, 'आपका क्रोध सकारण ही है सेनापति! आपकी मनःस्थिति से भी हम अपरिचित नहीं, परन्तु इस प्रकार आपका निरंतर मौन रहना हम सभी को अखर रहा है सेनापति।' 'वैद्यराज का मैं भी समर्थन करता हूँ सेनापति!' राजरत्न ने भी कहा, 'तथा आपकी पीड़ा भी हम सभी समझ रहे हैं...फिर भी मेरा अनुरोध है कि आप अपना मौन भंग करें।' वैद्यराज तथा राजरत्न के अनुरोध पर भी जब सेनापति मौन ही रहा तो राजा ने ही अंततः कहा, 'सेनापति के दुःख में हम सभी दुखी हैं तथा हमारे भी अंतस में बहुरा को दण्डित करने की तीव्र अभिलाषा है, परन्तु इस घड़ी हमने विवशता में वही किया, जिस पर सर्वसम्मति थी।' अपनी बात कह कर राजा ने पुनः सेनापति से कहा, 'आप यह मत समझें सेनापति कि बहुरा को हमने क्षमा कर दिया अथवा उसके कुकृत्य को हमने भुला दिया। उसके इस जधन्य अपराध को, मैं आजन्म नहीं भूलूंगा...परन्तु इस घड़ी मैंने जो निर्णय लिया इसी में सबों की सहमति थी।' सेनापति ने दृष्टि उठा कर राजा को देखा। उसके अंतर की समस्त पीड़ा उसकी बांयी आँख में उभर आयी। कुछ पल वह यूँ ही राजा को देखता रहा और अंततः उसके बोल खुल गए. शांत-गंभीर स्वर में उसने कहा, 'जिन परिस्थितियों में हमेंविवश होकर बखरी से पलायन करना पड़ा, वह स्थिति अब नहीं रही राजा जी. अब हम हर प्रकार से शक्ति-सम्पन्न हैं। हमारे सहायकों में कापालिकों में श्रेष्ठ टंका तक हमारे साथ है जिसके समक्ष बहुरा जैसी सिद्ध भी तृण के समान है। इसके अतिरिक्त, बंग तथा उत्कल की श्रेष्ठ शक्तियों से सम्पन्न होते हुए भी हमने कापुरुषों जैसा निर्णय लिया...इसकी ग्लानि मुझे सदा व्यथित करती रहेगी।' 'यह निर्णय किसी कापुरुष का नहीं, हमारा समवेत् निर्णय है,' राजा ने कहा, 'अपनी वर्तमान शक्ति का भली प्रकार भान होते हुए भी हमने कायरों का नहीं वीर पुरुषों का निर्णय लिया है सेनापति...! और आप यूँ अधीर क्यों होते हैं...संभव है बहुरा हमारे अनुरोध को स्वीकार न कर, हमारा पुनः तिरस्कार ही कर दे और संभावना भी इसी की है सेनापति। जिस प्रकार उसने कुँवर के मार्ग में अवरोध उत्पन्न किया था, उससे तो यही प्रतीत होता है कि वह हमारे अनुरोध को अवश्य ठुकरा देगी और यदि ऐसा हुआ तो आप विश्वास करें, हम वही करेंगे जो आपकी इच्छा है।' राजा की बात से संतुष्ट सेनापति उठ कर खड़ा हो गया और राजा को प्रणाम करते हुए कहा, 'अपने समस्त क्लेशों से मैं मुक्त हो गया महाराज! इतनी छोटी-सी बात भी मेरी समझ में नहीं आयी थी, आश्चर्य है मुझे। हमने अपने संस्कारों के अनुरूप, सब कुछ भूल कर बहुरा के पास अपना नाई भेज दिया है। यह जानते हुए भी कि वह दुष्टा पुनः हमारा अपमान ही करेगी, क्योंकि यही स्वभाव है उसका।' कह कर सेनापति मुस्कराया और मुस्कराते हुए ही उसने पुनः कहा, 'अब मैं पूर्ण संतुष्ट हूँ। मनुआ ठाकुर के आते ही हम टूट पड़ेंगे उस दुष्टा पर...टूट पड़ेंगे' ! भरोड़ा का नाई डाला लेकर आया है, यह समाचार देखते-ही-देखते सारे अंचल में फैल गया। हाट-बाजार, खलिहान और चौपाल में बस एक ही चर्चा...क्या होगा अब? बखरी का प्रत्येक आंगन और प्रांगण इसी उत्सुकता में प्रतीक्षा कर रहा था कि बहुरा की अब प्रतिक्रिया क्या होगी और ऐसे में अमृता की स्थिति और भी विचित्र थी। उसकी तो श्वास ही अटक गयी। उसकी माता तो मानेगी नहीं...और क्रोधावेग में जाने क्या कर बैठेगी वह। अपने मानस-पटल में अमृता ने देखा, उसकी माता ने पग-प्रहार से उसके गौना के डाला को ठोकर मार दिया है और भय से थरथराता नाई मूक खड़ा है। उसने चाहा, दौड़ कर जा पहुँचे अपनी माँ के पास और उसके चरणों से लिपट कर अपने सुहाग की भीख माँग ले अपनी माँ से। परन्तु उसके पग ठिठक कर रुक गए. आँखों में सावन-भादो उतर आया। जड़ हो गयी वह। अंतस् में झंझावात उठा और मस्तक में चक्कर-सा आने लगा। इसी घड़ी कक्ष में प्रविष्ट हो रही माया ने सम्हाला न होता तो मूर्च्छित होकर गिर पड़ी होती वह, 'यह क्या पुत्री!' माया ने उसे सम्हाल कर कहा, 'क्या कर रही है तू...! कदाचित् तुझे पता नहीं... तेरी माँ ने तेरा गौना स्वीकार कर लिया है पुत्री!' अप्रत्याशित था यह! कुछ पल तो विश्वास ही न हुआ अमृता को। परन्तु उसके कक्ष में जब उसके गौना का डाला आ गया तो उसे विश्वास करना ही पड़ा। डाले की एक-एक वस्तु को उसने स्वयं स्पर्श करके निहारा। सिंदूर, चूड़ी, लहटी, बिंदिया, कुँकुम और महावर के अतिरिक्त जब उसने चमचमाते कठमंगिया (घूंघट) को हाथों में उठाया तो उसकी आँखों में कई सपने तैरने लगे। बहुरा ने षडयंत्र तो रच दिया परन्तु उसे पता था, राजा विश्वम्भरमल्ल अपने पुत्र को अकेला कदापि नहीं भेजेंगे। यह स्वभाविक भी था। शंखाग्राम एवं उत्कल के वीर-सेनानी उसके पास थे। साथ ही भुवनमोहिनी, कामायोगिनी एवं कुख्यात कापालिक टंका भी भरोड़ा में उ
सके साथ उपस्थित था। ऐसी स्थिति में उसका दामाद अकेला-निःसहाय उसके पास चला आए, ऐसी कल्पना भी उसके लिए हास्यास्पद थी। वास्तव में यह प्रस्ताव नहीं, बहुरा की खुली चुनौती थी और महाकाल की सहायता से उसे विश्वास भी था कि वह अपने समधी का, उसके समस्त सहायकों सहित मान-मर्दन कर देगी। वस्तुतः भरोड़ा के ठाकुर को ससम्मान विदा करने के उपरांत से ही वह मुदित थी क्योंकि अपने प्रतिशोध का अवसर, अनायास ही उसे प्राप्त हो गया था। बखरी में जहाँ बहुरा ने अपना विकट अनुष्ठान प्रारंभ कर दिया था, वहीं भरोड़ा में बहुरा के निर्णय पर मिश्रित प्रतिक्रियायंे होने लगीं। रानी गजमोती ने निःस्वास लेते हुए राजा से कहा, 'बहुरा की पीड़ा मैं समझ सकती हूँ। जिसकी नव-विवाहिता पुत्री, विवाह होते ही परित्यक्ता हो गयी हो, उसकी व्यथा आप नहीं समझ सकते।' 'कदाचित् आप ठीक कह रही हैं' ! राजा ने कहा, 'परन्तु इसमें हमारा क्या दोष? ...हमें तो बलात् पलायन करना पड़ा था... और तनिक हमारे सेनापति की तो सोचिये। बहुरा ने कितनी नृशंसता से उसकी दायीं आँख नोच ली थी, फिर भी आप उसकी व्यथा की बात कर रही हैं...आश्चर्य है मुझे!' रानी गजमोती की ममता और राजा विशम्भरमल्ल की मर्यादा परस्पर टकराती रही और अंततः अपने प्रिय पुत्र को अकेले भेजना उन्होंने अस्वीकार कर दिया। सेनापति भीममल्ल को मनोवांछित फल प्राप्त हो चुका था। हर्षित सेनापति, तड़ित-वेग से जा पहुँचा टंका के पास, 'कापालिक श्रेष्ठ!' अभिवादन के उपरांत सेनापति ने कहा, 'हमारा ठाकुर, बहुरा का दुष्टतापूर्ण प्रस्ताव लेकर वापस लौट आया है, ज्ञात है आपको?' 