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599
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---|---|---|---|---|---|
<unk> | 7 | 0 | اختیاری نیست بدنامی من | حافظ | 592 |
<unk> | 8 | 1 | ضلنی فی العشق من یهدی السبیل | حافظ | 592 |
<unk> | 9 | 0 | آتش روی بتان در خود مزن | حافظ | 592 |
<unk> | 10 | 1 | ور نه در آتش گذر کن چون خلیل | حافظ | 592 |
<unk> | 11 | 0 | یا بنه بر خود که مقصد گم کنی | حافظ | 592 |
<unk> | 12 | 1 | یا منه پای اندرین ره بیدلیل | حافظ | 592 |
<unk> | 13 | 0 | با رسوم پیلبانان یاد گیر | حافظ | 592 |
<unk> | 14 | 1 | یا مده هندوستان با یاد پیل | حافظ | 592 |
<unk> | 15 | 0 | یا مکش بر چهره نیل عاشقی | حافظ | 592 |
<unk> | 16 | 1 | یا فرو بر جامهی تقوی به نیل | حافظ | 592 |
<unk> | 17 | 0 | حافظا گر معنیی داری بیار | حافظ | 592 |
<unk> | 18 | 1 | ورنه دعوی نیست غیر از قال و قیل | حافظ | 592 |
<unk> | 1 | 0 | روز عید است و من امروز در آن تدبیرم | حافظ | 593 |
<unk> | 2 | 1 | که دهم حاصل سیروزه و ساغر گیرم | حافظ | 593 |
<unk> | 3 | 0 | چند روزیست که دورم ز رخ ساقی و جام | حافظ | 593 |
<unk> | 4 | 1 | بس خجالت که به روی آمد ازین تقصیرم | حافظ | 593 |
<unk> | 5 | 0 | من به خلوت ننشینم پس از این، ور به مثل | حافظ | 593 |
<unk> | 6 | 1 | زاهد صومعه بر پای نهد زنجیرم | حافظ | 593 |
<unk> | 7 | 0 | پند پیرانه دهد واعظ شهرم لیکن | حافظ | 593 |
<unk> | 8 | 1 | من نه آنم که دگر پند کسی بپذیرم | حافظ | 593 |
<unk> | 9 | 0 | آن که بر خاک در میکده جان داد کجاست | حافظ | 593 |
<unk> | 10 | 1 | تا نهم در قدم او سر و پیشش میرم | حافظ | 593 |
<unk> | 11 | 0 | می به زیر کش و سجادهی تقوی بر دوش | حافظ | 593 |
<unk> | 12 | 1 | آه اگر خلق شوند آگه از این تزویرم | حافظ | 593 |
<unk> | 13 | 0 | خلق گویند که حافظ سخن پیر نیوش | حافظ | 593 |
<unk> | 14 | 1 | سالخورده میی امروز به از صد پیرم | حافظ | 593 |
<unk> | 1 | 0 | ای در چمن خوبی رویت چو گل خودرو | حافظ | 594 |
<unk> | 2 | 1 | چین شکن زلفت چون نافهی چین خوش بو | حافظ | 594 |
<unk> | 3 | 0 | ماه است رخت یا روز؟ مشک است خطت یا شب؟ | حافظ | 594 |
<unk> | 4 | 1 | سیم است برت یا عاج؟ سنگ است دلت یا رو؟ | حافظ | 594 |
<unk> | 5 | 0 | لعلت به در دندان بشکست لب پسته | حافظ | 594 |
<unk> | 6 | 1 | زلفت به خم چوگان بربود دلم چون گو | حافظ | 594 |
<unk> | 7 | 0 | آن رایحهی زلف است یا لخلخهی عنبر؟ | حافظ | 594 |
<unk> | 8 | 1 | یا غالیه میساید در باغچه حسن او؟ | حافظ | 594 |
<unk> | 9 | 0 | گفتی سخن خود رابا یار بباید گفت | حافظ | 594 |
<unk> | 10 | 1 | ای کاش توانستی گفتن سخنی با او | حافظ | 594 |
<unk> | 11 | 0 | بدگوی تو آن باشد کز یار کند منعت | حافظ | 594 |
<unk> | 12 | 1 | گر یار نکو باشد مشنو سخن بدگو | حافظ | 594 |
<unk> | 13 | 0 | با ما به این میباش تا راز نگردد فاش | حافظ | 594 |
<unk> | 14 | 1 | نبود بد اگر باشی با دلشدگان نیکو | حافظ | 594 |
<unk> | 15 | 0 | استاد سخن سعدیست پیش همه کس اما | حافظ | 594 |
<unk> | 16 | 1 | دارد سخن حافظ طرز سخن خواجو | حافظ | 594 |
<unk> | 1 | 0 | ای از فروغ رویت روشن چراغ دیده | حافظ | 595 |
<unk> | 2 | 1 | خوشتر ز چشم مستت چشم جهان ندیده | حافظ | 595 |
<unk> | 3 | 0 | همچون تو نازنینی سر تا قدم لطافت | حافظ | 595 |
<unk> | 4 | 1 | گیتی نشان نداده ایزد نیافریده | حافظ | 595 |
<unk> | 5 | 0 | هر زاهدی که دیده یاقوت جان فزایش | حافظ | 595 |
<unk> | 6 | 1 | سجاده ترک کرده پیمانه در کشیده | حافظ | 595 |
<unk> | 7 | 0 | بر چهره بخت نیکت تعویذ چشم زخم است | حافظ | 595 |
<unk> | 8 | 1 | هر دم و ان یکادی ز اخلاص بردمیده | حافظ | 595 |
