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599
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---|---|---|---|---|---|
غزل | 1 | 0 | تو مگر بر لب آبی به هوس بنشینی | حافظ | 563 |
غزل | 2 | 1 | ور نه هر فتنه که بینی همه از خود بینی | حافظ | 563 |
غزل | 3 | 0 | به خدایی که تویی بنده بگزیده او | حافظ | 563 |
غزل | 4 | 1 | که بر این چاکر دیرینه کسی نگزینی | حافظ | 563 |
غزل | 5 | 0 | گر امانت به سلامت ببرم باکی نیست | حافظ | 563 |
غزل | 6 | 1 | بی دلی سهل بود گر نبود بیدینی | حافظ | 563 |
غزل | 7 | 0 | ادب و شرم تو را خسرو مه رویان کرد | حافظ | 563 |
غزل | 8 | 1 | آفرین بر تو که شایسته صد چندینی | حافظ | 563 |
غزل | 9 | 0 | عجب از لطف تو ای گل که نشستی با خار | حافظ | 563 |
غزل | 10 | 1 | ظاهرا مصلحت وقت در آن میبینی | حافظ | 563 |
غزل | 11 | 0 | صبر بر جور رقیبت چه کنم گر نکنم | حافظ | 563 |
غزل | 12 | 1 | عاشقان را نبود چاره به جز مسکینی | حافظ | 563 |
غزل | 13 | 0 | باد صبحی به هوایت ز گلستان برخاست | حافظ | 563 |
غزل | 14 | 1 | که تو خوشتر ز گل و تازهتر از نسرینی | حافظ | 563 |
غزل | 15 | 0 | شیشه بازی سرشکم نگری از چپ و راست | حافظ | 563 |
غزل | 16 | 1 | گر بر این منظر بینش نفسی بنشینی | حافظ | 563 |
غزل | 17 | 0 | سخنی بیغرض از بنده مخلص بشنو | حافظ | 563 |
غزل | 18 | 1 | ای که منظور بزرگان حقیقت بینی | حافظ | 563 |
غزل | 19 | 0 | نازنینی چو تو پاکیزه دل و پاک نهاد | حافظ | 563 |
غزل | 20 | 1 | بهتر آن است که با مردم بد ننشینی | حافظ | 563 |
غزل | 21 | 0 | سیل این اشک روان صبر و دل حافظ برد | حافظ | 563 |
غزل | 22 | 1 | بلغ الطاقه یا مقله عینی بینی | حافظ | 563 |
غزل | 23 | 0 | تو بدین نازکی و سرکشی ای شمع چگل | حافظ | 563 |
غزل | 24 | 1 | لایق بندگی خواجه جلال الدینی | حافظ | 563 |
غزل | 1 | 0 | ساقیا سایه ابر است و بهار و لب جوی | حافظ | 564 |
غزل | 2 | 1 | من نگویم چه کن ار اهل دلی خود تو بگوی | حافظ | 564 |
غزل | 3 | 0 | بوی یک رنگی از این نقش نمیآید خیز | حافظ | 564 |
غزل | 4 | 1 | دلق آلوده صوفی به می ناب بشوی | حافظ | 564 |
غزل | 5 | 0 | سفله طبع است جهان بر کرمش تکیه مکن | حافظ | 564 |
غزل | 6 | 1 | ای جهان دیده ثبات قدم از سفله مجوی | حافظ | 564 |
غزل | 7 | 0 | دو نصیحت کنمت بشنو و صد گنج ببر | حافظ | 564 |
غزل | 8 | 1 | از در عیش درآ و به ره عیب مپوی | حافظ | 564 |
غزل | 9 | 0 | شکر آن را که دگربار رسیدی به بهار | حافظ | 564 |
غزل | 10 | 1 | بیخ نیکی بنشان و ره تحقیق بجوی | حافظ | 564 |
غزل | 11 | 0 | روی جانان طلبی آینه را قابل ساز | حافظ | 564 |
غزل | 12 | 1 | ور نه هرگز گل و نسرین ندمد ز آهن و روی | حافظ | 564 |
غزل | 13 | 0 | گوش بگشای که بلبل به فغان میگوید | حافظ | 564 |
غزل | 14 | 1 | خواجه تقصیر مفرما گل توفیق ببوی | حافظ | 564 |
غزل | 15 | 0 | گفتی از حافظ ما بوی ریا میآید | حافظ | 564 |
غزل | 16 | 1 | آفرین بر نفست باد که خوش بردی بوی | حافظ | 564 |
غزل | 1 | 0 | بلبل ز شاخ سرو به گلبانگ پهلوی | حافظ | 565 |
غزل | 2 | 1 | میخواند دوش درس مقامات معنوی | حافظ | 565 |
غزل | 3 | 0 | یعنی بیا که آتش موسی نمود گل | حافظ | 565 |
غزل | 4 | 1 | تا از درخت نکته توحید بشنوی | حافظ | 565 |
غزل | 5 | 0 | مرغان باغ قافیه سنجند و بذله گوی | حافظ | 565 |
غزل | 6 | 1 | تا خواجه می خورد به غزلهای پهلوی | حافظ | 565 |
غزل | 7 | 0 | جمشید جز حکایت جام از جهان نبرد | حافظ | 565 |
غزل | 8 | 1 | زنهار دل مبند بر اسباب دنیوی | حافظ | 565 |