'जानता हूँ सेनापति...! ज्ञात है मुझे बहुरा ने क्या कहा और यही अपेक्षित भी था उससे... मेरे स्वामी को बंदी बनाना चाहती है वह।' और कहते ही टंका हँस पड़ा। 'आपको विनोद सूझ रहा है कापालिक-श्रेष्ठ और मेरी भुजायें फड़फड़ा रही हैं,' व्यग्र स्वर में सेनापति ने कहा, 'जिस प्रकार वनराज के पंजों में आकर उसका निरीह शिकार तड़फड़ाता है, ठीक उसी प्रकार, मैं इस दुष्टा को अपनी बलशाली भुजाओं में तड़पता हुआ देखने को अति-व्याकुल हूँ।' 'दुर्बल से दुर्बल और वीर्यहीन-कापुरूष तक ऐसी स्थिति में उद्विग्न हो जायेगा सेनापति, जबकि आप तो अतुलित-बलशाली सिंह पुरूष हैं। आपके अंदर प्रतिशोध की कैसी लपटें उठ रही हांेगी, मैं समझ सकता हूँ। विश्वास करें, मैं चाहूँ तो इसी क्षण बहुरा समेत उसके सम्पूर्ण अंचल को भस्म कर सकता हूँ, अथवा स्वामी का आदेश हो तो उस दुष्टा को बांध कर आज ही यहाँ ला सकता हूँ।' 'नहीं कापालिक-श्रेष्ठ!' तड़प कर कहा सेनापति ने, 'मेरे प्रतिशोध की अग्नि तभी शांत होगी, जब मैं स्वयं अपनी भुजाओं से उस दुष्टा को दण्डित करूँ।' कापालिक टंका के ओठों पर मुस्कान बिखरी देख सेनापति ने संकोचपूर्ण वाणी में पुनः कहा, 'इन नंगी भुजाओं से मैं हिंसक वनराज को भी परास्त कर सकता हूँ कापालिक-श्रेष्ठ! परन्तु बहुरा के तांत्रिक-छल का प्रतिकार मैं कैसे करूँ? ...इसी कारण आपके समक्ष।' और सेनापति का वाक्य पूर्ण न हो पाया क्योंकि सेनापति की इस बात पर टंका पुनः हँस पड़ा। आपातकालीन व्यवस्था में व्यस्त होना पड़ गया। परन्तु, इसके विपरीत भुवनमोहिनी एवं कामायोगिनी मौन रह गयीं। उत्कल नरेश पार्थसारथी और शंखाग्राम की राजमाता राजराजेश्वरी भी इसी विमर्श में निमग्न थे। अंत में राजमाता ने कहा, 'कुँवर के पिताश्री का निर्णय ही मुझे उचित प्रतीत होता है महाराज...! यूँ तो मैंने अपने कुँवर की दिव्यता स्वयं जान ली है। इसीलिए मुझे विश्वास है, उस जैसी तामसी-साधिका की शक्तियाँ हमारे कुँवर का कदापि अहित नहीं कर सकतीं, परन्तु फिर भी लोकाचार की दृष्टि से कुँवर का अकेले प्रस्थान करना, मर्यादा का उल्लंघन है महाराज!' 'आपके कथन पर सहमत हूँ मैं राजमाता!' उत्कल नरेश ने मुद्रा बदलते हुए कहा, 'परन्तु यह तो कहिए, ऐसी स्थिति में अब हमें करना क्या है?' 'यही तो समस्या है महाराज! कुँवर के नहीं जाने का स्पष्ट अर्थ है, द्विरागमन का स्थगित हो जाना...और किसी भी स्थिति में हम ऐसा होने नहीं देंगे।' 'फिर तो संघर्ष!' उत्कल नरेश बुदबुदाये। इसी प्रकार अलग-अलग टुकड़ों में विमर्श होता रहा और संध्या घिर आयी। रात्रि-भोज में जब समस्त अतिथि एवं आतिथेय एक साथ सम्मिलित हुए तो, इसी समस्या पर सामूहिक विमर्श प्रारंभ हो गया। राजा विशम्भरमल्ल ने अपने निर्णय से सबको अवगत कराते हुए कहा, 'द्विरागमन हेतु हमने अपने जिस नाऊ को गौना के डाला के साथ बखरी-सलोना भेजा था, वह आज लौट आया है। समधिन ने मेरे पुत्र का द्विरागमन तो स्वीकारा है, परन्तु उसने कहा है कि वह अपने अंचल में हमारे बंधु-बांधवों एवं परिजनों का स्वागत-सत्कार करने में असमर्थ है अतः हमें अपने प्रिय पुत्र को एकाकी ही उसके अंचल में भेजना होगा।' कहकर राजा ने सभी पर अपनी विहं
गम दृष्टि डाली और पुनः कहा, 'आप सभी को विदित ही है, पूर्व में उसने मेरे प्रिय पुत्र पर प्राण-घातक मारण-पात्र का उग्र-संधान किया था तथा मेरे निर्दोष सेनापति की एक आँख छलपूर्वक नोच ली थी। उसकी इन घृष्टताओं पर हमारे मौन ने उसे और भी नृशंस कर दिया, तभी तो उसने गंगा की मध्य-धारा में पुनः मेरे पुत्र पर तंत्र-प्रहार का दुःसाहस किया। बहुरा की निंरतर दुष्टता के कारण ही मेरी इच्छा नहीं थी कि मैं लोकाचार की परम्परा का निर्वहन करते हुए, उसके समक्ष द्विरागमन का औपचारिक प्रस्ताव भेजूँ, परन्तु आपके सामूहिक परामर्श ने मुझे विवश कर दिया। मुझे भली-भांति ज्ञात था कि इस निर्णय से मेरे वीर सेनापति अत्यंत आहत होंगे, फिर भी मैंने आप सबों का सर्वसम्मत प्रस्ताव स्वीकार कर लिया था।' कहते-कहते राजा की वाणी अवरुद्ध हो गयी। क्रोध एवं प्रायश्चित का सम्मिलित भाव उनके चेहरे पर उभरा और क्षण भर के लिए वे मौन हो गए. सबों की ध्यानमग्न दृष्टि उनपर ही थी। क्षणोपरांत उन्होंने पुनः कहा, 'बहुरा के प्रस्ताव के नेपथ्य में क्या है, यह कहने की आवश्यकता नहीं। मुझे दृढ़ विश्वास है यदि मेरा पुत्र अकेला गया तो निश्चित ही वह उसका ग्रास बन जायेगा और यदि आप सब साथ गए तो भी संघर्ष निश्चित ही है। इसीलिए मैंने विचार किया है, मैं द्विरागमन को ही स्थगित कर दूँ।' उपस्थित जन में से किसी ने भी जब कुछ न कहा तो राजा ने ही पुनः कहा, 'इस समस्या के समाधान पर आप सबांे की क्या प्रतिक्रिया है...? कृपा करके मुझे बताऐं, क्योंकि मेरे सम्मुख मात्र दो ही विकल्प शेष हैं। या तो मैं अपनी पुत्रवधु का द्विरागमन भूल जाऊँ या फिर बखरी से संघर्ष स्वीकारूँ, जबकि इन दोनों में कोई भी विकल्प मेरी आत्मा को स्वीकार नहीं है। ऐसी स्थिति में मुझे परामर्श दें...मुझे क्या करना उचित है।' 'अपने विवाहित पुत्र को पत्नीविहीन रखना किसी को स्वीकार नहीं हो सकता राजा जी' ! शंखाग्राम की राजमाता ने धीर-गम्भीर वाणी में कहा, 'परन्तु दुष्टता का प्रतिकार तो मानव-मात्र का धर्म है...आपकी आत्मा इसे क्यों नहीं स्वीकारती?' 'हाँ राजा जी,' तुरंत ही उत्कल नरेश बोल पड़े, 'राजमाता के कथन का मैं भी समर्थन करता हूँ...और हमारे आगमन का एकमात्र प्रयोजन भी यही है। हमें तो पूर्व ही से विदित था कि हमारे प्रिय कुँवरश्री के द्विरागमन का प्रारंभ ही संघर्ष से होगा। हम सभी इसके लिए पूर्व से तैयार भी हैं। साथ ही हमें विश्वास भी है कि हमें दीर्घ-संघर्ष की आवश्यकता नहीं पड़ेगी। हमारी संयुक्त-शक्ति के समक्ष वह भला कब-तक ठहर सकेगी!' राजा विश्वम्भरमल्ल के अंतस् का द्वंद्व और भी गहरा गया। राजमाता एवं उत्कल नरेश ने जो कहा उसका आभास तो उन्हें पूर्व से ही था। संघर्ष को अवश्यंभावी मान कर वे चिंतित हो गए.