<unk> | 9 | 0 | بر قصد خون عشاق ابرو و چشم شوخش | حافظ | 595 |
<unk> | 10 | 1 | گاه این کمین گشاده گاه آن کمان کشیده | حافظ | 595 |
<unk> | 11 | 0 | تا کی کبوتر دل باشد چو مرغ بسمل | حافظ | 595 |
<unk> | 12 | 1 | از زخم ناوک تو در خاک و خون تپیده | حافظ | 595 |
<unk> | 13 | 0 | از سوز سینه هر دم دودم به سر درآید | حافظ | 595 |
<unk> | 14 | 1 | چون عود چند باشم در آتش رمیده | حافظ | 595 |
<unk> | 15 | 0 | گر زآنک رام گردد بخت رمیده با من | حافظ | 595 |
<unk> | 16 | 1 | هم زان دهن برآرم کام دل رمیده | حافظ | 595 |
<unk> | 17 | 0 | میلی اگر ندارد با عارض تو ابرو | حافظ | 595 |
<unk> | 18 | 1 | پیوسته از چه باشد چون قد من خمیده | حافظ | 595 |
<unk> | 19 | 0 | گر بر لبم نهی لب یابم حیات باقی | حافظ | 595 |
<unk> | 20 | 1 | آن دم که جان شیرین باشد به لب رسیده | حافظ | 595 |
<unk> | 21 | 0 | تا کی فرو گذاری چون زلف خود دلم را | حافظ | 595 |
<unk> | 22 | 1 | سرگشته و پریشان ای نور هر دودیده | حافظ | 595 |
<unk> | 23 | 0 | در پای خار هجران افتاده در کشاکش | حافظ | 595 |
<unk> | 24 | 1 | وز گلبن وصالت هرگز گلی نچیده | حافظ | 595 |
<unk> | 25 | 0 | گر دست من نگیری با خواجه بازگویم | حافظ | 595 |
<unk> | 26 | 1 | کز عاشقان بیدل دل می برد دو دیده | حافظ | 595 |
<unk> | 27 | 0 | ما را بضاعت این است گر در مذاقت افتد | حافظ | 595 |
<unk> | 28 | 1 | درهای شعر حافظ بنویس بر جریده | حافظ | 595 |
<unk> | 1 | 0 | مطرب خوش نوا بگو تازه به تازه نو به نو | حافظ | 597 |
<unk> | 2 | 1 | باده دلگشا بجو تازه به تازه نو به نو | حافظ | 597 |
<unk> | 3 | 0 | با صنمی چو لعبتی خوش بنشین به خلوتی | حافظ | 597 |
<unk> | 4 | 1 | بوسه ستان به آرزو تازه به تازه نو به نو | حافظ | 597 |
<unk> | 5 | 0 | بر ز حیات کی خوری گر نه مدام می خوری | حافظ | 597 |
<unk> | 6 | 1 | باده بخور به یاد او تازه به تازه نو به نو | حافظ | 597 |
<unk> | 7 | 0 | شاهد دلربای من می کند از برای من | حافظ | 597 |
<unk> | 8 | 1 | نقش و نگار و رنگ و بو تازه به تازه نو به نو | حافظ | 597 |
<unk> | 9 | 0 | باد صبا چو بگذری بر سر کوی آن پری | حافظ | 597 |
<unk> | 10 | 1 | قصه حافظش بگو تازه به تازه نو به نو | حافظ | 597 |
<unk> | 1 | 0 | گر زلف پریشانت در دست صبا افتد | حافظ | 598 |
<unk> | 2 | 1 | هرجا که دلی باشد در دام بلا افتد | حافظ | 598 |
<unk> | 3 | 0 | ماکشتی صبرخود دربحرغم افکندیم | حافظ | 598 |
<unk> | 4 | 1 | تاآخر از این طوفان هر تخته کجا افتد | حافظ | 598 |
<unk> | 5 | 0 | هرکس به تمنائی فال ازرخ او گیرند | حافظ | 598 |
<unk> | 6 | 1 | بر تخته فیمروزی تا قرعه کرا افتد | حافظ | 598 |
<unk> | 7 | 0 | گرزلف سیاهت رامن مشک ختاگفتم | حافظ | 598 |
<unk> | 8 | 1 | در تاب مشو جانا در گفته خطا افتد | حافظ | 598 |
<unk> | 9 | 0 | آخرچه زیان افتد سلطان ممالک را | حافظ | 598 |
<unk> | 10 | 1 | کو را نظری روزی بر حال گدا افتد | حافظ | 598 |
<unk> | 11 | 0 | آن باده که دلهارااز غم دهد آزادی | حافظ | 598 |
<unk> | 12 | 1 | پرخون جگر گردد چون دور بما افتد | حافظ | 598 |
<unk> | 13 | 0 | احوال دل حافظ از دست غم هجران | حافظ | 598 |
<unk> | 14 | 1 | چون عاشق سرگردان کزدوست جداافتد | حافظ | 598 |
<unk> | 1 | 0 | ببین هلال محرم بخواه ساغر راح | حافظ | 599 |
<unk> | 2 | 1 | که ماه امن و امان است و سال صلح و صلاح | حافظ | 599 |
<unk> | 3 | 0 | نزاع بر سر دنیای دون گدا نکند | حافظ | 599 |
<unk> | 4 | 1 | به پادشه بنه ای نور دیده کوی فلاح | حافظ | 599 |
<unk> | 5 | 0 | عزیز دار زمان وصال را کان دم | حافظ | 599 |
<unk> | 6 | 1 | مقابل شب قدر است و روز استفتاح | حافظ | 599 |