غزل | 9 | 0 | این قصه عجب شنو از بخت واژگون | حافظ | 565 |
غزل | 10 | 1 | ما را بکشت یار به انفاس عیسوی | حافظ | 565 |
غزل | 11 | 0 | خوش وقت بوریا و گدایی و خواب امن | حافظ | 565 |
غزل | 12 | 1 | کاین عیش نیست درخور اورنگ خسروی | حافظ | 565 |
غزل | 13 | 0 | چشمت به غمزه خانه مردم خراب کرد | حافظ | 565 |
غزل | 14 | 1 | مخموریت مباد که خوش مست میروی | حافظ | 565 |
غزل | 15 | 0 | دهقان سالخورده چه خوش گفت با پسر | حافظ | 565 |
غزل | 16 | 1 | کای نور چشم من به جز از کشته ندروی | حافظ | 565 |
غزل | 17 | 0 | ساقی مگر وظیفه حافظ زیاده داد | حافظ | 565 |
غزل | 18 | 1 | کاشفته گشت طره دستار مولوی | حافظ | 565 |
غزل | 1 | 0 | ای بیخبر بکوش که صاحب خبر شوی | حافظ | 566 |
غزل | 2 | 1 | تا راهرو نباشی کی راهبر شوی | حافظ | 566 |
غزل | 3 | 0 | در مکتب حقایق پیش ادیب عشق | حافظ | 566 |
غزل | 4 | 1 | هان ای پسر بکوش که روزی پدر شوی | حافظ | 566 |
غزل | 5 | 0 | دست از مس وجود چو مردان ره بشوی | حافظ | 566 |
غزل | 6 | 1 | تا کیمیای عشق بیابی و زر شوی | حافظ | 566 |
غزل | 7 | 0 | خواب و خورت ز مرتبه خویش دور کرد | حافظ | 566 |
غزل | 8 | 1 | آن گه رسی به خویش که بی خواب و خور شوی | حافظ | 566 |
غزل | 9 | 0 | گر نور عشق حق به دل و جانت اوفتد | حافظ | 566 |
غزل | 10 | 1 | بالله کز آفتاب فلک خوبتر شوی | حافظ | 566 |
غزل | 11 | 0 | یک دم غریق بحر خدا شو گمان مبر | حافظ | 566 |
غزل | 12 | 1 | کز آب هفت بحر به یک موی تر شوی | حافظ | 566 |
غزل | 13 | 0 | از پای تا سرت همه نور خدا شود | حافظ | 566 |
غزل | 14 | 1 | در راه ذوالجلال چو بی پا و سر شوی | حافظ | 566 |
غزل | 15 | 0 | وجه خدا اگر شودت منظر نظر | حافظ | 566 |
غزل | 16 | 1 | زین پس شکی نماند که صاحب نظر شوی | حافظ | 566 |
غزل | 17 | 0 | بنیاد هستی تو چو زیر و زبر شود | حافظ | 566 |
غزل | 18 | 1 | در دل مدار هیچ که زیر و زبر شوی | حافظ | 566 |
غزل | 19 | 0 | گر در سرت هوای وصال است حافظا | حافظ | 566 |
غزل | 20 | 1 | باید که خاک درگه اهل هنر شوی | حافظ | 566 |
غزل | 1 | 0 | سحرم هاتف میخانه به دولتخواهی | حافظ | 567 |
غزل | 2 | 1 | گفت بازآی که دیرینه این درگاهی | حافظ | 567 |
غزل | 3 | 0 | همچو جم جرعه ما کش که ز سر دو جهان | حافظ | 567 |
غزل | 4 | 1 | پرتو جام جهان بین دهدت آگاهی | حافظ | 567 |
غزل | 5 | 0 | بر در میکده رندان قلندر باشند | حافظ | 567 |
غزل | 6 | 1 | که ستانند و دهند افسر شاهنشاهی | حافظ | 567 |
غزل | 7 | 0 | خشت زیر سر و بر تارک هفت اختر پای | حافظ | 567 |
غزل | 8 | 1 | دست قدرت نگر و منصب صاحب جاهی | حافظ | 567 |
غزل | 9 | 0 | سر ما و در میخانه که طرف بامش | حافظ | 567 |
غزل | 10 | 1 | به فلک بر شد و دیوار بدین کوتاهی | حافظ | 567 |
غزل | 11 | 0 | قطع این مرحله بی همرهی خضر مکن | حافظ | 567 |
غزل | 12 | 1 | ظلمات است بترس از خطر گمراهی | حافظ | 567 |
غزل | 13 | 0 | اگرت سلطنت فقر ببخشند ای دل | حافظ | 567 |
غزل | 14 | 1 | کمترین ملک تو از ماه بود تا ماهی | حافظ | 567 |
غزل | 15 | 0 | تو دم فقر ندانی زدن از دست مده | حافظ | 567 |
غزل | 16 | 1 | مسند خواجگی و مجلس تورانشاهی | حافظ | 567 |
غزل | 17 | 0 | حافظ خام طمع شرمی از این قصه بدار | حافظ | 567 |
غزل | 18 | 1 | عملت چیست که فردوس برین میخواهی | حافظ | 567 |
غزل | 1 | 0 | در همه دیر مغان نیست چو من شیدایی | حافظ | 569 |
غزل | 2 | 1 | خرقه جایی گرو باده و دفتر جایی | حافظ | 569 |
غزل | 3 | 0 | دل که آیینه شاهیست غباری دارد | حافظ | 569 |
غزل | 4 | 1 | از خدا میطلبم صحبت روشن رایی | حافظ | 569 |