सत्रहवाँ अध्याय हमारे विकास में प्रकृतिका नियम विभिन्नता में एकता, विधि (Law) और स्वाधीनता पृथ्वीके सब प्राणियोमेसे अकेले मनुष्यको ही ठीक ढगसे जीवन-यापन करनेके लिये ठीक ज्ञान प्राप्त करनेकी आवश्यकता पडती है, चाहे यह ज्ञान वह, जैसा कि बुद्धिवादका कहना है, अपनी बुद्धिके एकमात्र या प्रधान साधनद्वारा प्राप्त करे अथवा अधिक व्यापक और जटिल रूपमे अपनी समस्त शक्तियोद्वारा । उसे सत्ताके सच्चे स्वरूप और जीवनके व्यावहारिक क्षेत्रोमे उसकी सतत आत्म-चरितार्थताको, - सरल भाषामे कहे तो, -- प्रकृतिके नियम विशेषतया अपनी प्रकृतिके नियम, तथा अपने अदर और अपने चारो ओरकी शक्तियोको जाननेकी आवश्यकता है; साथ ही उसे यह भी जानना है कि उसके अपने महत्तर सुख और उत्कर्पके लिये अथवा उसके और उसके साथियोके महत्तर सुख और उत्कर्षके लिये इन शक्तियोका ठीक उपयोग क्या है। पुरानी उक्तिके अनुसार, उसे प्रकृतिके अनुकूल जीवन बितानेका ढंग सीखना चाहिये । कितु प्रकृतिका जो रूप पहले स्वीकार किया जाता था वह अब स्वीकार नही किया जा सकता; अब प्रकृति वह सनातन सत्य नियम नही मानी जाती जिससे मनुष्य विच्छिन्न हो गया है, वल्कि प्रकृति स्वयं एक ऐसी चीज है जो बदल रही है, वर्द्धित और विकसित हो रही है, एक शिखरसे अधिक उन्नत शिखरकी ओर बढ़ रही है, अपनी सभावनाओके एक छोरसे अधिक व्यापक छोरकी ओर विस्तृत हो रही है । तथापि इस समस्त परिवर्तनम सत्ताके कुछ सनातन नियम या सत्य भी है जो सदा एकसे रहते है और इन्हीके आधारपर एव इन्ही प्रारंभिक साधनोसे तथा इन्हीके ढाँचेके भीतर हमारी प्रगति और पूर्णताको सपन्न होना है। नही तो शक्तियोके सघर्षमे भी व्यवस्थित रहनेवाले ससारका अस्तित्व न होता, वरन् चारो ओर अनत अस्तव्यस्तताका ही साम्राज्य होता । पशु और वनस्पतिके अवमानवीय जीवनको न तो इस ज्ञानकी और न इस ज्ञानके साथ अनिवार्य रूपमे रहनेवाली उस चेतन इच्छा शक्तिकी ही - आवश्यकता पड़ती है जो सदैव प्राप्त ज्ञानको कार्यरूपमे परिणत करनेकी प्रेरणा अनुभव करती है । इस छूटके मिल जानेसे वह अनगिनत भ्रांतियो, विकृतियों और व्याधियोसे बच जाता है, क्योकि वह सहज-स्वभाववश ही प्रकृतिके अनुसार चलता है; उसका ज्ञान और संकल्प दोनो प्रकृतिके है, चेतन हों अथवा अवचेतन, वे उसके नियमों और आदेशोको टाल नही सकते । इसके विपरीत, मनुष्यके पास एक ऐसी सामर्थ्य प्रतीत होती है जो प्रकृतिके ऊपर अपनी बुद्धि और इच्छाशक्तिका प्रयोग कर सकती है, उसमें उसकी गति-विधियोंको संचालित करने, यहांतक कि जो मार्ग वह उसे बताती है उससे भिन्न मार्ग ग्रहण करनेकी भी क्षमता विद्यमान है। परंतु वास्तवमे यह भी भाषाकी एक विकृतिपूर्ण चाल है, क्योकि मनुष्यका मन भी प्रकृतिका ही एक अंग है, और यह मन यदि उसकी अपनी प्रकृतिका सबसे वडा अंग नही तो सबसे प्रमुख अंग अवश्य है । हम कह सकते है कि यह भी प्रकृति ही है जो कुछ हदतक अपने नियमो और शक्तियो तथा अपने विकाससंबंधी संघर्षके प्रति सजग हो गयी है और जिसके अंदर अपने जीवन और अस्तित्वकी प्रक्रियाओपर एक अधिकाधिक उच्चतर नियम लागू करनेकी चेतन इच्छा जाग उठी है। अवमानवीय जीवनमें प्राणिक और भौतिक संघर्ष तो है पर मानसिक संघर्ष नही । मनुष्य इस मानसिक उलझनमें ग्रस्त है और इसी कारण वह दूसरोके साथ ही नहीं, अपने साथ भी संघर्ष करता है और क्योकि उसमें अपने साथ इस प्रकारका संघर्ष करनेकी सामर्थ्य मौजूद है, उसमे आंतरिक विकासके, उच्चसे उच्चतर स्तरकी ओर बढ़ने तथा अनवरत आत्म-अतिक्रमण करनेके संघर्षकी भी सामर्थ्य विद्यमान है जो पशुओको प्राप्त नहीं है । वर्तमान समयमें यह विकास जीवनसे संवद्ध विचारोके संघर्ष और उनकी प्रगतिद्वारा होता है। अपने प्राथमिक रूपमें मानवके जीवनविषयक विचार स्वयं जीवनकी शक्तियो और प्रवृत्तियोका, जैसे कि वे आवश्यकताओ, इच्छाओ और हितोंके रूपमे प्रकट होती है, मानसिक उल्थामात्र होते है। मनुष्यकी बुद्धि व्यावहारिक और थोड़ी-बहुत स्पष्ट एवं यथार्थ होती है । वह इन चीजोको अपनी दृष्टिमें रखती है तथा अपने अनुभव, मत और रुचिके अनुसार इनमेंसे एक या दूसरेको अधिक या कम महत्त्व देती है। इनमेंसे कुछको मनुष्य स्वीकार करता है और अपनी इच्छा शक्ति और बुद्धिद्वारा उनके विकासमे सहायता पहुंचाता है और कुछको अस्वीकार करके निरुत्साहित कर देता है, यहांतक कि उनका उन्मूलन करनेमे भी सफल हो जाता है । परतु इस प्रारंभिक प्रक्रियासे मनुष्यके अंदर जीवनके विषयमे एक और प्रकार - के उन्नत विचार उत्पन्न होते है । वह उनके मानसिक उल्थामात्र और उनके साथ सहज सक्रिय संबंधसे आगे बढकर उन शक्तियो और प्रवृत्तियोंका निय मित रूपसे मूल्यांकन करने लगता है जो उसमें और उसके वातावरणमे प्रकट हो चुकी है या हो रही है । वह उन्हे प्रकृतिकी स्थिर प्रक्रियाएँ और नियम समझकर उनका अध्ययन करता है और उनके विधान और ढंगको जानन
ेका प्रयत्न करता है । वह अपने मन, प्राण और शरीरके नियम तथा अपने चारों ओरके उन तथ्यो और शक्तियोके विधान और नियम निर्धारित करनेकी चेष्टा करता है जो उसका वातावरण बनाते हैं तथा उसके कार्यका क्षेत्र और ढंग निश्चित करते है । क्योकि हम अपूर्ण और विकसनशील प्राणी है, जीवनसंबंधी नियमोंका यह अध्ययन अवश्य ही दो पहलुओको अपने विचारमें लायगा : एक तो उसका नियम जो इस समयमें है अर्थात् हमारी वर्तमान अवस्थाओका नियम और दूसरा उसका नियम जो हो सकता है या होना चाहिये अर्थात् हमारी संभावित शक्तियोंका नियम यह पिछला नियम ही मानवबुद्धिके निकट जो सदा ही वस्तुओके विषयमे मनमाना और आग्रहपूर्ण सिद्धांत वनानेकी प्रवृत्ति रखती है, एक स्थिर और आदर्श मानदंड या कुछ नियमोंका रूप ले लेता है जिनसे हमारा वर्तमान जीवन विचलित और च्युत हो गया है या जिनकी ओर वह प्रगति एवं अभीप्सा कर रहा है । प्रकृति और जीवनका विकासवादी सिद्धात हमें एक गंभीरतर विचारकी ओर ले जाता है। जो है और जो हो सकता है दोनो सत्ताके उन्ही शाश्वत तथ्यो और हमारी प्रकृतिकी शक्तियो या सामर्थ्योकी अभिव्यक्तियाँ है जिनसे हम न तो बच सकते है और न इनसे बचना अभिप्रेत ही है । कारण, जीवनमात्र वह प्रकृति है जो स्वयंको चरितार्थ कर रही है, वह प्रकृति नही जो अपने-आपको नष्ट या अस्वीकार कर रही है। किंतु हम अपनी प्रकृति और सत्ताके इन शाश्वत तथ्यों और शक्तियोके रूपो एवं महत्त्वो तथा इनकी व्यवस्थाओको उन्नत कर सकते हैं, और उन्हें उन्नत करना, वदलना तथा विस्तृत रूप देना हमारा निर्दिष्ट कार्य भी है। हमारे विकासक्रममे यह परिवर्तन और पूर्णत्व समूल रूपांतर जैसा प्रतीत हो सकता है, यद्यपि मल वस्तुमें कोई परिवर्तन नही होता । हमारी वर्तमान क्षमताएँ अभिव्यक्तिका वह रूप और महत्त्व अथवा सामर्थ्य है जिसे हमारी प्रकृति और हमारा जीवन प्राप्त कर चुके हैं, उनका मानदड या नियम विकासके उसी सोपानकी एक विशिष्ट और स्थिर व्यवस्था एवं प्रक्रिया है। हमारी संभावित शक्तियाँ अभिव्यक्तिके उस नये रूप, महत्त्व और सामर्थ्यकी ओर संकेत करती है जिनकी अपनी एक नयी और उपयुक्त व्यवस्था तथा प्रक्रिया होती है और वही इनका विशेष नियम और मानदंड है । इस प्रकार वर्तमान और सभवनीयके बीचमे स्थित हमारी बुद्धि वर्तमान नियम और रूपको हमारी प्रकृति और हमारे अस्तित्वका सनातन नियम समझनेकी गलती करने लगती है, और जहाँ कोई परिवर्तन हुआ उसे वह नियम भंग या पतन मान लेती है, या, इसके विपरीत, किसी भावी और प्रसुप्त नियम एवं रूपको हमारे जीवनका आदर्श नियम माननेकी भूल कर बैठती है, - उसके अनुकूल यदि कार्य - न किया जाय तो उसे वह हमारी प्रकृतिका दोप या पाप समझने लगती है। वास्तवमें, केवल वही नित्य है जो सब परिवर्तनोके वीच भी स्थिर रहता है और हमारा आदर्श इसकी उत्तरोत्तर अभिव्यक्तिसे अधिक और कुछ नही हो सकता । आत्म-अभिव्यक्तिकी उच्चता, व्यापकता और परि पूर्णताकी जो चरम सीमा मनुष्यके लिये संभव है - यदि ऐसी कोई सीमा हो और उसका हमे ज्ञान हो, किंतु अभीतक हमें अपनी चरम संभावनाओका ज्ञान नही है -- केवल उसीको सनातन आदर्श समझा जा सकता है । जिन विचारों या आदर्शोको मानव-मन जीवनसे संगृहीत करता है या उसपर लागू करनेकी चेष्टा करता है वे स्वयं जीवनकी, जव कि वह अपने नियमको अधिकाधिक प्राप्त करनेका तथा उसे ऊँचेसे ऊँचा उठाने और साथ ही अपनी सुप्त शक्तियोंको उपलब्ध करनेका यत्न कर रहा होता है, अभिव्यक्तिके अतिरिक्त कुछ नही हो सकते । प्रकृतिकी मानवी जीवनप्रणालीके महत्त्व तथा उसकी सुप्त शक्तियोंकी इस क्रमिक चरितार्यता और परिपूर्णतामे हमारा मन उसकी गतिके चेतन भागका प्रतिनिधि है । यदि यह मन पूर्ण होता तो यह अपने ज्ञान और संकल्पमें उस समग्र गुप्त ज्ञान और सकल्पके साथ एक होता जिसे प्रकृति ऊपरी तलपर लानेकी कोशिश कर रही है और तब कोई मानसिक संघर्प भी न होता, क्योकि तव हम उसकी क्रियाके साथ एक हो सकते, उसके उद्देश्यको जान लेते और उसके मार्गका वुद्धिमत्तापूर्वक अनुसरण कर सकते । तब हम वह सत्य जान लेते -- जिसपर गीता भी वल देती है - कि केवल प्रकृति ही क्रियाशील है और हमारे मन एवं जीवनके कार्य उसके गुणोंके ही व्यापार है । अव मानवीय जीवन प्राण और सहजबुद्धिके द्वारा और यात्तिक रूपसे यही कार्य करता है, वह अपनी श्रेणी - विशेषकी सीमाओके भीतर प्रकृतिके अनुकूल वनकर ही रहता है और इस प्रकार आंतरिक संघर्ष से मुक्त हो जाता है, यद्यपि इतर जीवनके साथ उसका संघर्ष फिर भी चलता है । उधर अतिमानवीय जीवन सचेतन रूपमे इस पूर्णताको प्राप्त करेगा, वस्तुओंमें निहित गुप्त ज्ञान और संकल्पको अपना बना लेगा और प्रकृतिके द्वारा, उसीकी मुक्त, सहज और सामंजस्यपूर्ण गतिसे अपने आपको चरितार्थ करेगा; प्रकृति धीर, अविश्रांत भावसे उस पूर्ण विकासकी ओर बढ़ रही है जो उसका जन्म-ज
ात और इसलिये पूर्व निर्धारित लक्ष्य है । सच तो यह है कि हमारा [ मन अपूर्ण है, हमे उसकी प्रवृत्तियों तथा उद्देश्योका आभासमात्र ही मिलता [ है और ऐसे प्रत्येक आभासको हम अपने जीवन और व्यवहारका निरपेक्ष नियम वा आदर्श सिद्धांत वना लेते है; हम उसकी प्रक्रियाका केवल एक पहलू देखते है, उसे एक समग्र और पूर्ण प्रणालीके रूपमे प्रस्तुत करते है और फिर वही हमारी जीवन-व्यवस्थाका संचालन करती है । अपूर्ण व्यक्ति तथा उससे भी अधिक अपूर्ण सामूहिक मनद्वारा कार्य करते हुए वह हमारी सत्ताके तथ्यों तथा शक्तियोको उन विरोधी नियमो और सामर्थ्याके रूपमें खड़ा कर देती है जिनके साथ हम अपनी बुद्धि और भावावेगोद्वारा अपना संबंध स्थापित कर लेते है । कभी वह एकको उत्साहित या निरुत्साहित करती है और कभी दूसरेको; इस प्रकार मनुष्यके मनमे वह उन्हें संघर्ष और विरोधके द्वारा उस पारस्परिक ज्ञान और उनकी पारस्परिक आवश्यकताकी भावना तथा उनकी सुप्त शक्तियोके उत्तरोत्तर समुचित संबंध और समन्वयकी ओर ले जाती है जो मनुष्य जीवनकी नमनीय सभाव्यतामे चरितार्थ शक्तियोंके बढ़ते हुए सामंजस्य तथा संगठनमे प्रकट होता है । मानवजातिका सामाजिक विकास आवश्यक रूपसे तीन स्थायी तत्त्वो, - व्यक्ति, नाना प्रकारके समाज और मनुष्यजाति, के बीचके सबधोका विकास है। इनमेसे प्रत्येक अपनी परिपूर्णता और तुष्टि चाहता है । पर प्रत्येक ही इन्हें स्वतंत्र रूपमे नही अपितु दूसरोसे संबंध रखते हुए विकसित करनेको वाध्य होता है। व्यक्तिका पहला स्वाभाविक उद्देश्य उसकी अपनी आतरिक उन्नति और पूर्णता और अपने बाह्य जीवनमे इनकी अभिव्यक्ति है। यह कार्य वह दूसरे व्यक्तियोके साथ, अनेक प्रकारके धार्मिक, सामाजिक, और सांस्कृतिक, राजनीतिक समुदायोके साथ जिनका वह अग है और सामान्य रूपमे मनुष्यजातिकी भावना और आवश्यकताके साथ संबंध रखकर ही कर सकता है। समुदाय भी अपनी परिपूर्णता चाहता है, पर उसकी समष्टि चेतना और उसके सामूहिक सगठनमें कितनी भी शक्ति क्यो न हो, वह अपना विकास केवल व्यक्तियोके द्वारा ही कर सकता है। ऐसा वह अपने वातावरणद्वारा प्रस्तुत की गयी परिस्थितियोके दबावसे और उन अवस्थाओके अधीन होकर करता है जो दूसरे समुदायो और व्यक्तियो तथा समग्र मनुष्यजातिके साथ उसके संबंधोद्वारा उसपर लाद दी जाती है । समूची मानवजातिका अपना कोई सचेतन रूपमे संगठित सामान्य जीवन नही है, उसके पास केवल एक ऐसा प्रारंभिक सगठन है जो मानवी बुद्धि और इच्छा-शक्तिसे कही अधिक परिस्थितियोद्वारा निर्धारित होता है । तथापि हमारे सामान्य मानव अस्तित्व, स्वभाव और भवितव्यताके विचार और तथ्यने सदा ही मनुष्यके विचारों और कार्योपर अत्यधिक प्रभाव डाला है। नीति और धर्मका तो मुख्य कार्य ही मनुष्यजातिके प्रति मनुष्यके कर्त्तव्योंका बताना रहा है। जातिमें होनेवाले वृहत् आंदोलनों और परिवर्तनोके द्रबावसे उसके पृथक्-पृथक् समुदायोका भविष्य सदा ही प्रभावित हुआ है, साथ ही अपने विस्तारके लिये और यथासंभव समस्त जातिको अपनेमे मिला लेनेके लिये इन पृथक् सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक और धार्मिक समुदायोंका प्रतिकारात्मक दवाव भी सदा हो रहा है । और यदि अथवा जव भी समस्त मनुष्यजाति एक संगठित सामान्य जीवन प्राप्त कर लेगी और सभीकी परिपूर्णता और तुष्टिकी इच्छा करने लगेगी, तो ऐसा वह समष्टिके अपने अंगोके साथ संवधद्वारा और व्यक्तियो और समुदायके विस्तारशील जीवनकी सहायतासे ही कर सकेगी। क्योंकि इनकी प्रगति ही मनुष्यजातिके जीवनकी अधिक व्यापक अवस्थाओंका निर्माण करती है । प्रकृति सदैव इन तीन करणोके द्वारा काम करती है, और इनमेंसे किसीको भी हटाया नही जा सकता । वह एक और अनेकको प्रत्यक्ष अभिव्यक्ति तथा समष्टि और उसकी अवयवभूत इकाइयोंसे आरंभ करती है और फिर इन दोनोके बीचकी एकताओंका निर्माण करती है जिनके विना न तो समष्टिका और न ही इकाइयोंका पूर्ण विकास हो सकता है । उद्भिज जीवनमे भी वह सदा जाति, उपजाति और व्यप्टिकी तीन अवस्थाओंकी रचना करती है। किंतु, जव कि पशु-जीवनमें वह तीव्र भेद करने और छोटे-छोटे वर्ग बनानेसे ही संतुष्ट हो जाती है, मानवजीवनमे वह अपने किये हुए विभाजनोको अतिक्रांत करने और समस्त जातिको ऐक्यकी भावना तथा एकत्वको प्राप्तिकी ओर ले जानेका प्रयत्न करती है। मनुष्यके समुदाय एक ही जाति या उपजातिके कुछ व्यक्तियोकी सहजप्रेरणावश एकत्र होनेके द्वारा उतने नहीं निर्मित होते जितने कि स्थानीय संसर्ग और हितो एवं विचारोकी समानताके द्वारा निर्मित होते है । जैसे-जैसे जातियो, राष्ट्रों, है। हितों, विचारों और संस्कृतियोके निकटतर संमिश्रणसे मनुष्यके विचार और सद्भाव व्यापेक् रूप धारण करते जायंगे वैसे-वैसे ये सीमाएँ भी समाप्त होती जायंगी। फिर भी, अपने पृथक्त्वकी दृष्टिसे समाप्त होकर भी, तथ्य रूपमे ये समाप्त नही होती; कारण, ये प्रकृतिके मूल सिद
्धांत - एकतामे विभिन्नता - पर आधारित होती है । अतएव, यह प्रतीत होता है कि प्रकृतिका आदर्श अथवा अंतिम उद्देश्य यह है कि प्रत्येक व्यक्ति तथा समस्त व्यक्तियोका जुनकी पूरी सामथ्यंके अनुसार विकास हो जाय, प्रत्येक हमारे विकासमे प्रकृतिका नियम समुदाय तथा समस्त समुदाय इस प्रकार विकसित हो जायं कि जिस अनेकागी अस्तित्व और क्षमताको व्यक्त करनेके लिये उनमे विभिन्नताएँ पैदा की गयी थी उसकी पूरी अभिव्यक्ति हो जाय, साथ ही मानवजातिका एकीकृत जीवन भी इस प्रकार विकसित हो जाय कि सभी अपनी पूर्ण योग्यता और सतोषको प्राप्त कर ले । पर ऐसा वह व्यक्ति या छोटे समुदायके जीवनकी समृद्धिको दबाकर नही पर जिस विभिन्नताको वे विकसित करते है उससे पूरा लाभ उठाते हुए करेगी । मनुष्यजातिके सपूर्ण वैभवको बढाने तथा उसके द्वारा सर्वसामान्यकी सुख-संपत्तिके कोषमे वृद्धि करनेका यही सर्वोत्तम ढग प्रतीत होता है । इस प्रकार मनुष्यजातिका सयुक्त विकास व्यक्ति व्यक्तिके बीच, व्यक्ति और समुदायके बीचे, समुदाय और समुदायके बीच, छोटे जनसमाज और समृची मनुष्यजातिके बीच, मनुष्यजातिके सामान्य जीवन और उसकी चेतनाके बीच तथा उसके स्वतत्र रूपमे विकसित होते हुए सामाजिक और वैयक्तिक अगोके बीच आदान-प्रदान एवं आत्मसात्करणके सामान्य सिद्धांतद्वारा साधित किया जायगा । चाहे अब भी प्रकृति इसी आदान-प्रदानको चलानेकी चेष्टा कर रही है, फिर भी तथ्य यह है कि जीवनका ऐसे स्वतंत्र और समस्वर पारस्परिक सहयोगके सिद्धांतद्वारा परिचालित होना अभी बहुत दूरकी बात है । इसमे संघर्ष है, विचारो, आवेगो और हितोका परस्पर विरोध है, प्रत्येक ही दूसरोके साथ अनेक प्रकारके सघर्प करके लाभ उठानेका प्रयत्न करता है; ऐसा करनेके लिये वह स्वतंत्र और प्रचुर आदान-प्रदानकी अपेक्षा कही अधिक एक प्रकारकी बौद्धिक, प्राणिक और भौतिक चोरी डकैतीका आश्रय लेता है, इतना ही नही, वह अपने साथियोके शोषण, उत्पीडन और भक्षणतककी इच्छा रखता है । अपने सर्वोच्च विचार और अभीप्साकी अवस्थामे मनुष्यजाति यह जानती है कि जीवनके इस पक्षसे उसे ऊपर उठना है, पर या तो उसे इसके ठीक साधनका पता ही नहीं चला और या फिर उसमे इसे प्रयोगमे लानेकी शक्ति नही है । इसके स्थानपर वह अब वैयक्तिक जीवनको कठोरतापूर्वक सामाजिक जीवनके अधीन करके अथवा उसका सेवक बनाकर विकासके सघर्ष और उसकी अव्यवस्थासे मुक्त होना चाहती है। इसका स्वाभाविक परिणाम यह होगा कि सामाजिक जीवनको प्रवल रूपसे मानवजातिके सयुक्त और संगठित जीवनके अधीन करके अथवा उसका सेवक बनाकर समाजोके पारस्परिक कलहके निवारणके लिये यत्न करना पडेगा । अव्यवस्था, संघर्ष और विनाशसे त्राण पानेके लिये स्वतत्रताका त्याग, पृथक्त्व और विरोधी जटिलताओसे मुक्त होनेके लिये विभिन्नताका त्याग व्यवस्था और शासनप्रवधकी एक ऐसी प्रेरणा है जिसके द्वारा वौद्धिक तर्ककी स्वच्छद कठोरता प्रकृतिकी क्रियाके कठिन और विषम मार्गीके स्थानपर अपना सीधा मार्ग लानेका प्रयत्न करती हैं । किंतु स्वतंत्रता भी जीवनके लिये उतनी ही आवश्यक है जितने कि विधान और शासन पद्धति; विभिन्नताका भी हमारी सच्ची पूर्णतामें उतना ही स्थान है जितना कि एकताका । सत्ता अपने सार और अपनी समग्रतामें केवल एक है, जब कि अपनी क्रीड़ामे वह आवश्यक रूपसे बहुरूप है । पूर्ण एकरूपताका अर्थ होगा जीवनका अंत, उधर जीवन-धमनीकी शक्ति उन विभिन्नताओकी समृद्धिसे नापी जा सकती है जिन्हें जीवन उत्पन्न करता है । साथ ही, यदि विभिन्नता जीवनकी शक्ति और विपुलताके लिये आव श्यक है तो एकता भी उसकी व्यवस्था, क्रमवद्धता और मुस्थिरताके लिये जरूरी है । एकता तो हमे उत्पन्न करनी है पर एकरूपता उत्पन्न करन उतना आवश्यक नहीं । यदि मनुष्य एक पूर्ण आध्यात्मिक एकता प्राप्त कर सके तो किसी भी एकरूपताकी आवश्यकता नही होगी, क्योंकि तब इस आधारपर विभिन्नताकी चरम क्रीड़ा सुरक्षित रूपमें संभव होगी । माथ ही यदि वह एक सुरक्षित, स्पष्ट और सुदृढ एकता सिद्धातरूपमे चरितार्थ कर सके, तो उसे क्रियान्वित करने में एक समृद्ध यहांतक कि एक असीम विभिन्नता भी प्राप्त की जा सकेगी और उसमे किसी संघर्प, अव्यवस्था या अस्तव्यस्तताका भय भी नहीं होगा। क्योंकि वह इन दोनों बातोमेंसे एक भी नहीं कर सकता, वह सदा सच्ची एकताके स्थानपर एकरूपता लानेके लिये लालायित रहता है । जब कि मनुष्यकी जीवन-शक्ति विभिन्नताकी माँग करती है, उसकी बुद्धि एकरूपताका पक्ष लेती है । वह एकरूपताको इसलिये अधिक पसंद करती है कि यह सच्ची एकताके स्थानपर - जिसे प्राप्त करर्ना अत्यंत कठिन है - मनुष्यके अंदर सहज ही एकताका एक प्रवल भ्रम पैदा कर देती है। वह एकरूपताके पक्षमें इसलिये भी है कि यह उसके लिये विधान, व्यवस्था और शासन-प्रबंधके कार्यको आसान कर देती है जो वैसे कठिन होता है। उसकी पसंदका एक कारण यह भी है कि मनुष्यके मनकी प्र
ेरणा प्रत्येक अनुभवनीय विभिन्नताको पृथक्त्व और संघर्षका बहाना बना लेती है और इसलिये एकरूपता ही उसे एकत्व प्राप्त करने की एकमात्र सुरक्षित और सुगम पद्धति प्रतीत होती है । इसके अतिरिक्त, जीवनकी किसी एक दिशा या क्षेत्रमे एकरूपता उसे दूसरी दिशाओमें विकास करनेके लिये शक्ति-संचय करनेमें सहायता देती है । यदि वह अपने आर्थिक जीवनको एक नियत रूप देकर उसकी समस्याओसे वच सके तो उसे अपने वौद्धिक और सास्कृतिक विकासकी ओर ध्यान देनेके लिये अधिक अवकाश और अवसर मिल सकता है । अथवा फिर, यदि अथवा फिर, यदि वह अपने समस्त सामाजिक जीवनको भी एक नियत रूप दे दे और साथ ही भविष्यमे प्रकट हो सकनेवाली समस्याओका निराकरण कर दे तो उसे वह शांति और स्वतंत्र मानसिक अवस्था प्राप्त हो सकती है जिससे वह अपने आध्यात्मिक विकासकी ओर अधिक उत्साहपूर्वक ध्यान दे सकेगा । किंतु यहाँ भी सत्ताकी जटिल एकता अपने सत्यका प्रतिपादन करती है, अतमे मनुष्यके समग्र बौद्धिक और सास्कृतिक विकासको सामाजिक निष्क्रियतासे, उसके आर्थिक जीवनकी सीमाओ और हीनतासे हानि उठानी पड़ती है । जातिका आध्यात्मिक जीवन यदि अधिक ऊँचा उठ जाय और एक अत्यधिक नियमबद्ध और अनुशासित समाजपर निर्भर रहने लगे तो अतमे उसका वैभव और उसकी जीवन-शक्तिके अखड स्रोत क्षीण हो जाते है, तमस् नीचेसे उठकर शिखरोतकको जा छूता है । अपनी मनोवृत्तिके दोषोके कारण हमे कुछ हदतक एकरूपताको स्वीकार तो करना पड़ता है तथा उसके लिये प्रयत्न भी करना पड़ता है । फिर भी प्रकृतिका वास्तविक उद्देश्य समृद्ध विभिन्नताको आश्रय देनेवाली सच्ची एकता ही है । उसका गुप्त भेद इस तथ्यसे काफी स्पष्ट हो जाता है कि यद्यपि वह एक ही सामान्य योजनाके अनुसार निर्माण करती है तथापि उसका आग्रह सदा असीम विविधतापर होता है । मानवीय आकृतिकी योजना एक ही है, तथापि कोई भी दो मनुष्य अपनी शारीरिक गठनमे एक समान नही है । मानव प्रकृति अपने उपादानो और अपनी प्रधान दिशाओमे एक है पर किन्ही भी दो मनुष्योका स्वभाव, गुण या मनोवैज्ञानिक तत्त्व ठीक एक जैसा नही है । समस्त जीवन अपनी मूल योजना और सिद्धातमे एक है, यहाँतक कि पौदा भी पशुका सजातीय प्रतीत होता है परंतु जीवनकी एकता प्रतिरूपोकी असीम विविधताको स्वीकार और उत्साहित करती है । मानव-समुदायोका एक-दूसरेसे स्वाभाविक भेद भी उसी योजनाके अनुसार होता है जिसके अनुसार व्यक्तियोमे परस्पर विभिन्नता पायी जाती है । प्रत्येक ही अपना-अपना गुण, विभिन्न सिद्धात और स्वाभाविक नियम विकसित करता है । यह विभेद और मूल रूपसे अपने ही नियमका अनुसरण उसके जीवनके लिये तो आवश्यक है ही, पर मानवजातिके स्वस्थ और समग्र जीवनके लिये भी यह उतना ही आवश्यक है । क्योकि विविधताका सिद्धांत स्वतत्र आदान-प्रदानको नही रोकता और न ही वह एक ही भंडारके द्वारा सबकी और सबके द्वारा उस भंडारकी समृद्धिका विरोध करता है और यही, जैसा कि हम देख चुके हैं, जीवनका आदर्श सिद्धात है। इसके विपरीत, बिना किसी सुरक्षित विविधताके इस प्रकारका आदान-प्रदान और पारस्परिक आत्मसात्करण संभव ही नही होगा । अतएव हम देखते है कि हमारी एकता और हमारी विभिन्नताके समन्वयमे ही हमारे जीवनका गुप्त भेद निहित है। प्रकृति अपने सव कार्यो में एकता और विभिन्नतापर समान रूपसे आग्रह करती है। हम देखेंगे कि सच्ची आध्यात्मिक और मनोवैज्ञानिक एकता स्वतंत्र विभिन्नताको तो स्वीकार कर सकती है पर एकरुपता वह केवल उतनी ही रखती है जो स्वभाव और मूल तत्त्वकी समानताको मूर्त रूप देनेके लिये पर्याप्त होती है। जबतक हम उस पूर्णताको नही प्राप्त कर लेते, तबतक हमें एकरूपताकी प्रणालीको व्यवहारमें लाना पडेगा, पर हमें इसके प्रयोगमे अति नही करनी चाहिये, अन्यथा जीवनकी शक्ति, समृद्धि और उसकी स्वस्थ, स्वाभाविक आत्म-अभिव्यक्तिके मूल स्रोतोंके मद पड़नेका भय उपस्थित हो जायगा । विधि और स्वाधीनताका झगड़ा भी इसी प्रकारका है और उसका समाधान भी यही होगा। विभिन्नता अथवा विविधता स्वतंत्रतापूर्ण होनी चाहिये । प्रकृति वस्तुएँ गढ़ती नही, न ही उसका आग्रह किसी बाह्य प्रतिरूप या नियमपर होता है । वह जीवनको अपने अंदरमे विकमिन होने तथा अपने स्वाभाविक नियम और विकासका प्रतिपादन करनेके लिये प्रेरित करती है । जीवनके इस नियम और विकासमें परिवर्तन केवल वातावरणके साथ उसके संबंधसे होता है । वैयक्तिक, राष्ट्रीय, धार्मिक, सामाजिक और नैतिक समस्त प्रकारकी स्वाधीनता हमारे जीवनके मूल सिद्धांतपर आधारित होती है। स्वाधीनतासे हमारा अभिप्राय है अपनी सत्ताके नियमके अनुसार चलना, अपनी स्वाभाविक आत्म-परिपूर्णतातक, विकसित होना और अपने वातावरणके साथ स्वाभाविक और स्वतंत्र रूपये समस्वरता प्राप्त करना । स्वाधीनताका दुरुपयोग स्वाधीनताका दुरुपयोग करनेसे अव्यवस्था, सघर्प, विनाश और अस्तव्यस्तताके रूपमें जो संकट आते है या हानियाँ
होती है वे तो प्रत्यक्ष है ही, किंतु ये चीजे इस कारण ऊपर उठती है कि व्यक्ति व्यक्ति, समाज समाजमे, एकताकी भावनाका या तो अभाव होता या उसमें कुछ त्रुटि होती है जो उन्हें पारस्परिक सहायता और आदानप्रदानद्वारा उन्नति करनेके स्थानपर दूसरेको हानि पहुँचाकर भी अपने स्वत्वकी स्थापना करनेके लिये तथा अपने साथियोके स्वतंत्र विकासमें बाधा डालते हुए अपनी स्वतव्रताका समर्थन करनेके लिये प्रेरित करती है। यदि एक वास्तविक, आध्यात्मिक और मनोवैज्ञानिक एकता प्राप्त कर ली जाय तो स्वाधीनतामे न तो कोई सकट रहेगा और न ही उससे कोई हानि होगी, क्योकि एकताप्रिय स्वतंत्र व्यक्तियोको अपने आप ही अपनी आवश्यकतावश इस वातके लिये वाधित होना पड़ेगा कि वे अपने और अपने साथियोके विकासमे पूर्ण समन्वय स्थापित करे और तवतक अपने आपको परिपूर्ण न समझे जवतक दूसरोका भी स्वतन • विकास नही हो जाता । क्योकि हम अभी अपूर्ण है, हमारा मन और सकल्प भी अज्ञानग्रस्त है, वाह्य रोक और दवावके लिये हमे विधि और शासनकी सहायता लेनी पड़ती है । एक सबल विधि और दवावके सहज लाभ तो प्रत्यक्ष है ही, पर हानियाँ भी उतनी ही वड़ी है । जिस पूर्णताको लानेमे यह सफल होती है वह भी पीछे यात्रिक हो जाती है, यहाँतक कि जो व्यवस्था यह स्थापित करती है वह भी अंतमे कृत्रिम सिद्ध होती है और यदि पकड़ ढीली पड़ जाय या नियंत्रण हटा लिया जाय तो वह व्यवस्था टूट भी सकती है । यदि यह बाह्य व्यवस्था अधिक दूरतक ले जायी जाय तो यह स्वाभाविक विकासके उस सिद्धातको जो जीवनको यथार्थ प्रणाली है, निरुत्साहित कर देती है, यहाँतक कि यह वास्तविक विकासकी सामर्थ्यको नष्ट भी कर सकती है । जीवनको दवाने और उसे आवश्यकतासे अधिक नियमित करनेसे हम सकटमे पड़ जाते है। शासन-प्रवधकी अति करनेसे हम प्रकृतिकी प्रेरणा और उसके सहज आत्म-अनुकूलनके स्वभावको कुचल डालते है । नमनीयतासे कम या अधिक वचित निष्प्राण व्यक्तित्व ऊपरसे सुन्दर और सुडौल प्रतीत होनेपर भी अदरसे नष्ट हो जाता है । जो विधि हमारी अपनी नही है या जिसे हमारी सच्ची प्रकृति आत्मसात् नही कर सकती, उसके लगातार बने रहने से तो अराजकता अच्छी है। दवाने या रोकनेवाली प्रत्येक विधि एक उपाय अथवा सच्ची विधिकी स्थानापन्नमात्र होती है; सच्ची विधि तो अदरसे हो विकसित होनी चाहिये, उसे स्वाधीनताका प्रतिबंधक नही, बल्कि उसका वाह्य स्वरूप तथा उसकी प्रत्यक्ष अभिव्यक्ति होना चाहिये । जहाँतक विधि स्वतन्त्रताका शिशु बनकर रहती है, मानव समाज वास्तविक और सजीव रूपमे उन्नति करता है । वह अपनी पूर्णतातक तभी पहुंचेगा जब मनुष्य अपने साथियोके साथ आध्यात्मिक रूपमे एक होना जान लेगा और एक हो जायगा, एवं जब उसके समाजकी सहज विधि केवल उसकी स्व-शासित आंतरिक स्वाधीनताका बाह्य साँचामात्र रह जायगी ।
सबसे आग्रह था कथा के श्रवण हेतु ऊंच-नीच, धनी-निर्धन, पंडित-अपढ़ का कोई भेद नहीं. सब समकक्ष हो कर श्रवण करें. उछाह भरे प्रजा- जन उमड़ आये. सम्राट् को अपने पास, समान आसन पर पा कर अभिभूत हो गये. सबकी सुख-सुविधा हेतु चारों भाई सजग हैं, कोई किसी को बता रहा है -' इस आयोजन में भोग हेतु प्रसाद साम्राज्ञी को स्वयं बनाना है ' विस्मय से सुनते हैं लोग. व्यास देव की मनोरम शैली, श्रोताओं का औत्सुक्य - क्या सुन्दर ताल-मेल! युद्ध की विभीषिका ने आर्यावर्त की धरती पहले ही वीरों से विहीन कर दी, अनेक महान् वंश समाप्त हो गये. माँ और पितामही, की बातों से जो जाना है युवराज ने आज कथा-क्रम में सब सुन रहे हैं. यदुकुल के लोगों का बहुत स्नेह पाया परीक्षित ने, उनके वार्तालाप से लाभान्वित होता रहा है, बोले, ' हाँ,मुझे ज्ञात है, कृतवर्मा पितामह को बहुत दुख रहा कि उन्होंने ऐसा क्यों किया. ' 'जाने दो पुत्र,उनकी बातें उनके साथ गईँ. ' 'परीक्षित को जन के सम्मुख उपस्थित कर उसकी पात्रता सिद्ध करने का समय आ गया है. उसे ही शासन सूत्र सँभालने हैं. यहाँ की स्थितियों से परिचित होता चले. ' भावी राजमाता है उत्तरा. अपने सामने ही सब से परिचित कराना उचित होगा. तब युधिष्ठिर ने संशय किया था, ' धार्मिक कार्यों में राजनीतिक उद्देश्य जोड़ना,. . . . ' 'राजनीति ? कौन सी नीति हो रही है यहाँ ? हमारा कर्तव्य,हमारा धर्म. राजा-प्रजा में सामंजस्य का प्रयास, परस्पर सद्भावना और समझ उत्पन्न करने का, इसमें राजनीति कहाँ से आ गई ? ' व्यास बोले थे, वाचक के आसन पर पर बैठ कर पोथी नहीं जीवन के अध्याय खुलते हैं. सत्य-वाचन किये बिना कैसे रहा जा सकता है. धर्म वैयक्तिक जीवन के साथ समाज को भी साधता है. लोक को जानना ही उचित है कि वह किस ओर जा रहा है,' परिवार के सदस्य भागवत श्रवण करेंगे. उपस्थित जन से संपर्क तो होना ही है. ' पार्थ बोले,'सही है. उसके जन्म का वृत्तान्त जान लें सारे जन. जीवन की आपाधापी में किसे याद होंगी वे पुरानी घटनायें ? ' क्या-क्या घट चुका अपने उस इतिहास को यह पीढ़ी समझ ले. ' पांचाली स्वयं स्वागत करती है, आवश्यक शिष्टाचार का निर्वाह करती है. कोई संकुचित न हो कहती है,' मेरे बाँधव कृष्ण ने स्वयं अतिथियों के जूठे पात्र उठाये थे,और आप तो भागवत-कथा का श्रवण कर रहे हैं - मेरे आदरणीय हैं. ' गद्गद् हो जाते हैं जन. गद्दी पर आसीन महर्षि व्यास ,कथा के बीच स्पष्ट करते हैं, ब्रह्मास्त्र से कोई बच नहीं पाया आज तक. पर श्रीकृष्ण ने देवी उत्तरा के गर्भस्थ शिशु की रक्षा की अपने सत और तप से की. यही है वह परीक्षित. आपके सम्मुख. ' मर्मर ध्वनि उठती है -'परीक्षित ? ' 'पुत्र सम्मुख आओ, ये सब तुम्हारे अपने, मिलो इनसे!' कितना सुदर्शन, गौर वर्ण युवक! वह,शीष झुका कर, कर जोड़ देता है 'आप सब मेरा प्रणाम स्वीकारें!' हर्ष की लहर दौड़ जाती है. पांचाली ने पौत्र का सिर सूंघा, हृदय से लगा लिया, वात्सल्य उमड़ पड़ा. उत्तरा के पुत्र में कृष्ण और पार्थ दोनों की झलक पा ली . अपने पुत्र के संपर्क से पयोधर उमड़ आये हों ज्यों, वही अनुभूति परीक्षित को पहली बार गोद में लेने पर जाग उठी थी, वही अनुभव दुहरा आया अपने सजल होते नेत्रों को छिपा गई वह. अभी ऊँचे-पूरे युवक-पौत्र को निहार अंतर उसी भाव से भर उठा. मेरी ही टोक न लग जाय कहीं. उसने दृष्टि-दिशा बदल दी. 'वत्स तुम्हारे पिता के मामा-श्री के तप और सत् से आज तुम हमारे सामने हो. नहीं तो हमारा वंश ही डूब गया था. प्रयत्न करना उनके शुभ्र चरित्र पर कोई आँच न आये. ' 'आपका आशीष साथ रहे, पितामही. ' सब देख रहे हैं दक्षिण बाहु पर यह नील-लोहित चिह्न - यह क्या ? 'हाँ, और हृदय के समीप भी. जैसे उस समय की मुद्रा में था, अस्त्र शिशु के हृदय में प्रविष्ट हुआ हो. ' किसी की उत्सुकता जागी है. 'तुम्हें क्या अनुभव हुआ था वत्स, उस समय ? " कुछ स्मरण करता-सा बोला, ' बहुत धुँधली स्मृति. अभी भी कँपा देती है! इतना तीव्र ताप जैसे पल में वाष्प कण बन जाऊँगा. तभी कानों में कुछ ध्वनित होने लगा. लगा मेरे चारों ओर अत्यंत वेग से कुछ घूम रहा है- घनघनाता चक्कर काट रहा. इतना समीप कि अभी स्पर्श कर लेगा. . . . हाँ, फिर ताप घटने लगा,' कहते-कहते उसकी वह बाँह हिल गई, ' यहाँ तीव्र पीड़ा, असहनीय. अभी भी लगता है जैसे सनसनाहट हो रही हो. तब भी यह बाँह काँपी थी फिर माँ के कर का स्पर्श अनुभव किया,' उसने समीप बैठी राजवधू उत्तरा की ओर देखा, ' माँ ने मेरे उदर पर अपना हाथ धरा था. कुछ निश्चेष्ट सा हो गया मैं. धीरे-धीरे शीतलता व्यापने लगी. . आगे कुछ याद नहीं. ' महिलाओं के समूह में किसी ने उत्तरा से सहानुभूति प्रकट की, ' इन्हें कैसा लगा होगा उस समय, हे भगवान!' 'पुत्री, तुम पर क्या बीती होगी!' सुभद्रा पास खिसक आईं आश्वस्त करती बोलीं. 'कुछ बोलोग